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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक ३.०४.२०२१ (जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द हरे कृष्ण! आज इस कॉन्फ्रेंस में ७३७ स्थानों से प्रतिभागी जप में सम्मिलित हैं। हरि! हरि! हम सब या कहा जाए कि मैं श्रील प्रभुपाद के साथ हुई प्रथम भेंट का उत्सव मना रहा हूँ। यह ५० वीं वर्षगांठ है। श्रील प्रभुपाद के साथ यह भेंट ५० वर्ष पूर्व बॉम्बे के क्रॉस मैदान में चल रहे उत्सव के दौरान हुई थी। हम इन दिनों से इस विषय में कभी अंग्रेजी और कभी हिंदी में चर्चा कर ही रहे हैं। हरि! हरि! एक दिन उस उत्सव के दौरान घोषणा हुई कि भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद ने रूस अर्थात मास्को की यात्रा करने का कार्यक्रम बनाया है। जब वहां उपस्थित लगभग १००००-२०००० भारतीय दर्शकों की भीड़ ने इस घोषणा को सुना कि एक भारतीय स्वामी कम्युनिस्ट देश रशिया की यात्रा करेंगे, उनके लिए यह आश्चर्यजनक खबर थी। इसका बहुत अधिक स्वागत भी हुआ, उन्होनें तालियां भी बजाई। मैं भी वहाँ उपस्थित दर्शकों में एक था। श्रील प्रभुपाद पहले ही भारत में आ चुके थे और वे अब बंबई में अपने अमेरिकी शिष्यों और यूरोपियन शिष्यों के साथ थे लेकिन उनके पास अभी तक कोई रूसी शिष्य नहीं था। वे अधिक से अधिक देशों में जाने की सोच रहे थे। इसलिए उन्होंने अपना अगला लक्ष्य रूस, मोस्को जाने का बनाया। पृथिवीते आछे यत् नगरादि ग्राम सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम ( चैतन्य भागवत) अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि दुनिया भर में हर शहर और गाँव में मेरे नाम का जप किया जाएगा। श्रील प्रभुपाद उनकी भविष्यवाणी को सच कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद सोच रहे थे और उन्होंने योजना भी बनाई थी कि अब कौन सा देश अवशेष है, ठीक है अब मैं वहां जाऊंगा। वे योजनाएं बना रहे थे। हरि! हरि! मैं सोच रहा हूं कि चैतन्य महाप्रभु ने एक भविष्यवाणी की थी कि इस पवित्र नाम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। दुनिया भर में एक हर शहर और हर गांव तक पहुंचेगा, इसका क्या अर्थ है? श्रील प्रभुपाद इसे अवश्य ले जाएंगे न केवल पवित्र नाम ही पहुचेंगा बल्कि भगवान् के पवित्र नाम के पहुंचने से पहले इतनी सारी चीज़ें शहर और गांवों तक पहुंचेगी और होगी। यह कृष्ण भावनामृत चेतना का संपूर्ण पैकेज है। किताबें भी उन जगहों पर पहुँचने वाली हैं और उपदेशक भी उन जगहों पर पहुँचने वाले हैं। किताबें ज़रूरी हैं, यहीं कृष्ण भावनामृत चेतना का दर्शन है। यह श्रील प्रभुपाद की योजना थी। यह हमारा फैमिली बिज़नेस अर्थात घरेलू व्यापार है और यह उनके आध्यात्मिक गुरु का भी उनको निर्देश था कि यदि तुम्हें धन मिले, तो किताबें छापना (मनी और प्रिंट बुक्स) उन्हें भारत में बहुत धन प्राप्त नही हो रहा था। इसलिए वह कुछ ना कुछ छपवा रहे थे। चूंकि अब वे पश्चिम में थे और उन्हें अधिक धन प्राप्त हो रहा था इसलिए वे उस धन का प्रयोग पुस्तकों की छपाई करवाने में निवेश कर रहे थे। अब तक उनके कुछ अनुयायी थे। प्रभुपाद उन्हें किताबें बाँटने के लिए निर्देश दे रहे थे, डिस्ट्रिब्यूट बुक्स डिस्ट्रिब्यूट बुक्स डिस्ट्रिब्यूट बुक्स। जिन गाँव के कस्बों और नगरों में किताबें बांटी जाएगी, वे लोग हरे कृष्ण का जप करेंगे, वे दीक्षित होगे। वे गुरु भी बनेंगे। श्रील प्रभुपाद संस्थापकाचार्य होंगे। (मैं कुछ और कहने लगा।) श्रील प्रभुपाद जगत गुरु हैं। वे कई देशों, कस्बों, गाँवों में पहुँचने वाले थे और पवित्र नाम देने वाले थे। वैसे उन शहरों और गाँवों में पवित्र नाम के पहुँचने के बहुत सारे तरीके हैं। यहां तक ​​कि जार्ज हैरिसन को भी भगवान् के पवित्र नाम का प्रचार करने का श्रेय जाता है। क्या आपने जोर्ज़ हैरिसन का नाम सुना है? वह इंग्लैंड के बड़े ही प्रसिद्ध गायक (बीटलस) हैं। वह श्रील प्रभुपाद के एक अनुयायी हैं। जोर्ज़ हैरिसन के दुनिया भर में हर जगह लाखों प्रंशसक व अनुयायी हैं। जोर्ज़ हैरिसन ने हरे कृष्ण महामन्त्र को गाकर ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्ड किया। एक बार प्रभुपाद के दिनों में उस रिकॉर्डिंग को बेचा और बांटा गया। उस समय उस एल्बम की बिक्री का सर्वश्रेष्ठ रिकॉर्ड रहा। वह ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग उनकी मास्टर वॉइस ( उनकी अदभुत आवाज) में थी। यह ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग की कई कई स्थानों पर बिक्री हुई। प्रभुपाद और हरे कृष्ण भक्तों के विभिन्न शहरों और गांवों में पहुंचने से पहले ही यह पवित्र नाम लोकप्रिय हो गया और सभी के लिए हर जगह प्रचलित हो गया था। भगवान का नाम स्वयं प्रचलित होने की शक्ति रखता है। पवित्र नाम स्वयं भगवान् है। पवित्र नाम स्वयं उन कस्बों और गाँवों के लिए अपना रास्ता बना रहा था अर्थात पवित्र नाम स्वयं फैल रहा था। जोर्ज हैरिसन तो एक निमित मात्र बन रहे थे। तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ( श्रीमद् भगवतगीता ११.३३) अनुवाद:- अतःउठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो | ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो। वह प्रभुपाद के अनुयायी हो सकते हैं। फिर भी भगवान् का नाम मंदिरों और अनुयायियों, संघों में फैल रहा था। केवल हरि नाम ही नहीं अपितु मंदिर भी जरूरी हो गए और मंदिरों की स्थापना होने लगी। राधा कृष्ण मंदिरों, जगन्नाथ, गौरांग के मंदिरों की स्थापना हुई और अब ये मंदिर भी हर कस्बे और हर गाँव तक पहुँचने लगे हैं .. हरि हरि .. लोग हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करने लगे हैं जिससे वे आध्यात्मिक रूप से मजबूत हो सकें और वे माया के प्रलोभनों का विरोध कर सकें। माया- आप यह लीजिए,.. आप इसे पियो। आप यह पोशाक पहनो .. यह सब भ्रामक है। इसलिए जो लोग हरे कृष्ण का जाप करेंगे, उन्हें भक्ति से शक्ति मिलेगी, जो माया का सामना करने के लिए एक शक्ति मिलेगी। यह माया को एक किक होगी। जिससे वे अवैध सेक्स न करना और जुआ न खेलना, मांस भक्षण नही करना, नशापान नही करने के इन 4 नियामक सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम होंगे। यह भी होने वाला है। जैसे जैसे पवित्र नाम फैलेगा, वहां किताबें भी होंगी, पवित्र नाम फैलेगा और वहां मंदिर भी स्थापित होंगे। श्रील प्रभुपाद स्वयं इसे कर रहे थे। भगवान्, प्रभुपाद के ह्रदय में हैं। प्रभुपाद स्वयं कहते थे मेरे आध्यात्मिक गुरु मेरे साथ ही हैं। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर मुझे देख रहे हैं और निर्देश दे रहे हैं। मुझे दिल में प्रेरणा देने वाला भगवान् है, गौरांग भी यहां है और परम्परा के आचार्य भी हैं। अन्यथा कोई भी व्यक्ति हमारे आस-पास नहीं था। इसके विपरीत सभी प्रतियोगिता करने के लिए खड़े थे ( इसलिए मैंने ऐसा कहा) प्रभुपाद ने इस कृष्ण भावनामृत को अकेले ही (सिंगल हैंड) प्रारंभ किया और हरिनाम का प्रचार कर पूरे विश्व में फैलाया। भारत सरकार भी कोई मदद नहीं कर रही थी। प्रभुपाद की सहायता के लिए गौड़ीय मठ के सदस्य भी आगे नहीं आ रहे थे। इसलिए प्रभुपाद व्यवहारिक रूप से अपने नए अनुयायियों के साथ थे। जब वे अमेरिका गए, तब अमेरिकन, यूरोपियन अफ्रीकन, रशियन भी उनके साथ थे। जब प्रभुपाद रशिया गए, वहां प्रभुपाद एक युवक से मिले, जिसे प्रभुपाद ने बहुत समय दिया। उसने कोई प्रोग्राम का आयोजन भी किया था। प्रभुपाद मास्को यूनिवर्सिटी के प्रो० कोत्सवकी से भी मिले थे। लेकिन प्रभुपाद ने इस नवयुवक से बहुत सारी बातें की। प्रभुपाद उसे दीक्षा देने वाले थे। प्रभुपाद ने उसे क्रैश कोर्स दिया और उसे अनंत शांति दास नाम भी दिया। अनंत शांति प्रभु, श्रील प्रभुपाद के प्रथम रशिया ( रूसी) शिष्य बनें । अनंत शेष प्रभु ने कृष्ण भावनामृत चेतना को पूरे रशिया में फैलाया जिससे धीरे धीरे रशिया से और अधिक भक्त जुड़ने लगे। इसी प्रकार यूक्रेन से अर्जुन जुड़ गए, ओजस्वनि, माधवनंदनी, नंदिनी जुड़ गई ( यह तो नई पीढ़ी है) हरि! हरि! तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने गुरुकुल विद्यालयों को स्थापना की। इस प्रकार नई नई परियोजनाएं खुल रही थी अर्थात अधिक से अधिक कृष्ण भावनामृत और नए प्रोजेक्ट्स का खुलासा हो कुछ सामने आ रहा था। वे खुलासा कर रहे हैं । इस प्रकार वे कृष्ण भावनामृत का प्रचार कर रहे थे और भगवान् के पवित्र नाम को आगे बढ़ा रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने गुरुकुल स्कूल व गौशाला भी शुरू किए। नमो ब्राह्मणदेवाय गो ब्राह्मण हिताय च। जगत हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः।। ( विष्णु पुराण १.१९.६५) वर्णाश्रम धर्म के स्थापना की व्यवस्था हो रही थी। श्रील प्रभुपाद ने फार्म कम्युनिटी की स्थापना की। वे न्यूयॉर्क में थे। लेकिन वे हर जगह थे। वे सेंन फ्रांस्सिको, मोंट्रियल में थे। उन्होंने अपनी टीम को इंग्लैंड में भेजा। उन्होंने अपनी टीम को अफ्रीका भेजा। प्रभुपाद स्वयं भी साउथ अफ्रीका गए। वे यहाँ वहां सभी जगह गए। जब प्रभुपाद पश्चिम में गए थे, उनके पास कोई पैसा नहीं था। उनके पास वायुयान की यात्रा का किराया देने के लिए धन भी नहीं था। इसलिए प्रभुपाद कार्गो जहाज से अमेरिका गए थे। जैसा कि आप जानते ही हो कि श्रील प्रभुपाद जब एक वर्ष न्यूयॉर्क में थे। उन्होंने वहां से सेन फ्रान्सिको के लिए उड़ान भरी। 1966 में यह उनकी पहली हवाई यात्रा थी। उससे पूर्व उन्होंने कभी भी हवाई यात्रा नहीं की थी। जब उन्होंने यूयॉर्क से सेन फ्रांस्सिको के लिए हवाई यात्रा की, तब कहा जा सकता है कि वे अंतर्राष्ट्रीय यात्री बन गए। वे अब दुनिया भर में यात्रा कर रहे थे, उस समय उन्हें जेटऐज परिव्राजकाचार्य के रूप में जाना जाने लगा। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ९.२२) अनुवाद:- किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ। श्रील प्रभुपाद के पास धन की कमी थी लेकिन भगवान् कृष्ण उन्हें उपलब्ध करवा रहे थे। जब प्रभुपाद न्यूयॉर्क में आए थे तब प्रभुपाद के पास आंतरिक रुप से कोई फंड (धन) नहीं था। उनके पास मात्र चालीस रुपये थे अर्थात आठ डॉलर थे, चालीस डॉलर नहीं थे लेकिन फिर वर्ष 1977 में जब वे प्रयाण हुए उन्होंने लगभग चार करोड़ डॉलर की सम्पति अपने पीछे छोड़ी। यह प्रभुपाद की सम्पति कृष्ण की सम्पति है। भगवान् कृष्ण हर जगह, हर स्थान पर कृष्णभावनामृत के प्रचार हेतु धन, सारी सुविधाएं, मैनपावर उपलब्ध करवा रहे थे। प्रभुपाद ने उत्सव जैसे जन्माष्टमी और राधाष्टमी हर जगह सेलिब्रेट( मनाने) प्रारंभ करवाए। उन्होंने लोकप्रिय रथ यात्रा उत्सव का प्रारंभ भी करवाया। उन्होंने प्रसाद वितरण अर्थात फ़ूड फ़ॉर लाइफ का प्रारंभ करवाया। उन्होंने अपनी शेष जीवन अवधि में अथार्त वर्ष 1965 से 1977 में प्रस्थान करने तक लगभग केवल 10 या 12 वर्षों में यह सब किया। उन्होंने कृष्णभावनामृत आंदोलन में कृष्णभावनामृत का प्रकटीकरण थोड़े समय के भीतर किया है। हम इसे भगवतगीता के श्लोक से अनुभव कर सकते है। यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १८.७८) अनुवाद:- जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन है, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है। ऐसा मेरा मत है। यह भगवतगीता का अंतिम वां अथार्त ७०० वां श्लोक है। जहाँ कृष्ण, गौरांग और श्रील प्रभुपाद हैं। यह एक टीम है। सही! जैसे गुरु और गौरांग! गुरु- श्रील प्रभुपाद, संस्थापक आचार्य और गौरांग कृष्ण और कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। आप वहां क्या देखते हैं, आप वहां पर उनके ऐश्वर्य देखते हो। ये ऐश्वर्य अलग-अलग तरह के हो सकते हैं, लोगों को इसका एहसास नहीं होता है कि आध्यात्मिक ऐश्वर्य क्या है? तत्र श्रीर्विजयो- जहाँ गुरु गौरांग का दल( टीम) है जैसे कृष्ण और अर्जुन, गौरांग और प्रभुपाद, वहां जीत निश्चित है अर्थात जीत की गारंटी है। श्रील प्रभुपाद विजेता अथवा विजयी बनें। चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् ।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१२) अनुवाद:-श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। प्रभुपाद ने श्रीचैतन्य महाप्रभु के इस वाक्य को सिद्ध करके दिखाया। परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम। यह संकीर्तन आंदोलन की विजय है। प्रभुपाद के संकीर्तन आंदोलन विजयी हुए। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम श्रील प्रभुपाद में शक्ति का असाधारण समावेश है। नैतिकता और नैतिकता के सिद्धांत की स्थापना हुई। हम श्रील प्रभुपाद की अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ में यह सब होते हुए देख रहे हैं। श्रील प्रभुपाद निमित मात्र बने हैं। निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् । जैसे कृष्ण, कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन को निमित बनाना चाहते थे। अर्जुन उनके इंस्ट्रूमेंट(माध्यम) बनकर विजयी हुए, वैसे ही यह वर्ल्ड वाइड( विश्व व्यापी) युद्ध है। प्रीचिंग इज फाइटिंग( प्रचार कर लड़ना है) प्रभुपाद सेनापति भक्त अथवा संकीर्तन आर्मी में कमांडर-इन- चीफ के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने एक नाव उधार ली और कलयुग की राजधानी न्यूयॉर्क को लक्ष्य किया। प्रभुपाद ने वहां टाइम बम अर्थात अपनी पुस्तकों और पवित्र नाम के हथियारों के साथ प्रवेश किया। उन्होंने हरि नाम के बम की वर्षा की और गुलाब जामुन अर्थात बुलेट्स की दावत दी। आप माया को इस्कॉन के गोलियों अर्थात गुलाब जामुन खा कर अपने से दूर रख सकते हो। भगवान् कृष्ण या गौरांग महाप्रभु ने श्रील प्रभुपाद को एक उपकरण बनाया। निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् भक्तिवेदांत स्वामी निमित्तमात्रं भव। निश्चित ही गौरांग महाप्रभु की ओर से श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने 1922 में कोलाकाता में उल्टडांगा में अभय बाबू को निर्देश दिया था और भक्तिवेदान्त स्वामी को इंस्ट्रूमेंट अथवा उपकरण बनने को कहा था। निमित्तमात्रं भव । 'पश्चिम में जाओ। कृष्णभावनामृत का प्रचार अंग्रेजी भाषा में करो। ' यह भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की ओर से भक्तिवेदांत स्वामी को एक निर्देश था। जैसे कुरुक्षेत्र युद्ध क्षेत्र में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया था, वैसे ही यह श्रील प्रभुपाद के लिए निर्देश के समान था। इसलिए प्रभुपाद ने गौरांग के उपकरण बनने की सफलतापूर्वक अपनी भूमिका निभाई । इसके परिणामस्वरूप कृष्णभावनामृत पूरे संसार भर में फैला। तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने पूरे विश्व में प्रचार किया। तब वे 1971 में भारत में वापिस आए। अब वह भारत को भी जीतना चाहते थे। वे त्यौहारों का आयोजन कर रहे थे। बहुत भाग्य की बात है कि श्रील प्रभुपाद ने 1971 में क्रॉस मैदान में उत्सव का आयोजन किया था। यह मानना होगा कि हम पर गौरांग की कृपा हुई। ब्रह्मांड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति लता बीज। ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१) अनुवाद:- सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्मांड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह- मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह- मंडलों को। ऐसे करोड़ो भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण और गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रुपी लता के बीज को प्राप्त करता है। वहां लगभग दस हजार, बीस हजार और कभी कभी तीस हजार लोग भी श्रील प्रभुपाद के संपर्क में आए। वहां पर उन्हें श्रील प्रभुपाद और उनके अनुयायियों को देखने और सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं उन भाग्यशाली आत्माओं में से एक था। यह भी कहना चाहिए कि राधानाथ महाराज एक और भाग्यशाली आत्मा थे अर्थात हम दोनों को प्रभुपाद से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। श्रील प्रभुपाद ने तुरंत ही हम पर अपनी कृपा की और हम उनके अनुयायी और तत्पश्चात धीरे-धीरे उनके शिष्य बन गए। धन्यवाद श्रील प्रभुपाद! हमें स्वीकार करने के लिए, हम आपके आंतरिक रूप से ऋणी हैं। धन्यवाद श्रील प्रभुपाद! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! हरे कृष्ण!

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