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23 अक्टूबर 2020, पंढरपुर धाम. गौरांंग गौरांंग, महाप्रभु ने जब संन्यास लिया ऐसे ही कुछ याद आ रही है। हरि हरि। चैतन्य महाप्रभु पूनः शांतिपुर में सब भक्तों से मिले। सची माता से भी पनः मिलन हुआ। वैसे चैतन्य महाप्रभु का विचार तो वृंदावन जाने का था। वृंदावन थाम की जय! लेकिन सची माता ने प्रस्ताव रखा, 'नहीं नहीं वृंदावन तो बहुत दूर है जगन्नाथपुरी में रहो"। तो चैतन्य महाप्रभु तथास्तु मैया वैसा ही हो। आपकी इच्छा ही मेरा वचन है। आपके आदेश का पालन करूंगा। हरि हरि, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। शांतिपुर से जो अद्वैताचार्य का धाम है। ग्राम है जो गंगा के तट पर है। जहां से अद्वैताचार्य श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के लिए प्रार्थना कर रहे है। धर्मस्य ग्लानिर्भवति धर्म की ग्लानि खूब हो रही है। प्रभु आप कहे तो है गीता में, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत और फिर अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् और अधर्म मच जाता है। फैलता है। तब मैं प्रकट होता हूं। अद्वैताचार्य चैतन्य महाप्रभु के पहले प्रकट हुए थे, कुछ 50 वर्ष पूर्व। तो उन्होंने सारे संसार का, भारत का, यह निष्कर्ष निकला था। यही तो है धर्म की ग्लानि। यही तो है धर्म का उत्थान। हरि हरि, अधर्म कैसे फैल रहा है। धर्म की हो रही है ग्लानि। धर्म की ग्लानि, धर्म का ह्रास, धर्म हो रहा है कम और ज्यादा हो रहा है अधर्म। अधर्म बढ़ रहा है। अधर्म फैल रहा है। ऐसा अद्वैताचार्य प्रभु देखें कई सारे लक्षण उन्होंने देखे होंगे। अद्वैताचार्य ने देखा की कली को जो स्थान दिया था, राजा परीक्षित ने कि तुम यहां रहो, तुम वहां रहो ,4 स्थान दिए थे। द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः अद्वैताचार्य भी देखें, द्यूत क्रीडा हो रही है सर्वत्र। पानम मद्यपान हो रहा है। और अवैध स्त्री पुरुष संग चल रहा है। वैश्यागमन चल रहा है और मांस भक्षण हो रहा है। मछली भक्षण हो रहा है। बंगाल में तो क्या कहतेे हैं, जलेर फल। भगवान ने भगवदगीता में कहां है, पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति जल से प्राप्त होती है मछली। तो हम भी फल खाते हैं। जल का फल। यह सब हो रहा था। हरि हरि, वैसे और एक भी स्थान दिया था कली को और वह है काला पैसा। धन का दुरुपयोग, संपत्ति का दुरुपयोग या संपत्ति का अपने उपभोग विलास के लिए इंद्रिय तृप्ति के साधन जुटाने के लिए अर्थव्यवस्था। यह भी हैं कली का स्थान। वैसे यह बहुत बड़ा स्थान है। वहीं पर श्रीमद् भागवत में कली को 4 स्थान देने पर भी प्रसन्ना नहीं हुआ होगा। या फिर कहां होगा धन्यवाद आपने मुझे कुछ तो स्थान दिया। लेकिन और भी कुछ स्थान दीजिए। तो राजा परीक्षित ने कहा था जहां काला धंधाचलता है। काला बाजार चलता है। जहां धन का दुरुपयोग करते हैं। हरि हरि, धर्म अर्थ काम मोक्ष यह पुरुषार्थ है। धर्म के लिए अर्थव्यवस्था, धर्म की स्थापना के लिए अर्थव्यवस्था, धार्मिक बनने के लिए अर्थव्यवस्था, मतलब भगवान के लिए ही अर्थव्यवस्था या भक्त बनने के लिए जो भी साधन आवश्यक है, तो यह पुरुषार्थ हुआ। धर्म पहले धर्म अर्थ भी धर्म के लिए फिर काम धर्म अर्थ काम मोक्ष यह चार पुरुषार्थ है। धर्म अर्थ काम मोक्ष धर्म और काम के बीच में उस क्रम से यह चार पुरुषार्थो का उल्लेख होता है।अर्थ बीच में है और एक तरफ है काम और दूसरी तरफ है धर्म। पुरुषार्थ क्या है ?अर्थ का उपयोग धर्म के लिए इसमें पुरुषार्थ है। लेकिन कली को जो स्थान दिया अर्थ। अर्थ का उपयोग जब काम के लिए होता है। इंद्रिय तृप्ति के लिए होता है। मनोरंजन के लिए होता है। घर का होम थिएटर बनाने में होता है। फाइव स्टार होटल में जाने के लिए होता है। और वहां जाकर फिर खाओ गाओ नाचो और फिर सारा तमाशा करो या खेलो। तो इसके लिए यह काम का जो साम्राज्य है उसके लिए अर्थ का उपयोग करना मतलब वहां कली का प्रवेश हो गया। कली आ गयाऋ वहां कली का अंडास्थान बन गया। वहां तू यह 5 स्थान दिए। यत्र अधर्म चतुर्विदः भागवत में कहां है वैसे कली को पहले चार ही स्थान दिए थे। तुम जहां अधर्म होता है तो यहां यह चार स्थान और फिर एक पांचवा स्थान जहां धन का सत्यानाश करते हैं। हरि हरि, तो मैं यह कह रहा था अद्वैताचार्यने देखा कि यह सब हो रहा है। अधर्म फैल रहा है। तो उन्होंने विशेष प्रार्थना की थी भगवान से। वह अद्वैताचार्य गंगा के तट पर प्रार्थना कर रहे थे। गंगाजल और तुलसी दल को अपनी शीला को अर्पित कर रहे थे। भगवान ने उनकी प्रार्थना सुनकर ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए थे और है। तो भगवान क्या कर रहे थे। अधर्म फैला हुआ था। धर्म की हो रही थी ग्लानि और अधर्म फैल रहा था। उसमें सुधार करने के लिए तो ही भगवान आते हैं। भगवान प्रकट होते हैं। यही तो चाह रहे थे अद्वैताचार्य कि, भगवान आकर सुधार करें। और भगवान करते ही है। जब भगवान आते हैं क्या करते हैं? धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे धर्म की स्थापना के लिए मैं प्रकट होता हूं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए और धर्म की स्थापना की उन्होंने प्रारंभ की। वैसे प्रकट होने से पहले ही धर्म की स्थापना का कार्य प्रारंभ हुआ। प्रकट तो होने वाले थे सायंकाल सूर्यास्त के समय चंद्रोदय के समय। लेकिन दिन में ही भगवान कली-काले नाम रूपे कृष्णावतार कृष्णवतार ने जन्म लिया या कृष्णावतार के रूप में भगवान ने जन्म लिया। अवतार लेकर क्या करते हैं? भगवान धर्मसंस्थापनार्थाय। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इस रूप में भगवान पूर्णिमा के दिन 14 मार्च 1488 उस दिन में नाम के रूप में प्रकट हुए। और धर्म संस्थापन का काम शुरू हुआ। और फिर सचीगर्भसिंधु सची माता के गर्भ से सची माता के गर्भ को गर्भ सिंधुु कहां है,। तो अजनी उत्पन्न हुए जन्मे। हरि इंदु हरि मतलब कृष्ण, इंदु मतलब चंद्र हरिश्चंद्र। और यहां कौन सेे हरी? चैतन्य हरि चैतन्य चंद्र प्रकट हुए। हरि हरि, अब 24 वर्ष तो मायापुर में अपनी लीला संपन्न करते हुए उन्होंने धर्म की स्थापना की है हरिनाम धर्म की स्थापना की हैं। वहां अपने गुरु ईश्वर पुरी से शिक्षित दिक्षित हुए। तो उन्होंने धर्म संस्थापन का कार्य किया। मायापुर में किया। गौर मंडल में किया। लेकिन धर्म संस्थापन का कार्य सारे जगत के कल्याण के लिए होनी चाहिए। केवल मायापुर नवद्वीप में धर्म की स्थापना करके काम नहीं बनेगा। तो फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब संन्यास लेंगे। संन्यास लेकर क्या करेंगे? सारे जगत में धर्म संस्थापन का कार्य और आगे बढ़ाएंगे,। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीराधार भावे एबे गौरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार अब संन्यास लेकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार हरि नाम संकीर्तन का प्रचार करेंगे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु। हर्रेनाम हर्रेनाम हर्रेनाम केवलम्। कलो नास्तैव नास्तैव नास्तैव गतीर्न्यथा।। इसको समझाएंगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सर्वत्र। वही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हम कह रहे थे। संन्यास लेकर पहुंचे हैंं अब शांतिपुर। और यहां पर सची माताने आदेश दिया है। बेटा निमाई उनके लिए तो निमााई ही है वैसेे संन्यास दीक्षा हुई। उनकेेे संन्यास गुरु केशव भारती ने उनको नाम दिया। तुम्हारा नाम होगा यह दंड लेे लो तुम्हारा नाम होगा, श्रीकृष्णचैतन्य। तो संन्यास दीक्षा का नाम श्रीकृष्ण चैतन्य, चैतन्य महाप्रभु का हुआ। वैसे पहले चैतन्य नहीं कहा करते थे। पहले निमाई कहते थे। गौर हरी कहते थे। विश्वंभर कहते थे। लेकिन अब जब दीक्षा हुई तो उनके गुरु ने नाम दिया तुम्हारा नाम श्रीकृष्ण चैतन्य क्या नाम भी है यह, तो श्रीकृष्णा हो ही। यह ध्वनित हो रहा है इस नाम से तुम श्रीकृष्ण हो और तुम्हारा नाम क्या होगा श्रीकृष्ण चैतन्य। लेकिन कैसे श्रीकृष्ण होंगे? चैतन्य सारे संसार भर में चैतन्य को फैलाने वाले। चेतना लाने वाले। संसार जो जड़ हैं जड़ बुद्धि भी है सारा जड़ है। तो इस संसार में जान डालोगे तुम चैतन्य लाओगे। चेतना लाओगे। एक तो होता है जड दूसरा होता है चेतन। मायाबद्ध जो जीव है वह लगभग जड़ बन जाते हैं। स्वयं को शरीर मानते हैं। तो हो गए ना जड़ या सारी उपाधियांं ले बैठे हैंं।श शरीर के संबंध में। मैंं अमेरिकन हूं। मैं भारतीय हूं। मैं इस देश सेे हूं। मैं उस देश से हूं। मैं स्त्री हूं। मैं पुरुष हूं यही सारी बातें। मैं बालक हूं मैं वृृद्ध हूूंं। तो यह सारी शरीर के संबंध में बातें करते हैं हम। तो ऐसे जडबध्द या जड़ जगत में जीवो में चेतना जीवन डालने हेतु इनका नाम भी वैसे ही रखा है। श्रीकृष्ण चैतन्य तुम्हारा नाम होगा। श्रीकृष्ण चैतन्य तो वे श्रीकृष्ण चैतन्य आप संन्यास लिए हैं। और अपना घर त्याग दिया है। सारे संसार के कल्याण और उद्धार के लिए। और पूरे संसार भर धर्म के स्थापना के लिए प्रचाार हेतु। शांतिपुर से आगे बढ़ेंगे जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान हो रहा है, यहां से उनका जो प्रचार कार्य जो सीमित था। मायापुर नवद्वीप या गौरमंडल से। इसको सारे संसार भर में फैलाने के उद्देश्य से चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान कर रहे हैं भगवान की क्या सेवा है उनका क्या काम है किस कार्य के लिए निकले हैं धर्म संस्थापनार्थाय ऐसेे कहे है ना कि मैं प्रकट होकर क्या करता हूं दैव परित्राणाय साधुनांं करता हूंं और विनाशायच दुष्कृताम् करता हुुंं। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे कृष्ण भावना का प्रचार प्रसार मतलब ही धर्म अंतर्राष्ट्रीय कृष्णाभावनामृत संघ यह कृष्णभावना हित और धर्म है। या कृष्णभावना भावित होना ही धार्मिक है। और इस अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का उद्देश्य भी वही है। जो उद्देश श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पीछे था। या जिस उद्देश्य से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। और फिर जिस उद्देश्य से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु में सन्यास लिया है। वही उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का है। और इस संस्था के संस्थापक आचार्य है, श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित यहां आंदोलन अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का उद्देश्य। वैसे श्रील प्रभुपाद जब अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का स्थापना हुई तो 7 उद्देश्य तो लिखे थे। इस्कॉन के सात उद्देश्य उसका भी हम अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा। यही तो है धर्मसंस्थापन या फिर परित्राणाय साधुनांं भी है। भक्तों की रक्षा भी है। सहायता भी है। मदद भी है। चिंता करना और उनके भक्ति में भी मदद करना। ,विनाशायच दुष्कृताम् और जो कोई विघ्न बनते हैं इस भक्ति के मार्ग में उनका विनाश करना। सारे संसार भर में दो ही पार्टियां होती हैं। दैव असुर एवच गीता में भगवान कहे दो प्रकार के लोग होते हैं दैव असुर एवच। एक दैव देवता होते हैं भक्त होते हैं साधु संत होते हैं। साध्वीया होती है। और असुर होते हैं या आसुरी प्रवृत्ति के होते हैं। सुर असुर दो पार्टी, तीसरी पार्टी है ही नहीं सिर्फ दो पार्टी दो पक्ष। तो भगवान ने क्या कहा? परित्राणाय साधुनांं जो साधु है उनकी रक्षा करता हूं। किन से रक्षा करता हूं? असुरों से उनको बचाता हूं। असुरों को दूर रखता हूं। या असुरों का विनाश ही करता हूं। या असुरों के आसुरी प्रवृत्ति का विनाश करता हूं मैं। और ऐसा करके मैं धर्म की स्थापना करता हूं। वैसे कहां जाए तो इस्कॉन के सात उद्देश्य लिखे हैं। लेकिन उसको और थोड़ा मिश्रित करकेे हम कह सकते हैं तीन उद्देश है। परित्राणाय साधुनांं एक उद्देश्य है। और विनाशायच दुष्कृताम् उद्देश है। दुष्टता का विनाश और हो सकता है। पक्के दुष्ट है संसार भर में। या हो सकता है ऐसे दुष्ट हम भी हो सकते हैं, इस्कॉन को जॉइन तो किए हैं लेकिन कुछ दुष्टता अब भी है हममे, अब भी कुछ आसुरी प्रवृत्ति, जड़ भाव, विचार अब भी है तो उसका भी विनाश करना है। उसको अनर्थ भी कहा जा सकता है इस जड़ प्रवृत्ति को या आसुरी प्रवृत्ति को भोग विलास की प्रवृत्ति को तो उसका भी विनाश करते जाना ऐसी दुष्टता का। और फिर धर्मसंस्थापनार्थाय फिर हो गई धर्म की स्थापना। उसका नाम भागवत धर्म दो या सनातन धर्म दो उसी का एक नाम वर्णाश्रम धर्म भी बन जाता है। वह शाश्वत नहीं होता नाम वर्णाश्रम या फिर नाम दो कलि कालेर धर्म हरिनाम संकीर्तन हरि नाम संकीर्तन ही धर्म है। इस हरि नाम संकीर्तन की स्थापना तो मोटे-मोटे तीन कार्य हुए परित्राणाय साधुनाम एक कार्य एक उद्देश और विनाशाय च दुष्कृताम् दूसरा उद्देश और धर्मसंस्थापनार्थाय धर्म की स्थापना तीसरा उद्देश। भगवान के इस कार्य को हमारे लीडर तो भगवान ही है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं संकीर्तन आंदोलन के पिताश्री पितरो दो है गौरांग और नित्यानंद प्रभु उन्होंने प्रारंभ किया हुआ यह कार्य। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ || अनुवाद - भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | यह कार्य इस कार्य में हमें भी अपना योगदान देना है। आप बोल सकते हो कि यह हमारा फैमिली बिजनेस है, हेड ऑफ द फैमिली भगवान है गौर नित्यानंद है। उनके परिवार का यह फैमिली बिजनेस है परंपरा में। तो यहां फैमिली बिजनेस हमको भी करना है फिर हम ब्रह्मचारी है, गृहस्थ है या वानप्रस्थ है या सन्यासी हैं या फिर ब्राम्हण है, क्षत्रिय है, वैश्य है या शुद्र है किसी भी वर्ण या किसी भी आश्रम के हो सकते है। लेकिन संसिद्धिर्हरितोषणम् हरि को संतुष्ट करना ही हमारे कार्य की सफलता हैं, सिद्धि है, पूर्णता है। इस प्रकार हम सभी के लिए यह जॉब एंप्लॉयमेंट है, बेकार नहीं रहना। जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास आप कृष्ण के दास हो। लेकिन सरकारी सेवक बनके सरकार की सेवा कर रहे हो भगवान की सेवा नहीं कर रहे हो। या सरकार की ज्यादा सेवा कर रहे हो और भगवान की कम कर रहे हैं। हरि हरि। तो याद रखिए आप कौन हो ए जीव कृष्ण दास हम कृष्ण के दास हैं, कृष्ण के सेवक है। फिर हम सेवकों के लिए कौन सी सेवा है.. यह भी अभी हम सुना रहे थे और यह सेवा ही धर्म है। धर्म की यह भी एक परिभाषा हुई सेवा ही धर्म है क्योंकि जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास हम कृष्ण दास हमारा स्वरूप ही है कृष्ण दासत्व कृष्ण दास। दास का धर्म क्या है सेवा करना दास का धर्म है। वैसे हर चीज का धर्म होता है जल का भी धर्म होता है, बिजली का भी धर्म होता है हाथ लगाते ही शौक देना। इस तरह से थोड़े में यह समझना चाहिए कि हमारा धर्म है सेवा कृष्ण की सेवा जिनके हम दास हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। प्रश्न उत्तर सेशन प्रश्न - कंसनिसूदन प्रभुजी द्वारा हम लोग जो जप करते हैं वह साधना है या सेवा। हम लोग सिर्फ जप कर रहे हैं और दूसरी कोई सेवा नहीं कर रहे हैं इसका मतलब है हम लोग कुछ भक्तिमय सेवा नहीं कर रहे हैं तो जप करना यह साधना है या सेवा है? उत्तर - जप करना यह धर्म है और जीव का धर्म है सेवा। हां साधना भी सेवा है साधना भी धर्म है। साधना मतलब क्या है आप जप करते हो नित्यं भागवत सेवया होती है तो वह भी सेवा है ना। श्रवणं कीर्तनं यह नवविधा भक्ती है यह साधना भी हैं सेवा भी है और धर्म भी है और इसी के अलग-अलग नाम है साधना ही सेवा है सेवा ही धर्म है। प्रश्न - माधवी गोपी माताजी द्वारा गुरु महाराज हम जैसे पिछले चार-पांच दिनों से गुणों के बारे में चर्चा कर रहे थे, जो भक्ति में सेवा हम करते हैं तभी भी गुणों का प्रयोग होता है। जैसे जप सेवा करते हैं तो सुबह में सत्व गुण ज्यादा प्रभावशाली होता है और अगर कुछ कार्य करना है बाहर जाकर नगर संकीर्तन है या और कुछ कार्य तभी बहुत एक्टिविटी की जरूरत होती है और तभी रजोगुण में कार्य होता है। क्या यह सही समझ है कि हम गुणों का प्रयोग भगवान की सेवा में करते हैं और कुछ अलग समझ है और तमोगुण का भी प्रयोग करते हैं कि हम भगवान के सेवा में? उत्तर - इसको उत्साह कहते हैं उत्साहात निश्चयात धैर्यात बाहर जाने के लिए हमको उत्साह की आवश्यकता है। और भगवान की सेवा करनी है तो भगवान की सेवा गुणातीत होती है तीन गुणों से परे है। यह नहीं कि हम तीन गुण में रहकर ही सेवा करेंगे तीन गुणों से परे पहुंचना है। तो प्रातः काल में उसका फायदा उठाना है अच्छा समय है अनुकूल समय है प्रातः काल में। लेकिन दिन में प्रतिकूल समय होते हुए भी हमको गुनातीत बनके ही कीर्तन करना है या प्रचार करना है। यह नहीं कि दिन में रजोगुण है तो हम भी रजोगुणी बनके प्रचार करते हैं। इसलिए तो कहा है भक्ति मतलब शुद्ध भक्ति, भक्ति मतलब गुनातीत भक्ति। सब अवस्था में यह तीन गुणों के साथ हमको लढ़ना है और सत्व गुण से ऊपर पहुंच कर हमें प्रचार करना है या साधना करनी है। तमोगुणी बनकर नहीं रजोगुणी बनकर नहीं या सत्व गुनी बनके हम लोग प्रचार नहीं करते या प्रचार करते भी हैं तो इन तीन गुणों से ऊपर जाकर। लक्ष्य तो यह है कि हमको परमहंस बनना है कहो या तीन गुणों से ऊपर उठना है, परे पहुंचना है हर स्थिति में। उस स्तिथि को जब प्राप्त करेंगे तब हर समय हमारे लिए अनुकूल होगा या उसको अनुकूल बना कर हम लोग सेवा करेंगे या साधना करेंगे। गुणों से प्रभावित होकर नहीं गुणों से परे पहुंचकर अगर बाहर जाना है तो उत्साह की आवश्यकता है वैसे कहां तो है जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले। कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥ माया के गोद में कब तक लेटे रहोगे, पड़े रहोगे। कोई तमोगुण में लेटा है, कोई रजो गुण में लेटा है, कोई सत्व गुण में लेटा है। तो हर स्थिति से ऊपर उठना है, हर गुणों के बंधनों को तोड़कर ऊपर उठना है। फिर वह दिन का टाइम है या रात का टाइम है चाहे कोई स्थान है या काल है। प्रश्न - गिरिराज गोवर्धन प्रभुजी द्वारा महाराज आपने जो धर्म अर्थ काम मोक्ष के बारे में बताया, अर्थ का जो प्रमाण है धर्म के लिए और प्रपंच के लिए कितना होना चाहिए? उत्तर - यह समझ है कि 50% धर्म के लिए 25% अपने देखभाल के लिए और 25% भविष्य में आने वाले आपातकालीन के लिए। प्रश्न - राधाचित्तहरि प्रभुजी द्वारा अद्वैत आचार्य जी किसके अवतार है? उत्तर - अद्वैत आचार्य जी महा विष्णु जी के अवतार हैं। प्रश्न - मोनिका ठाकुर माताजी द्वारा जो तीन गुण है मैंने भागवतम मैं पढ़ा था कि यह तीन गुणों से ब्रह्मा जी और शिवजी भी बाहर नहीं निकल सकते, तो बहुत कठिन है, सत्व गुण तक तो ठीक है पर विशुद्ध सत्व में कैसे जा सकते हैं तीन गुणों में रहते हुए? उत्तर - भगवान ने कहा है मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते जो भी मेरे शरण में आएगा तो वह माया से तर जाएगा इन तीन गुणों के परे पहुंच जाएगा। या प्रभुपाद उदाहरण दिया करते थे हम किसी को मिलने जाते हैं तो उसका कुत्ता ही उसके गेट पर हम को रोकता है, भोंकता है। तो अंदर जाना हमको मुश्किल है, कुत्ता मान लो यह माया है कृष्ण के पास जाने नहीं दे रही हैं मित्र से मिलने नहीं दे रही हैं, तो हम क्या करते हैं मित्र से संपर्क करते हैं बेल बजाते हैं या फोन करके बताते हैं हम आए हैं प्लीज आप कुछ करो कुत्ता रास्ते में है। जब मालिक आएगा कुत्ते का मालिक उसी के साथ कुत्ता रास्ते से हट जाएगा आप का रास्ता खुल गया। तो इस तरह यह माया एक प्रकार से कुत्ता है भगवान का तो कृष्ण को पुकारो वही तो कहते हैं मामेव ये प्रपद्यन्ते जो मेरी शरण में आएगा मायामेतां तरन्ति ते फिर माया से तर सकते हैं कोई भी हो ब्रह्मा भी है या शिवजी भी है। वह भी वैष्णव है उनके लिए भी यह नियम है। फिर जीव भी साधारण जीव भी हम भी भगवान की शरण लो। और यही शरण है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इसका ध्यान पूर्वक प्रेम पूर्वक उच्चारण करेंगे तो हम तर जाएंगे 3 गुणों से परे पहुंच जाएंगे भगवद धाम लौटेंगे तैयारी होगी भगवद धाम लौटने की। प्रश्न - अंतरात्मा माताजी द्वारा महाराज कल मैंने एक प्रभुपाद जी का प्रवचन सुना उसमें प्रभुपाद कह रहे थे कि चार प्रकार के शत्रु रहते हैं गृहस्थ आश्रम में। उसमें एक बात बोले प्रभुपाद जी ने की स्त्रियां जो रहती है उनमें रजोगुण और तमोगुण का ही प्रभाव रहता है और उनका अगर पति सत्व गुण में है तो उनको मौका है कि वह भगवद धाम जा सकती है। किसी का पति अगर भक्त नहीं है और प्रभुपाद ने यह भी बोला कि स्त्रियों में बुद्धि कम रहती है। तो हम कैसे समझे कि हम भगवद धाम जा सकते हैं और यह तीन गुणों से परे जा सकते हैं? उत्तर - भगवान को पति बनाइए ना हमारा शाश्वत संबंध भगवान के साथ हैं। वैसे हम सभी स्त्रियां ही हैं पुरुष भी स्त्री है और स्त्री तो स्त्री है ही। लेकिन हमारे पति है भगवान, तो उनको पति बनाओ उनसे प्रभावित होगी उनसे प्रभावित होकर फिर भगवद धाम को प्राप्त करो। वैसे हम जब भक्ति करते हैं तो हम स्त्री नहीं रहते हैं या पुरुष नहीं रहते हैं सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् भक्ति आत्मा करता है भक्ति स्त्री नहीं करती पुरुष नहीं करता। वैसे हमारे स्त्री के अपने गुण हैं पुरुष के अपने गुण हैं पुरुष शरीर के स्त्री शरीर के गुण हैं। फिर वह रज, तमस, सत्व हो सकते हैं कम अधिक मात्रा में। लेकिन हमारा स्वरूप तो आत्मा है, हम अपने स्वरूप में स्थित होकर भक्ति करो साधना करो और फिर पति को थोड़ा दूर रखो। वैसे भी कहां है शादी होती है तो कृष्ण मैरिज पार्टनर बनते हैं, यह नहीं कि पति और पत्नी और तीसरा कोई है ही नहीं। तीसरा नहीं भगवान तो पहले हैं तो भगवान को केंद्र में रखते हुए जीवन व्यतीत करना है। गृहस्थ जीवन में विशेष रुप से कृष्ण केंद्र में होने चाहिए। उनकी भक्ति करो, उनको पुकारो, उनकी सेवा करो, पति की भी सेवा करो और जो जगतपति है सारे संसार के पति उनकी भी सेवा करो। शशि माता जी द्वारा गुरु महाराज को निवेदन गुरु महाराज एक बार मैंने आपसे अष्ट प्रहर लीला सुनी है। उस लीला को अगर आप ठीक समझे और कभी आप को मौका मिले तो उस लीला को आप के मुखारविंद से सुनाइए। हां कभी सुनाएंगे आज तो नहीं सुना पाएंगे बहुत ऊंची लीला है या कार्तिक में कभी सुनाएंगे आपका परिचय करवाएंगे अष्ट कालीन लीलाओ से। अष्ट कालीन लीला जो 24 घंटे है तो उसका विभाजन होता है। 8 काल है उसे अष्टकाल कहते हैं 24 घंटे के आठ विभाग है। भगवान आठ अलग-अलग प्रकार की लीलाएं संपन्न करते हैं खेलते हैं। तो उषाकाल होता है, फिर प्रातकाल, पूर्वान्न होता है, मध्यान होता है, उपरान्न होता है, प्रदोष काल होता है, निशा काल होता है और रात्रि का काल होता है। 8 काल हमने आपको अभी सुनाए हर काल में जो अलग-अलग लीलाए होती हैं ऐसे भी साधक होते हैं जो जैसे कहा था मैंने यह बात बहुत ऊंची है। लेकिन हां कुछ साधक अपनी साधना करते हैं भगवान की लीलाओ का स्मरण करते हुए। हां इस समय भगवान गोचरण लीला खेल रहे हैं ग्वाल बालकों के साथ है, कृष्ण इस समय भांडीरवन में है तो वहां का वे स्मरण करेंगे। यह मध्यान का समय है कृष्ण अब राधा कुंड पहुंचे होंगे और राधा और गोपियों के साथ उनकी झूलन यात्रा और जल क्रीड़ा इत्यादि क्रीडाए संपन्न हो रही है तो उसका वह स्मरण करता है। और सायंकाल में गोधूलि बेला हुई तो कृष्ण अब लौट रहे हैं घर लौट रहे हैं गोचारण लीला से घर लौट रहे हैं। धुली के बादल उमड़ आ रहे हैं आकाश में, भगवान के करीब अब पहुंच रहे हैं, पहुंच ही गए। यशोदा स्वागत कर रही है गले लगा रही हैं कृष्ण को और फिर स्नान और अभिषेक हो रहा है। अब बिठाकर कृष्ण बलराम को भोजन खिला रही हैं रोहिणी और यशोदा। और अब हां इस तरह से उस काल में जो जो लीलाए हुई होती है प्रतिदिन उस लीला का स्मरण करने का एक प्रकार का वह एक साधन है। ठीक है हम हमारे इस सत्र को यहीं विराम देंगे। हरे कृष्ण। श्रील प्रभुपाद की जय। लोकनाथ स्वामी महाराज की जय।

English

23 October 2020 Kali’s 5th place of residence Hare Krsna! Devotees from 788 locations are chanting with us. Gauranga! Hari Haribol! After accepting Sannyāsa, Gaurānga Mahāprabhu met all the devotees and Saći mata at Santipur. Mahāprabhu desired to go to Vrindavan, but His mother Saći devi proposed that He should go to Jagannātha Puri instead, as it is nearby. Mahāprabhu accepted this proposal. Now Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu is heading for Jagannātha Puri from Santipur, the village of Advaita Ācārya on the banks of Ganges where Advaita Ācārya prayed to the Lord to descend as there was a decline in religious practice. yadā yadā hi dharmasya glānir bhavati bhārata abhyutthānam adharmasya tadātmānaṁ sṛjāmy aham Translation Whenever and wherever there is a decline in religious practice, O descendant of Bharata, and a predominant rise of irreligion – at that time I descend Myself. (BG. 4.7) Mahāprabhu appears to re-establish Dharma (religion). Advaita Ācārya appeared some 50 years before Caitanya Mahāprabhu. He was observing that in so many ways adharma (irreligious practice) had spread due to the decline in religious practice. abhyarthitas tadā tasmai sthānāni kalaye dadau dyūtaṁ pānaṁ striyaḥ sūnā yatrādharmaś catur-vidhaḥ Translation Sūta Gosvāmī said: Mahārāja Parīkṣit, thus being petitioned by the personality of Kali, gave him permission to reside in places where gambling, drinking, prostitution and animal slaughter were performed. (ŚB 1.17.38) Advaita Ācārya saw that the four regulative principles were not followed by most people. patraṁ puṣpaṁ phalaṁ toyaṁ yo me bhaktyā prayacchati tad ahaṁ bhakty-upahṛtam aśnāmi prayatātmanaḥ Translation If one offers Me with love and devotion a leaf, a flower, a fruit or water, I will accept it. (BG. 9.26) In Bengal, people eat fish and say that it is the 'fruit of water'[jal-phal]. Thus, where these four, gambling, drinking, prostitution and animal slaughter are performed, Kali resides there as ordered by Pariksit Maharaja. Also, upon Kali's request, Pariksit Maharaja let him stay in the 5th place, where black marketing is practiced. When money is used for sense gratification, eating, enjoying, for extra luxurious life then Kali goes there. Dharma (righteousness), Artha (money), Kama (desire) and Moksha (liberation) are the four puruṣārthas. Artha (money) is in between Dharma and Kama. Money should be used for Dharma or to facilitate us to progress in Bhakti and not for Kama (desire). Hence, these are the 5 places where Kali stays. Advaita Ācārya was intensely praying to Mahāprabhu that He must appear as Dharma was declining and adharma was spreading. He was offering his water from Ganges with a leaf of Tulasi to his Saligram Sila on the banks of the Ganges. paritrāṇāya sādhūnāṁ vināśāya ca duṣkṛtām dharma-saṁsthāpanārthāya sambhavāmi yuge yuge Translation To deliver the pious and to annihilate the miscreants, as well as to reestablish the principles of religion, I Myself appear, millennium after millennium. (BG. 4.8) Krsna says, “I appear to protect the devotees, to destroy the demons and to reestablish Dharma.” Thus, Mahāprabhu heard and accepted the prayer request of Advaita Ācārya. He started His work of establishing dharma before He appeared. Caitanya Mahāprabhu appeared in the evening, but He appeared in the form of His holy name during the day. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare On the full moon night of 18 February 1486, Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu appeared (ajani) to Saći Devi. śrī-rādhāyāḥ praṇaya-mahimā kīdṛśo vānayaivā- svādyo yenādbhuta-madhurimā kīdṛśo vā madīyaḥ saukhyaṁ cāsyā mad-anubhavataḥ kīdṛśaṁ veti lobhāt tad-bhāvāḍhyaḥ samajani śacī-garbha-sindhau harīnduḥ Translation “Desiring to understand the glory of Rādhārāṇī’s love, the wonderful qualities in Him that She alone relishes through Her love, and the happiness She feels when She realizes the sweetness of His love, the Supreme Lord Hari, richly endowed with Her emotions, appeared from the womb of Śrīmatī Śacīdevī, as the moon appeared from the ocean.”[CC. Adi 4.230] Ajani means to appear, Hari means Krsna and indu means moon (chandra). Thus, Mahāprabhu or Caitanya Chandra appeared to Saćidevi. He spent 24 years in Mayapur to establish Harināma Dharma. Mahāprabhu grew up gradually, took teaching and initiation from His spiritual master Iśvara Puri. He started preaching Dharma in Navadvīpa, Mayapur through Harināma Sankīrtana. But He wanted to reach out to more people. Therefore, He accepted Sannyāsa from Keshav Bharti. śri-rādhār bhāve ebe gorā avatāra hare kṛṣṇa nāma gaura korilā pracāra Translation It is He who has come. He has come! Oh, from Vraja He has come to Nadiya. Accepting the mood and luster of Sri Radha, He has come from Vraja to Nadiya. He has come! Now Lord Govinda, the cowherd boy, has come as Lord Gauranga. He has come distributing the Hare Krsna maha-mantra! (Verse 4, Jaya Jaya Jagannatha Sacira, Vasudeva Ghosa) harer nāma harer nāma harer nāmaiva kevalam kalau nāsty eva nāsty eva nāsty eva gatir anyathā Translation In this age of quarrel and hypocrisy, the only means of deliverance is the chanting of the holy names of the Lord. There is no other way. There is no other way. There is no other way. (CC Madhya 6.242) After accepting Sannyāsa, Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu preached Harināma Sankīrtana. Mahāprabhu got the name Śrī Krsna Caitanya after His Sannyāsa initiation. Before He was not called Caitanya. He was called Nimai, Visvambhar, Gaura Hari, etc. But now, His name was Sri Krsna Caitanya, who will spread consciousness all over the world. 'Cetan', means something that has life. From Cetan, the word Caitanya is derived. Everyone is like the dead if they are devoid of Dharma or in illusion that they are this body, American or Indian, male or female. But Mahāprabhu spread this consciousness to everyone by preaching Dharma. He moved to Jagannātha Puri from Santipur after accepting sannyāsa with the motive to spread the Harināma dharma all over the world. Krsna appears to deliver His devotees, destroy the Adharma and reestablish Dharma. Mahāprabhu also appeared with the same motive. Krishna Consciousness means Dharma. ISKCON, the society established by Śrīla Prabhupāda, also has the same motive as Caitanya Mahāprabhu had. Śrīla Prabhupāda wrote 7 main purposes of ISKCON to help the devotees, destroy the obstacles in devotion and reestablish dharma. dvau bhūta-sargau loke ’smin daiva āsura eva ca daivo vistaraśaḥ prokta āsuraṁ pārtha me śṛṇu Translation O son of Pṛthā, in this world there are two kinds of created beings. One is called divine and the other demoniac. I have already explained to you at length the divine qualities. Now hear from Me of the demoniac. (B.G. 16.6) There are two types of people. One is the saintly people and the other is the people with demoniac propensities. The Lord appears to protect His devotees by destroying the demons or demoniac qualities and reestablishing Dharma. Although there are seven purposes of ISKCON, it can be condensed to three: 1. Delivering the pious people, 2. Destroying the evil (anarth) in people and make them pious. 3. Re-establishing Dharma (Bhagavat, Sanātana or Varnāśrama Dharma). avatari’ caitanya kaila dharma-pracāraṇa kali-kāle dharma — kṛṣṇa-nāma-saṅkīrtana Translation In this Age of Kali, Śrī Caitanya Mahāprabhu has descended to preach the religion of Kṛṣṇa consciousness. Therefore the chanting of the holy names of Lord Kṛṣṇa is the religious principle for this age. (CC Madhya 11.98) Harināma Sankīrtana is also a dharma. Therefore, these are the 3 main purposes behind the appearance of the Lord. Gauranga and Nityānanda Prabhu preached Hare Krsna and thus fulfilled these three motives. They are the fathers of this Sankīrtana movement. We also have to contribute to this movement. It's our family business. Head of the family is Gauranga and Nityānanda. We also have to engage in Sankīrtana. ataḥ pumbhir dvija-śreṣṭhā varṇāśrama-vibhāgaśaḥ svanuṣṭhitasya dharmasya saṁsiddhir hari-toṣaṇam Translation O best among the twice-born, it is therefore concluded that the highest perfection one can achieve by discharging the duties prescribed for one’s own occupation according to caste divisions and orders of life is to please the Personality of Godhead. (ŚB 1.2.13) Whether one is brahmaćāri, grahasta, vānprastha, sannyāsi, brāhmana, kśatriya, vaiśya or śūdra, the main motive must be to please the Personality of Godhead, Śrī Krsna. That is our success. jiver svarupa hoye krsner nitya dasa Translation The true nature of the soul is that it is the eternal servant of Śrī Krsna. One should not remain idle. We are servants of Krsna. We should always remain busy in satisfying Krsna, not the government. That is the perfection of life. Always remember that our original identity is that we are eternal servants of Śrī Krsna. We must accept and understand this and therefore, engage ourselves in the services of Śrī Krsna. This is exactly the dharma as we are servants. Rendering services are the dharma of a servant like the dharma of water is to quench the thirst or the dharma of electricity is to give a shock. Therefore, as a servant, it's our dharma to serve Krsna. WHO SAID THIS? There are two front ends for maintaining the videos. First is mobile application and another is fortunatepeople.com website. To continue the service of making videos worldwide, it's important to make our application and website more powerful. Therefore, it's a request if there is any IT professional who knows web designing, can access mobile applications, please use your expertise in the service of Mahāprabhu and help us. Everyone is supposed to make videos of people offering deep daan during Kārtika month. Chanting of mahā-mantra will also be done along with deep daan. This will be a competition again. You can also approach the same people who made Harināma videos earlier. This will help in getting the mercy of Damodara. Questions & Answers Session Question 1: Is chanting a sadhana or seva? Gurudev Uvaca: Chanting is dharma and rendering services (seva) to Krsna and it is also the dharma of living entities. Therefore, sadhana is seva itself. Sadhana means chanting or reading books. It's also seva. naṣṭa-prāyeṣv abhadreṣu nityaṁ bhāgavata-sevayā bhagavaty uttama-śloke bhaktir bhavati naiṣṭhikī Translation By regular attendance in classes on the Bhāgavatam and by rendering of service to the pure devotee, all that is troublesome to the heart is almost completely destroyed, and loving service unto the Personality of Godhead, who is praised with transcendental songs, is established as an irrevocable fact. (ŚB 1.2.18) Nine types of bhakti (śravanam, kīrtanam) is also sadhana and seva as well as dharma. Sadhana is seva and seva is dharma. Question 2 : Do the modes of nature apply to the devotional services performed? Gurudev Uvaca: Being enthusiastic is a requirement to go outside for sankīrtana. Devotional services to the Lord is of pure goodness. It does not fall under the three modes of nature. Although we must take advantage of early morning hours as it falls under the mode of goodness, but in daytime also, we have to perform our devotional services in pure goodness even though it's a time of mode of passion. We must not get affected by the mode of passion. Bhakti should be in pure goodness, above all the three the modes of nature. We have to become paramhansa or transcendental. When we perform devotional services in pure goodness, then every time will become favourable. jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole kota nidrā jāo māyā-piśācīra kole Translation Lord Gauranga is calling, "Wake up, sleeping souls! Wake up, sleeping souls! How long will you sleep in the lap of the witch called Maya? (Verse 1, Jiv Jago Jiv Jago, Arunodaya Kirtana Song 2, Bhaktivinoda Thakura) Someone is sleeping in the mode of goodness, some in the mode of passion or some in the mode of ignorance. We have to wake up above these modes, whether it's day time or night time or any place. Question 3 : How much Artha (money) should be used for Dharma (religion)? Gurudev Uvaca: 50% of money should be used for Dharma or religious activities, 25% for day to day maintenance and 25% for future emergency. Question 4: Whose incarnation was Advaita Ācārya? Gurudev Uvaca: Advaita Ācārya was the incarnation of Maha Visnu. Question 5: How can we attain the mode of pure goodness and overcome all the three modes of nature? Gurudev Uvaca: daivī hy eṣā guṇa-mayī mama māyā duratyayā mām eva ye prapadyante māyām etāṁ taranti te Translation This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG. 7.14) Lord said, "Those who surrender unto Me can easily overcome the three modes of material nature." Śrīla Prabhupāda used to explain. When we go to meet someone and find a dog barking on the door, then we call the owner of the dog to keep him aside so that we can easily enter. Similarly, Maya (illusion) is Krsna’s dog. When we call or surrender unto Krsna, we can overcome Maya. Brahma and Shiva are also Vaiśnavas. Thus, the same rule holds for them. Therefore, we must surrender to the Lord and His holy name. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare When we chant attentively, then we can overcome the three modes of material nature and go Back to Godhead. Question 6 : There is a presence of the mode of passion and ignorance in women and if her husband is a devotee and in the mode of goodness, then there is a chance for her to go Back to Godhead? What if her husband is not a devotee? Gurudev Uvaca: Make Krsna your husband. We have an eternal relation with the Lord. We all are the soul and the soul is female. It means we all are women. Therefore, make Krsna your husband. Get attracted to Him and go Back to Godhead. We become free from all material designations like men or women when we perform devotional service. sarvopādhi-vinirmuktaṁ tat-paratvena nirmalam hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa- sevanaṁ bhaktir ucyate Translation Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and one’s senses are purified simply by being employed in the service of the Lord. (CC Madhya 19.170) The soul performs devotional service, not bodies of men or women. There could be more or less presence of the three modes of nature in men or women, but we are eternal souls. Therefore, we must perform devotional service. Keep the husband away. In a marriage, the first person is Krsna and then the wife and husband. Therefore, keep Krsna in the centre and spend grhasta life doing bhakti. Serve your husband as well as the Supreme husband, Śrī Krsna. Question 7 : Can you explain 'aśtha kaliya lila'? Gurudev Uvaca: There are a total of 8 divisions (prahar) in 24 hours. The Lord performs 8 different pastimes in those 8 prahars. Nishanta kāla, Prātah kāla, Purvahna kāla, Madhyan, Aparahna, Sayana kāla, Pradosh kāla, Nisha kāla are the 8 prahar. There are sādhaks who remember the pastimes of the Lord according to the time or kāla. "This time the Lord must be performing Gochāran lila with His cowherd friends or He must be in Bhāndir vana. At Madhyan, Krsna must be with Radha and the gopīs at Radha-kunda playing with swings and in water. In Sayana kāla, Krsna must be heading back home from Gochāran lila. And now He arrives at Nandagram. Mother Yasoda is embracing Krsna. And now they are bathing and then mother Yasoda and Rohini are feeding them. Hare Krsna! Gaura Premanande Hari Hari bol!!

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