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जप चर्चा
दिनांक २ जनवरी २०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 744 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे है।
(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन।
(जय) यमुनातीर वनचारी॥
अर्थ
वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।
हरि! हरि!
हम तो कुंज विहारी का गायन और स्मरण कर रहे हैं।
भीष्म पितामह की जय!
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे .. कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण हैं जो कि यमुना तीरे वनचारी हैं अर्थात वह एक ऐसा दृश्य अथवा दर्शन है जिसमें श्रीकृष्ण यमुना के तट पर कुंजों में विहार कर रहे हैं। वृन्दावन में यमुना के तट पर श्रीकृष्ण के ऐसे दर्शन और व्यवहार को ब्रजवासी और ब्रजवधुएँ अर्थात गोपियां पसन्द करती हैं किन्तु भीष्म पितामह की पसंद तो भिन्न है। उनका संबंध, जिसको रस या प्रेम भी कहते हैं, वह भिन्न है।
वह श्री कृष्ण को वीर रस में देखना चाहते हैं। कृष्ण शूरवीर अर्थात अपने शौर्य, धैर्य, वीरता का प्रदर्शन करते हैं। जीवों का
भगवान् के साथ बारह प्रकार से अलग अलग रस अथवा संबंध अथवा प्रेम होता है जिसमें पांच प्रधान रस और सात गौण रस हैं। सात गौण रसों में एक वीर रस है। भीष्म पितामह वीर रस से प्रसन्न हो सकते थे और वे कुरुक्षेत्र के मैदान में प्रसन्न हुए भी थे।
श्रीमद् भागवतम के प्रथम स्कन्ध के नवें अध्याय में भीष्म स्तुति आती है जिसमें वे स्वयं कहते हैं-
श्रीभीष्म उवाच
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवती सात्वतपुङ्गवे विभुम्नि। स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाह:।।
( श्रीमद् भागवतम १.९.३२)
अनुवाद:-भीष्म देव ने कहा: अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहने वाले हैं, किन्तु कभी कभी भक्तों के नायक होने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनंद- लाभ करते हैं, यद्यपि यह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है।
आप भी कभी पढ़िएगा, श्रीमद् भागवतम की अनेक स्तुतियों में भीष्म पितामह द्वारा की हुई स्तुति प्रसिद्ध है। यह श्रीमद् भागवतम की दूसरी स्तुति है। पहली स्तुति तो कुन्ती महारानी की है जो इसी स्कन्ध में कुछ अध्याय पहले ही वर्णित है। दूसरे नम्बर पर भीष्म पितामह की स्तुति है। यह विशेष स्तुति है।
हरि! हरि!
इस स्तुति का वैशिष्ट्य है कि भगवान् स्वयं वहाँ उपस्थित हैं अर्थात भगवान स्वयं वहाँ पहुंचे थे। भगवान् हस्तिनापुर से पाण्डवों के साथ पुनः कुरुक्षेत्र लौटते हैं। क्योंकि उन्हें समाचार मिला कि अब भीष्म पितामह महाप्रयाण की तैयारी कर रहे हैं। हरि! हरि!
अब भीष्म पितामह नहीं रहना चाहते हैं। अब उनकी इच्छा हुई है कि अब वे नहीं रहेंगे। उनको ऐसा वरदान प्राप्त था कि जब वे चाहे मृत्यु को स्वीकार कर सकते थे। महाराज शांतनु ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था। उनके पिताश्री का ही यह वरदान था। हरि! हरि!
भीष्म पितामह को 'गांगेय' भी कहते हैं। वे गंगा के आठवें पुत्र थे। वैसे उनका नाम देवव्रत था किंतु जब देवव्रत ने प्रतिज्ञा की कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा। मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा। उन्होंने जब ऐसा कुछ भयानक अथवा डरावना संकल्प लिया, तब देवताओं ने भी कहा- भीष्म... भीष्म... एक राजपुत्र होकर, ऐसी प्रतिज्ञा करना .. अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा अथवा संकल्प... भीष्म.. भीष्म...। भीष्म पितामह का नाम देवव्रत था और गंगा के पुत्र होने से गांगेय भी कहलाते थे। जैसे कुंती के पुत्र कौन्तेय वैसे ही गंगा के पुत्र गांगेय हुए।
अब वे भीष्म पितामह बने हैं। उनकी उम्र लगभग ४०० वर्ष की चल रही थी। कई पीढ़ियां आई और गयी भी लेकिन भीष्म पितामह जीते रहे किन्तु आज वे प्रस्थान करेंगे। उनका देहान्त अर्थात निधन होगा। श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र पहुँचे, उस समय भीष्म पितामह शरशय्या पर लेटे हुए थे। तब से लेटे ही रहे। वह कुरुक्षेत्र के युद्ध का दसवां दिन था। अर्जुन ने पितामह भीष्म को उस दिन इतने सारे बाणों से आघात अथवा प्रहार किया।
भीष्म पितामह का शरीर तीरों से बिंध गया ह, उनकी देह को खड़ा होना भी मुश्किल था। वे लेट गए अथवा अर्जुन ने उनको अपने बाणों के आघातों से लिटा दिया। भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर ही लेटे हुए थे। आज भी निश्चित ही वह स्थान कुरुक्षेत्र में है। मैं भी उस स्थान पर गया हूँ, कोई भी जा सकता है। वहाँ प्रदर्शनी भी है जो वहाँ के उस दृश्य का स्मरण दिलवाती है। इस प्रकार भीष्म पितामह के समक्ष कृष्ण विराजमान हैं। उनका दर्शन करते करते भीष्म पितामह उनका स्तुति गान कर रहे हैं। इस स्तुतियों के वचनों में अधिकतर उनको युद्ध भूमि अर्थात धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र के ही सारे दृश्य यादआ रहे हैं और उन्हीं को वे स्तुति के रुप में कह रहे हैं। आप इसे पढ़िएगा।
त्रिभुवनकमानं तमालवर्णं रविकरगौरवम्बरं दधाने वपुरलककुलावृतान्नबजं विजयसखे रतिरस्तु मेअनवद्या।।
(श्रीमद् भागवतं १.९.३३)
अनुवाद:- श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश्य नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोगों (उच्च मध्य तथा अधोलोक) में हर एक को आकृष्ट करने वाला है। उनका चमचमाता पीतांबर तथा चंदन चर्चित मुख कमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल की इच्छा ना करूं।
भीष्म पितामह स्तुति में यह भी कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण विजय सखा हैं और विजय अर्थात अर्जुन। अर्जुन का एक नाम विजय है।
हे विजयसखे
रतिरस्तु अर्थात मेरी रति आप में हो, मेरा आकर्षण आप में हो। मेरा मन आपसे आकृष्ट हो।
त्रिभुवनकमानं तमालवर्णं - वैसे यह कठिन तो नहीं है। भीष्म पितामह, कृष्ण को देख ही रहे हैं और कह रहे हैं 'तमालवर्णं' - आप का वर्ण तमालवर्णं हैं। (वृन्दावन अथवा ब्रज में जो तमाल के वृक्ष हैं, उनका जो रंग होता है)
तमाल वर्ण, ऐसा ही एक वृक्ष कृष्ण बलराम मंदिर के कोर्टयार्ड (आंगन) में है। हमनें भी उसको देखा है। जब हम वर्ष १९७२ में गए थे, उस समय मंदिर का निर्माण अभी प्रारंभ ही हो रहा था। हमें बताया गया था कि श्रील प्रभुपाद ने जानबूझकर उसकी रक्षा की है और उस पेड़ को काटा नहीं। उन्होंने ऐसा डिज़ाइन बनवाया था कि तमाल वृक्ष आंगन में बना रहेगा। ऐसे तमाल वृक्ष को देखकर ही राधारानी और श्रीकृष्ण का स्मरण हुआ करता था। उस तमाल वृक्ष का ऐसा वर्ण है। तमालवर्णं के संबंध में ऐसा वर्णन है कि तमालवर्णं घनश्याम बादलों के जैसे है। प्रभुपाद उसमें भी कहते हैं कि यह मानसून फ्लॉवर जैसे है, यह कार्तिक या शरद ऋतु के बादल जैसा नहीं है। शरद ऋतु के बादल सफेद होते हैं। वर्षा ऋतु के बादलों में खूब जल होता है, वे जलधर होते हैं। इसलिए भी वे अधिक डरावने काले सांवले होते हैं। भीष्म पितामह अपने समक्ष उपस्थित श्रीकृष्ण को देखते हुए भी कहते हैं कि हे तमालवर्णं...
हे तमालवर्णं।
रविकरगौरवम्बरं - आप जो अम्बर वस्त्र पहनें हो, रविकरगौरवम्बरं - रवि अर्थात सूर्य, कर अर्थात किरण, उनको सूर्य की किरणें भी कह सकते हैं।आपके वस्त्र ऐसे तेजस्वी हैं, आप भी और आपके वस्त्र भी सुंदर है, उनमें तेज है। भीष्म पितामह को याद आ रहा है, यह कुछ संक्रांति का समय है। युद्ध के दसवें दिन अर्जुन ने उनको शरशय्या पर लिटाया था। युद्ध तो चलता रहा था और तत्पश्चात युद्ध समाप्त भी हुआ लेकिन भीष्म पितामह वहाँ लेटे रहे। युद्ध के उपरांत यदि कोई बचा भी था जैसे श्रीकृष्ण अथवा पांडव, वे सब प्रस्थान कर चुके थे। भीष्म पितामह अकेले ही लेटे रहे। अब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करेगा। संक्रांति के समय संक्रमण होता है। सूर्य का उत्तरायण में होना अनुकूल माना जाता है। सद्गति प्राप्त होती है, अर्थात शरीर त्यागते समय जब सूर्य उत्तरायण में होता है।
उस समय वह घड़ी शुभ मूर्हत होता है। अब भीष्म पितामह प्रस्थान की तैयारी कर रहे थे, उस समय उनको कुरुक्षेत्र के युद्ध का स्मरण हो रहा था। कृष्ण को देखते देखते उनको और भी स्मरण आ रहे थे। वे यहाँ स्तुति में कह रहे हैं कि
युधि तुरगरजो विधूम्रविष्वक्- कच्छुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये। मम निशितशरैर्विभिद्यमान- त्वचि विलसत्कवचेअस्तु कृष्ण आत्मा।।
( श्री मद् भागवतम १.९.३४)
अनुवाद:- युद्धक्षेत्र में( जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे)
भगवान् कृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गए थे तथा श्रम के कारण उनका मुख मंडल पसीने की बूंदों से भीग गया था।
भगवान,जब आप अपने रथ पर चलते थे तब विशेषतया आपका रथ, वैसे रथ आपका नहीं था। रथ तो अर्जुन का था। अर्जुन उस रथ के रथी थे। आप तो केवल रथी के साथ वाले सारथी थे। आप उस रथ का संचालन कर रहे थे अथवा रथ हांक रहे थे। उस रथ के पहियों की जो धूलि थी, वह आसमान में उड़ जाती। धीरे धीरे वह पुनः सेटल हो रही है अर्थात जम रही है। आपके बालों अथवा आपके चेहरे अथवा आपके वस्त्रों पर वो जो दर्शन है, बड़ा सुहावना दर्शन है।
भीष्म पितामह ऐसे दर्शन की बात कर रहे हैं। धूल भी जम रही है। भीष्म पितामह कह रहे हैं कि रथ हांकने से आपको इतना परिश्रम करना पड़ रहा था कि आपके चेहरे पर धूल भी जमी है औऱ आप परिश्रम बिंदु या श्रम बिंदु अर्थात पसीने पसीने हो रहे थे। श्रम बिंदु,पसीने की बूंदे आपके चेहरे के सौंदर्य को बढ़ा रही थी।
अलङ्कृतास्ये - आपका चेहरा अलंकृत था।
सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य। स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवती पार्थसखे रतिर्ममास्तु ।।
( श्रीमद् भागवतं १.९.३५)
अनुवाद:-अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच में प्रविष्ट हो गए और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी कृपापूर्ण चितवन से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी। यह सब शत्रु पर उनके दृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया। मेरा मन उन कृष्ण में स्थिर हो।
एक स्थान पर विजय सखे कहा और अब दूसरे वचन में पार्थ सखे कहा जा रहा है।
पार्थसखे रतिर्ममास्तु अर्थात भीष्म पितामह कह रहे हैं कि मेरी रति ऐसे विजय सखा अथवा पार्थ सखा में हो।
विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयश्मिनि तच्छियेक्षणीये। भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षो- र्यमिह निरीक्ष्य हता गता: स्वरूपम् ।।
( श्रीमद् भागवतं १.९.३९)
अनुवाद:- मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूं, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएं हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यंत सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।
वे कह रहे हैं कि हे श्री कृष्ण! यह वहीं दर्शन है जिस दर्शन में आपके बाएं हाथ में रस्सी है।
धृतहयश्मिनि अर्थात आपके बाएं हाथ में घोड़ों की रस्सियां हैऔर आप अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए हुए हैं।
शितविशिखहतो विशीर्णदंश: क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे प्रसभमभिसार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ।।
( श्री मद् भागवतम १.९.३८)
अनुवाद:- भगवान श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अंतिम गंतव्य हों। युद्ध- क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गए हों। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था।
मेरी गति, मेरा लक्ष्य, मेरा गंतव्य वैसा हो, जैसा दर्शन मुझे स्मरण आ रहा है। भीष्म पितामह का भगवान से संबंध वीर रस में है। जैसा कि हमनें कहा भी कि भगवान अपनी शौर्यता अथवा वीरता का प्रदर्शन कर रहे थे। भीष्म पितामह कहते हैं कि आप ही मेरा लक्ष्य हो। ऐसा ही संबंध मेरा आपके साथ है।आपके साथ ऐसा संबंध स्थापित हुआ, उसका मैंने दर्शन किया, अनुभव अथवा साक्षात्कार किया।
स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः
हे मुकन्द अर्थात मुक्ति के दाता, आप मुझे मुक्त कीजिये। बस यही विचार मेरे मन में हो कि वह छवि मेरे मन में बसी हो, जब प्राण तन से निकले। यह छवि उनको बहुत पसंद है। कुरुक्षेत्र के मैदान में वैसे सामने ही थे। हर समय तो नहीं लेकिन दसवें दिन का जो युद्ध सम्पन्न हो रहा था। उस दिन एक विशेष घटना घटी थी। भीष्म पितामह को श्रीकृष्ण के दर्शन हुए।
नवें दिन की रात्रि को (वैसे यह सब बता नहीं पाएंगे) भीष्म पितामह ने संकल्प लिया था कि 'कल या तो मैं अर्जुन का वध करूंगा वरना श्रीकृष्ण को हथियार उठाना होगा।' मैं जानता हूं कि उन्होंने ( भगवान्) ने संकल्प लिया है कि मैं युद्ध में रहूंगा लेकिन लड़ूंगा नहीं, न ही कोई हथियार उठाऊंगा।
कल या तो मैं अर्जुन की जान ले लूंगा, यदि यह संभव नहीं हो पाया तब श्रीकृष्ण को हथियार उठाना ही होगा। भीष्म पितामह ने ऐसा संकल्प क्यों लिया? इसका वर्णन महाभारत में है। उस सांयः काल को क्या क्या हुआ था और दुर्योधन ने भीष्म पितामह को क्या कहा था ... कि आप पक्षपात कर रहे हो। यह नौवां दिन है और अभी तक यह सारे पांडव जीवित हैं। आप इनके वध करने की क्षमता तो रखते हो लेकिन आप जानबूझकर उनको बचा रहे हो। हमारे कई सारे भाइयों की मृत्यु हुई है लेकिन यह पांच पांडव अर्थात सारे भाई जीवित हैं। आप सेना के सेनापति अथवा मुखिया हो। सर्वसमर्थ हो। जब यह बात भीष्म पितामह ने भी सुनी तो यह बात थोड़ी सी उनको चुभ गई। तब उन्होंने कहा दुर्योधन से कहा कि कल तुम देखोगे और उन्होंने संकल्प लिया। दसवें दिन के युद्ध का जब प्रारंभ हुआ तब उस दिन भीष्म पितामह ने अर्जुन को ही अपना निशाना बनाया। उन्होंने इस प्रकार युद्ध खेला कि अर्जुन, भीष्म पितामह दोनों के रथ एक दूसरे के समक्ष थे और बाणों की वर्षा हो रही थी। भीष्म पितामह अनुभवी है, पुराने हैं, वरिष्ठ हैं। उनके समक्ष अर्जुन क्या है?
उस समय श्रीकृष्ण कह रहे हैं
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा- मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्यः। धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु र्हरिरिव हन्तुमिमं गतोत्तयरीयः
( श्रीमद् भागवतम १.९.३७)
अनुवाद:- मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर, वे रथ से नीचे उतर आए, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी और दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी को मारने के लिए दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।
भीष्म पितामह कह रहे हैं कि ये मैंने क्या किया कि आप अपने अर्जुन को बचाने के लिए जो अकेला लड़ नही सकता था, तब आप भी अर्जुन की मदद के लिए युद्ध में शामिल होना चाहते हो, लड़ना चाहते हो। आप रथ से उतरे और आपने वहीं से एक टूटे हुए रथ के पहिए को उठाया।
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु
दूसरे रथ का चरण कौन सा होता है? आपने रथ का चक्र अथवा पहिया को उठाया और तब आप चक्र पानी या रथांगपाणि अर्थात रथ अंग पाणि हो गए भगवान् का एक नाम भी रथांगपाणि है। पाणि पीने वाला पानी नही है। पाणि मतलब हाथ। जैसे शंख पाणि - जिन हाथों में शंख धारण किए, वह शंख पाणि, चक्रपाणी अर्थात जो सुदर्शन चक्र धारण करते हैं जो चक्र पाणि। रथांगपाणि - आपने रथ के अंग को अर्थात रथ के पहिए को उठाया और आप मेरी ओर रथ के अंग अथवा चक्र के पहिये को लेकर दौड़ कर आ रहे थे। मानो आप शेर बन गए हो। भीष्म पितामह कहते हैं मानो जैसे मैं कोई हाथी था, आप शेर बनकर मेरी और बड़ी तेजी से आ रहे थे। आते आते आपका उतरीय जो था, वह गिर गया। इतने में अर्जुन भी रथ से कूदा और वह आप को रोकने के लिए आपकी और दौड़ रहा था। भगवन! क्या कर रहे हो, क्या कर रहे हो। नहीं! नहीं! अर्जुन, कृष्ण को रोक रहे थे। उस दिन ऐसा सारा दृश्य भीष्म पितामह ने देखा था। वह कैसे सारी बातें भूल सकते थे। भीष्म पितामह अपनी स्तुति में सुना रहे हैं।
भगवति रतिरस्तु मे- ऐसे भगवान् में मेरी रति हो। ऐसे आप में मेरी रति हो। इस प्रकार वे
निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम्।
भीष्म पितामह अपना अनुभव भी कह रहे है। उस युद्ध में वैसे 64 करोड़ शूरवीर सभी मारे गए थे। महात्मा गांधी ने सोचा कि भगवान् ने हिंसा करवाई है। भगवान को ऐसा नहीं करना चाहिए था। बाकी भी नहीं समझते। गांधी नहीं समझते तो इसलिए कोई समझता ही नहीं है। भीष्म पितामह समझते हैं, भीष्म पितामह का अनुभव है। भीष्म पितामह अधिकृत है। द्वादश भागवतों में भीष्म एक महाभागवत है। उनका कहना है कि आपने सभी को मुक्त किया। आपकी उपस्थिति में जो मरे हैं अर्थात आप कुरुक्षेत्र के मैदान में उपस्थित ही थे, वहां जिनकी जिनकी मृत्यु हुई, आपने उनको उनको मुक्त किया। हरि हरि! वे स्तुति कर ही रहे थे और स्तुति करते करते ही वह कृष्ण को देख अथवा दर्शन कर रहे हैं व कुरुक्षेत्र के मैदान में घटी हुई लीलाओं का स्मरण कर रहे हैं। सभी का दर्शन करते हुए भीष्म पितामह ने प्रस्थान किया अथवा महाप्रयाण किया।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।