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जप चर्चा पंढरपुर धाम 9 सितंबर 2020 हरे कृष्ण ! 822 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । ( जय ) श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानंद । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौर-भक्त-वृंद ॥ लूट सको तो लूट लो ! ठीक है ! ऐसी हरि नाम की नदिया बहाए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । हरि हरि !! या .. गोलोकेर प्रेम-धन, हरि-नाम-संकीर्तन रति ना जन्मि लो केने ताय् संसार-बिषानले’ दिबा-निशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कोइनु उपाय् ॥ 2 ॥ ( इष्ट-देवे विज्ञाप्ति , भजन ) अनुवाद:- गोलोक वृंदावन में दिव्य प्रेम का खजाना भगवान हरि के पवित्र नामों के सामूहिक जप के रूप में अवतरित हुआ है। उस नामजप के प्रति मेरा आकर्षण कभी क्यों नहीं आया ? दिन-रात मेरा हृदय सांसारिकता के विष की आग से जलता रहता है, और मैंने इसे दूर करने का कोई उपाय नहीं किया है । गोरखधाम से महाप्रभु इस हरिनाम को , इस प्रेम धन को इस .. हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ को साथ में ले आए । हरि हरि !! और फिर वितरण भी कर रहे थे महाप्रभु ने स्वयं वितरण किया हरि नाम का .. श्री-राधार भावे एबे गौरा अवतार । हरे कृष्ण नाम गौर कोरिला प्रचार ॥ 4 ॥ ( जय जय जगन्नाथ सच्चीर-नंदन ) अनुवाद:- अब वही भगवान श्रीकृष्णा राधा रानी के दिव्य भाव एवं अंगकांति के साथ श्रीगौरांग महाप्रभु के रूप में पुनः अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने चारों दिशाओं में "हरे कृष्ण" नाम का प्रचार किया है । स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरि नाम का प्रचार किए । वह स्वयं बने परिव्राजकआचार्य या बने आचार्य । और हरी नाम का प्रचार किए । और फिर कहे कि यह प्रचार इस पृथ्वी पर सर्वत्र पहुंचेगा । पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम । सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ॥ (चैतन्य भागवत् अंत्यखंड 4.126 ) अनुवाद:- इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा । मेरा नाम का प्रचार सर्वत्र होगा ऐसी भविष्यवाणी कीए है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । हरि हरि !! जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य के अनुसार , सार्वभौम भट्टाचार्य को जब अंततः साक्षात्कार हुआ कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान है । जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पहुंचे जगन्नाथपुरी सर्वप्रथम पहली बार पहुंचे और यह सार्वभौम भट्टाचार्य ही थे जो चैतन्य महाप्रभु को अपने घर पर ले गए यह सब लीला है आप सुने ही हो । जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह नाम कीर्तन करते करते और फिर जगन्नाथपुरी में पहुंचे । नाम चिंतामणिः कृष्णश्चैतन्य-रस- विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य- मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 17.133 ) अनुवाद:- कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंदमय है । यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वर देने वाला है, यह समस्त आनंद के आगार, स्वयं कृष्ण है । कृष्ण नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है । यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी भी तरह काम शक्तिशाली नहीं है । चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता । ऐसा इसलिए है, क्योंकि कृष्ण-नाम तथा स्वयं कृष्ण अभीन्न है । का भी अनुभव किया ऐसा दर्शाए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु । जिनका में नाम ले रहा था हरे कृष्णा हरे कृष्णा कह रहा था वह कृष्ण ही तो जगन्नाथ है । "जेइ गौर सेइ कृष्ण सेइ जगन्नाथ" । तो यह जगन्नाथ का कीर्तन कीए फिर जगन्नाथ ने दर्शन दिये और यह जगन्नाथ ही है नाम जगन्नाथ रूप जगन्नाथ एक ही है "भिन्नत्वान्नाम-नामिनोः" हरि और हरि का नाम ही एक ही ऐसा अनुभव कराके दिखाएं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु । क्योंकि आचार्य के रूप में आचार्य की भूमिका निभा रहे हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु , जब जगन्नाथ पूरी पहुंचे और हरी नाम का उच्चारण करते करते और फिर दर्शन भी हुआ और दर्शन करते करते जो चैतन्य महाप्रभु की जो हालत हुई भावविभोर हुए । सभी विकारों का महा भाव प्रकट हुआ तो ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सार्वभौम भट्टाचार्य अपने निवास स्थान पर ले गए और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब 2 महीने सार्वभौम भट्टाचार्य के साथ ही रहने वाले हैं और वे इन 2 महीने में उन्होंने अपना मिशन बनाया है श्री कृष्णा चेतन महाप्रभु ने मिशन बनाया है की सार्वभौम भट्टाचार्य को जो या अद्वैतवादी, मायावाती भी है मुक्ति इनके जीवन का लक्ष्य है , मोक्ष । हरि हरि !! और यह बड़े लॉजेस इन (तार्किक) न्याय का अध्ययन किए हुए हैं । इनको में कृष्ण भावनाभवित बनाऊंगा ताकि यह समझेंगे, भगवान को समझेंगे रूप को, नाम को, लीला को धाम को समझेंगे ऐसी शिक्षा मैं उनको दूंगा ताकि इनको साक्षात्कार हो जाए की भगवान का रूप है ,भगवान सौंदर्य के खान है और भगवान ज्ञानवान है, भगवान वैराग्यवान है षडऐश्वरीय पूर्ण है । इसका साक्षात्कार सार्वभौम भट्टाचार्य कहो ऐसा लक्ष्य बनाके ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इनके घर में पहुंचे और उन्होंने अपना लक्ष्य, और उस लक्ष्य तक पहुंच गए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । आप पढ़िएगा या पहले हम बता भी चुके हैं यह सार्वभौम का उद्धार नामक एक अध्याय ही है चैतन्य चरितामृत में । हरि हरि !! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जो सार्वभौम भट्टाचार्य का अपना संग अंग भी दिया , दर्शन तो दे ही रहे थे और काफी शास्त्रार्थ भी हुआ फिर वाद विवाद के बाद संवाद भी होने लगा । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कृपा कर ही रहे थे फिर वह समय आ गया और सार्वभौम भट्टाचार्य को साक्षात्कार हुआ कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आदिपुरुष है । स्वयं भगवान है उसको पहले नहीं मानते थे, गोपीनाथ आचार्य मानते थे । गोपीनाथ आचार्य समझाया करते थे सार्वभौम भट्टाचार्य को लेकिन वह समझते नहीं थे समझना नहीं चाहते थे , कैसे संभव है । फिर श्री कृष्ण चैतन्य महा प्रभु कृपा की ही या उस कृपा को कहना चाहिए कृपा को स्वीकार किए सार्वभौम भट्टाचार्य । चैतन्य महाप्रभु जब भगवान तो कृपा करने के लिए सदैव तैयार रहते ही हैं या सूर्य का उदय तो हो गया लेकिन हम स्वयं को कमरे में फिर बंद करके रखेंगे तो कैसे लाभ होगा ! उस सूर्य प्रकाश का सूर्य किरणों का हमको कुछ तो हमारी ओर से प्रयास करना होगा ताकि हम ... कृष्ण -- सूर्य्र-सम; माया हय अंधकार । य्राहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 22.31 ) अनुवाद:- कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान है । जहां कहीं सूर्य-प्रकाश है, वहां अंधकार नहीं हो सकता । ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्योंही माया का अंधकार ( बहिरंगा शक्ति का प्रभाव ) तुरंत नष्ट हो जाता है । जो सूर्य प्रकाश से लाभान्वित हो सकते हैं और अंधकार को नष्ट कर सकते हैं तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृपा से ही रहे थे । फिर सार्वभौम भट्टाचार्य को धीरे धीरे धीरे स्वीकार कर भी रहे थे तो फिर वह क्षण आया और पूरी कृपा को स्वीकार किए और समझ गए ..."श्रीकृष्ण चैतन्य राधाकृष्णन नाही अन्य" वैसे राधा कृष्ण नाही अन्य अर्थ कहो मैंने वह उल्लेख नहीं किया जो साक्षात्कार हुआ । 1 दिन की बात है उन्होंने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अपने घर से प्रसाद भेजा करते थे या जगन्नाथ का प्रसाद चैतन्य महाप्रभु के पास भेजा करते थे जब जगदानंद पंडित को वह कह रहे थे यह प्रसाद श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के पास पहुंचा दो और उस दिन सार्वभौम भट्टाचार्य काहे की यह जो ताल पत्र है उस पर मैंने कुछ लिखा है यह मेरी ओर से चैतन्य महाप्रभु को भेंट है या मेरा साक्षात्कार है मैंने लिखा हुआ है इसको चैतन्य महाप्रभु के पास पहुंचा दो ,तो जगदानंद पंडित गए जगन्नाथ महाप्रसाद लेके और साथ में यह ताल पत्र भी था तो चैतन्य महाप्रभु के निवास स्थान पर मुकुंद दत्त वह चैतन्य महाप्रभु के सेवा में थे उस समय । जगदानंद पंडित ने कहा कहा कि सार्व भट्टाचार्य ; चैतन्य महाप्रभु के लिए प्रसाद दिए हैं और यह चाल पत्र भी दिए हैं यह कृपया पहुंचा दीजिए चैतन्य महाप्रभु के पास । वह पहुंचाने ही वाले थे मुकुंद दत्त तो पहले उन्होंने तालपत्र में सार्वभौम भट्टाचार्य ने क्या लिखे हैं देखना चाहा उन्होंने और देखा भी उन्होंने बचन लिखा था सार्वभौम भट्टाचार्य । वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य्रोग- शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः । श्री-कृष्ण-चैतन्य-शरीर-धारी कृपाम्बुधिर्य्रस्तमहं प्रपद्ये ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 254 ) अनुवाद:- मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूं, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति शिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं । वे दिव्य कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं । मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूं । ऐसा ताल पत्र पर लिखें थे सार्वभौम भट्टाचार्य और यह बच्चन जब मुकुंद दत्त पड़े तो वह गदगद हुए भावविभोर हुए यह जानकर भी यह यहां तक पहुंचे सार्वभौम भट्टाचार्य उनको श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन है इसका साक्षात्कार हो गया है ! तो मुकुंदत्ता ने क्या किया उस ताल पत्र पर जो भी साक्षात्कार लिखे थे सार्वभौम भट्टाचार्य उसको दीवार पर लिख दिए मुकुंद दत्त । उद्देश्य यह था ,अब यह सोच रहे थे कि यह ताल पत्र जब चैतन्य महाप्रभु के पास पहुंचेगा यह पढ़ के चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न होंगे ही लेकिन साथ ही साथ अपनी अप्रसन्नता भी प्रदर्शित कर सकते हैं और यह ताल पत्र को तोड़फोड़ भी सकते हैं कचरे के डिब्बे में डाल सकते हैं इस पर जो लिखा है इसको मिटा सकते हैं ,क्योंकि चैतन्य महाप्रभु इनकी विनम्रता भी है और क्योंकि जब जब पहले भी कभी चैतन्य महाप्रभु को कहा आप भगवान हो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण ऐसा कोई कहता है तो चैतन्य महाप्रभु तुरंत अपने कान बंद कर लेते हैं ; ऐ चुप , ऐसा नहीं कहना ! क्या कह रहे हो ? ठीक है मुझे तुमने कह दिया लेकिन और किसी से यह बात नहीं कहना । ऐसा भी उसको बड़ी धमकी देते या सावधान करते चैतन्य महाप्रभु पसंद नहीं करते कि जब भक्त उनको संबोधित करते कि आप भगवान हो, आप कृष्ण हो, हरि हरि !! क्योंकि भक्त रूप का भूमिका निभा रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और वही कर रहे हैं जैसे "वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य्रोग-शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः" तो सार्वभौम भट्टाचार्य लिखे थे "शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः" यह जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं यह पुराने पुरुष है आदि पुरुष है । और क्यों प्रकट हुए हैं ? "शिक्षार्थम" शिक्षा देने के लिए सारे संसार को शिक्षा देने के लिए भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं और किस प्रकार की शिक्षा दे रहे हैं ? "वैराग्य" की शिक्षा । "विद्या" या ज्ञान दे रहे हैं । और "वैराग्य विद्या निज भक्ति योग" अपनी ही भक्ति योग सिखा रहे हैं । या 3 प्रकार की शिक्षा श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रहे हैं । एक तो भक्ति की शिक्षा और फिर ज्ञान और वैराग्य की शिक्षा और हो गई शिक्षा पूरी हो गई भक्ति की शिक्षा ज्ञान की शिक्षा, ज्ञान दे रहे हैं ज्ञान और वैराग्य की विद्या शिखा रहते हैं । भक्ति के 2 पुत्र हैं ज्ञान और वैराग्य तो यह पूर्ण हो गया । वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित: । जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 3.32.23 ) अनुवाद:- कृष्णचेतना में और भक्ति को कृष्णा में लगाने से ज्ञान, विरक्ति तथा आत्म-साक्षात्कार में प्रगति करना संभव है । भगवतम् में भी कहा है । हम जब भक्ति करते हैं तो भक्ति फिर देती है जैसे भक्ति देवी ने जन्म दिया ज्ञान और भाग्य को तो हम भक्ति करते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ यह भी भक्ति है । यह भक्ति करेंगे तो ज्ञान भी होगा वैराग्य भी होगा और फिर "कृपाम्बुधि" ऐसे कृपा के अंबुधि है श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु । "शरीर-धारी" अब भगवान ने शरीर को धारण किया है । "वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य्रोग-शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः" "श्री-कृष्ण-चैतन्य-शरीर-धारी" श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में जो प्रकट हुए हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का शरीर धारण किए हैं ,ऐसे कृपा अंबुधि कृपा के सागर को मैं नमस्कार करता हूं बारंबार प्रणाम है । तो विशेष बात है यह साक्षात्कार है कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु है भगवान किंतु "शिक्षार्थम" शिक्षा देने के लिए यह उदाहरण किए हैं यह शरीर धारण किए हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वह बने हैं । "कृष्णं वन्दे जगत गुरुं" जैसे हम कहते रहते हैं "कृष्णं वन्दे जगत गुरुं" वैसे कृष्ण ही है गुरु और 500 वर्ष पूर्व प्रकट होके श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु "शिक्षार्थम" शिक्षा दिए, गुरु बने । तो गुरु क्या करते हैं ? गुरु फिर शिक्षा भी देते हैं और फिर मंत्र भी देते हैं तो "कृष्णं वन्दे जगत गुरुं" के रूप में चैतन्य महाप्रभु ने मंत्र दिया यह संसार को मंत्र दीया । जब जब वह कीर्तन कर रहे थे ... हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ या स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जप भी किया करते थे । कीर्तन और नृत्य भी किया करते थे .. महाप्रभोः कीर्तन-नृत्य-गीत वादित्र-माद्यन्-मनसो रसेन । रोमान्च-कंपाश्रु-तरंग-भाजो वंदे गुरोः श्री चरणारविंदं ॥ 2 ॥ ( श्री श्री गुर्वष्टक ) अनुवाद:- पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए, आनंद विभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्य यंत्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आंदोलन से हर्षित होते हैं । चूँकि वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कंपन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के शत्रु अश्रुधारा बहती है । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ । तो महाप्रभु का "महाप्रभोः कीर्तन", "नृत्य-गीत" "वादित्र" मतलब वाद्य ( instrument playing ) यह सब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने किया और ऐसा करके श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सारे संसार को उस समय जो मनुष्य थे उनको मंत्र दिए और मंत्र देके हम कह सकते हैं दीक्षा दिए । "कृष्णं वन्दे जगत गुरुं" दीक्षा दिए या श्रील प्रभुपाद कई स्थानों पर चैतन्य महाप्रभु को आचार्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं । रामानुजाचार्य हुए, माधवाचार्य हुए और फिर चैतन्य महाप्रभु हुए यह सब आचार्य है तो भगवान ने, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आचार्य के भूमिका भी निभाई है और सन्यासी बने हैं साधु बने हैं तो ... 'साधु- सङ्ग', 'साधु-सङ्ग'-- सर्व- शास्त्रे कय । लव- मात्र साधु- सङ्गे सर्व-सिद्धि हय ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 22.54 ) अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है की शुद्ध भक्तों के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सन्यासी साधु बन के जब गांव गांव जाते और उनको यह मंत्र देते ... हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यता ॥ ( बृहन्नारदिय पुराण ) अनुवाद:- "कलह और दम्भ के इस युग में मोक्ष का एकमात्र साधन भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करना है । कोई दूसरा मार्ग नहीं है । कोई दूसरा मार्क नहीं है । कोई दूसरा मार्क नहीं है ।" ऐसा उपदेश करते या फिर अपने अनुयायियों के मदद से भी कहते जाओ जाओ हे हरिदास "सुनो हरिदास सुनो नित्यानंद प्रति घरे गिया आमार आज्ञा कोरोहो प्रकाश" मेरे आज्ञा का प्रकाशित करो । मेरा जो आदेश से उपदेश है घर घर जाकर समझाओ । क्या है आपका उपदेश प्रभु ? "बोलो कृष्ण भजो कृष्ण करो कृष्ण शिक्षा" बोलो कृष्ण ,सबसे बुलबाओ कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण ..है भज कृष्ण ! भगवान का आराधना करें सभी ऐसी शिक्षा दो । "बोलो कृष्ण भजो कृष्ण करो कृष्ण शिक्षा" और ... य्रारे देख, तारे कह 'कृष्ण'-उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु तार' एइ देश ॥ ( चैतन्य चरित्रामृत मध्यलीला 7.128 ) अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो कि सुबह भगवद् गीता तथा श्रीमद् भागवत में दिए गए भगवान श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । और भगवद् गीता का उपदेश भी सुनाओ और फिर भागवत कथा भी सुनाओ यह सब संदेश पहुंचाओ घर घर जाकर । तो हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु और फिर षड्गोस्वामी वृंद सारे अनुयायियों को ऐसा आदेश उपर देश सेवा दिए ही थे ही लेकिन स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसी सेवा कर रहे थे या ऐसा प्रचार का कार्य कर रहे थे । ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को, जैसे सार्वभौम भट्टाचार्य को साक्षात्कार हुआ वह समझे की चैतन्य महाप्रभु ,श्री कृष्ण स्वयं कृष्ण है । कृष्ण में और श्री कृष्ण चैतन्य में कोई अंतर नहीं है । आजकल के समाज में या हिंदू समाज में ऐसा साक्षात्कार ऐसा अनुभव नहीं है और ऐसा अनुभव नहीं होते हुए या करते हुए हम सब अपराध करते हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलो में जैसे सार्वभौम भट्टाचार्य अपराध कर रहे थे वह नहीं मान रहे थे नहीं नहीं कैसे हो सकता है यह कैसे हो सकते हैं भगवान तो ऐसा विचार था सार्वभौम भट्टाचार्य का एक समय और वैसा ही विचार इस संसार के सारे लोगों का हे अधिकतर लोगों का । हिंदू जगत के या हम गर्व से कहो हम हिंदू हैं जो गर्व से कहने वाले हम हिंदू हैं उनको यह पता नहीं है श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन है ! इस परंपरा में यह गोडिय वैष्णव , ब्रह्म माध्व गोडिय वैष्णव परंपरा में यह शिक्षा दी जाती है या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का परिचय दिया जाता है । नमो महा-वदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते । कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नामने गोर-तविशे नमः ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 19.53 ) अनुवाद:- हे परम दयालु अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमस्कार करते हैं । यह साक्षात्कार रूप गोस्वामी का भी है । और यह इस प्रकार का परिचय घड़ी अवस्था में प्राप्त गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय में प्राप्त होता है । श्रील प्रभुपाद ने परंपरा आचार्यों की ओर से यह कार्य को आगे बढ़ाया । मायापुर धाम की ! मायापुर धाम का परिचय करवाया । मायापुर धाम वृंदावन से अभिन्न नहीं है इस बात को भी समझाया । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के भविष्यवाणी को सच भी करके दिखाए श्रील प्रभुपाद । और यह सारी भगवान की ही योजना है । मेरा एक सेनापति भक्त आएगा ऐसे लिखा है शास्त्रों में । तो वह सेनापति भक्त बने श्रील प्रभुपाद या श्रील प्रभुपाद को बनाए सेनापति भक्त श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और फिर उन्हीं से या उनके आंदोलन से चैतन्य महाप्रभु अपने भविष्यवाणी को सच करके दिखाएंगे । श्रील प्रभुपाद एक समय दक्षिण भारत में थे तो उन्होंने कहा की चैतन्य महाप्रभु ने तो प्रचार भारत वर्ष में किया भ्रमण करके मध्यलीला में । परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ( भगवद् गीता 4.8 ) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए में हर युग में प्रकट होता हूं । धर्म की स्थापना कर रहे थे, कलयुग कि धर्म हरि नाम संकीर्तन लेकिन भारत के बाहर प्रचार करने की जिम्मेदारी उन्होंने मुझ पर सौंपी है श्रील प्रभुपाद कहे । फिर 1922 में श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर अभय बाबू को आदेश देते हैं पाश्चात्य देश में जाकर कृष्णभावना का प्रचार करो, भागवद् धर्म का प्रचार करो तो उस आदेश को पालन करते हुए श्रील प्रभुपाद फिर 17 सितंबर 1965 में श्रील प्रभुपाद अमेरिका पहुंचे । और चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी के प्रचार के कार्य को वहां से शुभारंभ कहिए हल्का सा प्रचार भारत में किए थे प्रभुपाद किंतु एक विशेष प्रयास इसको एक विशेष यस भी प्राप्त होने वाला था ऐसा कार्य किए श्रील प्रभुपाद 17 सितंबर 1965 से प्रारंभ किए । यह जो विश्व हरि नाम महोत्सव हम मनाने जा रहे हैं ,इसके पीछे यह सारा इतिहास भी है, लीला भी है यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सारे प्रयास भी है । और चैतन्य महाप्रभु भी चाहते हैं तो उन्होंने यह कार्य प्रारंभ किया हरि नाम संकीर्तन प्रचार का कार्य स्वयं भगवान प्रारंभ किए और फिर कृष्णकृपा मूर्ति अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद से वह कार्य विश्व भर में प्रचार का कार्य शुभारंभ करवाएं न्यूयॉर्क से 17 सितंबर पे 1965 से । हम उत्सव हर वर्ष मनाते हैं और इस वर्ष भी तैयारियां भी हो रही है । यह उत्सव मना के वैसे विश्व हरि नाम महोत्सव मनाके यह जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के भविष्यवाणी है इसको हम और सच करके दिखाने वाले हैं यह उद्देश्य है । "सर्वत्र प्रचार हाईवे मोर नाम" जो चैतन्य महाप्रभु कहे तो उत्सव माध्यम से हरि नाम को हम कई गलियों में और कई घरों में कई लोगों तक पहुंचाने वाले हैं । केवल नगर आदि ग्राम ही नहीं, केवल नगरों में पहुंच गए .. अ ...इस नगरों में पहुंच गया हरिनाम शायद अच्छी बात है , इस ग्राम में भी पहुंच गए अच्छी बात है किंतु उस ग्राम के जो घर-घर में पहुंचाओ "गैहै गैहै जनै जनै" नारद मुनि कहे । मैं भक्ति का प्रचार करूंगा नारद मुनि नेएक बार घर पहुंच जाऊंगा कहा था । कहां तक पहुंचाओगे प्रचार को ? "गैहै गैहै" घर घर पहुंचाऊंगा ।बस ! घर घर तक ही "जनै जनै" हर व्यक्ति तक पहुंचाऊंगा तो यह विश्व हरीनाम के अंतर्गत हरिनाम प्रभु को कई नगरों के और ग्रामों के घरों के जो जन है लोग हैं उन तक हम यह हरि नाम पहुंचाने वाले हैं । ऐसे कई होंगे जिन्होंने यह नाम हरे कृष्ण महामंत्र सुना नहीं होगा या सुना था लेकिन कहते नहीं थे उच्चारण नहीं किया था उनसे भी हम उच्चारण करवाएंगे तो उसके यह फॉर्च्यूनर पीपल कैंपेन ( fortunate people campaign ) भी है । उन लोगों से आप एक महामंत्र बुलवाकर उसका वीडियो खींचने का एक विशेष योजना भी बन चुकी है तो इस योजना के साथ आप भी अधिक अधिक लोगों तक पहुंचा सकते हो हरिनाम प्रभु को । हरे कृष्ण महामंत्र की जय ! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय ! श्रील प्रभुपाद की जय ! गोर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ! ॥ हरे कृष्ण ॥

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