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जप चर्चा पंढरपुर धाम से 25 नवंबर 2021 882 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । हरि हरि !! आप सभी तैयार हैं ? पुरुषोत्तम हरि ! और बाकी सब । हरि हरि !! गौरंग ! पांडुरंग ! पांडुरंग पंढरपुर में है । गौरंग पांडुरंग ! गौरंग पांडुरंग ! ...आप कह रहे हैं पांडुरंगा ? गौरंग ! पंढरपुर में ऐसा भक्त कहने लगे हैं । नवद्वीप में तो कहते हैं । गौरांग नित्यानंद ! हरि हरि !! तो वृंदावन में कहते हैं, दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया ! और पंढरपुर में गौरंग पांडुरंगा ! सखी वृंदा कह रही है ? गौरंग पांडुरंग ! गौरांग है पांडुरंग । जेई गौर, सेई कृष्ण, सेई जगन्नाथ । जेई गौर, सेई विट्ठल, सेई जगन्नाथ यो जेई गौर, सेई पांडुरंग, सेई जगन्नाथ । अभी हम जगन्नाथपुरी में थे कल । कल की यात्रा यह कल की प्रातः काल हमने जगन्नाथपुरी में विताई परिक्रमा के साथ । भक्त चैतन्य वहां भी थे और कई सारे भक्त । अभी हम वापस आजाते हैं वृंदावन । जगन्नाथ पुरी से वृंदावन वापस आना कहना भी उचित नहीं है क्योंकि जगन्नाथपुरी है वृंदावन तो वापस आना क्या ! जगन्नाथपुरी ही है वृंदावन तो वापस भी और वापस नहीं भी, तो हम जगन्नाथपुरी में रह सकते हैं । जगन्नाथपुरी में है वृंदावन । गुंडिचा मंदिर जगन्नाथ पुरी का कौन सा धाम है स्थान है ? वृंदावन गुंदीचा मंदिर जगन्नाथ मंदिर का वृंदावन धाम भी है । आपका ध्यान पुनः हम आकृष्ट करना चाहते हैं । मार्गशीर्ष महीने में क्या हुआ ? श्रीशुक उवाच हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दब्रजकमारिकाः । चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.1 ) अनुवाद:- शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी का पूजा व्रत रखा । पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई । याद है ! कुछ दिनों से नया मस्त दामोदर मास के उपरांत मार्कशीट या दामोदर के कई नाम है दामोदर मास वैसे कार्तिक मास, चैत्र वैशाख लेकर आगे बढ़ेंगे तो फिर दामोदर मास कार्तिक मास । आरती के बाद मार्गशीर्ष । मार्गशीर्ष में क्या हुआ ? आप सुन रहे थे । जिसे शुकदेव गोस्वामी सुनाएं हैं श्रीमद् भागवत् के दसवें स्कंध के अध्याय संख्या याद है ना ? 22, किसी ने 29 कहा । 29 अध्याय में क्या है ? दसवें स्कंध के 29 अध्याय में भगवान की रासक्रीडा का वर्णन है और 22 में चीरहरण । इस अध्याय में 22 वे अध्याय में हम कुछ पढ़ रहे थे कुछ बता रहे थे आपके साथ । वहां का घटनाक्रम वहां की लीलाएं घटनाओं को लीला कहते हैं, तो कृष्ण कहे गोपियों को आप जा सकती हो । याताबला ब्रजं सिद्धा मयेमा र॑स्यथा क्षपाः । यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.27 ) अनुवाद:- हे बालाओ , जाओ , अब व्रज लौट जाओ । तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई है क्योंकि तुम आने वाली रातें मेरे साथ बिता सकोगी । हे शुद्ध हृदय वाली गोपियो , देवी कात्यायनी की पूजा करने के पीछे तुम्हारे व्रत का यही तो उद्देश्य था ! हे गोपियों वृंदावन जाओ । अपने-अपने घर लोटो । जो वृंदावन में ही है उनके सारे निवास स्थान । सारे व्रज की गोपियों वहां प्रकट हुई है या पहुंची थी । हरि हरि !! तपस्या कर रही कात्यायनी की पूजा अर्चना कर रही थी तो एक महीना बीत गया । प्रतिदिन अपनी साधना कर रही थी । फिर साधना से सिद्ध हुई । कृष्ण ने कहा भी 'सिद्धा' । तुम अब क्या बन चुकी हो ? सिद्ध । भगवान ने कहा साधना में सिद्ध हुई हो । इसीलिए तो मैं यहां पहुंचा हूं । मैंने आपको दर्शन दिया फिर आप के वस्त्र चोरी भी किए । क्योंकि आप चाहती थी मैं आपका की पति बनू । कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि । नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः । इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कमारिकाः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.4 ) अनुवाद:- प्रत्येक अविवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की " हे देवी कात्यायनी , हे महामाया , हे महायोगिनी , हे अधीश्वरी , आप महाराज नन्द के पुत्र को मेरा पति बना दें । मैं आपको नमस्कार करती हूँ । हमें पति प्राप्त हो पति प्राप्त हो नंद गोप का जो पुत्र है । नंद महाराज का पुत्र इसका जप मतलब, जप करती हुई आप कात्यायनी की आराधना कर रही थी साधना कर रही थी तो 'सिद्धाः' तुम सिद्ध हो चुकी हो । कैसे समझेंगी कि आप सिद्ध हो चुकी हो कि आपने हासिल किया है ? मैं जो यहां उपस्थित हो चुका हूं और मैंने वस्त्र भी चोरी किए और आप सब गोपियों को आगे बढ़ने के लिए मेरी और आगे आने के लिए या नदी किनारे आने के लिए भी कहा मैंने । यह थोड़े में पुनः दोहरा रहा हूं मैं जो कह रहा हूं । यह बातें तो हम कह चुके हैं लेकिन पुनावृत्ति की भी आवश्यकता होती है । पुनः स्मरण दिलाते हैं या उसी बात को फिर जोड़ देते हैं ताकि हम प्रभावित हो जाए । अगर हम कुछ भूलने लगे थे तो पुनः याद दिलाऐ जाए । आप जा सकती हो । "याताबला ब्रजं सिद्धा" और फिर पुनः मिलेंगे हम सभी कहे थे । हरि हरि !! श्रीशुक उवाच इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः । ध्यायन्त्यस्तत्पदाम्भोजं कृच्छ्रान्निर्विविशुर्ब्रजम् ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.28 ) अनुवाद- श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा- पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा इस प्रकार से आदेश दिये जाकर अपनी मनोकामना पूरी करके वे बालाएँ उनके चरणकमलों का ध्यान करती हुईं बड़ी ही मुश्किल से ब्रज ग्राम वापस आईं । तो कृष्ण ने जब कहा "इत्यादिष्टा भगवता" भगवान कृष्ण कंहैया लाल की जय ! उनका आदेश "कुमारीका:" गोपियों को जो मिला कि क्या आदेश ? तुम जासकती हो "ध्यायन्त्यस्तत्पदाम्भोजं कृच्छ्रान्निर्विविशुर्ब्रजम्" तो आदेश जो मिला है उसका पालन तो कर रही है लेकिन वहां से निकलना वहां से दूर जाना गोपियों के लिए बड़ा कठिनाइ महसूस कर रही है । क्यों ? मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ( भगवद् गीता 10.9 ) अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं , उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परं संतोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं । ऐसे कृष्ण भगवत गीता में 10वे अध्याय में कहे हैं । मेरा भक्त कैसा होता है ? "मच्चिता" उसकी चेतना मुझमे लगी होती है । "मच्चित्ता मद्गतप्राणा" पूरे समर्पित होते हैं । "सर्वधर्मान्परित्यज्य" किए होते हैं । मुझ में आसक्त होते हैं । अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ( भगवद् गीता 9.22 ) और कोई चिंतन करना ही नहीं चाहते । केवल मेरा ही चिंतन करते हैं, तो ऐसी थी गोपियां इसका ज्वलंत उदाहरण है गोपियां । उनको कृष्ण से दुर जाने के लिए "कृच्छ्रा" यहां शब्द का उपयोग हुआ है । बड़ी कठिनाई से वहां से निकल पा रही है । हरि हरि !! अथ गोपैः परिवृतो भगवान् देवकीसुतः । वृन्दावनाद् गतो दूरं चारयन् गाः सहाग्रजः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.29 ) अनुवाद:- कुछ काल बाद देवकीपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण अपने ग्वाल - मित्रों से घिरकर तथा अपने बड़े भाई बलराम के साथ गायें चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गए । तो गोपियां जा रही है अपने-अपने घर लौट रही है । पीछे मुड़ मुड़ के देखती हुई । और वो भी अनुभव कर रही थी अब कुछ समय तो उन्होंने हमारे वस्त्रों की चोरी की थी या उसी के साथ उन्होंने हमारे चित्त का भी चोरी कर ली । चीर घाट में वो अपना चित्त खो बैठी थी । अपना दिल ह्रदय विचारी खो गई तो इसीलिए जार तो रही है शरीर तो जा रहे हैं लेकिन उनका मन तो उनका चेतना या चिंतन तो कृष्ण की ओर दौड़ रहा है या कृष्ण के साथ रहना चाहता है । जब गोपियां जो भी है मुश्किल से कहो जा तो रही है तो उस समय कृष्ण भी आगे बढ़ते हैं गाय चराने के लिए । "वृन्दावनाद् गतो दूरं चारयन् गाः" गाय चराते हुए दूर गए "सहाग्रजः" । "सह" मतलब साथ "अग्र" मतलब आगे वाला या पहले वाला । अग्रज मतलब बलराम । कृष्ण अनुज है तो बलराम अग्रज है । ऐसे भी आप याद कर सकते हो अच्छा है कि नहीं आपको ऐसे याद कर सकते हो । अच्छे शब्द है एक है अग्रज एक है अनुज । अग्रज है बलराम । 'ज' मतलब जन्म लेना और अनु मतलब बाद में या पीछे से 'ज' जन्म लिए । सातवें पुत्र बलराम आठवें पुत्र कृष्ण, तो यहां कहा है "सहाग्रजः" तो कृष्ण गाय चराने जा रहे हैं, साथ में कौन है ? बलराम भी है । "गोपैः परिवृतो" तो गोपों से अपने मित्रों से ग्वाल बालों से गिरे हुए हैं । अभी अभी वहां माधुर्य लीला संपन्न हुई चीर घाट पर । अब सख्य रस की ओर मूड रहे हैं । अपने शाखाओं के साथ घिरे हैं वहां गोपियों से गिरे हुए थे और अब यहां मित्रों से घिरे हुए हैं । हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन् सुबलार्जुन । विशाल वृषभौजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.31 ) अनुवाद:- "हे स्तोक कृष्ण तथा अंशु ! हे श्रीदामा, सुबल तथा अर्जुन ! हे वृषभ, ओजस्वी, देवप्रस्थ, तथा वरूथप । तो कृष्ण बड़े प्रेम से अपने कुछ मित्रों का उल्लेख कर रहे हैं उनको संबोधित कर रहे हैं । उनको बुला रहे हैं ए ए मैं भी आ रहा हूं तो यहां भगवान की मित्रों की छोटी लिस्ट ऐसे असंख्य मित्र हैं । गोपियां असंख्य है । यहीं कहीं पर लिखा है तीन करोड़ ( 3,00,00,000 ) गोपियां रासक्रीडा में नृत्य करती हैं । कभी अधिक भी हो सकती है, कम भी हो सकती है लेकिन इसी तरह से संख्या है तो भगवान की मित्रों की संख्या भी कुछ कम नहीं है । कृष्ण के लड़की दोस्त हैं लड़के दोस्त हैं तो जितने लड़की दोस्त है या गोपियां है उनके लड़के दोस्त मित्र सखा भी असंख्य है । "हे स्तोककृष्ण" ऐसे नाम भी प्रातः स्मरणीय है । भगवान की मित्रों के नाम हम याद कर सकते हैं या केवल नाम सुन लिया तो नाम से सीमित नहीं रहता वो व्यक्तित्व का स्मरण भी होता है । वो फिर व्यक्तित्व का स्मरण नहीं उससे भी सीमित नहीं रहता उनके कार्यकलापों का स्मरण होना चाहिए तो इस प्रकार ये भगवान के मित्र हैं या ग्वाल बाल वे भी स्मरणीय है । प्रातः स्मरणीय और उनका स्मरण कुछ कृष्ण के स्मरण से कम नहीं है । क्योंकि कृष्ण से संबंधित है । कृष्ण के ही सगे संबंधी मित्र ही है । उनका स्मरण कृष्ण के स्मरण जैसा ही है । उनका स्मरण भी हम को कृष्ण भावना भावित बनाएगा तो मायावती मत बनो । हरि हरि !! "मायावादी कृष्ण अपराधी" तो होते ही हैं और मायावादी कुछ संबंध नहीं चाहते । ना तो भगवान के साथ और ना तो भक्तों के साथ या किसी के साथ यहां तक कि घर वालों के साथ । क्योंकि उनके अनुसार सब माया ही है । ब्रह्म सत्य जगत क्या है ! तो कोई आकार नहीं कोई संबंध नहीं कोई कर्म नहीं ये सब माया बाद है । मायावाद को भी समझो । मायावादी भगवान के रूप को नहीं मानते तो फिर औरों के रूप को भूल ही जाओ । कोई रूप नहीं है मतलब निराकार निर्गुण कोई गुण नहीं है निर्गुण है । कोई संबंध नहीं है, बस क्या है ? ज्योति है, प्रकाश है, ब्रह्म ज्योति है । वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ञानमद्वयम्। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ।। ( श्रीमद्भागवतम् 1.2.11 ) अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्त्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को ब्रह्म , परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं । केवल ब्रह्म के भ्रम को लेके बैठे हैं मायावादी । उनका परमात्मा से कुछ लेना देना नहीं होता और भगवान से तो वे दूर ही रहते हैं, हे ही दूर तो भगवान के मित्र है और हम भी भगवान के हैं । आप किसके हो ? भगवान के होना ! हां मंजूर है । हरि हरि !! तो भगवान अपने मित्रों को एक एक को संबोधित करते हुए बुला रहे हैं । हमको कब बुलाएंगे ? हमको केवल माया ही बुलाती है । माया ही पुकारती है, माया ही संबोधित करती है । कृष्ण कब बुलाएंगे ? कृष्ण हमारा नाम लेके कब पुकारेंगे ? ऐसा भी कुछ विचार आ जाता है । अच्छा है इन मित्रों को वो पुकार रहे हैं । "हे स्तोककृष्ण" उनके नाम है स्तोककृष्ण । "अंशो" एक मित्र का नाम है "अशो" । "श्रीदामन्" श्रीदामा । वो तो एक सुदामा हो गए सुदामापुरी गुजरात के जो लंगोटियार थे । गुरुकुल में साथ में पढ़ते थे वो सुदामा और एक श्रीदामा नामक एक मित्र है । सुबल सखा है बहुत ही खास गोपालक लड़का है । उनका चरित्र तो थोड़ा विशेष होता है । वे दूत बनके जाते हैं । राधा रानी के लिए कुछ संदेश भेजना होता है तो कृष्ण सुबल को बताते । जाओ जाओ कब से नहीं आ रही है, कब से नहीं मिले जाओ ढूंढो वो क्यों नहीं आ रही है या मान कर के बैठी है जाओ सुबल, तो सुबल सखा है बहुत ही खास दोस्त । अर्जुन भी है वो कुरुक्षेत्र का अर्जुन नहीं । यहां एक वृंदावन के एक अर्जुन है । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्त को संबोधित करते हुए ) एक यूक्रेन के अर्जुन यहां बैठे हैं । फिर विशाल नाम के भगवान के मित्र हैं । हमारे नागपुर में विशाल दास अधिकारी हैं । भगवान के मित्र का नाम विशाल है । "वृषभौजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप" ऐसे एक एक का नाम लेके पुकार रहे हैं या वे थोड़े आगे पीछे हैं तो उनको पास में बुला रहे हैं कृष्ण । चीरघाट से दूर जा रहे हैं वृंदावन में आगे बढ़ रहे हैं । "आगे आगे गैया' आगे आगे आए हैं और पीछे वे सब ग्वाल बाल है और ऐसे ये सब इन मित्रों को पुकारने का या पास बुलाने का उद्देश्य भी है कृष्ण का । कृष्ण जब जा रहे हैं अपने गायों को ले जा रहे हैं । "वनात् वनम" एक वन से दूसरे वन या चीरघाट भी एक वन में है तू वहां कई सारे वन है । "वनात् वनम" भागवत में कई बार शुकदेव गोस्वामी कहते हैं "वनात् वनम" एक वन से दूसरे वन । फिर आप कहोगे वो मधुबन से ताल वन जा रहे हैं याद दाल वन सिम कुमुद बन जा रहे हैं । काम वन से खादिर वन जा रहे हैं, तो वृंदावन में केवल द्वादश कानन ही नहीं है । ये व्रजभक्ति विलास नामक ग्रंथ में नारायण भट्ट गोस्वामी जो वजाचार्य रहे तो उनके अनुसार वनों के कई सारे प्रकार है । मुख्य भवन है फिर आदि वन है उपवन है तो हर वन के फिर और द्वितीय, तृतीय वन में वन तो कई सारे फिर सो हजार या एक उनके नाम भी है । वैसे फिर कोकिलावन भी है तो ये वृंदावन में ही है लेकिन और एक नाम हुआ कोकिलावन । ये वन वो वन कुछ मुख्य है कुछ गोण है आकार की दृष्टि से कहो या कुछ लीला के महात्म्य के दृष्टि से कम अधिक महिमा वाली लीला इस वन में उस वन में । वन ही वन है बहुत सारे वन तो हर वन का अपना वैशिष्ट्य भी है । वहां का वातावरण है हो सकता है, यहां तो कहा है अलग-अलग यह बात सुनके आगे बढ़ रहे हैं । "हेमन्ते प्रथमे मासि" तो हेमंत ऋतु है जो 2 महीने चलता है । ये भी है छह ऋतु है फिर दो 2 महीने वाले लेकिन वृंदावन में तो सारे रितु एक ही साथ विद्यमान रहते हैं । ऐसी व्यवस्था है तो एक वन में ग्रीष्म ऋतु चल रहा है तो दूसरे वन में वर्षा हो रही है । वर्षा ऋतु चल रहा है तो तीसरे वन में शरद ऋतु चल रहा है । चौथे वन में हेमंत ऋतु चल रहा है बगल वाले वन में शिशिर ऋतु चल रहा है तो ये अलग-अलग ऋतु, इसके अनुभव भी है हर ऋतु के आप कल्पना भी कर सकते हो । ग्रीष्म ऋतु गर्मी के दिन और फिर वर्षा के दिन । फिर वसंत ऋतु का अपना महिमा है वैशिष्ट्य है । इस प्रकार का सारा वेविद्य भी है वृंदावन में । ये विवधता है और कृष्ण उसका आनंद लेते हैं । तो "वनात् वनम" एक वन से दूसरे वन से कृष्ण जा रहे हैं गायों को लेके और साथ में मित्र तो हे ही । समय तो दौड़ता रहता है तो क्या कर सकते हैं ? तो मित्रों को पास में बुलाने का उद्देश्य इस समय इस लीला में एसएस शुकदेव गोस्वामी वर्णन कर रहे हैं । उद्देश्य ये रहा कि कृष्ण वन की जो शोभा है इसका स्वयं अनुभव कर रहे हैं और वण की शोभा किसके कारण ? वहां के जो वृक्ष है लगता है कि वैली है । उसके कारण जो शोभा है और केबल शोभा ही नहीं है कृष्ण ये भी कह रहे हैं मित्रों देखो देखो ! निदघार्कातपे तिग्मे छायाभिः स्वाभिरात्मनः । आतपत्रायितान्वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकसः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.30 ) अनुवाद:- जब सूर्य की तपन प्रखर हो गई तो कृष्ण ने देखा कि सारे वृक्ष मानो उन पर छाया करके छाते का काम कर रहे हैं । तब वे अपने ग्वालमित्रों से इस प्रकार बोले । "आतपत्रायितान्वीक्ष्य" वीक्ष्य मतलब देखो । संस्कृत में वीक्ष्य मतलब देखो बोलते हैं । वीक्ष्य मतलब क्या ? देखो ही नहीं उसे देखकर । वीक्ष्य मतलब देखकर । आपको अच्छे लगते हैं ऐसे शब्द समझना वगैरा या सीखना ? जब ऐसे आराम से बैठे हो । ठीक है वीक्ष्य ! कौन इसकी परवाह करता है तो वीक्ष्य मतलब देखकर, तो कृष्ण ने क्या देखा ? "द्रुमान" मतलब वृक्ष या गोद्रुम जैसे । नवद्वीप का एक द्वीप है गोद्रुम । वहां गाय और द्रुम वहां का वन तो वृक्षों को देखा तो कृष्ण बाद में कहते हैं देखो देखो, फिर छातें जैसे सेवा कर रहे हैं हमारी । हम जहां भी जाते हैं शीतलता प्रदान कर रहे हैं ये वृक्ष हमारे लिए । पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान् । वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति नः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.32 ) अनुवाद:- जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो जिनके जीवन ही अन्यों के लाभ हेतु समर्पित हैं । वे हवा , वर्षा , धूप तथा पाले को सहते हुए भी इन तत्त्वों से हमारी रक्षा करते हैं । अभी "वीक्ष्य" कहा था अभी "पश्य" कह रहे हैं । देखो देखो भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति ॥ ( भगवद् गीता 1.25 ) अनुवाद:- भीष्म , द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो । "पश्यैतान्समवेतान्कुरुन" ऐसे कृष्ण भी अर्जुन से भी कहे थे । "पश्यतैतान्" देखो देखो तुम देखना चाहते थे किसके साथ किन के साथ युद्ध करना तो "पश्यतैतान्महाभागान्" ये जो सारे वन के वृंदावन के जो वृक्ष है लता है ये क्या है ? "महाभागान्" बड़े भाग्यवान हैं या मतलब महात्मा है । "परार्थैकान्तजीवितान्" जिनका सारा जीवन औरों के लिए है । औरों को वो उपकार करते रहते हैं । औरों की सहायता करते रहते हैं । और उनको कुछ दान देते रहते हैं । "पत्रं पुष्पं फलं तोयं" ये कहां से आते हैं ? तो पत्रं कहां से मिलता है ? भगवान कहे भी ... पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्तयुपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ ( भगवद् गीता 9.26 ) अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र , पुष्प , फल या जल प्रदान करता है , तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ । मुझे ये दे दो "पत्रं पुष्पं फलं तोयं" ये भक्ति पूर्वक दोगे तो मैं स्वीकार करता हूं । ये सारे के सारे वन से प्राप्त होते हैं । पत्र भाष्य की आवश्यकता होती है क्या ? पत्र तो पत्ते यहां तक कि सब्जी भी पत्र है । हम रसोई के लिए पत्र सालड है । तुलसी पत्ता है पत्र । पुष्प, फूल कहां से आते हैं ? वृक्षों से आते हैं । फलमं कहां से आते हैं ? वृक्षों से आते हैं । तोयं कहां से आता है ? 1:00 से ही आता है । नारियल का डाब आप पीते हो या और भी कई प्रकार से । ये तोयं यहां तक की शहद शहद है शहद है । वन वृक्ष से ही प्राप्त होता है तो "परार्थैकान्तजीवितान्" इन वृक्षों का जो जीवन है बस औरों के लिए है । इस संसार के लोग स्वार्थी है लेकिन देख तो लो इस वृक्षों का परमार्थ देखो । एक होता है स्वार्थ । दूसरा क्या होता है ? ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्तों को संबोधित करते हुए ) स्वर्ण मंजरी क्या होता है ? परमार्थ होता है । कभी सोचे कि नहीं ? दो प्रकार है । एक स्वार्थ है दूसरा है परमार्थ । स्वार्थ तो सारी दुनिया स्वार्थी है । ये जो वृक्ष है कैसे हैं ? ये परमार्थ इसका जीवन औरों के लिए, परमार्थ का कार्य करते हैं । "परोपकाराय फलन्ती वृक्षः" ऐसा भी कहा है । परोपकार के उद्देश्य से ही वृक्षा फलते हैं फुलते भी हैं । ये "पत्रं पुष्पं फलं तोयं" देते हैं । "परोपकाराय" औरों के लिए इनका जीवन औरों के लिए है । उपकार करते रहते हैं । अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् । सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.33 ) अनुवाद:- जरा देखो , कि ये वृक्ष किस तरह प्रत्येक प्राणी का भरण कर रहे हैं । इनका जन्म सफल है इनका आचरण महापुरुषों के तुल्य है क्योंकि वृक्ष से कुछ माँगने वाला कोई भी व्यक्ति कभी निराश नहीं लौटता । और हम मनुष्यों का जीवन तो वैसे ही वृक्षों के ऊपर ही तो निर्भर है । हरि हरि !! और ये कहते हुए कृष्ण एक बड़ा सिद्धांत यहां कह रहे हैं । अपने मित्रों को सुना रहे हैं । अर्जुन भी मित्र है, कुरुक्षेत्र में 'सखाचेती' कहकर अर्जुन को उन्होंने बहुत सारा उपदेश के बच्चन सुनाएं, वैसा ही विशेष बच्चन भगवान अपने मित्रों को वृंदावन में सुना रहे हैं और ये नोट करना चाहिए । याद कर सकते हो तो कैसे याद करोगे तो ये दसवा स्कंद चल ही रहा है । अध्याय 22 श्लोक संख्या है 35 । आप सब शिक्षक भी हो आपको प्रचार भी करना है । "यारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश" कृष्ण उपदेश करना है कि नहीं ? हां यशोदा ? मॉरीशस में फिर करना है । कौन-कौन प्रचार करना चाहते हैं ? आदेश तो है सब प्रचार करें । बहाना के लिए कोई जगह नहीं है । ठीक है हाथ उठा कर के भी दिखा रहे हो आप तो इसको नोट करना होगा । आप इसको सीख सकते हो कंठस्थ कर सकते हो, समझ सकते हो । इस पर एक भाषण दिया जा सकता है । ये घंटे भर का प्रवचन हो सकता है अभी जो कहने वाले हैं । एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु । प्राणैरर्थैधिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.22.35 ) अनुवाद:- हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण , धन , बुद्धि तथा वाणी से दूसरों के लाभ हेतु कल्याणकारी कर्म करे । ठीक है समय हो गया है । व्याख्या करने की समय नहीं है मैंने कहा कि घंटे भर का प्रवचन हो सकता है इस श्लोक के ऊपर । 10.22.35 नोट तो करो । आप के पास भागवत का सेट होना चाहिए इसको आप पढ़िएगा । शब्दार्थ भी समझिए यदी भागवत है । इसको खोलके पढ़ना भी चाहिए, केबल रखा है । भगवद् गीता केसी रखी है ? यथारूप में रखी है । मैंने रखी है भगवत गीता यथारूप में जैसे खरीदी थी यथारूप में । इसको खोलो गीता को खोलो ! वैसे भी गीता का मैराथन शुरू होने वाला है । गीता जयंती ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय ! तो उसकी भी चर्चा करेंगे आपको तो उसकी भी चर्चा करेंगे आपको व्यस्त रहना है अभी पूरे महीने के लिए, गीता के वितरण के लिए । इस श्लोक का शब्दार्थ, भाषांतर, भावार्थ पढ़ लीजिए । "एतावज्जन्मसाफल्यं" जीवन को सफल बनाइए कृष्ण कह रहे हैं । "एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु" तो कृष्ण को ये सारे अनुभव मिला वन में जा रहे हैं, वन की यात्रा हो रही है तो वृक्षों का उदाहरण के समक्ष है । वो अपना जीवन कैसे सफल बना रहे हैं और ये बात दूसरों को सुना रहे हैं श्री कृष्ण और फिर स्पूर्ति मिली है कृष्ण को । एक उपदेश पूरी मानव जाति के लिए भगवान ने एक उपदेश दिया । उपदेश का वचन है । देहिनो ऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ ( भगवद् गीता 2.13 ) अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस ( वर्तमान ) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है । धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता । मनुष्यों को या कम से कम मनुष्य को मनुष्य के लिए कुछ करना चाहिए । एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के लिए या कुछ मनुष्य का कोई समूह हो सकता है कोई परिवार और परिवार के लिए I कृष्ण को केंद्र में रखते हुए या हम सब अलग-अलग व्यक्तित्व है परिवार है देश है, तो हम अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ की सेवा कर सकते हैं, मदद कर सकते हैं । जो अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ सारे संसार की सेवा कर रहा है, सेवक है तो "देहिनामिह देहिषु" । सेवा कैसी करनी चाहिए ? प्रचार प्रसार से सेवा कर सकते हैं ऐसा कृष्ण कह रहे हैं । इसको भी याद कीजिए और वो है "प्राणैर" प्राण से सेवा । ये कृष्ण के ही सेवा है । माधव सेवा ही है क्या ? मानव सेवा । मानव सेवा माधव सेवा नहीं हो सकती । हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है । लेकिन माधव सेवा से मानव सेवा इसको भी सीखो तो हिंदू बनके इसको उल्टा कर दिया हिंदुओं ने और फिर कहते हैं गर्व से कहते हैं हम हिंदू हैं । मानव सेवा माधव सेवा ऐसा नहीं करना है । माधव सेवा ही है मानव सेवा तो फिर माधव सेवा और मानवों की सेवा । कैसे करें ? "प्राणैर" प्राण दे दो, पूरा समर्पण संख्या 1 । दूसरा क्या है ? "अर्थै" धन दे दो । धन क्या है ! तुम्हारे बाप का थोड़ी है धन । भगवान का ही तो है इसको समझो और फिर दे दो जिसका है उसको लौटा दो । धन मतलब केवल पैसा अडगा ही नहीं । रुपीस और टाउंस, डॉलर, सीलिंग ही नहीं । संपत्ति जमीन भी धन है । "प्राणैरर्थै" आर्थिक विकास तो "प्राणैरर्थै" धन दो संपत्ति दो जमीन दो संख्या 2 । "प्राणैरर्थैधिया" मतलब बुद्धि दो, दिमाग लडाओ थोड़ा कृष्ण की सेवा के लिए । नहीं तो क्या उपयोग है दिमाग का । दिमाग का उपयोग हमने कृष्ण की सेवा में नहीं किया तो बेकार है । "श्रम एव हि केवलम्" है । तो "प्राणैरर्थैधिया" बुद्धि दो, दिमाग दो और चौथा है ! "वाचा" मुख से कहो । प्रचार करो, बताओ सबको । "यारे देख, तारे कह 'कृष्ण'-उपदेश" तो ये चौथा है । "प्राणैरर्थैधिया वाचा" फिर अंत में कहा है "श्रेयआचरणं सदा" तो ऐसा आचरण, ऐसा व्यवहार ये श्रेयस्कर है या ऐसा आचरण होना चाहिए या यही है सदाचार । "प्राणैरर्थैधिया वाचा" । ठीक है ! गौर प्रेमानंदे ! ( हरि हरि बोल ! ) ॥ हरे कृष्ण ॥

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