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जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 4 अक्टूबर 2021 हरे कृष्ण..! आज जप चर्चा में 865 भक्त उपस्थित हैं। वेलकम!सुस्वागतम! सुप्रभातम्!सुप्रभातम् मतलब क्या? या गुड मॉर्निंग के बजाय आप सुप्रभातम कह सकते हो!क्या कहोगे?सुप्रभातम्! गुड मॉर्निंग कहोगे तो फिर आप इंडियन कहलाओगे लेकिन सुप्रभातम् कहोगे तो आप भारतीय हो।आपका परिचय क्या है?मैं भारतीय हूं।हे भारत!हम भरतवंशी हैं,हम सभी भरतवंशी है,केवल राजा परीक्षित ही नहीं या अर्जुन ही नहीं।गीता,भागवत में भारत कहा जाता हैं,भरत के वंशज भारतीय कहलाते हैं,हम सभी भारतीय हैं।आप कौन हो?या अगर आप थाईलैंड के भी हो परंतु अगर आपने भारत कि विचारधारा को अपनाया हुआ हैं,तो आप भारतीय ही हैं,लेकिन किसी ने भारतीय विचारधारा को नहीं अपनाया हैं,तो उनका इंडियन पासपोर्ट तो हो सकता हैं,लेकिन वह भारतीय नहीं हैं। हरि हरि! सुप्रभातम्! बालाजी तिरुपति में, पंढरपुर में या सभी वैष्णव तीर्थो में सुप्रभातम् होता हैं। "उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुडध्वज । उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यं मङ्गलं कुरु ॥ 2 ॥ सुप्रभातम् स्त्रोत्र बहुत सुंदर,मधुर और भावार्थ पूर्ण होता हैं।हरि हरि!!कुछ दिनों से हम विग्रहों के दर्शन कर रहे थे और साथ में जप भी चल रहा था तो हम कह रहे थे कि हम श्रवण भी कर रहे हैं, कीर्तन भी कर रहे हैं और स्मरण भी कर रहे हैं।दर्शन करना मतलब स्मरण करना भी होता हैं,जब हम भगवान के विग्रह का दर्शन करते हैं तो स्मरण भी होता हैं।हरि हरि!दर्शन रस भरा होता हैं,नेक्टेरियन या रस से भरा होता हैं।भगवान का नाम,रुप,गुण,लीला,धाम, "प्रतिक्षणास्वादन- लोलुपस्य वंदे गुरो: श्रीचरणारविन्दम्।।" भगवान का नाम, रूप, गुण,लीला,धाम या उस संबंध में जो वार्तालाप है, कथाएँ हैं, चर्चा है,ये सब नेक्टर(अमृत) हैं या रस से भरी हुई हैं।फिर उसी से भक्तिरसामृत सिंधु बन जाता हैं।भक्ति रस का क्या? सिंधु। मुझे आज कुछ कहना हैं, ऐसा मैंने सोचा हैं। दो प्रकार के विचार होते हैं या मोटा मोटी दो प्रकार की बातें होती हैं। एक को तत्व विचार कहते हैं और दूसरे होते हैं रस विचार या फिर उसको फिलॉसफी या तत्व विचार कहते हैं और दूसरा होते हैं रस विचार या रीलीजीयन (धर्म) या फिर उसी के अंतर्गत हैं नाम,रूप गुण, लीला, धाम का श्रवण,कीर्तन इसमें रस और इसका आधार हैं, तत्व विचार, फिलासफी(दर्शन शास्त्र)।यह मैं आपको बताता ही रहता हूं कि यह दोनों अनिवार्य हैं।रिलिजन एंड फिलासफी (धर्म और दर्शन)तत्व विचार और रस विचार को समझिए।तत्व विचार या तत्व या सिद्धांत भी कह सकते हो या कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा हैं कि मुझे जानना हैं,मेरे जन्म को जानना हैं,मेरी लीलाओं को जानना हैं तो कैसे जानना चाहिए?तत्वतः जानना चाहिए। “जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||” (श्रीमद्भगवतगीता 4.9) अनुवाद: -हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है | “जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |" फिर रस का भी तत्व हैं,रसतत्व।मैने रसविचार कहा तो उस का भी तत्व हमें समझना हैं। तत्व और सिध्दांत लगभग एक ही बात हैं।चैतन्य चरितामृत में भी कहा है "सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस। इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।।" (श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 2.117) अनुवाद:-निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को बिवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है। आपको याद हैं,यह वचन? नहीं है? होना चाहिए।आपको प्रचार करना हैं। बजरंगी तो जानते हैं।"सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर आलस।लेकिन यह प्रचार का ठेका केवल कुछ ब्रहमचारियो ने नहीं लीया हैं। हमारे संप्रदाय में गृहस्थ भी प्रचारक होतें हैं। यारे देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ' एइ देश।। (चैतन्य चरितामृत 7.128) अनुवाद:- " हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । " यह आदेश चैतन्य महाप्रभु ने एक गृहस्थ को दिया था। आप सभी को प्रचारक बनना हैं इसलिए यह सब बातें आपको पता होनी चाहिए। इस को कंठस्थ करना चाहिए, याद करना चाहिए। इसको कह सकते हो लिखना चाहिए, पढ़ना चाहिए,सुनना चाहिए। मैं यह सब कहता जाऊंगा तो मुझे जो कहना हैं जो मतलब कि बात हैं, वह रह जाएगी।मैं आपको कुछ तत्व की बात सुनाने वाला हूं और वह तत्व और वह सिद्धांत हैं,हरि हरि!सोना नहीं! हरि बोल! जीव जागो! इसलिये कहता हूँ कि हम लिख सकते हैं तो फिर हम को नींद नहीं आएगी या फिर हम जगते रहेंगें। सोना नहीं चाहते हो तो राइटिंग पैड और पेन लेकर बैठो।आपको लिखना भी हैं,तो आपको लिखने के लिए सुनना पड़ेगा फिर सोओगे नहीं आप।ऐसे कुछ उपाय हम ढूंढ सकते हैं,ताकि हम सोऐं नहीं।हरि हरि! इसी में समय निकल जाता हैं।देवता स्तुति कर रहे हैं और मथुरा में स्तुति का नाम हैं,"गर्भस्थस्तुति" और इस स्तुति का वर्णन श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के द्वितीय अध्याय में हैं।यह आपको याद भी रहना चाहिए,आप याद रख सकते हो।देवताओं ने स्तुति की और उस स्तुति को कहते हैं गर्भस्थस्तुति और वह कहां पर हैं? गीता में नहीं है। वह चैतन्य चरितामृत में नहीं हैं,वह कठोपनिषद में नहीं हैं। फिर क्या हम बता सकते हैं कि कहां हैं? कौन से शास्त्र में हैं? वह भागवत के दसवें स्कंध के द्वितीय अध्याय में हैं।आप जब इस तरह बताओगे तो फिर उसका प्रभाव पड़ेगा।उस पार्टी को मानना पड़ेगा और फिर इसी के साथ हम लोग जो जो मनोधर्म कि बात करते हैं,हमे लगता हैं कि यह मेरा विचार हैं, नहीं नहीं यह शास्त्र का विचार हैं।ऐसे रेफरन्स देकर हम प्रमाणित कर सकते हैं।जैसे वकील कोर्ट में करते हैं, कि ऐसे-ऐसे लाँ या क्लाज या नियम हैं या रेफरेंस देते हैं,तो हम प्रचारक भी एक एडवोकेट हैं।हम को भी वकालत करनी हैं।भगवान के लिए वकालत करनी हैं हरि हरि! भगवान की बातें सिद्ध करनी हैं या समझानी हैं। फिर दोबारा इस में हमारा समय चला गया।आपको ट्रेन करना हैं इसलिए यह सब बताना भी पड़ता हैं।तो गर्भस्तुति को गर्भ स्तुति क्यों कहा गया है? उस समय भगवान देवकी के गर्भ में थे और वह अष्टमी कि रात्रि थी और मध्य रात्रि का समय निकट आ रहा था।उस समय कि बात बताक्षरहा हूं।देवता कारागार में पहुंचे हैं।वसुदेव देवकी मथुरा में कंस के कारागृह में हैं।यह रेफरेंस, कांटेक्ट्स,संदर्भ अध्याय 2 मे हैं। मराठी में संदर्भ कहते हैं। उसमें एक वचन आता हैं। श्लोकसंख्या 27।अध्याय 2 श्लोक 27 इसमें देवता कुछ विशेष बात कहते हैं।उन कि स्तुति कुछ ज्यादा विस्तृत नहीं हैं।आपके पास भागवत होनी चाहिए।आपके घर में भागवतम होनी चाहिए होती तो आप खोल कर बैठ भी सकते थे या फिर अभी कोई लाइब्रेरी में जा रहे हैं तो या फिर दिन में आप देख सकते हो।दोबारा पढ़ सकते हो।लेकिन तब तक तो कुछ भूल जाओगे इसलिए लिखना आवश्यक हैं। कौन सा श्लोक? कौन सा स्कंध है ?कौन सा अध्याय?यह पता होना चाहिए।हरि हरि! "एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूल श्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः ॥" (श्रीमद्भागवत 10.2.27) अनुवाद:-शरीर को अलंकारिक रूप में " आदि वृक्ष " कहा जा सकता है । यह वृक्ष भौतिक प्रकृति की भूमि पर आश्रित होता है और उसमें दो प्रकार के सुख भोग के तथा दुख भोग के फल लगते हैं । इसकी तीन जड़ें तीन गुणों - सतो , रजो तथा तमो गुणों के साथ इस वृक्ष के कारणस्वरूप हैं । शारीरिक सुख रूपी फलों के स्वाद चार प्रकार के होते हैं- धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष जो पाँच ज्ञान इन्द्रियों द्वारा छः प्रकार की परिस्थितियों - शोक , मोह , जरा , मृत्यु , भूख तथा प्यास के माध्यम से अनुभव किये जाते हैं । इस वृक्ष की छाल में सात परतें होती हैं - त्वचा , रक्त , पेशी , वसा , अस्थि मज्जा तथा वीर्य इस वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं जिनमें से पाँच स्थूल तत्त्व तथा तीन सूक्ष्मतत्त्व हैं- क्षिति , जल , पावक , समीर , गगन , मन , बुद्धि तथा अहंकार शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र ( कोठर ) हैं,आँखें , कान , नथुने , मुँह , गुदा तथा जननेन्द्रिय।इसमें दस पत्तियाँ हैं,जो शरीर से निकलने वाली दस वायु हैं।इस शरीररूपी वृक्ष में दो पक्षी हैं- एक आत्मा तथा दूसरा जीव। मैं कुछ शब्द सुन रहा था तो मुझे यह अच्छा लगा।काफी इंटरेस्टिंग इंफॉर्मेशन हैं और यह वचन हैं, देवताओं के।वह भगवान की स्तुति कर रहे हैं।तो यह हमारे ज्ञानवर्धन के लिए बड़े महत्वपूर्ण वचन होने चाहिए।हमारे ज्ञान की वृध्दि करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। वैसे देवतागण कह रहे हैं एकायनोअसौ एक हैं आदीवृक्ष:,एक हैं वृक्ष।तो दो क्या हैं?तीन क्या हैं?उस वृक्ष में, चार क्या हैं?वह ऐसे एक से दस संख्या गिनाएंगे,आप नोट भी कर सकते हो।एक क्या हैं? एक वृक्ष हैं और यह कौनसा वृक्ष हैं?यह शरीर हैं वृक्ष। हमारा ही परिचय दे रहे हैं।हम मनुष्यो का परिचय दे रहे हैं, देवता भी हम जैसे ही हैं।उनके शरीर भी हम जैसे ही हैं। उनका खुद का या हम सब शरीर हैं, उसका वह विश्लेषणात्मक अध्ययन करके हमको कुछ शिक्षा दे रहे हैं। एक हैं वृक्ष और वह हैं, शरीर। द्वि-फल: वृक्ष हैं तो वृक्ष क्या देता हैं, वृक्ष से क्या प्राप्त होता हैं? निखिल जी क्या प्राप्त होता हैं?उससे बहुत कुछ प्राप्त होता हैं। लेकिन महत्वपूर्ण जो हैं या वृक्ष का सार कहो वह होता हैं फल। इस वृक्ष में द्वि-फल: दो प्रकार के फल लगते हैं तो फिर आप पुछोंगे कौन से दो प्रकार है फल हैं?उत्तर हैं,एक हैं मीठा फल फिर कौन सा बच गया?एक हैं कड़वा और हम अनुभव करते भी हैं।इस शरीर में शरीर में वह जो मन है उस मन से हम अनुभव करते हैं कभी अच्छा समय, कभी अच्छे दिन आएंगे! और अधिकतर बुरे ही दिन आते रहते हैं अच्छाई और बुराई, गुड और बैड, मीठा और कडुवा।नोट करो त्रि-मुल: वृक्ष हैं, तो वृक्ष के फल होते हैं और फिर वृक्ष का मूल होता हैं, उसकी जड़ होती हैं और यह तीन कौन से मूल है, यह तीनगुण हैं।सत्व,रज,तम इस वृक्ष के मूल हैं। त्रि-मुल: तीन मूल हैं और मूल की कितनी बड़ी भूमिका होती हैं पेड़ का खानपान मूल से ही होता हैं। इसीलिए वृक्ष के मूल को पद या पैर भी कहते हैं। वैसे मुख भी होता हैं। मूल को पादप कहते हैं। प मतलब पद से पीता हैं। कैसे पीता हैं?पद से या पैर से पीता हैं,जड़ से पीता हैं,इसलिए उसे पादप कहते हैं।सत्व,रज,तम गुण हमको खिलाते हैं,पिलाते हैं या प्रभावित करते हैं।हमको नचाते हैं।हसाते हैं या रुलाते हैं। “प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः | अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 3.27) अनुवाद:-जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं | ये जो तीन गुण हैं।प्रकृति के तीन गुणों से ही हमारे सारे कार्यकलाप नियंत्रित होते हैं।इन तीन गुणों को मूल कहा हैं? इसको समझ तो लो।हमें तो यह ही नहीं पता होता कि हमारे जीवन में हो क्या रहा हैं और क्योंकि हम जानते नहीं हैं, इसलिए कर्ता अहम इति मन्यते।हम स्वयं को करता समझते हैं,लेकिन ऐसे व्यक्ति को मूर्ख कहा गया हैं। मूर्ख नहीं रहना हैं। मूर्ख नंबर 1 मत बनो। इसलिए भगवान ने सारी व्यवस्था की हैं। ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:।। अंधकार के कारण हम अंधे हैं और हमें आंखें खोलनी हैं। हमको सीखना समझना हैं।चार प्रकार के रस हैं।इसको रस कहां हैं।चर्तुविधा,यह चार प्रकार के रस हैं।धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष।चार प्रकार के रस हैं,पंचविधा और पांच इंद्रियां हैं।अगर मन को जोड़ देंगे तो 11 इंद्रियां हैं,उनका उल्लेख यहां हो रहा हैं।पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। पांच कर्म इंद्रियां हैं और जिन इंद्रियों की मदद से हम ज्ञान का अर्जन करते हैं,वह पांच इंद्रियां हैं।इसलिए पंचविधा कहा गया हैं।पांच प्रकार की इंद्रियां,पंचइंद्रियों का उल्लेख हैं।हरि हरि।संसार में पांच प्रकार के विषय हैं।शब्द,स्पर्श,रूप,रस और गंध।यह सारा संसार स्पर्श,रूप,रस,गंध से भरा पड़ा हैं। इस संसार में इसके अलावा और कुछ हैं ही नहीं। संसार में क्या हैं? गंध,स्पर्श,रूप,रस और शब्द।इन इंद्रियों के विषय का कैसे पता चलता हैं? ज्ञान इंद्रियों की मदद से शब्द के लिए कौनसी इंद्री हैं? कान।हम लोग कान से सुनते हैं।स्पर्श के लिए त्वचा हैं।और क्या हैं? रूप।रूप के ज्ञान के लिए आंखें हैं और क्या हैं? रस।रस के लिए जिव्हा हैं और गंध के लिए नासिका हैं।आप समझ रहे हैं ना?इस प्रकार हमारा संसार के साथ व्यवहार चलता रहता हैं। और इसी के साथ फिर हम इंद्रितृप्ति में लगे रहते हैं।सारे साधनों के हम भोगी बनकर इंद्रितृप्ति करते हैं।तो यह 5 ज्ञानेंद्रियां हैं।इसे नोट करो और समझ भी लो।छह प्रकार की परिस्थितियां हैं।हमारे मन के अलग-अलग भाव या विचार हैं।इसी से परिस्थितियां निर्माण होती हैं।षड्आत्मा अर्थात 6 प्रकार की परिस्थितियां हैं। यह बात देवता तो नहीं कह रहे हैं। देवताओं ने तो कहा हैं कि 2 प्रकार के फल हैं। दो प्रकार कौन से हैं यह नहीं बताया। यह बताया हैं कि तीन प्रकार की जड़ हैं। कौन सी हैं यह नहीं बताया।यह तो प्रभुपाद ने भाषांतर में समझाया हैं और तात्पर्य में और अधिक जानकारी हैं। हमारे आचार्यों के भाष्यो की मदद से और शास्त्र से भी बताया गया हैं और प्रभुपाद ने तात्पर्य भी लिखा हैं।नोट करो-6 प्रकार की परिस्थितियां हैं।कौन सी हैं? शोक,मोह,जरा,मृत्यु और भूख तथा प्यास और भी कई सारी परिस्थितियां हैं। लेकिन यहां केवल बड़े-बड़े नाम दिए हैं और हमारा जीवन इसी में गुजरता रहता हैं। हम हमारे जीवन को गवाते रहते हैं।क्या करते हुए?इन सब परिस्थितियों में गंवाते रहते हैं। क्या-क्या परिस्थितियां हैं।मैं दोबारा दोहरा रहा हूं। आप नोट कर सकते हैं।शोक,मोह,जरा,मृत्यु और भख-प्यास।देवता गन आगे कह रहे हैं कि इस शरीर में सात प्रकार के आवरण हैं और मैंने कहा कि आवरण हैं तो कोई पूछे कि किसके ऊपर आवरण हैं तो क्या कहोगे?किसको आच्छादित किया हैं इन सात अलग-अलग आवरनो ने?आत्मा को आच्छादित किया हैं। वैसे शरीर ही आत्मा को आच्छादित करता हैं।तो यह सात प्रकार के आवरण कौन-कौन से हैं?इससे यह भी पता चलता हैं कि यह शरीर किन तत्वों से बना हुआ हैं। उसकी भी सूची हैं। वह भी आगे आ रहा हैं। हम जब भोजन करते हैं तो भोजन से रस बनता हैं।लिख लीजिए। रस से रक्त बनता हैं। रस से मांस बनता हैं।और अस्थि बनती हैं अस्थि मतलब हड्डियां बनती हैं। चार हो गए ना? पांचवा हैं- मज्जा। और छटा हैं वीर्य और त्वचा।सातवां त्वचा हैं या हम भोजन करते हैं तो क्या-क्या होता हैं? भगवद्गीता 3.14 “अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः | यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः || १४ ||” अनुवाद सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है | वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है | हम अन्न से ही बनते हैं।अन्न खाने के बाद क्या-क्या होता हैं?यह शरीर बनता हैं।अन्न से रस बनता हैं और रस से रक्त बनता हैं,मांस बनता हैं,अस्थि बनती हैं, मज्जा बनती हैं, वीर्य बनता हैं और फिर त्वचा।इस तरह यह सात प्रकार के आवरण होते हैं।अगला हैं- अष्ट विटपो।इस वृक्ष की 8 प्रकार की शाखाएं हैं।इससे तो आप परिचित ही हो।भगवान ने गीता में कहा हैं कि यह शरीर 8 तत्व से बना हैं।पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार। और पंचमहाभूत हैं। पृथ्वी,अग्नि,जल,आकाश और वायु।इन्हें वृक्ष की 5 शाखाएं कहा गया हैं। इससे स्थूल शरीर बनता हैं और सूक्ष्म शरीर में हैं- मन,बुद्धि और अहंकार।यह 5 और 3, 8 हो गए।गीता का श्लोक भी आप याद कर सकते हैं। BG 7.4 “भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च | अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || ४ ||” अनुवाद पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं | यह मेरी प्रकृति हैं और यह भिन्न प्रकृति हैं। तो 8 शाखाएं बताई गई हैं। फिर अगला हैं-नवाक्ष:।अक्ष: मतलब आख भी हो सकता हैं। नो छिद्र हैं।जैसे अगर कोई पुराना प्राचीन वृक्ष हैं, तो उसे पोखर कहते हैं। उसमें पंछी अपना घोंसला बनाते हैं या सांप वगैरा भी उस में विश्राम करते हैं।तो इस शरीर में 9 प्रकार के छिद्र हैं। कौन से हैं? गुरुप्रसाद अभी उन दो छिद्रो को साफ कर रहे थे।यहां छिद्र कहा हैं। गीता में इसे कृष्ण ने कहा हैं-नवद्वारे पुरे देही BG 5.13 “सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी | नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् || १३ ||” अनुवाद जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है | यहा देवता शरीर की तुलना वृक्ष के साथ कर रहे हैं। लेकिन शरीर को तो वस्त्र भी कहा हैं या कहीं कहीं पर शरीर को घर भी कहा हैं। कृष्ण ने गीता में कहा हैं कि इस घर के 9 द्वार हैं।इस शरीर में 9 द्वार हैं। जैसे घर में द्वार होते हैं। आगे पीछे का और खिड़कियां भी होती हैं। तो हमारे शरीर में 9 द्वार हैं।9 की बात चल रही हैं, तो दशावतार प्रभु बता सकते हैं कि 9 द्वार कौन-कौन से हैं।आपको नहीं पता क्या?यह आपका शरीर हैं, पिछले 50 साल से इस शरीर में रहते हो तो आपको पता नहीं हैं कि किसका कौन कौन सा द्वार हैं।यह भी नहीं भागवतम् में समझाया हैं कि कुछ द्वार हमारे शरीर के पूर्व दिशा में हैं। मान लो कि यह शरीर एक घर हैं, तो जैसे घर की भी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा होती हैं। इस घर में पूरब दिशा में 5 द्वार हैं। यह मुख पूर्व दिशा में है और यहां पांच गेट हैं। 9 में से 5 दरवाजे तो पूरब दिशा में हैं। कौन-कौन से?दो आंखें,दो नासिकाएं और मुख। हो गए ना 5। दाहिना कान भी एक गेट हैं। एक दरवाजा हैं। यह दक्षिण दिशा हैं। संस्कृत में दक्षिण मतलब दाहिना भी होता हैं। राइट को दक्षिण कहते हैं और दूसरा कान उत्तर दिशा में तो यह 7 द्वार हो गए।बच गए कितने? दो।यह पूरब हैं तो दूसरी कौन सी दिशा हैं?पश्चिम दिशा होती हैं। एक गुद द्वार हैं तो दूसरा जननेंद्रिय हैं। सभी शरीरों में यह सब होता हैं। आप भारत के हैं या भारत के बाहर के हैं कोई फर्क नहीं पड़ता। एक ही भगवान हैं।एक ही भगवान की सृष्टि हैं। कोई अंतर नहीं हैं। सभी शरीरों में यह 9 प्रकार के द्वार हैं। घर हो तो दरवाजा भी होना चाहिए, नहीं तो कोई भी घुस सकता हैं। बुद्धि का उपयोग करते हुए जब चाहे तब ही हमें दरवाजे को खोलना चाहिए,अन्य समय पर बंद रखना चाहिए। जो योगी होते हैं वह बुद्धि से काम लेते हैं कि कब इंद्रियों का प्रयोग करना हैं या नहीं करना हैं। कब द्वार को खोलना हैं और कब बंद रखना हैं। जैसे कछुआ होता हैं। जब कछुए को कोई खतरा लगता हैं तो वह अपने हाथ और पैर को अंदर सिकोड लेता हैं। उसका शरीर भी इसी प्रकार से होता हैं कि जब भी कोई खतरा आए तो हाथ पैर को अंदर कर लेता हैं। उसी प्रकार से योगी भी हैं। योगी भी वैसे ही करते हैं। खतरा या इंद्री का विषय सामने आ जाए तो वहां से चले जाएंगे या आंखों को बंद कर लेंगे।हरि हरि। आपको पता तो होना चाहिए कि कौन-कौन से द्वार हैं और उन्हें कब खोलना और बंद करना हैं। कौन शत्रु हैं और कौन मित्र हैं।शत्रु प्रवेश कर रहा हैं या मित्र प्रवेश कर रहा हैं। हरि हरि। देखने की चीज देख रहे हैं या कोई खराब चीज देख रहे हैं। हरि हरि गौरंग और फाइनल आइटम हैं शरीर की 10 पत्तियां हैं। पेड़ हैं तो 10 प्रकार की पत्तियां भी हैं। इसका तो हमको पता ही नहीं हैं। शरीर में 10 प्रकार के वायु विद्यमान हैं। उनका भ्रमण चलता रहता हैं। पांच प्रकार के वायु ऊपर की ओर और पांच प्रकार की वायु नीचे की ओर। उनका भम्रन चलता रहता हैं। व्यान,अपान, आदि आदि और इन वायु का बहुत बड़ा रोल हैं हमारे जीवन में। इसे वात भी कहा गया हैं।कफ,पित,वात हैं। शरीर में मल मूत्र विसर्जन जैसे बहुत से कार्य इस बात के चलाएं मान होने से होते हैं। BG 15.14 “अहं वैश्र्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः | प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् || १४ ||” अनुवाद मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचन-अग्नि (वैश्र्वानर) हूँ और मैं श्र्वास-प्रश्र्वास (प्राण वायु) में रह कर चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ । मैं वेशनावर के रूप में पेट में और जठर मैं प्रवेश करता हूं और आपने तो भोजन खा लिया लेकिन उस भोजन को पचाएगा कौन? उसके लिए कृष्ण गीता में कहते हैं कि पान,अपान 10 प्रकार की वायु हैं, जिसका विभाजन दो प्रकार में हुआ हैं। पान और अपान। तो पान और अपान का संतुलन भगवान करते हैं,जिससे जठराग्नि उत्पन्न होती हैं। आपने भोजन खाया हैं, उसे मैं पचाता हूं।इस प्रकार हमारे शरीर में वायु के बहुत सारे कार्य हैं। इसके बिना शरीर काम नहीं करता। इसको 10 पतियां कहां हैं। यह शरीर एक आदि वृक्ष हैं। इसमें दो पक्षी बैठे हैं।यह बात कठोपनिषद में भी कही गई हैं। प्रभुपाद कई बार इसे कोट करते रहते हैं। तो इस वृक्ष में दो पक्षी बैठे हैं। एक आत्मा हैं और दूसरा परमात्मा हैं और यह बस आत्मा इस शरीर के फल खाता रहता हैं। कभी कड़वे फल होते हैं तो कभी मीठे फल होते हैं। लेकिन परमात्मा यह फल वगैरह नही खाते हैं।केवल साक्षी बने रहते हैं। परमात्मा तो केवल साक्षी हैं और यह बद्ध जीव भोग भोक्ता रहता हैं। कभी स्वर्ग जाता हैं, तो कभी पाताल जाता हैं। इस प्रकार इस वृक्ष में दो पक्षी हैं। BG 15.15 “सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ ||” अनुवाद मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ | परमात्मा के रूप में सभी के ह्रदय प्रांगण में मैं रहता हूं और परमात्मा के साथ आत्मा भी रहता हैं और हमारी जानकारी के लिए देवताओं ने यह सब बातें कही हैं। यह बस एक ही वचन हैं और एक ही वचन में उन्होंने क्या-क्या नहीं कह दिया।कुछ ही शब्दों में इतना सारा ज्ञान भरा पड़ा हैं। यही शास्त्रों की शैली हैं। इसे सूत्र कहते हैं। कोड लैंग्वेज।हमारे आचार्य और गुरुगन इसको हमें दिखाते हैं। एक वचन में कितना सारा ज्ञान भरा हुआ हैं। ठीक हैं। यही रुकेंगे। हरे कृष्णा।

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