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जप चर्चा दिनांक १० अक्टूबर २०२० हरे कृष्ण! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 770 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन, अभय चरणारविन्द रे। दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे, तरह ए भव सिन्धु रे॥1॥ शीत आतप, वात वरिषण, ए दिन यामिनी जागि’रे। विफले सेविनु कृपण दुर्जन, चपल सुख-लव लागि’रे॥2॥ ए धन, यौवन, पुत्र परिजन, इथे कि आछे परतीति रे। कमलदल-जल, जीवन टलमल, भजहुँ हरिपद नीति रे॥3॥ श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वन्दन, पादसेवन, दास्य रे। पूजन, सखीजन, आत्मनिवेदन, गोविन्द दास अभिलाष रे॥4॥ अर्थ (1) हे मन, तुम केवल नन्दनंदन के अभयप्रदानकारी चरणारविंद का भजन करो। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर संत जनों के संग द्वारा भवसागर तर जाओ! (2) मैं दिन-रात जागकर सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, वर्षा में पीड़ित होता रहा। क्षणभर के सुख हेतु मैंने वयर्थ ही दुष्ट तथा कृपण लोगों की सेवा की। (3) सारी सम्पत्ति, यौवन, पुत्र-परिजनों में भी वास्तविक सुख का क्या भरोसा है? यह जीवन कमल के पत्ते पर स्थित पानी की बूँद जैसा अस्थिर हे, अतः तुझे सदा भगवान् भी हरि की सेवा व भजन करना चाहिए। (4) गोविंददास की यह चिर अभिलाषा है कि वह भक्ति की निम्नलिखित नौ विधीओं में संलग्न हो, श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वंदन, पादसेवन, दास्य, पूजन, साख्य एवं आत्मनिवेदन। कल हम स्लाइड देख रहे थे- शीत आतप, वात वरिषण, ए दिन यामिनी जागि’रे। इस संसार में कभी ठंडी तो कभी गर्मी, कभी आंधी तो कभी तूफान, कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि, कभी सुकाल तो कभी दुष्काल होता ही रहता है। इसीलिए यह संसार दुखालयम कहा गया है। मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ( श्रीमद् भगवतगीता ८.१५) अनुवाद:- मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है। भगवान कहते हैं- अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥८॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥९॥ असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥१०॥ मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥११॥ अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१२॥ ( श्री मद् भगवतगीता १३.८-१२) अनुवाद:-विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से विलगाव, आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज - इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है। जन्म , मृत्यु, ज़रा, व्याधि सब दुखालयम है। भगवान इसे दुःखदोषानुदर्शनम् कहते हैं। लोग मृत्यु से दुखी होते हैं। जिसकी मृत्यु होती है, वह तो दुखी होता ही होगा लेकिन अन्य भी दुखी होते हैं। अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्। शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्र्चर्यमतः परम्।। ( महाभारत) अर्थ:- प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते है, शेष प्राणी अनंत काल तक यहाँ रहने की इच्छा करते हैं। इससे बड़ा और क्या आश्चर्य हो सकता हैं। हम अभी तक मरे नहीं है और जब हम किसी को मरते हुए देखते हैं अथवा मरा हुआ देखते है तब हम दुखी होते हैं।जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्। जैसा कि हम कल समझा रहे थे- यह संसार आदिदैविक, आदिभौतिक, आध्यात्मिक दुखों से भरा हुआ है। कितना भरा हुआ है? शास्त्र कहता है- ओतम प्रोतम अर्थात ओतप्रोत जैसे वस्त्र में धागे होते हैं ओतं प्रोतं। कोई भी कपड़ा उठा कर देखिए, धागे ऐसे जाएंगे, तत्पश्चात वैसे। इसे ही ओतं प्रोतं कहा गया है। जैसे वस्त्र में धागा सर्वत्र होता है। वैसे ही इस संसार अर्थात दुखालय में दुख सर्वत्र है। आप कहोगे कि सुख भी तो होता है। भगवान कहते हैं कि दुःखालयमशाश्वतम् अथवा अशाश्वतम् अर्थात अस्थायी है। यदि यहां सुख भी है… यह उपकार है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते हैं भारत- भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार। जन्म सार्थक करि' पर उपकार।। (श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ९.४१) अनुवाद:- जिसने भारतभूमि( भारतवर्ष) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए। आप भारत भूमि में जन्मे हो, यस! यस! इस समय मनुष्य रुप में हो। हां, हां मनुष्य ही बने हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि भारत- भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार। जन्म सार्थक करि' पर उपकार। इस्कॉन यह उपकार अथवा टॉप मोस्ट वेलफेयर प्रोग्राम कर रहा है। इस्कॉन चैतन्य महाप्रभु का ही इस्कॉन है। चैतन्य महाप्रभु ने ही इसकी स्थापना श्रील प्रभुपाद को निमित बनाकर की है और हम इस अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत के सदस्य बने हैं।कृष्णभावना का प्रचार प्रसार ही सर्वोपरि कल्याणकारी कार्य है। बहुजन हिताय बहुत सुखाय विफले सेविनु कृपण दुर्जन, चपल सुख-लव लागि’रे॥2॥ गोविंद दास इस गीत में आगे लिखते हैं- विफले सेविनु कृपण दुर्जन, हम औरों की सहायता करते हैं, सेवा करते हैं, मदद करते हैं। जिनकी हम मदद करते हैं वो हमारे संगे सम्बंधी भी हो सकते हैं या हमारे समाज के ही लोग हो सकते हैं या हमारे देश वासी हो सकते हैं या मानव जाति के कुछ मानव हो सकते हैं लेकिन यहां गोविंद दास कह रहे हैं विफले सेविनु कृपण दुर्जन, हमने सहायता तो की, सेवा तो की लेकिन हमनें किसकी सेवा और किसकी सहायता की? हमनें कृपणों की सहायता की है। एक होता है ब्राह्मण और एक उसके बिल्कुल विपरीत होता है कृपण। कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्। (श्रीमद् भगवतगीता २.७) अनुवाद:- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ । कृप्या मुझे उपदेश दें। इसे सम्भर्मित हुए अर्जुन ने कहा- मेरी स्थिति अब ऐसी बन चुकी है। मुझे कार्पण्यदोष लगा है।यह कृपणता अथवा यह कंजूसी है। हरि! हरि! (कंजूस किसे कहते हैं- जिसके पास बहुत धन होने के उपरांत भी उसको खर्च नहीं करता, उसका लाभ नहीं उठाता। वह पूंजी बनाए रखता है। उसका सदुपयोग नहीं करता) इस गीत में कहा है दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे, यह मनुष्य जीवन कैसा है? दुर्लभ है। प्रह्लाद महाराज अपने शब्दों में कहते हैं दुर्लभं मानुसं जन्म अर्थात यह मनुष्य जीवन दुर्लभ है।अपि अधुरवम .. हम कल भी कह रहे थे। यह मनुष्य जीवन दुर्लभ भी है औऱ थोड़ा अस्थायी है। भरोसा नहीं कर सकते कब तक टिकेगा लेकिन जब तक भी टिकेगा। यह अर्थदम अर्थात अर्थपूर्ण है। इस मनुष्य जीवन की बहुत महिमा अथवा महत्व अथवा उपयोगिता है। जो इस दुर्लभ मनुष्य जीवन की महिमा नहीं समझता है और सही से इस मनुष्य जीवन का उपयोग नहीं कर रहा है या कृष्ण प्रेम प्राप्ति के लिए उसका प्रयोग नहीं कर रहा है और केवल धन अर्जन तो कर रहा है लेकिन प्रेम अर्जन नहीं कर रहा है और काम को ही प्रेम समझ रहा है। इसलिए 'आई लव यू' या 'आई लव दिस' या आई लव माय कंट्री .. इसी में जीवन बिता रहा है। ऐसे व्यक्ति को कृपण कहा गया है। अब वह मानव ही नहीं रहा अपितु वह दानव बन चुका है। उसकी दानवी प्रवृत्ति से ही वह कृपण बना है। हम लोग ऐसे कृपणों की सहायता अथवा मदद करते हैं। यहाँ गोविन्द दास कह रहे हैं। विफले सेविनु कृपण दुर्जन, चपल सुख-लव लागि’रे॥ लोग कृपण और दुर्जन होते हैं। सज्जन नहीं होते अपितु दुर्जन होते हैं, दुष्ट, दुराचारी और अनाचारी व व्यभिचारी होते हैं। जैसा कि पहले ही कहा है कि वे हमारे परिवार के सदस्य हो सकते हैं या हमारे पड़ोसी हो सकते हैं। हमारे सहचारी हो सकते हैं, हमारे देशवासी हो सकते है। ऐसे लोगों की तुम सहायता अथवा मदद कर रहे हो। यह विफले सेविनु अर्थात खाली फोकट है। हमें इसमें कोई फायदा नहीं होगा। फायदा होना किसे कहते हैं? जब हमें कृष्ण प्रेम प्राप्त हुआ मतलब फायदा हुआ। कृष्ण प्रेम प्राप्त हुआ मतलब तुम उस कार्य अथवा कृत्य अथवा सेवा में सफल हुए। सेवा का साफल्य किसमें है? यदि सेवा से कृष्ण प्रेम का अर्जन हुआ अर्थात भगवान का प्यार प्राप्त हुआ तो वह कार्य सफल है अन्यथा वह विफल है। यहां कहा है? हमारा अधिकतर कार्य विफल ही होगा। सफल- विफल। तुम्हारा कार्य विफल होगा और विफल हो रहा है क्योंकि तुम कृपणों और दुर्जनों की सेवा व मदद कर रहे हो। जबकि सेवा तो ब्राह्मणों और सज्जनों की करनी चाहिए। कृपण से विपरीत ब्राह्मण होते हैं। दुर्जन के विपरीत सज्जन होते हैं। सेवा तो ब्राह्मणों व सज्जनों की करनी चाहिए। तब ही तुम्हारा वह कार्य सफल होगा। हरि! हरि! जैसे हम कोई दान भी देते हैं (हम राशि देकर औरों की सहायता करते हैं।वेलफेयर प्रोग्राम चलते रहते है) तुमनें जिस व्यक्ति को दान दिया अथवा सहायता की, वह तमोगुणी है या रजोगुणी है या सतोगुणी है या गुणातीत वैष्णव है अर्थात उस व्यक्ति की जिसकी तुमने सहायता की है, वह व्यक्ति किस स्तर अथवा किस गुण का है, तुम्हारे सफलता या विफलता इस बात पर निर्भर करती है। हरि! हरि! हो सकता है कि तुमनें किसी की मदद की हो या उसे धनराशि दी लेकिन उसने उस धनराशि का उपयोग शराब पीने के लिए या वेश्यागमन के लिए प्रयोग किया तो तुम कैसे फल की अपेक्षा कर सकते हो। यह भी हो सकता है वह व्यक्ति कुछ सतोगुणी था, जिसके परिणाम स्वरूप तुमने कुछ सहायता की हो। उसका परिणाम अधो गच्छन्ति तामसाः भी हो सकता है। ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ( श्रीमद् भगवतगीता १५.१८) अनुवाद:-सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं। हम नरक में भी जा सकते हैं। अरे! हमने तो सहायता की थी। नरक में भी जा सकते हैं? कोई कसाई गायों को कसाईखाने ले जा रहा था। रास्ते में गाएँ थोड़ी आगे निकल गयी और वह कसाई गायों के बहुत पीछे रह गया। वह गाय को खोजते हुए जा रहा था। कहां है मेरी गाय? कहां गई? कहां मुड़ी, कहां पहुंची। हरि! हरि! उसे रास्ते में कहीं एक व्यक्ति बैठा मिला, उसने उससे पूछा, क्या तुमनें यहाँ से गायों को आगे जाते हुए देखा है- वो बोला- हां! हां देखा तो है। वैसे वो देखने और कहने वाला सज्जन था और वो थोड़ा समझ भी गया था कि लगता है कि यह कसाई है और गायों को कसाई खाने (कत्ल खाने) में ले जा रहा है। उसने कहा- गाय! हां, गाय, मैंने यहां से जाते ही देखी है, वह इस चौराहे से बाई ओर मुड़ी है। गाय तो सीधी गई थी लेकिन उसने कहा बाएं मुङो। बाएं तरफ गाय गयी है। उसने झूठ कहा था लेकिन वैसे सच ही कहा था, सही कहा, ऐसा ही कहना चाहिए था। ऐसा ही उत्तर देना चाहिए था। उसका कार्य सफल हुआ। उसका फल स्वर्ग प्राप्ति भी हो सकता है। उसने गोपाल की गायों की रक्षा के लिए कुछ कदम उठाएं या सहायता की है इसलिए वह भगवत धाम भी लौट सकता है। लेकिन अगर उस व्यक्ति ने यह कहा होता और स्वयं ही तमोगुणी होता और तब वह कहता नहीं! नहीं! गाय सीधी गयी है। मैंने जाते हुए देखा है। देखो! मैंने सेल्फी भी खींची है। विफले सेविनु कृपण दुर्जन, उस विफल और दुर्जन कसाई की सहायता करने वाले का सारा प्रयास विफल रहेगा। विफले सेविनु कृपण दुर्जन। हरि! हरि! चपल सुख-लव लागि’रे चपल सुख में लोग समाधान मान लेते हैं। चपल अर्थात चंचलता आती और जाती रहती है। कुछ क्षणों, घंटों व मिनट के लिए टिकती है और हम उसी में सुखी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति है संसार के लोगों की वे उसको ही सुख मानते हैं। चप्पल सुख लव लागी रे ए धन, यौवन, पुत्र परिजन, इथे कि आछे परतीति रे। कमलदल-जल, जीवन टलमल, भजहुँ हरिपद नीति रे॥3॥ संसार में हम धनी बने हैं लेकिन कब तक धनी बने रहोगे, हम निर्धन भी बन सकते हैं। भगवान कभी भी छप्पर फाड़ कर इतना सारा धन दे सकते हैं या कभी भी हमारा दिवाला निकल सकते हैं। इस संसार में दोनों भी हो सकते हैं ।यही तो संसार है हम पल में धनी बन सकते हैं। पल में हमारा दिवाला निकल सकता है और पल में हम बैंक करप्ट भी हो सकते हैं। ऐसा सोचो। गीत में ऐसा कहा जा रहा है। ए धन, यौवन, पुत्र परिजन तुम्हारा यह धन कब तक टिकेगा। तुम सदा के लिए युवक नहीं रहोगे।। ए धन, यौवन, पुत्र परिजन। इथे कि आछे परतीति रे। यहाँ दिखाया जा रहा है हम कभी सुखी तो कभी दुखी। यह ए धन, यौवन ओपन दृश्य है। एक क्षण सुखी तो दूसरे क्षण दुखी हैं। आपको याद है? आप सुन रहे हो। ऐसे क्षण आपने देखे हैं कि नहीं, केवल एक बार ही नहीं हजारों करोड़ों बार हमने ऐसे अनुभव देखे हैं। लेकिन माया वैसे भुला देती है। हरि! हरि! हर व्यक्ति जो इस ब्रह्मांड अथवा इस संसार में है, वह सुख दुख दोनों स्थितियों में से गुजरता है। भगवान् भगवतगीता में कहते हैं- ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ५.२२) अनुवाद:- बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता। हमारी इंद्रियां, इंद्रियों के विषय को स्पर्श करती हैं या फिर संभोग- सम्यक प्रकार से भोग शब्द,स्पर्श, रूप, गंध यह पांच इंद्रियों के पांच विषय हैं। स्त्री या पुरुष संग या मिलन , आलिंगन और चुंबन, मैथुनानंद जो शास्त्रों में कहा गया है। उस मैथुनानंद को ही संभोग कहा गया है। जहाँ सारी इंद्रियां एक साथ तथाकथित आनंद को लूटती हैं। भगवान गीता में कहते हैं। ये हि संस्पर्शजा भोगा। जब इंद्रिया, इंद्रिय विषयों के संपर्क में आ जाती है तब संस्पर्शजा अर्थात भोग उत्पन्न होता है। उससे सुख या आनंद संभोग उत्पन्न होता है। पुरुष स्त्री मैथुनानंद में कुछ शब्द मीठी-मीठी भी बातें करते हैं। एक दूसरे को सम्भर्मित कर करते हैं। स्पर्श तो हो ही रहा है। एक दूसरे से त्वचा का स्पर्श होता है। ये हि संस्पर्शजा भोगा.. शब्द स्पर्श हो गया और रुप-औरत सुंदर है, आदमी हैंडसम है। यह रूप ही है, शब्द स्पर्श और रस भी है। फिर आलिंगन और चुंबन होता है। गंध भी है और फिर दुर्गंध भी है यह दुर्गंध ही होता है लेकिन इस को सम्भर्मित होकर वह गंध ही मानते हैं। स्त्री पुरुष के अंगो की जो सुगंध होती है फिर उसमें कोई एडिशनल पाउडर या और सुगंधित करके संभ्रम को और बढ़ाया जाता है। इस संसार के स्त्री-पुरुष का संभोग अर्थात यही लक्ष्य होता है। हरि! हरि! भगवान कहते हैं इंद्रियों के विषयों ने तुमको सुख दिया। वही तुम्हारे दुख का कारण बनने वाला है। जैसे हम शुरुवात में कह रहे थे कि सुख से ही दुख उत्पन्न होता है। सुख और दुख का ऐसा घनिष्ठ संबंध है। जैसे एक सिक्का होता है, उसके दो पहलू होते हैं। सिक्का एक तरफ का नही होता। ऐसे ही माया के दो रूप है- एक सुख और एक दुख। सुख का अनुभव, दुख अनुभव। सुख से दुख और जब दुख में है तो फिर सुख की खोज और सुख के लिए प्रयास और फिर सुख मिला तो सुख में सुखी होते हैं और दुख में दुखी होते हैं लेकिन कृष्ण भावना भावित व्यक्ति दुख में दुखी नहीं होता और सुख में सुखी नहीं होता। ऐसा गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान कहते हैं सुख में सुखी नहीं होना, दुख में दुखी नहीं होना। सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।। ( श्री मद् भगवतगीता २.३८) अनुवाद: तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो। ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। सुख के अतीत (परे) और दुख के अतीत (परे) जो स्थिति है, भावना है, विचार है , वही कृष्ण भावनामृत है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह कृष्ण भावनामृत है। हरे कृष्ण महामंत्र का श्रवण, कीर्तन, स्मरण यह नाम स्मरण यह कीर्तन स्वयं भगवान ही है। यह हमें माया के चंगुल से छुड़वाएँगे। हरि! हरि! हमकों मुक्त करेंगे। चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम् ( श्री शिक्षाष्टकं श्लोक 1) अनुवाद:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। ऐसे ही जब हम कीर्तन करेंगे, जप करेंगे श्रवण कीर्तन होगा। चेतोदर्पणमार्जनं होगा अर्थात जो हमारी चेतना का दर्पण है उसका मार्जन होगा, धीरे-धीरे स्वच्छ होने लगेगा। फिर उस स्वच्छ आईने/ दर्पण में हमारा जो स्वरूप है अर्थात हम जोकि आत्मा हैं उसका हम दर्शन देख पाएंगे, उसका अनुभव होगा, साक्षात्कार होगा। आत्मा के बगल में भगवान् है।आत्मा परमात्मा साथ में हैं। भवमहादावाग्नि-निर्वापणं इसी के साथ जो यह दावाग्नि है, यह जो संसार है, दुख निवारण होगा। सुख निवारण होगा। हम सुख-दुख से परे पहुंचेंगे। यही चैतन्य महाप्रभु ने हमें बताया है। चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्। संकीर्तन आन्दोलन की जय हो! संकीर्तन आन्दोलन के सभी सदस्यों की जय हो! आज भी पूरा नही हुआ यह गीत। इसको अगले सेशन में आगे बढ़ाएंगे। हरे कृष्ण🙏

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Наставления после совместной джапа сессии 10 Октябрь 2020 г. БХАДЖАХУ РЕ МАНА (МОЛИТВА УМУ, ЧАСТЬ 2) Прямо сейчас с нами воспевают преданные из 770 мест. ш́ӣта а̄тапа ба̄та бариш̣ана э дина джа̄минӣ джа̄ги ре бипхале севину кр̣пан̣а дураджана чапала сукха-лаба ла̄ги’ ре Перевод: Днем и ночью я, не зная покоя, страдаю от жары и холода, ветра и дождя. Ради крупицы мнимого счастья я стал никчемным слугой порочных и скупых людей. (Песня Бхаджаху ре мана, стих 2 из песни Говинды Даса Кавираджа] Вчера мы обсуждали этот бхаджан. Этот материальный мир постоянно меняется. От сильных дождей до засухи и голода, от сильного холода до сильной жары. Этот мир - кладезь боли. Рождение, смерть, старость и болезни, печали и боль. ...джанма-мритйу-джара-вйадхи- духкха-дошанударшанам Перевод Шрилы Прабхупады: ...понимание того, что рождение, смерть, старость и болезни — это зло (Б.Г. 13.9) Все это можно увидеть за всю жизнь. В этом мире везде боль и печаль. Когда кто-то умирает, он чувствует боль, и другие также чувствуют боль, видя его мертвое тело. Этот мир наполнен тремя видами страданий: 1. Адхьятмика 2. Адхибхаутика 3. Адхидайвика. Подобно тому, как повсюду в ткани полно ниток, так и этот мир полон страданий. Вы можете сказать, что есть и счастье. Но Господь говорит, что если это счастье, оно длится недолго, если есть печаль, то недолго. Стремление к счастью также является главной причиной печали. Перестань пытаться стать счастливым в этом мире. Сознание Кришны выше этого. сукха-дух̣кхе саме кр̣тва̄ ла̄бха̄ла̄бхау джайа̄джайау тато йуддха̄йа йуджйасва наивам̇ па̄пам ава̄псйаси Перевод Шрилы Прабхупады: Сражайся во имя сражения и не думай о счастье и горе, потерях и приобретениях, победе и поражении. Действуя так, ты никогда не навлечешь на себя греха. (Б.Г. 2.38) Это выше счастья и печали, потерь и приобретений, побед и поражений. Это трансцендентный уровень. Мы должны выйти за рамки потерь и приобретений, победы или поражения. Это искусство жить. Мы становимся стабильными и находящимися в определенной ситуации. Учения сознания Кришны называются Шикша амрита или Упадешамрита. Амрита означает не только сладкий, но с помощью этой амриты мы выходим за пределы смерти. Конечно, когда мы родились, мы должны однажды умереть. Но мы никогда не умрем, попробовав этот нектар. Для наших чувств, для наших ушей это нектар - слышать и понимать, а затем следовать им. После получения (амриты) вы можете поделиться с другими, это называется киртаном. Когда мы слышим, это называется шраванам. Когда мы проводим шраванам и киртанам, происходит смаранам. Сначала сделайте свою жизнь успешной, а затем сделайте одолжение другим. Эта проповедь сознания Кришны — высшая (деятельность). Кришна Чайтанья Махапрабху сказал: бха̄рата-бхӯмите хаила манушйа-джанма йа̄ра джанма са̄ртхака кари’ кара пара-упака̄ра Перевод Шрилы Прабхупады: «Тот, кто родился человеком на земле Индии [Бхарата-варши], должен сделать свою жизнь совершенной и трудиться на благо всем людям». (Ч.Ч. Āди-лила 9.41) Это высшая программа социального обеспечения ИСККОН. ИСККОН был основан Чайтаньей Махапрабху, и Шрила Прабхупада стал его инструментом. Мы члены этого движения. бипхале севину кр̣пан̣а дураджана чапала сукха-лаба ла̄ги’ ре Перевод: Ради крупицы мнимого счастья я стал никчемным слугой порочных и скупых людей. (Песня Бхаджаху ре мана, стих 2 из песни Говинды Даса Кавираджа) Говинда дас пишет: «Мы служим многим материалистам, будь то наши родственники, друзья, соседи или националисты». Итак, он говорит, что мы служим скупцам, нечестивым людям. ка̄рпан̣йа-дошопахата-свабха̄вах̣ пр̣ччха̄ми тва̄м̇ дхарма-саммӯд̣ха-чета̄х̣ йач чхрейах̣ сйа̄н ниш́читам̇ брӯхи тан ме ш́ишйас те ’хам̇ ш́а̄дхи ма̄м̇ тва̄м̇ прапаннам Перевод Шрилы Прабхупады: Я больше не знаю, в чем состоит мой долг, и постыдная слабость скупца лишила меня самообладания. Поэтому прошу, скажи прямо, что лучше для меня. Отныне я Твой ученик и душа, предавшаяся Тебе, — наставляй же меня. (Б.Г. 2.7) Скупцы не тратят деньги, даже имея много богатства и ресурсов. Он говорит, что человеческая форма - это редкая форма жизни. Это одновременно временно и неопределенно. Прахлада Махарадж также сказал: ш́рӣ-прахра̄да ува̄ча каума̄ра а̄чарет пра̄джн̃о дхарма̄н бха̄гавата̄н иха дурлабхам̇ ма̄нушам̇ джанма тад апй адхрувам артхадам Перевод Шрилы Прабхупады: Махараджа Прахлада сказал: Тот, у кого достаточно разума, должен с самого начала, с детских лет, использовать свою человеческую жизнь для того, чтобы заниматься преданным служением, а не чем-то иным. Родиться человеком — это редкая удача: ведь человеческое тело, хотя оно, как и все другие тела, бренно, имеет особую ценность, ибо позволяет преданно служить Верховной Личности Бога. Даже недолгое, но искреннее преданное служение может привести человека к высшему совершенству. (Ш.Б. 7.6.1) ...Так что использовать его нужно очень разумно, но людей обманывают. Они заняты заработком. Они ошибочно принимают вожделение за любовь. Тогда они скупцы. У людей развились демонические наклонности. Они скупы и злы. Они не добрые. Если мы помогаем таким людям, от этого нет никакой пользы. Успех жизни заключается в том служении, благодаря которому вы развиваете любовь к Богу, любовь к Кришне. Все остальные действия оказываются напрасными. Брахманы автономны по отношению к скупцам. Мы должны служить брахманам. Ваш успех или неудача зависят от того, кому вы служите. Каков уровень этого человека? Может быть, вы пожертвовали деньги, чтобы помочь человеку, но он использовал эти деньги, чтобы распивать алкоголь или развлекаться с проституткой. Это может привести вас в ад. Однажды мясник гнался за стадом коров, но почему-то пропустил стадо, поэтому спросил у человека по дороге. Это был джентльмен, который сказал, что видел стадо и направил мясника туда, куда коровы никогда не ходили, чтобы спасти коров. Хотя его ответ был неправильным, он ответил правильно. Это будет учтено в его добрых делах. Это может привести его на небеса, поскольку он спас коров Гопала. Он может отправиться «Назад к Богу». С другой стороны, если бы он правильно направил мясника, он был бы посредником в убийстве невинных коров. чапала сукха-лаба ла̄ги’ ре Ради маленького счастья мы бесполезно служим злым и скупым людям. э дхана, джаувана, путра, париджанаитхе ки а̄чхе паратӣти рекамала-дала-джала, джӣвана т̣аламалабхаджаху̐ хари-пада нити ре Перевод: Как можно надеяться, что богатство, молодость, дети и другие близкие могут принести подлинное счастье? Эта жизнь так же непостоянна, как капля воды на лепестке лотоса. Поэтому всегда служи и поклоняйся божественным стопам Господа Хари! (Песня Бхаджаху ре мана, стих 3 из песни Говинды Даса Кавираджа) Вы можете стать миллионером, а также можете в одночасье остаться без гроша. Иногда бывает богатство, молодость, счастье, а иногда - несчастье. Мы это пережили сотни тысяч раз. Каждое живое существо переживает счастье и горе этого мира. йе хи сам̇спарш́а-джа̄ бхога̄ дух̣кха-йонайа эва те а̄дй-антавантах̣ каунтейа на тешу рамате будхах̣ Перевод Шрилы Прабхупады: Разумный человек сторонится удовольствий, рожденных от соприкосновения материальных чувств с объектами восприятия, ибо такие удовольствия являются источником страданий. У всех материальных удовольствий, о сын Кунти, есть начало и конец, поэтому мудрец никогда не тешится ими. (Б.Г. 5.22) Сексуальное удовольствие считается наивысшим в этом мире. Это приносит удовольствие всем чувствам. Есть звук, зрение, вкус, осязание, запах. Таким образом, это становится так называемым удовольствием для всех органов чувств. Но Кришна говорит, что эти объекты чувств приносят вам счастье и удовольствие, и те же объекты также причиняют вам печаль и боль. У каждой монеты две стороны. Удовольствие и боль. Материалистичный человек становится счастливым в хорошие времена и грустным в плохие. Но человек с сознанием Кришны устойчив в обеих ситуациях. Харе Кришна Харе Кришна Кришна Кришна Харе Харе Харе Рама Харе Рама Рама Рама Харе Харе Это результат шраванам, киртанам и смаранам. Мы будем освобождены от материального рабства, и постепенно наше сердце очистится, и мы сможем осознать свою роль в играх Кришны. Это выведет нас за пределы нестабильного счастья и печали, за пределы непостоянных волн удовольствия и боли. чето-дарпана-марджанам бхава-маха - давагни-нирвапанам шрейах-каирава-чандрика-витаранам видйа-вадху-дживанам анандамбудхи-вардханам прати-падам пурнамритасваданам сарватма-снапанам парам виджайате шри-кришна-санкиртанам Перевод Шрилы Прабхупады: Да славится всепобеждающее пение святого имени Господа Кришны, которое способно очистить зеркало сердца и потушить пылающий пожар материального существования! Пение святого имени подобно прибывающей луне, которая побуждает распуститься белую лилию удачи для всех живых существ. В нем жизнь всего знания. Повторение святого имени Кришны углубляет океан духовного блаженства. Оно несет живительную прохладу всем и позволяет вкушать нектар бессмертия на каждом шагу. (Ч.Ч. Антья-лила, 20-12, Шри Шикшаштакам, стих 1) Санкиртана Андолан ки Джай! Участвуйте в санкиртане. Мы остановимся здесь сейчас. Мы не смогли закончить песню даже сегодня. Харе Кришна!