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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *दिनांक 17 अप्रैल 2021* हरे कृष्ण! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ८०० स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरिबोल! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आप तैयार हो? मैं तो तैयार बैठा हूँ लेकिन जब श्रोता तैयार नहीं हैं, तब वक्ता क्या कर सकता है। श्रोता और वक्ता की जोड़ी होती है। यदि आपका साथ है तब हम आगे बढ़ते हैं। यस! क्या यह ठीक हैं? एकनाथ गौर! क्या तुम तैयार हो? हिंदी समझते हो? क्या तुम्हें हिंदी समझ आती है? सीखो! राम नवमी महोत्सव की जय! राम नवमी महोत्सव के अंतर्गत हम कुछ राम का संस्मरण कर ही रहे हैं। जब हम राम का संस्मरण कहते हैं अथवा करते हैं, तब हमें अन्यों का भी स्मरण होता है। लक्ष्मण,भरत, शत्रुघ्न, दशरथ, कौशल्या, कैकेई, सुमित्रा का भी स्मरण भी राम स्मरण ही हुआ। हनुमान का स्मरण भी हमें राम का ही स्मरण दिलाता है। जय हनुमान! हनुमान को याद करते ही राम हमारे समक्ष खड़े हो जाते हैं। ऐसे ही वैष्णवों अथवा भक्तों की पहचान होती है। भक्त अपने भगवान का स्मरण दिलाते हैं, अपने इष्टदेव का स्मरण दिलाते हैं। उनकी तरफ देखो, उनको सुनो अथवा उनके सानिध्य में जाओ इत्यादि। मैं केवल राम का स्मरण करूंगा, मैं हनुमान का स्मरण नहीं करूंगा, ऐसा तो संभव नहीं है। केवल राम का स्मरण करूंगा, दशरथ को भूल जाऊंगा या दशरथ के साथ मेरा कोई लेना देना नहीं है। केवल राम। जय श्री राम! लेकिन ऐसा नहीं होता है। यह थोड़ी सिद्धांत की बात भी है कि जब राम कथा अथवा रामायण की कथा होती है तब राम के साथ रामलीला का स्मरण तो होता ही है।जब राम प्रकट होते हैं तब लीला तो संपन्न होती है। लीला तो अकेले में खेली नहीं जा सकती, लीला के लिए सभी चाहिए। लीला के लिए धाम भी चाहिए, धाम की कथा भी राम कथा है। लीला चाहिए तो फिर परिकर भी चाहिए तब सारे परिकरों की कथा अथवा संस्मरण भी रामकथा है। (आप समझ ही गए हैं। मुझे और सब बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।) (रामकथा का भी कुछ जिक्र हो रहा है। देखते हैं, हम कितना रामकथा का जिक्र कर सकते हैं।) वैसे कल पदमाली प्रभु ने कुछ संकेत दे ही दिया था और उन्होंने कहा था कि आज रामानुजाचार्य का आविर्भाव तिथि महोत्सव है। रामानुजाचार्य आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय! रामानुज अर्थात राम का अनुज अथवा रामानुग मतलब लक्ष्मण ही हैं। रामानुज लक्ष्मण के शक्त्यावेश अवतार हैं। लक्ष्मण की कथा अथवा संस्मरण होगा ऐसा पदमाली प्रभु ने कल कहा था। देखते हैं, समय बलवान है। वह दौड़ता रहता है। लगभग एक हजार चार वर्ष पूर्व वर्ष १०१७ में रामानुजाचार्य प्रकट हुए थे। हरि! हरि! हरे कृष्ण! प्रचार प्रमाणित परंपरा से है ऐसा पदम पुराण में उल्लेख है। परंपराएं हैं या संप्रदाय है। *सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः* ( पद्म पुराण) अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु- शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता, तो उसका मन्त्र या उसकी दीक्षा निष्फल है। यदि संप्रदाय के बाहर से आपने मंत्र स्वीकार किया है और आप उस मंत्र को रट रहे हो अथवा जो भी कर रहे हो, वह विफल होगा अर्थात उससे कोई फल प्राप्त नहीं होगा। इसलिए सम्प्रदाय के आचार्यों से मन्त्र प्राप्त करना होगा व दीक्षित और शिक्षित भी होना होगा। हमें परंपरा में आने वाले आचार्यों, भक्तों, संतों, महात्माओं से शिक्षित व दीक्षित होना चाहिए, ऐसी व्यवस्था है। चार संप्रदाय हैं। यह भगवान कृष्ण की व्यवस्था है। *एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥* ( श्रीमद भगवतगीता ४.२) अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है। परंपरा में ज्ञान प्राप्त करना सम्भव है। भगवान् ने इस ब्रह्मांड में सारी व्यवस्था करके रखी है। ताकि उनके संबंध का ज्ञान प्राप्त हो सके। *सर्वस्य चाहं हृदि सनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥* (श्रीमद् भगवतगीता१५.१५) अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ। वेद में जो ज्ञान है, हम सारे संसार के बद्ध जीव उसको सुनकर अथवा श्रवण या ज्ञान अर्जन करके भगवान को जान सकते हैं। *आचार्यवान् पुरुषो वेद* ( छान्दोग्य उपनिषद ६.१४.२) अनुवाद:- जो मनुष्य आचार्यों की गुरु- शिष्य परम्परा का अनुसरण करता है, वह वस्तुओं को असली रूप में जान पाता है। जिन्होंने अपने जीवन में परंपरा में आने वाले आचार्यों को अपनाया है, हम उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उनसे मार्गदर्शन ले रहे हैं। पुरुषो वेद अर्थात तब ऐसा व्यक्ति ज्ञानवान होगा और जैसा कि भगवान् कृष्ण ने भगवतगीता गीता में कहा है *बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९) अनुवाद:- अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है। ऐसे ज्ञान की आवश्यकता है क्योंकि भगवान् कृष्ण कहते हैं कि जब ज्ञान प्राप्त होगा तब मां प्रपद्यते अर्थात मेरी शरण में आएगा। ज्ञानवान, भगवान की शरण में आएगा और भगवान् को जानेगा। उसका ज्ञान वासुदेवः सर्वमिति होगा अर्थात वासुदेव ही सब कुछ है। वासुदेव ही सर्वोच्च है, उसका ऐसा ज्ञान होगा। *षट्कर्मनिपुणो विप्रो मन्त्रतन्त्रविशारदः। अवैष्णवो गुरुर्न स्याद् वैष्णवः श्र्वपचो गुरुः।।* अनुवाद:- विद्वान ब्राह्मण, भले ही वह सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान में अर्थात स्त्रोत, मन्त्र, विधिनियम व पद्धतियों में पारंगत भी क्यों न हो, यदि वह वैष्णव नहीं है, तो गुरु बनने का पात्र नहीं है। किंतु शूद्र अथवा चण्डाल भी, यदि वह वैष्णव या कृष्ण भक्त है, तो गुरु बन सकता है। अवैष्णव गुरु नहीं हो सकता अर्थात जो वैष्णव नहीं है, वह गुरु नहीं हो सकता। गुरु को वैष्णव होना चाहिए। हरि! हरि! वैष्णव कौन है? वासुदेवः सर्वमिति अर्थात वासुदेव ही सब कुछ है, जिसने यह जान लिया, वह वैष्णव है। वासुदेव कहो या विष्णु कहो, एक ही बात है। जो विष्णु तत्व को जानता है (अभी यह कहा.. फिर... यह आपके पल्ले नहीं पड़ रहा होगा, परंतु अपेक्षा है कि आप विष्णु तत्व को समझते होंगे।) वह भी भगवान् के अवतार हैं। अवतारों से विष्णुतत्व बनता है। रामानुजाचार्य ऐसे ही वैष्णव आचार्य रहे। किसी सम्प्रदाय या आचार्य को तभी मान्यता होती है जब उनके द्वारा वेदान्त सूत्र पर कोई प्रामाणिक भाष्य लिखा जाता है तत्पश्चात उस सम्प्रदाय को मान्यता प्राप्त होती है। रामानुजाचार्य ने वेदान्त सूत्र पर अपना भाष्य लिखा।'विशिष्ट द्वैत' ऐसा तत्व रहा, द्वैत मतलब दो, एक भगवान् और दूसरे हम। एक जीव और दूसरा भगवान्। एक अणु आत्मा और दूसरी विभु आत्मा। जो द्वैतवादी, मायावादी, निराकारवादी, निर्गुणवादी होते हैं, वे वैष्णव नहीं होते। उनको वैष्णव नहीं कहा जा सकता। वैष्णवों के अतिरिक्त अन्य कई दल होते हैं। एक बड़ा दल निर्गुण, निराकारवादी और अद्वैतवाद का दल है। जिसका प्रचार शंकराचार्य ने जबरदस्त किया। उसको परास्त करने हेतु ही भगवान् एक से बढ़कर एक आचार्य को जन्म देंगे, ये चार होंगे। पांचवें भी होंगे माधवेंद्रपुरी। वे चार आचार्य जो प्रकट होने वाले हैं- उनमें से सर्वप्रथम रामानुज आचार्य रहे। उन्होंने वेदान्त सूत्र पर भाष्य लिखा जोकि श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। श्री अर्थात लक्ष्मी। लक्ष्मी नारायण के उपासक या आराधक रामानुजाचार्य जिनका बहुत बड़ा पीठ श्री रंगम, दक्षिण भारत में है। उसको अपना मुख्यालय (हेड क्वार्टर) बना कर रामानुजाचार्य ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया। श्रीद्वैत सिद्धांत का प्रचार किया। इसी के साथ अद्वैत सिद्धांत मायावाद को परास्त करते गए। *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता ४.८) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। इसी के साथ वे धर्म की स्थापना करते गए। इनके कुछ ७००० सन्यासी थे और १२००० ब्रह्मचारी शिष्य थे। व कई हजारों, राजा महाराज, उधोगपति इत्यादि अनुयायी थे। आप कल्पना कर सकते हो या नही भी कर सकते हो। उन्होंने सारे भारत का भ्रमण किया। शंकराचार्य ने भी वैसा ही किया था अर्थात शंकराचार्य ने सर्वत्र प्रचार करके अद्वैत सिद्धान्त की स्थापना का प्रयास किया। अब उसको परास्त करना है। मायावाद का खंडन व मुंडन करना है। रामानुजाचार्य क्रिया (एक्शन) में थे। उन्होंने सफलता पूर्वक वैष्णव धर्म का प्रचार किया व स्थापना की। रामानुजाचार्य ने गीता के ऊपर भी भाष्य लिखा है। रामानुजाचार्य का गीता के ऊपर लिखा भाष्य प्रसिद्ध है। उसको भी भगवद्गीता यथारूप कह सकते हैं। भगवान का जो भी इंटेंशन रहा था अर्थात जिस उद्देश्य से भगवान ने कहा उसको ज्यों का त्यों परंपरा में प्रचार करना या गीता पर भाष्य लिखना, वह भी भगवत गीता यथारूप बन जाती है। अतः रामानुजाचार्य का भगवतगीता पर भाष्य भी प्रसिद्ध है। रामानुजाचार्य 120 वर्ष इस धरातल पर रहे। जब हम कह ही चुके हैं कि वे लक्ष्मण का आंशिक अवतार है। वैसे लक्ष्मण भी आदि गुरु हैं। गुरु तत्व के अंतर्गत यह समझना होगा। लक्ष्मण गुरु की भूमिका निभाते हैं और वैसी ही भूमिका द्वापर युग में बलराम ने निभाई। वैसी ही भूमिका कलियुग में नित्यानंद प्रभु ने निभाई। कलियुग में जो गौरांग व नित्यानंद प्रभु प्रकट हुए, वही तो द्वापर युग के कृष्ण और बलराम थे। वही त्रेता युग के राम लक्ष्मण थे, राम वासुदेव हैं और लक्ष्मण संकर्षण हैं। लक्ष्मण, बलराम नित्यानन्द आदिगुरु भी हैं व एक आचार्य की भूमिका भी निभाते हैं। लक्ष्मण राम की सेवा करते हैं और हम सभी के समक्ष ऐसा आदर्श रखते हैं। बलराम भी कृष्ण की सेवा करते हैं अथवा सहायता करते हैं। नित्यानंद प्रभु ने भी वही किया। श्रीकृष्ण बलराम हर समय साथ रहते थे। शुरुआत से लेकर अंतर्धान होने के समय तक कृष्ण बलराम अधिकतर समय साथ में ही रहे। ऐसा भी देखा जाता है और समझ में आता है कि राम और लक्ष्मण भी सदैव साथ में रहे, साथ में ही जन्मे, उन दोनों का जन्म नवमी का ही है। कल भी कहा था कि वे साथ में ही रहते थे, साथ में खेलते थे और एक ही पालने में साथ ही लेट जाते थे। इन चारों की शिक्षा राजपुत्र के रूप में साथ में ही हुई थी। धनुष बाण चलाने की शिक्षा कहा जाए या अन्य जो भी राजपुत्रों को प्राप्त करने योग्य विद्याएं होती है, राम लक्ष्मण ने साथ में ही प्राप्त की। जब विश्वामित्र दशरथ के पास आए, कहा कि मुझे आपके दो पुत्र राम और लक्ष्मण चाहिए। राम और लक्ष्मण साथ में गए और साथ में ही विश्वामित्र मुनि की सहायता की। तत्पश्चात वे दोनों विवाह के उपरांत अयोध्या वापिस लौटे। वैसे केवल इन दोनों का ही नहीं अपितु चारों राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का एक ही विवाह मण्डप में विवाह हुआ था। राम, लक्ष्मण का साथ में ही विवाह हुआ। अब विवाहित राम तथा लक्ष्मण साथ में अयोध्या वापिस लौटे। हरि! हरि! तत्पश्चात राम को वनवास जाने का आदेश हुआ। दशरथ ऐसा आदेश नहीं देना चाहते थे। एक बार, दशरथ आइने में देख रहे थे कि मेरे बाल पक गए है। मैं बूढा हो गया हूँ, मुझे सेवा निवर्त होना चाहिए, यह रिटायर होने का समय है, उन्होंने राम को राजा बनाने का संकल्प किया। वे चाहते थे कि राम राजा बनें किन्तु कैकेई कुछ और ही चाहती थी। राम, अपने पिताजी द्वारा कैकई को दिए हुए वचन को सत्य करने हेतु वनवास में जाने के लिए तैयार हो गए। ऐसे एकवचनी अथवा सत्यवचनी थे, वह वचन पिताश्री का था कि मैं तुम्हें वरदान दूंगा। मांग लो (यह लंबी कहानी हो जाएगी) वह समय आ गया, तैयारी हो रही थी कि राम राजा बनें लेकिन वैसा नहीं होना था। राम वनवास के लिए तैयार हुए, लेकिन सीता राम के बिना कैसे रह सकती थी। 'ठीक है, तुम भी चल सकती हो।' तत्पश्चात लक्ष्मण ने भी प्रस्ताव रखा कि मैं भी आपके साथ जाऊंगा। बड़ा ही विशेष संवाद है। जब हम इस संवाद को सुनेंगे, लक्ष्मण का राम के प्रति स्नेह, प्रेम अथवा आकर्षण है, वह अनुभव कर पाएंगे। लक्ष्मण भी राम के भक्त हैं। हमें उसकी पहचान तब होती है, जब लक्ष्मण भी निवेदन कर रहे हैं। मैं जाऊंगा ही, मुझे भी ले चलो। अंततः वे गए भी, वैसे वे सहायता के लिए गए थे, ऐसी भूमिका भी है। ऐसा सम्बन्ध भी है। वे सेवक हैं। यदि हम कहेंगे कि राम सेव्य भगवान् हैं, लक्ष्मण सेवक भगवान् हैं। समझते हो? राम सेव्य भगवान् अर्थात जिनकी सेवा होनी चाहिए अथवा करनी चाहिए। लक्ष्मण सेवक भगवान् हैं। वैसे गुरु के सम्बंध में भी ऐसा ही कहा जाता है। गुरु भी भगवान् है लेकिन सेवक भगवान् हैं। भगवान् तो भगवान् ही हैं। लक्ष्मण ने बस सेवा ही की है और कुछ किया ही नहीं है। उसने सहायता ही की है और कुछ किया ही नहीं। तत्पश्चात वे चित्रकूट पहुंच गए वहां पर्णकुटी का निर्माण करना था। केवट ने भी कहा था जिसकी कथा कल हम राधारमण महाराज से सुन रहे थे। केवट ने राम लक्ष्मण सीता को गंगा नदी पार कराई । उस वक्त केवट ने कहा था- ' मैं भी वही करता हूँ जो राम करते है। चाहे इसे मेरा व्यवसाय कहो या मेरा कार्य परंतु यह राम जैसा ही है। जब केवट ने ऐसा कहा और लक्ष्मण ने यह बात सुनी तब वे बोले" क्या? तुम अपने कार्य की तुलना राम के साथ करते हो? ऐसा कौन सा कार्य है जो तुम राम जैसा करते हो?" लक्ष्मण को ऐसी बातें पसंद नहीं हुआ करती थी। वे क्रोधित हो जाया करते थे, उन्होंने समझा कि यह तो राम का अपमान कर रहा है। खुद को राम के समक्ष समझ रहा है। जैसा राम करते हैं, वैसा मैं भी कुछ करता हूं। लक्ष्मण उसे डांट फटकार रहे थे, तब केवट ने कहा था जैसे मैं लोगों को अपनी नौका में बैठा कर गंगा के पार कर देता हूं। राम भी पार लगा देते हैं अर्थात वे सभी का बेड़ा पार कर देते हैं, भवसागर को पार कर देते हैं। उनके नाम की नौका में ही बैठो। वे पत्थर जिस पर राम का नाम लिखा था, राम की वानर सेना ने उस पर चढ़ कर सारा सुमद्र पार कर लिया। राम का नाम लो या राम की लीला का श्रवण करो या राम के विग्रह का दर्शन करो। इसी के साथ सारा बेड़ा पार हो जाता है, भवसागर पार होता है। इस प्रकार वे समझा रहे थे कि दोनों का व्यवसाय किस प्रकार एक ही है अर्थात किस प्रकार उनके एक जैसे कार्य हैं। राम लक्ष्मण सीता जब चित्रकूट में रह रहे थे, तब एक दिन उन्हें दूर से सुनाई दे रहा था कि कुछ कोलाहल हो रहा है, कुछ ध्वजाएं दिख रही हैं, कुछ घोड़ों के टापों की आवाज व विभिन्न विभिन्न प्रकार की आवाज दूर से ही सुनाई दे रही है। इसे सर्वप्रथम लक्ष्मण ने ही सुना था। लक्ष्मण राम और सीता के अंगरक्षक थे। जब हम नागपुर के पास रामटेक गए थे, टेक मतलब प्रतिज्ञा अथवा संकल्प। भगवान दंडकारण्य में चित्रकूट में रहे । वे १४ वर्ष के वनवास के समय में से कुछ ११ या १२ वर्ष चित्रकूट में ही रहे। तत्पश्चात उन्होंने वहां से दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। उसे रामगिरी भी कहते हैं। गिरी मतलब पर्वत। रामगिरी या रामटेक भी कहते हैं। राम लक्ष्मण सीता उसी पर्वत की शिखर पर कुछ समय के लिए रहे। वहां अगस्त्य मुनि का आश्रम भी था। बहुत कुछ देखा, राक्षसों ने वहां ऋषि मुनियों का जो हाल किया था, खून पिया था, जान ली थी, उनके हड्डियों के ढेर वहां पड़े थे, यह देख कर राम ने संकल्प किया कि इस पृथ्वी को मैं राक्षसों से मुक्त करूंगा। इस पृथ्वी पर एक भी राक्षस नहीं रहेगा। उन्होंने अपने हाथ में धनुष बाण लिया व प्रत्यंचा चढ़ा कर संकल्प किया। उस संकल्प को ही रामटेक कहते हैं। एक बार चित्रकूट पर जब सैन्य दल आ रहा था तब लक्ष्मण ने कहा, "भैया, भैया तैयार हो जाओ, तैयार हो जाओ।" राम ने कहा- "किसलिए" तब लक्ष्मण ने कहा- युद्ध के लिए। लक्ष्मण ने अंदाजा लगाया था कि भरत सेना के साथ हमारे साथ युद्ध करने के लिए आ रहा है इसलिए हमें भी लड़ना होगा। राम ने लक्ष्मण से कहा, 'शांत हो जाओ, शांत हो जाओ।' भरत, हमारे साथ युद्व, यह सम्भव नहीं है। लक्ष्मण का ऐसा कुछ स्वभाव था लेकिन राम की सेवा के लिए उनका यह स्वभाव या विचार या सारे कार्यकलाप हुआ करते थे। उन्होंने सोचा कि शायद राम को हानि पहुंचाने के लिए भरत आ रहा है। ऐसे थोड़े से हल्के विचार के साथ उन्हें लगा कि उन्हें अब लड़ना होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वैसे १४ वर्ष लक्ष्मण ने ना तो कुछ खाया और ना ही वे सोए। वे वनवासी जैसे ही रहे। राम भी केवल वनवास में ही नहीं रहे अपितु वनवासी जैसे ही रहे। वन में जैसे वास करते हैं।(कहा जाता है और हम देखकर भी आए हैं।) जब भगवान चित्रकूट पहुंचे, देवताओं ने एक विशेष गुफा की व्यवस्था की जहां पर राम आराम के साथ रह सके। गुफा में ए.सी. भी चलती है, चलती तो नहीं लेकिन कुदरती ठंडा भी रहता है। (हम देखकर आए हैं) लेकिन राम ने वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। मंदाकिनी नदी जो कि एक पवित्र नदी है, के तट पर राम, लक्ष्मण व सीता १०-१२ वर्ष रहे। वहां से रामटेक आए लेकिन वे वनवासी जैसे ही रहे। वे पर्णकुटी में ही रहते थे। राम, लक्ष्मण, सीता वनवासियों जैसे वस्त्र अथवा वल्कल ही पहनते थे। वे कंदमूल, फल ही खाते थे। उन्होंने १४ वर्ष पका हुआ भोजन नहीं खाया। पकवान बनाकर या पकाकर भोजन नहीं किया। लक्ष्मण ने तो कुछ भी नहीं खाया। जब राम लक्ष्मण और सीता पंपा सरोवर के तट पर पहुंचे तब शबरी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। शबरी ने उनके सामने कुछ विशेष बेर रखे। उसका विशिष्ट यह था कि वह स्वयं थोड़ा सा चखकर उन बेरों का चयन करती थी। यदि बेर मीठा होता था तब ही वह राम को खिलाने के लिए रखती थी। वह हर रोज राम की प्रतीक्षा किया करती थी कि आज आएंगे, आज नहीं आए तो शाम तक आ ही जायेंगे, आज नहीं आये, कल तो उनको आना ही है। इस प्रकार उसकी उत्कंठा बनी ही रहती थी। जब वह राम को बेर खिला रही थी अर्थात वह राम को दे रही थी तो राम खा रहे थे। राम कह रहे थे कि मैंने जीवन भर में क्या-क्या नहीं खाया, कई प्रकार के अन्न व पकवान अयोध्या में खाए हैं, कंदमूल फल का भी आस्वादन किया है लेकिन ऐसा स्वाद ऐसी मिठास का मैंने कभी अनुभव नहीं किया था। *पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता ९.२६) अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ। वह आस्वादन भक्ति का आस्वादन था। राम फल को ही नहीं चख रहे थे। वे शबरी की भक्ति का रसास्वादन कर रहे थे। राम तो खा रहे थे, राम ने फल खाए। शबरी लक्ष्मण को भी फल दे रही थी न तुम खाओ, राम खाते थे। जब वह लक्ष्मण को देती थी। लक्ष्मण क्या करते थे? जब शबरी उनकी ओर नहीं देख रही होती थी, तब वे उसको झट से फैंक देते थे। वे फैंक रहे थे। उन्होंने १४ वर्ष कुछ खाया पिया नहीं, सोए नहीं। उन्होंने 14 वर्ष ऐसी कठिन तपस्या की व सभी कठिनाईयों का सामना करते हुए राम की सेवा करते रहे। लक्ष्मण की जय! जब वे पंचवटी में थे तब रावण महाशय आ गए (कल हमनें जिनका स्मरण किया था। ) रावण मरीचि को लेकर आए। मरीचि हिरन बनकर वहां पहुंचा था। सीता मैया उसे अपने पास चाहती थी। तब राम उसका पीछा करते हुए उसको पकड़ने गए। सीता पर्णकुटी में ही रही। राम ने लक्ष्मण को कहा कि तुम यहीं रहो। सीता की रक्षा करो। यह सब लीला कथा है। लक्ष्मण.... ! कुछ समय उपरांत जब सीता और लक्षमण ने ऐसी पुकार सुनी। तब सीता, लक्ष्मण को राम की सहायता करने हेतु जाने के लिए प्रेरित करने लगी [4/18, 4:35 PM] Purnanandi Radha DD: लेकिन लक्ष्मण मना कर रहे थे- नहीं! नहीं! लक्ष्मण जानते थे कि यह मारीच की चालाकी हो सकती है। राम का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। वह नहीं जाना चाहते थे किंतु सीता जोर दे रही थी कि तुम्हें जाना ही है। सीता ने यह भी कह दिया," मैं समझती हूं कि तुम क्यों नहीं जाना चाहते हो? तुम ऐसे समय की प्रतीक्षा में ही थे, एक दिन राम नहीं रहेंगे, फिर मैं तुम्हारी बन जाऊंगी। ( कहना भी थोड़ा कठिन है लेकिन ऐसे ही कुछ विचार सीता के मन में आए और कहा) तब लक्ष्मण ने यह सब सहा नही गया। लक्ष्मण गए ऐसी और भी कुछ बातें रही। १४ वर्ष के वनवास के पश्चात राम लक्ष्मण सीता सभी अयोध्या वापिस लौटे लेकिन फिर एक धोबी ने राम के सम्बंध में कुछ कहा। राम ने ही अपने कानों से उन अफवाहों को जो फैल रही थीं, सुना। राम ने सीता को वन में भेजने का निर्णय लिया। वह अकेली जाएगी। सीता उस समय गर्भवती भी थी, लक्ष्मण को आदेश हुआ कि लक्ष्मण तुम, सीता को रथ में बैठाकर ले जाओ और कहीं वन में छोड़ देना। मैं इसके साथ नहीं रह सकता। यह रावण के साथ रही है। लक्ष्मण के लिए सीता को वन में पहुंचाने का व वहां वनवासी बनवाने का बहुत बड़ा धर्मसंकट था। जैसे लक्ष्मण वहां पंचवटी में उसको अकेला छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे। लेकिन जाना पड़ा। वे राम अनुज थे अर्थात राम बड़े और लक्ष्मण छोटे थे। यहां पर भी राम का आदेश था कि सीता को वनवास के लिए वन में छोड़ कर आओ। उस समय भी लक्ष्मण नहीं चाहते थे। वे इस आदेश का पालन नहीं करना चाहते थे। यह सही नहीं है। सीता निष्पाप है किंतु उनको वैसा करना ही पड़ा। ऐसे और भी कई अनुभव होंगे या हैं। लक्ष्मण ने फिर ऐसा भी संकल्प किया कि जब मैं अगली बार प्रकट होऊंगा तब मैं छोटा भाई नहीं बनूंगा। मैं बड़ा भाई बनूंगा। त्रेता युग के राम लक्ष्मण अवतार के उपरांत जब द्वापर युग आया तब द्वापर युग के अंत में जब कृष्ण और बलराम को प्रकट होना था। तब त्रेतायुग के लक्ष्मण, द्वापर युग में बलराम बड़े भाई बनें और राम छोटे भाई कृष्ण बने। कृष्ण को भी रामानुज कहा जाता है। कृष्ण का एक नाम रामानुज है। यह राम कौन से हैं- बलराम। बलरामानुज अर्थात बलराम बड़े और अनुज अर्थात उनके बाद जन्में वे कृष्ण हैं। राम का भी एक नाम है। रामानुज। त्रेतायुग के रामानुज लक्ष्मण हैं। स्पष्ट है? द्वापरयुग के रामानुज कॄष्ण हैं। हरि हरि! ठीक है। राम लक्षमण सीता की जय। कृष्ण बलराम की जय! गौर निताई की जय! श्रीपाद रामानुज आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय! रामनवमी की जय! आज वैसे राम गोविंद महाराज का भी जन्मदिवस है। शायद आप उनसे परिचित होंगे। हमनें उनको सन्यास दिया था। वह मेरे सन्यासी शिष्य हैं। कई वर्ष पूर्व रामनवमी के दिन मायापुर में ही हमनें उनको सन्यास दीक्षा दी थी और राम नाम भी दिया। गोविंद तो उनके नाम में पहले ही था। लेकिन हमने राम और जोड़ दिया इस प्रकार उनका नाम रामगोविंद हुआ। रामनवमी का दिन था। संन्यास दीक्षा हो रही थी। नाम में परिवर्तन किया जाता है। हमनें थोड़ा परिवर्तन किया। गोविंद के साथ राम जोड़ दिया तो वे रामगोविंद स्वामी महाराज हुए। वे स्वयं राम के भक्त हैं, वे गोविंद के भक्त भी हैं। राम की कथा सुनाते रहते हैं। वैसे आज की कथा थोड़ी समय में शुरु होने वाली है व नागपुर की और से उसका प्रसारण होने वाला है। रामगोविंद स्वामी महाराज आज कथा करेंगे। उनका आज जन्म दिवस है। वे गुरु भी हैं, उनकी आज व्यास पूजा भी है। रामगोविंद स्वामी महाराज की जय! उनकी व्यास पूजा की जय! उनकी जन्म तिथि की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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