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जप चर्चा
4 अगस्त 2020
पंढरपूर धाम
श्री श्री गुरू गौरांग जयत:
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । हरि नाम प्रभु की जय । हरि नाम ! हरि नाम भी एक प्रभु हैं ।
पुंडलीक ? समझ रहा है क्या ? मंदिर में सेवा कर रहे हो या नहीं ? नागपुर मे मंदिर मे सेवा करो ।
775 स्थानों से जप हो रहा है । हरी हरी । बलराम पूर्णिमा महोत्सव संपन्न हुआ , आप सम्मिलित हुए कि नहीं ? काउंसलर शर्मा जी आपने बलराम जी के लिए कुछ किया ? पुष्प अभिषेक किया ? कुछ किया ? कुछ प्रार्थना की ? (एक भक्त से पुछते हुए)
जय बलदेव । अब जब देवकी का गर्भ खाली हुआ , बलराम जी को स्थानांतरित किया गया या गर्भांतर हुआ । स्थानांतर या देशांतर तो गर्भांतर , एक गर्भ से दूसरे गर्भ में जब बलरामजी पहुंचाए गए , भगवान के आदेश के अनुसार योगमाया ने यह कार्य किया । तब कुछ रिक्त या खाली गर्भ में कृष्ण ने प्रवेश किया , वह वहां पहुंच गए ।
भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयङ्कर: ।
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभे ।।
(श्रीमद्भागवत 10.2.16 )
अनुवाद : इस तरह समस्त जीवो के परमात्मा तथा अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वसुदेव के मन में अपने पूर्ण ऐश्वर्य के समेत प्रविष्ट हो गए ।
यह दसवें स्कंध के द्वितीय अध्याय का एक श्लोक हमने पढ़ा उसमें लिखा है , आनकदुन्दुभे सोलावा स्कंध है । मन में अंशभागेन मतलब यहा पूर्णतम कृष्ण , पूर्ण कृष्ण नहीं है , पूर्णतर कृष्ण जो है याने थोड़े से कम कृष्ण , मथुरा के कृष्ण वासुदेव , वृंदावन के कृष्ण नहीं । वासुदेव का एक नाम आनक दुन्दुभे है , उन्होंने वसुदेव के मन में प्रवेश किया । यहा देखीये भगवान गर्भ मे कैसे प्रवेश करने जा रहे है । पहले वसुदेव के मन से फिर देवकी के मन से फिर गर्भ में प्रवेश किया । यहा गलती मत करना , यहा वसुदेव और देवकी के मिलन से और फिर पुकेशर उससे कृष्ण उत्पन्न नहीं हो रहे हैं । ऐसे जन्म नही ले रहे है , जैसे हमारे तुम्हारे जन्म होते हैं , अंड और बीज और वीर्य इसका जो योग या संबंध होता है ऐसा कुछ भी नहीं है , शून्य । वसुदेव देवकी जन्म नहीं दे रहे हैं , कृष्ण को जन्म कौन दे सकता है ? कृष्ण जन्म नहीं ले रहे हैं । कृष्ण जैसे हैं वैसे ही प्रकट हो रहे हैं । जन्म लेना मतलब शरीर प्राप्त करना ऐसी समझ है , संसार मे जो जन्म लेते है अलग अलग योनियोमे या मनुष्य योनी मे उन्हे शरीर प्राप्त होता है , जीव एक शरीर मे प्रवेश करता है , एक शरीर प्राप्त होता है और उसे हम कहते है इसने जन्म लिया । भगवान अलग से कोई शरीर धारण नही कर रहे है , वह परमात्मा है या स्वयं भगवान है और किसीका रूप धारण नही कर रहे है । वह जैसे हैं वैसे के वैसे ही उन्होंने प्रवेश किया है , वह गर्भ में जब पहुंचे वह भी भगवान की लीला है । हमको तो जन्म लेना ही पड़ता है ,
कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये ।
स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ।।
(श्रीमद्भागवत 3.31.1)
अनुवाद : भगवान ने कहा: परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव (आत्मा) को पुरुष के वीर्यकण के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है ।
कर्मणा दैवनेत्रेण हमारे दैव के अनुसार , हमारे कर्मों के अनुसार हमको जन्म लेना ही पड़ता है , सत योनी मे या असत श्रेणी के योनी मे हम जन्म लेते हैं लेकिन ,
भगवान गीता में कहते हैं
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पूहा ।
इति मां बोऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
(भगवद् गीता 4.14)
अनुवाद : मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता , न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ । जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है , वह कभी भी कमों के पाश में नहीं बैधता ।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति मैं जो भी कार्य करता हू , उन कर्मों से मैं लिम्पायमाय नहीं होता , मैं उन कर्मों से बद्ध नही होता , मुझे उन कर्मो का फल नहीं भोगना पड़ता है , ऐसा भगवान श्रीकृष्णने स्वयं कहा है । ऐसे भगवान के जन्म को उनके उनके लीला को हमे समझना होगा ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
( भगवद् गीता 4.9)
अनुवाद : हे अर्जुन! जो मनुष्य मेरे जन्म और कर्म को तत्त्व से दिव्य जान लेता है , वह शरीर त्याग कर फिर जन्म नहीं लेता , किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है ।
चौथे अध्यान मे भगवान ने पुनः कहा है , मेरा जन्म , कर्म , मेरी लीलाएं दिव्य है । इस संसार में जैसे हम लोगो के कर्म है , जैसा हम लोगोका जन्म है , वैसा जन्म , वैसी क्रियाए भगवान नहीं करते , वह दिव्य है । इसका तत्व जो जानता है , जन्म का तत्व , कृष्ण जन्मतत्व , कृष्ण लीलातत्व या नामतत्व या भगवततत्व ऐसे व्यक्ती जन्म मृत्यू के चक्र से मुक्त होकार भगवत धाम जायेंगे । परमेश्वर या उनका जन्म , लिला , रूप , कार्यकलाप समझना होगा , जानना होगा । जब जन्म की लीला सुन रहे हैं तब उसे तत्वतः समझना होगा , तत्वतः समझने वाले का फिर क्या फायदा , क्या लाभ है ?
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति ऐसे व्यक्ति का पुनः जन्म , पुनः मृत्यु नही होता । मामेति वह मेरी ओर आएगा , मेरे धाम में आएगा । मामेति हरी हरी ।
भगवान ने पुनः कहा है ,
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
(भगवद् गीता 9.11)
अनुवाद : जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ , तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं । वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते ।
अवजानन्ति जानते नहीं , वह कौन है ? मूढा , इस संसार के जो मूढ है , गधे हैं , अनाड़ी है । अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।, मानुषीं तनुमाश्रितम् । मैं भी जब प्रकट होता हूं तब किसी तनु का , किसी शरीर का आश्रय लेता हूं , यह मेरा शरीर भी अन्य बध्दजिवो के जैसा ही होता है , इत्यादी इत्यादी बातें कही । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् यह भी तो समझना होगा , परम भाव या परमेश्वर या उनका जन्म उनकी लीलाएं उनके कार्यकलाप उनके रूप को तत्वतः समझना है । फिर गर्भ में भगवान पहुंच गए , यह सारी लीला है । कृष्ण के कर्मों का फल नहीं है कि उनको अभी जन्म लेना पड़ रहा है , गर्भ में बंद हुए और ,
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ।।
(21 शंकराचार्य)
ऐसा कुछ नहीं है । यहां मुरारी स्वयं ही लीला खेल रहे हैं और वसुदेव देवकी के पुत्र बनना चाहते हैं । पुत्र बनके स्नेह अर्जन करना चाहते हैं , माता पिता का स्नेह , वह वात्सल्य रसास्वादन करना चाहते हैं और ऐसा अवसर उनको गोलोक में नहीं मिलता । गोलोक में वह सदैव किशोर ही रहते हैं , भगवान यहां गोकुल में उन बाल लीलाओं का , बालक बनने का , माता-पिता होने का जो अनुभव है , यह अनुभव , वह आनंद लूटने के लिए यह लीला भगवान खेल रहे हैं । देवकी के गर्भ में पहुंचे , शुकदेव गोस्वामी कथा सुना रहे हैं , श्री शुक उवाच , 19 वे श्लोक में उन्होंने कहां ,
सा देवकी सर्वजगन्निवास निवासभुता नितरां न रेजे ।
भोजेन्द्रगेहेग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती ।।
(श्रीमद्भागवत 10.2.19 )
अनुवाद : तब देवकी ने समस्त कारणों के कारण समग्र ब्रह्मांड के आधार भगवान को अपने भीतर रखा किंतु कंस के घर के भीतर बंद होने से वे किसी पात्र की दीवालो से ढकी हुई अग्नि की लपटों की तरह या उस व्यक्ति की तरह थी जो अपने ज्ञान को जन समुदाय के लाभ हेतु वितरित नहीं करता ।
क्या हुआ ? भगवान अब देवकी के गर्भ में पहुंचे हैं , विराजमान है , देवकी सर्वजगन्निवास निवासभुता
भगवान जगन्निवास है । भगवान का एक नाम जगन्निवास है । उनको जगन्निवास क्यों कहते हैं ? वह जगत के निवास है । सारा जगत उनमें है , सारा जगत भगवान में निवास करता है , सारे ब्रम्हांड उन्हीं में ही है , आगे वह दिखाने वाले हैं , यशोदा को दिखाएंगे , आ करो ? कृष्ण ने जब मूह खोला तब सारा विश्व , सारा ब्रह्मांड कृष्ण में दिख रहा था ।
इतीदृक् स्वलीलाभिरानन्द कुण्डे,स्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम्।
तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्वं,पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे।।
(दामोदर अष्टकम 3)
वहां पर भी सारे विश्व उनमें है , ऐसा उल्लेख है । हरी हरी ।
सर्वजगन्निवास निवास भूता कृष्ण जिनमें सारा जगत निवास करता है , वह जगन्निवास अब देवकी में निवास कर रहे हैं , यह अद्भुत बात है । यह सारा संसार भगवान में है यह समझना भी हमारे लिए कठिन है लेकिन यह तो हकीकत है , ब्रह्मांड भगवान के बाहर भी है और अंदर भी है । अंतर बाह्य अवस्थित ऐसे भगवान अब देवकी के गर्भ में निवास कर रहे हैं , कृष्ण निवासी हो गए । निवासी कहीं निवास करता है , जैसे आपका घर भी आप का निवास है , आप वहां के निवासी हो । राम नाम , ब्रह्मा देश के जो ब्रह्मा आप कहते हो , जिस घर में आप रहते हो वह आपका निवास है और वहां का मैं निवासी हूं । कृष्ण बन गए निवासी और कौन सा निवास है ? देवकी का गर्भ निवास बन गया और कृष्ण बन गए निवासी । सर्वजगन्निवास निवास भूता नंतरां न रेजे कंस समय समय पर आकर वहां नजर रखता है , वासुदेव और देवकी कारागार में है और अब आठवें पुत्र की बारी है यह उसको पता था । 6 की तो हत्या की थी , सातवें का कुछ पता ही नहीं चला और फिर अब आठवीं बार जब देवकी गर्भवती हुई है तो समय-समय पर आकर वह देख रहा है , ध्यान रख रहा है । हरी हरी । वह भयभीत भी है कि आठवां बालक आ गया है , और अब जन्म ले सकता है , तब जन्म ले सकता है , जन्म लेते ही ऐसा करेगा , वैसा करेगा , मेरी जान लेगा ।
तां वीक्ष्य कंस: प्रभयाजितान्तरां
विरोचयन्तीं भवनं शुचिस्मिताम्।
आहैष मे प्राणहरो हरिर्गुहां
र्ध्रवं श्रितो यन्न पुरेयमीद्दशी।।
(श्रीमद भागवत 10.2.20)
अनुवाद : गर्भ में भगवान के होने से देवकी जिस स्थान में बंदी थींवहांँ के सारे वातावरण को वे अलोकित करने लगींक्षउसे प्रसन्न,शुद्ध तथा हंँसमुख देखकर कंस ने सोचा,"इसके भीतर स्थित भगवान विष्णु अब मेरा वध करेंगे। इसके पूर्व देवकी कभी भी इतनी तेजवान तथा प्रसन्न नहीं थी।"
कंस जब वहां पर पहुंचा जहां वसुदेव और देवकी है , कौष्ट में उसने बंदी बनाया था उस स्थान पर वह पहुंचा , उसने प्रवेश किया तब उसने अनुभव किया कि , क्या हुआ है ? वह सारा कमरा , वह सारा कक्ष जगमगा रहा था ।
कोटी सूर्य समप्रभ तब उसने अनुभव किया , इतना प्रखर तेज , इतना प्रकाश उसने जीवन भर में कभी देखा या अनुभव किया ही नहीं था , यह प्रकाश , यह स्रोत यह जगन्निवास निवास भूता या कृष्ण जो देवकी के गर्भ में थे वही इस प्रकाश के , ज्योति के स्त्रोत थे । कंस ने पहली बार अनुभव किया तो निश्चित हो गया कि मेरा हत्यारा , मेरा वध करने वाला पहुंच गया है । वह यही है , वह यही है !
भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयङ्कर: ।
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभे ।।
(श्रीमद्भागवत 10.2.16)
अनुवाद : इस तरह समस्त जीवो के परमात्मा तथा अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वसुदेव के मन में अपने पूर्ण ऐश्वर्य के समेत प्रविष्ट हो गए ।
कंस अधिक भयभीत हो चुका है , भगवान अब देवकी के गर्भ में ही है और उनके प्राकट्य का समय कृष्णाष्टमी भी आ चुकी है । कौन सा दिन है ? वह अष्टमी का दिन है , भगवान के स्वागत के लिए सारे देवदूत वहां पहुंच गए हैं । स्वयं भगवान पधार रहे हैं तो देवताओं का यह कर्तव्य है , जो अलग-अलग विभागों के प्रमुख है वह अपने-अपने यानो में विराजमान होकर मथुरा पहुंचे हैं , और इतने सारे देवता है 33 करोड देवता वहां मथुरा मंडल में पहुंच गए और उनके 33 करोड यान या वाहन भी है और यह सभी के सभी कृष्ण का प्राकट्य होते ही दर्शन करना चाहते हैं । देवास शहर श्लोक ऐसा भगवान का रूप है , भगवान ही भगवद् गीता के ग्यारहवें अध्याय में विश्वरूप दिखाने के उपरांत कहते है । अर्जुन को विश्वरूप दिखाया जिस रूप से अर्जुन को तो कोई प्रेम नहीं रहा वह वैसे भयभीत ही हुए उसके उपरांत फिर भगवान ने पहले चतुर्भुज पहले और फिर द्विभुज रूप दिखाया और अर्जुन को द्विभुज रूप दिखाते हुए कृष्ण ने कहा , श्री भगवान उवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ।।
(भगवद्गीता 11.52 )
अनुवाद : श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यन्त दुष्कर है | यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यन्त प्रियरूप को देखने की ताक में रहते हैं |
अर्जुन यह जो रूप तुम देख रहे हो , यह कैसा है ? देवा अप्यस्य रूपस्य देवता भी इस रूप का नित्य दर्शन करने के अभिलाषी होते हैं , महत्वाकांक्षा रखते हैं , कब होगा ? कैसा होगा ? होगा कि नहीं ? दर्शनकाङ्क्षिणः ऐसा मेरा दुर्लभ रूप भी है , जिसका लाभ दुर्लभ है , जीसका दर्शन दूर का भी दर्शन है ।
(हसते हुए) दूरदर्शन है और दुर्लभ भी दर्शन है । सुदुर्दर्शमिदं वह देवता कृष्ण के दर्शन के लिए उत्कंठीत है , इसको आप समझ लीजिए कि भगवान कृष्ण का स्थान देखिए । भगवान कौन है ? और देवता कौन है ? देवता तो यही के है , इसी ब्रह्मांड के ही है , स्वर्ग में रहते हैं और वह सब कृष्ण की दास हैं , भगवान के दास है , सेवक है । इस ब्रह्मांड का जो संचालन होता है वह अलग अलग विभाग संभालते हैं ।
मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।
( भगवद्गीता ९.१० )
अनुवाद : हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
भगवान ने जो कहा है , "मेरे अध्यक्षता के अनुसार यह सारे संसार का संचालन होता है , वह संचालन स्वयं नहीं करते भगवान देवताओं से अलग अलग कार्य का संचालन करवाते हैं । देवता जो स्वर्ग की निवासी है वह वैकुंठ के निवासी नहीं है , गोलोक के निवासी नहीं है ।
ऐकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य ।
यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ।।
(चैतन्य चरितामृत आदी लीला 5.142)
अनुवाद : एकमात्र भगवान कृष्ण ही परम नियंता है और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वह जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं ।
अकेले कृष्ण ही ईश्वर है , परमेश्वर है बाकी सब भृत्य है , सारे देवी देवता भी कृष्ण के दास है ,सेवक है । वह सब पहुंचे हैं , जन्म होते ही दर्शन करना चाहते हैं । बालक जन्म लेते ही हम पहले दर्शन करेंगे अहं पूर्वम् ,अहं पूर्वम् हम पहले दर्शन करेंगे , हम पहले दर्शन करेंगे । इसलिए वहां कुछ पार्किंग का भी समस्या हो रही है । वसुदेव देवकी जिस स्थान पर कारागार में बद्ध है वहा अधिक से अधिक निकट अपना यान पहुंचाे चाहते हैं ताकि उनको दर्शन हो । कृष्ण के प्राकट्य के पहले कौन-कौन पहुंचे ?
ब्रम्हाभवच्य तत्रैत्यमुनिभिनारदादिभि: ।
देवै: सानुचर्ये: सांक गीभिरवृषनमैडयन ।।
(श्रीमद्भागवत 10.2.25)
अनुवाद : ब्रम्हाजी तथा शिवजी, नारद, देवल तथा व्यास जैसे महामुनियों एवं इंद्र,चंद्र तथा वरुण जैसे देवताओं के साथ अदृश्य रूप में देवकी के कक्ष में पहुंचे जहां सबों ने मिलकर वरदायक भगवान को प्रसन्न करने के लिए सादर स्तुतीया की।
शुकदेव गोस्वामी को सब पता था कौन-कौन आए थे । तो मोटे मोटे नाम भी गिन रहे हैं , ब्रह्मा आए भव मतलब शिवजी आए भव जिनकी भवानी , शिवजी की पत्नी भव भवानी , शिव शिवानी की ध्वनी भी सुन रही है और कई सारे मुनि आ रहे हैं , फिर मुनिभिनारदादिभि कई सारे मुनि और मुनि पुन्डवः नारद जी भी है और असंख्य देवता सानुचर्ये अपने अनुचरो के साथ आए हैं और फिर उन सभी ने भगवान की स्तुति की है । यहां भागवत में गर्भ स्तुति नाम से एक स्तुति प्रसिद्ध है , भागवत मे कई प्रार्थनाएं है , कई स्तुतीया है , कुछ कुंती महारानी की है या भीष्म पितामह की है फिर शिव जी का गीत है या गोपी का गीत है वैसे देवताओं ने भी स्तुति की है उसे गर्भ स्तुति कहते हैं ।
कृष्ण जब गर्भ में ही है तब सभी देवताओ ने मिलकर भगवान की स्तुति की है । स्तुति के कहीं सारे वचन है आप पढियेगा । 10 वे स्कंध के द्वितीय अध्याय के 26 वे श्लोक से आगे कई सारे स्तुति के वचन है । भगवान की देवताओं ने स्तुति की है ,
सत्यव्रतम सत्यपरम त्रिसत्यं ।
सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये ।।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्र सत्यात्मकम् त्वां शरणम प्रपन्ना ।।।
(श्रीमद्भागवत 10.2.26)
अनुवाद : देवताओं ने प्रार्थना की;हे प्रभो, आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा ही पूर्ण रहता है क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता। सृष्टि,पालन तथा संहार-जगत की इन तीन अवस्थाओं में वर्तमान रहने से आप परम सत्य है। कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं कर नहीं बन सकता जब तक वह पूरी तरह आज्ञाकारी ना हो अंतः इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते आप सृष्टि के सारे अवयवो में असली सत्य है इसलिए आप अंतर्यामी कहलाते हैं। आप सबो पर समभाव रखते हैं और आप के आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं आप आदि सत्य है अंतः हम नमस्कार करते हैं और आप की शरण में आए हैं। आप हमारी रक्षा करें ।
यह पहला स्तुति का वचन है , हम आप की शरण में जाते हैं , देवता भगवान के शरण में आ रहे हैं । यह भगवान की पदवी है , ऐसे है भगवान , इनके चरणों में देवता भी नतमस्तक होते हैं और देवता भी जिनकी स्तुति का गान करते हैं । हमें भी वैसा ही करना चाहिए , देवता गन हम सभी के समक्ष आदर्श रख रहे हैं । भगवान सत्य है , सत्य वचनी है , सत्यव्रतम् , श्री सत्यम त्रीकालवादी सत्य , उनका जो वचन है वह सभी समय सत्य होता है । भगवान भूतकाल में थे अब है भविष्य में भी रहेंगे , सदा के लिए सत्यश्ययोनी सत्य की योनि , सत्य के स्रोत है सत्य का स्रोत कृष्ण ही है , भगवान ही है । सत्यात्मकम् मानो वह सत्य से ही बने हैं , सत्य ही भगवान बन गए हैं । सच्चिदानंद हम जब कहते हैं , सच्चिदानंद ! सत , चित , आनंद । सत मतलब शाश्वत , भगवान सत है , शाश्वत है , सत्य है । हर समय सत चित है , पूर्ण ज्ञानवान भी है और आनंदकन भी है । सच्चिदानंद ! कृष्ण कन्हैया लाल की जय ।
अब कुछ 8 दिन बाकी है , कृष्ण आ रहे हैं , यही समय है । देवता भी कृष्ण के प्राकट्य के पहले पधारे थे और भगवान की स्तुति गान कर रहे थे , तो हम भी प्रतिदिन जप चर्चा के समय कृष्ण का या कृष्ण के जन्म का या कृष्ण के बाल लीलाओं का कुछ संस्मरण करते हैं । और अब इस दिन में कही हुई बातों का भी मनन जारी रखो , और आप स्वयं भी भागवतम पढ़ो या सुनो । कृष्ण बुक कर पढ़ने के लिए भी आपको बताया जा रहा है । लिला पुरुषोत्तम श्री कृष्ण नामक जो श्रील प्रभुपाद का ग्रंथ है उसको भी इन दिनों में पढ़ सकते हो । और जप तो करना ही है और सब कुछ करना ही है ।
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त त्रत्वेन निर्मलम् ।
हृषीकेण हषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.170)
अनुवाद : भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में
अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् की सेवा करता है, तो उसके दो गौण
प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं।
भक्ति भी करनी है और ,
यारे देख, तारे कह "कृष्ण"-उपदेश।
आमार आज्ञाय गुरु हआा तार' एड देश ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 7.128)
अनुवाद :"हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।"
आपके परिवार में जो कृष्ण के भक्त नहीं है या पति भक्त है पत्नी भक्त नहीं है या पत्नी भक्त है पति भक्त नहीं है या बच्चे भक्त नहीं है , पड़ोसी भक्त नहीं है , आपके मित्र भक्त नहीं है , परिवार के सदस्य भक्त नहीं है , आपका मित्र परिवार है या आपके साथ काम करने वाले भक्त नहीं है तो थोड़ा उनकी ओर भी ध्यान आपका हो । उन पर भी कृपा करो और देखो उनका समय आ चुका है । हो सकता है पहले तैयार नहीं थे लेकिन अब देख सकते हो की वह अब तैय्यार है । श्री कृष्ण जन्माष्टमी का जो समय है यह सभी जीव भगवान के भक्त हैं स्मरण करने का समय है । क्या कहा हमने ? सभी जीव भगवान के भक्त हैं । यह सत्य है । इस पर सोचो , वैसे कम से कम मनुष्य शरीर में जो जीव पहुंचे हैं उनको पता लग सकता है या पता किया जा सकता है , कृष्ण की उन जीवो को कुछ खबर लो , कुछ खबर दो और इस प्रकार आप उन पर भी कृपा करो , ऐसा करोगे तो भगवान आपसे प्रसन्न होगे और यही आपकी जन्मदिवस भेंट भी हो सकती है । क्या भेंट है ? यह जीव आपकी सेवा में है ।
इस जीव को हमने थोड़ा कुछ आपकी तरफ मोड़ लिया , इसको कुछ समझाया बुझाया , इसको प्रसाद खिलाया या इसको कृष्ण कथा सुनाइ या हमने इसके दिमाग में कुछ प्रकाश डाला या इसको हम कृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव में ले गए ऐसा और जिवो को भगवान की ओर मोड़ने का हमारा जो भी प्रयास है उस से भगवान प्रसन्न होते हैं । आप भगवान की ओर मुड़े हो और भगवान की भक्ति भी कर रहे हो उससे भगवान प्रसन्न है ही लेकिन भगवान आपसे और प्रसन्न होगे जब आप भी किसी को ए बी सी सिखाओगे । पहले ए बी सी सिखाओगे फिर बाद में शब्द और फिर वाक्य बाद में कुछ परिच्छेद ऐसे धीरे-धीरे सिखा सकते हो । ए बी सी से ही शुरुआत होती है , देख लो किसी को आपकी सहायता की आवश्यकता है ।
गौरांंग ।
कृष्ण कन्हैया लाल की जय ।
श्रील प्रभुपाद की जय ।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
हरि बोल ।