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जप चर्चा पंढरपुर धाम से 14 जून 2021 हरे कृष्ण! 905 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।905 स्थानों की जय और केवल स्थानों की ही जय नहीं बल्कि उन स्थानों में जप करने वाले आप सभी की जय हो। परम विजय पर श्री कृष्ण संकीर्तन।संकीर्तन आंदोलन की जय हो और संकीर्तन करने वाले,गाने वालों की भी जय हो।जप करना कलियुग का धर्म हैं। यतो धर्म: ततो जया। जहां है धर्म वहां है जीत। जहां धर्म है वहां जीत है वहां विजय हैं। भगवद्गीता 16.7 “प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः | न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते || ७ ||” अनुवाद जो आसुरी हैं , वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । उनमें न तो पवित्रता, न उचित आचरण और न ही सत्य पाया जाता है । हरि हरि!कल बिंद्रा जी कुछ कह रहे थे। वह भी भगवान के विचार सुना रहे थे या प्रभुपाद की महिमा का गान कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद की जय।मूल वक्ता तो गोविंद हैं,भगवान श्रीकृष्ण हैं,गोविंदम आदि पुरुषम् तम अहम भजामि।उन्होंने ही आसुरी संपदा और देवी संपदा नामक अध्याय में यह श्लोक बताया हैं,भगवद्गीता के 16 वें अध्याय में बताया हैं कि असुर नहीं जानते।प्रवृत्ति मतलब करनीय कार्य,करने योग्य कार्य,करने योग्य कार्यों को प्रवृत्ति कहां हैं और निवृत्ति मतलब ना करने योग्य कार्य।प्रवृत्ति और निवृत्ति,करने योग्य कार्य और ना करने योग्य कार्यों को असुर लोग नहीं जानते।हरि हरि!असुर डूस एंड डोंटस नहीं जानते।डूस अर्थात प्रवृत्ति और डोंटस अर्थात निवृति। प्रवृत्ति और निवृत्ति को और भी शब्दों में कहा हैं, उपादेय मतलब उपयोगी।उपादेय एक प्रकार का सदाचार और ऐय मतलब दुराचार।जो नहीं करना चाहिए। कुछ लोग शिष्ट होते हैं और कुछ लोग दुष्ट होते हैं। इस संसार में यह दो प्रकार के ही लोग होते हैं। पुन्ह: कृष्ण ने गीता में कहा हैं कि कुछ लोग देवता के जैसे होते हैं। देव आसुर एव च:। जो शिष्ट होते हैं,उनके आचरण को शिष्टाचार कहा जाता हैं।आपने सुना होगा शिष्टाचार,शिष्टो का आचार, शिष्टाचार कहलाता हैं और दुष्टों का आचार दुष्टाचार कहलाता हैं। आशा हैं, कि आप मुख्य बिंदु लिख रहे होंगे या मन ही मन में लिख रहे होंगे जो कि विश्वसनीय नहीं हैं। मन में लिखे गए मुख्य बिंदु तो मिट भी सकते हैं इसलिए आपको लिखना भी चाहिए।दुष्ट लोग होते हैं भारवाही, वह ऐसे ही इस संसार में बोझ ढोते रहते हैं, उनको भारवाही कहते हैं। भार अर्थात वजन। बोझ का वहन करते हैं। उसे ढोते हैं,जैसे गधे होते हैं। गधे की क्या खासियत हैं? कि वह बोझ ढोता ही रहता हैं। कुछ लोग भारवाही होते हैं और कुछ लोग सारग्राही होते हैं। सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय-संत कबीरदास। जो सार है उसको संभाल कर रखना चाहिए और थोथा को उड़ाना चाहिए।दिन भर या रात भर भी हमको दो प्रकार के विचार आते रहते हैं।शास्त्र में उन्हें संकल्प और विकल्प कहा हैं। जीवन भर संकल्प- विकल्प यही चलता रहता हैं। संकल्प मतलब कुछ फायदेमंद कृत्य करने का संकल्प लेना।जैसे मैं आज से रोज 16 माला करूंगा यह संकल्प हैं। मैं 4 नियमों का पालन करूंगा यह संकल्प हैं। मैं प्रात: काल में ब्रह्म मुहूर्त में उठूंगा और उठ कर अपनी साधना करूंगा यह संकल्प हैं और कई सारे विकल्प भी होते हैं। प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः- हम आसुरी प्रवृत्ति के हैं।हमारी प्रवृत्ति आसुरी हैं। हम दुष्ट हैं। जो करना चाहिए वह नहीं करते हैं, ब्रह्म मुहूर्त में उठना चाहिए नहीं उठते हैं। अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज मेक अ मैन हेल्थी वेल्थी एंड वाइस। प्रात: काल में उठने का संकल्प लेने की बजाए हम मीठी नींद का आनंद लुटते हैं। प्रातः काल की नींद मीठी समझी जाती हैं। हम सब कुछ उल्टा पुल्टा करते हैं।संकल्प जो करना चाहिए उसी को विकल्प करते हैं, उसी को पर्याय बना देते हैं और मन की द्विधा स्थिति में बने रहते हैं।विधा मतलब प्रकार।जैसे चतुर विधा, नवविधा भक्ति के 9 प्रकार हैं।मन की स्थिति ऐसी हैं कि करें या ना करें? ऐसा प्रश्न बना रहता हैं, कि करें या ना करें और अगर हम दुष्ट हैं तो जो नहीं करना चाहिए वही करते हैं। विनाश काले विपरीत बुद्धि।विनाश काल में हमारा दिमाग उल्टा पुल्टा चलता हैं।हरि हरि और भगवान से सन्मुख होने की बजाए भगवान से विमुख हो जाते हैं। भगवद्धाम लौटने की बजाए नर्क जाएंगे।भगवान ने नर्क के तीन द्वार कहे हैं।काम, क्रोध और लोभ।ऐसे तो 6 द्वार हैं लेकिन भगवद्गीता में भगवान ने 3 नाम लिए हैं हम वैकुंठ की ओर बढ़ने की बजाए नरक की ओर बढ़ते हैं। 2.63 भगवद्गीता “क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः | स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || ६३ ||” अनुवाद क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है | जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाति है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है | भगवद्गीता में भगवान ने कहा हैं कि 2.62 “ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते | सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||” अनुवाद इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |हमारा पतन होता है हम नीचे गिरते रहते हैं हम नीचे गिर रहे हैं हम क्रोधित हुए उससे और नीचे गिर गए उससे और अधिक अधिक विपरीत बुद्धि होती है काम में दिमाग काम ही नहीं करता।स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति मतलब विनाश और साधारण विनाश नहीं। भगवान ने प्र उपसर्ग का प्रयोग किया हैं, इसीलिए सावधान।प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः। इसलिए प्रवृत्ति निवृत्ति को समझ लेना चाहिए और उसमें से जो सार की बात हैं, उसे हमें अपनाना चाहिए और उसी प्रकार हमारा व्यवहार होना चाहिए और दुष्ट आचार से बचना चाहिए।इसी को मूल्य कहते हैं। जीवन में कुछ सिद्धांत होने चाहिए जो मूल्यवान हैं, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास होना चाहिए। लेकिन हम जानते नहीं हैं कि क्या मूल्यवान है और क्या बेकार हैं। मूल्यवान प्रेम हैं। प्रेम उपादेय हैं और काम ऐय हैं। काम को स्वीकार करना भारवाही हैं और प्रेम को स्वीकार करना सार ग्राही हैं। सद असद विवेक बुद्धि। सद् मतलब शाश्वत।सद् असद् को पहचान करना आना चाहिए। उसी पहचान करने की क्षमता को कहा गया हैं,सद असद् विवेक बुद्धि।अब मैं आपके साथ जो चैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद के बीच में संवाद हुआ उसको शेयर करना चाहता हूं। उनके बीच में संवाद चल रहा था तो एक रात की बात हैं, जिसमें सद् असद् अथवा संकल्प विकल्प के प्रश्न उत्तर चल रहे हैं। सार ग्राही-भाव ग्राही, डुस एंड डॉनट्स,शिष्टाचार और दुराचार, सद- असद विवेक या मूल्यांकन इन सब बातों पर विचार इस संवाद में हुआ है। उसी के कुछ जरूरी अंश आपके साथ सांझा करेंगे। चेतनय चरितामृत 8.245 मध्य लीला प्रभु कहे , - " कोन्विद्या विद्या - मध्ये सार ? " । राय कहे , - " कृष्ण - भक्ति विना विद्या नाहि आर " | 245 ॥ अनुवाद एक अवसर पर महाप्रभु ने पूछा , “ सभी प्रकार की विद्याओं में कौन - सी विद्या सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , " दिव्य कृष्ण - भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई विद्या महत्त्वपूर्ण नहीं है । " हे राय रामानंद बताओ कि विद्या में श्रेष्ठ विद्या कौन सी हैं?और राय रामानंद कह रहे हैं कि कृष्ण भक्ति ही सबसे बड़ी विद्या है जो विद्वान है वह भक्ति को ही अपनाएंगे। जेइ कृष्ण बजे सेइ बडा चतुर। जो कृष्ण को भजता हैं, वह बहुत ही चतुर हैं।कृष्ण की भक्ति करने वाला सबसे बड़ा विद्वान हैं और कृष्ण भक्ति के बिना और कोई विद्या हैं ही नहीं। वह कैसा विद्वान हुआ जो आपको भक्ति करने के लिए प्रेरित ना करें? मध्य लीला 8.246 ' कीर्ति - गण - मध्ये जीवेर कोन्बड़ कीर्ति ? ' । ' कृष्ण - भक्त ' बलिया याँहार हय ख्याति ॥ 246 ॥ अनुवाद तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से पूछा , “ समस्त यशस्वी कार्यों में कौन - सा कार्य सर्वाधिक यशस्वी है ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ वह व्यक्ति जो भगवान् कृष्ण के भक्त के रूप में विख्यात है , वही सर्वाधिक यश तथा कीर्ति भोगता है । " सबसे बड़ा कीर्तिमान किसको कहेंगे?कृष्ण भक्त होना ही सर्वोत्तम कीर्ति हैं। यह सबसे बड़ा परिचय हैं। कहा तो बहुत कुछ जा सकता हैं कि यह ऐसा है वैसा हैं, लेकिन जो सबसे बड़ी पहचान की जा सकती हैं वह हैं कि यह कृष्ण भक्त हैं। बस खत्म और कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं हैं। यह कृष्ण भक्त हैं। यही कीर्ति सर्वोत्तम कीर्ति हैं। अगर नाम करवाना ही हैं तो कैसा नाम करवाओ? कुछ लोग तो पापियों में नामी होते हैं।पापियों में नंबर वन पापी होते हैं। हरि हरि। संपत्तियों में सबसे बड़ी संपत्ति कौन सी है। मध्य लीला 8.247 ' सम्पत्तिर मध्ये जीवेर कोन्सम्पत्ति गणि ? ' । ' राधा - कृष्णे प्रेम याँर , सेड़ बड़ धनी ' 247 ।। अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ धनवानों में सर्वोच्च कौन है ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ जो राधा तथा कृष्ण के प्रेम का सबसे बड़ा धनी है , वही सबसे बड़ा धनवान है । ' जिस व्यक्ति को राधा कृष्ण का प्रेम प्राप्त हुआ है वही सबसे बड़ी संपत्ति हैं। जिसको राधा कृष्ण के प्रेम की संपत्ति प्राप्त हैं, वही धनवान हैं, वही धनी हैं और फिर कह रहे हैं कि तुम धन्य हो क्योंकि तुम धनी हो। क्योंकि तुमने कृष्ण प्रेम के धन को प्राप्त किया हैं, चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं कि कृष्ण प्रेम के बिना जो जीवन हैं वह दरिद्र का जीवन हैं। मध्य लीला 2.40 शुन मोर प्राणेर बान्धव नाहि कृष्ण - प्रेम - धन , दरिद्र मोर जीवन , ।। देहेन्द्रिय वृथा मोर सब ।। 4010 अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , “ हे मित्रों , तुम लोग मेरे प्राण हो , अतएव मैं तुम्हें बतलाता हूँ कि मेरे पास कृष्ण - प्रेमरूपी धन नहीं है । इसलिए मेरा जीवन दरिद्र है । मेरे अंग तथा इन्द्रियाँ व्यर्थ हैं ऐसा चैतन्य महाप्रभु ने शिष्टाष्टक में कहा हैं, जिसको कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं हैं वह दरिद्र ही हैं आगे पूछ रहे हैं- सभी दुखों में सबसे बड़ा दुख कौन सा है यह सबसे अधिक दुख कौन सा हैं? मध्य लीला 8.248 ' दुःख - मध्ये कोन दुःख हय गुरुतर ? ' । ' कृष्ण - भक्त - विरह विना दुःख नाहि देखि पर ' | 248 ।। अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ समस्त दुःखों में कौन - सा दुःख सर्वाधिक कष्टदायक है ? " श्री रामानन्द राय ने उत्तर दिया , " मेरी जानकारी में कृष्ण - भक्त के विरह से बढ़कर कोई दूसरा असह्य दुःख नहीं है । " कृष्ण भक्तों को मिल नहीं पा रहे हैं या बहुत समय से नहीं मिले हैं तो ऐसे भक्तों के लिए ऐसा समय व्यतीत होना ही सबसे बड़ा दुख हैं। जिसको सोचे तो हम समझ सकते हैं कि हमें वैष्णव से प्रेम हैं या नहीं हैं? हम वैष्णव को याद करते हैं या नहीं? लेकिन जो सोचता है कि वैष्णव संग के बिना जीवन व्यर्थ हैं या दुखमय हैं। जो साधु संग के महत्व को जानता हैं वही वास्तव विरह को जान सकता हैं। जैसे कोरोनावायरस में अभी साधु संग प्राप्त नहीं हो रहा हैं, हम संतो को और भक्तों को नहीं मिल पा रहे हैं।केवल परिवार के सदस्यों से घिरे रहते हैं।1 साल बीत गया हैं। या कई महीने बीत गए। हम सत्संग में नहीं जा पाए। हरि हरि। ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ॥४॥ अनुवाद दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना - भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं। उपदेशामृत 4 गुह्ममाख्याति पृष्छति भी नहीं हो रहा है। ददाति प्रतिगृह्णाति नहीं हो रहा हैं। ऑनलाइन प्रोग्राम तो होते हैं,लेकिन प्रसाद ना तो खा सकते हैं ना खिला सकते हैं ,दिखा देते हैं लेकिन देखने वाला देखता ही रहता है।सुंघ भी नही सकता। भक्तों का संग प्राप्त ना होने से दुखी होना भक्तों के लिए स्वभाविक हैं। ऐसा दुख आध्यात्मिक दुख हैं। इसको दुख कहा गया हैं लेकिन यह आध्यात्मिक सुख हैं। सभी जीवो में मुक्त किसको कहेंगे? मध्य लीला 8.249 ' मुक्त - मध्ये कोन्जीव मुक्त करि ' मानि ? ' । ' कृष्ण - प्रेम याँर , सेड़ मुक्त - शिरोमणि ' ।। 249 ।। अनुवाद तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ समस्त मुक्त पुरुषों में किसे सबसे महान् माना जाए ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , " जो कृष्ण - प्रेम से युक्त है , उसे ही सर्वोच्च मुक्ति प्राप्त है " । जिस व्यक्ति को कृष्ण प्रेम प्राप्त हुआ हैं, वह मुक्त शिरोमणि हैं या मुक्त चूड़ामणि में वह व्यक्ति सबसे श्रेष्ठ हैं। मोक्ष से भी ऊंची मुक्ति हैं, कृष्ण प्रेम प्राप्ति।कुछ लोगों के चार पुरुषार्थ होते हैं।उनकी पहुंच मोक्ष तक होती हैं। "तरि दश पुर आकाश पुष्पायते । कैवल्यम नरकायते।।" लेकिन मोक्ष किसे चाहिए केवलम नरकायते। अगर पंचम पुरुषार्थ को प्राप्त करना चाहते हैं तो कृष्ण प्रेम प्राप्त करें।कृष्ण की प्रेममयी सेवा प्राप्त करना ही सर्वोत्तम प्रकार की मुक्ति हैं।भक्त मुक्त होता हैं। गीतों में सबसे श्रेष्ठ गांन कौन सा हैं? मध्य लीला 8.250 गान - मध्ये कोन गान जीवेर निज धर्म ? " राधा - कृष्णेर प्रेम - केलि ' येइ गीतेर मर्म ।। 25011 अनुवाद- तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से पूछा , “ अनेक गीतों में से किस गीत को जीव का वास्तविक धर्म माना जाए ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , " श्री राधा तथा कृष्ण के प्रेम का वर्णन करने वाला गीत अन्य समस्त गीतों से श्रेष्ठ है । " राधा कृष्ण की प्रेम केलि। राधा कृष्ण की जो लीलाएं या कथाएं हैं यही श्रेष्ठगान हैं। इससे कोई और ऊंचा या श्रेष्ठ गान नहीं हो सकता। चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥ श्री गुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात्‌ चबाए जाने वाले, पेय अर्थात्‌ पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात्‌ चूसे जाने वाले - इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान्‌ का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। गुरुजन भी राधा कृष्ण प्रेम केली का ही गान करते रहते हैं।केली अर्थात लीला। M 8.251 श्रेयो - मध्ये कोन श्रेयः जीवेर हय सार ? ' । ' कृष्ण - भक्त - सङ्ग विना श्रेयः नाहि आर ' || 251 ॥ अनुवाद तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ समस्त शुभ तथा लाभप्रद कार्यों में से जीव के लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य कौन - सा है ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ एकमात्र शुभ कार्य कृष्ण - भक्तों की संगति है । " एक श्रेय होता हैं, एक प्रेय होता हैं। हमारा ध्यान श्रेय पर होना चाहिए। सबसे अधिक श्रेयस्कर बात कौन सी हैं? कृष्ण भक्त के संग के बिना कुछ भी श्रेयस्कर नहीं हैं। कृष्ण भक्तों का संग ही श्रेयस्कर हैं, सर्वोपरि हैं। क्योंकि संग से ही सभी सिद्धि मिलती हैं। 'साधु-सङ्ग', 'साधु-सङ्ग'- सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र ' साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.५४) अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है। साधु संग हो या भक्त संग, शिक्षा गुरु संग या दिक्षा गुरु संग, आचार्यों का संग यह सब संग होते ही इन सब के संग का क्या प्रभाव होता हैं? सर्व सिद्धि होए। सब सिद्धि प्राप्त हो जाती हैं। साधु संग से हम पवित्र होते हैं, इसलिए साधु संग को कहा हैं कि यह श्रेयसकर हैं। M 8.252 ' काँहार स्मरण जीव करिबे अनुक्षण ? ' । ' कृष्ण ' - नाम - गुण - लीला - प्रधान स्मरण ' ।। 252 अनुवाद- श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ सारे जीव किसका निरन्तर स्मरण करें ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , करने की मुख्य वस्तु सदैव भगवान् के नाम , गुण तथा लीलाएँ हैं । " प्रश्न यह हैं, कि जीव को हर क्षण किसका ध्यान करना चाहिए? यह प्रश्न उत्तर रामानंद और महाप्रभु के बीच में हो रहे हैं।प्रश्न पूछ रहे हैं महाप्रभु और उत्तर दे रहे हैं राय रामानंद। यहां उल्टा हो रहा हैं। गीता में तो अर्जुन ने प्रश्न किए थे और भगवान कृष्ण ने उसके उत्तर दिए थे। यहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रश्न पूछ रहे हैं और उसके उत्तर हमें राय रामानंद के मुखारविंद से दिला रहे हैं।एक प्रकार से हमें साधु संग यानी की राय रामानंद का संग प्राप्त हो रहा हैं। प्रश्न हैं कि हमें हर क्षण किसका स्मरण करना चाहिए? उत्तर हैं कि कृष्ण के नाम का स्मरण करो। उनके रूप का स्मरण करो,गुण का स्मरण करो, लीला स्मरण करो। यही इस प्रश्न का उत्तर हैं। कीर्तन के कई प्रकार हैं। नाम कीर्तन,गुण कीर्तन,लीला कीर्तन और इनका जब श्रवण करते हैं तो स्मरण होता हैं। ŚB 7.5.23-24 श्रीप्रह्राद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ २३ ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ २४ ॥ इसके संबंध में श्रवण करेंगे तो स्मरण होगा।किस का स्मरण करना चाहिए?यह कहा गया है कि कृष्ण के नाम का स्मरण करो।उनकी लीला का, गुण का, धाम का और परिकर का भी स्मरण करो। यह स्मरणीय हैं। प्रातः स्मरणीय।या सदैव स्मरणीय हैं। कीर्तनया सदा हरि। अगला प्रश्न हैं कि सर्वश्रेष्ठ ध्यान कौन सा हैं? M 8.253 ' ध्येय - मध्ये जीवेर कर्तव्य कोन्ध्यान ? ' । ' राधा - कृष्ण - पदाम्बुज - ध्यान - प्रधान ' | 253 ।। अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने और आगे पूछा , “ समस्त प्रकार के ध्यानों में से कौन - सा ध्यान जीवों के लिए आवश्यक है ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , " प्रत्येक जीव का प्रधान कर्तव्य यह है कि वह राधाकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करे । " राधा कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान ही प्रधान ध्यान है। सवै मनः कृष्णपदारविन्दयो चांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेमन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥१८ ॥ मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्धृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥ १ ९ ॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥२० ॥ 9.4.18 महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में , अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने - बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन , को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श - इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में , अपनी घ्राण - इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में , अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं चौबीसों घण्टे भगवान की सेवा करने में लगाया । निस्सन्देह , महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा । वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत : मुक्त होने की यही विधि है ।भगवान के चरण कमलों का ध्यान ही श्रेष्ठ ध्यान है। M 8.254 सर्व त्यजि जीवेर कर्तव्य काहाँ वास ? ' । ' व्रज - भूमि वृन्दावन याहाँ लीला - रास ' 254 अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ जीव को अन्य सारे स्थान त्यागकर कहाँ रहना चाहिए ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ उसे वृन्दावन या व्रजभूमि नामक पवित्र स्थान में रहना चाहिए , जहाँ भगवान् ने रासनृत्य किया था " वही बात हैं, कर्तव्य- अकर्तव्य संकल्प- विकल्प। व्यक्ति को सब स्थान छोड़कर कौन से स्थान पर जाकर वास करना चाहिए या रहने योग्य कौन सा स्थान हैं? उत्तर में राय रामानंद कहते हैं कि व्रज - भूमि वृन्दावन याहाँ लीला - रास वृंदावन धाम की जय! वृंदावन भूमि वास, ब्रज वास या मायापुर वास, धाम वास जहा भगवान ने अपनी लीला संपन्न की हैं। जहां भगवान खेले हैं वहां का वास सर्वोत्तम वास हैं। अगला प्रश्न है कि अगर श्रवण करना हैं, तो किस का श्रवण करें? M 8.255 ' श्रवण - मध्ये जीवेर कोन्श्रेष्ठ श्रवण ? | ' राधा - कृष्ण - प्रेम - केलि कर्ण - रसायन ' ।। 255 ।। अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ सुने जाने वाले समस्त विषयों में से कौन - सा विषय समस्त जीवों के लिए सर्वोत्तम है ? " रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ राधा तथा कृष्ण के प्रेम - व्यापार के विषय में श्रवण करना कानों को सर्वाधिक सुहावना लगता है । " उत्तर में कहा गया है कि राधा कृष्ण की प्रेम लीला कानों के लिए रसायन हैं, कानों के लिए अमृत हैं। अंतिम प्रश्न है कि अगर आराधना करनी है तो किस की आराधना करें? किसकी आराधना को प्रधान आराधना माने। M 8.256 ' उपास्येर मध्ये कोनुपास्य प्रधान ? ' । ' श्रेष्ठ उपास्य - युगल राधा - कृष्ण ' नाम ' | 256 अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ समस्त पूजा के योग्य ( उपास्य ) वस्तुओं में से ने उत्तर दिया , “ प्रधान पूजा योग्य वस्तु राधाकृष्ण का नाम - हरे कृष्ण मन्त्र है । " इसे नोट करें। उत्तर मे राय रामानंद ने कहा कि सर्वश्रेष्ठ उपासना युगल अर्थात दो।राधा कृष्ण का नाम ही सर्वश्रेष्ठ उपास्य हैं। 11.5.32 कृष्णवर्ण विधाकृष्ण साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्वजन्ति हि सुमेधसः ॥ ३२ ॥ कलियुग में,बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता हैं । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण हैं । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है । यह भागवत का सिद्धांत हैं कि कलयुग में किसकी उपासना करनी चाहिए? संकीर्तन यज्ञ करना ही आराधना उपासना हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह सबसे श्रेष्ठ उपासना हैं निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।ठीक हैं। हरे कृष्णा।

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