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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक २४.०२.२०२१ हरे कृष्ण! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७३३ स्थानों से जप हो रहा है। हरे कृष्ण! ब्रेकिंग द् न्यूज़- आज वराह द्वादशी महोत्सव है। हरि बोल! जैसे भगवान श्रीराम के लिए रामनवमी निश्चित है, वैसे विजय दशमी भी है अर्थात जिस दिन राम विजयी हुए थे, राम विजयी ही होते हैं। राम के साथ और कुछ होता ही नहीं। उसी प्रकार नरसिंह चतुर्दशी भी है, गौर पूर्णिमा भी है। प्रथमा से लेकर पूर्णिमा अथवा अमावस्या तक हर तिथि पर ( प्रथमा, द्वितीय, तृतीय.. यह तिथियां हैं) भगवान के इतने सारे अवतार हुए हैं। कोई अवतार प्रथमा तिथि को हुए, वैसे उसमें भी भेद है। वैसे यह सब बताने की आवश्यकता तो नहीं थी। कृष्ण पक्ष की प्रथम होती है और शुक्ल पक्ष की भी प्रथम होती है। दो पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। हर तिथि पर भगवान के अनेक अवतार हुए हैं। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ (श्रीमद भगवद्गीता 4.8) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। आज द्वादशी है और वराह द्वादशी है, इसका मतलब आप समझ सकते हो, जिस दिन वराह भगवान प्रकट हुए, उस दिन द्वादशी तिथि थी। उस समय भी यह तिथियां चल रही थी, यह तिथि नहीं अपितु यह क्रिस्टाब्द नया है। यह कालगणना अलग है, यह दो हजार वर्ष पुरानी है। किन्तु यह प्रथमा... द्वितीय... जब से सूर्य अथवा चंद्रमा है, यह सब तिथियां भी हैं या कहा जाए जब से यह सृष्टि प्रारंभ हुई तब से यह तिथियां भी हैं। उसी के साथ ही सदा के लिए यह रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, वीरवार भी चल रहे हैं। आज द्वादशी का दिन है, उसी दिन वराह भगवान प्रकट हुए थे। हरि बोल! वराह भगवान की जय! वे किस दिन प्रकट हुए, इसके विषय में तो हल्का सा पता चला। तत्पश्चात आप कहोगे कि कहां प्रकट हुए? इसका वर्णन श्री श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध में भी है व अन्य पुराणों में भी वराह भगवान की प्राकट्य लीलाओं का वर्णन सुनने को मिलता ही है। ऐसी संभावना है कि वराह भगवान का अवतार ब्रह्मलोक में हुआ होगा क्योंकि ब्रह्मा ब्रह्मलोक में ही रहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से ब्रह्मा का लोक ब्रह्मलोक अथवा सत्यलोक भी कहलाता है। वहां पर विराजमान ब्रह्मा एक दिन बैठकर कुछ सोच रहे थे। उनके साथ महाऋषि, सनक आदि उनके मानस पुत्र भी वहां विराजमान अथवा उपस्थित थे। इतने में ब्रह्मा जी को छींक आ गई, उसी के साथ ब्रह्मा के नाक से (आप जानते हो कि हमारे नाक से क्या निकलता है) वराह भगवान प्रकट हुए। भगवान का जन्म हम आप जैसा नहीं है, उन्हें मां-बाप की जरूरत नहीं है। ऐसा कौन है जो भगवान का बाप बने। भगवान ही सभी के बाप हैं, कोई आवश्यकता भी नहीं है। भगवान ऐसे ही प्रकट हो सकते हैं और होते भी हैं किंतु वे किसी को निमित्त बनाते हैं। उन्होंने ब्रह्मा जी को निमित्त बनाया और ब्रह्मा के नाक से प्रकट हुए। जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ (श्रीमद् भगवतगीता ४.९) अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। भगवान का जन्म दिव्य और अप्राकृत है। प्राकृत नहीं है जैसे कि पृथ्वी पर सभी जन्म होते ही हैं। गर्भ से जन्म होते हैं, वैसे चार प्रकार से जन्म होते हैं उनमें से एक गर्भ से जन्म होना होता है। भगवान जब प्रकट हुए तो वर्णन आता है कि वह अंगूठे के आकार के थे क्योंकि वह नाक से जो निकले थे। ब्रह्मा जी का अंगूठा था , थोड़ा बड़ा होना चाहिए। उन्होंने कुछ क्षणों में विशाल आकार धारण कर लिया और हाथी के आकार के बन गए। वहां उपस्थित महाऋषि इत्यादि गण यह सारा दृश्य देख रहे थे जो कि उनके लिए अद्भुत था। वे सोच ही रहे थे, यह कौन है? और क्या हो रहा है? वे आपस में चर्चा कर रहे थे अथवा कुछ अंदाजा लगा रहे थे। वे कुछ दिव्य अनुमान लगाने का प्रयास कर रहे थे। मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १०.९) अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। वैसे वे समझ रहे थे, यह तो भगवान हैं। वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना । केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे! (दशावतार स्तोत्र -जयदेव गोस्वामी) अनुवाद:- हे केशव! हे जगदीश! हे वराह का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! जो पृथ्वी ब्रह्माण्ड के तल पर गर्भोदक सागर में डुब गई थी, वह चंद्रमा पर धब्बे के समान तुम्हारे दांत के अग्रभाग में स्थित रहती है। वराह भगवान, केशव! धृतशूकररूप! अर्थात केशव शूकर रूप बने। वैसे केशव! धृत-नरहरिरूप भी है व केशव! धृत-रामशरीर। इस प्रकार दशावतार स्तोत्र में जयदेव गोस्वामी उल्लेख करते हैं। केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे! वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना । केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे! जय जगदीश हरे। वहाँ जो महाऋषि इत्यादि थे, उन्होंने ऐसा ही गान शुरू किया होगा जैसे कि आप यहां कर रहे हो जोकि मेरे साथ बैठे हैं लेकिन पता नहीं जो दूर बैठे हैं, वह गा रहे थे या नहीं? यह स्वभाविक है। वे भगवान के सानिध्य में भगवान का दर्शन कर रहे हैं भगवान के विचार जब मन में आते हैं तब उसी का उच्चार भी होता है अथवा मुख से उच्चारण भी होता है। मुख से वही बातें कहते हैं और निकलती हैं। दशनशिखरे धरणी तव लग्ना 'शूकर' उनका एक रूप तो शूकर जैसा है। (शूकर समझते हो?आप शूकर को क्या कहते हो- सूअर) रूप तो सूअर जैसा है। जैसे हम सूअर को देखते भी हैं अथवा सुनते भी हैं। तब हम कहते हैं छू, सूअर लेकिन यह रूप तो सूअर जैसा है, शूकर रूप। यह थोड़ा सा जंगली सूअर जैसा रूप भी है, इसके दांत हैं। दशनशिखरे धरणी तव लग्ना - जब उन्होंने दातों के ऊपर पृथ्वी को धारण किया तब उनका रूप इतना विशाल था। यह पृथ्वी बड़े आकार वाली है। हम तो छोटे हैं इसलिए हमें पृथ्वी बहुत बड़ी अथवा मोटी लगती है किंतु जब वराह भगवान ने इस पृथ्वी को धारण किया (बताएंगे उन्होंने क्यों धारण किया) तब पृथ्वी भगवान के दांतो के ऊपर छोटी सी लग रही थी। भगवान् के विराट सच्चिदानंद विग्रह की तुलना में पृथ्वी मानो सिंधु में एक बिंदु की तरह आकार की महसूस हो रही थी। इस दर्शन पर जय देव गोस्वामी लिख रहे हैं शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना। वराह भगवान के दो रूप हैं- एक श्वेत वराह और एक लाल वराह। एक लाल वर्ण के शूकर रूप और दूसरे सफेद वर्ण शूकर रूप हैं। उन्होंने पृथ्वी को धारण किया, वह थोड़ा कलंक जैसे ही लग रही है। भगवान का रूप सुंदर व निष्कलंक है, उसमें पृथ्वी एक धब्बा अथवा दाग जैसा कलंक जैसे लग रही थी शायद इसलिए क्योंकि भगवान का रूप सच्चिदानंद है लेकिन पृथ्वी भगवान के रूप में जैसे चंद्रमा के ऊपर कहीं दाग अथवा कलंक होते हैं, लग रही है। शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना। भगवान वराह ने शूकर अथवा सूअर ऐसा दिखने वाला रूप को बनाया है क्योंकि उनको गंदा काम करना है, ऐसी लीला भी है कि उनको गंदे स्थान पर जाना होगा। पृथ्वी अपने स्थान से च्युत की गयी है। राक्षसों के कई प्रयास होते हैं, वे भोग भोगते हैं। वह कई खनिजों को खोजते हुए अंदर जाते हैं, माइनिंग होता है,तत्पश्चात यह होता है, वह होता है। पृथ्वी के स्रोतों का भोग लेने हेतु कई प्रकार से प्रयासों से शोषण होता है उस समय के असुर हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दो भाई थे।( देखिए कैसे भाई थे और लेकिन उनके लिए तो अच्छा था) मेरे प्यारे भैया हिरण्यकशपु मेरे प्यारे भैया। इन दोनों का जमाना था। सत्ययुग की बातें चल रही है, सत्ययुग का जमाना है। अभी-अभी (बता ही देते हैं) ब्रह्मा जी का दिन प्रारंभ हुआ है और अभी अभी रात समाप्त हुई है। कुछ कुछ आंशिक प्रलय होता है। ब्रह्मा जी उस समय विश्राम करते हैं व उनकी रात होती है। तत्पश्चात जब ब्रह्मा जग जाते हैं। जैसा कि भगवतगीता में भी कहा है - सहस्त्रयुगप्रयन्त ब्रह्मा की रात और दिन में अर्थात ब्रह्मा जी का एक हजार महायुगों की रात और एक हजार महायुगों का दिन होता है। हजार महायुगों के दिन को ही कल्प कहते हैं। कह भी सकते हैं कि ब्रह्मा भी भगवान है, कुछ तो भगवता उनमें भी है। अभी-अभी प्रातः काल चल रही है, अब जब हम हैं, यह ब्रह्मा जी के मध्यान्ह का समय है। ब्रह्मा जी के 1 दिन में 14 मनु होते हैं, अब आठवें मनु चल रहे हैं अर्थात आधा दिन बीत गया और मध्यान्ह हो चुकी है। ब्रह्मा के दिन के प्रारंभ में ही संभवामि युगे युगे है। जैसा कि आपने सुना ही है।ब्रह्मा के दिन में कितने युग होते हैं? सहस्त्रयुगपर्यंत। एक हजार महा युग होते हैं। महायुग, सत्ययुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग से बनता है। चार युगों का एक महायुग होता है, ऐसे एक हजार महायुग होते हैं। इस प्रकार ब्रह्मा के 1 दिन में एक हजार युग हुए व हर युग में संभवामि युगे युगे अर्थात भगवान अवतार लेते हैं। ब्रह्मा जी का यह जो दिन चल रहा है, ब्रह्मा के इस दिन का पहला अवतार वराह अवतार है। कई हजारों अवतार होंगे, हर युग में एक एक अवतार होने वाला है। ब्रह्मा के दिन को कल्प कहते हैं। वैसे इस कल्प का नाम भी वराह कल्प है। जब संकल्प लिया जाता है वराह कल्पे कहते हैं। ब्रह्मा के इस दिन का नाम ही वराह दिन है।। यह प्रथम अवतार है। भगवान्, विनाशाय च दुष्कृताम्..अर्थात भगवान् अवतार लेते हैं और दुष्टों का संहार करते हैं। प्रथम महादुष्ट जिसका संहार किया वह हिरण्याक्ष था। वराह भगवान् के प्रकट होते ही उनकी लीला प्रारंभ हुई। इस प्राकट्य का मुख्य उद्देश्य था कि पृथ्वी का अपने स्थान से च्युत होकर जो पतन हुआ था अर्थात जिस जल में अथवा समुंदर व सागर में जहाँ पृथ्वी गिरी थी, वहाँ उस जल में गर्भोदकशायी विष्णु लेटते हैं।उस पृथ्वी के लिए (वह पृथ्वी भी एक स्त्री है) भगवान की शक्ति है, पृथ्वी भी व्यक्ति है, और हर शक्तियां, व्यक्तियां भी हैं। अथवा मूर्ति मंत्र भी होती हैं। इस पृथ्वी के लिए लड़ रहे थे। भगवान प्रकट हुए और उनकी लड़ाई शुरू हुई, जैसे फिल्मों में नायक (वैसे आप देखते नहीं होंगे, शायद कभी देखे होंगे) होता है और एक खलनायक होता है। जब वे किसी स्त्री की प्राप्ति के लिए लड़ते हैं, जो भी जीतेगा, वही जीतेगा उसे ही स्त्री की प्राप्ति होगी। वैसे ही पृथ्वी वहां जल में तैर रही है। वह स्थान गंदा भी है, जहां पर वह गिरी है। गंदे स्थान पर शूकर अथवा सूअर ही पहुंच सकता है। इसलिए भगवान ने परिस्थिति के अनुसार एक उचित रूप को धारण किया अर्थात पृथ्वी को बचाने व उद्धार के लिए भगवान को कार्य संपन्न करना है, वह हंस का रूप तो धारण नहीं करेंगे। हंस तो मानस सरोवर में जाएगा लेकिन जहाँ कचरा अथवा गंदगी होती है, वहां कौए, कुत्ते या सुअर जाएंगे। भगवान ने ऐसा रूप धारण किया है लेकिन भगवान का रूप सच्चिदानंद है। दिखने में तो सुअर जैसा शूकर रूप है लेकिन वह दिव्य रूप है। भगवान और हिरण्याक्ष में युद्ध हुआ, भगवान् अपनी गदा के साथ लड़ते हैं। भगवान ने हिरण्याक्ष का वध किया। हरि बोल !आप इस बात से प्रसन्न हो या नहीं? यदि आप इस बात से प्रसन्न नहीं होंगे तो हिरण्याक्ष आपके कुछ लगते होंगे। कुछ रावण के पुजारी भी हैं। हरि! हरि! भगवान ने पृथ्वी को उठाया है, अपने दांत पर रखा है। सर्वप्रथम भगवान उस समुद्र से बोझ उठाते हुए ऊपर जा रहे हैं। पाताल से तलातल, सुतल, वितल, महातल, अतल और अतल के ऊपर मध्य में पृथ्वी का स्थान है। चौदह भुवन हैं, पृथ्वी मध्य में है। ऊपर सात लोक हैं, नीचे 7 लोक हैं। ऐसे सात नीचे के लोकों से ऊपर उठते हुए भगवान पृथ्वी को लेकर ऊपर आए और उन्होंने मथुरा में यमुना के तट पर जो विश्राम घाट है, वहां थोड़ा विश्राम किया। भगवान ने विश्राम किया। जब भगवान विश्राम कर रहे हैं तब उस समय भी पृथ्वी उनके दांत के ऊपर ही है। इससे आप क्या समझ सकते हो? मथुरा और वृंदावन उत्तर प्रदेश में नहीं है। इस पृथ्वी पर ही नहीं है। सारे संसार का भी प्रलय होता है, तत्पश्चात महाप्रलय होता है। पृथ्वी का गिरना अथवा पतन होना यह कुछ हल्का सा प्रलय ही हुआ था। यह प्रलय का ही एक प्रकार है। पृथ्वी का जो भी हो, उससे मथुरा व वृंदावन का कुछ बिगड़ता नहीं है, मथुरा वृंदावन शाश्वत है। अपने स्थान पर स्थित रहता है। इसलिए वराह भगवान विश्राम घाट यमुना के तट पर मथुरा में बैठे हैं। पृथ्वी अभी तक उनके दांत के ऊपर है। अंततोगत्वा उन्होंने पृथ्वी को अपने स्थान पर स्थापित किया। इसी के साथ भगवान की लीला संपन्न हुई। भगवान की विजय भी हुई। ऐसे वराह भगवान की जय! भगवान हमारे लिए क्या-क्या नहीं करते। भगवान को करना ही पड़ता है। हरि! हरि! ऐसा करने की क्षमता और किसी में नहीं है। यही तो परित्राणाय साधूनां हुआ, उन्होंने पृथ्वी की रक्षा की, पृथ्वी को बचाया। पृथ्वी को पुनः अपने स्थान पर स्थापित किया। तभी हमारी रक्षा हुई अर्थात पृथ्वी माता के बच्चों व बालकों की रक्षा हुई, पृथ्वी माता हमारा पालन-पोषण करती है। अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ३.१४) अनुवाद:- सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है | वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है | पृथ्वी माता अन्न देती है। आप कहोगे, नहीं! नहीं मेरी मम्मी मुझे अन्न देती है या मेरी मम्मी दूध देती है लेकिन जब तक पृथ्वी हमारी मम्मी को अन्न नहीं देगी तो मम्मी तब जिएगी भी नहीं। पृथ्वी माता की जय! सात जननियां है। पृथ्वी प्रथम व मुख्य जननी है। भगवान ने पृथ्वी की भी रक्षा की और इसी के साथ भगवान धर्म की स्थापना भी कर रहे हैं और परित्राणाय साधुनां भी कर रहे हैं। हरि! हरि! भगवान का एक रूप मछली जैसा है, एक रूप कछुए जैसा है, एक रूप सूअर जैसा है, एक रूप नरसिंह जैसा है और एक रूप राम जैसा है। रूप तो अलग अलग हैं लेकिन जिस से यह सारे बने हैं वह तो एक ही है, सभी सच्चिदानंद हैं। जैसे कभी-कभी आप लोग किसी चीनी का सोलूशन( घोल) बनाकर उसे किसी सांचे में डालते हो तो फिर कोई उससे गुड़िया बनाते हो या कोई हाथी या कई सारे खिलौने बनाते हो या फिर कोई मूर्ति भी बन सकती है। यह हुआ, वह हुआ ...आपने देखा ही होगा कि रूप तो अलग अलग दिखते हैं लेकिन जिससे वह बने हैं, वह तो शक्कर ही है। वैसे सारे विग्रह दिखने में अलग-अलग हैं। दिखता है मछली लेकिन मछली नहीं है, दिखता है सूअर लेकिन सूअर नहीं है। सभी सच्चिदानंद विग्रह है। अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरषं नवयौवनं च। वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविंदमादिपुरूषं तमहं भजामि।। ( ब्रह्म संहिता ५.३३) अनुवाद:- जो वेदों के लिए दुर्लभ है किंतु आत्मा की विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ है, जो अद्वैत हैं, अनादि हैं जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं और आदि पुरुष भगवान गोविंद का मैं भजन करता हूं। भगवान के अनंत रूप हैं लेकिन वे अद्वैतं हैं, अद्वैत मतलब दो नहीं है। वे कृष्ण से अलग नहीं है, वह कृष्ण ही हैं। इसलिए केशव धृत अर्थात केशव ने ही यह रूप धारण किया है। जैसे सोने की कोई अंगूठी बनाता है और कोई मूर्ति भी बना सकता है।गोल्डन मूर्ति या कान के कुंडल आदि कई सारे अलंकार हैं, सब अलग-अलग दिखते हैं लेकिन सब सोने के बने हैं। वैसे ही यह सारे रूप अलग-अलग दिखते हैं लेकिन सभी सच्चिदानंद हैं।देखो! देखो! इससे हमारा डार्विन थ्योरी ऑफ रिवोल्यूशन सिद्ध हो गया। आपने तो ऐसा सोचा भी नहीं होगा लेकिन इस संसार में कुछ लोग चालू हैं। वे कहते हैं कि हमनें शुरुवात में ही कहा था ना कि पहले अमीबा था, फिर रेप्टाइल्स बने, तत्पश्चात पक्षी बने फिर बंदर बने तत्पश्चात मनुष्य बने। डार्विन थ्योरी ऑफ रिवोल्यूशन कहते हैं कि हम पहले मछली ही थे, बाद में मछली से अन्य रूप बना, तत्पश्चात कछुआ बना। फिर उसका विकास हुआ, वह सूअर बना तत्पश्चात आधा नर आधा सिंह बना और बाद में मनुष्य जैसा रूप बना। हमारा डार्विन थ्योरी ऑफ रेवोल्यूशन सिद्ध हुआ। कुछ लोग दिमाग लगा कर ऐसे निष्कर्ष निकालते हैं लेकिन वे जानते नहीं भगवान केशव! धृत-मीनशरीर! जब वे मीन बने। ऐसा नहीं जब वे मछली बने तो उससे पहले दूसरे रूप नहीं थे। उससे पहले राम थे। राम पहले या कृष्ण पहले? कृष्ण 5000 वर्ष पूर्व हुए थे और राम दस लाख वर्ष पूर्व हुए थे। राम पहले। इसलिए हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे कहेंगे। लेकिन राम के पहले कृष्ण हुए थे और कृष्ण के पहले राम हुए थे और राम से पहले कृष्ण हुए थे.. इस तरह यहाँ तो सब आते हैं अथवा समय समय पर प्रकट होते हैं। लेकिन यहां आने से पहले कहीं ना कहीं वैकुंठ या अपने लोक में ही भगवान सदा ही रहते है। हरि! हरि! यहीं पर विराम देते हैं। आपका समय भी ज़्यादा ले लिया। हरे कृष्ण

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