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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 19 जून 2021 हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 842 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं। हरे कृष्ण! द्वारकाधीश की जय! विप्र सुदामा की जय! सुदामा भी गृहस्थ थे। हम उनकी लीला कथा पूरी नहीं सुनाएंगे परंतु उनकी भाव भक्ति को समझने का प्रयास करेंगे। सुदामा द्वारिका पहुंचे हैं। सुन रहे हो ना? ध्यान से सुनो। आत्मा को सुनने दो। यह प्रसंग श्रीमद भागवतम के दसवें स्कंध के 81वें अध्याय में वर्णित है। श्रोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दितः । जगाम स्वालयं तात पथ्यनवज्य नन्दितः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.81.13) अनुवाद:- अगले दिन ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता आत्माराम भगवान् कृष्ण द्वारा सम्मानित होकर सुदामा घर के लिए चल पड़ा। हे राजन् , वह ब्राह्मण मार्ग पर चलते हुए अत्यधिक हर्षित था। दूसरे दिन सुदामा ने जगाम स्वालयं अर्थात सुदामापुरी के लिए प्रस्थान किया। द्वारिका में क्या हुआ था? विश्वभावेन अथवा विश्वंभर अर्थात जो विश्व के पालनहार हैं या कहा जाए कि जो सारे विश्व का पालन पोषण भरण करते हैं, स्वसुखेनाभिवन्दितः उन विश्वंभर ने, द्वारिका में सुदामा का स्वागत सत्कार सम्मान किया था। सुदामा एक रात द्वारिका बिताने के बाद 'जगाम स्वालयं' अर्थात अपने गांव के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। स चालब्वा धनं कृष्णान्न तु याचितवान्स्वयम् । स्वगृहान्ब्रीडितोऽगच्छन्महद्दर्शननिवृतः ॥ ( श्रीमद्भागवतम् 10.81.14) अर्थ:- यद्यपि सुदामा को बाह्य रूप से भगवान् कृष्ण से कोई धन प्राप्त नहीं हुआ था , फिर भी वह अपनी ओर से कुछ भी माँगने में अत्यधिक सकुचा रहा था। वह यह अनुभव करते हुए पूर्ण सन्तुष्ट होकर लौटा कि उसने भगवान के दर्शन पा लिये हैं । जब सुदामा द्वारका से वापिस निकल पड़े हैं व आधे रास्ते में हैं, उनको याद आया कि क्या हुआ था। वे कह रहे हैं कि "स चालब्वा धनं कृष्णान्न। "मुझे तो कृष्ण से कुछ धन नहीं मिला। कृष्ण ने मुझे कुछ भी नहीं दिया। उन्होंने दिया भी नहीं 'याचितवान्स्वयम्' और मैनें पूछा और मांगा भी नहीं। यह बात उनको रास्ते में ही याद आ गयी। सुदामा वैसे उस उद्देश्य से द्वारिका नहीं गए थे अपितु ऐसा कहना चाहिए कि उनको भेजा गया था। उनको उनकी धर्मपत्नी ने भेजा था। जाओ, तुम्हारे मित्र जो द्वारकाधीश हैं, वे कुछ जरूर देंगे। हे पतिदेव, तुम दरिद्र ब्राह्मण हो और आपके मित्र द्वारकाधीश हैं, वे धनवान हैं, जाओ। सुदामा वहां गए थे, वहां रहे भी थे लेकिन भगवान् ने न तो उन्हें धन दिया था और न ही सुदामा ने धन मांगा था। सुदामा सोच रहे थे कि उन्होंने धन दिया भी नहीं और मैंने मांगा भी नहीं। यह बहुत अच्छी बात हुई। मैंने कुछ मांगा नहीं। सुदामा स्वयं की स्तुति कर रहे हैं कि मैंने मांगा नहीं। वे उसके बदले में स्मरण कर रहे हैं कि उनकी जो द्वारका की यात्रा थी, उसमें उनको एक रात्रि को द्वारकाधीश के साथ ही रहने का अवसर प्राप्त हुआ व उनके भगवान् द्वारकाधीश के साथ जो भी अनुभव हुए थे वह उसका स्मरण कर रहे हैं। उन्होंने कहा अहो ब्रह्मण्यदेवस्य या ब्रह्मण्यता मया । यहरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो विभ्रतोरसि ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.81.15) अनुवाद:- [ सुदामा ने सोचा ] भगवान् कृष्ण ब्राह्मण - भक्त के रूप में विख्यात हैं और अब मैंने स्वयं इस भक्ति को देख लिया है । निस्सन्देह लक्ष्मीजी को अपने वक्षस्थल पर धारण करने वाले उन्होंने सबसे दरिद्र भिखारी का आलिंगन किया है । मैंने ब्रह्मण्यदेव की ब्रह्मण्यता को अपनी आंखों से देखा है। कृष्ण जो द्वारकाधीश हैं। नमो ब्रह्मण्य-देवाय गो-ब्राह्मण-हिताय च। जगद्धिताय कृष्णाय गोबिन्दाय नमो नमः ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला13.77) अनुवाद: मैं उन भगवान् कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ, जो समस्त ब्राह्मणों के आराध्य देव हैं, जो गायों तथा ब्राह्मणों के शुभचिन्तक हैं तथा जो सदैव सारे जगत् को लाभ पहुँचाते हैं। मैं कृष्ण तथा गोविन्द के नाम से विख्यात भगवान् को बारम्बार नमस्कार करता हूँ। सुदामा सोच रहे थे कि कृष्ण की ब्रह्मण्यदेव को मैंने देखा है। ब्रह्मण्य क्या होता है या भगवान् को ब्रह्मण्यदेव क्यों कहते हैं? क्योंकि वे प्रसिद्ध हैं, भगवान् ब्राह्मणों के पुजारी बन जाते हैं। भगवान् ब्राह्मणों का सत्कार सम्मान करते हैं। भगवान् ब्राह्मणों की पूजा अर्चना करते हैं। ऐसे भगवान् को ब्रह्मण्यदेव कहते हैं। सुदामा ने कहा कि मैंने देखा अथवा दृष्टा अथवा यह मैंने अनुभव किया है।। यहरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो विभ्रतोरसि मैं केवल दरिद्र ही नहीं, मैं दरिद्रतम् हूँ । मेरे जैसा दरिद्र ढूंढ कर भी नहीं मिल सकता है लेकिन उन ब्रह्मण्यदेव ने जो अपने वक्ष स्थल पर लक्ष्मी को धारण करने वाले हैं। उन द्वारकाधीश, ब्रह्मण्यदेव ने मुझे गले लगाया। उनके उस वक्षस्थल का मैंने भी स्पर्श किया। उन्होंने मेरे वक्षस्थल का स्पर्श किया। ऐसे स्पर्श का अधिकार तो लक्ष्मी को होता है उरसी अर्थात सीना या वक्षस्थल। जिस वक्षस्थल पर लक्ष्मी को धारण करते हैं। वह मुझे स्थान दिया, मुझे गले लगाया। क्वाहं दरिद्रः पापीयान्क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः । ब्रह्मबन्धुरिति स्माई बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.81.16) अनुवाद:- मैं कौन हूँ ? एक पापी , निर्धन ब्राह्मण और कृष्ण कौन हैं ? भगवान् , छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण, तो भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया है । सुदामा ने द्वारका में जो जो अनुभव किए थे, वह उनके विषय में आगे कह रहे हैं कि उस महल में, जहां रुक्मिणी द्वारकाधीश रहते हैं। वैसे अन्य भी कई सारे महल हैं लेकिन यह विशेष महल है। भगवान् अपनी पटरानी रुक्मिणी के साथ निवास करते हैं। वहां पर उनके क्या क्या अनुभव रहे हैं। वे कह रहे थे कि कहां मैं दरिद्र, केवल दरिद्र ही नहीं। पापीयान्कव अर्थात मैं पापी हूँ, वैसे वह पापी तो नहीं है। यह उनकी विनम्रता है जो कह रहे हैं कि कहां मैं दरिद्र और पापी और कहां श्री कृष्ण? क्वाहं दरिद्रः पापीयान्क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः । ब्रह्मबन्धुरिति स्माई बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.81.16) अनुवाद:- मैं कौन हूँ ? एक पापी, निर्धन ब्राह्मण और कृष्ण कौन हैं ? भगवान् , छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण । तो भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया है । पर श्री कृष्ण निकेतन हैं, उनके वहां तो श्री का निवास है। रुक्मिणी भी श्री है, वह भी लक्ष्मी है। कहां मैं दरिद्र अर्थात निर्धन और कहां द्वारकाधीश जो श्री के निकेतन हैं। लक्ष्मी नारायण हैं या रुक्मिणी द्वारकाधीश हैं। भगवान् सर्वसम्पन्न हैं परंतु ब्रह्मबन्धुरिति, मैं कोई योग्य ब्राह्मण नहीं हूं। बाहुभ्यां परिरम्भितः ऐसे श्री निकेतन ने, श्री निवास ने अपने दोनों बाहु से मुझे गाढ़ अलिंगन दिया। हरि! हरि! निवासितः प्रियाजुष्टे पर्यड़े धातरो यथा । महिष्या बीजितः श्रान्तो बालव्यजनहस्तया॥ (श्रीमद् भागवतम् 10.81.17) अनुवाद:- उन्होंने मेरे साथ अपने भाइयों जैसा बर्ताव किया और अपनी प्रियतमा के पलंग पर बैठाया और चूँकि मैं थका हुआ था , इसलिए उनकी रानी ने चामर से स्वयं मुझ पर पंखा झला । सुदामा इस बात को भी याद कर रहे हैं कि भगवान् ने मुझे उसी पलंग पर बिठाया जहां स्वयं द्वारकाधीश, अपनी पटरानी रूक्मिणी के साथ विराजमान हुआ करते हैं। मुझे वहीं स्थान दिया, द्वारकाधीश ने मेरी अर्चना की। यह अर्चना हुआ शुश्रूषया परमया पादसेवाहनादिभिः । पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत् ॥ (श्रीमद्भागवतम 10.81.18) अनुवाद:- यद्यपि वे समस्त देवताओं के स्वामी हैं और समस्त ब्राह्मणों के पूज्य हैं फिर भी उन्होंने मेरे पाँवों की मालिश करके तथा अन्य विनीत सुश्रूषाओं द्वारा मेरी इस तरह पूजा की, मानो मैं ही देवता हूँ । भगवान् ने मेरी सेवा की, मेरे पाद प्रक्षालन भी किया। विप्रदेवेन देववत् । दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ।। ( श्रीमद् भागवातम 12.13.1) अनुवाद्:- सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण, इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद - क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता - ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ । देवी देवता भगवान् द्वारकाधीश की जिस प्रकार पूजा करते है। वैसे ही द्वारकाधीश ने मेरी पूजा की जैसे देवता भगवान् को पूजते हैं। *बसियाछे गौराचाँदेर रत्न-सिंहासने। आरति करेण ब्रह्मा-आदि देवगणे॥3॥ ( संध्या आरती) अनुवाद:- चैतन्य महाप्रभु सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं तथा ब्रह्माजी उनकी आरती कर रहे हैं अन्य देवतागण भी उपस्थित हैं। हम संध्या आरती में गाते हैं कि ब्रह्माजी आरती उतारते हैं और असंख्य देवता वहां प्रस्तुत हैं। शिव-शुक नारद प्रेमे गद्‌गद्। भकति-विनोद देखे गौरार सम्पद॥7॥ शिवजी, नारद जी, शुकदेव गोस्वामी पहुंचे हैं। सब भगवान् की स्तुतिगान कर रहे हैं। उनका गला गदगद हो रहा है, वे सब भगवान् की आराधना करते हैं, जिनकी सब आराधना करते हैं, उन भगवान् ने मेरी आराधना की। विप्रदेवेन देववत् सुदामा कह रहे हैं। अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यच्चैर्न मां स्मरेत् । इति कारुणिको नूनं धन मेऽभूरि नाददात् ॥ ( श्रीमद्भागवतम 10.81.20) अनुवाद:-यह सोचकर कि यदि यह निर्धन बेचारा सहसा धनी हो जायेगा , तो वह मदमत्त करने वाले सुख में मुझे भूल जायेगा , दयालु भगवान् ने मुझे रंचमात्र भी धन नहीं दिया। सुदामा कहते हैं कि मैं निर्धन हूँ। ऐसे निर्धन को यदि धन प्राप्त होगा तब माद्यच्चैर्न। शायद मैं धन के नशे में आ जाऊंगा। मैं धनाढ्य अर्थात धन सम्पन्न बनूंगा,धन व्यक्ति को अंधा बनाता है। जो काम से अंधा होता है, उसे कामांध कहते हैं। जब व्यक्ति क्रोधित होता है, उसे कुछ दिखता नहीं है। कुछ समझ नही आता। उसका ज्ञान शून्य होता है वह क्रोधांध कहलाता है। कामांध, क्रोधांध, धनांध, यदि मुझे धन प्राप्त होगा तब शायद मैं वैसा ही बन जाऊंगा।'मां स्मरेत्' द्वारकाधीश ने ऐसा सोचा होगा कि यदि मैं इस निर्धन को धन दूंगा तो यह धन का दुरुपयोग करेगा। असीतल शिते तर जमतील भुतेः आपल्या भरभराटीचा काल असेल तर आपल्याभोवती माणसे गोला होतात। तत्पश्चात धनी लोग कुछ पार्टी भी रखते हैं। जब लोग मिलने आते हैं, तब बहुत कुछ होता है। वह व्यक्ति व्यस्त हो जाता है- शॉपिंग के लिए मिडल ईस्ट जाता है, यहां जाता है, वहां जाता है। लेकिन जब हरे कृष्ण वाले रथयात्रा के लिए बुलाते हैं तब कहता है कि मेरे पास मरने के लिए भी समय नहीं है। भगवान् ने ऐसा कुछ सोचकर कि मैं ऐसा बन सकता हूँ या मेरी लाइफ स्टाइल ऐसी हो सकती है अथवा ऐसी मेरी विचारधारा बन सकती है, ऐसा ही मेरा कुछ होगा। इति कारुणिको नूनं धन मेऽभूरि नाददात् ऐसा सोचकर उन करुणानिधान द्वारकाधीश ने मुझे कुछ भी धन नहीं दिया। अच्छा हुआ धन नहीं दिया। भगवान् ने सोचा होगा कि इसको धन देंगे तो यह बिगड़ जाएगा। इस बात से सुदामा प्रसन्न हैं। भगवान् ने मुझे बिगड़ने से बचाया। ( ईलाज से बेहतर रोकथाम है) प्रीवेंशन एज बेटर दैन क्योर। इस प्रकार सुदामा भगवान् की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए आगे सुदामापुरी की ओर आगे बढ़ रहे हैं। हरि! हरि! इसे कृष्ण भावनामृत कहते हैं। यह सुदामा के जो विचार अथवा भाव हैं, सुदामा की जो यह भक्ति है, सुदामा का जो इस प्रकार का संस्मरण है। वहां भेंट द्वारका भी कहलाता है, जहां कई सारे महल हुआ करते थे। द्वारका को भेंट देकर लौटने वाले सुदामा के द्वारकाधीश के प्रति विचार अथवा भाव अथवा प्रेम ही कृष्णभावनामृत कहलाता है। (इसी में आ गया है न?) न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥(शिक्षाष्टक 4) अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ॥ मुझे यह नहीं चाहिए, मुझे वो नहीं चाहिए।बस इस लीला में आगे बढ़ोगे तब देखोगे कि भगवान् ने सुदामा को सब कुछ दिया है। वैकुंठ जैसी सम्पति व वैभव भगवान् ने वहां पहुंचा दिया था। सुदामा को कैरी करने अथवा बोझ उठाने की भी आवश्यकता नहीं है। भगवान् ने होम डिलीवर कर दी है। जैसे ही सुदामा वहां पहुंच जाएंगे, उनको पता चल ही जायेगा। इति तचिन्तयनन्तः प्राप्तो नियगृहान्तिकम् सूर्यानलेन्दुसङ्काशविमानः सर्वतो वृतम् ॥ विचित्रोपवनोद्यान : कूजविजकुलाकुलैः । प्रोत्फुल्लकमुदाम्भोजकहारोत्यलवारिभिः ॥ जुष्टं स्वलङ्क तैः पुम्भिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः । किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् ।। ( श्रीमद् भगवातम 10.81.21-22-23) अनुवाद:- [ शुकदेव गोस्वामी ने कहा ] : इस प्रकार अपने आप सोचते - सोचते सुदामा अन्ततः उस स्थान पर आ पहुँचा , जहाँ उसका घर हुआ करता था । किन्तु अब वह स्थान सभी ओर से ऊँचे भव्य महलों से घनीभूत था, जो सूर्य, अग्नि तथा चन्द्रमा के सम्मिलित तेज से होर वहाँ आलीशान आँगन तथा बगीचे थे , जो कूजन करते हुए पक्षियों के झुंडों से जलाशयों से सुशोभित थे , जिनमें कुमुद , आभोज, कहार तथा उत्पल नामक कमल खिले हुए थे। अगवानी के लिए उत्तम वस्त्र धारण किये पुरुष तथा हिरनियों जैसी आँखों वाली स्त्रियाँ खड़ी थीं । सुदामा चकित था कि यह सब क्या है ? यह किसकी संपत्ति है ? और यह सब कैसे हुआ ? सुदामा वहां पर पहुंचते हैं। उनको लगता है -किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् अरे मैं कहां गया। सुदामा, सही स्थान पर सुदामापुरी पहुंचते हैं परन्तु उनको लगता है कि 'किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत्' अरे मैं कहां आ गया? वह सही स्थान पर ही आए थे पर भगवान् ने सुदामापुरी का चेहरा ही बदल दिया था। वह स्थान और पत्नी को भी पहचान नहीं पा रहे थे। उनकी धर्मपत्नी ऐसे सज धज कर आई कि किसी को बताना पड़ा कि यह आपकी धर्मपत्नी है। सुदामा सोच थे कि "यह लक्ष्मी कहां से आ रही हैं" हरि! हरि! यदि भगवान् देना चाहेंगे तब वे छप्पड़ फाड़ कर भी दे सकते हैं। हरि! हरि! ॐ नमो भगवते उपशमशीलायोपरतानात्याय नमोऽकिञ्चनविनाय ऋषिऋषभाय नरनारायणाय परमहंसपरमगुरवे आत्मारामाधिपतये नमो नम इति ॥ ( श्रीमद्भागवतम 5.19.11) अनुवाद:- मैं समस्त सन्त पुरुषों में श्रेष्ठ श्रीभगवान् नर - नारायण को सादर नमस्कार करता हूँ वे अत्यन्त आत्मसंयमित तथा आत्माराम हैं, वे झूठी प्रतिष्ठा से परे हैं और निर्धनों की एकमात्र सम्पदा है। वे मनुष्यों में परम सम्माननीय समस्त परमहंसों के गुरु हैं और आत्मसिद्धों के स्वामी हैं । मैं उनके चरणकमलों को पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ। भगवान् को नमोऽकिञ्चनविनाय कहा है। भगवान् वित्त/ सम्पति है। भगवान् किसकी सम्पति बन जाते हैं? ऽकिञ्चनविनाय अर्थात जो निष्किञ्चन, निष्काम भाव वाले भक्त होते हैं। भगवान् उनकी प्रोपर्टी अथवा सम्पति स्वयं बन जाते हैं। भगवान् ने स्वयं को द्वारिका में दिया ही था। भगवान् ने आलिंगन अथवा प्रेम दिया था और क्या चाहिए। यही बात है आपको भगवान् चाहिए या भगवान् की सम्पति चाहिए। वह दुर्योधन गरीब बेचारा उसको तो नारायणी सेना मिल गयी। उसने सोचा कि मैं केवल एक व्यक्ति कृष्ण से क्या करूंगा। मुझे उनकी अक्षौहिणी सेना प्राप्त हुई है। मैंने अर्जुन को ठगा दिया। उसको केवल एक ही व्यक्ति मिला और वह भी युद्ध नहीं खेलेगा। मुझे इतनी सारी बड़ी सेना मिल गयी। वास्तव में कौन ठगा गया था, अर्जुन या दुर्योधन? हरि! हरि! सुदामा चरित्रवान थे। वह भगवान् के मित्र के रूप में प्रसिद्ध है। वे निर्धन थे, ऐसे थे, वैसे थे, कौन परवाह करता है। किसको चिंता है। सुदामा का स्मरण होता है तब यह स्मरण होता है कि वह कृष्ण के मित्र हैं। यह पहले याद आ जाता है। उनकी अर्थव्यवस्था कैसी थी, बैंक बैलेंस था या नहीं था। निश्चित ही बाल बच्चों को कुछ असुविधा हो रही थी। लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी वे द्वारकाधीश को नहीं भूले। वैसे वह कुछ मांगने के लिए द्वारका नहीं जाना चाहते थे। नहीं! नहीं! मांगने नहीं जाऊंगा। पत्नी आग्रह कर रही थी, जिद लेकर बैठी थी। अतंत वह तैयार हो गए लेकिन वे सोच रहे थे कि इस बहाने से द्वारकाधीश के दर्शन हो जाएगें। हम कब से नहीं मिले। बहुत समय से नहीं मिले। उज्जैन अवंतिपुर में साथ में पढ़ते थे। तब से नहीं मिले। एक विद्यार्थी द्वारकाधीश धनाढ्य, एक सम्पन्न राजा बन गया और दूसरा विद्यार्थी सुदामा एक दरिद्र ब्राह्मण बना, लेकिन दरिद्रता, सुदामा की पहचान नहीं है। कहते तो दरिद्र सुदामा है लेकिन क्या सुदामा जैसा धनी व्यक्ति कोई औऱ था? वह धनाढ्य थे। कृष्ण प्रेम बिना दरिद्र जीवन। चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टकम के भाष्य में कहते हैं, कृष्ण प्रेम बिना जो जीवन है, वह जीवन नहीं है। कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं है तो वह व्यक्ति निर्धन है। समझ तो यह है कि यह हमारे भावों की गरीबी है। यदि हमारे भाव या विचार नीच हैं, तब व्यक्ति गरीब है। कृष्ण भावना भावित व्यक्ति श्रीमान, धनी होता है। यह वैल्यूज की बात है कि हम किसको सम्पति समझते हैं। सबसे बड़ी सम्पति है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥ अर्थ (2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। यह सम्पति गोलोके प्रेम धन सर्वोत्तम सम्पति है। कृष्ण सम्पति है। कृष्ण को ही जिन्होंने अपनी प्रोपर्टी बनाया है,उनका नाम व उनका धाम है। भगवान् की लीलाएँ हैं, यह धन है। यह धन ही आत्मा को प्रसन्न करेगा। इस धन की प्राप्ति से आत्मा आत्माराम बनेगी। आत्मा में आराम। हरि! हरि! सुदामा का आदर्श हम सभी के समक्ष है। गौर प्रेमानन्दे हरि हरि बोल!

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