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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 22 मई 2021 हरे कृष्ण!!! इस कॉन्फ्रेंस में जप करने वालों की संख्या में भी वर्धन अथवा वृद्धि हो रही है। स्वागत है। हरि! हरि! हमारे साथ मंगोलिया के भक्त भी जप कर रहे हैं। निश्चित ही अब वे भारतीय हैं। हमारे साथ कई देशों से भक्त जप कर रहे हैं, आप सब का स्वागत है। वैसे देश इत्यादि का कोई भेद नहीं है। सभी अपने ही है, सभी भारतवासी हैं। एक समय भारत पूरी पृथ्वी पर फैला हुआ था और आज भी है, उसके कुछ अवशेष सर्वत्र पृथ्वी पर अब भी पाए जाते हैं। जिसे सिद्ध कर सकते हैं कि यह भारतवर्ष जो अब की इंडिया है अर्थात अब का जो भारत है अथवा भारत का जो नक्शा है, वह ऐसे सीमित नहीं था। पूरी पृथ्वी पर राजा परीक्षित या युधिष्ठिर महाराज राज करते थे। हरि! हरि! हमारा इस प्रकार कुटुम्ब है। वसुधैव कुटुम्बकम्। आप वसुधैव कुटुम्बकम् मानते हो? आप नहीं ! मैं एक बार श्रील प्रभुपाद का मुम्बई रूम कन्वरसेशन प्रवचन सुन रहा था, एक बार श्रील प्रभुपाद से किसी ने पूछा कि क्या आप वसुधैव कुटुम्बकम् मानते हो? श्रील प्रभुपाद ने कहा- हां! हम मानते तो हैं, लेकिन दुनिया नहीं जानती। वैसे प्रभुपाद ने कुछ दूसरे शब्दों में कहा था। कहने का आशय यह था कि कुटुंब तो ठीक है, वसुधैव कुटुम्बकम्। कुटुंब मतलब परिवार, हमारा परिवार कितना बड़ा है। वसुधैव यानि पृथ्वी पर जितने लोग हैं, वे हमारे कुटुंब अथवा हमारे परिवार के हैं। कुटुंब तो ठीक है, हम सभी कहते रहते हैं वसुधैव कुटुम्बकम् लेकिन इस परिवार के मुखिया के बारे में क्या कहना है अर्थात इस परिवार के मुखिया कौन हैं? वह भगवान श्रीकृष्ण हैं। वसुधैव कुटुंबकम का कुछ मतलब निकलता है, अथवा यह बात अर्थपूर्ण होगी। अगर हम कृष्ण को जानते अथवा मानते हैं। कृष्ण केंद्र बिंदु हैं, कृष्ण लीडर (नेता) हैं अर्थात कृष्ण नेतृत्व करते हैं। भगवान् कहते हैं कि वे हम सभी के बीज प्रदान करने वाले पिता हैं। सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। ( श्रीमद् भगवतगीता १४.४) अनुवाद:हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव है और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ । जब कृष्ण को स्वीकार करेंगे, तब फिर वसुधैव कुटुम्बकम् होगा। फिर कोई अपना पराया नहीं रह जाता। सभी अपने ही हैं। अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। अर्थात् : यह मेरा है, यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है, इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है। यह मैं तू, मैं तू या अयं निजः परो वेति की बात नहीं रह जाती। ये मेरे हैं, यह अपने हैं। परो अथवा यह पराए हैं। तब परो वेति यह बात नहीं रह जाती। यह सभी अपने ही हैं। ये अपने ही भगवान के हैं, अपने ही कृष्ण के हैं। उसी भावना का नाम कृष्णभावना है। व्यक्ति जब कृष्णभावना भावित हो जाता है, तत्पश्चात यह वसुधैव कुटुम्बकम् जो परिकल्पना अथवा संकल्पना है, अर्थात हमारी संस्कृति का यह एक वचन अथवा जो वाक्य है, वह सिद्ध होता अथवा उसका साक्षात्कार होता है। हम इस प्रकार कृष्णभावना भावित होंगे। सभी हमारे ही हैं। कोई मित्र, कोई शत्रु नहीं है। हरि! हरि! ईस्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।प्रेममैत्रीकृषोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 11.2.46) अनुवाद:- द्वितीय कोटि का भक्त, जो मध्यम अधिकारी कहलाता है, भगवान् को अपना प्रेम अर्पित करता है, वह भगवान् के समस्त भक्तों का निष्ठावान मित्र होता है, वह अज्ञानी व्यक्तियों पर दया करता है जो अबोध है और उनकी उपेक्षा करता है, जो भगवान् से द्वेष रखते हैं। तत्पश्चात हम भगवान् से प्रेम करेंगे। सभी जीवों से हमारा मैत्रीपूर्ण व्यवहार होगा। संसार का जो द्वंद है, वह समाप्त होगा। अपना पराया यह भी द्वंद है, शत्रु मित्र यह भी द्वंद है, देशी विदेशी यह भी द्वंद है, काले गोरे यह द्वंद है, स्त्री- पुरुष यह भी बहुत बड़ा द्वंद है। यह संसार द्वंदो से भरा हुआ है और हम लोग द्वंदो द्वारा पीसे जा रहे हैं। यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || ( श्रीमद् भगवतगीता ४.२२) अनुवाद: जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं। हम जब कृष्णभावना भावित होंगे, तब सारे संसार के लोग हमारे परिवार के हैं, सारे संसार के लोगों को मिलाकर एक कुटुंब बनता है, हम इस बात को स्वीकार करेंगे और द्वंद्व से परे पहुंच जाएंगे। द्वन्द्वातीतो विमत्सरः द्वंद्व से अतीत व मात्सर्य से रहित बनेंगे। मानव जाति अर्थात एक एक मनुष्य का जो एक शत्रु मात्सर्य है, मात्सर्य परा अन्य उत्कर्ष असहनीयं ( श्रीधर स्वामी) उससे औरों का उत्कर्ष सहन नहीं होता। अन्यों की प्रगति और विकास, औरों की उन्नति असहनीय है। इसी को मात्सर्य कहते हैं। कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति जब कृष्णभावना भावित होगा, वह द्वन्द्वातीतो विमत्सरः अर्थात मात्सर्य से रहित होगा। यह लाभ ही लाभ है। पूरा संसार, पूरा ब्रह्मांड (कम् से कम् पृथ्वी की बात तो कर ही सकते है) सारी पृथ्वी माता लाभान्वित होगी। पृथ्वी पर जितने भी मनुष्य हैं, लगभग 700 करोड़ , हम सभी लाभांवित होंगे। तब हमारा एक परिवार होगा। इसके टुकड़े नहीं होंगे। जैसे हमने उसके टुकड़े किए हैं। ५००० वर्ष पूर्व या उससे पहले इस पृथ्वी पर भारतवर्ष था। तब सम्राट हुआ करते थे। राजाओं के राजा को सम्राट कहते हैं अर्थात कई सारे राजाओं को मिलाकर एक सम्राट होता था। उनके एंपायर चलते रहते थे। युधिष्ठिर महाराज या परीक्षित महाराज या उससे पूर्व भी कई सारे महाराज हुए थे। विशेषकर महाभारत काल का जो समय है, (लगता है कि मैं यही बाते कहता रहूंगा अभी, मैंने अगला शिक्षाष्टक बताने के विषय में सोचा तो था) हरि! हरि! कलि आ धमका, उसने सारे संसार अथवा पृथ्वी के टुकड़े कर उसको बांट लिया जैसे पैतृक संपत्ति को बच्चे बांटते हैं। बच्चे जब छोटे होते हैं, सब मिल जुल कर रहते हैं लेकिन फिर बड़े हो जाते हैं, शादीशुदा हो जाते हैं तब यह सब विभाजन का विचार आ जाता है। मात्सर्य भी होता है, प्रतियोगिता भी चलती है। इसलिए सारी संपत्ति, धन दौलत के टुकड़े अथवा विभाजन होता है। तत्पश्चात उसके लिए लड़ाई होती है। होती है या नहीं आप जानते हो?? उड़ीसा में होती है? मोरिशियस में होती है? मोरिशियस भी तो दुनिया में है। सभी देशों में होती है। हरि! हरि! वैसा ही हुआ। कलियुग अर्थात कलि के साथ धीरे-धीरे विभाजन प्रारंभ हुआ। एक के अनेक देश बन गए। भारतवर्ष अथवा भारतदेश था। उसके छोटे मोटे मिलकर कुछ 200 से अधिक ही कहते हैं, देश बन गए। जैसे आप न्यूयॉर्क में जाओगे। प्रभुपाद कमेंट ( टिप्पणी) किया करते थे - न्यूयॉर्क में यूएनओ अर्थात यूनाइटेड नेशंस आफ ऑर्गेनाइजेशन (संयुक्त राष्ट्र संघ) है। वहां पर जो संयुक्त राष्ट्र संघ की जो इमारत है, वहां सभी देशों के झंडे हैं। वहां सभी देशों ने अपना अपना झंडा लहराया हुआ है। आप उन्हें गिन सकते हो कि कितने देश हैं। वह लगभग 200 के आस पास होंगे। उसका नाम यूएनओ (यूनाइटेड नेशन आर्गेनाईजेशन) है लेकिन प्रभुपाद कहा करते थे कि किस तरह का यूनाइटेड (संगठन) है यह डिस यूनाइटेड नेशन (असंगठित देश) है। पहले एक समय यह यूनाइटेड (संगठित) था, अब यह डिस यूनाइटेड अर्थात असंगठित है। तब भी आप कह रहे हो, यूनाइटेड नेशन। श्रील प्रभुपाद किसी पब्लिक उत्सव अथवा पंडाल प्रोग्राम में कहा करते थे, उन प्रोग्रामों में कई देशों के भक्त रहा करते थे। हमने भी देखा प्रभुपाद मुम्बई व अन्य कई स्थानों पर भक्तों की ओर इशारा करते हुए कहते थे कि यह भक्त जापान से हैं और यह भक्त अफ्रीका से हैं, काडाकूट निग्रो है। (आप काडाकूट निग्रो ) समझते हो? यह जर्मन है, यह इंग्लिश मैन है। यह अमेरिकन, यह कैंडियान, यह ऑस्ट्रेलियन.. प्रभुपाद कहा करते थे कि यह यूनाइटेड नेशन है। अंडर द बैनर ऑफ़ गौरांगा। गौरांगा! गौरांगा! कौन सा झंडा लहरा रहा है? गौरांग महाप्रभु का झंडा लहरा रहा है। चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥ ( श्री श्री शिक्षाष्टकम) अर्थ:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। प्रभुपाद इसे यूनाइटेड नेशन ऑफ द स्पिरिचुअल वर्ल्ड कहा करते थे। हरि! हरि! यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || २२ || (श्रीमद् भगवतगीता ४.२२) अनुवाद: जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं। यह जो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः है, जहां पर भगवान् ने द्वन्द्वातीतो विमत्सरः कहा, वहां पर भगवान् ने यदृच्छालाभसंतुष्टो कहा है।यदृच्छा अर्थात उनकी इच्छा से जो भी प्राप्त होता है अथवा है, लाभ हुआ है, शुभ लाभ हुआ है, उसमें संतुष्ट रहो। यह मात्सर्य छोड़ो। श्री भगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || ( श्रीमद् भगवतगीता- ३.३७) अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है। यह काम व क्रोध भी छोड़ना होगा। जब तक काम है, महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् है। यह काम कैसा है? इस काम को जितना खिलाओ पिलाओ, इसकी भूख प्यास बढ़ जाती है। यह कामवासना कभी तृप्त होने वाली नहीं है। इसको नॉट करो। भगवान् ने गीता के तृतीय अध्याय के अंत में अथवा अर्जुन के उस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा। अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ( श्रीमद् भगवतगीता ३.३६) अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो | यह चर्चा आगे बढ़ ही रही है, अर्जुन ने कहा था कि यह कौन है? यह क्या है? शक्ति या व्यक्ति कौन है? अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ( श्रीभगवत् गीता ३.३६) अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो | किसके द्वारा पापं चरति पुरुषः हम पाप करते ही रहते हैं। अर्जुन आगे पूछते हैं- यह क्यों होता है? कौन करता है? कौन करवाता है? अर्जुन आगे कहते हैं अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय - इच्छा नहीं होते हुए भी। जैसे यह जानते हैं कि यह शराब खराब है। यह है, वह है। यह मना है। यह यम है। अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः बहाचर्य तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्थनम् ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 3.28.4) अर्थ:- मनुष्य को चाहिए कि अहिंसा तथा सत्य का आचरण करे, चोरी से बचे और अपने निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करे। वह विषयी जीवन से बचे, तपस्या करे, स्वच्छ रहे, वेदों का अध्ययन करे और भगवान परमस्वरूप की पूजा करे । यह यम है। इस यम के राजा यमराज हैं। यह जो यम है, उसका उल्लंघन किया। उसका उल्लंघन किया, तो राजा तैयार है। यह जानते हुए भी अनिच्छन्नपि इच्छा नहीं होते हुए भी पापं चरति अर्थात चरता हैं। जैसे गाए चरती हैं, पशु चरते हैं। वह घास खाती है। मनुष्य क्या करते हैं? पापं चरति। पाप खाते हैं। इस शब्द को नोट करो। पाप चरते ही रहते हैं। पशु जैसे चरते ही रहते हैं। मनुष्य भी पापी जन चरते ही रहते हैं। ऐसा क्यों होता है? यह कौन करवाता है? ऐसा प्रश्न जब अर्जुन ने पूछा है तब उसके उत्तर में कृष्ण कहते हैं- गीता के तृतीय अध्याय के अंत में अर्जुन ने प्रश्न पूछा है, आप इस भाग को पढ़िए। अथ केन प्रयुक्तोऽयं - भगवान् ने तृतीय अध्याय के अंत तक उसका उत्तर दिया है। वैसे यह पूर्ण प्रश्न है, पूर्ण उत्तर है। अर्जुन का एकदम परफेक्ट क्वेश्चन है व भगवान् का एकदम परफेक्ट आंसर है। हमें इस प्रश्नोत्तर को भी समझना चाहिए। प्रश्न को भी समझना चाहिए तत्पश्चात हमें उत्तर को भी समझना चाहिए। गीता के तृतीय अध्याय के अंत में भगवान् कहते हैं श्री भगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।। ( श्रीमद् भगवतगीता 3.37) अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है। भगवान् कहते हैं कि तुमने पूछा पूछा ना, हमसे पाप कौन करवाता है? अनिच्छन्नपि- अर्थात इच्छा ना होते हुए भी। काम एष क्रोध एष इन दो के नाम लिए। वैसे छह के नाम लेने चाहिए थे। लेकिन दो के नाम लेकर फिर इत्यादि आ जाता है। यह तुम्हारे षड् रिपु अर्थात शत्रु हैं और उसका मुखिया है मिस्टर लस्ट। प्रभुपाद कभी कभी कहा करते थे- यह जो काम है, इस काम का जो अनुज (बाद में जन्म लेने वाला) है। ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते | सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ( श्रीमद् भगवतगीता २.६२) अनुवाद: इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है। काम से क्रोध या काम के बाद क्रोध जन्म लेता है अथवा उत्पन्न होता है। उसी वचन में काम एष क्रोध एष अर्थात इस काम का आगे परिचय देते हुए कृष्ण कहते हैं श्री भगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है | महाशनो महापाप्मा, यह खिलाने पिलाने की बात है। यह जो काम है इसका पेट कभी भरने वाला नहीं है। वह कभी संतुष्ट होने वाला नहीं है। जितना भी खिलाओ, काम वासना की पूर्ति का प्रयास करो और मांगेगा और मांगेगा। इसलिए उदाहरण दिया ही जाता है - अग्नि जल रही है तो ऊपर से हम घी या तेल या पेट्रोल उसमें डालते रहेंगे। क्या ऐसी अग्नि को बुझा सकते हो? आग जल रही है और हम उस अग्नि को खिला रहे हैं, तेल और लकड़ी आदि डाल रहे हैं। यह सही तरीका नहीं है। यह आग तो धधकती रहेगी। यह अग्नि महा ज्वाला अथवा ज्वालामुखी बनेगी। अग्नि की जो शिखाएं होती हैं। वे गगनचुंबी शिखाएं गगन को छूने लगेगी। ऐसा प्रलय विनाश के समय होता है। काम एष क्रोध एष। कृष्ण ने कहा है- यदृच्छालाभसंतुष्टो जो भी प्राप्त हुआ है। तुम्हारी जितनी भी जरूरत है और जो प्राप्त हुआ, वही प्राप्त करो। वो भी तुम्हारी जरूरत है, उसमें ही संतुष्ट रहो। यदृच्छालाभसंतुष्टो या जैसा ईशोपनिषद में कहा है- ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्। (ईशोपनिषद मन्त्र१) अर्थ:- इस ब्रह्मांड के भीतर की प्रत्येक जड़ और चेतन वस्तु भगवान द्वारा नियंत्रित है और उन्हीं की संपत्ति है। अतः मनुष्य को चाहिए कि अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करे जो उसके लिए आवश्यक है और जो उसके भाग के रूप में नियत कर दी गई है। मनुष्य को यह भली-भांति जानते हुए कि अन्य वस्तुएं किसकी है, उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए। तेन त्यक्तेन भगवान ने हर जीव के लिए कोटा बनाया है। चींटी के लिए इतना, हाथी के लिए इतना, मनुष्य के लिए इतना। इस मनुष्य के लिए इतना, उस मनुष्य के लिए उतना। उसी से संतुष्ट हो जाओ। ऐसे संतुष्ट होने से हम कृष्ण भावना भावित होंगे। यह विचार भी आदेश- उपदेश भी कृष्ण का है। हम उसको समझेंगे। उस पर हम अमल करेंगे तब हम कृष्ण भावना भावित होंगे। हरि! हरि! 5000 वर्ष पूर्व, राजा परीक्षित के बारे में आप जानते हो, उन्होंने कलि को ऐसे माफ किया। उसको चार स्थान दिये (आप जानते हो कौन से चार) सूत उवाच अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ । द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः॥ ( श्रीमद् भागवतम् 1.17.38) अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा : कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी, जहाँ जुआ खेलना , शराब पीना, वेश्यावृत्ति तथा पशु - वध होते हों। जहां मांस भक्षण होता है, वहां रहो। जहां अवैध स्त्री सङ्ग होता है, वहां रहो। जहां जुआ खेला जाता है, अथवा झूठ व असत्य वचन बोले जाते हैं, या ऐसे कार्य होते है। जहां नशापान होता है पांचवा भी स्थान दिया, पांचवा स्थान धन है। उसमें ब्लैक मनी है। काला बाजार व काला धन। वहां भी कलि रहेगा, सम्पति में कलि रहेगा। यदृच्छालाभसंतुष्टो जितनी आवश्यकता है या जितना भगवान् ने दिया है, उससे अधिक चाहिए और चाहिए और चाहिए। चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः |कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्र्चिताः || आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः | ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् || ( श्रीमद् भगवत गीता १६.११-१२) अनुवाद: उनका विश्र्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है | इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है | वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं | यह कलयुग का लक्षण है। अन्यायेनार्थसञ्चयान्। अर्थ की प्राप्ति। अर्थ को येन केन प्राकरेण । इस प्रकार सारा संसार, सारी मानव जाति, सारे देश प्रतियोगिता में लगे हुए हैं। कौन बनेगा करोड़पति? कौन बनेगा नंबर वन, सबसे धनी व्यक्ति इस संसार में कौन है। मैं नम्बर वन (एक ) में चल रहा था लेकिन अब मैं नंबर दो में आ गया। मैं दुबारा नम्बर वन कैसे बन सकता हूँ। व्यक्तिगत व्यक्ति है, देश है, ये सुपर पावर है। सुपर पावर मतलब सारी इकोनॉमिक डेवलोपमेन्ट के आधार पर सुपर पावर है। जिसके पास अधिक आर्मी है, यह भी संपत्ति है। लोग उसी को संपत्ति मानते हैं या जिसके पास अधिक बम या मिसाइल है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस। चाइना के पास लाठी है या लाठी दिखा रहा है, अमेरिका भी दिखा रहा है कि मेरे पास भी है मेरी लाठी देखो। मेरी लड़की बड़ी है। अब हम थोड़ा इकट्ठे हो जाते हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडिया, जापान। हम एक टीम बनाते हैं और चाइना को हमारी लाठी दिखाते हैं। इस तरह से चलता है। डिफरेंट कांबिनेशंस पेर्मिताशन्स ( क्रमचय और संचय ) इस प्रकार कलि का अपना सारा लीला या खेल चल रहा है । इतने सारे देशों को या इन देशों के मनुष्यों को कठपुतली बना कर नचा रहा है। एक दूसरे के साथ टकरा रहा है। हरि हरि। इसी के कारण वसुधैव कुटुम्बकम् कहा है ? विषय तो वह था। वसुधैव कुटुम्बकम् । पृथ्वी पर हम जो सारे लोग हैं, हम एक परिवार हैं। हिंदी चीनी भाई भाई हैं। हम सभी भाई भाई भाईबन्धुता की बात चल रही है पर जब तक पिता का ही पता नही। फिर हम कैसे भाई भाई हैं? यह भाई चारे की बात तो चलती ही रहती है। लेकिन पिता कौन है, उनको पहचानो फादर कृष्ण और राम है। कोई उनको अल्लाह नाम देता है, जेहोवा नाम देता है। ठीक है वो नाम दो। कृष्ण के विष्णु सहस्त्रनाम है और भी नाम हो गए जेहोवा एक और नाम है अल्लाह दूसरा नाम है। किन्तु नामी तो वही है। एक ही भगवान् का नाम ये भी नाम है लेकिन व्यक्ति तो एक है। हे अल्लाह नाम देने से व्यक्ति अलग नहीं हो जाता, वे अलग भगवान् नहीं हुए। नाम अलग हुआ। वही व्यक्ति अथवा वही भगवान का। हरि! हरि! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। जब हम इस का जप करते हैं कीर्तन करते हैं, हम सभी के बीच में जो दूरी है, वह समाप्त हो जाती है। यदि हम सबके बीच में कोई दीवारें हैं, वह गिर जाती हैं। हमने कई सारी उपाधियों को अपनाया है। मैं थाईलैंड से हूं, मैं मारिशियस से हूं, मैं इंडियन हूं, मैं चाइनीस हूं, सर्वोपाधि - विनिर्मुक्त तत्परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश - सेवनं भक्तिरुच्यते ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत १९.१७०) अनुवाद : भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी , पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना । जब आत्मा भगवान की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं । मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं । ' इस तरह से कृष्ण भावना भावित होना और उसमें भी केवल हरेर्नामैव केवलम् ही संसार की समस्याओं का समाधान है। हरि! हरि ! कृष्णभावना भावित होना व औरों को कृष्ण भावना भावित बनाना इन उलझनों का सुलझन है। कृष्णवर्ण तविषाकृष्णम साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैजन्ति हि सुमेधसः ॥ ( श्रीमद्भागवतगम 11.5.32) अनुवाद: कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है । इस प्रकार जब हम एकत्र होकर या संकीर्तन करते हैं,जब हम एकत्र होकर जप करते हैं जप योग करते हैं, जप यज्ञ करते हैं। तब यह सारे गलत फहमियां, सारी उपाधियां काम, क्रोध ,लोभ ,मद, मोह, मात्सर्य समाप्त हो जाते हैं। यह शत्रु है परम विजयते मतलब काम क्रोध का पराजय। ऐसी प्रवर्ति का पराजय। कृष्ण की विजय व कृष्ण भक्तों की विजय, गीता के अंतिम वचन में भी कहा है यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः | तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ( श्रीमद् भगवतगीता १८.७८) अनुवाद: जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन है, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है | जहां कृष्ण और अर्जुन जैसी टीम है, वहां पर वैभव भी है, विजय भी है । विशेष शक्ति भी है। नीति नियम भी है। यहां चार बातों का उल्लेख किया है। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम। जहां कृष्ण और अर्जुन होते हैं, जहां भक्त और भगवान होते हैं, वहां वैभव, विजय भी है। विशेष शक्ति का प्रदर्शन भी होगा, नियमों का पालन भी वहां होता है । हम यहीं पर विराम देते हैं। हरे कृष्ण!

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