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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 28 अप्रैल 2021 हरे कृष्ण! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ८५२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरि! हरि! कोरोना बढ़ रहा है, आप भी करुणा की प्राप्ति के लिए दौड़ रहे हो। इसी के कारण आज कुछ अधिक संख्या में उपस्थित हो। हल्की सी संख्या बढ़ चुकी है। आपका स्वागत ही है, धन्यवाद कोरोना। कोरोना का आभार मानना होगा, कोरोना नहीं होता तब आप में से कुछ जप नहीं करते अथवा हमारे साथ नहीं करते। कोरोना है तो आप को करुणा चाहिए। कोरोना से बचने के लिए आपको करुणा चाहिए। भगवान् करुणासिन्धु, दीनबन्धु हैं। दीनबन्धु दीनानाथ, मेरी डोरी तेरे हाथ। हमारी डोरी भगवान् के हाथ में है, उस दीनबंधु की ओर दौड़ पड़ो। हरि! हरि! वह करुणासिन्धु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी रहे। नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।। अनुवाद:- हे परम् करुणामय व दानी अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं। वदान्याय अर्थात करुणा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कारुण्य की मूर्ति हैं। वे उदार व दयालु हैं। *श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥* *पतितपावन हेतु तव अवतार। मोसम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥2॥* *हा हा प्रभु नित्यानन्द! प्रेमानन्द सुखी। कृपावलोकन कर आमि बड़ दुःखी॥3॥* *दया कर सीतापति अद्वैत गोसाइ। तव कृपाबले पाइ चैतन्य-निताइ॥4॥* *हा हा स्वरूप, सनातन, रूप, रघुनाथ। भट्टयुग, श्रीजीव, हा प्रभु लोकनाथ॥5॥* *दया कर श्रीआचार्य प्रभु श्रीनिवास। रामचन्द्रसंग मागे नरोत्तमदास॥6॥* अर्थ (1) हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन है? (2) हे प्रभु! पतितों को पावन करने हेतु ही आपका अवतार हुआ है, अतः मेरे समान पतित आपको और कहीं नहीं मिलेगा। (3) हे नित्यानंद प्रभु! आप तो सदैव गौरांगदेव के प्रेमानन्द में मत्त रहते हैं। कृपापूर्वक मेरे प्रति आप दृष्टिपात कीजिए, क्योंकि मैं बहुत दुःखी हूँ। (4) हे अद्वैतआचार्य! आप मुझपर कृपा कीजिए क्योंकि आपके कृपाबल से ही चैतन्य-निताई के चरणों की प्राप्ति संभव हो सकती है। (5) हे श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी! हे श्रील सनातन गोस्वामी! हे श्रील रूप गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथदास गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी! हे श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी! हे श्रील जीव गोस्वामी! तथा श्रील लोकनाथ गोस्वामी! आप सब मुझपर कृपा कीजिए, ताकि मुझे श्री चैतन्य-चरणों की प्राप्ति हो। (6) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना कर रहे हैं, ‘‘हे श्रीनिवास आचार्य! आप मुझपर कृपा करें, ताकि मैं श्रीरामचन्द्र कविराज का संग प्राप्त कर सकूँ। ’’ सुना सदासिंधु, मांग रहे हो? दया चाहिए? नामतो है, सदा सिंधु। अच्छा नाम है, कृष्ण करुणा सिंधु हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु महा महा वदान्य अर्थात दयालु व कृपालु हैं। नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं कि हे चैतन्य महाप्रभु, तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे। कहना तो आसान है किंतु यदि हम इसका अनुभव कर सकते हैं, व समझ सकते हैं कि यस!यस! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सचमुच दयालु हैं। वैसे और भी कोई दयालु होगा किन्तु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जैसा दयालु और कोई नहीं है। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे। "मोसम पतित प्रभु ना पाइबे आर " अर्थात मेरे जैसा कोई पतित तो है ही नहीं। बजरंगी! इस बात को मानते हो? हरि! हरि! पतितपावन हेतु तव अवतार। हे महाप्रभु श्रीकृष्ण चैतन्य, आप पतित पावन हेतु प्रकट हुए हो अर्थात पतितों को पावन बनाने हेतु अथवा पतितों का उद्धार करने हेतु आप प्रकट हुए हो। परंतु उन पतितों में मेरे जैसा पतित तो आपको कोई मिलेगा ही नहीं। मैं इतना पतित हूँ, ईमानदारी ही बेस्ट पालिसी है। अगर हम ईमानदार बन कर स्वीकार कर सकते हैं कि हम पतित हैं। गर्व से तो नहीं कहना है, लेकिन कहना तो चाहिए कि हम पतित हैं। हम पतित हैं, तो कहना भी चाहिए। अगर आप पतित नहीं हो तो आपको भगवान् की क्या जरूरत है। आप पहले ही पहुंचे हुए महात्मा हो फिर भगवान् की क्या आवश्यकता है। हम पतित हैं इसलिए *तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥* ( शिक्षाष्टकम श्लोक 3) अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। हमें बड़ा विन्रम होना चाहिए। हरि! हरि! हम पतित तो हैं ही, तृणादपि सुनीचेन। जैसे एक वृक्ष भी हर बात को सहन करता है। हरि! हरि! हमें भी एक वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर अमानिना मानदेन अर्थात अपने लिए मान कि अपेक्षा नहीं करने वाला और सदैव औरों का सादर सत्कार सम्मान करने के लिए तैयार रहने वाला बनना चाहिए। ऐसी मनोस्थिति में ही कीर्तनीयः सदा हरिः सम्भव है। कीर्तन सम्भव है अथवा जप सम्भव है अथवा भक्ति सदैव करना संभव है। यह तभी संभव है, यह शर्ते है, हरि! हरि! (मैं इस बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहता हूँ) बढ़ाना तो चाहिए, आपको सोचना तो चाहिए। मैंने विषय तो दे दिया। इस सम्बंध में औऱ अधिक सोचिए। विचारों का मंथन करो। हरि हरि! मुझे कल का दिन याद आ रहा है । कल हमनें चैत्र पूर्णिमा और कइयों के आविर्भाव तिथि महोत्सव मनाया अथवा स्मरण किया। हम श्यामानंद पंडित और नरोत्तम दास ठाकुर का भी स्मरण कर रहे थे। । जीव गोस्वामी ने इनको नाम दिए- श्यामा नंद पंडित। श्यामा नंद पंडित के सम्बंध में जब मैं बात कर रहा था एक तो मैंने उनके गुरु का नाम गलत कहा। मैं ह्र्दयनन्द ही कहता रहा, श्यामा नंद पहले दुखी थे फिर उनका नामकरण हुआ। 'तुम्हारा नाम दुखी कृष्ण होगा , ये नाम देने वाले उनके गुरु ह्रदय चैतन्य थे, जोकि गौरीदास पंडित के शिष्य थे। ह्रदय चैतन्य के शिष्य दुखी कृष्ण बनें। जहां पर दुखी कृष्ण दीक्षित हुए और जहां गौरीदास पंडित और ह्रदय चैतन्य भी रहते थे, वह स्थान अम्बिका कालना कहलाता है। कल मुझे वह भी नहीं याद आया था। अम्बिका कालना नाम का स्थान निश्चित रूप से आज भी है। हम भी कई बार वहां गए हैं, आप भी जा सकते हो। चैतन्य महाप्रभु भी वहां गए थे, गौरीदास पंडित से मिले थे। इतनी सारी लीलाएँ वहां हुई थी। जो अम्बिका कालना नवद्वीप में जो ऋतु द्वीप है, उसके पास में ही है। ऋतु द्वीप कहो या सुमन्द्र गढ़ नाम का स्थान है। जहाँ पर परिक्रमा के भक्त जाते हैं, वहा चंपा हाटी भी है। जब हम चंपा हाटी सुमन्द्रगढ़ से और आगे बढ़ेंगे और नवद्वीप नगर शहर से आगे हम ऋतु द्वीप पर आ आगे बढेगें, तब हम अम्बिका कालना पर पहुंचेंगे। इसलिए मैं, श्यामानंद पंडित के सम्बंध में यह थोड़ा सुधार करके या थोड़ा अधिक आपको बता रहा हूँ। वैसे कल बंसीवदन ठाकुर का भी आविर्भाव अथवा जन्म तिथि रही किन्तु कल समय के अभाव के कारण उनका स्मरण नहीं कर पाए लेकिन ये चरित्र अथवा ये भक्त, गौर पार्षद अथवा परिकर विशेष थे। इसलिए सोचा कि कल उनका स्मरण नहीं पाए थे, कुछ नहीं कह पाए तो आज करते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा करके जगन्नाथपुरी लौट आए और अब वे बंगाल की यात्रा पर गए। उनको शची माता और गंगा माता का दर्शन करना था। इस समय चैतन्य महाप्रभु और कई भक्तों से भी मिलने वाले हैं। हरि हरि! उस दरिम्यान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप में कुलिया पुंहच गए अर्थात आज का जो शहर है। उसका एक समय नाम कुलिया ग्राम भी था। यह 500 वर्ष पूर्व की बात है, नवद्वीप शहर तो अभी पिछले कुछ 100 या 200 वर्षों पूर्व की ही बात है अर्थात 100-200 वर्षों पूर्व उसकी स्थापना अथवा विकास हुआ था। उसका नाम नवद्वीप है या उसको शहर को नवद्वीप कहकर पुकारते हैं। कुलिया में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आ पुंहचें। वहां उन्होंने कईयों को उनके पापों व अपराधों से मुक्त किया। उसमें देवानंद पंडित भी एक बड़ा नाम है। उन्होंने भी श्रीवास ठाकुर के चरणों में एक बहुत बड़ा अपराध किया था। चैतन्य महाप्रभु कुलिया में पहुंच गए। उन दिनों में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, माधव दास नाम के गृहस्थ भक्त के निवास स्थान पर निवास कर रहे थे। चैतन्य महाप्रभु लगभग एक सप्ताह के लिए वहां रुके। इस पूरे सप्ताह में वे कई पापियों का उद्धार करने वाले हैं। वह कुलिया स्थान पाप भंजन नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब माधव दास के निवास स्थान पर रह रहे थे। तब कल अर्थात चैत्र पूर्णिमा के दिन वहां एक बालक का जन्म हुआ। वह बालक ही भविष्य के बंसीवदन ठाकुर बनने वाले थे। वह श्रीकृष्ण की बंसी के अवतार थे। भगवान् की बंसी ने अवतार लिया था, यह बालक बंसीवदन ठाकुर बन गया। हम यह भी समझ सकते हैं कि कल के दिन अर्थात चैत्र पूर्णिमा के दिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुलिया में थे। यह उस वर्ष की बात है, जब चैतन्य महाप्रभु बंगाल गए थे। चैतन्य महाप्रभु की इस बालक के प्रति विशेष कृपादृष्टि रही। स्नेह भी रहा। हरि! हरि! पूरा चरित्र मैं जानता भी नही हूँ और पूरा चरित्र पता भी नही है कि उपलब्ध है भी या नहीं। लेकिन जो भी उनके सम्बंध में लिखा है - उतना ही कह सकते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब संन्यास लिया ही था। यह थोड़ा आगे पीछे की बात थी या होने वाली है। ऐसा कहना उचित होगा कि केवल चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लिया था अर्थात वे नवद्वीप से प्रस्थान कर चुके थे अर्थात प्रस्थान करके संन्यास लिया और अब वे पुनः लौट रहे हैं।उस समय बंसी वदन ठाकुर मायापुर योगपीठ जाते हैं और वहीं विष्णुप्रिया के सङ्ग में रहने लगते हैं।विष्णु प्रिया की सेवा औऱ सङ्ग प्राप्ति हेतु वे योगपीठ गए और वही उनके चरणों व सेवा में रहने लगे। विष्णुप्रिया के सङ्ग सेवा से व विष्णु प्रिया की भाव व भक्ति से बंसीवदन ठाकुर भी प्रभावित हो ही गए। उन दिनों में विष्णुप्रिया की विरह की व्यथा से जान जा रही थी। बंसीवदन ठाकुर भी उसी विरह के कारण अव्यथित हो रहे थे। अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का न तो दर्शन, ना ही सङ्ग प्राप्त हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु संन्यास ले कर प्रस्थान कर चुके हैं। विष्णु प्रिया और बंसीवदन ठाकुर दोनों खूब जप किया करते थे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* विष्णुप्रिया हरे कृष्ण महामंत्र का जप करती थी। बंसीवदन ठाकुर जो कि भगवान की बंसी ही थे, वे भी हरे कृष्ण महामंत्र का जप और कीर्तन किया करते थे। अब तो उनके मुखारविंद से ही हरे कृष्ण महामंत्र निकलता था। बंसी ध्वनि से निकलने वाले वचन या वाक्य या गीत अब बंसीवदन ठाकुर स्वयं जो बंसी के अवतार हैं, मानो बंसी ने ही रूप धारण किया है। बंसी ही बंसीवदन ठाकुर बनी है। बंसी में जो छिद्र होते हैं, उससे वृंदावन में जो वचन निकलते थे, वही वचन, वही भाव, वही भक्ति के भजन, वही कीर्तन उनके मुखारविंद से निकल रहा है। एक समय यह दोनों विरह के मारे मर रहे थे। इन दोनों ने संकल्प किया कि अब जीने से कोई मतलब नहीं है। महाप्रभु का सानिध्य, दर्शन अगर प्राप्त नहीं हो सकता है तो चलो हम जान देते हैं। उन्होंने सारा अन्न व खाद्य पेय वर्जित कर दिया अर्थात उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया। केवल *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* चल रहा है लेकिन और कोई खान-पान नहीं करेंगे। भगवान् जान गए। भगवान कैसे जान गए? क्या किसी ने उनको फोन किया, ईमेल मैसेज भेजा या चैतन्य महाप्रभु ने फेसबुक पर शची माता का लेख पड़ा। नहीं। भगवान को कोई जरूरत नहीं है। ऐसे होते हैं भगवान। भगवान् सब जानते हैं। सर्वज्ञ हैं। हरि! हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने विष्णु प्रिया और बंसीवदन ठाकुर को दर्शन दिया। श्राव्य दृश्या जैसा कि महामंत्र के भाष्य में कहा गया है। (समय तो हो गया है, मुझे विराम देना होगा) चैतन्य महाप्रभु ने दर्शन भी दिया और आदेश भी दिया- नहीं! नहीं! प्रसाद ग्रहण करो, तपस्वी बनकर थोड़ा कम कर सकते हो। कम खाओ। मित्तभुक्त भक्त बनो। वैसे वैष्णव का गुण भी होता है - मित्तभुक्त। मित्त मतलब कम। अमित्त मतलब बहुत ज़्यादा। भोजन किया करो, प्रसाद ग्रहण करो एवं आदेश दिया कि मेरी मूर्ति बनाओ। मुझ जैसे विग्रह बनाओ और उन्हीं की आराधना करो, उन्हीं का दर्शन करो, उन्हीं को नमस्कार करो। विग्रह की आराधना करके क्या होगा? *मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता 18.65) अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो। भगवत गीता में कृष्ण ने यह चार कार्य करने के लिए कहा है। भगवान के जो विग्रह हैं अथवा भगवान विग्रह के रूप में प्रकट होते हैं। फिर हम यह चार कृत्य आसानी से कर सकते हैं। विग्रह का स्मरण करो। *श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ। युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥* अर्थ:- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्री श्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। विग्रह भगवान के अवतार माने जाते हैं। मूर्ति अथवा विग्रह भगवान का अवतार हैं अर्थात कृष्ण स्वयं हैं। मन्मना- मेरा स्मरण करो, मद्भक्तो अर्थात मेरे विग्रह के भक्त बनो। वैसे होते ही हैं, कोई जगन्नाथ का भक्त है, कोई राजा रणछोड़ का भक्त है, कोई बालाजी का भक्त है, कोई कृष्ण कन्हैया लाल राधा मदन मोहन के भक्त हैं, कोई राधा गोविंद का भक्त है, मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु अर्थात भगवान की आराधना करो। भगवान का विराट रूप है, ऐसे कैसे उनकी आराधना करोगे, विराट रूप को कैसे माल्यार्पण करोगे? विराट रूप तो सर्वत्र है। मां नमस्कुरु - कैसे नमस्कार करोगे। यहां देखें, वहां देखें क्या करोगे, कोई सामने हो तो उसको नमस्कार कर सकते हैं। इसलिए भगवान विग्रह के रूप में प्रकट होते हैं। इसलिए भगवान् ने गीता मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु करने के लिए कहा है। यह करने के लिए आसान होता है, यह व्यवहारिक है। महाप्रभु का आदेश था, विग्रह की आराधना करो। मेरे जैसे विग्रह बनाओ। विग्रह और भगवान में कोई अंतर नहीं है। उस विग्रह की फिर प्राण प्रतिष्ठा होती है। भगवान जैसा दिखने वाला रुप या मूर्ति बनाई जाती है। कोई कारीगर बनाता है। जयपुर् या पंढरपुर में, फिर प्राण प्रतिष्ठा हुई तो फिर वह स्वयं भगवान् हुए। विष्णु प्रिया और बंसीवदन ठाकुर ने ऐसा ही किया। कुछ समय बीत गया। विष्णुप्रिया भी नहीं रही। बंसीवदन ठाकुर, महाप्रभु के विग्रह को कुलिया लाए और स्थापना व आराधना की। वे विग्रह आज भी नवद्वीप शहर में 500 वर्ष पूर्व के कुलिया में आज भी हैं। जब हम नवदीप मंडल परिक्रमा में जाते हैं, वहां पर हम जरूर जाते हैं। धामेश्वर महाप्रभु! बड़े ही सुंदर विग्रह हैं। वहां पर पादुका भी है। ऐसा कहना है कि चैतन्य महाप्रभु की पादुका आज भी वहां है। हमनें भी चैतन्य महाप्रभु की पादुका अपने सर पर धारण की। जो भी वहां दर्शन के लिए जाते हैं, वहां के पुजारी कृपा करते हैं। चैतन्य महाप्रभु की पादुका का भी दर्शन और स्पर्श होता है। यह जो महाप्रभु का विग्रह हैं, उनके चरणों में बंसीवदन ठाकुर को भी चिन्हांकित किया गया है, ऐसी जानकारी उपलब्ध है। वहां पर जो बेस है अर्थात जिस पर भगवान खड़े हैं, वहां बंसीवदन ठाकुर का भी चित्र है, हमनें देखा तो नहीं, पढ़ा सुना है। इस प्रकार बंसीवदन ठाकुर का उस विग्रह के साथ एक घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ है। आज भी जब महाप्रभु का दर्शन करते हैं। ५०० वर्ष पूर्व के कुछ ही चिन्ह या कुछ ही मूर्तियां विग्रह आज भी हैं। वे कुछ ही गिने-चुने, जिसे उंगलियों पर गिना जा सकता है। उसमें से यह एक विग्रह है। विष्णु प्रिया और बंसीवदन ठाकुर ने बनाया या चैतन्य महाप्रभु स्वयं वह विग्रह बन गए। उन दोनों ने उनकी आराधना की। ऐसे रहे बंसीवदन ठाकुर। ऐसी भक्ति ऐसा चरित्र बड़ा ही विरला है। हरि! हरि! सारे गौड़ीय वैष्णव और गौड़ीय भक्त विशेष है। दुनिया भर के जो भक्त हैं या रामायण पीरियड के भक्त या महाभारत काल के भक्त या प्राचीन काल के भक्त, उन भक्तों से भिन्न हैं, यह गौड़ीय भक्त या गौरांग महाप्रभु के भक्त। ऐसा सनातन गोस्वामी वृहद भागवतामृत के प्रारंभ में लिखते हैं कि गौड़ीय वैष्णव का विशिष्ट है। *आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता।* *श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्। श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः।।* ( चैतन्य मञ्जूषा) अर्थ:- भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्री मद्भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही पुरुष पुरुषार्थ है- यही श्रीचैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम् आदरणीय है। ऐसा चैतन्य महाप्रभु का भी मत है और सनातन गोस्वामी ने भी कहा है कि सभी भक्तों में जो भक्त व्रजेन्द्रनन्दन अथवा नंद नंदन के भक्त हैं, या फिर ब्रज के भक्त और ब्रज के भगवान् अथवा वृंदावन के भगवान् श्रीकृष्ण व उनके भक्त हैं, उनका भक्ति भाव, रागानुगा भक्ति संसार में सर्वोपरि है। संसार में जितने भी भक्त हुए हैं या भविष्य में होंगे भी, उन सभी में व्रजेन्द्रनन्दन के भक्त अथवा वृंदावन के भक्त, श्रीकृष्ण के भक्त लेकिन श्रीकृष्ण कई अवतारों में प्रकट होते हैं, उन अवतारों के भक्त हैं, जैसे श्रीकृष्ण द्वारका में भी हैं, उनके भी भक्त हैं। श्रीकृष्ण मथुरा में है, उनके भी भक्त हैं किंतु *वृन्दावन परितज्य पदमेकं न गच्छति।* ( श्रीमद्भागवतगम 10.1.28 तात्पर्य) श्रीकृष्ण,वृंदावन को त्याग कर एक कदम भी बाहर नहीं जाते। नहीं जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण जो द्वारिका में हैं, वे पूर्ण हैं, मथुरा में पूर्णतर हैं और वृंदावन में पूर्णतम् हैं, ऐसे श्रीकृष्ण भगवान के भक्त भी, उनकी भक्ति भी और भक्तों की भक्ति पूर्ण हो सकती है। कोई पूर्णतर भक्ति वाले भी हैं किंतु गौड़ीय वैष्णव या ब्रज के भक्त यह पूर्णतम भक्त हैं। उनकी भक्ति कृष्ण भावनामृत में पूर्ण विकसित है। हरि! हरि! आगे फिर कभी कहेंगे, अभी यहीं पर विराम देते हैं। हरे कृष्ण!!!

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