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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक १७.०३.२०२१ हरे कृष्ण! जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥ अर्थ:-श्रीचैतन्यमहाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो। अब जप रोक कर श्रवण कीजिये। वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे। यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे।। ( श्रीमद् भागवतम् १.१.१९) अर्थ:- हम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं, जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है। उनके साथ दिव्य संबंध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है, वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं। हम कभी थकते ही नहीं जैसे शौनक आदि मुनियों ने कहा था। वे कभी थके नहीं। गो ऑन टॉकिंग। जप चर्चा श्रवण किजिए। हरि! हरि! आज ६३० स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। गौर कथा प्रारंभ हो रही है। आज कथा थोड़ी छोटी होगी शायद आपने घोषणा सुनी ही होगी। हम लगभग 7:15 बजे तक यह गौर कथा करेंगे। तत्पश्चात 8:00 बजे पुन: कथा प्रारंभ होगी, वह कथा 8:00 से 9:00 तक अंग्रेजी में होने की संभावना है, ठीक है। इस कथासत्र के अंत में आपको पदमाली प्रभु पुनः सूचना दे देंगे।अन्य भी दिव्य कार्यक्रम है, उसकी सूचना भी और कल की भी सूचनाएं भी पदमाली प्रभु आपको देंगे। कल गौर पूर्णिमा महोत्सव है। गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! कल प्रातः काल में ही एकलव्य प्रभु का सन्यास दीक्षा समारोह भी है। आप सादर आमंत्रित हो, एकलव्य भी आप को आमंत्रण दे सकते हैं। वैसे उन्होंने कुछ दिन पहले दिया था। हम प्रतिदिन गौर कथा कर ही रहे हैं और ना जाने कितनें दिनों से हम गौर कथा करते आ रहे हैं। गौर पूर्णिमा तो आ गई लेकिन कथा का अंत तो नहीं हो रहा है और ना ही होने वाला है। कथा कभी समाप्त होती है? इतनी सारी कथाएं हैं, इतनी सारी लीलाएं हैं अथवा गौरांग महाप्रभु इतने सारे गुणों की खान हैं व उनके इतने असंख्य परिकर हैं, उनकी कथाएं भी गौर कथाएं ही है। अनंत शेष जैसे श्रीकृष्ण दास कविराज गोस्वामी समय समय पर चैतन्य चरितामृत में लिखते ही रहते हैं, इतना तो मैंने लिखा है, इतना ही मैं लिख सकता हूं, इतनी ही मेरी क्षमता है। हर एक पक्षी की कोई सीमा होती है, जैसे एक प्रकार के पक्षी इतनी ऊंचाई तक ही उड़ान भर सकता है। चिड़िया इतनी उड़ान भर सकती है और गरुड़ इतनी ऊंचाई पर उड़ सकते हैं। इसी तरह से कृष्णदास कविराज गोस्वामी कह रहे हैं कि मैं इतना ही कह सकता हूं, मैं इतना ही लिख सकता हूं, किंतु यह कथाएं, लीलाएं अनंत शेष ही कह सकते हैं। अनंत जिनका खुद का भी अंत नहीं है। वे सहस्त्र वदन भी कहलाते हैं शायद वे इसीलिए कहलाते हैं क्योंकि उनके सहस्त्र वदन हैं। सहस्त्र अर्थात हजार और वदन मतलब मुख वाले, सहस्त्र वदन अर्थात हजार मुख वाले। वे भगवान होते हुए अथवा संकर्षण का ही विस्तार होते हुए भगवान के गुण गाते हैं। उन्होंने हजार मुखों से यह गुण गाथा गाई है। गौरांगेर दु’टि पद, याँर धन सम्पद, से जाने भकतिरस-सार। गौरांगेर मधुर लीला, याँ’र कर्णे प्रवेशिला, हृदय निर्मल भेल ता’र॥1॥ जे गौरांगेर नाम लय, तार हय प्रेमोदय, तारे मुइ याइ बलिहारि। गौरांग-गुणेते झुरे, नित्यलीला ता’रे स्फुरे, से-जन भकति अधिकारी॥2॥ गौरांगेर संगिगणे, नित्यसिद्ध करि’ माने, से याय ब्रजेन्द्रसुत पाश। श्रीगौड़मण्डल-भूमि, येबा जाने चिन्तामणि, ता’र हय ब्रजभूमे वास॥3॥ गौरप्रेम रसार्णवे, से तरंगे येबा डुबे, से राधामाधव-अन्तरङ्ग। गृहे वा वनेते थाके, ‘हा गौराङ्ग!’ ब’ले डाके, नरोत्तम मागे ता’र सङ्ग॥4॥ अर्थ (1) श्रीगौरांगदेव के श्रीचरणयुगल ही जिसका धन एवं संपत्ति हैं, वे ही वयक्ति भक्तिरस के सार को जान सकते हैं। जिनके कानों में गौरांगदेव की मधुर लीलायें प्रवेश करती हैं, उनका हृदय निर्मल हो जाता है। (2) जो गौरांगदेव का नाम लेता है, उनके हृदय में भगवत्प्रेम उदित हो जाता है। मैं ऐसे भक्त पर बलिहारी हो जाता हूँ जो गौरांग के गुणों में रमण करता हो, उसके अंदर ही श्रीश्री राधा-कृष्ण की नित्य-लीलाएँ स्फुरित होती रहती हैं, वे ही भक्ति के अधिकारी हैं। (3) श्रीगौरचन्द्र के संगियों को नित्यसिद्ध माननेवाला वयक्ति व्रजेन्द्र-सुत श्रीकृष्ण के पास उनके परमधाम को जाता है तथा श्रीगौड़मण्डल की भूमि को जो चिंतामणि के सदृश (अप्राकृत) मानता है, वह व्रजभूमि में वास करता है। (4) जो गौरसुन्दर के प्रेमरस की तरंगों में डूब जाता है, वह श्रीराधामाधव का अंतरंग पार्षद बन जाता है। अतः वह गृहस्थ आश्रमी हो या त्यागी, यदि वह गौरसुन्दर के प्रेमरस सागर में डूबकर “हा गौराङ्ग! हा गौराङ्ग!” कहकर पुकारता है, तो नरोत्तमदास ठाकुर उसके संग की कामना करते हैं। गौरांग महाप्रभु की लीला कैसी है? मधुर लीला है। याँ’र कर्णे प्रवेशिला। यह अनंत शेष भी गौर लीला सुनाते हैं। उनके एक हजार मुखों के पास एक बहुत बड़ी संख्या में श्रोता बैठे हैं। वे हर मुख से वैसे अलग-अलग लीला कथा सुना रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हजार मुखों से एक ही कथा हो रही है, नहीं! जब भागवत कथा के समय या 24 घंटे कीर्तन के समय जैसे मानो बंगाल में कीर्तन होता है, तब उस समय होर्न्स, ट्रंपटस या दस, बीस, पचास स्पीकर आदि लगाते हैं, उसको दो चार मील तक दूर पहुंचा देते हैं लेकिन सभी स्पीकरों से एक ही आवाज आती है, एक ही कथा अथवा एक ही कीर्तन सुनाई देता है। वैसी वाली बात नहीं है लेकिन सहस्त्रवदन जब कथा करते हैं तब वे हजार मुखों से हजार प्रकार की कथा सुना रहे हैं। सृष्टि जब से प्रारंभ हुई है तब से कथा प्रारंभ हुई है और कथा हो ही रही है। हरि! हरि! यह समझ लो कि गौर कथा करने वाला मैं अकेला थोड़ा ही हूं, गौर पूर्णिमा का समय आ चुका है। गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! अब गौरांग महाप्रभु की कथा सर्वत्र हो रही है। मैं तो सिर्फ एक कथाकार कहो या एक वक्ता हूँ लेकिन इस्कॉन अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ में कई सारे भक्त कथा कर रहे हैं। कुछ तो सप्ताह भर के लिए कथा करेंगे, इंटरनेट पर कथाएं हो रही हैं। जहां कथा, वहां कथा, कथा ही कथा। हर भक्त अलग-अलग कथा सुना रहा है। कोई आदि लीला की कथा, कोई मध्य लीला की कथा, कोई अन्त्य लीला की कथा सुना रहा है। कोई कथाकार चैतन्य चरितामृत से कथा कर रहे हैं। कोई कथाकार चैतन्य भागवत से कथा सुना रहे हैं, कोई चैतन्य मंगल से कथा करते होंगे लेकिन यह कथा करते-करते समाप्त होने वाली नहीं है। जैसे कथा करते हैं, कथाकार के मन में भी कई सारे भाव उठते हैं, प्रकाशित होते हैं। जैसा कि महाप्रभु ने कहा है चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥ ( शिक्षाष्टकम्) अनुवाद:-श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। आनन्दाम्बुधिवर्धनं का वर्णन होता है। कितना आनंद ? यह तो आनंद का सागर हो गया लेकिन वह तो बहुत हो गया। आनन्दाम्बुधि मतलब आनंद का सागर है। यह आनंद का समुंद्र है लेकिन यह आनंद से भरा हुआ कुआं या तालाब या सरोवर नहीं है। यह आनंद का सागर है। इस कृष्णभावनामृत का जीवन में जब हम हरि कथा, गौर कथा या हरि कीर्तन करते हैं तब हम उस आनंद के सागर में गोते लगाते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा आनन्दाम्बुधिवर्धनं यह जो आनंद का सागर है, यह वैसा सागर नहीं है जैसे पृथ्वी पर होते हैं। उसकी एक सीमा होती है कि यहां से आगे नहीं बढ़ सकते। उन सागरों को एक आदेश होता है। मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। ( श्रीमद् भगवदगीता ९.१०) अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है। हर सागर की एक अपनी सीमा है। उस सीमा का एक बंधन है, लेकिन यह आनन्दाम्बुधि कैसा है? यह आनन्दम्बुधिवर्धनम अर्थात आनंद ही आनंद है। यह प्रेम का सागर है अवतीर्णे गौरचंद्रे विस्तीर्णे प्रेम सागरे। सुप्रकाशित- रत्नौघे यो दीनो दीन एव सः।। अर्थ- श्री चैतन्य महाप्रभु का अवतरण अमृत के विस्तीर्ण सागर के समान है। जो व्यक्ति इस सागर के भीतर से बहुमूल्य रत्न नहीं बीनता, वह निश्चय ही दरिद्रों में अति दरिद्र है।" आप ने पहले सुना ही होगा, अवतीर्णे गौरचंद्रे- गौरचंद्र उदित हुए, प्रकाशित हुए अथवा अवतीर्ण हुए। तत्पश्चात उन्होंने प्रेम सागर का विस्तार किया। हम इन पृथ्वी के सागरों के नाम जानते सुनते हैं, यह पैसिफिक महासागर है, यह अटलांटिक महासागर है, यह हिन्द महासागर, यह बंगाल की खाड़ी है, उनका तो सीमा है लेकिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जिस सागर को ले आए, उसकी कोई सीमा नहीं है। इसलिए अंग्रेजी में लिखा है shoreless ocean, ( शोरलेस ओशन) शोर का अर्थ तट अथवा सीमा होता है अर्थात सुमंदर का किनारा लेकिन यह जो कृष्णभावना का आनन्द का सागर है, इसका कोई तट नही है अर्थात कोई सीमा नहीं है। आनन्दाम्बुधिवर्धनं । हरि! हरि! वैसे कथा करना और कथा सुनना ही जीवन है और क्या करना है? और कुछ करने को नहीं हैं। भगवदधाम और वृन्दावन में क्या करते हैं? गोपियां, नंद बाबा, यशोदा अथवा कृष्ण के मित्र मंडल है, वे क्या करते हैं, वे बस कृष्ण के संबंध में बोलते रहते हैं। मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १०.९) अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। मच्चित्ता उनका चित मुझ में लगा होता है।मद्गतप्राणा उनके प्राण मुझ में समर्पित होते है। ऐसे अपने भक्त को परिचय देते हुए कृष्ण अर्जुन को सुना रहे हैं कि यह मेरे भक्त की पहचान है। मच्चित्ता उसकी चेतना, भावना मेरे चरणों में लगी रहती है। चित्ता यही चेतना है। यही अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ है। यह भावनामृत भी है। ऐसी कथाएं या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कथाएं लिखी। मुरारी गुप्त, मायापुर में रघुनाथ दास स्वरूपे रघु, रघुनाथ दास गोस्वामी दिन में लीला को देखा करते थे। फिर हो सकता है कि मध्यान्ह या सायंकाल के समय लीला को लिखते होंगे। उसी के आधार पर चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत आदि ग्रंथों की रचना हुई है। हरि हरि। श्रील वृंदावन दास ठाकुर ने चैतन्य भागवत की रचना की। चैतन्य भागवत के लेखक स्वयं श्रील व्यासदेव ही थे। वे श्रीमद्भागवत के तो थे ही और साथ ही चैतन्य भागवत के कथाकार भी श्रील व्यासदेव थे। व्यास मतलब विस्तार अर्थात विस्तार करने वाले। इन सभी लेखकों में केवल वृंदावन दास ठाकुर ही नहीं हैं। कृष्णदास कविराज गोस्वामी भी हैं, इन्होनें यह कथाएं, लीलाएँ लिखकर कथाओं का विस्तार किया है। कथाकार कथा सुनाते हैं और विस्तार करते हैं। यह कथा तो बंगला भाषा में ही थी अर्थात थोड़ी सीमित ही थी। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा- अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। तब श्रील प्रभुपाद ने सोचा- मुझे अंग्रेजी भाषा में प्रचार करना है, तो मुझे ग्रंथ अंग्रेजी भाषा में लिखने भी होंगे और बोलने भी होंगे। श्रील प्रभुपाद ने अंग्रेजी भाषा में ग्रंथ लिखे। गीता, भागवत पर भाष्य लिखा। चैतन्य चरितामृत का अनुवाद किया। श्रील प्रभुपाद व्यास हो गए अथवा व्यास के प्रतिनिधि हुए। यह लीला कथा बंगला भाषा में थी, यह सीमित थी। प्रभुपाद ने उस भाषा और उस लीला कथा का विस्तार किया। अंग्रेजी में उपलब्ध करवाया। जब अंग्रेजी में यह कथा हो रही थी, तब इसका विस्तार हुआ। उस समय प्रभुपाद ने अपने शिष्यों से लॉस एंजिलिस में कहा व्यास आसन पर बैठते ही कहा जितनी भी भाषा में सम्भव हो सके, मेरी ग्रंथों को छापों। मैंने अंग्रेजी भाषा में जितने भी ग्रंथ लिखे हैं जिसमें चैतन्य चरितामृत भी है, लिखने में कुछ समय लगा होगा (यह भी चैतन्य चरितामृत के सम्बंध में भी कुछ कथा हो सकती है।) जब संकलन तथा अनुवाद हुआ, चैतन्य चरितामृत का जब संकलन व अनुवाद हुआ तब प्रभुपाद ने अपने लॉस एंजेलिस में बीबीटी स्टाफ शिष्यों से कहा अब इस चैतन्य चरितामृत को प्रिंट(छापों) करो। शिष्यों ने पूछा -श्रील प्रभुपाद, हमारे पास कितना समय है? श्रील प्रभुपाद ने कहा - केवल दो महीने। दो माह में चैतन्य चरितामृत के सत्रह वॉल्यूम अर्थात एक दर्जन से अधिक,15 या 16 या 17 इतने मोटे-मोटे ग्रंथ, आपने देखे ही होंगे, इसका प्रकाशन हुआ जो कि एक चमत्कार जैसा है। चैतन्य चरितामृत का लेआउट, डिजाइन, उसकी पेंटिंग, प्रिंटिंग, पैकेजिंग को भक्तों ने दो महीने के अंदर अंदर करके दिखाया। चैतन्य चरितामृत की जय! श्रील प्रभुपाद की भी जय और उन भक्तों की भी जय जिन्होंने केवल उन दो महीनों में इसे किया और यह अद्भुत घटना घटी। आपको इस बात को नोट करना चाहिए। प्रभुपाद के आदेशानुसार यह चैतन्य चरितामृत अब कई भाषाओं में उपलब्ध है। इसी के साथ ही यह व्यास जैसा कार्य हो रहा है ।चैतन्य चरितामृत का विस्तार हो रहा है। बांग्ला से अंग्रेजी और अब चाइनीस भाषा में भी अनुवाद हो रहा है , हिब्रो भाषा, अरेबिक, स्वाहिली में भी अनुवाद हो रहा है। जर्मन जपानी तो बड़ी कॉमन लैंग्वेज है। अब इन सभी भाषाओं में चैतन्य चरितामृत इस संसार के लोग पढ़ सकते हैं। अब आप कथा अपनी अपनी भाषा में पढ़ो और गौर कथा करो जैसे कि अभी हो रही है, इसी के साथ यह आनन्दम्बुधिवर्धनं भी हो रहा है। विस्तीर्णे प्रेम सागरे गौरचंद्रे गौरांग महाप्रभु अब कल प्रकट होने वाले हैं या 535 वर्ष पूर्व प्रकट हुए। वैसे जो लीलाएं वे अपने निजधाम में सब समय खेलते व करते रहते हैं, उन्हीं लीलाओं का प्रदर्शन किया। वह धाम फिर गोलोकधाम भी है उसी का विस्तार या एक्सटेंशन यहां पर है। इस ब्रह्मांड में भी गौरांग महाप्रभु का नवद्वीप धाम है वहां भी नित्य लीला संपन्न होती है लेकिन नित्य लीला तो अप्रकट होती है। इस नवद्वीप या वृंदावन में तो आपको बताना पड़ता है कि यूपी में वृंदावन है, बंगाल में मायापुर है, इसके बिना आपको समझ में नहीं आता है लेकिन जब हम ऐसा कहते हैं तब हम धाम अपराध भी करते हैं। नवद्वीप बंगाल में है, यह कहना अपराध हुआ। यह बहुत बड़ी भारी भूल हो गई या वृंदावन यूपी में है, नहीं! नहीं! यह गलत है लेकिन ऐसा बिना कहे आपको समझ में नहीं आता। आप के पल्ले नहीं पड़ता, क्या करें इसलिए ऐसा बताना पड़ता है कि यूपी में वृंदावन है। वैसे इस ब्रह्मांड में वृंदावन, मायापुर, नवद्वीप, जगन्नाथ पुरी और द्वारका है, यहां पर भी भगवान की नित्य लीला होती है। आद्यापिह सेइ लीला करे गौरा राया कोन कोन भाग्यवान देखेबारे पाय। ( श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा नवद्वीप महात्मय) अर्थ:- भगवान् गौरांग इस दिन तक अपने अतीत का निर्वाह कर रहे हैं। केवल कुछ भाग्यशाली आत्माएं, उन्हें निहारने में सक्षम है। आद्यापिह अर्थात आज भी यहां आद्यापिह सेइ लीला करे गौरा राया, आज भी गौरांग यहां नित्यलीला कर रहे हैं, कोई कोई भाग्यवान उस नित्य लीला का दर्शन कर सकता है। चार सम्प्रदायों के जो आचार्य हुए हैं, वे अपने अपने समय में यात्रा पर गए थे, वे भी नवद्वीप गए थे। गौरांग महाप्रभु ने रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क, विष्णुस्वामी सभी को दर्शन दिया। रामानुजाचार्य लगभग एक हजार वर्ष पूर्व हुए तब आप कहोगे कि चैतन्य महाप्रभु तो 535 वर्ष पहले हुए और आप कह रहे हो रामानुजाचार्य 1000 वर्ष पूर्व नवद्वीप में गए, उनको फिर कैसे दर्शन हुए, यह कैसी बात है? यह नित्य लीला की बात है। नवद्वीप व वृन्दावन में नित्यलीला, इस नित्य लीला को अप्रकट लीला कहते हैं। यह अप्रकट लीला परदे के पीछे हो ही रही है उसको फिर भगवान प्रकट कर देते हैं। नित्य लीला को अप्रकट लीला कहा है फिर प्रकट लीला, जब गौर पूर्णिमा पर अभिर्भाव हुआ तब अप्रकट की प्रकट लीला सम्पन्न हुई। हरि! हरि! नित्य लीला को प्रासंगिक लीला भी कहते हैं। भगवान वहां संपन्न होने वाली लीला का दर्शन अथवा प्रकाशित कर आते हैं। हम यह सब लीला कह रहे हैं तो विस्तार हो गया ना। पहले तो बंगाल, उड़ीसा के लोग ही चैतन्य महाप्रभु को जानते थे, हमने तो गौर पूर्णिमा नाम भी नहीं सुना था। क्या सोलापुर की रामलीला ने सुना था? होली पूर्णिमा, होली, धुलंडी, क्या क्या नाम होते हैं शिंगा और इस होली पूर्णिमा के भी कई सारे नाम हैं लेकिन अब सारे संसार में होली को तो कोई याद भी नहीं करता होगा लेकिन गौर पूर्णिमा को सब याद करते हैं। गौरांग महाप्रभु की पूर्णिमा। जैसे कृष्णाष्टमी या रामनवमी, नरसिंह चतुर्दशी, नवमी किसकी? राम की नवमी, अष्टमी किसकी? कृष्ण की अष्टमी, चतुर्दशी किसकी, नरसिंह चतुर्दशी, पूर्णिमा कौन सी? गौर पूर्णिमा। गौरांग महाप्रभु की पूर्णिमा। इस पूर्णिमा के दिन भगवान प्रकट हुए थे। बंगाल व उड़ीसा के लोग जानते थे, उन्होंने थोड़ा-थोड़ा पढ़ा था लेकिन श्रील प्रभुपाद की जय, श्रील प्रभुपाद की व्यवस्था से या कहा जाए, यह सब परंपरा में कार्य होते ही रहते हैं। एक आचार्य यहां तक कार्य को पहुंचा देते हैं, तत्पश्चात अगले आचार्य उसको और आगे बढ़ाते हैं, तत्पश्चात उसके बाद वाले आचार्य उस परंपरा को और आगे बढ़ाते हैं व उसे अन्य स्थानों पर पहुंचाते हैं। चैतन्य महाप्रभु के समय से या उनके पहले से ही जैसे माधवेंद्र पुरी से शुरुआत हो गयी थी। तत्पश्चात श्री ईश्वर पुरी से चैतन्य महाप्रभु तत्पश्चात ईश्वर पुरी से चैतन्य महाप्रभु तत्पश्चात षड् गोस्वामी वृंद हुए, तत्पश्चात आचार्य त्रयः आ गए, उसके बाद गौड़ीय वैष्णव वेदान्त आचार्य बलदेव विद्याभूषण हुए, भक्ति विनोद ठाकुर हुए। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की जय। भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की जय। भक्ति वेदांत श्रील प्रभुपाद की जय, उन्होंने सारे संसार भर में ढिंढोरा पीटा। सारे संसार भर में जो गौर पूर्णिमा संपन्न हो रही है, उसका श्रेय श्रील प्रभुपाद को ही जाता है या साथ में श्रील प्रभुपाद की ओर से और अधिक अधिक देशों, नगरों, गांव में इस हरि नाम को फैलाया व पहुंचाया पृथिवीते आछे यत् नगरादि ग्राम। सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।। अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा। इस भविष्यवाणी को सच करके दिखाने वाले हमारे सारे परंपरा के आचार्य श्रील प्रभुपाद और फिर उनके अनुयायी उनके शिष्य और उनके ग्रैंड शिष्य आप सब को इस हरि नाम का विस्तार अथवा हरि नाम का फैलाने का भी श्रेय जाता है। इसी के साथ आनन्दाम्बुधिवर्धनं आनंद के सागर को वर्धित करना, जिसका विस्तार व्यास भी करते हैं, ऐसा कार्य भी हुआ है और हो रहा है। इन सब के पीछे गौरांग महाप्रभु का हाथ है। बाकी हम सब या आचार्य भी कहा जाए एक कठपुतलियां ही हैं। कठपुतली वाला कौन हैं? ऊपर वाला अर्थात सबका मालिक एक है। क्या आप मालिक या मालिकन हो। ऐसे बुद्धू या अनाड़ी नहीं बनना। मालिक एक है। भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ( श्रीमद् भगवतगीता५.२९) अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है। जब आप इन बातों को समझोगे, तब आपका चित शांत होगा। ऊपर वाला मालिक है। एकले ईश्वर कृष्ण, आर् सब भृत्य। य़ारे यै़छे नाचाय, से तैछे करे नृत्य।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ५.१४२) अनुवाद:- एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम् नियंता हैं और बाकी सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं। वह हमारे मालिक भी हैं और सुहृदं भी हैं। सुहृदं सर्वभूतानां। इन बातों को जानकर श्रील प्रभुपाद भगवान् कृष्ण के इस वचन को शांति सूत्र भी कहते थे। भगवान भोक्ता हैं। (दिन में आप भगवत गीता को खोल कर देख सकते हो, उसे और अच्छे से समझ सकते हो उसका तात्पर्य पढ़ सकते हो) ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति.. प्रभुपाद ने इसे शांति सूत्र कहा है। (यदि आप में से कोई शांति चाहता है? क्या किसी को शांति में कोई रुचि है? वेणी माधव शांत होना चाहते हैं, बेंगलुरु में तो शांति की मांग है, थाईलैंड में है।) हरि! हरि! गौरांग! यह सब कहते कहते वैसे आपको गौर कथा तो नहीं सुनाई, गौर कथा से संबंधित कुछ बातें तो सुनाई। आप उसी को गौर कथा भी मान सकते हैं। अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः। निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते।। प्रापञि्चकतया बुद्धया हरिसम्बन्धवस्तुनः। मुमक्षुभिः परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते।। ( भक्तिरसामृत सिंधु १.२.२५५- २५६) अनुवाद:- जो व्यक्ति भौतिक आसक्ति रहित है, उसका, कृष्ण की सेवा में, भौतिक इन्द्रिय विषयों को लगाने का जो प्रयन्त अथवा आग्रह है, वह युक्त वैराग्य कहलाता है( उन विषयों को योग्यतानुसार)। दूसरी ओर जो व्यक्ति मोक्ष की इच्छा रखता है, परंतु यदि वह भगवान् हरि से सम्बंधित वस्तुओं को भौतिक समझकर, अर्थात उनमें भौतिकता का भाव रखकर, उनका परित्याग करता है, ऐसा परित्याग फल्गु वैराग्य कहा जाता है। जिन बातों का हरि के साथ संबंध है, उसका परित्याग करना यह फालतू बात है। हमने जो यह बातें कहीं- इन सब का हरि कथा या गौर कथा के साथ घनिष्ठ संबंध है। इसलिए प्रत्यक्ष कथा तो नहीं हुई लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह गौर कथा ही है। आप तैयारी करो और भी कथा 8:00 बजे से होने वाली है। इंदौर के भक्तों ने मुझे आमंत्रित किया हैं। उज्जैन में प्रतिदिन गौर कथा हो रही है, उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया है। हम उज्जैन के भक्तों के लिए यहीं पर ऑनलाइन पंढरपुर में बैठकर उज्जैन के भक्तों को कथा सुनाने वाले हैं। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की है और वे भी नहीं चाहते कि सिर्फ उज्जैन के भक्त ही उस कथा को सुनें अपितु सारा संसार ही सुन सकता है। यह ऑनलाइन है। जब ऑनलाइन कथा होती है तब तो आनन्दाम्बुधिवर्धनं होता है अर्थात आनन्द का विस्तार होता है। कथा कितने स्थानों पर पहुंच जाती है, इस टेक्नोलॉजी( तकनीक) की भी जय हो, जिसके जरिए इंटरनेट सोशल मीडिया को हम कैसा मीडिया बना रहे हैं? सोशल मीडिया को हम आध्यात्मिक मीडिया बनाते हैं। यह सोशल मीडिया नो मोर सोशल, सोशलाइजिंग अब स्पिरिचुअल मीडिया है। मीडिया, मीडियम शब्द का बहुवचन है। मीडियम मतलब माध्यम अर्थात साधन। मीडियम का बहुवचन है मीडिया या कई सारे साधन या प्लेटफार्म। इस मीडिया का भी हरे कृष्ण भक्त उपयोग करते हुए इसे कृष्णाइज़्ड और गोरिज़्ड कर रहे हैं। हम इसको माया नहीं कह सकते। ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या। नहीं, इसको पकड़कर इस माया का उपयोग भगवान की सेवा में कर रहे हैं। 8:00 बजे भी गौर कथा है और सभी के लिए है और आप सभी सुन लीजिएगा, आप सब का स्वागत है। फिर कल का क्या कहना, कुछ खुशियों का ठिकाना ही नहीं रहेगा। गौरांग महाप्रभु प्रकट होंगे। हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की! कन्हैयालाल ही महाप्रभु के रूप में प्रकट होने वाले हैं। नंद के घर आनंद भयो। नंद महाराज जी प्रकट होने वाले हैं जगन्नाथ मिश्र के रूप में । वह आनंद नंद के घर था, अब यह आनंद जगन्नाथ मिश्र के घर है। आनंद प्रकट होने वाला है इस आनंद से वंचित नहीं रहना, आनंद की वांछा रखिए, यह दोनों अलग-अलग शब्द हैं। वांछा मतलब इच्छा रखना। एक वंचित होना और एक वांछित होना। वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च । पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।। वांछा मतलब इच्छा और वंचित मतलब किसी चीज का अभाव होना। जैसे प्रोबधानंद सरस्वती ठाकुर कहते हैं, वंचितोस्मि संशय: मैं वंचित हो गया, मुझे ठगाया गया। आप कल का उत्सव ना मना कर, वंचित नहीं होना, ठग नहीं जाना । यदि श्रवण कीर्तन नहीं सुनोगे, गौर पूर्णिमा उत्सव नहीं बनाओगे तो ठगे जाओगे, वंचित रह जाओगे। तो क्या करो। वांछा रखो, इच्छा रखो, तीव्र इच्छा रखो। अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः। तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरषं परम्।। ( श्रीमद् भागवतम् २.३.१०) अनुवाद:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे समस्त भौतिक इच्छाओं से युक्त हो या निष्काम हो अथवा मुक्ति का इच्छुक हो, उसे चाहिए कि वह सभी प्रकार से परम् पूर्ण भगवान की पूजा करे। ठीक है, इतना ही पर्याप्त है। इसको डाइजेस्ट करो। उल्टी नहीं करना, इसको डाइजेस्ट करो। इसको हज़म करो। वह कैसे करते हैं? .(कौन से शब्द हैं? कौन सी क्रिया है?) मनन करो, चिंतन करो। मनन से चिंतन करो। जो हमनें सुना है, हम उसको मन में बिठा लेते हैं या हम उसको सही स्थान पर स्टोर करते हैं। ऐसे ढीले नहीं रखना। जो सुना है, उसको व्ववस्थित रूप से अपने दिमाग की जो चिप है, जिसे प्रभुपाद ब्रेन टिश्यू कहते हैं, उसमें हम भर सकते हैं। यहां यह रखो, यहां पर यह रखो, यह जो सुना है उसको फिर अपने अपने स्थान पर उसको व्यवस्थित रख सकते हैं या जब उसकी आवश्यकता है झट से फाइल मिल सकती है। यदि ऐसा ही ढेर में पड़ी है फिर कठिन होगा ढूंढना या प्राप्त करना ,यही बात है जब मनन व चिंतन करते हैं, हम उसको दूसरे शब्दों में स्मरण ही करते हैं। श्रवणं कीर्तनं विष्णुं स्मरणम स्मरण करते हैं। ठीक है। हरे कृष्ण!

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