जप चर्चा
दिनांक ३.१०.२०२०

हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 744 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। स्वागत है। धन्यवाद! हरे कृष्ण!
आप ठीक हो?

आज प्रतिभागियों की संख्या थोड़ी कम है तो ठीक नहीं है। शायद बेंगलुरु के भक्त या अन्य कहीं कहीं स्थानों के भक्त हमारे साथ जप नहीं कर रहे हैं। आप थोड़े ढीले पड़ गए हैं।
आप पूरे श्रद्धा और विश्वास के साथ जप करो। हरि नाम में श्रद्धा नहीं होना, यह भी एक नाम अपराध है। यदि हरिनाम में श्रद्धा है परंतु कम है तो वह भी अपराध है लेकिन थोड़ा कम अपराध है। यदि अधिक श्रद्धा है, तो कम अपराध है और यदि कम श्रद्धा है तो अधिक अपराध है। हमें हरिनाम में श्रद्धा बढ़ानी चाहिए।

चैतन्य चरितामृत में जब चैतन्य महाप्रभु, सनातन गोस्वामी को उपदेश अथवा सनातन शिक्षा दे रहे थे तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा:-

‘श्रद्धा’ – शब्दे- विश्वास कहे सुदृढ़ निश्चय। कृष्णे भक्ति कैले सर्व- कर्म कृत हय।
( श्री चैतन्य – चरितामृत मध्य लीला २२.६२)

अर्थ:- कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति करने पर मनुष्य स्वत: सारे गौण कर्म सम्पन्न कर लेता है, ऐसा सुदृढ़ निश्चय श्रद्धा कहलाता है। ऐसी श्रद्धा भक्तिमय सेवा को सम्पन्न करने के लिए अनुकूल सिद्ध होती है।

श्रद्धा के साथ तत्पश्चात प्रेम के साथ फिर नाम जप करना प्रारंभ करते हैं। श्रद्धा से शुरुआत होती है।

आदौ श्रद्धा तत: साधु- सङ्गोस्थ भजन क्रिया। ततोअ्नर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रूचिस्ततः।।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति। साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः।।
( श्री चैतन्य चरितामृत २३.१४-१५)

अनुवाद:- सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है तत्पश्चात् वे गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि-विधानों का पालन करता है। इस तरह वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। उसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। यह साधन भक्ति का मार्ग है। धीरे-धीरे भाव ग्रहण होते जाते हैं अंत में प्रेम जागृत होता है। कृष्णभावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए यही भगवत्प्रेम के क्रमिक विकास की प्रक्रिया है।

पहले आदौ श्रद्धा तत्पश्चात धीरे-धीरे हम एक सोपान से दूसरे सोपान फिर तीसरे सोपान पर जाते हुए हम शुद्ध नाम जप या प्रेम पूर्वक जप करते हैं। पहले श्रद्धापूर्वक तब अंततोगत्वा प्रेम पूर्वक हरि नाम का उच्चारण करने लगेंगे। श्रद्धा से शुरुआत होती है। जैसे ही हमारी हरिनाम में श्रद्धा अधिक बढ़ेगी। उसी के साथ हम अधिक-अधिक प्रेमपूर्वक व ध्यानपूर्वक जप करना प्रारंभ करेंगे। श्रद्धा की बहुत बड़ी भूमिका है। आदौ श्रद्धा केवल शुरुआत में नहीं सब समय श्रद्धा… आदौ श्रद्धा, मध्य श्रद्धा, अंतये श्रद्धा। आदौ श्रद्धा से श्रद्धा बढ़ कर दृढ़ श्रद्धा हो गई। हम भागवत का अध्ययन करते हैं

नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।
भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।। ( श्रीमद् भागवतम १.२.१८)

अर्थ:-भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रंशसा दिव्य गीतों से की जाती है।

भागवत ही कहता है कि आप श्रद्धा के साथ नित्य भागवत का श्रवण करोगे तो आपको एक भक्ति का स्तर प्राप्त होगा। उसको नैष्ठिकी कहा जाता है।आप निष्ठावान बनोगे। श्रद्धा अधिक दृढ़ हुई तो आप निष्ठावान होंगे। यदि अधिक अधिक अधिक अधिक श्रद्धा बढ़ रही है तो वह श्रद्धा प्रेम में परिणत हो जाएगी। आदौ श्रद्धा, मध्य श्रद्धा, अन्तये श्रद्धा।
‘कृष्णे भक्ति कैले सर्व- कर्म कृत हय ‘ हम सिद्ध बनेंगे। हम साधना से सिद्ध बनेंगे। श्रद्धा के संबंध में एक कथा है। एक श्रद्धावान था और दूसरा श्रद्धाहीन था। इसका उदाहरण श्रील प्रभुपाद बताया करते थे। जब कहानी शुरू होती है तो लॉन्ग लॉन्ग एगो कहा जाता है।

एक समय की बात है, नारद मुनि ‘नारायण’ ‘नारायण’, ‘नारायण’ ‘नारायण’ कहते हुए नारायण अथवा वैकुंठ लोक ही जा रहे थे। रास्ते में एक मोची अपना काम धंधा कर रहा था और साथ ही साथ हाथ से काम और मुख से नाम भी ले रहा था।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

वह मुख से नाम भी ले रहा था। नारद जी जब वहां गए तो तब इस मोची ने नारद जी से पूछा कि आप कहां जा रहे हो? नारद जी ने कहा ‘मैं वैकुंठ जा रहा हूं।’ वहां जाकर मैं भगवान से मिलूंगा, विष्णु से मिलूंगा, नारायण से मिलूंगा। नारद जी ने पूछा – क्या तुम्हारा कोई संदेशा आदि है। हरि! हरि! तब मोची ने कहा, “आप जब भगवान को वैकुंठ में मिलोगे तब उनसे पूछना कि वे मुझे वैकुंठ कब ले जाएंगे? नारद जी ने कहा-हां,.हां… ठीक है, मैं पूछ लूंगा। तत्पश्चात जब मैं इसी रास्ते से वापिस आऊंगा तब मैं तुम्हें बताऊंगा।
नारदजी आगे बैकुंठ के रास्ते में जा ही रहे थे, तब उन्हें रास्ते में एक कर्मकांडी ब्राह्मण मिला । उसने नारद जी से पूछा कि ‘नारद जी! आप कहां जा रहे हो?’
नारद मुनि बैकुंठ में जा सकते हैं। वह जाते रहते हैं और आते रहते हैं। इसे भी समझने के लिए ज्ञान और श्रद्धा की आवश्यकता है।

कर्मकांडी ब्राह्मण ने कहा कि आप वैकुंठ जा रहे हो तो भगवान से पूछना कि मुझे वैकुंठ कब ले जाएंगे? तब नारद जी ने कहा ठीक है! ठीक है! मैं नारायण से जरूर पूछूंगा। नारद जी ‘नारायण’ ‘नारायण’ या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहते रहते हैं।

नारद मुनि बजाय विणा राधिका-रमण-नामे।
नाम आमनि उदित हय, भकत-गीत-सामे॥1॥ (वैष्णव गीत)

अर्थ:- जैसे ही महान संत नारदजी अपने वाद्य यंत्र वीणा बजाते हैं, और “राधिका-रमण” नाम का उच्चारण करते हैं, भगवान का पवित्र नाम भक्तों के कीर्तन के बीच में स्वयं ही प्रकट हो जाता है।

नारद मुनि केवल नारायण, नारायण ही नहीं कहते अपितु वह हरे कृष्ण हरे कृष्ण भी कहते हैं। जब भगवान की आरती होती है अर्थात जब गौरांग की आरती होती है तो नारद मुनि वहां पहुंच जाते हैं और वहां पर वे हरे कृष्ण, हरे कृष्ण कीर्तन करते हैं और साथ में अपनी वीणा बजा कर राधिका रमन के गुण गाते हैं। नारद मुनि वैकुंठ गए। भगवान से मिले, अब वे वापिस लौट रहे थे। वह लौटते हुए पहले इस कर्मकांडी ब्राह्मण से ही मिले। ओह्ह! आ गए आप? नारद मुनि बोले- हां, मैं लौट आया। तब कर्मकांडी ब्राह्मण ने पूछा कि क्या आपने, मेरे प्रश्न का उत्तर भगवान से पूछा? नारद जी ने कहा- ‘हां।’

वैसे उन्होंने यह भी पूछा था कि जब आप भगवान से मिलोगे? तब भगवान क्या कर रहे हैं, यह भी पूछना? नारद जी ने कहा कि जब मैं भगवान से मिला, तब भगवान के हाथ में एक सुई थी। सुई के एक ओर पर छोटा सा छिद्र होता है। वे उसमें से एक विशाल हाथी को आर पार कर रहे थे। इस कर्मकांडी ब्राह्मण ने जब यह बात सुनी तो बोला- ‘नहीं! नहीं! ऐसा हो सकता है क्या या तो आप वैकुंठ गए ही नहीं और भगवान को देखा और मिले ही नहीं, या फिर आप ऐसे ही झूठ मुठ की कोई बात कह रहे हो। यह कैसे संभव है? भगवान् सुई के छोटे से छिद्र से बड़े हाथी को आर पार कर रहे थे, यह तो संभव ही नहीं है। ऐसा तो होना संभव नहीं है। खैर, फिर भी बताइए कि भगवान ने मेरे प्रश्न का क्या उत्तर दिया? तत्पश्चात नारद जी ने कहा कि ‘भगवान तुमको ले तो जाएंगे लेकिन देरी से ले जाएंगे।’

कर्मकांडी ब्राह्मण ने पूछा-‘कब?’ नारद जी ने कहा- दस हजार जन्मों के उपरांत तुम्हारा नंबर आएगा। हरि! हरि!
‘दस हजार जन्मों के बाद’, ब्राह्मण यह शब्द सुनकर थोड़ा दुख और शोक करने लगा लेकिन जैसी उसकी श्रद्धा थी, उसे उसके अनुसार फल भी मिलने वाला था।
नारद मुनि जी आगे बढ़े और पुनः उसी मोची के पास पहुंचे।

उसका काम अभी भी वैसे ही चल रहा था। हाथ में काम और मुख में नाम।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

मोची ने नारद जी को देखा और कहा स्वागत है! स्वागत है! महात्मा जी, आपका स्वागत है! नारद मुनि जी आपका स्वागत है। आप वैकुंठ से वापस लौट आए? नारद मुनि ने कहा- हां, हां – लौट आया । तब मोची ने नारद जी से पूछा कि जब आप वैकुंठ में भगवान से मिले तो भगवान क्या कर रहे थे। नारद मुनि ने वही जवाब दिया कि जब मैं भगवान से मिला तो भगवान सुई के छेद से एक बड़े हाथी को आर पार कर रहे थे। एक तरफ से अंदर डालते और वह दूसरी तरफ से बाहर निकल आता। भगवान् उसको इधर से उधर छिद्र में से पहुंचा रहे थे। जब यह बात मोची ने सुनी तो वह हरि बोल! हरिबोल! हरिबोल! कहने लगा। बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया! अद्भुत कृष्ण! नारद मुनि ने पूछा तुम्हें इस बात का हर्ष क्यों हो रहा है? क्या तुम्हें सचमुच विश्वास है कि यह संभव है?

क्या किसी के द्वारा या भगवान के द्वारा भी इतने बड़े हाथी को सुई के छोटे से छिद्र से आर पार करना संभव है? नारद जी बोले- मैं तो मानता हूं कि यह संभव नहीं है। क्या तुम्हें विश्वास है?

तब इस मोची ने कहा, जरूर! क्यों नहीं। श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे कि भगवान के लिए असंभव यह शब्द तो केवल मूर्खो के शब्दकोश में होता है। भगवान के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। ऐसे हैं मेरे भगवान।

कृष्ण कन्हैया लाल की जय!
जय नारायण भगवान की जय!

इतना ही नहीं वह मोची जिस पेड़ के नीचे बैठा था, उस पेड़ के वहाँ कुछ फल गिरे हुए थे, उसने एक फल उठाया और उसको तोड़ दिया। उसके अंदर कईं सारे बीज थे। उसने उस में से एक बीज उठा लिया।

मोची अपने अनुभव, विश्वास तथा साक्षात्कार की बात कह रहा था कि नारद जी , आप यह बड़ा वृक्ष जो देख रहे हो अर्थात जिस वृक्ष के नीचे मैं बैठा हूँ, भगवान् यदि एक बीज के अंदर इतना बड़ा विशाल वृक्ष पैक अथवा बंद करके रख सकते हैं, तब वे बड़े से बड़े हाथी को चाहे वह कितना ही आकार का क्यों ना हो, भगवान जरूर उस हाथी को सुई के छिद्र से आर पार कर सकते हैं। यह जरूर संभव है। इस मोची के श्रद्धा, निष्ठा, प्रेम के वचन सुनकर नारद मुनि बड़े प्रसन्न हुए। तत्पश्चात इस चमार मोची भी पूछा -‘ मैनें आपसे कहा था कि भगवान से पूछ कर आइएगा कि भगवान मुझे कब अपने धाम ले जाएंगे। नारद मुनि ने कहा- हे मोची प्रभु! मोची भाई! मेरे प्यारे भाई! गॉड ब्रदर! यह जीवन तुम्हारा आखिरी जन्म है।

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।। (श्री मद् भगवतगीता ४.९)

अनुवाद:-हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता,
अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

इस शरीर को त्यागते ही तुमको पुनर्जन्म होने वाला नही है। भगवान तुम्हें इस जन्म के तुरंत बाद अपने धाम ले जाने वाले हैं। यह बात सुनकर मोची जो बैठा था, वह उठ कर खड़ा हो गया।

नाम नाचे जीव नाचे, नाचे प्रेम धन। ( हरिनाम चिंतामणि १.२.५८)
वह बड़े प्रेम, उल्लास और हर्ष के साथ कीर्तन करने लगा। जब प्रेम के साथ कहा जाए अर्थात वह प्रेम के साथ कीर्तन कर रहा था। जप कर रहा था। जब प्रेम के साथ जप व कीर्तन करते है, तब अलग से कहने की आवश्यकता नहीं होती। वह श्रद्धा के साथ भी जप कर रहा था, निष्ठा के साथ भी जप कर रहा था या आसक्ति के साथ जप कर रहा था या रूचि के साथ जप कर रहा था, या भावों के साथ जप कर रहा था। वह प्रेम के साथ जप व कीर्तन कर रहा था।

वह श्रद्धा के साथ कर रहा था,उसका साधु संग भी हो रहा है उसकी भजन क्रिया भी हो रही है। वह अनर्थों से मुक्त हो चुका है। उसकी अनर्थ निवृति भी हो चुकी है।
एक समय वह निष्ठावान भी था। वह प्रेम से कीर्तन कर रहा है। पहले तो केवल रुचि थी लेकिन अब प्रेम है। रुचि से प्रेम उच्च है। प्रेमपूर्वक जप कर रहा है तो इसका अर्थ है कि रुचिपूर्वक भी कर रहा है। वह आसक्ति तथा रुचि के साथ भी कर रहा है। उसके अंदर सारे भाव उदित हुए हैं। भगवान की भक्ति,सेवा, नाम स्मरण व्यक्ति तो है।
प्रेम पुमर्थो महान् ( चैतन्य मंजूषा)

पंचम पुरुषार्थ,अंतिम पुरुषार्थ जीवन का लक्ष्य है। यह हमारे जप तथा कीर्तन का भी लक्ष्य है कि हम प्रेम पूर्वक जप और कीर्तन करें एवं सारे भक्ति के कार्य करें। भक्ति की शुरुआत तो आदौ श्रद्धा से होती है और जैसे-जैसे श्रद्धा अधिक बढ़ेगी और अधिक बढ़ेगी, और अधिक बढ़ेगी तो उसी के साथ साथ वैसे वैसे ही हम एक सोपान से दूसरे सोपान से तीसरे सोपान फिर चौथे सोपान और अंततोगत्वा प्रेम के स्तर अथवा सोपान अथवा श्रेणी को प्राप्त करेंगे। हम शत प्रतिशत उसे प्राप्त करेंगे।

हे प्रह्लाद! तुम्हारा भगवान क्या इस स्तम्भ में भी है। तब प्रह्लाद ने पूरे दृढ़ विश्वास के साथ कहा यस! यस! क्यों नहीं? भगवान कण कण में हैं। भगवान सर्वत्र हैं।

एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं-
यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः।
अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ ( ब्रह्म संहिता श्लोक५.३५)

अर्थ:-जो शक्ति एवं शक्तिमान मे अभिन्नता होने के कारण निर्भेद एक तत्त्व हैं, जिनके द्वारा करोड़ों ब्रह्माण्ड़ों की सृष्टि होने पर भी जिनकी शक्ति उनसे पृथक नहीं है, जिनमें सारे ब्रह्माण्ड स्थित हैं एवं जो साथ ही साथ ब्रह्माण्डों के भीतर रहने वाले परमाणु समूह के भी भीतर पूर्ण रूप से विद्यमान हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
भगवान, स्तम्भ में भी हैं। ऐसा विश्वास। भक्त प्रह्लाद ने कहा ही था और भगवान सोच ही रहे थे मैं खंबे में भी हूं, मुझे मेरे भक्त के वचन को सच साबित करना अथवा कराना होगा।

सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः।
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम्।। ( श्री मद् भागवतम ७.८.१७)

अर्थ:- अपने दास प्रह्लाद के वचनों को सिद्ध करने के लिए कि वे सत्य हैं अर्थात यह सिद्ध करने के लिए कि परमेश्वर सर्वत्र उपस्थित हैं, यहाँ तक कि सभा भवन के खंभे के भीतर भी हैं- पूर्ण पुरषोत्तम भगवान् श्री हरि ने अपना अभूतपूर्व अद्भुत रुप प्रकट किया। यह रूप न तो मनुष्य का था, न सिंह का। इस प्रकार भगवान् उस सभाकक्ष में अपने अद्भुत रुप में प्रकट हुए।

भगवान अपने भक्त का वचन सत्य करने के लिए उस स्तम्भ में से प्रकट हुए। मैं उसमें भी हूं। भगवान ने इसे सिद्ध करके दिखाया। इस प्रकार भगवान सर्वत्र हैं। स्तम्भ में भी हैं। जब हम उनकी मूर्ति बनाते हैं तो तब क्या वह मूर्ति में नहीं हैं? जब हम भगवान का विग्रह बनाते हैं और उसकी प्राण प्रतिष्ठा भी करते हैं, तब क्या भगवान मूर्ति में नहीं है। क्या मूर्ति ही भगवान नहीं है?

पहले तो मूर्ति अथवा स्तम्भ में भगवान थे। स्तम्भ भी भगवान बन सकते हैं। जब हम शिला भी भगवान के आकार की बनाएंगे। शिला की विग्रह मूर्ति बनाएंगे, उसकी प्राण प्रतिष्ठा होगी। जब भगवान सर्वत्र हैं तो विग्रह में भी हैं । जाओ, मिलो, दर्शन करो। राधा पंढरीनाथ या राधा दामोदर या राधा गोविंद या राधा श्याम सुंदर या श्री गौर निताई का स्मरण करो। गौर निताई की जय! ऐसी श्रद्धा विग्रह में भगवान हैं अर्थात विग्रह ही भगवान है, रखो। आराधना भी करो।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। ( श्री मद् भगवतगीता १८.६५)

अर्थ:-सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो।
यह श्रद्धा अनिवार्य है। श्रद्धा से काम बनते हैं। जब जेंटलमैन (पुरुष) या लेडीस( महिलाएं) हेयर कटिंग सैलून में जाते/ जाती हैं तब आप वहाँ कुर्सी पर आईने के सामने बैठते हैं, फिर वहां नाई रेजर लेकर आता और खड़ा होता है लेकिन आपको भी विश्वास होता है कि वह इस रेजर का उपयोग मेरी गर्दन या नाक या कान काटने के लिए नहीं करेगा। आपकी ऐसी पूरी श्रद्धा होती है। आपको यह विश्वास होता है तभी तो आप केवल बैठते ही नहीं हो अपितु आप आंख बंद करके बैठते हो। आप तिरछी नजरों से देखते भी नहीं क्योंकि आपका विश्वास है कि वह अपने रेजर से मुझे काटने वाला नहीं है। श्रद्धा के बिना काम नहीं बनता। श्रद्धा से ही काम सिद्ध होते हैं।
चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से कहा कि सर्व कर्म कृत हय।

श्रद्धा या विश्वास अनिवार्य है। हरि नाम में भी श्रद्धा अनिवार्य है। श्रद्धा नहीं है, तो फिर अपराध होगा अथवा हम अपराध करेंगे। हरि! हरि!

जैसे शहद की बोतल है, उस पर लिखा भी होता है कि यह शहद कैसा है? विशेष मीठा है। आपने पढ़ तो लिया जो छापने वाले ने चिपकाया था कि शहद मीठा है, आपने विश्वास कर लिया लेकिन आपको यह ज्ञान तब हुआ कि यह शहद मीठा है जब आप उस बोतल का ढक्कन खोल कर, उसका आस्वादन करोगे, स्वयं ही चखोगे, तब आपको ज्ञान हो गया कि जैसा सुना था अथवा पढ़ा था, वैसा ही है। यह मीठा है ऐसा लिखा था। शायद मीठा होता है। लेकिन अब चख लिया तो बात पक्की हो गई। हरि नाम मीठा है। जब हम सुनते हैं ऐसा विश्वास करते हैं लेकिन जब हम स्वयं इसका आस्वादन करेंगे, श्रवण कीर्तन होगा।यह हरेर्नामैव केवलम् होगा।( केवलाष्टकम)

तृणादपि सुनीचेन
तरोरपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीयः सदा हरिः॥ ( श्री शिक्षाष्टकं श्लोक संख्या 3)

अर्थ:-स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
तब उस ज्ञान का होगा विज्ञान।

श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। ( श्रीमद् भगवतगीता ९.१)

अनुवाद:-श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसीलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

ठीक है, आज की जप चर्चा के विषय में कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी, यदि है तो अतिशीघ्र पूछिए।
प्रश्न:- परिकल्पना व मन के अत्याधिक विचारों से कैसे बचा जाए।

गुरु महाराज:- अभ्यास किया जाए। नए विचारों या आध्यात्मिक विचारों या हरिनाम के विचार का चिंतन करो। भगवान की लीला का स्मरण करो या विचारों का मंथन करो। तब यह जो पुराने अथवा बुरे व मायूस विचार हैं, आप उनसे मुक्त होंगे। भगवत गीता का छठवां अध्याय पढ़ो जिसमें मानव शास्त्र या साइकोलॉजी को भी समझाया है कि मन के कार्यकलाप कैसे चलते रहते हैं। मन कितना चंचल है और चंचल मन को स्थिर कैसे बनाना है। उसमें भगवान ने बताया है।

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥३४॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ६.३४)

अनुवाद:- हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है
जहां जहां मन जाता है, वहां वहां से चञ्चलं मनः स्थिरं , वहां वहां से वापस लाओ और भगवान के चिंतन, नाम, रूप, गुण, लीला, धाम के विचारों में इसको लगा दो। यह तो शास्त्र की ए. बी. सी है। जप का शास्त्र है, जप की विधि है। यहां से तो शुरुआत होती है। हम पहले कितनी बार बता चुके हैं, बहुत बार बताने के उपरांत भी भौतिक आसक्ति बनाए रखना भी दसवां नाम अपराध है। कितनी बार बताना है। कब तक आसक्त रहोगे? जिस प्रकार कर्मकांडी ब्राह्मण आसक्त था। इसलिए वह कर्मकांड कर रहा था। इसीलिए उसको कहा कि हां, तुम अपना कर्मकांड करते रहो और दस हजार साल तो करते रहना होगा। तत्पश्चात तुम्हारा नंबर लगेगा। लेकिन दूसरा जो मोची था, वह आसक्त नहीं था, वह भक्ति कर रहा था, जप करते हुए उसके जीवन में वैराग्य था। वह वैराग्यवान था। उसका जीवन सिंपल लिविंग, हाई थिंकिंग था। हमारा मन जहां जहां जाता है, केवल जप के समय ही नहीं, यह समस्या नही है कि केवल जप के समय मन जाता है कि तभी मन को वापस लाना चाहिए और पुनः मन को भगवान् के रूप में स्थिर करना चाहिए। ऐसी बात नहीं है। हमें दिन के 24 घंटे व्यस्त रहना चाहिए। दिन, रात, प्रातः काल, मध्यान्ह, सायं में जब जब मन जहां जहां जाता है, वह माया का स्थान है। मायावी विचार है। ऐसा नहीं है कि दिन भर मन जहां जाना चाहता है,उसे जाने दो, जाओ, स्वेच्छाचार चल रहा है और जब जप के लिए बैठेगें तभी मन को वापस लाएंगे। आपने उस मन को कल या रात में जहां-जहां जाने दिया, प्रातः काल जब-जप के लिए बैठोगे तो मन तो वहीं जाएगा, जहां आपने रात को या कल या परसों जाने दिया था। जहां नहीं जाना चाहिए था। जो निषेध है अर्थात जो निषेध विचार अथवा निषेध स्थान है, जो भी है, आपने उसमें जाने दिया , कोई रोकथाम नहीं की, और अब जब जप के लिए बैठे तो अब आप प्रयास कर रहे हो कब वापस आएगा तो यह बहुत मुश्किल होगा। यदि आप अचानक ब्रेक लगाएंगे तो एक्सीडेंट भी हो सकता है। साधक को हर समय व्यस्त रहना है। हरि! हरि! श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा कि मन यदि कहीं जाता है तो उसको डांटो, फटकारो। वे तो कहते हैं कि मन को जूते से पीटो। प्रातः काल में झाड़ू से और दिन में जूते से ठोकर लगा दो। आप तो हंस रहे हो। आप गंभीर नहीं ले रहे हो। ये सब करते रहना है। इसे गंभीरता से लेना है तभी तो ब्रेक लगाते लगाते कुछ नियंत्रण में आएगा। तब फिर भगवान के धाम में जाने की बात होगी। यदि यह कंट्रोल में नहीं आएगा तो फिर एक और जन्म है । फिर एक और जन्म लेना होगा। यह चलता रहेगा।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननी जठरे शयनं
इह संसारे खल दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे।

अर्थ:बार-बार जन्म लेने का दुख बार-बार मरने का दुख और बार-बार मां के पेट में रहने का दुख क्यों भोग रहा है? अरे मूढ़मति इन दुखों को समाप्त करने के लिए श्रीकृष्ण का स्मरण कर।
प्रश्न- हम अपनी श्रद्धा को कैसे विकसित कर सकते हैं जबकि हम पूरा दिन भौतिक लोगों का संग करते हैं और हमारी सारी क्रियाएं भी भौतिक होती हैं। मार्गदर्शन दीजिए कि हम कैसे अपनी श्रद्धा को अधिक से अधिक विकसित कर सकते हैं।

गुरु महाराज:- एक तो हमने कहा कि अपनी साधना भक्ति करो। हर रोज प्रसाद ग्रहण करो।

कृष्ण बड दयामय, करिवारे जिह्वा जय,
स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई।
सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ,
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥3॥ ( महाप्रसादे गोविन्दे)

अनुवाद:- भगवान् कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादम दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।

प्रसाद का जो सेइ अन्नामृत है, उसका अनुभव करो। प्रसाद ग्रहण करोगे तो विश्वास होगा कि यह अमृत है। हरि नाम का आस्वादन करो। कथा का श्रवण करो। भगवान के दरबार में जाओ, भगवान् का दर्शन करो। उनसे प्रार्थना करो ताकि आप की आसक्ति भगवान में बढ़े। सत्संग करो। एक आइटम तो यही है।

‘साधु सङ्ग’,’ साधु सङ्ग’- सर्व शास्त्रे कय।
लव- मात्र साधु- सङ्गे सर्व- सिद्धि हय।। (श्री चैतन्य- चरितामृत मध्य लीला २२.५४)

अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।
साधु संग करो। साधु कौन है, जो इस्कॉन के भक्त हैं, गॉड ब्रदर, गॉड सिस्टर जो भी जो सीनियर भक्त है, उनका संग करो। मिलो, जाओ, बैठो। उनसे सुनो, उनसे प्रश्न पूछो। जैसे आप पूछ रहे हो वैसे अलग अलग प्रश्न पुनः पुनः हर रोज़ पूछे जा सकते है। अलग-अलग प्रश्न पूछो। साल में एक प्रश्न पूछा तो..

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ( श्री मद् भगवतगीता ४.३४)

अनुवाद:- तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो।स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।

उनसे प्रश्न पूछे जाने चाहिए। अपने दीक्षा गुरु से पूछो, शिक्षा गुरु से पूछो और गुरुजनों, साधुओं से पूछो कि यह समस्या है, वह समस्या है। अपने प्रश्नों के उत्तर का पता लगाओ। करते-करते चेतो दर्पण मार्जनम् होगा।

चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। ( श्री श्री शिक्षाष्टकं श्लोक 1)

अनुवाद:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। इससे श्रद्धा बढ़ेगी। हरि कथा का आस्वादन करो।

नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।
भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।। ( श्रीमद् भागवतम १.२.१८)

अर्थ:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से ह्रदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रंशसा दिव्य गीतों से की जाती है।

नित्य भागवतं सेवया करो।

जो भी अभद्र व अमंगल है, जो लौकिक है यदि नित्य भागवत सेवया करोगे, तब आप आसक्त होंगे। पहले तो तरल भक्ति चल रही थी। यह भक्ति का प्रकार अथवा स्तर होता है। जैसे
आदौ श्रद्धा तत: साधु- सङ्गोस्थ भजन क्रिया। ततोअ्नर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रूचिस्ततः।।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति।
साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः।। ( श्री चैतन्य चरितामृत २३.१४-१५)

अनुवाद:- सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है तत्पश्चात् वे गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि-विधानों का पालन करता है। इस तरह वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। उसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। यह साधन भक्ति का मार्ग है। धीरे-धीरे भाव ग्रहण होते जाते हैं अंत में प्रेम जागृत होता है। कृष्णभावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए यही भगवत्प्रेम के क्रमिक विकास की प्रक्रिया है।
आदो श्रद्धा, साधु संग, भजन क्रिया… भजन क्रिया कभी घनीभूत होती है तो कभी तरल होती है। कभी-कभी हम ढीले पड़ जाते हैं। कभी भक्ति करते रहते हैं और कभी ढीले पड़ जाते हैं। यह घन और तरल इसके स्तर हैं। यह सब करना होगा।

जैसे जैसे हम हरिनाम सुनते जायेगे और हरिनाम लेंगे नहीं तो हरिनाम में श्रद्धा कैसे बढ़ेगी? कृष्णं शरणम ममं, सम्प्रदाय में कुछ साधक होते है जो कृष्णं शरणम ममं।
भगवान् की शरण लो , ले तो रहे हो। भगवान् की शरण लो, उस शरण का अनुभव करो। शरणम मम कृष्ण..

प्रश्न- हम कहते हैं कि गुरु से जो हमारा रिश्ता है, एक जन्म का नहीं अपितु हर जन्म का है। हम इस भौतिक जगत में है तो भौतिक जगत में दीक्षा लेने के बाद हम शुद्ध हो जाएंगे और हम अगले जन्म में भगवत धाम वापस चले जाएंगे लेकिन गुरु के साथ हमारा हर जन्म में रिश्ता कैसे है? जैसा कि मैं चाहती हूं कि यहां उपस्थित सभी भक्तों और मैं भी अगले जन्म में हम दोबारा भौतिक संसार में ना आए और हम भगवत धाम चले जाएं लेकिन पूर्व में भी ऐसा हुआ है कि शुद्ध भक्तों को दोबारा जन्म लेना पड़ा है तो किस तरीके से गुरु के साथ हमारा जन्म जन्मांतर का हर जन्म में रिश्ता होता है ? हमारा गुरु के साथ रिश्ता कैसे शाश्वत होता है? और कैसे हर जन्म में हमें गुरु की प्राप्ति होती है?

गुरु महाराज:- मैंने सुना है और प्रभुपाद भी कहा करते थे कि अगर आप इस जन्म के अंत में मुक्त नहीं होंगे तो अगले जन्म में आपकी सहायता करने के लिए गुरु को जन्म लेना होगा। तुम चाहती हो कि गुरु को अगला जन्म दोबारा ना लेना पड़े तो तुम ऐसी तैयारी करो जिससे इसी जन्म के अंत में भगवत धाम लौट सको। वैसे गुरु तत्व इतना आसान नहीं है या गुरु समझना आसान नहीं है। गुरु तो गुरु तत्व है। गुरु तत्व के अंतर्गत दीक्षा गुरु है। गुरु तत्व के अंतर्गत शिक्षा गुरु, पथ प्रदर्शक गुरु भी हैं। इसको ‘द गुरू’ भी कहते हैं। गुरु एक है। एक गुरु ही अलग अलग व्यक्तित्व को धारण करते हुए गुरु की भूमिका निभाते हैं। जैसे विष्णु तत्व हैं, वैसे गुरु तत्व भी हैं। कहा जाए तो विष्णु ने ही गुरु तत्व या गुरु का निर्माण किया है जिससे वे आपको विष्णु का परिचय दे सकें । वे आपको विष्णु के पास ले जा सकते हैं। यह भगवान की हुई व्यवस्था है। वे हमें पहले गुरु के पास पहुंचाते हैं। तत्पश्चात गुरु हमें भगवान के पास पहुंचाते हैं। यह दोनों दो तत्व हैं। एक विष्णु तत्व हैं और एक गुरु तत्व है। गुरु तो भगवान का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि

साक्षाद्-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः
उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः।
किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (श्री श्री गुर्वाष्टक ७)

अनुवाद:- श्रीभगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्री गुरुदेव को स्वयं श्रीभगवान् ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी श्रुति-शास्त्र व प्रामाणिक अधिकारिओं ने स्वीकार किया है। भगवान् श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे अतिशय प्रिय प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।

गुरु, भगवान का साक्षात प्रतिनिधि है। साक्षात हरि हैं। किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य वे साक्षात हरि हैं किन्तु वे हरि के प्रिय भी हैं। हरि के प्रिय भक्त भी हैं। वहाँ पहुंचने पर भी हमारा संबंध गुरु के साथ सदैव दास या आपका सेवक के रुप में सदा के लिए बना रहेगा। वैसे भगवान के साथ भी हमारा संबंध शाश्वत है। सभी भक्तों के साथ भी हमारा संबंध है। हमारा संबंध केवल भगवान के साथ नहीं है। हमारा संबंध भक्तों के साथ भी है। हमारा भगवान के साथ अगर शाश्वत संबंध है तो अन्यों भक्तों के साथ जो संबंध है, वह भी शाश्वत है। उन भक्तों में से जो गुरु तत्व है। जो गुरु हैं उनके साथ भी हमारा संबंध शाश्वत है। हम ऐसे कुछ फिलोसॉफिकली तत्व ज्ञान की दृष्टि से कुछ समझ सकते हैं। वैसे हमें एक समय यह सारी बातें अचिन्त्य है ऐसा भी कहकर रुकना पड़ता है। हम अपना सारा दिमाग नहीं लड़ा सकते। सारा अथवा पूरा का पूरा नहीं समझ पाते। तर्क वितर्क का काम नहीं होता। यह तर्क वितर्क के परे की बातें हैं। गुरु के साथ हमारा संबंध कहां है? गुरु के साथ हमारा सदा का संबंध है। विश्वास करो और आगे बढ़ो। यह शास्त्र की बात है। गुरु में विश्वास या गुरु के साथ संबंध शाश्वत है, ऐसा शास्त्र कहते हैं। साधु, शास्त्र आचार्य कहते हैं तो यह प्रमाण है। वे अधिकृत है। हमें स्वीकार करना होगा। इसको रिलाइज( अनुभव) करें या ना करें। परंतु जो कहा है वह सत्य है। मैं रिलाइज कर रहा हूं या नहीं कर रहा हूं लेकिन यह जो कहा है वह सत्य है। हमें ऐसे विश्वास के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हो सकता है धीरे-धीरे हम उसका अनुभव भी करने लगेंगे कि हमारा संबंध भगवान के साथ और भक्तों के साथ और गुरु के साथ शाश्वत संबंध है। इसका कुछ अधिक अधिक अनुभव भी होगा और फिर जो कन्फ्यूजन अथवा संशय है फिर हम उस भ्रम से मुक्त हो सकते हैं। हरि! हरि! शास्त्र में कही हुई बात प्रामाणिक है। भगवान् कहते हैं शास्त्रम प्रमाणते..

इदम शास्त्र प्रमाण
शास्त्र में जो कहा है, वह सत्य है। नारद मुनि जो कह रहे थे कि मैंने भगवान को देखा है, भगवान ऐसे ऐसे कर रहे थे। नारद मुनि अगर कह रहे है तो सत्य है। उसको हम समझते हैं अथवा नहीं समझते हैं जैसे कि वह कर्मकांडी ब्राह्मण नहीं समझ रहा था। वह बात अलग है। उससे फर्क पड़ता है। यदि हमें विश्वास नहीं है तो मरते रहो, जीते रहो। लाइफ गोज ऑन अगर श्रद्धा अथवा विश्वास है और सत्य को स्वीकार करते हैं।

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ( श्री मद् भगवतगीता १०.१४)

अनुवाद:- हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।
अर्जुन ने गीता सुनी तो दसवें अध्याय में अर्जुन ने कहा केशवः जो भी आप मुझे कह रहे हो सर्वमेतदृतं यह सब सत्य है। आप जो भी कह रहे हो वह सत्य है और मुझे स्वीकार है। ऐसा अर्जुन ने एडमिट किया। हमें भी अर्जुन जैसे विश्वास करना चाहिए और हमारी स्वीकृति होनी चाहिए। तभी हम भगवत गीता यथारूप में समझ पाएंगे। ठीक है। हम यहाँ विराम देते हैं।

हरे कृष्ण!