Hindi
जप चर्चा ०१.०८.२०२० हरि! हरि! आपका स्वागत है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कल हम मतलब आप भी, हमारे दो आचार्यों श्रील रूप गोस्वामी और श्री गौरी दास पंडित का तिरोभाव तिथि उत्सव मना रहे थे। कल प्रातःकालीन कक्षा भी हुई जिसमें हम इस्कॉन पंढरपुर के भक्तों को संबोधित कर रहे थे। संभावना है कि आपने भी सुना होगा। मैं कुछ सोच रहा था , वैसे मैंने उस समय भी कुछ कहा था और दिन में भी सोच रहा था कि केवल श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ही अवतार नहीं हुआ अपितु चैतन्य महाप्रभु के कई सारे असंख्य परिकरों ने भी अवतार लिया था। हरि! हरि! भगवान के जो नित्य पार्षद या नित्य प्रेमी भक्त हैं, उन्होंने भी अवतार लिया था। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उन सभी के साथ अवतरित हुए। 500 वर्ष पूर्व यह बहुत बड़ी घटना घटी। गौर भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गोलोक से अपनी पूरी टीम के साथ अर्थात संकीर्तन दल के साथ यहां पर पधारे। उन सभी ने मिलकर महाप्रभु को योगदान दिया। अजानुलम्बित- भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक- पितरौ कमलायताक्षौ। विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ। (चैतन्य भागवत १.१) अनुवाद- " मैं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान श्री नित्यानंद प्रभु की आराधना करता हूँ, जिनकी लंबी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुंचती हैं, जिनकी सुंदर अंग कांति पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है, जिनके लंबाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं वह सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, इस युग के धर्मतत्वों के रक्षक, सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान के सर्व दयालु अवतार हैं। उन्होंने भगवान कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारंभ किया। केवल महाप्रभु को ही नहीं, बलराम जोकि नित्यानंद प्रभु के रूप में प्रकट हुए थे जो इस संकीर्तन आंदोलन के 'फाउंडिंग फ़ादर' हैं, उनको सभी ने मिलकर अपना अपना योगदान दिया था अर्थात सभी ने मिलकर धर्म की स्थापना की। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। ( श्रीमद् भगवतगीता ४.८) अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। बातें तो कई कहने के लिए हैं। कल हम श्रील रूप गोस्वामी के विषय में कह रहे थे। श्रील रूप गोस्वामी ने कई सारे ग्रंथो की रचना की। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने परिकरों से कई सारे ग्रंथ लिखवाए। उन्होंने स्वयं तो केवल शिक्षाष्टक ही लिखा। श्रील रूप गोस्वामी ने ध्यान, भक्ति, लीला और भक्तिरसामृत सिंधु जोकि भक्तिरस के अमृत का सिंधु है, नामक ग्रंथ को प्रस्तुत किया। हरि! हरि! उन्होंने राधा कृष्ण की माधुर्य लीला के विषय पर 'उज्जवल नीलमणि' नामक ग्रंथ भी लिखा। जैसे कि कवि कर्णपुर ने 'गौरगणों देश दीपिका' नामक ग्रंथ लिखा था। उसी प्रकार श्रील रूप गोस्वामी ने 'राधा कृष्ण गणोंदेश दीपिका' नामक ग्रंथ लिखा। जिसमें उन्होंने राधा कृष्ण और उनके गणों , उनके संगी साथियों एवं राधा की अष्टसखियों, गोपियों, मंजरियों और कृष्ण के सखा, नंद बाबा, यशोदा, गोकुल के भक्त, ब्रज व वृंदावन के भक्तों व अन्य भक्तों का अलग अलग रसों में परिचय दिया। वृन्दावन में दास्य रस तो नहीं है। वहाँ साख्य रस या वात्सल्य रस या माधुर्य रस वाले ही हैं। रूप गोस्वामी ने ऐसा ग्रंथ बहुत प्रकाश डाल अर्थात लिख कर, ग्रंथ के माध्यम से हमें इस विषय में बताया और दिखाया है। कहते हैं ना- 'शास्त्र चक्षु' अर्थात शास्त्र हमारी आंखे बन जाती हैं अर्थात हमें दृष्टि मिलती है। इसे दूरदृष्टि कहो या दूरदर्शन कहो। दूर का दर्शन अर्थात गोलोक का दर्शन। दुर्दैव से हम इस संसार में बैठे हैं और हम ब्रह्मांड में बद्ध हैं। यहीं दूर से ही हमें रूप गोस्वामी दिखा देते हैं कि देखो! देखो! देखो! वहाँ देखो! कितने सारे भक्त, उनका नाम, उनके काम, उनकी सेवा, उनके वस्त्र, उनका कृष्ण के साथ कौन सी लीला में संबंध है। हरि हरि! हमें जगना होगा! यह सांसारिक बातें हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने 'बैक टू होम' जाने के विषय में कहा। परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः । यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ ( श्री मद्भगवतगीता ८.२०) अनुवाद:- इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता। न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १५.६) अनुवाद- वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते । वो धाम है। हरि! हरि! हमें ना तो स्वर्ग जाना है। भगवान प्रकट होकर आपको स्वर्ग जाने के लिए आमंत्रित करने के लिए नहीं आए हैं। ऐसा संदेश ना तो कृष्ण का है, ना ही राम, और चैतन्य महाप्रभु का या ना ही अन्य जो भी सम्भवामि युगे युगे हुए हैं। भगवान हमें स्वर्ग ले जाने के लिए प्रकट नहीं होते हैं और ना ही ब्रह्म ज्योति में विलीन कराने के लिए प्रकट होते हैं। वे ऐसा उपदेश नहीं देते। ना ही कभी दिया है। यह गैंबलिंग है, लोग मनोधर्म से एवं दूर्दैव से उतना ही समझते हैं। भगवान की ब्रह्म ज्योति का दर्शन करते ही कूदने लग जाते हैं और कहते हैं कि हम भगवान को समझ गए, हम समझ गए। क्या समझे ?भगवान प्रकाश है। भगवान ब्रह्मज्योति है।चलो, लीन हो जाते हैं। नहीं! नहीं! हरि! हरि! हमारे धर्म में ऐसा नहीं करना चाहिए। हिंदू धर्म हमारा नहीं है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः । । ( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६) अनुवाद- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत। ऐसा धर्म त्याग दो जो आपको स्वर्ग जाने के लिए प्रेरित करता है या ब्रह्मज्योति में लीन होने के लिए प्रेरित करता है और जो 'अहं ब्रह्मास्मि' का प्रचार करता है। इसी को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और कृष्ण ने सर्वधर्मान्परित्यज्य कहा है। यहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होकर हमें गोलोक का परिचय दे रहे हैं। वह गोलोक से आए हैं। गोलोकाम च परित्यज्य लोकानां त्राण कारनेत ( मार्कण्डेय पुराण) भगवान यहां आ लीला संपन्न कर रहे हैं जिससे हमारी, मेरी और आप सबकी पुनः अपने गांव या अपने घर वापसी हो जाए और इसी उद्देश्य से भगवान अपने परिकरों के साथ आए हैं। उन्होंने कितने सारे प्रयत्न, प्रयास, विधि विधान व उपाय हमें समझाएं व दिए हैं कि यह करो, यह मत करो। इसलिए शास्त्र दिए हैं जिससे हम समझेंगे यह कार्य है, यह अकार्य है। यह विधि है और यह निषेध है। यह उपादेय अर्थात उपयोगी है यह हेय अर्थात त्याज्य है। यह यम है यह नियम है। इसलिए भगवान ने शास्त्र दिए हैं। हरि! हरि! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रकट होकर इतनी सारी लीलाएं संपन्न की। चैतन्य महाप्रभु अपने परिकरों के साथ लीला खेल रहे हैं। उन्होंने उन लीलाओं को कृष्ण दास कविराज गोस्वामी से लिखवाया। यह कृष्ण दास कविराज गोस्वामी की सेवा रही। उन्होंने चैतन्य चरितामृत की रचना की। श्रील व्यास देव 500 वर्ष पूर्व पुनः प्रकट होकर वृंदावन दास ठाकुर बन गए। उन्होंने 'चैतन्य भागवत' की रचना की। मुरारी गुप्त, जो कि रामलीला के हनुमान थे उन्होंने महाप्रभु की लीला में मुरारी गुप्त बन 'चैतन्य चरित' नामक् ग्रंथ की रचना की। जिसमें उन्होंने चैतन्य महाप्रभु की बाल लीलाओं का वर्णन किया। लोचन दास ठाकुर ने 'चैतन्य मंगल' लिखा। चैतन्य महाप्रभु के ५०० वर्ष पूर्व जो भी कार्यकलाप या प्रयास रहे या पूर्व में भी ' धर्मसंस्थापनार्थाय' के उद्देश्य हेतु हुआ, वह सब ब्लैक एंड वाइट में लिखा भी तो है ना। वह सब किस लिए लिखा हुआ है? हमारे लिए, ताकि एक दिन हम उसको पढ़ेंगे, समझेंगे। हरि! हरि! भगवान को और क्या करना चाहिए था? भगवान ने क्या नहीं छोड़ा? सब किया, जिससे भविष्य में हम भी भक्त बन जाए और उनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करें। महाप्रभु और उनके परिकर जहां जहां से आए थे और वहां लौट गए। जैसे कल रूप गोस्वामी और गौरी दास गौरी दास पंडित का तिरोभाव महोत्सव हुआ। वे हमारे समक्ष इस संसार में नहीं रहे। वे कहां गए? वे जहाँ से आए थे, वहाँ गए। वैकुंठ है, साकेत है, गोलोक है, वे वहां गए। वे यहाँ आए ही क्यों थे? वे हमें वहां ले जाने के लिए आए थे। हमें वहां आमंत्रित करने के लिए आए थे कि ऐसा ऐसा स्थान है तुम वहां के हो। 'ए मूढ, तुम यहां के नहीं हो। तुम वहां के हो'। चैतन्य महाप्रभु एंड कंपनी अर्थात उनका पूरा दल हमें यह बताने के लिए आए थे। हरि! हरि! ५०० वर्ष पूर्व जो भी तत्कालीन मनुष्य थे या चैतन्य महाप्रभु के समकालीन थे, वे केवल उस समय के लोगों के कल्याण और उद्धार के लिए भगवान प्रकट नहीं हुए थे। ५०० वर्ष पूर्व इस 'हरे कृष्ण आंदोलन' की स्थापना तथा इसका उद्घाटन हुआ और अगले दस हज़ार वर्षों तक बद्ध जीव इससे लाभान्वित होंगे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हमें विधि-विधान सिखाएं। 'अपने आचरि प्रभु जगत सिखाए' अर्थात भगवान ने अपने आचरण से हमें सिखाया कि तुम ऐसा करो। भगवान ने पहले किया और फिर बाद में कहा भी। हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा। ( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.७६) अनुवाद- " इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम, हरिनाम और केवल हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नही है, अन्य कोई विकल्प नही है, अन्य कोई विकल्प नही है।" भगवान हमें कहते भी रहे और याद दिलाते रहे कि कलियुग में केवल हरिनाम ही उपाय है। 'नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव' कर्म, ज्ञान, योग से सिद्धि प्राप्त कर सकते हो। हरेर्नामैव केवलम् यह तीन बार कहने का यही उद्देश्य है कि नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव निश्चित ही नहीं , निश्चित ही नहीं, निश्चित ही नहीं अन्य कोई उपाय नहीं है। कृष्ण भक्त- निष्काम, अतएव ' शान्त'। भुक्ति-मुक्ति- सिद्धि-कामी- सकलि 'अशान्त' ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१४९) अनुवाद- " चूंकि भगवान कृष्ण का भक्त निष्काम होता है, इसलिए वह शांत होता है। सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं, ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं, अतः वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते। कर्म से मुक्ति, सिद्धि, कामी जो है और उनके जो मुक्ति कामना के जो कार्य कलाप होते हैं, उसे ध्यान योग, अष्ट सिद्धियों से नहीं अपितु हरेर्नामैव केवलम् ही उपाय है। भगवान ने यह हमें दिया और सिखाया। फिर भगवान ने यह भी कहा पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम। सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।। ( श्री चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१.२६) अनुवाद-" पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा। मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा। इस पृथ्वी पर जितने नगर , ग्राम आदि है, उन सारे नगरों व सारे ग्रामों में मेरे नाम का प्रचार होगा। जैसे उन्होंने कहा था, वैसे हो भी रहा है। यह एक शुरुआत है। चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य और अंतर्धान होने के उपरांत थोड़ी देरी तो हुई। चार सौ पांच सौ वर्ष बीत गए लेकिन कुछ नहीं हो रहा था। हरि नाम फैल नहीं रहा था। तब फिर भगवान ने श्रील प्रभुपाद को सेनापति भक्त बना अर्थात निमित बना कर भेजा और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के माध्यम से उन्हें आदेश भी दिया कि वे पाश्चात्य देशों में जाकर संकीर्तन आंदोलन , भागवत धर्म का प्रचार करें। भक्ति वेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय! भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद पाश्चात्य देशों में गए और इस अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की। ऐसा भगवान की इच्छा व व्यवस्था के अनुसार हो रहा है जिससे चैतन्य महाप्रभु की जो इच्छा है, उस पर अमल हो जाए। इस अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना के पीछे चैतन्य महाप्रभु की इच्छा की पूर्ति करना ही उद्देश्य रहा है और है। यह आंदोलन 'सङ्कीर्तनैक पितरौ' गौर और नित्यानंद, कृष्ण और बलराम, राम और लक्ष्मण का आंदोलन है। जैसा कि महाप्रभु चाहते थे और उन्होंने यह भविष्यवाणी भी की थी मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा। जैसे कहा था, वैसा ही हो रहा है और यह अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ करवा रहा है। यह योजना बनी है। श्रील प्रभुपाद ने भगवान के विज़न को शेयर किया अर्थात वे महाप्रभु की दृष्टि या दूर दृष्टि के द्रष्टा रहे। श्री चैतन्यमनोअभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।। (श्री रूप गोस्वामी प्रणाम मंत्र) अनुवाद- श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत में भगवान चैतन्य की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रचार अभियान की स्थापना की है? हरि! हरि! रूप गोस्वामी 'चैतन्यमनोअभीष्टं' चैतन्य महाप्रभु के मन में क्या विचार है, उनकी क्या इच्छा है, वे क्या सोचते हैं क्या चाहते हैं, इसको रूप गोस्वामी समझते थे। वे चैतन्य महाप्रभु के मन की बात को समझ जाते थे। उनका प्रणाम मंत्र है। श्री चैतन्यमनोअभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम् । ऐसे रूप गोस्वामी मुझे अपने चरणों का आशय दें। जैसे रूप गोस्वामी समझते थे वैसे ही श्रील प्रभुपाद भी रूप गोस्वामी या आचार्यों या गुरुओं की कृपा से समझे थे। चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम भक्ति या़ँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय या़ँहार चरित। ( श्री गुरु वंदना) अर्थ- वे मेरी बंद आँखों को खोलते हैं था मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान भरते हैं। जन्म- जन्मांतरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविधा का विनाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं। श्रील प्रभुपाद ने भगवान के दृष्टिकोण को, दूर दृष्टि को, उनकी इच्छाओं को समझते हुए इस हरे कृष्ण आंदोलन की स्थापना की जिससे चैतन्य महाप्रभु के विचारों का प्रचार हो रहा है। हरि! हरि! धन्यवाद भगवान। हमें भगवान का आभार व्यक्त करना चाहिए। केवल भगवान का आभार नहीं, अपितु आचार्यों, भक्तों,संतों जो हमारी सहायता कर रहे हैं और हमारा इस हरे कृष्ण आंदोलन के साथ और फिर हमारा संबंध भगवान के साथ आचार्यों के साथ स्थापित कर रहे हैं, सबका आभार व्यक्त करना चाहिए। एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ ( श्री मद्भगवतगीता ४.२) अनुवाद-" इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा। किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।" अंततोगत्वा हम भगवान के साथ हमारा संबंध स्थापित करने वाले भगवान, आचार्य, परंपरा, वैष्णवों उन सब के भी आभारी हैं। हमें अपना आभार प्रदर्शन करना चाहिए। इस प्रकार हमें भी अपनी कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए। कृतज्ञता व्यक्त केवल कहकर ही नहीं 'नॉट जस्ट लिप सर्विस' कुछ करना चाहिए। कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ( श्री मद्भगवतगीता ५.११) अनुवाद- योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। कायेन मनसा वाचा कुछ करना चाहिए जिससे पता चले कि आप कृतज्ञ हो। मैं यही विराम देता हूँ। जैसा कि मैंने आपको कहा कि मेरे ऐसे विचार रहे। कल मैं सोच रहा था कि भगवान भी प्रकट हुए और भक्त भी प्रकट हुए और उन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया। भगवान के प्राकट्य से हमें भगवत धाम होने का पता चलता है और हम कौन हैं, हम वहां कैसे जा सकते हैं? बहुत सी बातों का पता चलता है। यह सारी व्यवस्था भगवान ने की है। आपके क्या विचार हैं? आप अपने विचार भी इस संबंध में लिखिए। आप अगले पांच मिनट में लिख सकते हो कि ऐसा सुनने के बाद आपके मन में क्या विचार उदित हो रहे हैं।ठीक है। यदि आपका कोई प्रश्न भी है या आप स्पष्टीकरण भी चाहते हो तो आप लिख सकते हो। यह आपका लिखने का समय है। आपके लिए चैट फैसिलिटी उपलब्ध है। अगले कुछ मिनट आप अपने यदि कोई साक्षात्कार है, तो लिख सकते हैं। जबरदस्ती नहीं है। जप करते रहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यदि आपकी कोई डायरी है जिस पर आप लिखते हो तो आप उसमें भी लिख सकते हो या यदि आप शेयर करना चाहते हो तो शेयर कर सकते हैं। प्रभुपाद चाहते थे कि हम इंडिपेंडेंटली थॉटफुल हो। हम स्वतंत्र विचार करने लायक बने। हम भी सोच सकते हैं। आप रोबोट नहीं है लेकिन हमारा अपना कोई विचार नहीं है क्योंकि हम सोचते ही नहीं। हमें सोचना चाहिए। वैसे भी थिंकिंग, फीलिंग यह मन का कार्य भी है। वैसे तो हम सोचते ही रहते हैं। दुनिया भर की बातें हम सोचते रहते हैं लेकिन अब वह सब सोचने की बजाय भगवान के बारे में सोचिए। मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ ( श्री मद्भगवतगीता १८.६५) अनुवाद-सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो। आपका मन जब भगवान में लगता है। तब कौन से विचार आपके मन में आते हैं? हमारे अनुवादक भी अभी लिख रहे हैं। आप में से कुछ भक्त लिख रहे हैं। आपके यह विचार फेसबुक पेज और लोक संघ में पोस्ट किए जाएंगे। आप अंग्रेजी में लिख सकते हो। हिंदी में लिखना आता है तो हिंदी में लिखो। कुछ समय पहले नासिक के युवा भक्त यदुनंदन आचार्य जो कोरोना पॉजिटिव हुए थे, ऐसा रिपोर्ट आया था। आप सबकी प्रार्थना का फल यह रहा कि वे कोरोना से मुक्त हो गए हैं। भगवान ने आपकी प्रार्थना सुनी और उनको करोना वायरस से मुक्त कर दिया। वे चैट सेक्शन में आप सब का आभार मान रहे थे। उन्होंने अपना आभार व्यक्त किया है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!English
1 August 2020
The Lord Appeared to take us back home, back to Godhead
Harinam Sankirtan ki Jai! Harinam Prabhu ki Jai! Devotees from 810 locations are chanting. You're all welcome!
Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare
Yesterday we were celebrating the disappearance day of two prominent Acaryas - Srila Rupa Goswami and Gauri Das Pandit. We also had a morning class here in Pandharpur. I was thinking yesterday that it was not only Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu who incarnated, but the entire family of Mahaprabhu or His associates also incarnated. All the associates and devotees who are eternal associates of the Lord incarnated. The Lord incarnated with all of them. This was the biggest incident that happened 500 years ago. Krsna Caitanya Mahaprabhu appeared with His entire team, the Sankirtan team, and everyone significantly contributed to Mahaprabhu and the Sankirtan mission.
paritranaya sadhunam vinasaya ca duskrtam dharma-samsthapanarthaya sambhavami yuge yuge
Translation: In order to deliver the pious and to annihilate the miscreants, as well as to reestablish the principles of religion, I advent Myself millennium after millennium.[BG 4.8]
All of them under Sri Gaur and Nitai, who are the fathers of this movement, established the Yuga Dharma. We were discussing Rupa Goswami who wrote many books. Mahaprabhu, wrote only Siksastaka, asked many of His followers to write books.Rupa Goswami wrote Nectar of Devotion, Nectar of Instruction. He also wrote Ujjvala Nilamani, which describes the madhurya of Lord Krsna. Just like Kavi Karnapura wrote gaura-ganoddesha-dipika, Rupa Goswami wrote Sri Radha-krsna-ganoddesa-dipika. It gives an introduction to Radha and Krsna and all the associates, tells us about the devotees of Goloka and Vrindavana. It describes the various rasas in which the devotees were.
Rupa Goswami wrote it to throw so much light on the different associates and their mood in Krsna Lila. We get spiritual sight, to be able to see far away what's going on in Goloka. Rupa Goswami showed us, the fallen souls, through the eyes of the scriptures. He showed us the lifestyle of devotees and their relationship with Krsna. We need to wake up! To realize all these talks that Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu delivered about going back home, back to Godhead.
paras tasmāt tu bhāvo ’nyo ’vyakto ’vyaktāt sanātanaḥ yaḥ sa sarveṣu bhūteṣu naśyatsu na vinaśyati
Translation: Yet there is another unmanifest nature, which is eternal and is transcendental to this manifested and unmanifested matter. It is supreme and is never annihilated. When all in this world is annihilated, that part remains as it is.[BG 8.20]
avyakto ’kṣara ity uktas tam āhuḥ paramāṁ gatim yaṁ prāpya na nivartante tad dhāma paramaṁ mama
Translation: That which the Vedāntists describe as unmanifest and infallible, that which is known as the supreme destination, that place from which, having attained it, one never returns – that is My supreme abode.[ BG 8.21]
We don't desire to go to Heaven, the Lord did not appear to instruct us or invite us to go to heaven. It is not the instruction of Krsna or Caitanya Mahaprabhu and other incarnations of the Lord. He doesn't instruct us to desire to merge into the transcendental effulgence of the Lord - Brahma-jyoti. It's ignorance that people believe that we get to know the Lord that he is just a light. The Lord says that one should renounce any such religion which teaches such ignorance.
sarva-dharman parityajya mam ekam saranam vraja aham tvam sarva-papebhyo moksayisyami ma sucah
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reaction. Do not fear. [ BG 18.66]
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu is introducing us to Sri Goloka Dham. The Lord has appeared here to take us all back home, and He made so many efforts, gave us many instructions about do's and don’t's to go back. What is to be accepted and what to be renounced, all this is mentioned in the scriptures given by the Lord. The Lord appeared with His associates to perform His pastimes. All the pastimes have been included in books. Krsnadasa Kaviraja wrote Śrī Caitanya-caritāmṛta. Vyasa deva appeared 500 years ago and become Vrindavan Das Thakur. He wrote Caitanya Bhagwat.
Hanuman becomes Murari Gupta and wrote about the Bala Lila of the Lord. Lochan Das Thakur wrote Caitanya Mangal. Whatever pastimes happen to establish the dharma is written in black and white. It has been written so that we can read and understand. What more could Krsna do for us? What should He do? What did He leave out so that we can become a devotee in the future and try to attain Him? Where did Mahaprabhu or His associates and followers go? They went to the place where they came from … Goloka, Saket, Vaikuntha. Then why did they come? They came to tell us that we are fools and we have forgotten that we don't belong to this world, but to that transcendental abode of the Lord. 500 years ago this Sankirtan movement was inaugurated and is meant to go on for the next 10000 years so that fallen souls can take the benefit. The Lord taught everyone not simply by instructing, but by his own actions...
"harer-nama harer-nama harer-namaiva kevalam kalau nasty-eva nasty-eva nasty-eva gatir anyatha"
He kept reminding us that the chanting of the holy name is the only way. There is no other way, no other way, no other way. It is repeated three times to emphasise that it is not karma, not jnana nor yoga, not by a desire to enjoy, not by the desire to seek knowledge and not by performing different exercises - only by chanting of holy name. The Lord says, “My name will be preached in each and town and village of the world.”
pṛthivīte āche yata nagarādi grāma sarvatra pracāra haibe mora nāma
Translation: "In every town and village, the chanting of My name will be heard."
Though it started late, we can see that it's gradually happening. 400-500 years had passed and nothing had happened. Mahaprabhu made Srila Prabhupada the General of His Army and sent him to us. He was instructed by his Guru, Srila Bhaktisiddhanta to go to the West to preach and he fulfilled this desire of his Guru. This is the main motive of our mission. It is the Sankirtan movement, movement of Gaura and Nityananda, Krsna and Balarama, Rama and Laksmana. The prediction of Caitanya Mahaprabhu is becoming true through ISKCON. Srila Prabhupada foresaw, like Rupa Goswami, what Mahaprabhu wanted, as is said in His pranama mantra....
sri-caitanya-mano-'bhistam sthapitam yena bhu-tale svayam rupah kada mahyam dadati sva-padantikam
Translation: I was born in the darkest ignorance, and my spiritual master opened my eyes with the torch of knowledge. I offer my respectful obeisances unto him. When will Srila Rupa Gosvami Prabhupada, who has established within this material world the mission to fulfill the desire of Lord Caitanya, give me shelter under his lotus feet?[CC Antya-lila 1.117]
Srila Prabhupada spread this mission and it is still going on by the mercy of Rupa Goswami, our Acaryas and his Guru and by understanding this instruction of Mahaprabhu. We must thank the Lord, and our Acaryas and Gurus, who are helping us by establishing our relationship with the Lord and all our parampara. We must express our gratitude to our Acaryas and Gurus. This gratitude should not be only by lip service. We have to do something.
I discussed with you all that I was thinking that the Lord appeared for all of us and all His eternal associates also appeared for the same purpose. We must take this up sincerely. Now you can all share your questions, doubts, comments in the chat. You can all continue chanting and those who desire to share or inquire something, may write. You may note down the class points in your diaries, We are not robots. We also have the ability to think, so we should have our thoughts. Instead of thinking about the material world, we should think about Krsna. Engage our mind in Krsna as He says in Bhagavad-Gita. Write and it will be posted on Loksanga.
Yadunandana Acarya from Nasik was tested positive for Coronavirus and now because of your prayers and blessings, he is negative.
Hare Krsna