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*जप चर्चा* *16 -02 -2022* *श्रील नरोत्तम दास ठाकुर आविर्भाव दिवस* *श्रीमान अनन्तशेष प्रभु द्वारा* *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।* *श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।* *नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥* *श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* हरे कृष्ण ! गुरु महाराज एवं समस्त भक्तों के चरणों में सादर प्रणाम है। आज अत्यंत पावन तिथि माघ पूर्णिमा जो कि श्री कृष्ण मधुर उत्सव के नाम से भी जाना जाता है। जिस तरह भगवान श्रीकृष्ण शरद पूर्णिमा के समय महारास करते हैं उसी प्रकार यह माघ मास में वसंत ऋतु के अंतर्गत जो पूर्णिमा आती है इस पूर्णिमा को भी भगवान श्रीकृष्ण विशेष रूप से रास करते हैं। वैसे तो हर पूर्णिमा पर रास करते हैं किंतु यह माघ पूर्णिमा विशेष है जिस प्रकार शरद पूर्णिमा का उत्सव विशेष रूप से वृंदावन आदि स्थानों पर मनाया जाता है। वैसे ही बंगाल में यह माघ पूर्णिमा है इसे विशेष रूप से मनाते हैं। इस विशेष तिथि पर ब्रम्ह मध्व गौड़िय सम्प्रदाय के एक विशेष आचार्य श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का आज आविर्भाव दिवस है। श्रील प्रभुपाद नरोत्तम दास ठाकुर के विषय में विशेष रूप से कहते हैं उनके भजन अत्यंत प्रसिद्ध एवं प्रचलित हैं। प्रतिदिन प्रातः काल जब हम श्री गुरु की वंदना करते हैं *श्री गुरु चरण पद्मा केवल भक्ति सदम* यह जो भजन है यह श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की रचना है जो कि प्रेम भक्ति चंद्रिका के अंतर्गत आता है और जैसा कि हमने गुरु महाराज के मुख से भी श्रवण किया जब श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज से पूछा गया कि किस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम प्राप्त हो सकता है तब उन्होंने कहा था कि दो आने में भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम प्राप्त किया जा सकता है। किस प्रकार से? उन्होंने बताया, उस समय जाकर बाजार में दो आने में "प्रेम भक्ति चंद्रिका" तथा प्रार्थना इन दो ग्रंथों को लेकर यदि आप सदैव अपने साथ में रखकर इसको श्रवण करें, इसका पठन करें, इसका मनन चिंतन करें तो निश्चित रूप से आपके प्रेम भाव में वृद्धि होती है। श्रील गौर किशोर दास बाबाजी महाराज की एकमात्र संपत्ति इसे कहा जाता है। एक उनकी अपनी निजी जपमाला थी और साथ में प्रेम भक्ति चंद्रिका और प्रार्थना यह दो पुस्तक, जो उनकी निजी संपत्ति थी। यदि श्रील प्रभुपाद के शब्दों में कहा जाए वो कहते थे *श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के वचन वह वास्तव में वैदिक ग्रंथों का निष्कर्ष है या उसका विस्तार है उसी को प्रकाशित करते हैं*। वेदों, उपनिषदों और पुराणों को पढ़ना जितना विशेष है हमको ज्ञान प्रदान करता है तत्व भाव प्रदान करता है, वैसे ही भाव और तत्व श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के वचनों के द्वारा प्राप्त होता है। आज उनका आविर्भाव है। अतः कई भिन्न-भिन्न विचार मन में आ रहे थे श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के विषय में बहुत ही विस्तृत रूप से लिखा गया। "प्रेम विलास" नामक ग्रंथ है जिसमें संपूर्ण श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की जीवनी को वर्णित किया गया है और उनकी वंदना करते हुए 8 श्लोक भी लिखे गए हैं जिसको नरोत्तम प्रबोध अष्टकम कहा गया है। जिसके अंतर्गत कहा जाता है। *श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर श्रीकृष्ण नमामृता वर्षी- वक्त्र चंद्र प्रभा ध्वस्त तमो भराया गौरंगा देवनुचार्य तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाया।।* (श्रील नरोत्तम प्रभोर अष्टकं) इसके अंतर्गत वो कहते हैं श्रीकृष्ण नमामृता वर्षी- वक्त्र, जिनके मुख चंद्र से सदैव श्रीकृष्ण नाम अमृत की वर्षा होती है कैसी वर्षा है चंद्र प्रभा ध्वस्त तमो भराया, जिस प्रकार से अंधकार का नाश होता है वैसे ही जीव के अज्ञान, अंधकार का नाश होता है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के मुख से कीर्तन के द्वारा, इस गौड़िए वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत जो कीर्तन शैली विशेष रुप से भक्त जानते होंगे मृदंग कीर्तन करताल का जो संकीर्तन करते हैं ,यह भिन्न भिन्न प्रकार की शैली होती है। उसमें सबसे प्रमुख जो शैली है उसे नरोत्तम दास ठाकुर के द्वारा स्थापित किया गया है। *गौरंगा देवनुचार्य तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाया* श्रील चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख परीकरों , एक बार मुझे पढ़ने में आया था कि प्रमुख आचार्य रूप सनातन जब इस धरातल से अप्रकट हुए तब श्रील जीव गोस्वामी भी रहे और श्रील जीव गोस्वामी के निर्देशन में प्रमुख आचार्यो ने जो शिक्षा प्राप्त की और इस गौड़िय संप्रदाय को पुनः जो आगे बढ़ाया है वह प्रमुख रूप से तीन आचार्य हैं श्रील नरोत्तम दास ठाकुर, श्रील श्रीनिवास आचार्य और श्रील श्यामा नंद पंडित। मैंने कहीं पढ़ा था अभी मुझे स्मरण नहीं हो रहा, यदि आप में से किसी भक्त को स्मरण हो तो अंत में स्मरण करा सकते हैं। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर श्रीनिवासाचार्य और श्यामानंद पंडित और कोई नहीं, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीनित्यानंद प्रभु और श्रीअद्वैत आचार्य की शक्ति का प्रकाश कहा जाता है और उनके विषय में आगे कहा जाता है। *संकीर्तनानन्दजा मंदा हस्या दंता द्युति द्युतिता दिङ्मुखय सवेदश्रु धारा स्नापित्या तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाया* श्रीकृष्ण संकीर्तन के आनंद में सदा मंद मंद स्तिथ हास्य उनके मुख मंडल पर रहता है और प्रेम विकार से विशेष रूप से अश्रु कंपा श्वेत आदि से स्वत जिनका अंग विभूषित होता है वह है श्रील नरोत्तम दास ठाकुर और उनके संकीर्तन के विषय में आगे कहा जा रहा है। *मृदंगा नादा श्रुति मात्र चान चाट पदाम्बुजा मंदा मनोहराया सदः समुद्यत पुलकाय तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाया* जिनके चरण अत्यंत चंचलता से युक्त हो जाते हैं मतलब मृदंग वाद्य को सुनकर जिनके चरण नृत्य करने के लिए प्रबुद्ध हो जाते हैं और जिनका संकीर्तन और नृत्य समस्त जीवों के मन को आकर्षित कर लेता है। ऐसे श्रील नरोत्तम दास ठाकुर को हम बारंबार प्रणाम करते हैं। वैसे इन 8 श्लोकों में बहुत सुंदर तरह से नरोत्तम दास ठाकुर के भावों को बताया गया है यह जो नरोत्तम दास ठाकुर हमें आचार्यों का आविर्भाव और तिरोभाव दिवस मनाते हैं विशेष रुप से जिस तरह से वृंदावन दास ठाकुर के शब्दों में कहा जाए, भगवान श्रीकृष्ण के आविर्भाव तिथि का या प्राकृटय दिवस का जैसे महत्व है वैसे ही आचार्यों के आविर्भाव एवं तिरोभाव भी महत्व रखते हैं क्योंकि उस दिन आचार्यों की विशेष कृपा हम प्राप्त कर सकते हैं और कैसे प्राप्त की जाती है? जब इन आचार्यों की तिथियों पर हम श्रवण करते हैं जिस तरह से श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं। *उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् ।सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति ॥* (उपदेशामृत ३) ॥ अनुवाद- भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्-कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं। भक्ति में आप बहुत अधिक अपने जीवन में प्रगति कर सकते हैं तो सत्तो वृत्ति के विषय में एक भक्त ने बतलाया की पूर्ववर्ती आचार्य जो हैं इनके जीवन या इनके चरित्र का श्रवण किया जाए, चिंतन मनन किया जाए और भाव यह हो कि हम इसे कैसे जीवन में आत्मसात कर सकें, वास्तव में इस प्रकार से, उस तिथि में जिस प्रकार से कहा जाता है वी बिकम कृष्ण कॉन्शसनेस ऑन जन्माष्टमी, वी बिकम प्रभुपाद कॉन्शसनेस ऑन श्रील प्रभुपाद व्यास पूजा, वी बिकम गुरुदेव कॉन्शियस ऑन गुरुदेव व्यास पूजा। कृष्ण जन्माष्टमी पर कृष्ण भावना बहुत अधिक रहती है श्रील प्रभुपाद की व्यास पूजा में प्रभुपाद कॉन्शसनेस की भावना होती है और गुरुदेव की व्यास पूजा में गुरु की भावना होती है। ऐसे ही जब आचार्यों की तिथि होती है कम से कम उस तिथि में तो आचार्यों की भावना को आत्मसात करना अत्यंत आवश्यक है, और यदि पद्मपुराण के शब्दों के अनुसार कहा जाए तो आचार्यों की जीवनी को जब बहुत अधिक समय तक चिंतन मनन किया जाता है और जब आपके हृदय में आचार्यों के प्रति आत्मीयता आने लगती है और जब हृदय से आचार्य से प्रार्थना की जाती है तब बताया जाता है कि इन आचार्यों के जो विशेष दिव्य गुण हैं उसका अंश मात्र भी आपके जीवन में स्वत: प्रकाशित हो जाता है आप लोग सुनते भी होंगे *यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः ॥१२॥* अनुवाद -जो व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव के प्रति शुद्ध भक्ति उत्पन्न कर लेता है उसके शरीर में सभी देवता तथा उनके महान् गुण यथा धर्म, ज्ञान तथा त्याग प्रकट होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति भक्ति से रहित है और भौतिक कर्मों में व्यस्त रहता है उसमें कोई सद्गुण नहीं आते। भले ही कोई व्यक्ति योगाभ्यास में दक्ष क्यों न हो और अपने परिवार और सम्बन्धियों का भलीभाँति भरण-पोषण करता हो वह अपनी मनोकल्पना द्वारा भगवान् की बहिरंगा-शक्ति की सेवा में तत्पर होता है। भला ऐसे पुरुष में सद्गुण कैसे आ सकते हैं? उसके भाव में एक भक्त बतला रहे थे कि जिनके अंदर दैवी गुण हैं उनको यदि हम हृदय में आत्मसात करते हैं तब यह देवी गुण हमारे अंदर प्रकाशित होते हैं। ऐसे ही श्रील नरोत्तमदास ठाकुर और कोई नहीं भगवान श्रीकृष्ण ( राधा कृष्ण) की जो नृत्य लीला है उसमें जो अष्ट सखियां होती हैं उन अष्ट सखियों के अंदर, रूप सनातन आदि जो हैं गोस्वामी जो कि रूपमंजरी हैं और रूपमंजरी की दो प्रमुख सहायिका हैं जिनका नाम है चंपक मंजरी। चंपक मंजरी, जो भगवान श्रीकृष्ण की लीला में राधा कृष्ण की नित्यसेवा करती है वही चंपक मंजरी श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के रूप में इस धरा पर माघ पूर्णिमा, जो आज की तिथि है उनका आविर्भाव खेचुरी ग्राम, (जो वर्तमान में बांग्लादेश कहते हैं ) बांग्लादेश में प्रमुख स्थान है जहां पर श्रील नरोत्तम दास ठाकुर अवतरित हुए। जिन के विषय में भक्ति रत्नाकर में कहा जाता है। *माघ पुर्णिमाय जन्मिलेन नरोतम । दिने दिने वृद्धि हइलेन चन्द्रसम ।।* (भक्तिरत्नाकर 1/281) माघ पूर्णिमा पर श्रील नरोत्तम दास ठाकुर अवतरित हुए और दिन प्रतिदिन जिस प्रकार से चंद्रमा की वृद्धि होती है वैसे ही इनका विकास हुआ है इनकी प्रमुख रूप से कई लीलाए हैं। अभी कुछ दिन पहले कथा में हमें अवसर प्राप्त हुआ था तो तीन-चार दिन श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की कथा हुई थी, कुछ शब्दों में हम कुछ कह भी नहीं पाएंगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला में महाप्रभु के सन्यास के पश्चात रूप सनातन पर कृपा करने के लिए जब वे रामकेली पहुंचे थे तो वहां पर बताया जाता है जब महाप्रभु नित्यानंद, अद्वैत आचार्य, हरिदास ठाकुर सबके साथ कीर्तन करने लगे, कीर्तन करते करते तुरंत *श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानन्दाद्वैतगणे ।करये विज्ञप्ति अश्रु झरे दुनयन ।।* (भक्तिरत्नाकर 1/285) श्री चैतन्य अद्वैत और नित्यानंद जब संकीर्तन कर रहे थे और संकीर्तन करते करते जब बहुत विशेष भाव प्रकाशित होने लगे और आंखों से अश्रु की धाराएं प्रवाहित होने लगी, उसी समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने जोर से उच्चारण किया नरोत्तम! नरोत्तम! समस्त उपस्थित भक्तगण वहां ये सुनने लगे और वहाँ बताया जाता है कि सभी भक्त तुरंत ही विचार करने लगे यह नरोत्तम ! नरोत्तम !क्यों कह रहे हैं वैसे भगवान का भी एक नाम नरोत्तम कहा जाता है किंतु चैतन्य महाप्रभु की लीला में उस समय कोई नरोत्तम नहीं थे। उसी समय सभी भक्त लोग विचार करने लगे नरोत्तम क्यों कहा जा रहा है। एक भक्त ने कहा, हो ना हो यह नरोत्तम कोई विशेष भक्त है जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अत्यंत प्रिय है। शायद अभी वर्तमान में ना हो किंतु भविष्य में अवतरित होने वाला है। फिर किसी ने विचार किया और आपस में ही भक्तों में चर्चा होने लगी, एक भक्त ने कहा कैसे सौभाग्यशाली माता पिता होंगे जिन्हें वह पुत्र प्राप्त होगा जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के स्मृति पटल में प्रकट हो रहा है। एक अन्य भक्त ने कहा जो स्त्री ऐसा गर्भधारण करेगी वह कैसी माता होगी, निश्चित रूप से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कार्य के लिए कोई विशेष भक्त आने वाला है। तुरंत उसी समय श्रीनित्यानंद प्रभु पूछने लगे हे श्रीमान महाप्रभु आप नरोत्तम नरोत्तम क्यों कह रहे हैं? तब चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु से कहते हैं हे "श्रीपाद" (चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद को संबोधित करते हुए श्रीपाद कहते थे) तो वहां चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु से कहते हैं हे श्रीपाद वास्तव में आप की महिमा को कौन समझ सकता है आप जानते हैं जब आप मेरे साथ निलाचल की ओर प्रस्थान कर रहे थे और नीलाचल जाते हुए आप भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए आतुर हो चुके थे आपके नेत्रों से अश्रु धाराएं प्रवाहित हो रहे थे और आप बहुत अधिक प्रेम के उच्च भाव को प्रकाशित कर रहे थे आप जानते हैं उस समय आप के नेत्रों से अश्रु धाराएं बहने लगी मैंने उन अश्रु धाराओं को एकत्रित कर लिया, महाप्रभु कह रहे हैं और उसे मैंने संजो कर रखा है और कुछ नहीं वह प्रेम है। श्रीकृष्ण का विशेष प्रेम है और आपकी जानकारी के लिए समीप ही एक स्थान है जिसको कहते हैं पद्मा नदी, आप के नेत्रों से प्रवाहित जो विशेष प्रेम है उसे मैं पद्मा नदी में संजो कर रखूंगा और शीघ्र ही एक विशेष भक्त यहां पर आने वाला है जिसे मैं यह प्रेम प्रदान करने वाला हूं। ऐसा कहते हुए चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु और अद्वैत आचार्य के साथ संकीर्तन करते हुए पद्मा नदी के निकट पहुंचते हैं वहां पर एक स्थान था कुतुबपुर , वहां पर चैतन्य महाप्रभु आए और फिर नृत्य करने लगे संकीर्तन करने लगे और भावविभोर हो गए और फिर तुरंत उन्होंने पद्मा नदी में प्रवेश किया। जैसे ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों का स्पर्श पद्मा नदी में हुआ तुरंत ही उसमें बहुत बड़ा उछाल आ गया जैसे उसने अपनी बाउंड्री क्रॉस कर दिया हालांकि कोई वर्षा नहीं हुई थी किंतु अचानक से पद्मा नदी में बाढ़ आ गई क्योंकि उसमें अष्ट सात्विक विकार आने लग गए थे और उसी समय जब चैतन्य महाप्रभु संगीत और नृत्य के साथ भावविभोर होकर स्नानादि करने लगे तुरंत उन्होंने देखा कि पद्मा नदी एक देवी रूप में वहां प्रकट हुई और चैतन्य महाप्रभु उनसे कहते हैं कि कृपया इस प्रेम को स्वीकार करो यह जो मेरा कृष्ण प्रेम है इसे स्वीकार करो और शीघ्र ही मेरा भक्त आने वाला है नरोत्तम कृपया इस प्रेम को तुम्हे उसको प्रदान करना है। जैसे ही सुना, पद्मा नदी वहां पर कहने लगी हे प्रभु ! मैं कैसे पहचान लूंगी कौन नरोत्तम है ? उस समय श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि जिस प्रकार से मेरे स्पर्श मात्र से तुम्हें भाव प्रकाशित हुए तुम्हारा जल बाहर निकलने लगा उछलने लगा वैसे ही उस नन्हे बालक के स्पर्श मात्र से ही तुम्हारा जल पुनः ऊपर उछलने लगेगा। *याहार परशे तुमि अधिक उछलिवा ।सोई नरोतम प्रेम तारे तुमि दिवा* (भक्तिरत्नाकर) तो क्या कहते हैं चैतन्य महाप्रभु, जिनके स्पर्श मात्र से उछलने लगोगी वही नरोत्तम होगा। कृपया उसे इस प्रेम को प्रदान करना, वहां पर यह बताया जाता है कि इस प्रकार जब नरोत्तम आगे जाकर प्रकट हुए हैं खेचुरी ग्राम में उनके पिता का नाम श्री कृष्ण नंद दत्त और माता का नाम नारायणी देवी था। कृष्ण नंद दत्त के घर में जब उन्होंने जन्म लिया बहुत विस्तृत रूप से उस प्रेम विलास ग्रंथ में लिखा गया है माता को कैसा आनंद हुआ, लगभग जैसे भगवान श्रीकृष्ण के रूप माधुर्य जैसे, श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप माधुर्य जैसे , समस्त जीवो को जो अपने प्रति आकर्षित करते थे। बताया जाता है कि नरोत्तम दास ठाकुर का ऐसा अनुपम सौंदर्य था कि समस्त ग्राम वासी आकर्षित होते थे उनसे, परंतु विशेषता क्या थी इस बालक की इस बालक का बचपन से ही सहज रूप में भगवान से लगाव था प्रेम था। आगे चलकर यह बताया जाता है जब ये बालक 12 वर्ष का हुआ दिन-ब-दिन बढ़ने लगा उसकी विद्वता का ज्ञान, उनका वैराग्य सभी और प्रकाशित होने लगा, तब स्वयं श्रीनित्यानंद प्रभु इस बालक के स्वप्न में आए और स्वप्न में आकर उन्होंने बताया कि किस प्रकार से श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं आए थे और चैतन्य महाप्रभु अपना प्रेम, जिस के लिए क्या कहा जाता है। *अनर्पित-चरी चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्। हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितः सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः ।।* ( चैतन्य चरितामृत आदि १. ४) अनुवाद- श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यन्त उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए। हालांकि यदि देखा जाए तो इनके कुल के अनुसार यह राज् पुत्र थे। जिस प्रकार से हम इनके ऐश्वर्य का वर्णन भी सुनते हैं इनका ऐश्वर्य भी बहुत विशेष था, तो भी दौड़ पड़े वहां पर आर्त भाव में, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का स्मरण करते हुए निरंतर क्रंदन करते हुए दौड़े जा रहे हैं दौड़े जा रहे हैं, ना तो शरीर की सुध है, ना दिन है ना रात है, ना भूख है ना प्यास है और शरीर में अर्थात पैरों में भी कोई चप्पल नहीं थी नंगे पांव में दौड़ रहे हैं। मतलब कई कई दिनों तक रुके ही नहीं सुबह हो गई थी या रात थी उनको पता ही नहीं बस वे दौड़ रहे थे ना तो कोई अन्न ले रहे थे ना ही कोई जल ले रहे थे। कैसा वह भाव था उनका परिणाम क्या हुआ कि ऐसे लगभग 10 दिनों तक दौड़ते हुए उनका शरीर जब थोड़ा क्षीण हो गया था तभी अचानक मूर्छित होकर गिर पड़े और जैसे ही वह मूर्छित होकर गिर पड़े वैसे ही अचानक वहां पर गौर वर्ण का बहुत ही अकर्षज ब्राह्मण वहां पर एक दुग्ध पात्र लेकर आया और उसने अपनी मधुर भाषा में उनसे कहा हे नरोत्तम कृपया इस दूध को पी लो ताकि तुम्हारे समस्त कष्टों का हरण हो जाएगा। इतना कहते-कहते वह ब्राह्मण उस पात्र को वहां रखते हुए जब उनकी दृष्टि से ओझल हुए , कहा जाता है कि पुनः नरोत्तम की आंखें वहां बंद हो गई, मतलब वहां पर निद्रा जैसी लग गई और जैसे ही नरोत्तम की निद्रा वहां पर लगी वह जमीन पर पड़े हुए सोए हुए थे उस समय स्वयं रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी वहां पर प्रकट हुए और तुरंत ही उस नन्हे बालक को उठाकर अपने सीने से लगा लिया उस बालक को अपनी गोद में रखा और श्रील रूप गोस्वामी ने उस पात्र को अपने हाथों से उठाया और बताया जाता है कि वह गौर वर्ण का बालक ब्राह्मण कोई और नहीं स्वयं गौरांग महाप्रभु थे गौरांग महाप्रभु तुम्हारे लिए दुग्ध लेकर के आए हैं। जैसे ही नरोत्तम को रूप गोस्वामी ने अपने हाथों से दूध पिलाया तो वैसे ही उनके पैरों में जितने काटे थे जितने भी जख्म थे या निशान थे वह सब के सब समस्त शरीर का जो दुख था वह पूरी तरह से नष्ट हो गया। इस तरह से बतलाया जाता है कि माघ पूर्णिमा को श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का आविर्भाव हुआ कार्तिक पूर्णिमा वह तिथि है जब नरोत्तम दास ठाकुर अपने ग्रह का त्याग किए थे और तत्पश्चात जब वृंदावन में पहुंचे। विशेष रुप से नरोत्तम दास ठाकुर नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। *श्रीनरोतमेर क्रिया कहिते कि पारि ।सर्वतीर्थदर्शी आकुमार ब्रहमचारी ।” आकुमार ब्रहमचारी सर्वतीर्थदर्शी । परमभागवतोतम: श्रील नरोतमदास: ।।”* (भक्तिरत्नाकर 1/255-256 or 1.278-279) नरोत्तम दास ठाकुर उनके गुरु के विषय में बहुत गहरा भाव बताया जाता है कि किस प्रकार से नरोत्तम दास ठाकुर ने गुरु का आश्रय प्राप्त किया यह बहुत ही महत्वपूर्ण शिक्षा है इसके अंतर्गत नरोत्तम दास ठाकुर किस प्रकार से बहुत ही दैन्य भाव से अपने गुरु के पास में गए हैं। श्रील लोकनाथ गोस्वामी के समीप इसीलिए मुझे नरोत्तम दास ठाकुर से बड़ा निकटतम भी लगता है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के गुरु महाराज श्रील लोकनाथ गोस्वामी और हमारे गुरु महाराज भी श्रील लोकनाथ गोस्वामी हैं। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का जन्म माघ पूर्णिमा मैं होता है और इस शरीर का जन्म भी माघ पूर्णिमा में ही है। इस दृष्टि से बार-बार श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के प्रति आकर्षण बना रहता है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर जब ब्रज मंडल में रहने लगे, तो श्रील लोकनाथ गोस्वामी का जो वैराग्य था कि कभी भी वो मान की अपेक्षा नहीं करते थे हालांकि जब कविराज कृष्णदास गोस्वामी उनसे आश्रय प्राप्त करने के लिए आए कि मैं चैतन्य चरितामृत की रचना करना चाहता हूं। जो प्रेम का आस्वादन करके स्वयं महाप्रभु इस संसार के जीवों को जो देना चाहते थे स्वयं उस प्रेम को नरोत्तम दास ठाकुर को देना चाहते हैं और नित्यानंद प्रभु ने कहा कि तुम्हारे समीप ही पद्मा नदी है तुम जाकर उस प्रेम को वहीं पर प्राप्त कर सकते हो। और जैसे ही रात्रि में नित्यानंद प्रभु का दर्शन और आनंद था, सपना टूटने पर पहले तो उनकी नजर में बहुत विलाप हुआ कहां गए हुए नित्यानंद, कहां गए नित्यानंद उनकी आंखों से यह कहते हुए अश्रु निकलने लगे किंतु जब उन्होंने नित्यानंद प्रभु के आदेश का स्मरण किया और वे तुरंत ही प्रात:काल भोर में ही उस नदी की ओर पद्मा नदी की दिशा में दौड़ पड़े और जैसे ही पद्मा नदी के पास पहुंचे और उन्होंने उसका स्पर्श किया तो तुरंत ही वह जल बाहर उछलने लगा पूरी तरह से अपनी सीमाओं को उसने लांग दिया और पद्मा नदी को यह समझने में समय नहीं लगा कि यही वह बालक नरोत्तम है। बताया जाता है कि तुरंत ही पद्मा नदी ने चैतन्य महाप्रभु का जो प्रेम था वह श्रील नरोत्तम दास ठाकुर को प्रदान किया और जैसे ही श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने चैतन्य महाप्रभु के उस माधुर्य प्रेम को प्राप्त किया तुरंत ही उनका वर्ण परिवर्तित हो गया, उनके भाव परिवर्तित होने लगे और उच्च विकार के प्रेम अवस्था बालक काल मैं ही प्रकाशित होने लगे। 12 वर्ष की आयु में ही, अब तो शरीर की कोई सुध ही नहीं रहती थी और निरंतर नेत्रों से अश्रु धाराएं प्रवाहित होने लगी। जब माता-पिता ने उन्हें ऐसे देखा कि पहले जब आए तो उनका वर्ण बदल गया और गांव में चर्चा का विषय बन गया। नरोत्तम एक तो वर्ण बदल चुका है और इतना ही नहीं उसके भाव भी बहुत विशेष प्रकाशित हो रहे हैं माता-पिता थोड़ा भयभीत भी हो जाते हैं जब बालक बहुत अधिक भक्ति भाव और वैराग्य प्रकाशित करने लगे। बताया जाता है कि जिस प्रकार से कोई मदिरापान करने के बाद बहुत अधिक उन्मत्त रहने लगता है वैसे ही श्रीचैतन्य नित्यानंद प्रदत प्रेम के कारण नरोत्तम सदैव उन्मत्त रहने लगे और फिर उनको गृह का बंधन भी रोक नहीं पाया और समय मिलते ही या अवसर पाते ही घर से दौड़ पड़े। इस बाल्यावस्था लगभग 12 - 13 वर्ष में ही सीधे वृंदावन की ओर तब उस समय एक शर्त के साथ लोकनाथ गोस्वामी ने कहा कि ठीक है कहीं पर किसी भी स्थान पर मेरा नाम नहीं आना चाहिए। यह भक्तों का विशेष भाव होता है कभी भी अपना नाम, *सम्मानम विष्यति घोरा तरलं निच अपमानं सुधा* (प्रेम विलास) प्रेम भक्ति के मार्ग में बतलाया जाता है कि कौन सा टॉनिक है और कौन सा विष है कहा जाता है निच अपमानं सुधा, इस संसार में जब हमारा अपमान होने लगे जब इस संसार में कष्ट प्राप्त होने लगे तब भक्त उसे अमृत के रूप में ग्रहण करता है कृपा के रूप में ग्रहण करता है और यदि मान हो रहा है अर्थात आदर सम्मान हो रहा है तब भक्त समझता है कि बहुत बड़ा कुछ मुझसे अपराध हुआ है। भगवान मुझे कुछ दंड देना चाहते हैं इसीलिए मुझे यह सम्मान आदर प्राप्त हो रहा है वहां पर शब्द है सम्मानम विष्यति घोरा तरलं, सबसे भयानक विष के समान है सम्मान एक भक्त के लिए, लोकनाथ गोस्वामी कभी भी कोई आदर सम्मान नहीं चाहते थे। कभी किसी को अपने अनुयाई शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया और उस समय बताया जाता है कि नरोत्तम वहां पर गया जो राजकुमार है, राजा का पुत्र था किंतु दैन्य भाव में वहां रहकर वह लोकनाथ गोस्वामी से प्रार्थना करने लगा, उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि मेरा संकल्प है कि मैं किसी भी शिष्य को स्वीकार नहीं करूंगा। लोकनाथ गोस्वामी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया किंतु इन्होंने संकल्प लिया कि मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है कि मैं श्रील लोकनाथ गोस्वामी के चरणों का आशीर्वाद प्राप्त करूं ,भले ही उन्होंने उन्हें स्वीकार नहीं किया किंतु फिर भी वह वहीं पर रहने लगे। आज भी हम वहां उस स्थान पर जाते हैं जिसको खादिर वन कहते हैं जो नंदग्राम और बरसाना के बीच में आता है, जहां पर लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ गोस्वामी की भजन स्थली है। बताया जाता है कि वे वहां पर आते थे और प्रतिदिन मध्य रात्रि के समय जब लोकनाथ गोस्वामी प्रातः अपने शौच क्रिया आदि के पूर्व मध्य रात्रि में जिस स्थान पर जाते थे उस स्थान पर आकर वो उसको स्वच्छ करते थे उसको झाड़ते थे और गोबर से पूरी तरह से लीपा करते थे और हाथ को धोने के लिए एक जल का पात्र रखा जाता था और फिर साफ मिट्टी एक अलग पात्र में रखी जाती थी। हाथों का प्रक्षालन करने के लिए , *ये स्थाने गोसाई जीउ यान बहिर्देश । सेई स्थान याई करेन संस्कार-विशेष ।। मृतिकार शौचेर लागि माटि छानि आने । नित्य नित्य एइमत करेन सेवने ।। झाटागाछि पुति राखे माटिर भितरे । बाहिर करि’ सेवा करे आनन्द अन्तरे ।। आपनाके धन्य माने , शरीर सफल । प्रभुर चरण प्राप्त्ये एई मोर बल ।। कहिते-कहिते काँदे झाटा बुके दिया । पाँच सात धारा वहे हृदय भासिया ।।* प्रेमविलास ग्रन्थ:- ये संस्कार नरोत्तम दास ठाकुर करते थे। मृतिकार शौचेर लागि माटि छानि आने शौच के लिए मिट्टी लगती थी उसे छानकर अच्छी तरह से साफ करके लाते थे नित्य नित्य एइमत करेन सेवने, नित्य सेवा करते थे और विशेष गुण मैं आपको यह बताना चाहता हूं जिसको अलक्षित सेवा कहा जाता है अलक्षित, हम सदैव सेवा करते हैं , हमारे अंदर भावना होती है कि कोई हमें देख ले पता तो चले, जैसे गुरु महाराज कई बार जपा टॉक में भी कहते हैं स्पॉटलाइट, इसका मतलब यह नहीं कि गुरु की दृष्टि आपके ऊपर नहीं थी इससे पहले आपको ऐसा एहसास हुआ कि गुरु हमको देख रहे हैं तब भक्त भी भावविभोर हो जाते हैं और दंडवत प्रणाम करने लगते हैं। क्या करें झूमने लगते हैं हाथ ऊपर करने लगते हैं हालांकि पांच दस सेकंड के लिए ही गुरु महाराज उनको स्पॉटलाइट करते हैं, जो भी हो जब हम को पता चलता है कि गुरु हमें देख रहे हैं तो तुरंत ही आल्हाद होता है परंतु वास्तव में गुरु की दृष्टि सदैव होती है और और भक्तों का भाव होता है कि जब हम सेवा करें उसे कभी भी प्रकाशित ना किया जाए जिस तरह से कहा जाता है यदि आपको सेवा करनी है और सेवा करने के पश्चात किसी को कहकर बताया, क्या कह कर बताया कि प्रभु जी मैंने यह सेवा की है या मैंने यह प्रचार किया है जैसे ही आप ने यह कहा, उसके अंदर उस सेवा के द्वारा आपको जो प्रेम प्राप्त होने वाला था वह तुरंत ही नष्ट हो जाता है। आप सेवा जब करें तो किसी को पता भी ना चले कि सेवा आपके द्वारा हुई है जब ऐसा भाव जैसा कि नरोत्तम दास ठाकुर का था वह दिन प्रतिदिन सेवा करते थे और लोकनाथ स्वामी महाराज प्रतिदिन देखते थे कि वह स्थान फिर से निर्मल हो चुका है, दुर्गंध रहित हो गया है, तो आश्चर्यचकित होते थे यह दुर्गंध रहित कैसे हो जाता है, यह स्वच्छ कैसे हो जाता है, किंतु पता ही नहीं चल रहा था। ऐसी सेवा जब नरोत्तमदास ठाकुर ने की तो उसका परिणाम क्या हुआ, मृतिकार शौचेर लागि माटि छानि आने, नित्य नित्य एइमत करेन सेवने, नित्य प्रति वैसी ही सेवा करने लगे परिणाम क्या हुआ, झाटागाछि पुति राखे माटिर भितरे, झाड़ू से हटाने के बाद उसको पोत लेते थे और फिर वहां पर भी मिट्टी रखते थे यह सेवा करते हुए इनके जीवन में क्या परिणाम हो रहा है बाहिर करि’ सेवा करे आनन्द अन्तरे, सेवा कर रहे हैं और उसका परिणाम क्या हो रहा है अभी बताना नहीं चाहते गुरु महाराज को तो बिना बताए जब उस सेवा का परिणाम उन्हें जो भी आनंद का अनुभव हो रहा है झाटागाछि पुति राखे माटिर भितरे । बाहिर करि’ सेवा करे आनन्द अन्तरे ।। आपनाके धन्य माने , शरीर सफल । प्रभुर चरण प्राप्त्ये एई मोर बल ।। कहिते-कहिते काँदे झाटा बुके दिया । पाँच सात धारा वहे हृदय भासिया मृतिका राशि अक्षर लागी माटी छानी आने नित्य नित्य करी मने यहीं से बने नित्य प्रति वैसी ही सेवा करने लगे परिणाम क्या हुआ इसका जाटा घाटी होती माटी रो भी तारे झाड़ू से हटाने के बाद उसको पूछ लेते थे और फिर वहां पर भी मिट्टी रखते थे यह सेवा करते हुए इनके जीवन में क्या परिणाम हो रहा है बाहर करी सेवा करें आनंद अंतरे बाहर से सेवा कर रहे हैं और उसका परिणाम क्या हो रहा है अभी बताना नहीं चाहते गुरु महाराज को तो बिना बताए जब उस सेवा का परिणाम उन्हें जो भी आनंद का अनुभव हो रहा है *आपनाके धन्य माने , शरीर सफल । प्रभुर चरण प्राप्त्ये एई मोर बल* क्या विचार कर रहे हैं कि मैं तो धन्य हो गया कि मैं कुछ निमित्त बन सका गुरु की सेवा अर्पण करने के लिए, एक तो बस यही है गुरु के चरण की प्राप्ति कैसे हो सकती है जब मैं ऐसी गुरु की सेवा कर सकूं , कैसे-कैसे अर्थ कहिते-कहिते काँदे झाटा बुके दिया, पाँच सात धारा वहे हृदय भासिया, झाड़ू जिससे वह शौच आदि को झाड़ रहे थे इतना भाव विभोर हो गए कि उस झाड़ू को उन्होंने अपना आलिंगन कर लिया नरोत्तम दास ठाकुर ने झाड़ू को उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया, आंखों से अश्रु धारा बहने लगी। आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आप सेवा कर रहे हैं आप झाड़ू लगा रहे हैं और अश्रु धारा बह रही हो आप आरती कर रहे हैं और अश्रु बहने लगे। वास्तव में जो हमारे अंदर कृतज्ञता का भाव उदित होगा तब प्रत्येक सेवा ही उस भाव को उदित कर सकती हैं। 5,7 अश्रु की धाराएं नरोत्तम दास ठाकुर की आंखों से बहने लगी केवल झाड़ू लगाने मात्र से क्या कहें और इसी का परिणाम हम क्या देखते हैं अंतत: भगवान की सेवा में प्रवेश प्राप्त हो जाता है। भक्ति रत्नाकर में मानसिक सेवा से संबंधित है *एक दिना राधाकृष्ना सखीगण संगे, विलसाये निकुंजे परमा प्रेमा रंगे, श्री राधिका कौतुके कोहोये सखी प्रति ;एथा भक्ष्या द्रव्य शीघ्र कोरो सुसंगति'* *ललितादि सखी महा ुलसिता होइया बक्षाणा सामग्री सबे कोरे यत्न पाइया , नरोत्तम दासी रुपे अति यत्न मते ,दुग्धा आवर्तन कोरे सखीरे िह्गिते* (170 171) *उठलीह पराये दुग्ध देखि व्य्स्त होइला ,कुल्ली होइते दुग्धा पात्र हसते नामाइला, हसते दग्धा होईलो -तहा कीचु स्मृति नहि ,दुग्ध आवर्तन कोरी,दिला थाई ,मनेरा आनन्दे राधा -कृष्ण भुंजाईलो ,आवसेना लाभ्या मात्रे बाह्य जनाना होईलो* . (172 174) एक दिन राधा कृष्ण समस्त गोपियों के साथ में निकुंज में विलास कर रहे थे श्रीमती राधिका ने अपनी सखी ललिता और विशाखा को क्या कहा ;एथा भक्ष्या द्रव्य शीघ्र कोरो सुसंगति, तुरंत कुछ भोजन की व्यवस्था करो मेरे लिए और श्याम सुंदर के लिए, ललिता और विशाखा सखियां बहुत ही प्रसन्न हुए श्रीमती राधारानी हमको कुछ सेवा के लिए कह रही हैं। तुरंत ही वहां पर वह भोजन की सामग्री को एकत्रित करने लगी और उस समय ललिता सखी ने आदेश दिया, किसे ? नरोत्तमदास ललिता सखी के आदेश पर तुरंत ही नरोत्तम दास ठाकुर जो कि ललिता की सहायता के रूप में वहां उपस्थित थे, यह मानसिक सेवा चल रही थी उन्होंने आदेश दिया कि कृपया आप तुरंत ही दूध को गर्म कीजिए और जब वह दूध को गर्म करने लगे तो तुरंत ही और जैसे ही दूध में उफान आ गया नरोत्तम ने ही देखा सखी के रूप में, कि वहां दूध में उफान आ गया तो उन्हें अपने शरीर का भान भी ना रहा और तुरंत ही वह जो गर्म गर्म बर्तन था चूल्हे पर रखा हुआ था उसे उठाकर उन्होंने नीचे रख दिया। जैसे ही उन्होंने उठाया तो क्या हुआ हस्त दग्ध हाथ जल गए उनके, परंतु उनको उसका भान ही ना रहा। दूध गर्म हुआ था उसका व्यंजन बनाकर उन्होंने ललिता सखी को दिया और राधा कृष्ण ने जब उसको प्राप्त किया तो राधा कृष्ण का वो उच्छिष्ट नरोत्तम को मिला। राधा कृष्ण के उस अवशेष को उन्होंने प्राप्त किया और नरोत्तम दास ठाकुर के द्वारा उसको प्राप्त करने के बाद जब वे बाह्य चेतना में आए तब उन्होंने क्या देखा उनके हाथ पूर्णता जल चुके थे। हरे कृष्ण ! इस प्रकार से नरोत्तम दास ठाकुर की बहुत सुंदर कथाएं हैं। कहा जाता है बंगाल बांग्लादेश और उड़ीसा वहां पर प्रचार का मुख्य उत्तरदायित्व लोकनाथ गोस्वामी ने नरोत्तम दास ठाकुर को बांग्लादेश और फिर श्रीनिवासाचार्य को बंगाल में और श्यामानंद पंडित ने उड़ीसा में वहां पर प्रचार किया। हमारे संप्रदाय में इन तीनों का विशेष योगदान है तो आज हम नरोत्तमदास ठाकुर के चरणों में प्रार्थना करते हैं संभव हो तो आप इस ग्रंथ को जो बहुत ही सुंदर है, आसानी से आप गूगल में सर्च करेंगे तो आप उसे प्राप्त कर सकते हैं आप अवश्य पढ़िए। नरोत्तम दास ठाकुर की जीवनी को श्रील नरोत्तम ठाकुर आविर्भाव दिवस की जय ! हरे कृष्ण

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