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जप चर्चा 17 मई 2021 पंढरपुर धाम से, हरे कृष्णा! 875 स्थानों से भक्त हमारे साथ जुड़कर जप कर रहे हैं। हरि हरि, गौर हरि!! जानते हो कि उन्हें हरि क्यों कहते हैं? क्योंकि वह हर दुखः को हर लेते हैं। वह दुखहर्ता हैं, इसलिए उन्हें हरि कहते हैं।वह मनोहर भी हैं, क्योंकि वह मन को भी हर लेते हैं।पंढरपुर में कहते हैं,"वासुदेव हरि हरि" और हम गोडिय वैष्णव कहते हैं कि केवल हरि हरि ही मत कहो गौर हरि कहो। *गौर हरि*।अब बताओ क्या कहोगें? *हरि हरि गौर हरि* *जय-जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त* *वृंद।* *श्री शिषटाषटक की जय*! हम कई दिनों से शिष्टाषटक का रसास्वादन कर रहे हैं। अपनी प्रकट लीला में तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं 500 वर्ष पूर्व जगन्नाथपुरी में शिष्टाषटक का रसास्वादन करते रहे,किंतु क्योंकि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की सभी लीलाएं नित्य लीलाएं हैं, इसीलिए यह कह सकते हैं कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आज भी इस शिष्टाषटक का रसास्वादन कर रहे हैं। भगवान के चरण चिन्नहो का अनुगमन करते हुए हमें भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के शिष्टाषटक का रसास्वादन करना चाहिए। शिष्टाषटक कैसा हैं? यह अस्वादनीय हैं। पालन करने योगय हैं। (चैतन्यचरित्रामृत अंत: लीला अध्याय 20 श्लोकसंख्या 11) नाम - सङ्कीर्तन हैते सर्वानर्थ - नाश । सर्व - शुभोदय , कृष्ण - प्रेमेर उल्लास।। *अनुवाद* *एकमात्र भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन करने से मनुष्य समस्त* *अवांछित अभ्यासों से मुक्त हो सकता है । यह समस्त सौभाग्य के" *उदय कराने तथा कृष्ण - प्रेम की तरंगों के प्रवाह को शुभारम्भ कराने* *का साधन हैं।* शिष्टाषटक का आस्वादन करते हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को संबोधित कर रहे हैं और कह रहे हैं कि नाम संकीर्तन करने से सभी अनर्थो का नाश हो जाता हैं,अनर्थ अर्थात बेकार की बातें। हम बेकार की बातों को लेकर बैठे हैं।या कह सकते हैं कि हम अनर्थो की आकांक्षा लेकर बैठे हैं। कैसी आकांक्षाएं? पापके विचारों की, काम क्रोध,लोभ इन सब विचारों की।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं कि नाम संकीर्तन करने से सभी अनर्थो का नाश हो जाएगा। हरि हरि।। और शुभ का लाभ होगा। शुभ का उदय होगा, इससे भक्ति प्राप्त होगी। नाम संकीर्तन करना भक्ति ही हैं। भक्तिरसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी भक्ति के 6 लक्षणों के बारे में बता रहे हैं। उसमें से एक हैं, शुभदा।भक्ति शुभ देने वाली हैं। मंगल दायक हैं। वही बात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। सर्व शुभ उदय होगा और कृष्ण प्रेम का उदय एवम् विकास प्राप्त होगा या कृष्ण प्रेम जागृत होगा। M 22.107 नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।107॥ *अनुवाद* *"कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है।* *यह ऐसी बस्तु नहीं* *है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा* *कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता* *है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।"* यह सिद्धांत है कि नाम संकीर्तन करने से चित् शुद्ध होगा और कृष्ण प्रेम प्राप्त होगा या जागृत होगा। कृष्ण प्रेम तो अभी भी हैं, लेकिन अभी सुप्त अवस्था में हैं।यह नाम संकीर्तन उस प्रेम को उदित करेगा। थोड़ी सी इस प्रकार की प्रस्तावना श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहकर अब जो प्रथम शिष्टाषटक हैं उसको भी स्वयं ही कहेंगे।हमें यह स्मरण रहे कि अभी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के गंभीरा में हैं और राय रामानंद और स्वरूप दामोदर के साथ हैं। रात्रि का समय हैं और रात्रि का जागरण हो रहा हैं। जैसे हमारे देश में देवी का जागरण चलता रहता हैं, लोग पूरी पूरी रात भर देवी के या देवी देवताओं के गुण गाते रहते हैं। जागरण होता हैं। हरि हरि।। कृष्ण ने स्वयं कहा हैं कि काङ् क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: | क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा (भगवद्गीता 4.12) *अनुवाद* *इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे* *देवताओं की पूजा करते हैं | निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को* *सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता हैं |* देवी जागरण,देवता जागरण या देवी देवताओं की आराधना के पीछे क्या उद्देश्य होता हैं?*आकांक्षाओं की पूर्ति* लोग देवी देवताओं की पूजा अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए करते हैं और अपने किए हुए कार्यों का फल प्राप्त करने के लिए देवी देवताओं की पूजा करते हैं और जब फल प्राप्त होगा तो उसका भक्षण करेंगे, उसको खाएंगे।इन लोगों को कर्मी कहते हैं।कर्मी, ज्ञानी,योगी में से कर्मी कौन होते हैं? जो कि अपने कर्मों के फल को स्वयं ही भोगना चाहते हैं। इसलिए देवी देवताओं के पुजारी कर्मी होते हैं। तो हमारे देश में जागरण तो होते रहते हैं,लेकिन जो चैतन्य महाप्रभु का जागरण हो रहा हैं वह दिव्य हैं, आलौकिक है़ं,गुनातीत हैं। अन्याभिलाषिता-शून्यं ज्ञान-कर्माद्य्-अनावृतम् । आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिर् उत्तमा (भक्ति रसामृत सिंधु 1.1.11) उत्तम भक्ति की चर्चा कथा या आस्वादन करते हुए यह जागरण हो रहा था। मैं यह कहना चाह रहा था कि परिस्थिति समझो जिसके अंतर्गत श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने शिष्टाषटक का आस्वादन किया। अभी तक जो भी कहा गया था, वह परिचय या प्रस्तावना थी।अब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रथम शिष्टाषटक कहेंगे। Ant 20.12 चेतो - दर्पण - मार्जन भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेयः कैरव -* *चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् आनन्दाम्बुधि - वर्धन प्रति -* *पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म - स्नपन पर विजयते श्री - कृष्ण -* *सङ्कीर्तनम् ॥12 ॥ *अनुवाद* *" भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो* *हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी* *प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन* *उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य* *रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन* *है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय* *सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति* *पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना* हरि हरि!! ऐसी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा। मैं कहने जा रहा था चैतन्य महाप्रभु ने ऐसे कहा,लेकिन फिर विचार आया कि नहीं, नहीं ऐसे नहीं कहा होगा। ऐसे तो मैंने दौहराया हैं। जाने उनके कैसे भाव रहे होंगे। इसे कहते हुए उनके मन की स्थिति कैसी रही होगी। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का तो मन ही वृंदावन हैं। हरि हरि।। जिनके मन में हरि बसे हैं।वैसे भगवान तो सभी के मन में बसे होते ही हैं। लेकिन चैतन्य महाप्रभु तो इसका अनुभव करते थे।यहां तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृष्ण का साक्षात्कार करते हुए राधा भाव में बोल रहे हैं। पूर्ण कृष्णभावनाभावित राधा के मन में कृष्ण भावना विकसित हुई हैं और कृष्ण प्रेम उल्लसित हो चुका हैं और पूरी समझ के साथ कह रहे हैं।"चेतो दर्पण मार्जनम्", यह कहने पर जो भाव उदित होते हैं, उन्ही भावो के साथ चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रथम शिष्टाषटक का उच्चारण किया। मैंने तो अपनी समझ के अनुसार ही आपको बताया हैं। मेरी समझ की कुछ सीमा हैं, उसी के अनुसार बताया कि ऐसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा होगा। ऐसे भावों से युक्त श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह प्रथम शिष्टाषटक कहा।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के द्वारा इस शिष्टाषटक का रसास्वादन हो रहा हैं, तो वह अब क्या करने वाले हैं? वह शिष्टाषटक पर अपना विचार प्रस्तुत करने वाले हैं। जिसको हम टीकाकरण या भाष्य भी कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं ही स्वयं के रचित शिष्टाषटक पर भाष्य सुनाया या समझाया। वहां तो राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को समझा ही रहे हैं।उसी के साथ हमें यह भी समझना होगा कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हम को समझाना चाहते हैं। निमित्त तो राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को बनाया हैं, लेकिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हमें ही सिखाना चाहते हैं। उनका लक्ष्य तो हम लोग हैं। हमारे लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इस शिष्टाषटक की रचना भी की है और शिष्टाषटक का भाष्य भी सुना रहे हैं। जैसे भगवद्गीता अर्जुन के लिए नहीं थी,अर्जुन तो केवल निमित्त मात्र थे। भगवान तो हमको भगवद्गीता सुनाना चाहते थे। हम जो भगवान से बिछड़ गए हैं।हमारे जैसे भूले भटके जीवो को श्री कृष्ण गीता का उपदेश सुनाना चाह रहे थे और उसके लिए निमित बनाया अर्जुन को। कृष्ण ने ही पूरी परिस्थिति का निर्माण किया, उस परिस्थिति में अर्जुन को पहुंचाया और अपनी माया के प्रभाव से अर्जुन को भ्रमित भी किया और संभ्रमित में अर्जुन ने फिर कृष्ण से कहा भी “कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ७ ||” (भगवद्गीता 2.7) अनुवाद *अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ* *और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ* *कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं* *आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |* "श्री कृष्ण वंदे जगत गुरु", मैं आपका शिष्य बन रहा हूं। हें जगद्गुरु श्री कृष्ण,यह शिष्य जो आपकी शरण में आया हैं, उसे कृपया उपदेश दीजिए और फिर अर्जुन को जो भगवान ने उपदेश दिया वह हमारे लिए भी हैं। श्री कृष्ण ने जो उपदेश दिया वह हैं भगवद्गीता और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जो उपदेश दिया वह हैं शिष्टाषटक। यहां नाम संकीर्तन की बात हो रही हैं। कुछ दिनों पहले ही मैंने यह बात सुनाई थी कि जो प्रथम शिष्टाषटक हैं, इसमें विशेष विशेषण हैं। विशेष्य हैं श्री कृष्ण संकीर्तन और इसके 7 विशेषण हैं, या 7 एडजेक्टिव हैं। *परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम्*। संकीर्तन की विजय हो। श्री कृष्ण संकीर्तन कैसा हैं? उसके लिए 7 बातें कहीं गई हैं। सात प्रकार से सात वैशिष्ट्ठो के साथ कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इस संकीर्तन का वर्णन किया हैं और वह हैं "*चेतो दर्पण मार्जनम्*" नाम संकीर्तन करने से चेतना का जो दर्पण हैं, जो आईना हैं, वह स्वच्छ होगा और यह भवदावागनि बुझेगी ,संसार जो दावाग्नि हैं, इसको कभी-कभी जंगल भी कहा जाता हैं और इसीलिए दावाग्नि शब्द का उपयोग हुआ हैं। यानी जंगल की आग।इस संसार में आग लगी हुई हैं और यह संकीर्तन उस आग को बुझा सकता हैं। *भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं* यह दूसरी बात हैं।और तीसरी बात क्या हैं?तीसरी बात हैं- *श्रेयः कैरव -चन्द्रिका - वितरणं* अभी-अभी जहां आग लगी हुई थी या फिर पूरे संसार की आग तो नहीं लेकिन हमारा जो संसार हैं, हमारा जो जगत हैं, हमारा परिवार हैं, या फिर हम खुद ही हैं अर्थात हमारा जो व्यक्तिगत संसार हैं, वो आग बुझेगी और उसी स्थान पर फूल खिलेंगे। जैसे ग्रीष्म ऋतु के बाद वसंत ऋतु आती हैं और मंद शीतल हवाएं बहने लगती हैं।फूल खिलते हैं हरियाली छा जाती हैं। जैसे ग्रीष्म ऋतु में जो अनुभव होता हैं, उस आग का निर्वापन, उसका दमन, उसका शमन करके फिर उसी स्थान पर क्या होगा? कैरव यानी पुष्प खिलेंगे।श्रेयस होगा एक श्रेयस होता हैं और एक प्रेयस होता हैं यानी लाभ।वैसा लाभ होगा, जीवन में वैसी क्रांति होगी । आप उस स्थान की कल्पना कर सकते हो जहा अभी-अभी आग लगी थी और क्रांति हुई और आग बुझ गई और उसी स्थान पर हरियाली छा गई। पुष्प खिले और शीतल सुगंधित मंद मंद हवा बहने लगी। जैसी यह क्रांति हैं वैसी ही क्रांति श्री कृष्ण संकीर्तन कर देता हैं। भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं के स्थान पर होगा श्रेयः कैरव चन्द्रिका - वितरणं। उसके बाद चौथा हैं। *विद्या - वधू - जीवनम्* यह नाम संकीर्तन विद्या वधू का जीवन हैं।अथार्त लाइफ ऑफ द वाइफ ऑफ नॉलेज। ज्ञान की वधू का जीवन या दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि नाम संकीर्तन करने से आप विद्वान भी हो जाएंगे। विद्या को ग्रहण करेंगें। वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः । जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥७ ॥ (श्रीमद भागवतम 1.2.7) *अनुवाद* *भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहेतुक ज्ञान* *तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।* वासुदेव की नाम संकीर्तन वाली भक्ति करने से, श्रवणं कीर्तन करने से, श्रवणं कीर्तन करते हैं, तो स्मरण होता हैं फिर ध्यान होता हैं। श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा* *तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४ ॥ (श्रीमद भागवतम 7.5.23) *प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप ,* *साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना ,* *उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना ,* *षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से* *प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप* *में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा ,* *वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ* *स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की* *सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान* *व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।* ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।। श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।। यह नाम संकीर्तन ज्ञान आंजन और केवल ज्ञान आंजन ही नहीं प्रेम आंजन स्तर तक हमें यह नाम संकीर्तन पहुंचा सकता हैं।पहले जो व्यक्ति बुद्धू था,अब बुद्धिमान हो गया। यह नाम संकीर्तन बुद्धू को बुद्धि देगा। “तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||” (भगवद्गीता 10.10) *अनुवाद* *जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान* *प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |* यह चार वैशिषठ हुए।और पांचवा हैं- *आनन्दाम्बुधि - वर्धनं* आनंद बढ़ाने वाला।आनन्दाम्बुधि अर्थात आनंद का सागर और कैसा आनन्दाम्बुधि हमेशा बढ़ने वाला सागर। जिसका कोई किनारा ही नहीं हैं। वैसे मेरा अनुभव तो यह हैं कि हर समुद्र का तट होता हैं, किनारा होता हैं। समुद्र के जल की केवल वही तक ही पहुंच होती हैं। समुद्र की लहरें तरंगे या जल उससे आगे नहीं बढ़ती हैं। हमारे अनुभव का जो समुद्र हैं उसकी भी एक सीमा हैं, किंतु यह नाम संकीर्तन जो है इसे करने से आनंद प्राप्त होने वाला हैं और यह आनंद वधिर्त होने वाला है कितना आनंद?आनंदम बुद्धि वर्धनम। बढ़ने वाला आनंद। विस्तारित होने वाला आनंद का सागर,उसी को इस पांचवें वशिष्ठ में बताया गया है और छठवां वैशिष्ठ क्या हैं? *प्रति -पद पूर्णामृतास्वादन* और व्यक्ति पग पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करेगा। पहले जहर पी रहा था।कैसे जहर पी रहा था?मनुष्य जीवन पाकर भी राधा कृष्ण का भजन नहीं कर रहा था तो जानते बुझते हुए विश ही पी रहा था manusya-janama paiya radha-krsna na bhaijiya janiya suniya bisa khainu मानव जीवन मिलने पर भी अगर कृष्ण का भजन नहीं कर रहा हैं, पूजन नहीं कर रहा हैं, राधा कृष्ण के शरण में नहीं आ रहा हैं और श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा* *तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४ ॥ (श्रीमद भागवतम 7.5.23) इसमें से अगर कुछ भी नहीं कर रहा हैं तो क्या कर रहा हैं? जानते बुझते हुए विश खा रहा हैं। किंतु नाम संकीर्तन करना मतलब अमृत का पान करना हैं। पूर्ण अमृत आस्वादन, पद पद पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करना और सांतवी बात हैं *सर्वात्म - स्नपनं* स्नान होगा किस का स्नान होगा? आत्मा का स्नान होगा। मन को भी आत्मा या सेल्फ कहा जाता हैं। मैंने बताया था कि 7 आइटम हैं सेल्फ के अंदर जिसका उल्लेख होता हैं।सेल्फ में सात अलग-अलग चीजें शामिल हैं। आत्मा, मन, बुद्धि, शरीर और भी हैं। तो सर्वात्मस्नपनं इन सब का स्नान होगा, अभिषेक होगा और आनंदम्बुद्धिवर्धनं हो रहा हैं। आनंद का सागर जब गोते लगाए तो हो गया सर्वात्मस्नपनं।व्यक्ति पूरा भीग जाएगा और कृष्ण भावनाभावित होगा। उसकी आत्मा भी कृष्ण भावनाभावित,उसका मन भी कृष्णभावना भावित, बुद्धि भी कृष्ण भावनाभावित। भगवान स्वयं ही उसे बुद्धि दे रहे हैं।भगवान स्वयं सुविचार दे रहे हैं। तो हो रहा हैं ना सर्वात्मस्नपनं शरीर का भी हो रहा हैं। स्वास्थ्य ठीक रहेगा। व्यक्ति स्वस्थ भी रहेगा।जहर पीने से मर जाते हैं,लेकिन जब अमृत का पान करेंगे तो आयुष्मान भव:। और केवल जीने के लिए ही नहीं जीना। जी कर कुछ करना भी हैं। स्वस्थ जीवन ही जीवन हैं, नहीं तो जीवित होते हुए भी मरण ही हैं। आजकल लोग मरने से पहले मर जाते हैं। जीवित हैं, लेकिन लेटे रहते हैं,अस्पताल में होते हैं या उनके शरीर के अलग-अलग अंग कार्य नहीं कर रहे होते,तो वह मरण ही हैं।जो आत्मा कृष्ण भावना भावित हैं या भक्त हैं या व्यक्ति हैं, भगवान की सेवा में उनका शरीर भी स्वस्थ एवं सक्रिय रहता हैं और फिर *परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनं*। ऐसे संकीर्तन आंदोलन की जय हो! यह कौन कह रहा हैं? यह चैतन्य महाप्रभु ने घोषणा की। *संकीर्तन आंदोलन की जय* और *संकीर्तन आंदोलन से जुड़े हुए सभी भक्तों की जय* विजयी भव:।। और इस आंदोलन की भी जय हो!! और इस आंदोलन के सभी सदस्यों की भी जय हो!! *गोर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!* *श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय* *श्रील प्रभुपाद जी की जय।* *हरे कृष्णा।*

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