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जप चर्चा पंढरपुर धाम दिनांक 29 अप्रैल 2021 हरे कृष्ण ! आज इस जप चर्चा में 821 स्थानों से भक्त जब कर रहे हैं । यहां पर मायापुर से भक्त भी जप कर रहे हैं और मायापुर के वृक्ष भी पीछे दिख रहे हैं , बीड भी है ,नागपुर भी है, सूरत भी है , यूक्रेन भी है, और ऐसे सभी जगह से ।विराट रूप ही है कहो ,'विराट दर्शन है' । पूरा विश्व एक ही जगह पर ऐसी सुविधा इंटरनेट करता है या सोशल मीडिया करता है ,थाईलैंड से भी इकट्ठे हो जाते हैं । हरि हरि !! तो आप सभी का स्वागत है । और सभी भक्तों का भी । 'सु स्वागतम कृष्ण' या राम , हम रथ यात्रा के समय में भी सुस्वागतम जगन्नाथ...सुस्वागतम जगन्नाथ...ऐसा गाते रहते हैं,वैसे भक्तों का का भी स्वागत हम कर सकते ही नहीं ! करना चाहिए । हरि हरि !! ऐसा स्वागत भगवान भी किए, जब नारद मुनि आते हैं उनका भी स्वागत करते हैं या सुदामा आता है तो भी स्वागत करते हैं । हरि हरि !! सुदामा गरीब बिचारे, द्वार रखवाले उनको आने देने नहीं आ रहे थे अंदर किंतु कृष्ण ने देखा 'सुदामा' को, कृष्ण उस समय बैठे हुए थे ,रुक्मणी के साथ एक विशेष मूल्यवान आसन के ऊपर भगवान रुक्मणी को वही छोड़े और आसन भी वही छोड़े और दौड़ पड़े सुदामा के स्वागत के लिए । हरि हरि !! भगवान स्वागत करते हैं भक्तों का । हरि हरि !! नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च । जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ अनुवाद :- "हे प्रभु! आप गायों तथा ब्राह्मणों के हितेषी हैं और आप समस्त मानव समाज तथा विश्व के हितेषी हैं " । प्रिय भक्त ब्राह्मण हैं जिसे सुदामा थे या जैसे गायों के भो हितेषी हैं , सभी के हितेषी हैं । सभी भगवान के ही हैं । भगवान सभी का स्वागत करते रहते हैं, हरि हरि !! जिनका स्वागत , सम्मान, सत्कार भगवान भी करते हैं । श्रीभगवानुवाच अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥६३ ॥ अनुवाद:- भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ । निस्सन्देह , मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ । चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ । मुझे मेरे भक्त ही नहीं , मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं । ( श्रीमद् भागवतम् 9.4.63 ) वह भक्तों के पराधीन भी कहते हैं । मैं उनके अधीन हूं ! आप किन के अधीन हो ? मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || १० || अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है | ( श्रीमद् भगवद गीता 9.10) आप जब कहने वाले! सारे चर अचर का संचालन आप करते हो ऐसा आपने कहा , सब कुछ मेरे अध्यक्ष में होता है । वही वही श्री कृष्ण भागवत् में कहते हैं ...'अहं भक्तपराधीनो' , मैं भक्तों के अधीन हूं । तो यह है भगवान भक्तों से जो प्रेम है । 'कृष्णा आपसे प्रेम करते हैं' । हरि हरि !! कृष्णा हम से प्रेम नहीं करेंगे तो और कौन करेगा ! क्यों हमें कृष्ण प्रेम करते हैं ? कृष्ण हम सभी के लिए... सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः | तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता || ४ || अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ | ( श्रीमद् भगवद गीता 14.4 ) पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः | वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च || १७ || अनुवाद:- मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ | मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ | मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ | ( श्रीमद् भगवद गीता 9.17 ) मैं सभी का बीज हूं, मैं ही स्रोत हूं, त्वमेव माता त्वमेव पिता , परमपिता जो है तो वह कैसे माता-पिता जो अपने आपत्य से प्रेम ना करें ! तो कृष्ण खूब प्रेम करते हैं सभी जीवो से प्रेम करते हैं । हरि हरि !! परजीवी पति के प्रेम है । भगवान का कोई भी अपवाद नहीं है । हरि हरि !! ऐसे जीव जो संसार भर में बिखरे हुए हैं उन चीजों को हमें पहचानना चाहिए । उनसे हमें भी प्रेम करना चाहिए । वह हमारे ही हैं और फिर हम पिता कृष्ण है माता कृष्ण है । तो सारे जीव मिलकर एक परिवार हुआ । तो अच्छा दृष्टिकोण दूरदृष्टि कहो या उच्च विचार कहो यह हमारे तुम्हारे की बात नहीं है , यह संस्कृति है ,भारतीय संस्कृति सभी के लिए हैं जिस संस्कृति में ,संस्कृत भाषा में और संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है । संस्कृत भाषा में कहते हैं ... अयं बन्धुरयंनेति गणना लघुचेतसाम् उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ अनुवाद:- यह अपना बंधु है और यह अपना बंधु नहीं है इस तरह की गणना छोटे चित वाले लोग करते हैं । उदार हृदय वाले लोगों की तो (संपूर्ण) धरती ही परिवार है । ( महोपनिषद 4.71 ) इस पृथ्वी पर जितने लोग हैं वह सभी मेरे बंधु है ऐसा नहीं है फिर वह जहां भी है पृथ्वी पर हो या चंद्रमा में भी हो या पूरे ब्रह्मांड में है और फिर अनंत कोटि ब्रह्मांड भी है और सारे ब्रह्मांड भरे पड़े हैं जीबों से और वैज्ञानिक लोग भी अभी उनके दिमाग में कुछ प्रकाश पढ़ रहा है कि, वह भी स्वीकार कर रहे हैं कि बहुत सारे ब्रह्मांड है । लेकिन एक ब्रह्मांड का पूरा पता नहीं किंतु उनको ऐसा आभास हो रहा है कहो और भी ब्रह्मांड होनी चाहिए । हम गीता भागवत पढ़ेंगे तो ... एकोऽप्यसो रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः । अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुष तमहं भजामि ॥३५ ॥ अनुवाद:- शक्ति और शक्तिमान दोनों अभिन्न ( भेदरहित ) एक ही तत्त्व हैं । करोड़ों - करोड़ों ब्रह्माण्डकी रचना जिस शक्तिसे होती है , वह शक्ति भगवान्में अपृथकरूपसे अवस्थित है सारे ब्रह्माण्ड भगवान्में अवस्थित हैं तथा भगवान् भी अचिन्त्य - शक्तिके प्रभावसे एक ही साथ समस्त ब्रह्माण्डगत सारे परमाणुओंमें पूर्णरूपसे अवस्थित हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ । ( श्रिब्रह्म संहिता 5.35 ) यह कहां कहां हूँ ? कृष्ण कहते हैं , अण्डान्तरस्थ :- ब्रह्मांड और अणु में हूं । पूरे ब्रह्मांड में मैं हूं । एक समय हमारे ब्रह्मांड के ब्रह्मा को भी पता नहीं था कि और भी ब्रह्मांड है क्या ? तो हमारे ब्रह्मा और देवता भी जब कृष्ण द्वारका में, द्वारिका वासी बने थे उनके दर्शन के लिए कुछ या सलाह के लिए पहुंच जाते हैं देवता । तो ब्रह्मा एक समय आए ,तो उनके चौकीदार कहे रुक जाइए यहां क्यों आए हैं ? द्वारिकाधीश से मिलना है । तो पहले पूछ कर आते हैं । हम तो यह लीला कथा प्रारंभ होती है । हम तो कुछ सिद्धांत के बात कर रहे हैं किंतु यह फिर सिद्धांत लीला कथा भी मदद करती है सिद्धांत को समझने के लिए । तो चौकीदार गए पूछने के लिए द्वारिकाधीश कृष्ण से पूछें ब्रह्मा आपसे मिलने के लिए आए हैं । और भगवान कहे कौनसे ब्रह्मा ? तो पूछके आओ । तो चौकीदार द्वार के गेट पर पहुंचे और कहां, हां हां !! मिल तो सकते हैं लेकिन पहले भगवान जानना चाहते हैं आप कौन से ब्रह्मा हो ? तो ब्रह्मा का दिमाग चकरा गया क्या प्रश्न है ? कौन सा ब्रह्मांड का ब्रह्मा ? कई सारे ब्रह्मांड होते हैं क्या ? तो ठीक है बता दो मैं चतुर्मुखी ब्रह्मा या चतुस कुमारो के पिता श्री ब्रह्मा आए हैं । तो वह आए जब , तो ब्रह्मा को स्वागत किए । सुस्वागतम , ऊप बसतुः, बैठिए और उनको आसन वगैरा दिए । तो ब्रह्मा ने... अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ॥ १ ॥ अनुवाद:- इस सूत्र में ब्रह्मविपयक विचार आरंभ करने की बात कह कर यह सूचित किया गया है कि ब्रह्म कौन है ? उसका स्वरूप क्या है ? वेदांत में उसका वर्णन किस प्रकार है ? (वेदांत दर्शन 1.1.1) जिज्ञासा की । एक ब्रह्मा है , एक ब्रह्म है इसमें भ्रांत नहीं होना चाहिए । ब्रह्मा एक व्यक्ति है और ब्रह्म तो .. वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥११ ॥ अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को बहा , परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं ( श्रीमद् भागवतम् 1.2.11 ) और फिर ब्राह्मण भी है । जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते | वेदाभ्यास भवति विप्र ब्रह्मम जानति ब्राह्मणः || अनुवाद:- जन्म से सब शुद्र होते हैं | जो वास्तव में सही संस्कार अनुसरण करते हैं , उसका दूसरा जन्म होता है ( द्विज संस्कार) , जो वेदों को पढ़ता है और समझता है वह है एक बुद्धिमान व्यक्ति बनता है और जब ब्रह्म को समझता है उसी के साथ सृष्टि का स्रोत जान लेता है तभी वह ब्राम्हण कहलाता है । ( स्कंद पुराण 18.239.31-34 ) जो ब्रह्म को जानता है उनको ब्राह्मण कहते हैं । तो फिर वह जिज्ञासा कर रहे थे । 'ब्रह्मा' ब्रह्म जिज्ञासु होके पूछे उन्होंने, ऐसा क्यों आपने पूछा ? कि कौन सा ब्रह्मा आए हैं ? तब श्री कृष्ण .. द्वारिकाधीश की ( जय ) उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर कह के नहीं सुनाया । उस ज्ञान का विज्ञान बनाकर कहे या कुछ प्रत्यक्ष के साथ समझाना चाह रहे थे । और समझाया भी । थोड़ी देर में चतुर्मुखी ब्रह्मा ने देखें कि और एक व्यक्ति पहुंच गए हैं ,जिनके पांच मुख है और भगवान को साष्टांग दंडवत प्रणाम किए। और उनको आसन दिए हैं । फिर षढ़मुखी ब्रह्मा , सप्तमुखी, दसमुखी , सहस्र मुखी, और लक्ष्यमुखी ऐसे व्यक्ति आते गए और सभी के लिए भगवान व्यवस्था कर रहे हैं अपनी इच्छा शक्ति से यह सब .. न तस्य कार्य करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च ॥ ८ ॥ अनुवाद:- उनके शरीर और इंद्रिया नहीं है, उनके समान और उन से बढ़कर भी कोई दिखाई नहीं देता, उनकी पराशक्ति नाना प्रकारकी ही सुनी जाती है और वह स्वभावविकी ज्ञान क्रिया और बल क्रिया है । (श्वेताश्वर उपनिषद 6.8) यह भी भगवान की पहचान है ,ऐसे भगवान है । दो वास्तविक में सब कुछ जानते हैं और बल भी स्वाभाविक है ,वे बलवान है । उनको दंड ,बैठक ,कसरत ,व्यायाम करने की आवश्यकता नहीं भगवान बनने के लिए । भगवान ऐसी व्यवस्था की है हम सभी के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध कराए हैं भगवान और जब सभी ने अपने अपने स्थान ग्रहण किए और अभी समझ चुके थे कि जो पधारे हुए व्यक्ति या है ! वह ऐक ऐक ऐक ब्रह्मा है और जिस ब्रह्मांड का में ब्रह्मा हूं यह सबसे छोटा ब्रह्मांड होना चाहिए इसलिए मेरे मुख तो चार है । चार से कोई कम वाला ब्रह्मा है नहीं औरों के पांच है दस है , बिस है, पचास है , सो है, हजार है , लाखों है । अधिक सिर क्यों है ? क्योंकि अधिक व्यवस्था है , अधिक निर्माण का कार्य ब्रह्मा का हे और यह ब्रह्मा के नौकरी है । और ब्रह्मांड अधिक बड़े बड़े हैं आकार में और वहां के सृष्टि की भी और अधिक अधिक बड़ी है। तो इसीलिए अधिक सिर वाले ब्रह्मा है ऐसा हमारे चतुर्मुखी ब्रह्मा समझ गए । और फिर कहते हैं कि सभी ब्रह्मा के मध्य में हमारे चतुर्मुखी ब्रह्मा सोच रहे थे मैं कोई चूहा हूं या मच्छर हूं मैं कुछ भी नहीं हूं उनके बगल में बैठे हुए विशालकाय ब्रह्मा और उनके कितने सारे सिर है उनके मध्य में से एक छोटा सा चींटी बैठी है । हरि हरि !! तो ज्ञान हुआ ना हमको घर बैठे बैठे ज्ञान हुआ । इतने सारे ब्रह्मांड है और इतने सारे ब्रह्मा भी हैं । शास्त्र जो शास्त्रज्ञ को पता नहीं है । हरि हरि !! उनकी जो ज्ञान प्राप्ति विधि को वे अपनाए हुए हैं सिर्फ शास्त्रज्ञ ही नहीं उनके कई सारे चेले हैं ,कलीर चेले , कली का चेला । तो वह कैसे ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं किस विधि से या किस साधन से अपनी इंद्रियों से । जिसको प्रत्यक्ष ज्ञान, प्रत्यक्ष अनुमान और श्रुति यह अलग-अलग प्रमाण है । तो एक प्रमाण है श्रुति प्रमाण या श्रुति शास्त्र को पढ़ लिया शास्त्रों की बातें सुन ली तो हुआ ज्ञान लेकिन अधिकतर लोग इस संसार के विशेषकर के कलयुग के उनका विश्वास उनके इंद्रियों में है , आंखों में है, कानों में है, नासिका में है । वह देखना चाहते हैं उसकी मान्यता भी है । हम देखेंगे तो मान जाएंगे उसको स्वीकार करेंगे । तो वह अपनी आंखों से देखना चाहते हैं हरि हरि !! फिर आंखों की तो सीमित क्षमता है , अधिक कम हे । जहां तक सूक्ष्म बस्तू या कोई जंतु भी कहो, कीटाणु , कीड़े सूक्ष्म हे तो इन खुली आंखों से देखा नहीं जा सकता । तो शास्त्रज्ञ क्या करते हैं ? वे माइक्रोस्कोप का ,सूक्ष्म दर्शक यंत्रों का व्यवहार करते हैं । लेकिन सूक्ष्म दर्शन यंत्रों के भी क्षमता को बढ़ाने का प्रयास, जब करते ही रहते हैं या मैग्नीफाइंग ग्लास ( आवर्धक लेंस ) उसके भी सीमा है । उसके परे जो है जैसे आत्मा है इतना सूक्ष्म है कितना यह बताया गया है शास्त्रों में ... केशाग्र - शत - भागस्य शतांश - सदृशात्मकः । जीवः सूक्ष्म - स्वरूपोऽयं सङ्ख्यातीतो हि चित्कणः ॥ १४० ॥ अनुवाद:- “ यदि हम बाल के अगले भाग के सौ खण्ड करें और इनमें से एक खण्ड लेकर फिर से उसके सौ भाग करें , तो वह सूक्ष्म भाग असंख्य जीवों में से एक के आकार के तुल्य होगा । वे सब चित्कण अर्थात् आत्मा के कण होते हैं , पदार्थ के नहीं । ' ( चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला 19.140 ) केस का अग्रभाग , उसका क्या करना है, उसके दो टुकड़े करो, कर लिए । उससे एक उठाओ, उठा लिआ । उसके और सो टुकडे करो । एक उठाया तो वह है आत्मा का आकार । तो कहां है आपके पास, वैज्ञानिकों के पास ऐसा माइक्रोस्कोप जो आत्मा का दर्शन आपको दे । यह संभव नहीं है । इसलिए सर्जन वगैरा ऑपरेशन के समय शरीर के सारे कणो को देख चुके हैं । देखते रहते हैं लेकिन उन्होंने आत्मा को नहीं देखें । कई साल पहले 20/30 साल पहले की बात है , कुछ डॉक्टरो ने प्रयास किया आईसीयू में गए जहां से लोग या जहां जाने पर थोड़े ही लौटते हैं वहां से आगे बढ़ते हैं, वे अपना शरीर छोड़ देते हैं । तो वैज्ञानिक गए विशेष कैमराओं के साथ । और जहां जहां आईसीयू मैं रोगी मरने की स्थिति में जाते हैं तो वहां उस कैमरा को तैयार रखते, और उनका विचार यह होता की जैसे ही आत्मा शरीर को त्याग ता है उस समय फोटो खींच लेंगे । आत्मा का हम फोटो निकालेंगे । तो वे प्रयास करते रहे करते रहे लेकिन प्रेस करते ही रहे तो भगवान ने उनको थोड़ा यस दे दिया, उन्होंने दावा किया कि हां हमने आत्मा की फोटो खींच ली है और वह 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में (Times of India) उनके प्रथम पने पर उसको प्रकाशित भी किए थे , उनके दावे के अनुसार । कि यह फोटो आत्मा का है । वह तो कुछ परछाई जैसा दिख रहा था क्योंकि आत्मा तो व्यक्ति है । तो कुछ यस उनको मिला फोटो खींचने के लिए । कितना सत्य तथ्य था किंतु तो कुछ संकेत उनको प्राप्त हुआ है कि , हां हां !! मृत्यु होती है मतलब आत्मा शरीर से अलग होता है और आत्मा है , हे सूक्ष्म किंतु यह वैज्ञानिक, डॉक्टरो, इंजीनियर यह सब प्रतेक्ष वादी मंडली है । इस विधि से ज्ञान प्राप्त करना काफी कष्टदायक भी है महंगा भी है और बहुत समय भी बीत सकता है । तो भगवान हर अणु में है और हर ब्रह्मांड में है । और कई सारे ब्रह्मांड है कहना कहते हम कम से कम अभी यह वैज्ञानिक स्वीकार कर रहे हैं कि और भी ब्रह्मांड है । तो उनको केबल आभास या कुछ संकेत भी हो रहा है । लेकिन यह आत्मा का होना और परमात्मा का भी । आत्मा नहीं होंगे तो परमात्मा कैसे होंगे! परमात्मा की भगवान का अंश है आत्मा और कई सारे ब्रह्मांड भी है, यह ज्ञान तो ब्रह्मांड के सृष्टि से पहले यह ज्ञान क्योंकि वेदों का पूराणों का ,शास्त्रों का जो ज्ञान है, एक तो यह अपुरुषेय है और यह सृष्टि से पहले शास्त्र थे यह ज्ञान का तो यह सब सदैव के लिए बना रहता है ज्ञान । पहले भी ब्रह्मांड थे हरि हरि !! और फिर प्रलय हुआ तो सभी ब्रह्मांडों में प्रवेश किया महाविष्णु में । वह भगवान की विशेषताएं हैं । भगवान के एक उश्वास के साथ , 'स्वास', 'उश्वास', हम तो मिनट में कुछ 15 या 20 बार ये श्वास और उश्वास चलता ही रहता है । कितने सारे ऑक्सीजन की जरूरत होती है । इसीलिए ऑक्सीजन का कमी चल रहा है लेकिन भगवान जब उश्वास लेते हैं उसी के साथ आप सारे ब्रह्मांड की सृष्टि होती है । भगवान के एक रोम-रोम से एक-एक ब्रह्मांड उत्पन्न होता है । सृष्टि हुई फिर पालन हुआ अब प्रलय के समय फिर भगवान पुनः जब सांस लेते हैं तो उसी के साथ साथ सारे ब्रह्मांड पुनः महाविष्णु में प्रवेश करते हैं । तो केवल महाविष्णु एक श्वास और अश्वास लेते हैं ? नहीं ! वह शाश्वत है , तो भगवान उश्वास यह सृष्टि हुई और श्वास लिया तो प्रलय हुआ। तो कितनी बार सांस के लिए ? असंख्य बार ,बारंबार यह सृष्टि प्रलय सृष्टि प्रलय तो संबंध का ज्ञान, प्रलय का संबंध का ज्ञान साश्वत है और यही है महिमा ,महात्म । गीता भागवत या वेद पुराणों का । तो इसको पढ़ लो, सुन लो, तुरंत ज्ञान हमको ज्ञान हुआ । तो " दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित" । ह्रदय में ज्ञान प्रकाशित हुआ । हृदय में क्यों ? ह्रदय में रहने वाले उस भगवान उस आत्मा को ज्ञान देते हैं । ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ॥ १ ॥ अनुवाद:- मैं घोर अज्ञान के अन्धकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आखें खोल दीं । मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ । ( श्री गुरु प्रणाम मंत्र 1) यह सारे प्रयोग करो और यह और वह , अंतरिक्ष में जाओ अंतरिक्ष विमान स्टेशन बनाओ । 400 माइल दूर आकाश में और फिर सारे प्रयास प्रयोग करते जाओ । और फिर थोड़ा कुछ पता चलता है , माइक्रोस्कोप में कीटाणु देखने के लिए जो सूक्ष्म उसको पता लगाने की माइक्रोस्कोप यंत्र या दूरदर्शक यंत्र वैज्ञानिक अपनी आंखों की क्षमता को बढ़ा-बढ़ा के सूक्ष्मती अति सूक्ष्म है उसे देखने का और ज्ञान प्राप्त करने का जो प्रयास जो दूर दर्शक है लेकिन आंखों के भी मर्यादा है और यह सारे यंत्र माइक्रोस्कोप और टेलीस्कोप की भी सिमा है । लेकिन यह सारा ज्ञान तो शास्त्र चक्षुसा... यह टेलीस्कोप यह माइक्रोस्कोप को फेक दीजिए और क्या करिए शास्त्र का चश्मा पहनो । शास्त्रों को अपनी आंखें बनाओ । आप जैसे अंधे हो कुछ दिखता नहीं है तो शास्त्रों का उपयोग करो । कुरान से ज्यादा पता नहीं चलेगा ! पुराण चाहिए । बाइबिल में भी कुछ ज्ञान है । जेब के डिक्शनरी जैसा और फिर बड़ा और बड़ा, तमाम भाग जेसे । सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५॥ अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूं और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति, होती है । मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूं । निसंदेह मैं वेदांत का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूं । ( श्रीमद्भगवद्गीता 15.15 ) कृष्ण कहे हैं । वेदों से मुझे आप जान सकते हो और केवल भगवान को जान नहीं सब कुछ जान सकते हैं । भगवान के शक्ति को भी जान सकते हैं । भगवान के सृष्टि को भी जान सकते हैं और ऐसे कुछ नहीं बचता जिसको जान नहीं सकते । जानने योग्य हैं जितने भी क्षमता है जीत की जानने की उतना सारा जान सकता है । सृष्टि के पहले एक शब्द था बाइबिल में भी कहा है । और वह शब्द था भगवान के साथ । "वह शब्द था भगवान" । सृष्टि के प्रारंभ में है या सृष्टि के पहले भी यह सारे शब्द ''शब्दों योनित्वा'' शब्दों से भरे पड़े हैं । शब्द परमब्रह्मा भी कहा जाता है , शब्द ही परम ब्रह्म है । यह सारे शब्द शास्त्रों से, भगवान के साथ जो शब्द है यानी भगवान की जो शब्द है तो ऐसी सुविधा तो भगवान ने की है ताकि हम ज्ञान अर्जन प्राप्त कर सकें । हम ज्ञानवान बन सकते हैं तो इसीलिए भगवान के जो व्यवस्था है साधु ,शास्त्र ,आचार्य के मदद से हम सब कुछ जान सकते हैं । जो जो जानने योग्य है, जानने की क्षमता आत्मा रखता है ! वह सब जाना जा सकता है । साधु ,शास्त्र ,आचार्य के मदद से । "याची देही याची डोळा" मराठी में कहते हैं अर्थ :- इसी शरीर में इन्हीं आंखों से आप देख सकते हो या अंत चक्षु से आप देख सकते हो । इसी जन्म में और इन आंखों से आप भगवान देख सकते हो और भगवान के सृष्टि को भी देख सकते हो । जो जो प्रयोग कर रहे हैं उन सब को पता नहीं , वह भगवान को खोज रहे हैं जाने अनजाने में सारे जीव प्रयास कर रहे हैं कि कृष्ण को देखने के लिए ( Everybody is looking for Kṛṣṇa ) ऐसा जॉर्ज हैरिसन ने भी कहा हे । सबको पता नहीं है की खोज में वे हें । सभी जीब ,जीव किसको खोजेगा ? भगवान को ही खोजेगा । उसका जो स्रोत है लेकिन बाहर से लगता है कि वे सृष्टि की खोज कर रहे हैं या इस ब्रह्मांड में कुछ खोज रहे हैं । हरि हरि !! तो यह है प्रत्यक्ष प्रमाण और शास्त्र प्रमाण कहो या श्रुति प्रमाण । सुन लिया,पढ़ लिया,समझ लिया । तो दोनों में बहुत अंतर है , प्रतेक्ष प्रमाण आंखों के समक्ष जो देखेंगे वही है । हरि हरि !! भगवान कहां पर है, भगवान को किसने देखा, भगवान हे नहीं । अगर है तो हम कहते हैं दिखाओ भगवान को , अगर नहीं दिखा हो सकते तो वह है नहीं, ऐसे ही । तर्क वितर्क लेके संसार बैठा हुआ है दुरर्देव से । दुरर्देवि बंधुओं के लिए मैंने कई सारे विषय के उपर मैंने प्रस्तुतीकरण कर लिया अलग-अलग कर । तो उन पर भी कृपा की है और यह कृपा फिर... यार देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ' एइ देश ॥१२८॥ अनुवाद:- " हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । " (चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला 7.128 ) यह सब सब को उपदेश करके हो सकती है, पर दुखेर दुखी भी हो सकती है । आप वैष्णव हो आपको दया नहीं चाहिए । संसार के दुखी लोगों को देखकर आपको दुखी होना चाहिए तो प्रभुपाद ऐसे दुखी हुए संसार के स्थिति को देखकर । तो प्रभुपाद वृंदावन छोड़ कर सीधे न्यूयॉर्क गए और फिर वहां से 14 बार पूरा पृथ्वी का भ्रमण किए और जहां भी गए श्रील प्रभुपाद वहां वहां पर उन्होंने कृष्ण का उपदेश दिया । अपने रचित भाषांतरित ग्रंथों का वितरण करने के लिए सभी को प्रेरित किया । प्रसाद वितरण करवाएं । हरि हरि !! बहुत कुछ श्रिल प्रभुपाद ने किए । कृष्ण उपदेश किया ही करते थे । श्रीला प्रभुपाद की ! ( जय ) उनका पथों का अनुसरण कीजिए या उन्होंने प्रारंभ किए कार्य को हमें आगे बढ़ाना है और इसीमे संसार का कल्याण,उद्धार,सुख,शांति संभव है । हरि हरि !!

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