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*जप चर्चा* *20 -04 -2022* (गुरु महाराज द्वारा ) हरे कृष्ण ! कृष्ण प्रेम आप समझते हो, यह जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस संबंध का जो ज्ञान है अविद्या है, इसको अपरा कहा है। आप जानते हैं विद्या के दो प्रकार परा विद्या, अपरा विद्या उत्कृष्ट और निकृष्ट भी इसको कह सकते हैं । हरि हरि ! हिंदू जगत और सारा क्रिश्चियन जगत, मुस्लिम जगत और सारा जगत कहाँ लगा हुआ है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इसकी प्राप्ति में, इन्हें चार पुरुषार्थ कहा जाता है। उस से संबंधित ज्ञान जो है यह भी अपरा विद्या है। परा विद्या है जो प्रेम के संबंधित ज्ञान है , प्रेम प्राप्ति, कृष्ण प्रेम हरि हरि ! तो फिर प्रेम प्राप्ति से संबंधित जो ज्ञान है, जो विचार है, पढ़ते हैं, कथा है, लीला है यह परा विद्या है या जिसको कृष्ण राज विद्या कहते हैं। राज विद्या राजगुह्यं पवित्रम , इदम , उत्तमम , *राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 9.2) अनुवाद- यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है | यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है | आप समझते हो उत्तमम- तम से परे, देखिए उत्तम शब्द कैसे बना है तम से परे बियोंड इग्नोरेंस ट्रांससेंडिंग इग्नोरेंस मतलब ऊपर भी, उत्तमम मतलब ऊपर तम से ऊपर, अपरा विद्या में कुछ तम है, रज है, कुछ सत्व भी हो सकता है। कृष्ण प्राप्ति से संबंधित जो विद्या है यह राज विद्या है राज राजगुह्यं है, पवित्रम, इदम् मतलब यह उत्तमम है। हरि हरि ! प्रेम प्राप्त करना यह हमारे जीवन का लक्ष्य है, इसे भूले नहीं हरि ! गौड़ीय वैष्णव वैसे समझते हैं इन बातों को या इसको समझ कर ही तो वे गौड़ीय वैष्णव बनते हैं नहीं तो वह हिंदू रह जाएंगे या और धर्मावलंबी बन जाएंगे हरि हरि ! *नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कभु नय। श्रवणादि-शुद्ध-चित्ते करये उदय।।* 19. 107॥ अनुवाद - कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।" हम श्रवण कीर्तन करेंगे तो फिर कृष्ण प्रेम उदित होगा, कृष्ण प्रेम प्राप्त होगा, प्रकाशित होगा हम अनुभव करेंगे। यह अनुभव की ही बात है यह श्रवण की ही बात है। ( उत्कल बंग यात्रा में छोटे बच्चे भी बैठे हैं, हरि हरि भाग्यवान हैं ) एक तो हम कीर्तनीय सदा हरी करते हैं, यहां संक्षेप में कहेंगे श्रवण के दो प्रकार कह सकते हैं या श्रवण कीर्तन के दो प्रकार हैं, एक तो *कीर्तनीय सदा हरि* सदा हरी कीर्तन करना या जप करना और नित्यम भागवत सेवया *नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥* (श्रीमद भागवतम १.२.१८) अनुवाद-भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है। *गीता भागवत करिती श्रवण । अखंड चिंतन विठोबाचे ॥* संत तुकाराम भागवत और चैतन्य चरित्रामृत इसका श्रवण कीर्तन और यह श्रवण कीर्तन, यह दोनों प्रकार का है। इस तरह बताया कि 2 प्रकार एक तो जप करना भी श्रवण कीर्तन है और भागवत का श्रवण, चैतन्य चरितामृत का श्रवण कीर्तन करना भी श्रवण ही है। हरि हरि ! मैं कल चैतन्य चरितामृत पढ़ रहा था मेरी आदत है कहो इट्स माय हॉबी या मेरी प्रवृत्ति है। मैं जब सुनता हूं पढ़ता हूं और उससे प्रभावित होता हूं या कुछ समझता हूं तो तुरंत ही सोचता हूं कि इस बात को औरों के साथ शेयर करना चाहता हूं । मैं फिर अवसर ढूंढता हूं कि कब मुझे कोई मंच, कोई प्लेटफार्म प्राप्त होगा ताकि मैंने सुनी पढ़ी और समझी, सीखी अनुभव की हुई बातें मैं औरों को कहूं। मैंने पढ़ लिया चैतन्य चरितामृत फिर सोचा कि कहना ही होगा और यही है वह *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||* (श्रीमद भगवद्गीता 4.9) अनुवाद- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | कृष्ण चाहते भी हैं कृष्ण भक्तों से, कृष्ण भक्त क्या करेंगे, बोधयन्ता परस्परं आपको भी करना है। मैं ऐसे करता हूं आप को कह रहा हूं तो फिर मैं भी कृष्ण भक्त हूं या फिर बनने का प्रयास हो रहा है। आप भी कृष्ण भक्त बनना चाहते हो कि नहीं ? बहुत अच्छा, कृष्ण भक्तों का यह लक्षण ही है, यह कर्तव्य है, कहो जैसा कि कृष्ण ने कहा बोधयन्त परस्परं, मेरे भक्त क्या करते हैं वह एक दूसरे को बोध करते हैं, गुह्यं आख्याति प्रयच्छति करते हैं, कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च, मेरी कथा कहा करते हैं और तुष्यंति च रमन्ति च उसी से संतुष्ट होते हैं और उसी में रमे रहते हैं। अब थोड़ा प्रारंभ करता हूं यह तो अभी भूमिका बनाते बनाते समय बीत जाता है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* बच्चे जा रहे हैं मेरी स्क्रीन पर तो मैं बहुत कुछ देखता हूं शायद आप मोबाइल की स्क्रीन पर लिमिटेड या यथासंभव ही होता है। आप लैपटॉप या डेक्सटॉप की स्क्रीन का उपयोग किया करो तो आप और थोड़ा विराट या विश्वरूप या जहां-जहां भक्त हैं और जितने भक्त जप कर रहे हैं उनका दर्शन देख सकते हो। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में थे, वृंदावन धाम की जय ! वृंदावन में थे कहते ही बहुत कुछ याद आ जाता है। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में थे ऐसा कहने पर फिर आगे की बात कहना मुश्किल भी होता है, वृंदावन में तुमने कहा था , कहो वृंदावन में थे तो क्या किया, उन्होंने क्या लीला की ? अभी तो नहीं कहेंगे लेकिन ऐसा विचार आता है मन में हरि हरि ! फिर यहां से प्रस्थान किया , यहां से जब मैंने कहा तो फिर शायद आपको आईडिया आ रहा होगा मैं कहां हूं इस समय, क्योंकि मैंने यहां से कहा, वहां से कह सकता था लेकिन कह नहीं सकता क्योंकि मैं वहीं पर हूं। मैं इस बात को छुपाना भी चाहता हूं लेकिन हो गया एक्सीडेंट, हंसते हुए हरि हरि गौरंगा ! चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन से प्रस्थान किया जगन्नाथ पुरी के लिए, रास्ते मे प्रयाग पहुंचे और वहां रूप गोस्वामी से मिले और अनुपम से हरि हरि ! और वहीं पर यह बात है पहले कही भी है, लेकिन यह बातें नित्य नूतन होती हैं कभी पुरानी नहीं होती हैं। पहले कही हुई बातें पुन्: कही जाती है, कहीं जानी चाहिए, अतः वहीं पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का दर्शन हुआ हरि हरि रूप गोस्वामी को , *आजानुलम्बित-भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक-पितरौ कमलायताक्षौ। विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ।।* (चैतन्य भागवत) संकीर्तन करते हुए दर्शन हुआ या कह तो दिया वहां दर्शन हुआ, तो फिर कैसा दर्शन हुआ यह भी कहना पड़ता है। वैसे मन में विचार उठते हैं कि दर्शन किया ,तो कैसा था वह दृश्य जिस का दर्शन किया हरि हरि ! गौरंगा और वहीं पर आप जानते हो कि अगर आपने सुना है लेकिन भूल जाते हो। इसीलिए भी पुनः पुनः कहने की आवश्यकता होती है। यहीं पर रूप गोस्वामी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को स्तुति करने वाले हैं किन शब्दों में , *नमो महा-वदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते। कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर-त्विषे नमः ॥* अनुवाद- “हे परम दयालु अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं। यह भी कह सकते हैं कि यह स्तुति या इन शब्दों में स्तुति, उन्होंने की, क्योंकि इस प्रकार का उनको चैतन्य महाप्रभु का दर्शन हुआ और फिर महाप्रभु ने दर्शन दिया , दर्शन मतलब साक्षात्कार भी है अनुभव भी है फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को देखकर उन्होंने स्तुति की इस प्रकार का दर्शन हुआ। महावदान्याय कैसे हो आप ? महावदान्याय, यही दर्शन है, यह अनुभव है, साक्षात्कार है, कृष्ण प्रेम प्रदायते, कैसे देखा क्या दर्शन किया वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, कृष्ण प्रेम दान दे ही रहे थे अर्थात जो देखा उन्होंने कहा भी, उसी स्तुति में कृष्ण प्रेम प्रदायते। वहां त्रिवेणी के संगम या तीन नदियों के तट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को संकीर्तन करते हुए देखा और उस संकीर्तन को उन्होंने (असंख्य लोगों ने) या उन्होंने घेर लिया था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु से इतने सारे लोग आकृष्ट हो चुके थे और उनको श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु क्या दे रहे थे कृष्ण प्रेम दे रहे थे, उनके समक्ष उन्हीं के मध्य में , *महाप्रभो: कीर्तन नृत्यगीत वादित्रमाद्यान् मनसो रसेन। रोमांच कंपाश्रुतरंग भाजो वंदे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।2।।* श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन में कीर्तन, नृत्य, गायन तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए जो भावविभोर हो उठते हैं, तथा अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हुए जो अश्रुपात, कम्पन तथा रोमांञ्चादि भावों का अनुभव करते हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* दे रहे थे, जो दे रहे थे उसको देखा और अनुभव किया फिर अपनी स्थिति में उन्होंने कहा कृष्ण प्रेम प्रदायते, कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामने गौर-त्विषे नमः , कृष्ण चैतन्य यह तो अभी पूरा नहीं कहूंगा , कृष्णाय तो यह कृष्ण का स्वरूप ही है। श्रीकृष्ण चैतन्य है उनकी चेतना उत्पन्न कर रहे हैं या असंख्य जीवों को चैतन्य दे रहे हैं जीवन, लाइफ गिविंग देम, लाइव मेकिंग देम एक्साइटेड, ऐसे चैतन्य महाप्रभु को या कृष्ण को देखा। उनका नाम हो गया कृष्ण चैतन्य कृष्ण हो गए श्रीकृष्ण चैतन्य गौर-त्विषे नमः । उनकी गौर कांति देखी गौरंगा ,गौरव को देखा और कहा गौर-त्विषे, आपसे श्याम सुंदर 5000 वर्ष पूर्व लेकिन अब आप गौर सुंदर बने हो हरि हरि ! इस प्रकार उन्होंने स्तुति की अपने अनुभव की बात, आंखों देखा जो भी दर्शन था और उसी के साथ जो साक्षात्कार।उन्होंने इस प्रार्थना के साथ उसको प्रकाशित किया, नमो महावदान्याय कृष्ण प्रेम प्रदायते , कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामने गौर-त्विषे नम: हरि हरि ! इतने में वहां वल्लभाचार्य आ गए या वल्लभाचार्य चैतन्य महाप्रभु को मिलने आए प्राइवेट दर्शन के लिए आ गए और वहां रूप गोस्वामी और अनुपम भी थे। वल्लभाचार्य आप जानते ही हो ये एक पुष्टिमार्ग के आचार्य हैं ( विष्णु स्वामी, रुद्र संप्रदाय) यह चार वैष्णव संप्रदायों में एक रुद्र संप्रदाय से, हरी हरी और उसी परंपरा में विष्णु स्वामी गुरु और उन्हीं का प्रतिनिधित्व किया वल्लभाचार्य ने और ये बाल गोपाल की आराधना भी करते रहे और प्रचार प्रसार हरि हरि ! वल्लभाचार्य के बारे में जब सुनोगे, अभी ज्यादा मैं नहीं सुनाने वाला हूं लेकिन आपको यह पता लगना चाहिए कि वल्लभाचार्य चैतन्य महाप्रभु के समकालीन थे सम मतलब,जब चैतन्य महाप्रभु धरातल पर थे, धरातल पर उस समय वल्लभाचार्य भी थे। किंतु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भगवान हैं और वल्लभाचार्य आचार्य भक्त हैं। वल्लभाचार्य को चैतन्य महाप्रभु ने देखो देखो यह रूप गोस्वामी है और संक्षिप्त में परिचय भी दिया हुआ है। यहां पर चैतन्य चरितामृत में पूरा उल्लेख नहीं है। रूप गोस्वामी उनको यहां मिले ऐसा कहते ही वल्लभाचार्य उनकी ओर जा रहे थे। रूप रूप गोस्वामी की ओर, ताकि उनका चरण स्पर्श वे कर सकते हैं या उनको आलिंगन दे सकते हैं, इस उद्देश्य से जब वल्लभाचार्य जाने लगे, उस समय जहां भी दर्शन दे रहे थे, दर्शन मंडप चैतन्य महाप्रभु वल्लभाचार्य को , रूप गोस्वामी झट से वहां से उठे और दौड़ने लगे और दूर जाने लगे और कहने लगे नहीं नहीं मैं तो अस्पर्श हूं, डोंट टच मी , *भट्ट मिलिबारे याय, दुहे पलाय दूरे। 'अस्पृश्य पामर मुञि, ना हुँइह मोरे’ ॥* 67॥ अनुवाद-जब वल्लभ भट्टाचार्य उनकी ओर बढ़े, वे और दूर चले गये। रूप गोस्वामी ने कहा, "मैं अछूत और अत्यन्त पापी हूँ। कृपा करके मुझे न छुएँ।” यह शब्द है चैतन्य चरितामृत के मैं अस्पृश्य अदृश्य हूं और मैं स्पर्श करने योग्य नहीं हूं। मुझे स्पर्श मत कीजिए हरि हरि ! इसी के साथ वैसे इस बात का पता चलता है या किस बात का दर्शन होता है यह भी कहा जा सकता है। क्या दर्शन यह है, रूप गोस्वामी की नम्रता *तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥* अनुवाद- “जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।” चैतन्य महाप्रभु ने कहा है अपने शिक्षा अष्टक में, उसका यह ज्वलंत उदाहरण है देखिए रूप गोस्वामी का रिस्पांस क्या रहा। जब वल्लभाचार्य उनकी ओर जा रहे थे उनको मिलने या उनको आलिंगन देने या चरण स्पर्श करने ,रूप गोस्वामी वहां थे दूर जा रहे थे नहीं नहीं मुझे छुओ मत हरि हरि ! जय !रूप गोस्वामी प्रभुपाद की जय ! वैसे ही यह वल्लभाचार्य चैतन्य महाप्रभु को मिलने उनका दर्शन करने तो आए ही थे लेकिन उनका उद्देश्य चैतन्य महाप्रभु को अपने घर पर ले जाने का था। वल्लभाचार्य गृहस्थ थे, हरि हरि ! वल्लभाचार्य पंढरपुर में थे और वहां पर उन्होंने कथा की, अपनी भागवत कथा के लिए वल्लभाचार्य प्रसिद्ध हैं। उनकी कुछ 84 बैठके हैं। सारे भारतवर्ष में सर्वत्र जहां जहां उन्होंने कथा की, भागवत कथा की, उसको बैठक कहते हैं। पंढरपुर में भी जैसे हमारे इस्कॉन या राधा पंढरीनाथ मंदिर में, अभी जस्ट टू हंड्रेड मीटर दूरी पर उसी चंद्रभागा के तट पर वल्लभाचार्य बैठक है और विट्ठल भगवान ने उनको दर्शन दिया पंढरपुर में, विट्ठल भगवान वहां पहुंचे वल्लभाचार्य बैठक पर यहां भागवत कथा कर रहे थे इसीलिए भी मैं कह रहा हूं और भगवान ने उनको आदेश दिया उस वक्त वे ब्रह्मचारी ही थे, तुम गृहस्थ बनो, गृहस्थ धर्म को अपनाओ ऐसा आदेश स्वयं भगवान वल्लभाचार्य को दिए थे । उसके उपरांत वे गृहस्थ बन गए और जब उनके पुत्र हुए उसमें से एक का नाम उन्होंने विट्ठलनाथ रखा क्योंकि विट्ठल भगवान के आदेश अनुसार उन्होंने गृहस्थ आश्रम को अपनाया था, अपने पुत्र का नाम विट्ठलनाथ रखा। यहां प्रयागराज में प्रयाग मंडल में अड़यिल नाम के ग्राम के स्थान पर वल्लभाचार्य रहते थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने निमंत्रण को स्वीकार किया और नौका से जाना था, त्रिवेणी के उस पार था वल्लभाचार्य का निवास स्थान एक ग्राम में। तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब नौका से यात्रा कर रहे थे, उस समय कुछ विशेष घटनाएं घटती हैं और विशेष बात यह है कि वह जमुना के जल को वह गंगा का भी हो सकता है या त्रिवेणी के जल को चैतन्य महाप्रभु ने जब देखा तो जल में श्याम वर्ण की छटा होती है। श्यामल या काला सांवला जल होता है। जल का वर्ण होता है , उसको श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब देखा तो बस उसको उद्दीपन कहते हैं। हम जब कुछ बात देखते हैं, दृश्य देखते हैं, दर्शन करते हैं, कहीं जाते हैं तो वहां की वस्तु के संपर्क में आने से उसका दर्शन करने से, उसको सुनने से जो भाव उदित होते हैं उसको उद्दीपन कहते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु में यह भाव उमड़ आए और उसी के साथ *महाप्रभो: कीर्तन नृत्यगीत वादित्रमाद्यान् मनसो रसेन। रोमांच कंपाश्रुतरंग भाजो वंदे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।2।।* श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन में कीर्तन, नृत्य, गायन तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए जो भावविभोर हो उठते हैं, तथा अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हुए जो अश्रुपात, कम्पन तथा रोमांञ्चादि भावों का अनुभव करते हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। चैतन्य महाप्रभु का शरीर रोमांचित हुआ। यह सब अलग-अलग विकार हैं, वे स्वयं ही डगमगा रहे हैं। अंदर जो भाव् आ रहे हैं जानो बॉडी कंट्रोल, वह बाह्य ज्ञान रहता ही नहीं ,ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और भक्त वल्लभाचार्य रूप गोस्वामी भी जा रहे हैं। वोट डगमग करने लगी और इमरजेंसी कुछ खतरा उत्पन्न हो रहा था, तभी चैतन्य महाप्रभु को शांत करने का प्रयास भी कर रहे थे हरि हरि ! श्रीचैतन्य महाप्रभु की लीला क्योंकि वे भक्त बने हैं। भगवान बन गए हैं, भक्त कौन से भक्त बने हैं वे राधा बने हैं और राधा के भाव यहां भी जो दर्शन हुआ। कोई छोटी सी बात देखी तो कृष्ण के रंग जैसा रंग ही देखा उस जल की तरंगों में, नदी के तरंगों में, ठीक है फाइनली पहुंच गए वल्लभाचार्य निवास स्थान पर और वहां वल्लभाचार्य ने चैतन्य महाप्रभु का भव्य स्वागत किया हुआ है। नए वस्त्र पहनाए हैं, चैतन्य महाप्रभु नए वस्त्रों का श्रंगार किये हुए हैं या सुसज्जित हुए हैं, चंदन लेपन हुआ है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण कमलों का पाद प्रक्षालन वल्लभाचार्य करते हैं हरि हरि और फिर कई सारे भोग खिलाते हैं फिर उनके विश्राम का समय होता है राजभोग के उपरांत मंदिरों में विग्रह को हम विश्राम देते हैं। यहां तो वल्लभाचार्य के लिए चैतन्य महाप्रभु स्वयं पहुंचे हैं और फिर स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही वल्लभाचार्य के लिए हैं तो वैसी आराधना की है, श्री विग्रह आराधना नित्य नाना श्रृंगार तन मंदिर मार्जनादो और अपने घर भक्त और अपने घर वालों के साथ सब मिलकर चैतन्य महाप्रभु की आराधना कर रहे हैं उनके लिए भी और चैतन्य महाप्रभु लेट जाते हैं। वह चरणों की सेवा करते हैं उनके अंग को दबाते हैं हरि हरि ! और यह सब हो रहा है समझ के साथ, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन और यह सब हो रहा है इस समझ के साथ कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन हैं, वे स्वयं भगवान हैं इस बात को भी वल्लभाचार्य समझे थे अदर वाइज कैसे आचार्य जो भगवान चैतन्य महाप्रभु को नहीं पहचाने, नहीं समझे इस प्रकार यदि उनको साक्षात्कार नहीं होता तो कैसे आचार्य हरि हरि ! यह और कोई आराधना कर रहे हैं , वल्लभाचार्य आराधना कर रहे हैं उस संबंध में हम जब सुनते हैं तब उसको सुनकर आत्मा प्रसन्न होता है उनको हर्ष होता है लेकिन साथ ही साथ फिर मन में विचार भी उठता है। *कबे हबे बोलो कबे हबे बोलो से-दिन आमार। (आमार) अपराध घुचि, शुद्धनामे रुचि, कृपाबले हबे हृदये संचार।।1।।* भक्ति विनोद ठाकुर कृत अहो! कब मेरा ऐसा शुभ दिन आयेगा जब श्रीगौरसुन्दर की कृपा से मेरे समस्त प्रकार के अपराध नष्ट हो जायेंगे, जिसके फलस्वरूप शुद्ध नाम में रुचि हो जायेगी तथा हृदय मे स्फूर्ति होगी। हमारे जीवन में वह दिन कब आएगा कि हम भी इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की या श्री राम की सेवा कर पाएंगे ऐसी सेवा मुझे भी करनी चाहिए, मी टू हरि हरि ! ठीक है अभी मैं इतना ही कहूंगा। वैसे भी और एक भक्त इतने में पहुंच गए रघुपति उपाध्याय वहां पहुंचे और उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार किया है *'आगे कह’—प्रभु-वाक्ये उपाध्याय कहिल। रघुपति उपाध्याय नमस्कार कैल ॥* ( चैतन्य चरितामृत मध्य 19. 97) अनुवाद-जब महाप्रभु ने रघुपति उपाध्याय से और अधिक सुनाने के लिए कहा, तो उसने तुरन्त ही महाप्रभु को नमस्कार किया और उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया। और यह रघुपति उपाध्याय (हरि बोल यह कहानी आप को सुलाने के लिए नहीं है, आपको जगाने के लिए है यह आपका कृष्ण प्रेम जागृत करता है करने के लिए है और जब कृष्ण प्रेम जागृत होता है तो सोने का कोई नाम लेगा) हरि हरि ! रघुपति उपाध्याय यह माधवेंद्र पुरी के शिष्य रहे तो माधवेंद्र पुरी के शिष्य तो ईश्वर पुरी भी थे और उनके शिष्य चैतन्य महाप्रभु मतलब चैतन्य महाप्रभु के गुरु के भाई ,गुरु भाई ,यह रघुपति है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पंढरपुर में भी जब पहुंचे थे तब वहां श्री रंगपुरी से मिले थे पंढरपुर में। फिर श्रीरंगपुरी भी माधवेंद्र पुरी के शिष्य थे और यहां रघुपति उपाध्याय, प्रयाग में चैतन्य महाप्रभु से मिल रहे हैं। यह दोनों भी माधवेंद्र पुरी के शिष्य हैं। वहां पंढरपुर में भी क्या हुआ था यह 7 दिन 7 रात्रि तक उनका संवाद होता रहा। हरि कथा में उन्होंने पंढरपुर में 7 दिन 7 रातें बिताई तो यहां पर भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने लाभ उठाया रघुपति उपाध्याय के सानिध्य का और उनसे कह रहे हैं हरि कथा सुनाइए, उन्होंने निवेदन किया है *'दँहार मुखे कृष्ण-नाम करिछे नर्तन।एड्-दुइ 'अधम' नहे, हय 'सर्वोत्तम'* ( चैतन्य चरितामृत मध्य 19.71) अनुवाद-वल्लभ भट्टाचार्य ने कहा, “जब ये दोनों निरन्तर कृष्ण-नाम का कीर्तन जप रहते हैं, तो फिर ये अस्पृश्य कैसे हो सकते हैं? उल्टे, ये सर्वोत्तम हैं।" हरि हरि ! चैतन्य महाप्रभु ने उनसे निवेदन किया कुछ हरि कथा सुनाइए कुछ हरि ,कथा सुनाइए तब मधुर कथा रघुपति उपाध्याय ने सुनाया है आप उसको पढ़ सकते हो, यह वैसे चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19 अध्याय , इसी अध्याय में वैसे चैतन्य महाप्रभु और रूप गोस्वामी का संवाद ,यही अध्याय में है ,वहां पर भी आप पढ़ सकते हो या तो संक्षिप्त में ही जो वार्तालाप संवाद हुआ चैतन्य महाप्रभु और रघुपति उपाध्याय के मध्य में , यह होमवर्क है आपके लिए आप भी पढ़ा करो या नहीं कि आप केवल सुनते ही रहोगे जब हम पढ़ते हैं तो सुनते भी हैं। पढ़ना मतलब सुनना है। पढ़ा करो हरि हरि ! और फिर उस ग्राम के कई वासी भी वहां पहुंच गए। *प्रभु देखिबारे ग्रामेर सब-लोक आइल।प्रभु-दरशने सबे ‘कृष्ण-भक्त' हइल ॥* ( चैतन्य चरितामृत मध्य 19. 109) अनुवाद-यह सुनकर कि श्रीचैतन्य महाप्रभु आये हुए हैं, सारे ग्रामवासी उनका दर्शन करने के लिए आये। उनका दर्शन करने मात्र से वे सभी कृष्ण-भक्त बन गये। सब कृष्ण भक्त अडाइल ग्राम जहां वल्लभाचार्य रहते थे अंत में उस ग्राम के निवासी भी, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के दर्शन के लिए आए और फिर जरूर वहां कीर्तन भी हुआ होगा ही। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य में और वैसे भी कहा ही है। *साधु-सङ्ग', 'साधु-सङ्ग'—सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय ॥* (चैतन्य चरितामृत मध्य 22.54) अनुवाद-“सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।" लव , मतलब किंचित सा थोड़ा सा साधु संग, सिद्धि प्रदान करता है। यहां तो स्वयं भगवान साधु बन के आए हैं, उनका संग जब प्राप्त हुआ है वहां के निवासियों को, दर्शन किए हैं और श्रवण कीर्तन हुआ है। बस एक ही सेटिंग में, एक ही मीटिंग में बन गए कृष्ण भक्त । हरि बोल ! हमको तो पूरा जीवन बीत रहा है पता नहीं कब बनेंगे हम भक्त लेकिन यहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बस पहली बार मिले दर्शन किए चैतन्य महाप्रभु के साथ और हो गए कृष्ण भक्त। गौर प्रेमानंदे ! हरि हरि बोल !

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