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5th Oct 2019 हरे कृष्ण, आज 446 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं ,आप सभी का धन्यवाद कि आप कॉन्फ्रेंस में हमारे साथ सम्मिलित हो रहे हैं ।आज शनिवार है और मेलबॉर्न ऑस्ट्रेलिया से भी भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। वह आज देवांश प्रभु के घर एकत्रित होकर जप कर रहे हैं इसके साथ ही साथ सिडनी से एक परिवार है जो इस कांफ्रेंस में आज सम्मिलित हुआ है और हमारे साथ जप कर रहे हैं। सिंगापुर से भी भक्त हैं जो हमारे साथ जप कर रहे हैं इस प्रकार इस कांफ्रेंस के विराट रूप के कारण हमें इस कॉन्फ्रेंस में जो भी भक्त जप कर रहे हैं उनका दर्शन होता है। अतः भक्तों के साथ साथ हम भगवान का भी दर्शन करना चाहते हैं । चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि वैष्णव वह है जिन्हें देखने मात्र से हमें भगवान का स्मरण हो जाता है इस प्रकार भक्तों का दर्शन होता है और भक्तों के दर्शन से हमें भगवान का स्मरण होता है। यदि केवल हम एक दूसरे का दर्शन करके ही संतुष्ट होते हैं तो इससे हमारे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती है हमारा वास्तविक उद्देश्य है कि इस कांफ्रेंस के माध्यम से हम सभी एक साथ जप करें और अंततः हमें विष्णु स्मरणम अर्थात भगवान विष्णु अर्थात कृष्ण का स्मरण हो। एक समय गोपियां भी इस प्रकार से एकत्रित होकर सर्वत्र भगवान श्री कृष्ण को ढूंढ रही थी, वे हर कहीं ढूंढ रही थी कि आप कहां हैं, आप कहां हैं जब वे वनों में ढूंढ रही थी तो उन्हें कृष्ण नहीं मिले फिर भी यमुना के तट पर आए तो वहां पर भी उन्हें भगवान नहीं मिले । यद्दपि गोपियां हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन तो नहीं कर रही थी वे गोपी गीत गा रही थी परंतु गोपी गीत भी हरे कृष्ण महामंत्र जप के कीर्तन के समान ही है जब गोपियां यह गोपी गीत गा रही थी तो उसका परिणाम यह हुआ कि भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें अपना दर्शन दिया। जप इस प्रकार है, यह गोपी गीत गा रही थी तो भगवान स्वयं वहां प्रकट हो गए और गोपियों को दर्शन लाभ हुआ तो इस प्रकार इस कॉन्फ्रेंस में भी कई भक्त एक साथ जप करते हैं तो जब हम जप करते हैं तो हम भी भगवान श्रीकृष्ण को ढूंढते हैं, हे कृष्ण! आप कहां हैं ?आप कहां हैं ?और हम कृष्ण का दर्शन करना चाहते हैं। जप के समय हमारा यह भी एक उद्देश्य होता है कि हमें कब भगवान का दर्शन होगा और वास्तव में हमें विभिन्न स्तरों में उस पर डिग्री के हिसाब से हमें भगवान का अनुभव था अथवा साक्षात्कार होता भी है। इस प्रकार से यह मंत्र मेडिटेशन है, किस प्रकार मंत्र पर ध्यान किया जाता है इस विषय पर हमने चर्चा की। आज मैं सुबह श्रील प्रभुपाद का एक अत्यंत पुराना आर्टिकल पढ़ रहा था यह लेख प्रभुपाद ने इस्कॉन बनाया उससे भी पहले का था वह पहले भी कुछ लेख लिखते थे और यह वृंदा बेस डॉट पर उपलब्ध है प्रभुपाद ने उस आर्टिकल में मेडिटेशन अथवा ध्यान के विषय में लिखा है। वे लिखते हैं कि भगवान हमारे हृदय में हमेशा रहते हैं और इस प्रकार से जब हम जप करते हैं तो हमें उनके रूप पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उनके पास्ट टाइम्स पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हम जप योगी हैं अतः जप करते समय हमें भगवान के रूप, लीला, गुण और उनके पार्षद का चिंतन करना चाहिए उनकी लीलाओं का स्मरण होना चाहिए। जब मैंने लीला स्मरण के विषय में बताया तो लीला स्मरण का अर्थ है भगवान के रूप का भी स्मरण होना चाहिए। क्योंकि भगवान जब कोई लीला संपन्न करते हैं तो उनका कुछ रूप भी है जो यह लीला संपन्न करते हैं। लीला स्मरण करते समय भगवान के रूप का स्मरण है, भगवान के गुणों का स्मरण है यदि कोई लीला संपन्न हो रही है तो भगवान के कोई पार्षद अथवा भक्त भी हैं जो भगवान के उस लीला में अंश है। इस प्रकार से हम भगवान के भक्तों के ऊपर भी ध्यान टिका सकते हैं उनका भी हमें स्मरण होता है। आज जब मैंने सुबह आर्टिकल पढा तो उसमें श्रील प्रभुपाद हिंसा व अहिंसा के विषय में बता रहे थे तो वे यह भी बता रहे थे कि किस प्रकार से हिंसा व अहिंसा दोनों ही इन भौतिक तीन गुणों जो है रजो सत्व तमो उनके भीतर कार्य करते हैं, एक प्रकार से द्वंद है श्रील प्रभुपाद बता रहे थे कि यह जो हिंसा है वह रजोगुण और तमोगुण का परिणाम है उनके कारण प्रकट होता है यदि कोई व्यक्ति रज और तमोगुण में होता है तो वह हिंसक प्रव्रत्ति का होता है ।वह हिंसा करता है परंतु जब कोई सतोगुण में स्थित होता है तो वह अहिंसक होता है और वह हिंसा नहीं करता है परंतु हिंसा और अहिंसा दोनों ही इन तीन भौतिक गुणों के अंतर्गत आते हैं और यह द्वंद है और हमारा लक्ष्य है इन दोनों से परे होना तो हम इस भौतिक जगत का जो हमारा लक्ष्य है वह इन गुणों को दूर करना हम गुणातीत होना चाहते हैं अर्थात हम इन गुणों से दूर जाना चाहते हैं।: यह एक अत्यंत ही वृहद विषय है और इसके साथ साथ अत्यंत महत्वपूर्ण भी हैं तो हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार से यह द्वंद कार्यरत होता है और हम भौतिक 3 गुणों के अंतर्गत जकड़े जा चुके हैं तो फिर प्रभुपाद ने हिंसा और अहिंसा बताया साथ ही पाप और पुण्य भी द्वंद है, एक पाप होता है और एक पुण्य होता है किंतु भगवान की आध्यात्मिक सेवा दिव्य होती है, आध्यात्मिक धरातल पर होती है, गुणातीत होती है जैसे स्वर्ग और नर्क हैं। स्वर्ग में सतोगुणी व्यक्ति (जो अच्छे कार्य करता है) जाता है। नरक में बुरा व्यक्ति जाता है परंतु फिर भी वे दोनों भौतिक ही हैं, इन दोनों से बेहतर हैं बैकुंठ और गोलोक, ये दोनों आध्यात्मिक हैं, गुणातीत है। इसके साथ ही साथ जो हमारा भोजन है वह भी इस प्रकार से मांसाहारी तथा शाकाहारी होता है। मांसाहारी भोजन अच्छा नहीं है और शाकाहारी और सात्विक आहार सतोगुण का प्रभाव है परंतु फिर भी वह इस भौतिक जगत का ही है। परंतु जब यही सात्विक भोग हम भगवान को चढ़ाते हैं और फिर जब हम उसे खाते हैं तो वह दिव्य बन जाता है, वह गुणातीत हो जाता है। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद यह संदेश देना चाहते थे कि जो सतोगुण में कार्य किए जाते हैं उन्हें धर्म समझ लिया जाता है यथा यदि कोई अहिंसक है तो उसे धार्मिक समझा जाता है परंतु ऐसा नहीं है जो आध्यात्मिक सेवाएं हैं वे दिव्य होती हैं। इस प्रकार से हमें इस द्वंद से परे जाना है इससे बाहर निकलना है यह हिंसा अहिंसा जो सात्विक और तामसिक भोजन है यह सभी भौतिक जीवन का है, यह आध्यात्मिक नहीं है। हमें इन सबसे परे जाना है यहां श्रील प्रभुपाद यही बताना चाहते हैं। यही कृष्ण भावनामृत है श्रील प्रभुपाद ने इस संस्था को अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ नाम दिया उन्होंने इसे कोई देवता भावनामृत नाम नहीं दिया क्योंकि गॉड अथवा देवता कई हो सकते हैं वे स्वर्ग के भी हो सकते हैं। तो श्रील प्रभुपाद ने इसे कृष्णभावनामृत नाम दिया तो कृष्ण भावनामृत का अर्थ ही यही है कि वह सही अथवा गलत, सतो रजो तथा तमो इन तीनों गुणों से परे है और यह शुद्ध सत्व में स्थित है। इस प्रकार हम भी इन तीन गुणों से परे जाकर शुद्ध सत्व में स्थित होकर रहना चाहते हैं, जब भी हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं तो हमारा लक्ष्य होता है कि हम इन तीन गुणों से परे जाकर शुद्ध सत्त्व में स्थित हों। यह जगत द्वंद से भरा हुआ है, हम यहां इन तीन गुणों से जकड़े हुए हैं और इनमें से एक जो सबसे बड़ा द्वंद है, वह है शारीरिक भेद करना यह नर है यह नारी है, यह स्त्री है यह पुरुष है, यह भी एक द्वंद है । भगवान भगवत गीता में कहते हैं कि हमें समभाव को प्राप्त करना चाहिए इन सभी शरीरों में फिर चाहे वह स्त्री का शरीर और पुरुष का शरीर हो, वह क्या है जो एक है वह है आत्मा ।कृष्णभावनामृत यही है क्या हम समभाव से सभी को देखते हैं और इस प्रकार से कृष्ण भावना भावित बनना चाहते हैं। इस प्रकार से जब हम इन भौतिक गुणों से परे जाकर सभी जीवो को देखते हैं तो वही कृष्णभावनामृत है। इस प्रकार यह आज हमारे विचारों के लिए एक आहार है, आप इसके विषय में और अधिक चिंतन कर सकते हैं और आपको करना चाहिए। आप श्रीमद भागवतम और भगवत गीता पढ़िए और यह समझिए कि किस प्रकार से यह द्वंद कार्यरत होता है और किस प्रकार हम इसके परे जा सकते हैं आपको यह सब समझना चाहिए। वर्तमान समय में जो समाज कल्याण के कार्य हैं जैसे दान करना , अस्पताल खोलना, स्कूल खोलना अन्न दान करना गरीबों को भोजन खिलाना आदि इसे ही धर्म समझ लिया जाता है। आजकल इजराइल के लोग और कुछ हिंदू भी यही करते हैं,वे किसी को दान दे देते हैं , कोई स्कूल खोल देते हैं और वे जो किसी को दान देते हैं तो उसमें मीट खिला देते हैं शराब पिलाकर के कहते हैं आप इंद्रिय तृप्ति कीजिए इस प्रकार से यदि कोई इस प्रकार का दान देता है और वह जब सतोगुण में स्थित होकर यह कार्य करता है केवल सही कार्य करता है तो ऐसे ही धर्म समझ लिया जाता है परंतु यह कार्य आध्यात्मिक नहीं होते हैं यह भी एक बहुत बड़ा भ्रम है और पूरे वैश्विक स्तर पर यह भ्रम अभी चल रहा है जो सतोगुण में कार्य करते हैं वही धर्म है, परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है भगवान श्री कृष्ण कहते हैं सर्वधर्माण परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज भगवान करे कि आप यह जो सभी कार्य है इन सभी को छोड़कर जैसे हम देवी-देवताओं की आराधना करते हैं उनको छोड़कर हमें भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेनी चाहिए और जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं तो हम भगवान की शरण ले सकते हैं और भी बहुत कुछ है जिसके विषय में हम चर्चा कर सकते हैं। यह सिद्धांत है, एक तत्व है जिसकी चर्चा हमने यहां की चैतन्य चरितामृत में आता है सिद्धांत बलिया ना करिए आलस तो जब हमें सिद्धांत के विषय में चर्चा करनी होती है, जब हमें तत्व के विषय में चर्चा करनी होती है तो हमें आलस नहीं करना चाहिए और हमें दृढ़ता पूर्वक उस सिद्धांत के विषय में चर्चा करना चाहिए क्योंकि जब हम ऐसा करते हैं तब हमारा जो विश्वास है। वह और अधिक दृढ़ होता है इस प्रकार हमें तत्व की चर्चा करनी चाहिए कि क्या हमारा सिद्धांत है और क्या हमारा तत्व है आज इस जप चर्चा को यही विराम देते हैं ।परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज की जय ।श्रील प्रभुपाद की जय।

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