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जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 26 जुलाई 2021 हरे कृष्ण! हरि बोल..!, गौरांग..! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल...! आज जप चर्चा में 920 भक्त सम्मिलित हैं। आपका स्वागत हैं। सुस्वागतम..! सुप्रभातम्! ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय..! श्रीमद्भागवत से कुछ कहने का विचार हैं।आज साधु की महिमा, साधु का महात्मय, साधुओं कि उपयोगिता या और भी बहुत कुछ कहा जा सकता हैं। साधु साधु! साधु साधु।बहुत बढ़िया हैं। बहुत बढ़िया। कौन बहुत बढ़िया? साधु! संतों की, साधुओं की महिमा का गान तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में किया हैं।यह वह समय नहीं हैं,हम यह महाभारत के युद्ध की बात नही कर रहे हैं,धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे.... महाभारत...नही...नही...! महाभारत के युद्ध का समय नहीं हैं।यह सूर्य ग्रहण का समय हैं।सूर्य ग्रहण के समय भगवान द्वारका से द्वारका वासियों के साथ कुरुक्षेत्र में स्नान हेतु आए हैं।स्नान करेंगे। सूर्य ग्रहण के समय स्नान होता हैं। किसी पवित्र स्थान में जाकर,पवित्र नदी में, पवित्र सरोवर में, पवित्र कुंड में स्नान होता हैं। कृष्ण आए हैं,द्वारकाधीश आए हैं।अगर वह चाहते तो कुरुक्षेत्र में स्नान कर लेते और चल पड़ते द्वारका के तरफ परंतु कृष्ण ने वैसा नहीं किया,कृष्ण ने वहां के साधु-संतों को इस सूर्य ग्रहण के अवसर पर आमंत्रित किया हैं। इस प्रसंग का वर्णन श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के 84 अध्याय संख्या मे हैं।यह मैं इसलिए बताता रहता हूं ताकि आप इसको पुनः पढ़ो। ना कि केवल जब मैं सुनाता हूं,बस उसी वक्त सनो और बस हो गया। मैं थोड़ा संक्षिप्त में बताता रहता हूं इसके कई सारे कारण भी हो सकते हैं,इसका कारण हैं कि आप पुनः इस प्रसंग को स्वयं शास्त्र खोलकर देखे, पढ़े और अपना चिंतन करे।जब आप पुनः पढ़ोगे तो आपको पुनः स्मरण होगा । यह आपके लिए गृहपाठ हैं। मैं तो सुनाते रहता हूंँ। ठीक हैं! कई सारे संत महात्मा साधु वहां पधारे थें। यहां लंबी सूची दी हुई हैं। व्यास आ गए। "इति सम्भाषमाणासु स्त्रीभिः स्त्रीषु नृभिर्नेषु । आययुर्मुनयस्तत्र कृष्णारामदिक्षया ॥२ ॥ द्वैपायनो नारदक्ष च्यवनो देवलोऽसितः । विश्वामित्रः शतानन्दो भरद्वाजोऽथ गौतमः ॥ ३ ॥ रामः सशिष्यो भगवान्वसिष्ठो गालबो भृगुः । पुलस्त्यः कश्यपोऽत्रिश मार्कण्डेयो बृहस्पतिः ॥ ४ द्वितस्वितीकता ब्रह्मपुत्रारतथाङ्गिराः । अगस्त्यो याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोऽपरे ॥५ ॥" (श्रीमद् भागवतम् 10.84.2 - 5) अनुवाद:-जब स्त्रियाँ स्त्रियों से और पुरुष पुरुषों से परस्पर बातें कर रहे थे तो अनेक मुनिगण वहाँ आ पधारे । वे सभी के सभी कृष्ण तथा बलराम का दर्शन पाने के लिए उत्सुक थे । इनमें द्वैपायन , नारद , च्यवन , देवल तथा असित , विश्वामित्र , शतानन्द , भरद्वाज तथा गौतम , परशुराम तथा उनके शिष्य , वसिष्ठ , गालव , भृगु , पुलस्त्य तथा कश्यप , अत्रि , मार्कण्डेय तथा बृहस्पति , द्वित , त्रित , एकत तथा चारों कुमार एवं अंगिरा , अगस्त्य , याज्ञवल्यय तथा वामदेव सम्मिलित थे । गौतम आ गए भरद्वाज, परशुराम वशिष्ठ, परशुराम अपने शिष्यों के साथ पहुंचे हैं।पुलस्त्य तथा कश्यप,अत्रि आए हैं।मार्कंडेय मुनि आए हैं, बृहस्पति आए हैं।असंख्य संत मंडली को आमंत्रित किया हैं। जहां भगवान का टेंट(तंम्बु) लगाया हुआ हैं, वहां कृष्ण भी हैं, बलराम भी हैं, सुभद्रा भी हैं, वसुदेव, देवकी भी हैं और सभी रानियां हैं।इस पावन पर्व में जो सूर्य ग्रहण का समय हैं। वहाँ पे यह सारे संत पधारे हैं।जहाँ एक साधु संम्मेलन संपन्न हो रहा हैं और कृष्णा ने स्वयं यह आयोजित किया हैं और जैसे ही वह साधु वहां पहुंचे, कृष्ण ने स्वयं उनका स्वागत करा। स्वागत अध्यक्ष स्वयं कृष्ण ही हैं।उनहोने उनको आसन दिया, माल्यार्पण हुआ हैं, चंदन लेपन हुआ हैं, उनके चरण स्पर्श हुए हैं। कौन कर रहे हैं? स्वयं भगवान कर रहे हैं। "स्वीयं वाक्यमृतं कर्तुमवतीर्णोऽसि में गृहे । चिकीर्षभंगवाजानं भक्तानां मानवर्धनः ॥" (श्रीमद्भागवतम् 3.24.30) अनुवाद:-कर्दम मुनि ने कहा - सदैव अपने भक्तों का मानवर्धन करने वाले मेरे प्रिय भगवान् , आप अपने वचनों को पूरा करने तथा वास्तविक ज्ञान का प्रसार करने के लिए ही मेरे घर में अवतरित हुए हैं । "भक्तानां मानवर्धनः"भगवान कि ऐसी ख्याति हैं कि "भक्तानां मानवर्धन:", भगवान अपने भक्तों के मान को मान-सम्मान करते हैं, मान- सम्मान बढ़ाते हैं,मान-सम्मान फैलाते हैं। यह स्वयं भगवान करते हैं। "भक्तानां मानवर्धन:" तो इस सब का दर्शन-प्रदर्शन कुरुक्षेत्र में हो रहा हैं। इस साधु सम्मेलन में "श्रीभगवानुवाच अहो वयं जन्मभूतो लब्ध कावन्यन तत्कलम् । देवानामपि दुष्प्रापं यद्योगेश्वरदर्शनम् ॥" (श्रीमद्भागवतत् 10.84.9) अनुवाद:-भगवान ने कहा : अब हमारे जीवन निक्षित रूप से सफल हो गये , क्योंकि हमें जीवन का चरम लक्ष्य - महान् योगेश्वरों के दर्शन , जो देवताओं को भी विरले ही मिल पाता है - प्राप्त हो गया है । कृष्ण ने कहा: -अहो भाग्यम। हम कितने भाग्यवान हैं। आज हमें उन संतों का दर्शन हो रहा हैं, उन साधुओं का सानिध्य प्राप्त हो रहा हैं, जो देवानामपि दुष्प्रापं यद्योगेश्वरदर्शनम्,देवों के लिए भी दुर्लभ हैं।यह बात हमारे लिए आज सुलभ हुई हैं। संत मंडली स्वयं हमारे द्वार हमारी इस छावनी में चल के आए हैं। "न हम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः । ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥" (श्रीमद्भागवतत् 10.84.11) अनुवाद:-केवल जलमय स्थान ही असली पवित्र तीर्थस्थान नहीं होते , न ही मिट्टी तथा पत्थर की कोरी प्रतिमाएँ असली आराध्यदेव हैं । ये किसी को दीर्घकाल के बाद ही पवित्र कर पाते हैं , किन्तु सन्त स्वभाव वाले मुनिजन दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं। कृष्ण ने कहा केवल ये तीर्थ जलमय ही नहीं होते। तीर्थ में जो हर कुंडों में या नदियों में या सरोवरों में जो जल होता हैं, केवल वही पवित्र कुंड तीर्थ नहीं होता।हर तीर्थ स्थान में जलाशय होते हैं और लोग, भक्त इतना ही करते हैं कि आते हैं, तीर्थ स्नान करते हैं, जल स्नान करते हैं और हो गया समाप्त, हो गई तीर्थ यात्रा समाप्त।लेकिन कृष्ण कह रहे हैं,नहीं नहीं।वहां के जो साधु हैं "दर्शनादेव साधवः" साधु ही तीरथ हैं या तीर्थ के केंद्र में साधु हैं और उनके पास जरूर पहुंचना चाहिए "ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥" यहां कृष्ण यह भी कह रहे हैं कि और जो जलाशय हैं, कुंड हैं, नदी हैं वहां स्नान तो "युरुकालेन"।वहा बहुत समय, बारंबार स्नान करने के उपरांत कुछ शुद्धिकरण, हल्का सा हो सकता हैं, किंतु "दर्शनादेव साधवः",संतों का दर्शन करो तो तक्षण आप शुद्ध होंगे। तो साधु ही तीर्थ हैं।भागवत में अन्य स्थान में कहा गया हैं "भवव्दिधा"। इसे युधिष्ठिर महाराज ने विदुर जी के संबंध मे कहा। विदूर जब हस्तिनापुर लौटे तब युधिष्ठिर महाराज ने "भवव्दिधा भागवतास्तीर्थभूता" कहा "भवव्दिधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तस्थेन गदाभृता।।" ( श्रीमद्भागवतम् 1.13.10) अनुवाद: -हे प्रभु, आप जैसे भक्त,निश्चय ही, साक्षात पवित्र स्थान होते हैं। चूँकि आप भगवान् को अपने हृदय में धारण किए रहते हैं,अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थ स्थानों में परिणत कर देते हैं। आप जैसे भागवत तीर्थ भगवत गीता भागवत आहा तीर्थ स्वयं तीर्थ होते हैं आप जैसे "भवव्दिधा भागवतास्तीर्थभूता" "भवव्दिधा" मतलब आप जैसे भागवत भागवतास्तीर्थभूता" मतलब व्यक्ति भागवत( वैसे द्वादश भागवत होते हैं) आप जैसे भागवत ही "तीर्थभूता", स्वयं तीर्थ होते हैं। "तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि" और वे तीर्थ जिस स्थान पर भी बैठे रहते हैं, साधना करते हैं, निवास करते हैं, उसी स्थान को तीर्थ बनाते हैं। साधु संतों को वैसे जंगम तीर्थ भी कहा गया हैं।वह चलते फिरते तीर्थ हैं। एक तीर्थ हैं जो अपने अपने स्थान पर हैं,जैसे कुरुक्षेत्र हैं, वाराणसी हैं,पंढरपुर है, उत्तरकाशी हैं। यह तो अपने स्थान पर रहते हैं। अपना स्थान नहीं छोड़ते।वह जहाँ भी हैं, वहीं रहते हैं। लेकिन और एक तीर्थ हैं, उसे जंगम तीर्थ कहा गया हैं वह "भवव्दिधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तस्थेन गदाभृता।।" जंगम परिभ्रमण करते हैं। परिव्राजकाचार्य होते हैं और वे जहां भी जाते हैं,उस स्थान को तीर्थ बनाते हैं। फिर आगे कृष्ण ने कहा और यह बड़ा ही महत्वपूर्ण वचन हैं, इसको श्रील प्रभुपाद बारंबार दोहराया करते थे। आप परिचित होंगे। संभावना है कि आपको यह कंठस्थ होगा, नहीं हैं तो इसे करना चाहिए। "यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः।।" (श्रीमद्भाभवत 10 84:13) अनुवाद: -जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता हैं , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता हैं , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता - ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती हैं। जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया हैं। तो क्या कहा भगवान ने? भगवान ने कहा कि यह भागवत गीता के प्रवचन का समय नहीं हैं। उस समय तो भगवान ने बहुत कुछ कहा हैं, वहा भगवान उवाच हुआ हैं, लेकिन उसके पहले सूर्य ग्रहण के समय आए थे तो उस समय भगवान का यह उपदेश हो रहा हैं। यहा भगवान संतों को संबोधित कर रहे हैं ।वहा भगवत गीता में उपदेश के समय अर्जुन को करेंगे,तो क्या कहा भगवान ने? भगवान कह रहे हैं कि यह अलग अलग विचारधारा हैं जो संसार में हैं। यह जो गलत विचारधारा हैं,भगवान उसका उल्लेख कर रहे हैं और सही क्या गलत क्या? क्या विधी है? क्या निषेध है? इसकी ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं और इसी के साथ जो भगवान संतों की, भक्तों की, साधु की महिमा का गान करने वाले हैं,"यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके"। यहां धी धी धी एक दोन तीन चार, चार बार धी धी धी का प्रयोग कर रहे हैं। धी धी धी मतलब बुद्धि,मतलब दिमाग़।पहली बात कर रहे हैं "यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके" इस संसार के लोग कैसे होते हैं?कई लोग, अधिकतर लोग उनकी आत्मबुध्दी होती हैं, वैसे उनकी देहात्म बुद्धि होती हैं। "कुणपे त्रिधातुके" यह देह तीन धातु से बना हुआ हैं। कफ, पित्त, वायु। आयुर्वेद के अनुसार इन तीन धातुओं से हमारा शरीर बना हुआ है, जो यह समझता है कि बस आप कौन हो? मेरा छायाचित्र देख लो कई लोग अपने सीने पर पहचान-पत्र लगाकर घूमते रहते हैं। तो हमारा परिचय क्या देख लो आपके सामने या हम आईने में देखते हैं तो समझ में आता है कि यह मै हूँ, तो कृष्ण कह रहे हैं "यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके" तीन धातुओं से बना हुआ शरीर यह मैं हूं "यस्य" मतलब जिसकी आत्मबुद्धि, मैं कौन हूं? तो अधिकतर लोग होते हैं देहात्मबुध्दी, वह देह को ही आत्मा मानते हैं। देह को ही वह, मैं हूं,मैं हूं ऐसा मानते हैं। इसे देहात्मबुद्धि कहते हैं।एक एक शब्द को एक एक अक्षर को समझने का प्रयास होना चाहिए हमारा,"यस्यात्मबुद्धिः। जिसकी बुद्धि हैं,जिसका दिमाग काम करता है, जो सोचता हैं, जिसका विचार होता हैं, यह शरीर ही मैं हूं, यह है देहात्मबुद्धि।" ऐसे विचार वाले लोग "कुणपे त्रिधातुके होते हैं, आगे बढ़ते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा "त्रिधातुके स्वधी :" एक तो वह पहले तो मै कि बात हुई मैं कौन हूं? यह देहात्मबुद्धि हैं।आत्मबुद्धि यह हैं कि यह देह मैं हूं। यहा अहम कि बात हुई हैं। अब मम कि बात हैं। मेरा,मैं और मेरा बस सारी माया हो गई पूरी, अहम और मम यह दो शब्दों से ही सारी माया का वर्णन हो जाता हैं। वैसे यह भागवत में कहा ही है "अहम मम इति" अहम मतलब इतना अधिकतर जो चर्चा होती है वह अहम की और मम कि, अहम मम! अहम मम!अपने शरीर को हम अहम समझते हैं और जहा तक स्व कि बात हुई है "स्वधी : कलत्रादिषु" यह मेरी पत्नी हैं। यह बंधु बांधव मेरे है, यह सभी सगे संबंधी मेरे हैं,यह मेरे हैं,वह मेरे हैं और इसके साथ फिर यह घर मेरा है, यह मेरा है, वह मेरा है, यह कार मेरी है, इस प्रकार।"स्वधी" स्व मतलब मेरा। स्वधि मतलब ऐसी सोच।स्व मे क्या क्या हैं।कलतर: मतलब पत्नी, आदिषू अर्थात इत्यादि इत्यादि और फिर स्व में ही आगे क्या हैं? भौम इज्यधी:। आपने भोमासुर के बारे में सुना होगा।वह भूमि का पुत्र हैं।क्योंकि वह भूमि का पुत्र हैं, इसलिए उसका नाम भौमासुर हैं।भौम इज्यधी:,भौम अर्थात भूमि और इज्यधी: अर्थात आराधना करना। संसारी लोग जो देहातम बुद्धि वाले होते हैं, वह स्व: मे अपनी पत्नी को जोड़ देते हैं और फिर श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि अपने अहम और मम का विस्तार कर देते हैं।यह मेरा परिवार हैं, यह मेरा समाज हैं और फिर यह मेरा देश हैं और यह मेरी मानव जाति हैं। क्योंकि मैं मानव हूं इसलिए मानव जाति के साथ हम अपने आपको परिचिन्हित करते हैं, लेकिन यहां भगवान के संबंध का कोई विचार हैं ही नहीं। मैं भगवान का हूं या मैं भगवान का दास हूं,अहम दासो असमी:। ऐसा कोई विचार हैं ही नहीं,ना ऐसा कोई विचार हैं कि जो भी मेरा हैं वह सब कुछ भगवान का हैं या यह संपत्ति भगवान की हैं। भगवद्गीता 5.29 “भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् | सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || २९ ||” अनुवाद मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है | सारे संसार का स्वामी मैं हूं।अतिचारियो को मार डाला जाएगा ।जब आप कोई घर या बंगला खरीद लेते हो तो ऐसा बोर्ड भी लगाते हो कि फलाने फलाने व्यक्ति की यह भूमि हैं, अगर कोई वहां प्रवेश करने का प्रयास करता हैं या उसे हड़पने का प्रयास करता हैं तो कानूनी कार्रवाई होगी।वैसे सारी संपत्ति तो भगवान की हैं, लेकिन जो भगवान के बारे में सोचता ही नहीं, भगवान की किसको परवाह हैं? भगवान की संपत्ति हैं, नहीं- नहीं। यह मेरे संपत्ति हैं। इसका मालिक मैं हूं। अहम बलवान। अहम सुखी। इतनी सारी संपत्ति मैंने आज तक इकट्ठी की हुई हैं और ऐसा मनोरथ है मेरा कि मैं और भी इकट्ठी करूंगा। हर समय मेरा यही प्रयास रहता है कि मैं और ज्यादा संपत्ति इकट्ठा करता जाऊं। उस दृष्टि से हर देश अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बताता हैं। कोई कहता है कि भारत माता की जय कोई कहता हैं, पाकिस्तान माता की जय। कोई कहता हैं थाईलैंड माता की जय। हर जगह के लोग अपने अपने देश की पूजा करते हैं। वहां पर झंडा लहराते हैं और उसके समक्ष झुककर नमन करते हैं। उसके प्रति समर्पित होते हैं। उसके प्रति अपना बलिदान देने के लिए तैयार रहते हैं। देश के लिए लड़ने के लिए तैयार रहते हैं हिंदी चीनी भाई भाई, यह भूल जाते हैं।इस प्रकार के विचारों की बात हो रही हैं, इस प्रकार की उपाधिमा, इस प्रकार की शारीरिक चेतना वाले भौम इज्यधी:। तो दो-तीन आइटम हो गए एक तो "यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके" 10.84.13 यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥१३ ॥ जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता - ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया हैं। दूसरा "स्वधी : कलत्रादिषु", तीसरा "भौम इज्यधीः" यह नोट करो जहा धी धी कहा हैं। मतलब एक विचार ऐसा है, दूसरा विचार ऐसा हैं, तीसरा विचार ऐसा हैं और चौथा हैं "यत्तीर्थबुद्धिः सलिले" यतीर्थ की क्या समझ हैं? तीर्थ के संबंध में क्या विचार हैं?सलिले मतलब जल। तो तीर्थ स्थान जाओ।वहां डुबकी लगाओ और हो गई तीर्थ यात्रा। वैसे कृष्ण तो द्वारका से कुरुक्षेत्र स्नान करने ही आए थे।स्नान के लिए यह सही समय भी हैं, क्योंकि सूर्य ग्रहण का समय हैं और कुरुक्षेत्र में सूर्य कुंड हैं।कुरुक्षेत्र का सूर्य कुंड प्रसिद्ध हैं। वहां सूर्य ग्रहण के समय स्नान होता हैं। कृष्ण भी वहां जाकर केवल स्नान नहीं कर रहे हैं, तो वह क्या कर रहे हैं? उन्होंने साधुओं को जो कि तीर्थ हैं, स्वयं तीर्थ हैं, उन तीर्थो को अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया हैं। भागवतम् 1.13.10 भवव्दिधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तस्थेन गदाभृता।। अनुवाद: -हे प्रभु, आप जैसे भक्त,निश्चय ही, साक्षात पवित्र स्थान होते हैं। चूँकि आप भगवान् को अपने हृदय में धारण किए रहते हैं,अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थ स्थानों में परिणत कर देते हैं। तो उन तीर्थों को भगवान ने आमंत्रित किया है और उनका संग ले रहे हैं,उनका सम्मान सत्कार कर रहे हैं। उनसे सुन रहे हैं।निष्कर्ष में श्रीकृष्ण ने इस वचन में कहा हैं कि लोगों की, यात्रियों की बुद्धि जल में होती हैं,वह जल में स्नान करने की महिमा तो सुने होते हैं और आकर स्नान तो जरूर कर लेते हैं,लेकिन क्या नहीं करते?उनकी श्रद्धा वहां के जो जन हैं,उनमे नही होती। कैसे जन? अभिज्ञ जन।अभिज्ञ मतलब सभी प्रकार का ज्ञाता या पूर्ण ज्ञान वाले वहां के जो पंडित हैं,वहां के जो धाम गुरु हैं,वहां के जो संत हैं,उनमे श्रद्धा नही हैं । उनका संग नहीं करते। उनके चरणों में नहीं पहुंचते। उनसे कुछ उपदेशामृत का पान नहीं करते।उनकी तुलना स एव गोखरः 10.84.13 यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥१३ ॥ जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता - ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया हैं। ऐसे लोगों की तुलना गाय बैल और गधे के साथ की गई हैं। भगवान कह रहे हैं,खर मतलब गधा।गधे कहीं के।आए तो हो तीर्थ यात्रा में और बस नाम किया और लौट रहे हो।ना तो संतो से मिले, ना भक्तों से मिले,ना श्रवण किया। M 22.54 साधु-सङ्ग', 'साधु-सड्ग-सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र साधु-सड़गे सर्व-सिद्धि हय ॥54॥ अनुवाद सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।" साधु संतों की महिमा चैतन्य चरित्रामृत में बताई गई हैं। इसके बारे में हम कल बात कर ही रहे थे।इसे सनातन गोस्वामी को वाराणसी में चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि सभी शास्त्रों में साधु संग की महिमा के बारे में बता गया हैं। यहां स्वयं श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र में साधु संत की महिमा के बारे में बता रहे हैं।यहां कृष्ण संतो को ही संबोधित करते हुए संतो की महिमा बता रहे हैं।जो संतों की संगति में ऐसे श्रवण,कीर्तन नहीं करेंगे तो "स एव गोखरः"। संतो को संबोधित करते हुए भगवान स्वंय ही कह रहे हैं कि जो तीर्थ स्थान में तो आए हैं, लेकिन यहां आकर आप की उपेक्षा करेंगे,आप जैसे संतों से दूर रहेंगे तो उनके आने का कोई फायदा नहीं हैं। सोशल डिस्टेंसिंग तो ठीक हैं, लेकिन नो डिस्टेंसिंग फ्रॉम साधु। किसी भी हालत में संतों से दूर नहीं रहना चाहिए। हम सोशल डिस्टेंसिंग का भी पालन कर रहे हैं,लेकिन साधु संग भी कर रहे हैं। साधु संग ऑनलाइन कर रहे हैं। साधु संग ऑनलाइन, वर्क फ्रॉम होम ऑनलाइन,प्रीचिंग ऑनलाइन। जो प्रचारक हैं, वह भी अपनी सेवा कर ही रहे हैं,अपना काम धंधा कर रहे हैं। प्रचार ही उनका काम धंधा हैं। तो सब कुछ ऑनलाइन उपलब्ध हैं। इसका फायदा हमको उठाना चाहिए। हमको कृष्णभावना भावित बनाने के लिए यह महत्वपूर्ण अंग हैं जो कि साधु संग हैं। यह अनिवार्य हैं। यह अत्यावश्यक हैं। साधु संग के बिना गति नहीं है। उनका संग अर्थात उनकी वाणी की सेवा, उनके वाणी के कथन अनुसार हमें चलना होगा। अगर नहीं चलेंगे तो गति नहीं हैं। जीवन में गति नहीं आएगी।हम आगे नहीं बढ़ेंगे। उत्साह नहीं आएगा। हम एक जगह पर स्थिर हो जाएंगे। हम जड़ बन जाएंगे। हमें चेतन बनना हैं। उसके लिए साधु संग बहुत महत्वपूर्ण हैं, ऐसा शास्त्रों का भी कहना हैं और यहां तक कि भगवान कह रहे हैं तो और क्या चाहिए। जब भागीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रयास कर रहे थे तो कई सारे विघ्न आए लेकिन राजा भगीरथ ने अपना प्रयास नहीं छोड़ा। एक विघ्न यह भी आया कि गंगा ने कहा कि मैं आने को तैयार हूं, किंतु अलग-अलग जगह से संसार के पापी लोग आएंगे और मुझ में डुबकी लगाएंगे और अपना सारा पाप मुझ में बहा देंगे।तो इतना बोझ मैं नहीं संभाल सकती। तब भागीरथ ने कहा कि नहीं, नहीं पापी तो आएंगे लेकिन साथ में संत महात्मा भी आएंगे और वह तुम्हारी मदद करेंगे। तब गंगा ने कहा कि हां हां, तब मैं तैयार हूं। चलो चलते हैं। साधु आएंगे मेरे तट पर तो मैं तैयार हूं।पापी लोग आने वाले हैं,तो संत भी तो आएंगे। तब गंगा मान गई। हरि हरि। त्रिवेणी संगम पर कुंभ मेला भी लगता हैं। वहा गंगा हैं, यमुना हैं, लेकिन सरस्वती कहां हैं? त्रिवेणी मतलब गंगा यमुना और सरस्वती का संगम। ऐसा मानना हैं कि वहां आने वाले संत जनों के मुख से सरस्वती बहती हैं। उनके वचन ही सरस्वती हैं। उसका भी जरूर लाभ उठाना चाहिए। कुंभ मेले में संत महात्मा आते हैं और कथामृत का पान कराते हैं, हरिनाममृत का पान कराते हैं, उसमें हमको जरूर गोता लगाना चाहिए। केवल संगम पर स्नान ही नहीं करना हैं। वहा टेंट में वापस आकर कथा का श्रवण भी करना हैं। साधु संग भी करना अनिवार्य हैं। हरि हरि।प्रभुपाद ने कुंभ मेले में कहा कि हम लोग यहां पर प्रचार करने के लिए आते हैं। भागवत का,गीता का और हम चेतनय चरित्रामृत का कथा प्रचार करते हैं और लोग लाभान्वित होते हैं। नहीं तो संगम पर केवल स्नान कर लिया और यात्रा अधूरी रह गई। भारतामृतसर्वस्वं विष्णुवक्त्राद्विनिः सृतम । गीता- गङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥ “जो गंगाजल पीता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है । अतएव उसके लिए क्या कहा जाय जो भगवद्गीता का अमृत पान करता हो? भगवद्गीता महाभारत का अमृत है औरइसे भगवान् कृष्ण (मूल विष्णु) ने स्वयं सुनाया है ।” (गीता महात्म्य ५) गीता महात्म्य में कहा हैं कि गीता जी गंगा हैं उसके जो वचन है वह अमृत हैं। गीतामृत का अगर कोई पान करता हैं, या श्रवण करता हैं तो पुनर्जन्म नहीं होता। हरि हरि। इस प्रकार संतों की महिमा को भगवान ने स्वयं कुरुक्षेत्र में गाया हैं, पर यह सारी महिमा संतों को भी सुनाई हैं। आप लोग खुद की महिमा समझो, समझो कि आप कैसे हो, आप की उपयोगिता क्या हैं। हरि हरि। हरे कृष्णा।

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