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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक १० अप्रैल २०२१ हरे कृष्ण! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ७६५ स्थानों से जो भक्तगण जप कर रहे हैं, उन सबकी जय हो अर्थात आप सब की जय हो जो इस जपा सेशन और जपा टॉक में सम्मिलित हुए हैं। हरि! हरि! आप तैयार हो? सावधान! तैयार अर्थात मन की भी तैयारी होना। अपने मन को स्थिर करो। सुनने के लिए दृढ़ निश्चयी बनो। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह महामन्त्र सुनने के लिए भी दृढ़ निश्चयी बनो। हम इसे ध्यानपूर्वक जप करना कहते हैं। ध्यानपूर्वक जप तब होगा, ( अभी तो आप कुछ कर ही रहे हो, जप चल ही रहा है)। आप श्रवण का कुछ सुन सकते हो। हम विषय बदलने के लिए नहीं कह सकते, विषय तो कृष्ण ही रहेगा। जब हम भी जप करते हैं अथवा जपा टॉक करते हैं, तब विषय तो कृष्ण ही होते है। वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.१३१) तात्पर्य अनुसार- " वैदिक साहित्य में, जिसमें रामायण, पुराण तथा महाभारत सम्मिलित हैं, आदि से लेकर अंत तक तथा बीच में भी केवल भगवान् हरि की ही व्याख्या की गई है।" हमारा ध्यानपूर्वक जप तब होगा, जब निश्चयपूर्वक जप किया जाएगा अर्थात जब हम निश्चयपूर्वक जप करेंगे तभी हमारा ध्यानपूर्वक जप होगा। इस पर भी सोचो। क्या आप इसे समझ पाए। क्या आप इससे सहमत है?आप को यह बात मंजूर है? मंजूर हो या नहीं हो,सत्य तो है ही। फिर आपकी मर्जी, लेकिन ध्यानपूर्वक जप करना है तो निश्चय पूर्वक जप करना ही होगा। हमें निश्चयपूर्वक या उत्साह पूर्वक कहना होगा। उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।। ( श्री उपदेशामृत श्लोक सख्या ३) अनुवाद:- शुद्ध भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं: १) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना ( ३) धैर्यवान होना( ४) निमायक सिद्धांतो के अनुसार कर्म करना ( यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं- कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगति छोड़ देना तथा(६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिन्हों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्संदेह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं। ये तीनों बातें आ गयी। उत्साह होना चाहिए, निश्चय होना चाहिए, धैर्य होना चाहिए। तत्पश्चात हमें समझना चाहिए कि निश्चय क्या होता है? हम निश्चयी कैसे बन सकते हैं, उत्साह में वर्धन कैसे बढ़ा सकते हैं, धैर्यवान कैसे बन सकते है? धीर, सोबर, धैर्य। धैर्य में स्थर्य भी है। ये अच्छे शब्द हैं। एक शब्द है क्षुब्धता और दूसरा शब्द स्तब्धता है। जैसे समुन्दर में ऊपर से लहरे तरंगे औऱ कभी कभी सुनामी भी आ जाती है, समुंदर आन्दोलित हो जाता है। उसको क्षुब्धता कहा जाता है । जैसे राम ने अपना धनुष बाण उठाया। वे समुंदर को डरा रहे थे क्योंकि समुंदर पार करने में कुछ सहायता नहीं कर रहा था। उस समय समुंदर भयभीत हुआ और क्षुब्ध हुआ। वैसे ही हमारा मन भी क्षुब्ध होता है। हमारे मन की स्थिति क्षुब्ध हो जाती है लेकिन उसी समुन्दर में जब हम गहराई में जाएंगे। वहां समुंदर स्तब्ध होता है अथवा स्थिर होता है, लगता है कि वह ना हिल और न ही डुल रहा है। हम आपको समझा रहे हैं कि यह क्षुब्धता क्या होती है? और स्तब्धता क्या होती है? हमारा मन स्वभाव से चंचल अथवा क्षुब्ध होता है, उसको स्थिर अथवा स्तब्ध बनाना है अथवा स्तम्ब जैसा बनाना है, स्तंभित होना है। भक्ति के अष्ट विकार अथवा लक्षण हैं। विकार का अर्थ कोई खराब चीज नहीं है। भक्ति करने से कुछ बदलाव आ जाते हैं। भक्ति दिखती है, उसमें एक स्तंभित होना भी हैं। महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ ( श्री श्री गुर्वाष्टक) अर्थ:- श्रीभगवान्‌ के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। जैसे शरीर में रोमांच या रोंगटे खड़े हो जाना इत्यादि इत्यादि ये बदलाव है। रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो - उसी के अंतर्गत एक स्तंभित होना है। स्तंभ अर्थात खंबा। खंभे का क्या वैशिष्ट्य होता है? वह स्थिर रहता है। वह हिलता डुलता नहीं है। भक्ति करते करते स्तंभित होना, वह भक्ति करने वाले साधकों की सिद्धि भी है। साधना की सिद्धि है। क्षुब्धता से स्तब्धता तक। स्तंभित होना अर्थात अपलक नेत्रों से देखना और देखते ही रहना। ना हिलना और ना ही डुलना है, ऐसी भी एक स्थिति है। मन की स्थिति या भावों का ऐसा प्रदर्शन हो जाता है। करना नहीं पड़ता है, यह स्वभाविक है। मन में वैसे स्तंभित हुए हैं। उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।। ( श्री उपदेशामृत श्लोक सख्या ३) यह बात नहीं है तो नहीं है, यह बात आपके लिए नहीं होनी चाहिए। यह बात रूप गोस्वामी प्रभुपाद (उनको भी प्रभुपाद कहते हैं, वैसे कईयों को प्रभुपाद कहते हैं) रूप गोस्वामी प्रभुपाद अपने उपदेशामृत नामक ग्रंथ में लिखते हैं ( क्या नाम सुना है, यदि नहीं सुना तो फिर आपने क्या सुना है?)रूप गोस्वामी इस उपदेशामृत नामक ग्रंथ में जो बातें कह रहे हैं, वही हम आपको सुना रहे हैं। इसके पहले जो चार श्लोक हैं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण श्लोक हैं। हरि! हरि! आप उसे देख लेना और पढ़ लेना। बहुत छोटा सा ही ग्रंथ है। कुल ग्यारह श्लोकों में यह ग्रंथ पूरा हो गया है। यह सारे उपदेशों का सार भी है। उसमें से एक वचन अथवा एक श्लोक षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति भी है। षड् मतलब 6 और उसका बहुवचन षड्भि है। इन छह बातों से अथवा यह करने से अर्थात ऐसी भक्ति करने से व्यक्ति सिद्धि प्राप्त करता है अथवा विशेष सिद्धि को प्राप्त करता है या सर्वोच्च सिद्धि को प्राप्त करता है। इन 6 बातें को करने से प्रसिध्यति होती है। उन 6 बातों में से ये 3 बातें उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् है। हम भक्त हैं। हो या नहीं? मैंने नहीं कहा कि मैं भक्त हूँ, मैंने कहा कि हम भक्त हैं, हम में आप भी आ गए। ऐसे सारे जीव भक्त हैं। सभी जीव भगवान् के भक्त हैं। आप जीव हो या नहीं? एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ ( श्रीभगवतगीता ३.१६) अनुवाद:- हे प्रिय अर्जुन! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है | ऐसा व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है। जो जीवित है, वह जीव है। जीवन का लक्षण जिसमें है, वो जीवित है। आप भी भक्त हो। हम भक्ति कर रहे हैं। वैसे हम साधक भक्त हैं लेकिन अभी तक साधना सिद्ध भक्त नहीं हुए हैं लेकिन साधना सिद्ध बनना चाहेंगे। नाम तो साधना सिद्ध है लेकिन हमें साधना करके सिद्ध होना हैं। साधना के अंतर्गत ही ये सब उत्साहित होने की साधना आती है। साधन और साध्य ऐसा भी संबंध है। साधन और साध्य इन दोनों का घनिष्ठ संबंध होता है। हम साधन से ही साध्य को प्राप्त करते हैं। हमें इसे साध्य करना है। यह हमारा साध्य अथवा लक्ष्य है। इसलिए उचित साधनों व उपकरणों का उपयोग करना होगा, साधना को अपनाना होगा जिससे हम सिद्ध बनेंगे व साध्य को प्राप्त करेंगे। यह साधन है- उत्साह, निश्चय, धैर्य। ऐसा उपदेश है कि यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो साधना में सिद्धि प्राप्त होने वाली नहीं है। श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद ऐसा समझा रहे हैं। आप साधना में सिद्धि प्राप्त करना चाहते हो, लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हो, लक्ष्य तो भगवान् हैं। कृष्ण लक्ष्य है या हम कहते हैं कि कृष्ण प्रेम लक्ष्य है। कृष्ण लक्ष्य हैं या कृष्ण प्रेम लक्ष्य है, एक ही बात है। हमें भक्ति को प्राप्त करना है। यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे जो महामन्त्र कहते हैं (जो सच है, वही कहते हैं) यह महामन्त्र का जप साधन भी है और साध्य भी है। बड़ी विचित्र बात है कि यह साधन भी है और साध्य भी है। साधन है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे और साध्य है हरे कृष्ण हरे कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे ये एक प्रसिद्ध बात है, एक बार जब प्रभुपाद से पूछा गया कि प्रभुपाद, आप जप करते हो, आप जप करते हुए क्या प्राप्त करना चाहते हो, जप करने का फल क्या है? क्या होना चाहिए। जप करने का परिणाम क्या होना चाहिए? साध्य क्या है? तब प्रभुपाद ने कहा- 'मोर चेंटिंग' मैं जप कर रहा हूँ, यह साधन है। साधन करते करते और अधिक जप व कीर्तन करने की इच्छा जग ही रही है अथवा बढ़ ही रही है। ऐसा नहीं हैं कि इस महामन्त्र के कुछ साधन व सोपान बनाकर हमें और कुछ प्राप्त करना है या महामन्त्र के परे पहुंचना है, महामन्त्र के परे तो कुछ है ही नहीं। भगवतधाम में भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे है। यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण आपका पीछा नहीं छोडगा। हम जप करते करते मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होने का अर्थ क्या है? १६ माला समाप्त हो गयी। मेरी ड्यूटी हो गयी। अंततः मैंने १६ माला जप कर लिया। यह महामन्त्र का जप कीर्तन साधन अथवा साध्य है। नहीं! हम यहां भी हरे कृष्ण महामन्त्र का जप व कीर्तन करेंगे, वहां भी करेंगे। भगवतधाम लौटेंगे, वहां पर भी यही करना है। ये शाश्वत विधि है। भक्ति शाश्वत है तो यह विधि भी शाश्वत है। आप साधक के रूप में साधना कर रहे हैं। यदि सिद्ध हो गए तो यही करना है। जप में रुचि बढ़ रही है। हम जप से आसक्त हो रहे हैं। हम में जप करने से भाव उदित हो रहे हैं अर्थात हम कॄष्ण प्रेम का अनुभव कर रहे हैं, यह भी सिद्धि ही है। यह सब श्रद्धा से प्रेम तक के सोपान हैं। जिसके विषय में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने माधुर्य कादम्बिनी नामक ग्रंथ में समझाया है। उसकी भी चर्चा होती ही रहती है व होनी ही चाहिए और हमें समझना चाहिए। हम एक सोपान से दूसरे सोपान तक पहुंच गए हैं, वह भी सिद्धि ही है। हम श्रद्धा के साथ जप कर रहे थे और अब निष्ठा के साथ जप कर रहे हैं। यह सिद्धि है। पहले हम लोग श्रद्धावान ही थे। अब हम निष्ठावान बन गए हैं। यह प्रगति है। व्यक्ति निष्ठावान कब बनता है? जब उसकी अनर्थो व पापों से निवृत्ति होती हैं। पापाची वासना नको दावू डोळां, त्याहूनी आंधळा बराच मी II निंदेचे श्रवण नको माझे कानी, बधीर करोनी ठेवी देवा II अपवित्र वाणी नको माझ्या मुखा, त्याहूनी मुका बराच मी II नको मज कधी परस्त्रीसंगती, जनातून माती उठता भली II तुका म्हणे मज अवघ्याचा कंटाळा, तू ऐक गोपाळा आवडीसी II ( सन्त तुकाराम) अनुवाद:- हे भगवान, इस दुनिया के पापों की देखने के लिए गवाह न बनने दें, बेहतर होगा कि मुझे अंधा बना दें; मैं किसी की बीमारी न सुनूं, मुझे बहरा बना दें; पापी शब्दों को मेरे होंठों से बचने दें, मुझे बेहतर गूंगा बना दें; मुझे दूसरे की पत्नी के बाद वासना न करने दें, बेहतर है कि मैं इस धरती से गायब हो जाऊं। तुकाराम जी कहते है; मैं दुनियादारी से हर चीज से थक गया हूं, मुझे अकेलापन पसंद है। हे गोपाल। जब अनर्थ निवृत्ति होती है तब हम अपराधों से बचते हैं व अपराधों से बचने का प्रयास करते हैं। हमें सफलता मिल रही है। निष्ठावान बनने के लिए साधु सङ्ग भी चाहिए। आदौ श्रद्धा ततः साधु-सङ्गोअ्थ भजन क्रिया। ततोअनर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः।। अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति। साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भाव भवेत्क्रमः।। ( भक्तिरसामृतसिंधु १.४.१५-१६) अनुवाद:- सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है। तत्पश्चात वह गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि- विधानों का पालन करता है। इस तरह वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। इसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। यह साधन भक्ति का मार्ग है। धीरे धीरे भाव गहन होते जाते हैं और अंत में प्रेम जागृत होता है। कृष्ण भावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए भगवतप्रेम के क्रमिक विकास की यही प्रक्रिया है। हम साधु सङ्ग कर रहे है। साधु सङ्ग प्राप्त होना भी सिद्धि है। 'साधु- सङ्ग',साधु- सङ्ग',- सर्व शास्त्रे कय। लव मात्र साधु- सङ्गे सर्व- सिद्धि हय।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.५४) अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण- भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है। ऐसा नहीं है कि हमें किसी अवस्था में साधु सङ्ग की आवश्यकता नहीं होगी कि मैं निष्ठावान हो गया हूँ। मुझे अब साधु सङ्ग की कोई आवश्यकता नहीं हैं। यह एक गलत धारणा है। साधु सङ्ग अर्थात भक्तों के सङ्ग की आवश्यकता हमें साधन के अन्तर्गत भी है। हम साधक हैं, हमें साधुसंग चाहिए। यदि हम सिद्ध भी हो गए या हम कह भी सकते हैं तब भी साधुसंग चाहिए।यह साधू सङ्ग जो साधन है इसका लक्ष्य और अधिक साधु सङ्ग है। जैसे हम भगवतधाम में जाएंगे, वहां भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण है। भगवतधाम में जाएंगे, वहां भी साधु ही साधु हैं। यहां तो थोड़े ही साधू हैं। वहां हर व्यक्ति साधु है। कोई बदमाश या मूर्ख नहीं है। वहां तो साधु ही साधु हैं। यदि आपको साधु सङ्ग अच्छा नहीं लगता तो भूल जाओ, तब वैकुण्ठ या गोलोक प्राप्ति आपके लिए नहीं है। वहां केवल भगवान ही प्राप्त नहीं होने वाले हैं। भगवान् के भक्त भी प्राप्त होंगे। साधु सङ्ग साधन भी है और साध्य भी है। यदि ऐसे सन्तों का सङ्ग करते जाएंगे तब वे हमें भजन करने में प्रेरणा देते हैं। साधु अपना आदर्श हमारे समक्ष रखते हैं। तब हम प्रेरित होते हैं। साधु सङ्ग से फिर भजन क्रिया अर्थात अधिक अधिक भजन करेंगे या वे हमें इशारा भी कर सकते हैं। हे प्रभु! मुझ से अपराध हो रहा है या तुम साधु निंदा कर रहे हो। इत्यादि इत्यादि। शास्त्र तो नहीं कहेंगे लेकिन साधु कहेंगे। हम से कोई अपराध हो रहा है लेकिन व्यवहारिक जीवन में कुछ नाम अपराध हो रहे हैं। यदि साधु की संगति है तब साधु विधि- निषेध दोनों बताएंगे। यह करो , यह मत करो। करो। यह मत करो। भजन क्रिया तत्पश्चात अनर्थ निवृत्ति होगी तत्पश्चात हम निष्ठावान हो गए। निष्ठावान हो गए अर्थात हमारे जीवन में स्थर्य आ गया। हमारे मन में स्थर्य आ गया। इसी को निष्ठावान कहा गया है। यहाँ से हम पीछे नहीं मुड़ेंगे। हम जब निष्ठावान बनते है तब हम यू- टर्न नहीं लेंगे। केवल आगे ही बढ़ेंगे। श्रद्वावान से निष्ठावान तक बढ़ेंगे। हरि! हरि! (मैं बहुत कुछ कह रहा हूँ, सब कुछ कहने का प्रयास भी चलता ही रहता है। अच्छा हो कि यदि हमारे पांच मुख होते तब कई सारे मुखों से एक साथ कई सारी बातें ही बातें कह ही सकते थे। यह भी सिद्धि ही है।) हम श्रद्वावान थे, पर अब निष्ठावान बन गए। यह सिद्धि है। अब निष्ठावान से और आगे बढ़े हैं और अब हरि नाम में रुचि बढ़ रही है, तो यह सिद्धि है। यदि हम हरिनाम से आसक्त हुए और हम से रहा नहीं जाता और हम प्रातः काल में अपनी मीठी नींद को त्याग कर अथवा ठकुरा कर दौड़ पड़ते हैं कि मेरी जपमाला कहां है, जपा सेशन शुरू होने जा रहा है? हमारी रुचि बढ़ेगी तो हम दौड़ पड़ेंगे और जब उत्साह के साथ जप करेंगे तो यह भी सिद्धि है। इस प्रकार यह अलग-अलग सोपान, स्तर व लेवल हैं। साधु सङ्ग से भजन क्रिया वह भी सिद्धि है। भजन क्रिया से अनर्थ निवृत्ति वह भी सिद्धि है। हम निष्ठावान बन गए तब सिद्ध हो गए। अगर रुचि बढ़ रही है तो सिद्धि है। आसक्त हो गए तो भी सिद्धि है। कुछ भाव उदित हो रहा है, कुछ आशा की किरण दिख रही है भाव और प्रेम यह भी अलग-अलग सिद्धि के ही स्तर हैं। इस प्रकार प्रतिदिन हम ऐसी साधना करेंगे। उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।। जो भी साधु बताएंगे कि यह नवधा भक्ति है, यह भक्ति करो। ऐसे कार्य करो, ऐसी सेवा करो। तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो अर्थात असत सङ्ग को त्याग दो। असत्सङ्ग-त्याग,-एइ वैष्णव-आचार। 'स्त्री- सङ्गी एक असाधु, ' कृष्णभक्त' आर्।। ( श्रीचैतन्य- चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.८७) अनुवाद:- वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रियों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कॄष्ण भक्त नहीं हैं। आप लिख लो, नोट करो कि वैष्णव की क्या पहचान है? असत्सङ्ग-त्याग, अर्थात जो असत्सङ्ग को त्यागता है- हो सकता है कि अपने घर वाले ही असत्सङ्ग प्रदान करने वाले हो, थोड़ा सा और कम से कम मन में आप उनसे दूर रहो। इमोशनली( भावनात्मक) कहो या मेंटली (मानसिक) रूप से आप दूर रह सकते हो, तो रहो। यदि पड़ोसियों या आफिस के साथियों का संग, उसका संग, इसका सङ्ग बेकार का है मायावी व दानवी है।असत्सङ्ग-त्याग करो। आपको स्वयं निरीक्षण करना होगा कि मैं किस-किस के संग में आता हूं। मुझे किस किस के साथ डील करना पड़ता है? उनका संग सत् है या असत् है? असत् है तो सावधान। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते अर्थात तब संत महात्मा, आचार्य के चरण कमलों का अनुसरण करो। वैसी वृति को अपनाओ ।वृति और प्रवृत्ति। उपदेशामृत के उस श्लोक को पढ़िए। जिससे षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति हो जाए। (थोड़ा-थोड़ा संस्कृत भी सीखो) यह षड्भि बहुवचन है। इन छह बातों को अपनाने अथवा करने से षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यतिअर्थात हम भक्ति व साधना में सिद्धि प्राप्त करेंगे। जप करने में सिद्धि क्या है? यह भी आप समझ गए की उसकी सिद्धि क्या है। आप सभी ऐसे सिद्ध महात्मा बनो, प्रयास करो। प्रयास तो करना ही होगा। संस्कृत में एक कहावत है- उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः! न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।। ( हितोपदेश) अनुवाद:- जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुँह में मृग स्वयं नहीं प्रवेश करता है, उसी प्रकार केवल इच्छा करने से सफलता प्राप्त नहीं होती है अपने कार्य को सिद्ध करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है । सिंह जो वनराज (केशवी) कहलाता है, वो राजा हुआ तो क्या हुआ। जब उसको भी भोजन करना होता है तब केवल वह अपना मुख खोल कर बैठ नहीं सकता। प्रविशन्ति मुखे मृगा: - उस वनराज के मुख में मृग या पशु पक्षी स्वयं प्रवेश नहीं करते, उस वनराज को भी उठना पड़ता है अथवा दौड़ना पड़ता है व शिकार करना पड़ता है। वह भी कभी सफल तो कभी असफल हो जाता है लेकिन प्रयास के बिना कुछ प्राप्त नहीं होता। कुछ तो प्रयास करना ही होगा। लगे रहिए और प्रयास कीजिए। कहा भी है कि भगवान उनकी मदद करते हैं जो स्वयं अपनी मदद (सहायता) उत्साह के साथ करते हैं। भगवान् ऐसे साधक के कार्य, उत्साह, निश्चय, धैर्य को देखकर सहायता करते हैं अर्थात भगवान् उनकी मदद करते हैं जो प्रयास कर रहे हैं। ठीक है। हरे कृष्ण!

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