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जप चर्चा
दिनांक ०६.०२.२०२१
पंढरपुर धाम से
हरे कृष्ण!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥
कहिए। महामन्त्र नहीं, अभी हमनें दूसरा मंत्र कहा। राधाकुंड सुन रहे हो? हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेस में 740 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हरि! हरि!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥
कृपा करि’ सबे मेलि’ करह करुणा। अधम पतितजने ना करिह घृणा॥2॥
ए तिन संसार-माझे तुया पद सार। भाविया देखिनु मने-गति नाहि आर॥3॥
से पद पाबार आशे खेद उठे मने। व्याकुल हृदय सदा करिय क्रन्दने॥4॥
कि रूपे पाइब किछु ना पाइ सन्धान। प्रभु लोकनाथ-पद नाहिक स्मरण॥5॥
तुमि त’ दयाल प्रभु! चाह एकबार। नरोत्तम-हृदयेर घुचाओ अन्धकार॥6॥
अर्थ
(1) श्रीचैतन्यमहाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो।
(2) कृपा करके सब मिलकर मुझपर करुणा कीजिए। मुझ जैसे अधम-पतित जीव से घृणा मत कीजिए।
(3) मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि तीनों लोकों में आपके चरणकमलों के अतिरिक्त और कोई आश्रय स्थान नहीं है।
(4) उन श्रीचरणों की प्राप्ति के लिए मेरा मन अति दुःखी होता है और वयाकुल होकर मेरा हृदय भर जाता है। अतः मैं सदैव रोता रहता हूँ।
(5) उन श्रीचरणों को कैसे प्राप्त करूँ इसका भी ज्ञान मुझे नहीं है और न ही मेरे गुरुदेव श्रील लोकनाथ गोस्वामी के चरणकमलों का मैं स्मरण कर पाता हूँ।
(6) हे प्रभु! आप सर्वाधिक दयालु हैं। अतः अपनी कृपादृष्टि से एकबार मेरी ओर देखिये एवं इस नरोत्तम के हृदय का अज्ञान-अंधकार दूर कीजिए।
गिरिराज गोवर्धन तो ताली बजा रहे हैं। हरि! हरि!
सुर और ताल का मेल। सुर और ताल। हम मुख से सुर बोलते हैं और फिर हाथ से ताली बजाते हैं। हम वाद्य भी बजा सकते हैं। सुर और ताल का मेल लेकिन साथ में मन भी चाहिए। मन में भाव हो तब भक्ति पूरी हो जाती है।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानन्द भी कहा। कह तो दिया लेकिन कुछ हुआ? कुछ होना चाहिए। कुछ कुछ होता है। कुछ विचार, कुछ भाव उत्पन्न होने चाहिए। जैसे हम कहते हैं।
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज ने श्रीचैतन्य चरितामृत की रचना की है।
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज की जय!
वह। चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में लिखते हैं, यह एक प्रार्थना भी है या जयकार जयकार असो! या
विजयो असो!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द।।
गौर भक्त वृन्द की जय! केवल
भगवान् की ही जय नहीं या गौर नित्यानंद की जय नहीं या केवल पंचतत्व की जय नहीं, गौरभक्तवृन्द की जय!
श्री वासादि गौर भक्त वृन्द की जय! अर्थात श्रीवास और जो भी भक्त हैं, उनकी भी जय!
नरोत्तम दास ठाकुर का एक गीत है।
निताइ-पदकमल, कोटिचन्द्र-सुशीतल, जे छायाय जगत् जुडाय़। हेन निताइ बिने भाइ, राधाकृष्ण पाइते नाइ, दृढ करि’ धर निताइर पाय़॥1॥
से सम्बन्ध नाहि या’र, वृथा जन्म गेल ता’र, सेइ पशु बड़ दुराचार। निताइ ना बलिल मुखे, मजिल संसार सुखे, विद्या-कुले कि करिब तार॥2॥
अहंकारे मत्त हइया, निताइ-पद-पासरिया, असत्येरे सत्य करि’ मानि। निताइयेर करुणा ह’बे, ब्रजे राधाकृष्ण पाबे, धर निताइर चरण दु’खानि॥3॥
निताइयेर चरण सत्य, ताँहार सेवक नित्य, निताइ - पद सदा कर आश। नरोत्तम बड़ दुःखी, निताइ मोरे कर सुखी, राख राङ्गा-चरणेर पाश॥4॥
अर्थ
(1) श्री नित्यानंद प्रभु के चरणकमल कोटि चंद्रमाओं के समान सुशीतल हैं, जो अपनी छाया-कान्ति से समस्त जगत् को शीतलता प्रदान करते हैं। ऐसे निताई चाँद के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किये बिना श्रीश्री राधा-कृष्ण की प्राप्ति नहीं हो सकती। अरे भाई! इसलिए उनके श्रीचरणों को दृढ़ता से पकड़ो।
(2) उनसे जिसका सम्बन्ध नहीं हुआ, समझो कि उस पशु समान दुराचारी का जीवन व्यर्थ ही चला गया। यदि कोई सांसारिक विषय भोगों में प्रमत्त होकर निताई के नाम का उच्चारण नहीं करता, तो उसकी उच्च विद्या या उच्चकुल प्राप्ति से क्या लाभ?
(3) व्यक्ति अहंकार में मत्त होकर श्रीनित्यानंद प्रभु के चरणों को भूलकर, वह सांसारिक अनित्य विषयों को नित्य मानकर उनमें ही रमा रहता है। श्रीनित्यानंद प्रभु की कृपा होने पर ही व्रज में श्रीराधाकृष्ण की सेवा प्राप्त होगी। अतः उनके श्रीचरणों को पकड़े रहो।
(4) श्रीनित्यानंद प्रभु के चरण सत्य हैं, और उनके सेवक भी नित्य हैं। अतः उनके श्रीचरणों की सदा आशा करो। श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नित्यानंद प्रभु! मैं बहुत दुःखी हूँ, अतएव आप मुझे अपने श्रीचरणों में आश्रय प्रदान कर सुखी करें। ’’
आपने पहले इस गीत को सुना है? हां, सुना है। शांतरुपिणी ने सुना है। मुंडी तो हिला ही रही है, हिलानी पड़ती है। नही, कैसे कहेंगे। सुना है?उसमें क्या कहा है?
नित्यानंद प्रभु की जय!
उसमें नित्यानंद प्रभु के गुण गाए हैं।
बलराम होइले निताई।
बलराम जो आदि गुरु हैं अर्थात नित्यानंद प्रभु आदि गुरु हैं, वह गुरुओं के गुरु हैं।
अपनी आचरि जगत सिखाए
(श्रीचैतन्य चरित मंजूषा १.२२)
बलराम जी अपने आचरण से यह दिखाते हैं कि वे भगवान् की सेवा कर रहे हैं। बलराम, कृष्ण की सेवा कई प्रकार से करते हैं। बलराम कृष्ण के जूते बन जाते हैं, सारा ब्रज मंडल ही बलराम है। बलराम कभी भगवान के वस्त्र बन जाते हैं या कभी भगवान की मुरली बन जाते हैं। वे कभी भगवान का पलंग बन जाते हैं जिस पर कृष्ण लेटते हैं। कृष्ण जिस अनन्तशय्या पर लेटते हैं, वह अनन्तशय्या भी बलराम ही हैं। इस प्रकार बलराम अनेक प्रकार से कृष्ण की सेवा करते हैं। यह गुरु नित्यानंद, ये आदि गुरु बलराम, गौरांग की सेवा करते हैं या कृष्ण की सेवा करते हैं। वे आदि गुरु हुए। उनकी महिमा का गान नरोत्तम दास ठाकुर इस गीत में कर रहे है ।
निताइ-पदकमल, कोटिचन्द्र-सुशीतल,
नित्यानंद प्रभु के चरणकमल बड़े शीतल हैं। यह संसार कैसा हैं? संसार गरमागरम है।
यह संसार दावानल है। मंगला आरती जाते हो या नहीं? या मंगला आरती गाते हो? पहला शब्द आपके मुख से क्या निकलता है? संसार-
दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) कृपासिन्धु (भगवान्) से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। जिस प्रकार एक मेघ वन में लगी हुई दावाग्नि पर जल की वर्षा करके उसे शान्त कर देता है, उसी प्रकार श्री गुरुदेव सांसारिक जीवन की प्रज्वलित अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
संसार दावानल अर्थात संसार कैसा है? दावानल है। अनल अर्थात अग्नि। इस संसार को आग लगी है किंतु जो नित्यानंद प्रभु के चरणों या फिर समझना होगा कि जो हमारे गुरु चरणों या शिक्षा गुरु और दीक्षा गुरुओं के चरणों का आश्रय लेता है, वह कोटिचन्द्र-सुशीतल होगा अर्थात कोटि कोटि चंद्रमा की सुशीतलता का अनुभव करता है। हरि! हरि!
चैतन्य महाप्रभु ने श्री शिक्षाष्टकम में गाया हैं
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
( श्री शिक्षाष्टकम)
अनुवाद:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
इससे दावाग्नि का निर्वाण होगा। यह संसार दावानल कहिए या संसार दावाग्नि कहिए। अनल मतलब अग्नि। यह संसार दावानल अर्थात अग्नि है।चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं अर्थात
यह आग बुझ जाएगी। जिस जंगल में आग लगी थी और आग के कारण जंगल की राख बन गई थी, अब उस जंगल में क्या होगा?
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं
उसी जंगल में मंगल होगा। उसी जंगल में पुष्प खिलेंगे।
हमारे जीवन में जो आग लगी थी। अगर हम नित्यानंद प्रभु व, गुरुजनों के चरणों का आश्रय लेंगे तो निश्चित ही वे हमें बचाने वाले हैं, आदेश देने वाले हैं, यह करो और यह मत करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस महामन्त्र का कीर्तन करो।
नित्यानंद प्रभु के चरणों का आश्रय लो। उनके चरणों की सेवा मतलब उनकी वाणी की भी सेवा है। उनके चरणों की भी सेवा कर सकते हैं। पद प्रक्षालन कर सकते हो। नित्यानंद प्रभु के विग्रह के पदों का प्रक्षालन कर सकते हो।
अपने गुरुजन के चरणों का पाद प्रक्षालन कर सकते हो। वह भी आश्रय है किंतु मुख्य तो वपु सेवा और वाणी सेवा है। वपु अर्थात विग्रह या रूप की सेवा एवं वाणी की सेवा। हरि! हरि! आचार्यों ने महामंत्र का जप करने के लिए कहा अथवा शास्त्र के माध्यम से करने को कहा। शास्त्र भी भगवान की वाणी है। नित्यानंद प्रभु की वाणी है। साधु, शास्त्र और आचार्य वही बात हमें सुनाते हैं।दस अपराधों से बचो। वैष्णव अपराध से बचो, चार नियमों का पालन करो। संडे हो या मंडे (वैसे आज सैटरडे (शनिवार) है) खाते जाओ अंडे का निषेध है। मटनं चिकनं नहीं अपितु पत्रं पुष्पं फलं तोयं जैसे इन आदेशों का हम पालन करेंगे तो क्या होगा?
भवमहादावाग्नि-निर्वापणं होगा,
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं होगा।
उसी के साथ कोटिचन्द्र-सुशीतल अर्थात
शीतलता का कूलिंग इफेक्ट होगा। 'हॉट हेडिड' जरा अपने दिमाग का टेंपरेचर देख लो, वह गरम ही होता है। दिमाग गर्म होता है। दिमाग गर्म मत करो गरम होता ही है। कई लोग गरम करते ही रहते हैं। गर्मी बढ़ाते ही रहते हैं, फिर इसका उपाय क्या है? उपाय है- 'निताई पद कमल'
नित्यानंद प्रभु के चरणों का आश्रय।
हेन निताइ बिने भाइ, राधाकृष्ण पाइते नाइ, दृढ करि’ धर निताइर पाय़॥
नरोत्तम दास ठाकुर आगे लिखते हैं। हे भाइयों और हे बहनों, पुत्रों तथा पुत्रियों, हम नित्यानंद प्रभु की कृपा के बिना राधा कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकते।
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि। ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
आदि गुरु, नित्यानंद गुरु का ही प्रसाद हमें गुरुओं से प्राप्त होता है। हमें गुरु कृपा से राधा कृष्ण प्राप्त होंगे। तभी हमें राधाकृष्ण पाइते नाइ होगा अर्थात तभी हमें
राधाकृष्ण प्राप्त होंगे।
कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते।
नरोत्तम दास ठाकुर उस गीत में भी लिखते ही हैं।
गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य,
आर न करिह मने आशा।
श्रीगुरुचरणे रति, एइ से उत्तम-गति,
ये प्रसादे पूरे सर्व आशा॥2॥
अनुवाद:-मेरी एकमात्र इच्छा है कि उनके मुखकमल से निकले हुए शब्दों द्वारा अपनी चेतना को शुद्ध करूँ। उनके चरणकमलों में अनुराग ऐसी सिद्धि है जो समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है।
तत्पश्चात कृष्ण प्राप्ति होगी। नित्यानंद प्रभु के बिना राधा कृष्ण को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए दृढ करि’ धर निताइर पाय़। इसलिए दृढ श्रद्धा के साथ नित्यानंद प्रभु के चरण कमल को धारण करो। पकड़े रहो। श्रील प्रभुपाद के चरणों को पकड़ो या फिर जिन्होंने श्रील प्रभुपाद के चरणों को पकड़ा है, उनके चरणों को पकड़ो। तत्पश्चात आपके चरणों को कोई और पकड़ेगा। यह परंपरा है, ब्रह्मा पहले है जिन्होंने कृष्ण के चरण पकड़े हैं। इस प्रकार यह परंपरा की श्रृंखला, रस्सी अथवा डोरी भी है। हम उस रस्सी को पकड़ेंगे तो हमें खींचकर नीचे से ऊपर उठाया जाएगा। हम वापिस अपने घर अर्थात बैक टू गोड़हेड होंगे।
से सम्बन्ध नाहि या’र, वृथा जन्म गेल ता’र,
सेइ पशु बड़ दुराचार।
हमारा ऐसा संबंध नित्यानंद प्रभु के चरणों के साथ गुरु परंपरा के साथ संबंध स्थापित हुआ है। वृथा जन्म गेल ता’र,
जिसने राधा कृष्ण को प्राप्त नहीं किया तो बेकार है। हरि हरि। सेइ पशु बड़ दुराचार जिसने अपना संबंध नित्यानंद प्रभु के चरणों को अर्पित नहीं किया है, वह पशु है।
वे पशु ही हैं, बड़े दुराचारी पशु हैं। वे दुराचारी या अनाचारी या व्यभिचारी होंगे अथवा दुष्ट आचरण करने वाले होंगे। उनका पशुवत जीवन है।
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः
जिसने नित्यानंद प्रभु के चरणों का आश्रय नहीं लिया है, नित्यानंद प्रभु के कहे हुए वचन शास्त्रों में लिखे हुए हैं और गुरुजन उनको सुनाते हैं। यदि हम उन विधि निषधों का पालन नहीं करेंगे और हम धर्म का ही पालन नहीं करेंगे फिर क्या होगा? तब हमारा जीवन पशुवत् है
आहरनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।( हितोपदेश)
अनुवाद:- मानव व पशु दोनों ही खाना, सोना, मैथुन करना व भय से रक्षा करना इन क्रियाओं को करते हैं। परंतु मनुष्यों का विशेष गुण यह है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन का पालन कर सकते हैं। इसीलिए आध्यात्मिक जीवन के बिना मानव पशुओं के स्तर पर है।
पशु और नर दोनों के ये ही क्रियाकलाप रहते हैं अर्थात संसार क्या कर रहा है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन। हम आहार की व्यवस्था पेट की पूजा कर रहे हैं। कुछ लोग तो विठोबा तक पहुंचते ही नहीं। पांडुरंग! पांडुरंग! पांडुरंग! हम उनकी पूजा नहीं करते। बस पेट की पूजा कर रहे हैं। हम पेट भर रहे हैं। पशु तो पेट ही भरता है और कुछ नहीं करता। पेट कभी भरता है क्या? पेट कभी भरता है? भरता है तो डाउनलोड भी होता है अर्थात खाली हो जाता है। क्या कभी किसी का पेट भरा है? पेट भरना है तो आत्मा का पेट भरो। जिससे हम सदा के लिए तृप्त हो जाएंगे। इस शरीर में जो पेट है उसको हम भरते भरते मर जाते हैं, तत्पश्चात दूसरा शरीर मिलता है, दूसरे शरीर में क्या होता है? फिर उसका भी पेट होता है। चींटी का भी पेट है और हाथी का भी पेट है। हर योनि में ही पेट भरने का काम होता है। केवल पेट भरने का ही नहीं सोने का भी काम होता है। भालू आदि छह महीने सो जाते हैं आपको सोना अच्छा लगता है तो ठीक है। आपको भालू का शरीर मिल सकता है। आराम से 6 महीने सो जाओ। नहीं तो वैसे भी आपने किसी ने सोचा या ग्रैंड टोटल किया है कि कितना समय आप लोग सोते हो। हम मनुष्य भी सोते हैं। पह्लाद महाराज अपने मित्रों से कह रहे थे। अगर हम मान ले कि हमारी उम्र 100 साल है लेकिन वैसे हम 100 साल तो जीते नहीं हैं, लेकिन अगर हम सौ साल जिये तो उसमें से आधा समय हम सोते हैं। पचास साल हम सोते हैं। 50 साल हम केवल सोने में बिताते हैं। कभी सोचा है आपने ? हम बाल अवस्था में इतना सोए, तत्पश्चात बड़े हुए तब हम इतना सोए, फिर बूढ़े हुए, फिर इतना सोए। लगभग आधा समय हमारा सोने में जाता है। इसके विषय में सोचिए। फिर उठते ही धन कहां है? धन कहाँ है? हमें धन किसके लिए चाहिए? निद्रया हि्रयते नक्तं व्यवायेन च वा वय:। दिवा चार्थेहया राजन कुतुम्बभरणेन वा
( श्रीमद् भागवतं २.१.३)
अनुवाद:- ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों के भरण- पोषण में बीतता है।
कुटुंब भरने, कुटुंब के पालन पोषण के लिए अर्थात आहार के लिए, निद्रा के लिए बीतता है। कितनी सारी व्यवस्था? बेड रूम, मास्टर एंड मिस्टर बेड। फिर हर एक को मास्टर बनकर मास्टर बेड चाहिए। कोई नौकर भी है। हर एक को मास्टर बेड चाहिए हरि! हरि!यह सोने की बहुत बड़ी व्यवस्था है। घर किसके लिए बनाते हैं? सोने के लिए बनाते हैं। घर किसके लिए बनाते है? खाने के लिए बनाते हैं। घर किसके लिए बनाते है? मैथुन के लिए बनाते हैं। घर किसके लिए बनाते हैं? रक्षा के लिए बनाते हैं। ठंडी, गर्मी, सर्दी, वर्षा, चोर इत्यादि से अपनी रक्षा करने के लिए हम घर बनाते हैं। हम गृहस्थ हो जाते हैं। अधिकतर ग्रहमेधी हो जाते हैं। घर का उपयोग क्या है? हम आहार के लिए घर का उपयोग, निद्रा के लिए घर का उपयोग, मैथुन के लिए घर का उपयोग और भय अथवा संकट से बचने के लिए घर का उपयोग करते हैं। इसके लिए पहले बाहर जाओ, धन कमाओ और तत्पश्चात घर आओ। फिर धन को खर्च भी करो। आहारनिद्राभय मैथुनं चः इसलिए सेइ पशु बड़ दुराचार। जिसने नित्यानंद प्रभु के चरणों के साथ अपना संबंध स्थापित नहीं किया है, वृथा जन्म गेल ता’र, उसका जन्म तो खाली फोकट है। उसकी तुलना तो यहाँ पशु के साथ की है।
निताइ ना बलिल मुखे, मजिल संसार सुखे,
विद्या-कुले कि करिब तार॥2॥
इसका भाष्य सुनाने के लिए समय नहीं है। आपने यह गीत सुना ही होगा निताई पद कमल। बचे हुए दो हम कल सुनाएंगे। इस पर विचार करो। विचार करके नित्यानंद प्रभु के चरणों का आश्रय लो या नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधियों का आश्रय लो। उनके चरणों की सेवा करो। चरणों की सेवा मतलब उनकी वाणी सेवा से है। हरि! हरि!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद श्रीअद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधित्व कृपामूर्ति ए.सी. भक्ति वेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय। प्रभुपाद ने क्या किया? प्रभुपाद ने गौर वाणी का प्रचार किया। उसी के साथ उन्होंने सारे संसार को बचाया और बचा रहे हैं।
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।
वैसे इस संसार के अधिकतर लोग नीडी (जरूरतमंद) या ग्रीडी(लालची) लोग हैं। हमें यह चाहिए, हमें वह चाहिए, हमें इसकी जरूरत है, उसकी जरूरत है। तत्पश्चात जरूरत से अधिक ही हमारी मांग हो जाती है। हम लोभी बन जाते हैं। यह लोभ भी हमारा शत्रु है और यह हमको व्यस्त रखता है। ऐसा जीवन तो पशु भी जीते रहते हैं। पशुओं की भी जरूरत होती है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन उनकी भी जरूरत है। जरूरतमंद बनने की बजाय...
मैं कुछ सुन रहा था, मुझे वह बहुत अच्छा लगा। वैसे वह हमारी परंपरा के नहीं है लेकिन यह वचन अच्छा था इसलिए भी मैं आपसे शीघ्र शेयर करना चाहता हूं। वह जरूरतमंद और लालची में अंतर बता रहे थे। आपको क्या चाहिए, इसकी जरूरत है, उसकी जरूरत है। ऐसा जीवन तो सारा संसार जीता ही रहता है। वह कह रहे थे कि औरों को मेरी जरूरत है। मुझे चाहिए, मुझे चाहिए अथवा मेरी चाह है। मेरी जरूरत है। मेरा स्वार्थ है। अकेले तो सारा संसार जीता ही रहता है परंतु यह जीवन हमें स्वार्थ के लिए नहीं अपितु परमार्थ के लिए जीना चाहिए। मुझसे औरों की क्या अपेक्षा है या मैं औरों के लिए क्या कर सकता हूं। मैं औरों पर कैसे उपकार कर सकता हूं। मैं औरों की कैसे सहायता कर सकता हूं। यह विचार या परिवार के सदस्य या समाज के लोग या मानव जाति या मेरे गुरुजन अथवा मेरे शिक्षा गुरु या मेरे दीक्षा गुरु अथवा वैष्णव या अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ अथवा यह जो संगठन है, उनको क्या चाहिए? उनके लिए मैं क्या कर सकता हूं ? उनको मेरी जरूरत है। मुझे इसकी जरूरत है, इस बात की बजाय औरों को मेरी जरूरत है। आपने सुन लिया। समझ लिया, वह क्या कह रहे थे। हमारी परंपरा में भी यह सब बातें हैं ही।
परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
यह शरीर परोपकार के लिए है।
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
परोपकार के लिए नदियां बहती हैं।परोपकार के लिए नदियां अपना जल औरों को पिलाती रहती हैं। परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकार के लिए ही वृक्ष अपना फल औरों को खिलाते हैं। वह औरों के लिए होते हैं। वृक्ष स्वयं फल नहीं खाता अपितु वह औरों को खिलाता है।
परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकार के लिए गाय दूध देती हैं।
परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥ यह शरीर परोपकार के लिए है।
इसीलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा-
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।जन्म सार्थक करि कर पर- उपकार।।
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक ९.४१)
अनुवाद:- जिसने भारत भूमि (भारतवर्ष) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।
चैतन्य महाप्रभु अर्थात स्वयं भगवान ने कहा है कि परोपकार करो। समस्या यह है कि हम समझते नहीं हैं। हम औरों का उपकार भी करना चाहते हैं। लेकिन कैसे उपकार करें, क्या करें? सच में उसको इसकी जरूरत है। यह नही जानते। वैसे हर आत्मा की जरूरत भगवान है। सबको परमात्मा चाहिए। हर आत्मा की मांग अथवा चाह है, उनको परमात्मा चाहिए। उसकी पूर्ति यानी भगवान की पूर्ति अर्थात हम औरों को कैसे भगवान् अर्थात कृष्ण अथवा गौरांग दे सकते हैं अथवा नित्यानंद प्रभु को दे सकते हैं, किन किन रूपों में दे सकते हैं? ऐसा कार्य परोपकार का कार्य होगा।
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।जन्म सार्थक करि कर पर- उपकार।।
हरि! हरि! ऐसे कार्य में लगे रहिये। परोपकार कीजिए।
हरे कृष्ण
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!