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जप चर्चा दिनांक 17 अक्टूबर 2020 हरे कृष्ण! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 723 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ अर्थ:- मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी आकाश से मेरी आंखें खोल दी। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूं। थाईलैंड के भक्त सामूहिक मंगल आरती कर रहे हैं। वहाँ मंगल आरती का समय है। हरि! हरि! आप सब जप कर रहे थे। दुनिया के अधिकतर लोग जप करते ही नहीं, क्या आप ऐसे लोगों को जानते हो जो जप नहीं करते हैं? आपके इर्द-गिर्द या अड़ोस- पड़ोस या आपके मोहल्ले, नगरादि ग्रामों में ऐसे लोग मिलेंगे जो जप भी नही करते और तप भी नहीं करते। वे कुछ भी नहीं करते, केवल अपना काम धंधा ही करते रहते हैं। काम का धंधा करते हैं। वे कलि के चेले होते हैं। भागवतम में वर्णन है- कलौ शुद्रसम्भव: (श्रीमद् भागवतं १०.८६.५९ तात्पर्य) अर्थ:- इस कलियुग में प्रत्येक व्यक्ति शुद्र पैदा होता है। कलौ अर्थात कलियुग में, शूद्र अर्थात शुद्र, सम्भव मतलब होना अर्थात कलियुग में शुद्र होते हैं। हरि! हरि! त्वं नः सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम्। कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम्।। (श्रीमद् भागवतम १.१.२२) अर्थ:- हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्यों के सत्व का नाश करने वाले उस कलि रुप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रुप में ग्रहण कर सकें। कलियुग में व्यक्ति शुद्र कैसे बनता है अर्थात कलि का चेला कैसे बनता है? 'सत्त्वहरं पुंसां' जब यह कलियुग मनुष्य की सत्व गुण अथवा अच्छाई जिसे मराठी में सांगलुपना भी कहते हैं, को हर लेता है अर्थात जब वह सत्व से रहित या सतो गुण से रहित कहा जाए या एक से युक्त और दूसरे से मुक्त हो जाता है, तब वह कलि का चेला बनता है। कलियुग, सतोगुण से मुक्त होता है। कलियुग के जीवों में सतोगुण नहीं होता है। वे तमोगुण से युक्त होते हैं। सतो, रजो , तमो तीन ही गुण होते हैं और कलियुग में तमोगुण का प्राधान्यता होती है। इसीलिए 'कलौ शुद्रसम्भव:' लोग सर्वत्र शुद्र होंगें अर्थात इस पृथ्वी पर सभी मनुष्य अधिकतर शुद्र ही होंगे। यहां हिंदू होने का कोई संबंध नहीं है। हम हिंदू थोडे ही हैं? विदेश के लोग कहते हैं कि हम हिंदू थोडे ही हैं। हम हिंदू नहीं हैं, इसलिए हम शुद्र भी नहीं हैं। हमारा शुद्रता के साथ कोई संबंध नहीं है। हम हिंदू नहीं हैं। आप हिंदू हो या नहीं हो लेकिन आप शुद्र हो क्योंकि आप कलियुग में हो। कलियुग में तमोगुण की प्राधान्यता होती है और तमोगुण विश्वव्यापी है। हरि! हरि! चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || ( श्री मद् भगवतगीता ४.१३) अनुवाद:- प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये | यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्त्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ | भगवान कहते है कि 'चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः' अर्थात मैंने ही इन चार वर्णों की व्यवस्था की है कि कौन किस वर्ण का है? यह इस वर्ण का है, वह इस वर्ण का है, यह कैसे निर्धारित होगा? गुणकर्मविभागशः- कौन व्यक्ति किस वर्ण का है? यह उसके गुण और कर्मों पर निर्भर रहेगा। यह तो वेद की वाणी है और गीता की भी वाणी है, कृष्ण की वाणी है। यह सतो, रजो और तमो जो तीन गुण जो है- यह कितना बढ़िया ज्ञान है। यह उत्तम ज्ञान है। हरि! हरि! दुनिया वालों को यह गुण क्या होते हैं, उनका पता ही नहीं है। इस संसार में गुणो- अवगुणों की गणना होती रहती है कि यह गुण है, वह गुण है लेकिन शास्त्रों, वेदों, पुराणों , भगवत गीता में तीनों गुणों सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण का उल्लेख किया हुआ है। गुणकर्मविभागशः से समाज का विभाजन होगा। चातुवर्ण्यं मया सृष्टं चातुवर्ण्यं अर्थात चार वर्ण। समाज, देश, संसार का चार वर्णों में विभाजन होगा और हुआ है। जो सतोगुण में हैं, वे ब्राह्मण हैं।आपको ब्राह्मण-अमेरिका, यूरोप, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया,अफ्रीका में भी मिलेंगे। उनको लोग ब्राह्मण नहीं कहते हैं क्योंकि ब्राह्मण क्या करते हैं? (यह आपको थोड़ा ज़्यादा बता रहे हैं, थोड़ी आगे की बात बता रहे हैं) ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन, यजन याजन करते हैं। वे अध्ययन अध्यापन किसका करते है?- शास्त्रों का अध्ययन व अध्यापन करते हैं। वे शास्त्र को पढ़ते और पढ़ाते हैं । शास्त्र तो संसार भर में हैं । बाइबल, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब आदि जो इन ग्रंथों का अध्ययन करते हैं व जो गिरजाघर या चर्च या मस्जिद या गुरुद्वारे से जुड़े हुए हैं वे ब्राह्मण हैं। वे शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और उसको पढ़ते, पढ़ाते हैं व उसका प्रचार भी करते हैं। वे स्वयं धार्मिक हैं। वे गॉड कॉन्शियस हैं लेकिन कृष्ण कॉन्शियस नहीं हैं। अपितु वे गॉड कॉन्शियस तो हैं ही। वे सतोगुणी ब्राह्मण होंगे। क्षत्रिय रजोगुणी होंगे। उनमें कुछ सतोगुण भी होगा कुछ रजोगुण भी होगा। यह दो वर्ण हुए। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जिसमें सतोगुण भी कम् हुआ रजोगुण कम् हुआ और थोड़ा तमोगुण भी आ गया। ऐसा व्यक्ति वैश्य बनता है। जिससे वैश्यों का समाज बनता है। इस प्रकार पूरा संसार, देश अथवा मनुष्य जाति का विभाजन होता है कि यह ब्राह्मण है, यह क्षत्रिय है और यह वैश्य है। हर एक का अपना कार्य होता है। क्षत्रियों का कार्य प्रशासनिक केवल शासन ही नही अपितु सुशासन अथवा अनुशासन करना होता है। ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम्। आचरन्दासवन्नीचो गुरौ सुदृढ़सौहदः ।। ( श्रीमद् भागवतम ७.१२.१) अनुवाद:- नारद मुनि ने कहा: विद्यार्थी को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखने का अभ्यास करे। उसे विनीत होना चहिये और गुरु के साथ दृढ़ मित्रता की प्रवृति रखनी चाहिए। ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह महान् व्रत लेकर गुरुकुल में केवल अपने गुरु के लाभ के हेतु ही रहे। जब वैदिक पद्धति में क्षत्रिय बालक को ब्रह्मचारी आश्रम में भेजा करते थे। जब कृष्ण और बलराम भी छोटे थे और भी कई सारे बालक भी, संदीपनी मुनि के आश्रम में गए थे। ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम्- जब बालक ब्रह्मचारी होते हैं, वहीं पर उन बालकों की प्रवृत्ति व उनके गुण धर्मों को देखा जाता है, उनका अवलोकन किया जाता है। उनके लक्षणों की ओर ध्यान दिया जाता है। उसके अनुसार उनको वहीं पर ट्रेनिंग दी जाती है। यह ब्राह्मण बनेगा अर्थात इसमें ब्राह्मण के गुण अथवा प्रवृत्ति है। इसमें ब्राह्मण के कार्यों में प्रति कुछ, लग्न अथवा आकर्षण है। जिसमें लीडरशिप क्वालिटी( प्रबंधन का गुण) भी है। वह एक क्षत्रिय बन सकता है। उसको एक क्षत्रिय की ट्रेनिंग दी जाती थी।वैश्य अर्थात कृषि गौरक्षा वाणिज्य, कृषि अथवा गौ रक्षा व पशुपालन, व्यापार करेगा और जिनमें ब्राह्मणों की प्रवृति व गुण नही है, क्षत्रियों की भी नहीं है, वैश्यों की भी नहीं है अथवा जो फिर बचे हैं व अवशेष हैं। वे शुद्र होंगे। वे सेवा करेंगे। वे ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों की सहायता करेंगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को द्विज कहा है। द्विज मतलब दूसरा जन्म। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का होता है लेकिन शुद्र द्विज नहीं कहलाते। वे केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सहायता करते हैं। लेकिन फिर भी वर्णाश्रम पद्धित में उनका समावेश है। क्योंकि वे शुद्र बन कर भी ब्राह्मणों को सहायता करते हैं । जब ब्राह्मण मंदिर का निर्माण करेंगे, तब वे उसके लिए पत्थर फोड़ेंगे, वुड वर्क आदि कर ब्राह्मणों की सहायता करते हैं या राजा की सहायता करते है। इस प्रकार शूद्रों का भी वर्णाश्रम में समावेश है। हरि! हरि! लेकिन जो शुद्र होने के लिए भी फिट नही हैं या जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों की सेवा करने की क्षमता नहीं रखते अथवा उनमें ऐसी कोई रुचि नहीं है तब वे फिर कहीं फिट नहीं होते और वर्णाश्रम धर्म में उनका समावेश नहीं होता। वे यवन बन जाते हैं, चांडाल बन जाते हैं। चांडाल,शुद्र से भी नीच है। यवनाखसा भागवतं में ऐसे कई सारे उल्लेख हुए हैं। हरि! हरि! ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो शुद्र भी नहीं होते, शुद्र से भी नीच होते हैं। फिर वे मनुष्य भी नहीं होते हैं। आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।। ( हितोपदेश) अनुवाद:-मानव व पशु दोनों ही खाना, सोना, मैथुन करना व भय से रक्षा करना इन क्रियाओं को करते हैं परंतु मनुष्यों का विशेष गुण यह है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन का पालन कर सकते हैं। इसलिए आध्यात्मिक जीवन के बिना, मानव पशुओं के स्तर पर है। शुद्र को पशु नही कहा जायेगा क्योंकि शुद्र भी मदद कर रहे हैं। वे अप्रत्यक्ष रूप से भगवान या भगवान के सेवकों की सेवा कर रहे हैं अर्थात वे ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्यों की सहायता कर रहे हैं। वे धर्म विहीन नहीं हैं। वे भी धार्मिक हैं क्योंकि वे भी सहायता कर रहे हैं । जिस प्रकार हमारे शरीर के सारे अवयव या अंग पेट की पूजा अथवा सेवा करते हैं। पेट शरीर का एक केंद्र है। पेट ही सेंटर पॉइंट है। पेट भरने के लिए अन्य अंग भी काम करते हैं, हाथ, पैर सब काम करते हैं। जब पेट भर जाता है तो फिर उन पदार्थों को हजम करने में, उसको पाचन क्रिया में और फिर अंग जैसे पैर भी सेवा करते हैं अथवा सहायता करते हैं। सिर, हाथ, पेट, पैर सभी शरीर के अवयव हैं। यह सारे मिलकर एक दूसरे को योगदान देते हैं, उनका एक प्रकार से लक्ष्य बन जाता है - अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः | यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। ( श्रीमद् भगवतगीता ३.१४) अनुवाद: सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है। भूतानि अर्थात होंगे, मनुष्य अर्थात और अन्य योनियों के शरीर भी बने रहेंगे। इस शरीर का मेंटेनेंस संभव है। कैसे? अन्नाद्भवति भूतानि- जब हम अन्न ग्रहण करते हैं, तभी हम जी सकते हैं। तभी हमारा मेंटेनेंस संभव है,अन्न ग्रहण करके बॉडी का मेंटेनेंस होगा अथवा यह शरीर जीता रहेगा व बना रहेगा। इसमें चारों अवयव । सारे मनुष्यों के शरीर के जो अलग-अलग अवयव, अंग, पुर्जे व पार्ट्स हैं। समाज की रक्षा के लिए, समाज की मेंटेनेस के लिए व समाज की स्थिति के लिए योगदान देंगे। सृष्टि, स्थिति, प्रलय यह तीन क्रियाएं होती हैं। सृष्टि तो हो गयी। शरीर ने जन्म लिया हुआ है। सृष्टि जब होती है तो उसका पालन कार्य भी बना रहता है तो समाज को मेंटेन करना है सारे मनुष्य समाज को मेंटेन करना है। चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || ( श्रीमद भगवद्गीता ४.१३ ) इस मेंटेनेंस में सारे चारों वर्ण के चारों आश्रम भी आते हैं । पहले वर्ण होते हैं, फिर आश्रम होते हैं। चारों वर्णों के लोग जुड़े रहते हैं। भागवतम् में वर्णन है अतः पुम्भिर्द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागशः। स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम्।। ( श्रीमद् भागवतं १.२.१३) अर्थ:- अतः हे द्विजश्रेष्ठ, निष्कर्ष यह निकलता है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा करने से जो परम् सिद्धि प्राप्त हो सकती है, वह है भगवान को प्रसन्न करना। सभी को मिलकर पेट को संतुष्ट करना है पेट भरना है, पेट एक प्रकार से इस शरीर का केंद्र है अथवा स्त्रोत है। इसी प्रकार सारे मनुष्यों का स्तोत्र भगवान है। सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः । तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। ( श्रीमद् भगवद्गीता १४.४) अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ। भगवान हमारे बीज हैं। भगवान हैं तो हम हैं। भगवान के कारण हम हैं। यह सारा समाज, यह सारी मानव जाति, मनुष्य समाज मिलकर मनुष्य के केंद्र में जो भगवान हैं, उनकी सेवा में लगे रहते हैं। संसिद्धिर्हरितोषणम्। यदि हम भगवान की सेवा में लगे रहते हैं तो भगवान प्रसन्न होते हैं और भगवान की प्रसन्नता ही संसिद्धि कहलाती है। वही हमारे जीवन की परफेक्शन है। सारे मनुष्य ने मिलकर सिद्धि को प्राप्त करना है। तभी परफेक्ट ह्यूमन सोसाइटी बनेगी जब सारे वर्णों और सारे आश्रमों के लोग मिलकर रहेंगे। यहां तो वर्णो की चर्चा हो रही है। जब सभी जन भगवान की सेवा में लगेंगे। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। ( श्रीमद् भगवतगीता ४.८) अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | धर्म संस्थापना हेतु साधुर् व्यवहार करेंगे... यदि वे धार्मिक हैं तो वे साधु भी कहलाएंगे। उनके सारे व्यवहार का उद्देश्य संसिद्धिर्हरितोषणम् होगा। अर्थात वे उसी के साथ धर्म की स्थापना करेंगे। कृष्णभावना की स्थापना करेंगे। जब कृष्णभावना की स्थापना होगी और धर्म की स्थापना होगी, तब वही धर्म देश , मनुष्य समाज की रक्षा करेगा। हरि! हरि! मनु स्मृति का वचन है धर्म रक्षति रक्षिता हमनें धर्म का रक्षण किया, हमनें धर्म का पालन किया या हमनें धर्म का प्रचार प्रसार किया तो हम इस धर्म की छत्रछाया में सभी सुरक्षित रहेंगे। कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गःपरं व्रजेत्।। ( श्रीमद् भागवतम १२.३.५१) अर्थ:- हे राजन यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण भी है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भव बंधन से मुक्त हो सकता है और दिव्य धाम को प्राप्त करता है। इस समाज, देश, परिवार में जो भी दोष अथवा त्रुटियां हैं, यह कलियुग का प्रभाव है। यह कलियुग के प्रभाव के कारण त्रुटि है। पूरा समाज या पूरा देश या पूरी मानव जाति धर्म का अवलंबन करने से ही मुक्त होगी। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गःपरं व्रजेत्, तब हम फिर कलि के चेले नहीं रहेंगे। कलि के चेले ही तो ऐसा काम धंधा करते हैं, अपना खान-पान ऐसा रखते हैं क्योंकि राजा परीक्षित ने 5000 वर्ष पूर्व कलि को वो स्थान दिया था, अरे, तुम वहां रह सकते हो, जहां क्या होता है? अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ। द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्र्चतुर्विधः।। ( श्रीमद् भागवतम १.१७.३८) अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा: कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किए जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी, जहाँ जुआ खेलना, शराब पीना, वेश्यावृत्ति तथा पशु- वध होते हों। जहाँ द्यूतं पानं होता है। जहां मद्यपान होता है। कलि तुम वहां रहो। स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्र्चतुर्विधः जहाँ अभक्ष्य- भक्षण होता है, मांस मछली भक्षण होता है, वहां तुम रहो। जहाँ वेश्या गमन होता है, परस्त्री या पर-पुरूष गमन होता है, तुम वहां रहो। कलि के चेले बनकर हम यह सब काम धंधा करते रहते हैं। हमारा ऐसा चरित्र होता है हमारा ऐसा व्यवहार होता है, ऐसा हमारा खानपान होता है। ऐसा हमारा संग होता है। इसे ही भागवतम में कहा है कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः। यह दोष युक्त अथवा दोषपूर्ण जो समाज है, मनुष्य जाति है लेकिन यदि हम धर्म का अवलंबन करेंगे तो क्या होगा? कलियुग का धर्म है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। तब उसी के साथ वे जपकर्ता / कीर्तनकार अथवा वे वैष्णव या गौड़ीय वैष्णव परम दृष्ट्वा निर्वन्ते अर्थात ऊंचा ऊंचा स्वाद का अनुभव करने लगेगा। जिससे वह बड़ी आसानी के साथ यह मांस भक्षण, यह अवैध स्त्री पुरुष सङ्ग, नशापान या जुगाड़ आदि ठुकरा सकता है। तत्पश्चात यह सारे विचार अथवा ऐसे विचार ही नहीं आएंगे। वह ऐसे विचारों से मुक्त होगा। जब ऐसा विचार ही नहीं होगा तो ऐसा आचार कहां से होगा। ऐसे विचारों व ऐसी वासनाओं से व्यक्ति मुक्त हो जाएगा। पाप की वासना ही नहीं रहेगी। परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥१२॥ आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा । असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। ( श्रीमद् भगवतगीता १०.१२-१३) अनुवाद:-अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं। सूर्य उदय हो रहा है। सूर्योदय होते ही जो कृष्ण सूर्य सम अर्थात कृष्ण जो सूर्य के समान है। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधेरा दूर दूर भागता है। जहां कृष्ण वहां माया का अधिकार नहीं होता है। जहां सूर्य अथवा प्रकाश है वहां अंधेरा टिक नहीं सकता। वैसे भी जहां कृष्ण हैं, वहाँ माया टिक ही नहीं सकती। चैतन्य चरितामृत में वर्णन है कृष्ण सूर्य सम; माया हय अंधकार। याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार आधिकार।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.३१) अनुवाद:- कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान है। जहाँ कहीं सूर्य प्रकाश है, वहां अंधकार नहीं हो सकता। ज्यों ही भक्त कृष्ण भावनामृत अपनाता है, त्यों ही माया का अंधकार तुरंत नष्ट हो जाता है। यह मायावी कलियुग नहीं टिकेगा। इसका विनाश होगा। हरि! हरि! आप किसी कलि के चेले का नाम सुनना चाहते हो? कईं हैं और थे भी। ज्वलंत उदाहरण जगाई मधाई है। पापिइन में नामी। उनका नाम पापियों में था। वे हर प्रकार का पाप किया करते थे। मैं कहना चाहता था कि जैसे ही हम भगवान के संपर्क में आ जाते हैं तब भगवान जो पवित्र हैं तब हमारे अंदर जो भी अपवित्रता व अमंगल या गंदगी व गंदे विचार हैं, भगवान उसको पवित्र बना देते हैं। कीर्तन करने वाला, जप करने वाला या फिर नित्यम भागवत सेवया करने वाला अर्थात भागवत का श्रवण करने वाला या सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, अर्थात कृष्ण प्रसाद का अमृत पाने वाला, सत्संग करने वाला, पवित्र होंगे क्योंकि वे भगवान के संपर्क में आ जाते हैं। साधु- सङ्ग', 'साधु- सङ्ग'- सर्व शास्त्रे कय। लव मात्र साधु सङ्गे सर्व- सिद्धि हय।। (श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.५४) अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है। हमारा "हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे" कहते ही भगवान् कृष्ण के साथ संपर्क हो जाता है। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥ (श्रीमद भागवत 1.1.1) अनुवाद : हे प्रभु , हे वसुदेव - पुत्र श्रीकृष्ण , हे सर्वव्यापी भगवान् , मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ । मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति , पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं । वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं , क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं । उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े - बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं , जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है । उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड , जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं , वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं । अतः मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं । मैं उनका ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे ही परम सत्य हैं । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय कहते सुनते ही और भगवान की लीला कथा सुनते ही हम भगवान के संपर्क में आ जाते हैं। यदि हम भगवान के भक्तों के संपर्क में आ गए तो भगवान के भक्त तुरंत ही हमारा संबंध भगवान के साथ स्थापित करेंगे। जैसे यहां हो रहा है। वहाँ भी भगवान की चर्चा होगी। जैसे यहां सत्संग हो रहा है । वहाँ पहुंचते ही वहां क्या होगा? भगवान् कहते हैं - मेरा जो वीर्य है शौर्य है... उसकी चर्चा सुनने को मिलेगी। जब हम भगवान के तीर्थ आते हैं जैसे पंढरपुर आए या फिर इस्कॉन के मंदिर गए तब हम मुक्त आत्माओं के संपर्क में आते हैं और उनका दर्शन हमें पवित्र बना देता है। हरि! हरि! चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || १३ || अनुवाद: प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये | यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्त्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ। भगवान ने चार वर्ण चार आश्रम बनाए हैं। पहले वर्ण होते हैं तब आश्रम भी बनते हैं। इसको समझिएगा। हमें वर्णाश्रम का पालन करना है। एक दूसरे का हरिनाम का दान देना है। और इसी के साथ संसिद्धिर्हरितोषणम् जो लक्ष्य है और कृष्ण भावना की स्थापना होगी। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार। नाम हइते हय सर्व जगत निस्तार ।। (चैतन्य चरितामृत 1.17.22) अनुवाद:- इस कलियुग में भगवान के पवित्र नाम अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र भगवान कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है। जो कोई भी ऐसा करता है, उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है। भगवान् हरिनाम का अवतार ले हरिनाम के रूप में अवतरित हुए है। धर्मसंस्थापनार्थाय हरिनाम ही धर्म है। इसकी स्थापना करने का कार्य हमारा है अर्थात हम भक्तों का है। हम गौड़ीय वैष्णवों का है। हम साधकों का है, जो साधक आप बने हो। हम भगवान् के सम्पर्क में आकर और यदि उनके सम्पर्क में रहेंगे तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा और भी बहुत कुछ होगा। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!रे।।

English

17 October 2020 Varnashram is for the pleasure of Lord Hari Hare Krsna! Devotees from 720 locations are chanting with us right now. om agayana-timirandhasya gayananjana-salakaya chaksur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah Devotees from Thailand are doing Mangal Aarati and you all were chanting. Most of the people in this world don't chant. You can see many people around you who are not chanting. They don't chant nor perform any austerity. They are always engaged in their work. They are the followers of Kali. kalau sudra-sambhava Everyone in this age of Kali Yuga is a Sudra[low class]. They are all majorly in the mode of ignorance. Their goodness is taken away by this age. Goodness is lost and ignorance and passion remain. Everyone is a Sudra. This has nothing to do with Hindus, Muslims, Christians, or any other person. You cannot say, “I cannot be Sudra because I am not born in a Hindu family or simply because I am not a Hindu.” catur-varnyam maya srstam guna-karma-vibhagasah tasya kartaram api mam viddhy akartaram avyayam Translation: According to the three modes of material nature and the work ascribed to them, the four divisions of human society were created by Me. And, although I am the creator of this system, you should know that I am yet the non-doer, being unchangeable.[BG 4.13] Everyone is the Lord's creation and has been classified according to the qualities and actions. All the qualities that you see or find in this world are divided into the 3 main modes of nature - goodness, passion, and ignorance. As per these qualities, there are four Varna: 1. Brahmana 2. Ksatriya 3. Vaisya and 4. Sudra. Brahmans are dominated by the mode of goodness. You can find Brahmanas all over the world in any country. People who study sastras and share with others are called Brahmanas. Sastras are available everywhere. You can find Brahmanas in any part of the world. Some people study the Bible, Some study Quran or some study Granth Sahib. They are Brahmanas. They study and preach. They are not connected to Krsna consciousness, but they are God-consciousness. We may not refer to them as Brahmanas, but according to their work and quality, they fall in the category of Brahmana. Then we find Ksatriyas who are dominated by both modes of goodness and passion. Vaisyas are dominated by the mode of passion. They are usually engaged in farming, cattle rearing, and other business activities. Earlier at the age of 5 years child used to go to Gurukul. brahmacārī gurukule vasan dānto guror hitam ācaran dāsavan nīco gurau sudṛḍha-sauhṛdaḥ Translation: Nārada Muni said: A student should practice completely controlling his senses. He should be submissive and should have an attitude of firm friendship for the spiritual master. With a great vow, the brahmacārī should live at the gurukula, only for the benefit of the guru.[ SB 7.12.1] Krsna, Balarama, and Sudama also went to Sandipani Muni's Ashram. According to the qualities of the child, Gurukul gave training.Those who don't have qualities matching to those in the above mentioned 3 fall in the category of Sudras. Their job is to serve these 3 categories [Brahmana, Ksatriya, Vaisya] and are called Dwija, which means twice-born. Sudras are not called Dwija. They are also under Varnasram. But the Sudras who are not interested in serving the other categories are out-castes. They are considered to be lower than Sudras. People belonging to any of these 4 categories are considered to be having the qualities of a human being. But those who don't fall in any of these categories are not to be considered as humans, because they are not following any dharma or discipline. We have bodies, and we sustain and maintain these bodies with grains(food). Food nourishes all the parts of the body.You don't need to feed your hands, legs or head separately. Similarly, for the maintenance of society, Dharma plays a nourishing role. All these 4 Varnas unanimously follow their prescribed Dharma and Krsna is Father of all of them. sarva-yonisu kaunteya murtayah sambhavanti yah tasam brahma mahad yonir aham bija-pradah pita Translation: It should be understood that all species of life, O son of Kunti, are made possible by birth in this material nature, and that I am the seed-giving father.[ BG 14.4] By rendering services unto the Lord, the perfection of life can be attained. People will be called sadhus as per their qualities. They abide by and then also preach Krsna consciousness. Dharmo Rakshati Rakshitah They are protected by Dharma, who protect Dharma. kaler doṣa-nidhe rājann asti hy eko mahān guṇaḥ kīrtanād eva kṛṣṇasya mukta-saṅgaḥ paraṁ vrajet Translation: My dear King, although Kali-yuga is an ocean of faults, there is still one good quality about this age: Simply by chanting the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra, one can become free from material bondage and be promoted to the transcendental kingdom. [SB 12.3.51] Kaliyuga is an ocean of negativities, yet there is one good quality which is a great boon. Simply chanting and remembering Krsna one can be freed from the entangling nets of this material nature. On the other hand, the followers of Kali are engaged in the activities where Pariksita Maharaja allowed Kali to stay, the places of 4 major sins. abhyarthitas tadā tasmai sthānāni kalaye dadau dyūtaṁ pānaṁ striyaḥ sūnā yatrādharmaś catur-vidhaḥ Translation: Sūta Gosvāmī said: Mahārāja Parīkṣit, thus being petitioned by the personality of Kali, gave him permission to reside in places where gambling, drinking, prostitution and animal slaughter were performed.[SB 1.17.38] A Vaisnava can very easily give up even the thoughts of meat-eating, intoxication, gambling, and illicit sex. Even the desire to commit any kind of sinful activities will be completely gone. paraṁ brahma paraṁ dhāma pavitraṁ paramaṁ bhavān puruṣaṁ śāśvataṁ divyam ādi-devam ajaṁ vibhum āhus tvām ṛṣayaḥ sarve devarṣir nāradas tathā asito devalo vyāsaḥ svayaṁ caiva bravīṣi me Translation: Arjuna said: You are the Supreme Personality of Godhead, the ultimate abode, the purest, the Absolute Truth. You are the eternal, transcendental, original person, the unborn, the greatest. All the great sages such as Nārada, Asita, Devala and Vyāsa confirm this truth about You, and now You Yourself are declaring it to me.[BG 10.12-13] Just like the darkness runs away as soon as the sun rises, similarly as soon as we engage in the services of Krsna, who is like millions of suns, Maya will be gone. kṛṣṇa — sūrya-sama; māyā haya andhakāra yāhāṅ kṛṣṇa, tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra Translation: “Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish.[CC Madhya 22.31] Do you want to hear the name of a disciple of Kali? There are many and this too. They are Jagai and Madhai. They did all types of sins. I want to say that a person who is engaged in the processes of chanting, kirtana, studying Srimad Bhagavatam, in association of sadhus, honoring prasada will become purified. As soon as you come in contact with devotees of Krsna, they will start putting in efforts in bringing us closer to Krsna, engaging us in Services to Krsna. According to the qualities the Lord has made 4 Varnas and then 4 ashrams. cātur-varṇyaṁ mayā sṛṣṭaṁ guṇa-karma-vibhāgaśaḥ tasya kartāram api māṁ viddhy akartāram avyayam Translation: According to the three modes of material nature and the work associated with them, the four divisions of human society are created by Me. And although I am the creator of this system, you should know that I am yet the nondoer, being unchangeable.[BG 4.13] The goal is to serve Krsna. kali-kāle nāma-rūpe kṛṣṇa-avatāra nāma haite haya sarva-jagat-nistāra Translation: In this Age of Kali, the holy name of the Lord, the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra, is the incarnation of Lord Kṛṣṇa. Simply by chanting the holy name, one associates with the Lord directly. Anyone who does this is certainly delivered. [CC 1.17.22] He appears to re-establish Dharma, so in Kaliyuga He has appeared in names. Engage in more and more chanting. I hope that you all understood well. Share in brief what you have understood in today's class. Question and Answer session Question 1: As you said that those who read the Bible, Quran, are called Brahmanas. But recently pope said that eating and mating are god gift qualities. So what type of Brahamana is he? (Haridasa Thakur Prabhu, Gurugram) Gurudev Uvaca : They are Kaliyugi Brahmanas. Their intelligence is influenced by Kali so they give such statements. The same Pope who gave that statement said yesterday that we can make the Lord happy by prayers and one should cry while praying to the Lord. They have the qualities, but are influenced by Kali. Similarly, if someone does the administration they are called Ksatriya and so on. Every continent, every country has people falling in each of these categories. It is not only limited to India. If people take birth in a Brahmana family they say we are Brahmanas. Like this so-called Brahmanas, Ksatriya, and Vaisya are there. It is the influence of Kali that controls them.The dollar currency says - In God We Trust. They take an oath on the Bible. Wherever there are church and religious institutions, Brahmanas will be there, but they are influenced by kali. Question 2: How do people in administration in ISKCON understand Varnasrama Dharma as they toggle in all the 4 Varnas. Because he has to do all the activities that belong to his life, his family, and temple. What will be his base varna? And how will the toggling of different Varnas influence the base varna. (Param Karuna Prabhu, Nagpur) Gurudev Uvaca :We should play all the roles as Vaisnavas, Vaisnavas are beyond the rules of Varnasrama. They perform all the duties be it of a Brahmana or Sudra simply to satisfy Krsna. They may teach like a Brahmana, do administration like a Ksatriya, distribution books like a Vaisya, or clean temple like a Sudra. Brahmanas give training. The work of ISKCON is like that of a Brahmana. Prabhupada said that there is a shortage of Brahmanas. Without Brahmanas, a society is headless. ISKCON gives guidance to the Society. When a child goes to Gurukula, he gets training by a brahmana, according to his qualities. ISKCON plays this role of giving training. Lord says in Gita: evam parampara-praptam imam rajarsayo viduh sa kaleneha mahata yogo nastah parantapa Translation: This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. [BG 4.2] The Lord said to Arjuna, “The knowledge which I am giving you will first be received by kings through the Brahmana. Then they will be called Rajarsay [Saintly kings].” ISKCON plays the role of Brahmana and gives training. ISKCON is an educational society. As you are a member of ISKCON, if required you become a brahmana, or if required you become Ksatriya. If required raise funds and build a temple.

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