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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *17 अगस्त 2021* संकीर्तन गौर , सुन रहे हो ? हरि हरि ,सुनो सुनो ठीक है । 850 स्थानों से आज जप हो रहा है । गौरांग, ओम नमो भगवते वासुदेवाय , जो प्रकट होने वाले हैं उनको नमस्कार करते हैं । आदो मध्ये अंते ऐसा नमस्कार करो । मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || (भगवद्गीता 18.65) अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो | भगवान कहते है मुझे नमस्कार करो । कृष्ण जिनका नाम है और क्या-क्या है ? गोकुल जिनका क्या है ? धाम है । ठीक है बहूलाष्टमी जानती है , ऐसे श्री भगवान को बारंबार प्रणाम है । ऐसे हैं भगवान , ऐसे हैं वैसे हैं कैसे कैसे हैं , ऐसे भगवान को बारंबार प्रणाम है। कल कुछ चर्चा हो रही थी , श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं , किस परिस्थिति में प्रकट होते हैं और कुछ तत्वत: भगवान को जानना चाहिए भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं । ऐसे हम लोग कुछ पूर्वतयारी कर रहे थे , भगवान प्रकट होने जा रहे हैं ही और अष्टमी के दिन यह आपको कल बताया कितने हजार वर्ष पूर्व भगवान प्रकट हुए ? आप नोटबुक में देख रहे हो ! ठीक है , पांच , मतलब 5000 और क्या आगे कितने 2 मतलब 200 और फिर 4 , और फिर 8 । बंसीवदन ठाकुर 8 उंगलिया दिखा रहे हैं , 5248 वर्षपूर्व भगवान प्रकट हुये । या दुनिया को पता नही है ,हरि हरि । ऐसी बाते हम जब सुनते है , जो शास्त्र की बाते है , शास्त्रोक्त, शास्त्र में उक्त उसे शास्त्रोक्त कहते है । या फिर साधु, शास्त्र , आचार्य की बाते सुनते है तब हमारा विश्वास होता है । हाँ ! हाँ !कृष्ण है , प्रकट भी हुये । और हम जब बोल रहे है कि उतने वर्ष पूर्व प्रकट हुये , इस स्थान पर प्रकट हुये । ऐसा उनका दर्शन है , ऐसे उनके परिकर है , वह ऐसे लीला खेले , उन्होंने भगवद्गीता सुनाई , भगवद्गीता! भगवान के अस्तित्व का क्या सबूत है? भगवद्गीता। केवल कृष्ण के अस्तित्व का ही नही , कृष्ण के आगमन का और कृष्ण बोलते भी है , गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥ (गीता महात्मय ४) चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।” ऐसा गीता महात्म्य में भी कहा गया है । गीता है तो यह सबूत है । कृष्ण है , कृष्ण प्रगट हुये थे , उनकी वानी जो है ऐसी कुछ बात हम सुनते हैं , श्रवन करते है , पढ़ते हैं तब हमारी श्रद्धा , विश्वास अधिक अधिक बढ़ता है इसलिए भी सुनना चाहिए और इसलिए भी भागवत में कहा गया है , नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥ (श्रीमद्भागवत 1.2.18) अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है । हम सुनेंगे सुनेंगे सुनते जाएंगे , श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा । चिन्त्यतां चिन्त्यतां भक्ताश्चैतन्य - चरितामृतम् ॥ (चैतन्यचरितामृत अंत्य 12.1) अनुवाद हे भक्तों , श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य जीवन तथा उनके गुण अत्यन्त सुखपूर्वक नित्य ही सुने , गाये तथा ध्यान किये जाँय । ऐसा करते जाएंगे तो उसका परिणाम और फल क्या है ? हमारे निष्ठा बढ़ेगी , वैसे हमारी श्रद्धा बढ़ेगी । किसी ने मुझे पूछा महाराज श्रद्धा को कैसे बढ़ाया जाये ? श्रद्धा को कैसे बढ़ाया सकते हैं? इसका उत्तर मैंने दे डियस था , शुरुआत में श्रद्धा होती है उसे कैसे बढ़ा सकते हैं ? साधु संग करो , साधु संग होगा तब साधु भजन क्रिया बताएंगे यह करो , यह मत करो , यह मत करो , यह करो , विधि निशेध बताएंगे उसका पालन हम जब करेंगे तब अनर्थ निवृत्ति , अनर्थो से हम मुक्त होते है । पापा ची वासना नको दाऊ डोळा , त्याहुनी अंधळाच बरा मि , तुका म्हणे , यह जो पाप की वासना है , पापके विचार है , ऐसी विपरीत बुद्धि है इससे भी हम मुक्त होंगे । यह अनर्थ है कोई मानसिक स्तर पर अनर्थ है , कोई वाचिक स्तर पर अनर्थ है , कुछ कायि स्तर पर अनर्थ है । अनर्थ निवृत्ति , साधु संग किया या फिर भजन क्रिया , कुछ सीखे , कुछ उस पर अमल किया फिर अनर्थ से मुक्त हुये तब फिर क्या होता है ? हम लोग निष्ठावान बनते हैं । श्रद्धा जब दृढ़ होती है उसी का नाम निष्ठा है । शुरुआत में जो कोमल श्रद्धा होती है और दिन-ब-दिन यह पक्व होती है , उसका पोषण होता है , हमारी श्रद्धा का पोषण होता है और एक दिन हम फिर निष्ठावान बन जाते हैं । एक ही दिनमें अचानक नहीं , धीरे-धीरे हम निष्ठावान बन रहे है , निष्ठावान बन रहे है , निष्ठावान हो गए । कृष्ण के जन्म के सम्बंध की बातें भी हम जब सुनेंगे तब हमारी भगवान में निष्ठा या हमारी श्रद्धा दृढ़ होंगी। हरि हरि। यह सब कहते कहते ही समय बीत जाता है । कृष्ण कितने वर्ष पूर्व प्रकट हुए यह तो बता ही दिया और कृष्ण ने गीता में कहां है , क्या ? परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || (भगवद्गीता 4.8) अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | मैं प्रकट होता हूं और क्यों प्रकट होता हूं ? यह आप बता सकते हो क्योंकि हमने कहा था कि आपको भी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की कथा करनी होगी । हां पद्मगंधा तैयारी कर रही हो ? इसलिए आपको थोड़ा कुछ पढ़ाया जा रहा है , कुछ याद दिलाया जा रहा है या कुछ पॉइंट दीये जा रहे है । कृष्ण ने गीता में कहा मैं प्रगट होता हु , क्यो ? मैं प्रकट होकर क्या करता हूं ? 1-2-3 1) परित्राणाय साधुनाम यह पहला कार्य है उसकी लीला होगी कई सारी परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || (भगवद्गीता 4.8) अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | इसके संबंध में कई सारे लीलाए खेलेंगे भगवान 2) विनाशाय च दुष्कृताम् दुष्टों का संहार करने की लीला , कंस का वध होगा इनका वध होगा उनका वध होगा बहुत बड़ी सूची है और फिर , 3)धर्मसंस्थापनार्थाय तीसरा है , परित्राणाय ! किसके लिए ? परित्राणाय और धर्मसंस्थापनार्थाय , और दृष्टो का संहार करने के लिए यह तीन कारण कृष्ण कहते हैं , इस उद्देश्य से मैं प्रकट होता हूं । इसको भी याद रखिए और इसको भी कहिए जो कृष्ण ने कहा है और फिर संभवामि युगे युगे भगवान ने कहा है । संभवामि भव मतलब होना , संस्कृत भी थोड़ा सीख लीजिए । भव मतलब होना , संभव भली-भांति में हु । प्रकृतिष्ठ रुपेन मैं रहूंगा । भगवान का प्राकट्य संभवामि , केवल भवामि नहीं संभवामि , अहम संभवामि युगे युगे । हर युग में मैं प्रकट होता हूं ऐसा भगवान कहते हैं । हर युग में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण प्रकट नहीं होते हैं उन्होंने कहा है कि में हर युग में प्रकट होता हूं लेकिन कृष्ण ही हर युग में प्रकट नहीं होते । स्वयं भगवान , एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ (श्रीमद्भागवत 1.3.24) अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं । कृष्णस्तु , किंतु है । हर युग में अवतार होता है , कृष्ण का अवतार होता है , कृष्ण अवतार लेते हैं लेकिन कृष्ण स्वयं प्रकट नहीं होते यह समझ लो । यह दुनिया वालों को पता नहीं है , हिंदुओं को पता नहीं है यह रहस्य या यह भेद कहो । ना ना अवतार मकरो भुवनेषु किंतु कृष्ण स्वयं परमाभवायो ब्रह्मा जी ने अपने ब्रह्म संहिता में भेद बताया है । हर युग में भगवान का 1-1 -1-1 अवतार होता है किंतु भगवान स्वयं भगवान श्रीकृष्ण प्रकट नही होते , फिर वह भागवत में कहा गया है कई स्थानों पर कहां गया हैं । श्रीमद भागवतम स्कंद 2 अध्याय 6 श्लोक 39 वहां कृष्ण के संबंध में कहा गया है , स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः । आत्मात्मन्यात्मनात्मानं स संयच्छति पाति च ॥ (श्रीमद्भागवत 2.6.39) अनुवाद:- वे परम आदि भगवान् श्रीकृष्ण , प्रथम अवतार महाविष्णु के रूप में अपना विस्तार करके इस व्यक्त जगत की सृष्टि करते हैं , किन्तु वे अजन्मा रहते हैं । फिर भी सृष्टि उन्हीं से है , भौतिक पदार्थ तथा अभिव्यक्ति भी वे ही हैं । वे कुछ काल तक उनका पालन करते हैं और फिर उन्हें अपने में समाहित कर लेते हैं । और अवतार तो युगे युगे है और अवतार हर युग में होता है । कृष्णाका 1-1 अवतार होता है । लेकिन कृष्ण स्वयं कल्पे कल्पे, एक होता है युग और दूसरा होता है कल्प , ब्रह्मा के 1 दिन को कल्प कहा जाता है । कल्पांतर भेद से कभी उसपर चर्चा हो , कल्पांतर भेद से यह लग रहा है कि यह कुछ अलग लीला है या स्थल , स्थान अलग है , रूपांतर है । कल्पे कल्पे , कृष्ण ब्रह्मा के 1 दिन में एक बार प्रकट होते हैं । ब्रह्मा के 1 दिन में 14 मनु होते हैं फिर जब सातवे मनू , अब जो हम जहां पर हैं जब हम बात कर रहे हैं , अब जब हम हैं तो इस समय वैवश्वत नाम के मनु का काल है। यह सूर्य देव विवस्वान के पुत्र हैं वैवश्वत मनु , हर मनु के काल में 72 महायुगो के चक्र चलते हैं , यह सब तांत्रिक बातें भी है । महायूग मतलब सत्य , त्रेता , द्वापर , कली इसको महायुग कहते हैं , चार युग मिलाकर महायुग होता है । ऐसे 72 बार यह महायुग आते हैं । ब्रह्मा के 1 दिन में ही ऐसे 1000 चक्र चलते हैं फिर ब्रह्मा का एक दिन यह एक कल्प हुआ । सातवे मनु आ गये , हर मनु के 72 - 72 , 72 गुना 14 कितना हुआ ? लगभग 1000 होता है । हर मनु के 72 महायुग होते हैं , यह वैवश्वत मनु का काल है और यह 72 में से जब 28 वा महायुग आता है , महायुग का 28 वा चक्र और फिर उस महायुग के 28 वे चक्र का जब द्वापर युग आता है उसके अंत में स्वयं भगवान कृष्ण प्रकट होते हैं । और यह सब पहले ही निर्धारित हो चुका है । रामादि मूर्तिशु कला नियमेन निष्टन्ति , यह सारा नियम है , सारी योजना है , यह सब नियोजन है । यह सब भगवान की व्यवस्था है । वैवश्वत मनु के 28 वे महायुग का द्वापर युग आता है , तब द्वापरयुग के अंत में भगवान श्रीकृष्ण प्रगट होते हैं और उस द्वापर युग के बाद वाला जो कलयुग आता है तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी कल्पे कल्पे , कल्प में एक बार। ब्रह्मा के 1 दिन में एक बार भगवान श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं और फिर तुरंत उनके बाद चैतन्य महाप्रभु प्रगट होते हैं । यह भी ज्ञान जो भक्तिपूरक ज्ञान है इसको भी अर्जन करना चाहिए , आप कर ही रहे हो । आप कुछ नोट भी कर रहे हो । कुछ तो बैठे ही हैं (हंसते हुए) आराम से कुछ लेटे भी है । क्या फर्क पड़ता है ? (हंसते हुए) आराम करते हैं , आत्माराम (हंसते हुए ) हरी हरी । और फिर शायद कल बताया या नही बताया वह फिर प्राकट्य का समय आजाता है तो भगवान पहले वसुदेव के मन में प्रकट होते हैं वसुदेव के मन में प्रकट होते हैं मन में अवतार लेते हैं। भगवान मन में या उनके हॄदय प्रांगण में प्रकट होते हैं और वहां से देवकी के गर्भ में प्रवेश करते हैं और फिर गर्भ में रहते हैं और गर्भ में रहने का अनुभव करते हैं यह भी उनकी लीला है और फिर अष्टमी के दिन मध्यरात्रि को फिर प्रकट होते हैं। वसुदेव ऐक्षेत फिर वसुदेव देखेंगे मध्यरात्रि को देखेंगे हरि हरि तो आप जब वो प्रकट होंगे तब भगवान तुरंत एक तो अद्भुत बालक भी कहा गया है सुखदेव गोस्वामी ने कहा है और तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शङ्खगदाधुदायुधम् । श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम् ॥९ ॥ महार्हवैदूर्यकिरीटकुण्डल त्विषा परिष्वक्तसहस्रकुन्तलम् । उद्दामकाञ्च्यङ्गदकङ्कणादिभिर् विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत ॥१० ॥ अनुवाद:-तब वसुदेव ने उस नवजात शिशु को देखा जिनको अद्भुत आँखें कमल जैसी थीं और जो अपने चारों हाथों में शंख , चक्र , गदा तथा पद्म चार आयुध धारण किये थे । उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न था और उनके गले में चमकीला कौस्तुभ मणि था । वह पीताम्बर धारण किए थे , उनका शरीर श्याम घने बादल की तरह , उनके बिखरे बाल बड़े - बड़े तथा उनका मुकुट और कुण्डल असाधारण तौर पर चमकते वैदूर्यमणि के थे । वे करधनी , बाजूबंद , कंगन तथा अन्य आभूषणों से अलंकृत होने के कारण अत्यन्त अद्भुत लग रहे थे । तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शङ्खगदाधुदायुधम् उनके सौंदर्य का वर्णन है। उसको भी आप मन में बिठा सकते हो। कदा द्रक्ष्यामि नन्दस्य बालकं नीपमालकम् । पालकं सर्वसत्त्वानां लसत्तिलकभालकम् । सुनने में अच्छा लगता है इसमें जो छंद है कदा द्रक्ष्यामि ठीक है कदा द्रक्ष्यामि मैं कब देखूंगा मुझे कब दर्शन होगा। कदा द्रक्ष्यामि नन्दस्य बालकं नंद महाराज के बालक का मुझे कब दर्शन होगा नीपमालकम् वह बालकम और नीपमालकम् कदम्ब के निप मतलब कदम्ब की फूलों की माला पहना हुआ। वह बालक और लसत्तिलकभालकम् जिसने अपने भाल पर तिलक धारण किया हो जैसे हम कहते हैं। भाले चंदन तिलक मनोहर ऐसा मनोहारी तिलक पहना हुआ वह बालक और साथी साथ यह बालक है कैसा है यह बालक है पालक हम सब का पालन करने वाला पालन पोषण करने वाला वही है। यह बालकलसत्तिलकभालकम् ऐसा भी आप कुछ यह कुछ श्लोक याद करो कृष्ण जब बालक है सुंदर है। आप कथा की तैयारी करनी है ना सुखदेव गोस्वामी ने भी सौंदर्य का वर्णन किया है। तो प्रकट होते ही वासुदेव और देवकी ने भगवान को प्रार्थना की है प्रार्थना नहीं करनी चाहिए थी आप प्रार्थना करते हो क्या आपने जब बालक को जन्म दिया तो आपने प्रार्थना कि नहीं की माधवी कुमारी कह रही है बालक को थोड़ी प्रार्थना करनी होते बालों के चरणों में प्राथना करनी हंसते हुए वैसे नंदग्राम में या फिर गोकुल में नंद बाबा यशोदा प्रार्थना नहीं करते उनको तो तमाचा मारते हैं उनको डांटते हैं उनका कान पकड़ते हैं प्रार्थना नहीं करते लेकिन यह मथुरा है मथुरा कंचन की नगरी उद्धव मोहि ब्रज विसरत नाहि हे उद्धव मैं ब्रज को नही भूल सकता ब्रज के जो जो प्रेम का व्यापार है लेकिन मथुरा में तो कंचन की नगरी है सोना चांदी का व्यापार होता है दूसरे प्रकार के व्यवहार होते हैं। तो यह भाव का अंतर है मथुरा में अलग भाव है यह भगवान के ऐश्वर्या का ध्यान रखते है मथुरा वासी और वसुदेव और देवकी भी भगवान महान है तब फिर प्रार्थना होती है। आगे लीलाओं में जब आप पढ़ोगे तो कृष्ण जब हंसते कंस के वध के लिए मथुरा जाते हैं मथुरा पहुंचते ही जय जगदीश हरे जय जगदीश हरे उनकी आरती उतारना प्रारंभ होती है। वृंदावन में कोई नहीं पूछता कोई आरती नहीं उतरता है कृष्ण की कोई प्रार्थना नहीं करता कोई नमस्कार नहीं करता। आदि लीला 4.25 सखा शुद्ध - सख्ये करे , स्कन्धे आरोहण । तुमि कोन् लोक , तुमि आमि सम ॥ 25 ।। अनुवाद " मेरे मित्र शुद्ध मैत्री के कारण मेरे कन्धों पर यह कहते हुए चढ़ जाते हैं कि , ' तुम किस तरह के बड़े व्यक्ति हो ? तुम और हम समान हैं । ' तुमि कोन् बड़ लोक , तुमि आमि सम मथुरा के हिसाब से वसुदेव देवकी यहा भाव भिन्न है ऐश्वर्य भाव है और वृंदावन है माधुर्य है हरि हरि उन्होंने प्रार्थना की है वह प्रार्थना सुखदेव गोस्वामी ने दी है तृतीय अध्याय में या यहां कृष्ण जन्म की कथा सुखदेव गोस्वामी कर रहे हैं 10 स्कंद तृतीय अध्याय आपके घर में भागवतम होना चाहिए न्यूज़पेपर तो होता है लेकिन भागवतम का कोई ठिकाना नहीं है तो न्यूज़पेपर को आग लगाओ और भागवत का सेट वगैरा ले लो आज तो वह भद्र पूर्णिमा भी आ रही है। कुछ दिन पहले या पंढरपुर में भक्त बता रहे थे उन्होंने भागवत का सेट लिया तो मंदिर के भक्त गए और उस भागवत की आराधना हुई एक समारंभ संपन्न हुआ उत्सव हुआ भागवतम का उन्होंने अपने घर में स्वागत किया भागवत है भगवान भागवत की भी आरती उतारी जा सकती है उतारनी चाहिए। एक समय जब मैं ट्रैवलिंग पार्टी वाली जो बस होती हैं उसमें ग्रँथ भरते है और फिर प्रचार के लिए जाते हैं तो पूरा उनका पूरी उनकी गाड़ी ग्रंथों से भरी थी तो भी वीग्रह के लिए कोई स्थान नहीं था मूर्ति रखने के लिए ताकि वह मंगल आरती इत्यादि कर सकते हैं तो श्रील प्रभुपाद से पूछा कि हम भी वीग्रहों की अर्चना कैसे कर सकते हैं तो प्रभुपाद ने कहा कि कोई समस्या नही आप लोग ग्रंथों की आरती उतारो विग्रह नहीं है विग्रह के लिए जगहा नहीं हैं यह अच्छी बात है। इतने ग्रंथ आपके पास भरे हुए हैं। ग्रंथराज श्रीमद्भागवत की जय आपके घरों में भी देखना थोड़ा पीछे मुड़ कर देखो की आपके पास है भागवतम का ग्रँथ पूरा सेट रखो तब जब हम कहते हैं कि द्वितीय स्कंध में ऐसे ऐसे अध्याय में कल्पे कल्पे की बात हुई है तो आप लोग खोल कर देख सकते हो अब दशम स्कंद तृतीय स्कंध की तृतीय अध्याय की बात चल रही है। इस जब चर्चा में इस प्रकार का उल्लेख होता ही हैं तब आप देख सकते हो फलाना कैंटो यह अध्याय और श्लोक यह रेफरेंस देते रहते हैं तो ठीक है तो उसी समय फिर कृष्ण कहेंगे आप वैसे वासुदेव भी है मथुरा में वासुदेव भी है कृष्ण तो वृंदावन में जब जाएंगे तब कृष्ण बनेंगे यह संवाद हुआ है वसुदेव देवकी और वासुदेव के मध्य में भगवान के मध्य में संवाद हुआ है तो उस समय भगवान बताते हैं कि आपने भी बहुत कठोर तपस्या की थी और फिर मैं प्रसन्न हुआ और मैंने कहा था वर मांगो आपने इच्छा प्रकट की थी व्यक्त की थी प्रभु आप जैसा पुत्र हमें प्राप्त हो और मेरे जैसा तो मैं ही हूं फिर मैं ही प्रकट हुआ तो आप दोनों ही वसुदेव देवकी आप सूत पत थे और सूतप मैं पृश्नि गर्भ नाम का भगवान या अवतार लिया था एक समय और कश्यप और अदिति थे तो मैं वामन देव बन गया बटुक बामन बन गया यह दूसरा नंबर था और अब यह तीसरी बार है पुन्हा में प्रकट हो रहा हूं तो भगवान यह भी कहना चाह रहे हैं कि मैंने तो वादा निभाया तो इसलिए भी ताकि वह समझेंगे कि वह भगवान है। तो उस बालक ने चतुर्भुज रूप धारण किया है जिसको वसुदेव और देवकी दर्शन भी कर रहे हैं प्रार्थना की है नमस्कार किया है और श्री कृष्ण और वासुदेव ओम नमो भगवते वासुदेवाय ऐसा भगवान ने बोले है अपना परिचय दिया है मैं हूं मैं क्या हु अहम सर्वस्य प्रभःव मैं सब कुछ हूं तो इसके उपरांत हरि हरि कृष्ण अनुभव करते हैं कृष्ण वासुदेव अनुभव करते हैं कि वसुदेव और देवकी खासकर देवकी बड़ी भयभीत और चिंतित है क्यों नहीं होगी उसका अनुभव रहा 6 बार कंस ने उनके पुत्रों का वध किया था और जब सातवां पुत्र उनके हाथ में नहीं लगा था सातवा पुत्रों को स्थानांतरित किया गया था यह हार्ट ट्रांस्प्लांटेशन अभी ये क्या क्या चल रहा है और किडनी ट्रांसप्लांटेशन होते हैं लेकिन या तो गर्भ गर्भातर हुआ एक गर्भ से बालक को दूसरे गर्भ में पोहोचाया गया ऐसे कोई टेक्नोलॉजी है ऐसा कोई संसार में होता है गर्भातर कोई कह रहे हैं हां तो गर्भ अंतर हुआ तो सात वे बालक का पता नहीं चला तो अभी आठवां आप कल्पना कर सकते हैं तो हम विस्तार से नहीं कर सकते तो दोनों चिंतित थे तो भगवान ने संकेत किया कि मुझे यहां से सुरक्षित जगह गोकुल लेकर जाओ तब फिर वसुदेव जैसे वासुदेव ने उठाया कृष्ण को उसी के साथ हथकड़ी बेड़ी टूट गई हरि बोल और फिर से यह भी सीखना चाहिए कि हम भी कृष्ण को उठाएंगे कृष्ण को अपनाएंगे या कृष्ण को गले लगा सकते हैं तब हो गया फिर यह संसार हमारे लिए समाप्त हो गया समाप्त हुआ हमारे लिए तो समाप्त हुआ हमको इस भौतिक संसार से कुछ लेना देना नही रहता जब हम भगवान को स्वीकार करेंगे तब सारे भाव बंधन से मुक्त हो जाएंगे प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः | अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || २७ || अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं | प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |आप तब कहेंगे कि हां मैं तो मुक्त हु। मैं मुक्त जीवात्मा हूं और मैं मुक्त हु मैं कुछ भी बोल सकता हूँ आप फ्री नहीं हो आप मुक्त नहीं हो आप बंधे हुए हो यह माया है हम सब बद्ध जीव हैं तो सतोगुण रजोगुण तमोगुण की डोरिया रसिया गुण मतलब डोरी भी होता हैं उससे हम बंधे हुए है और कटपूतली वाले उनकी हाथों में डोरिया है और हमको नचाया जाता है हरि हरि या कोई लड़ रहा है तो दोनों जो लड़ने वाली पार्टियां है लड़ाई हो रही है तालिबान और अफगानिस्तान में लड़ाई हो रही हैं तो तालिबान और अफगानिस्तान उनके ऊपर वाला कठपुतली वाला उमको नचा रहा हैं। और फीर सोचते होंगे कि हम लड़ रहे हैं नही नही कोई लडवा रहा है उनके गुणों के अनुसार तो इन सब से हम मुक्त होंगे जब हम कृष्ण को स्वीकार करेंगे अपने जीवन में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। या अभी हमने कृष्ण को स्वीकार किया जब हमने हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण किया श्रवण किया कृष्ण का प्राकट्य वैसे संसार में नहीं हो संसार में भी भगवान प्रकट होंगे कृष्ण अष्टमी के के दिन वह भी ठीक है। लेकिन हमारा तो लक्ष्य होना चाहिए कि कृष्ण हमारे लिए मेरे लिए प्रकट हो मेरे लिए प्रकट हो और फिर मेरे परिवार के लिए और मेरे लिए प्रकट हो या मेरे जीवन में भगवान प्रकट हो मेरे घर में भगवान प्रकट हो मेरे मन में प्रकट हो। सवै मनः कृष्णपदारविन्दयो वासि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेमन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥१८ ॥ मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्भत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसना तदर्पिते ॥१ ९ ॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥२० ॥ अनुवाद:- महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में , अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने - बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन , को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श - इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में , अपनी घाण - इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में , अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा करने में लगाया । निस्सन्देह , महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा । वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत : मुक्त होने की यही विधि है । सवै मनः कृष्णपदारविन्दयो मेरे मन में भगवान प्रकट हो जन्माष्टमी के दिन भगवान का प्राकट्य कहा हमारे मन में हमारी चेतना में मत्त चित्तह मदगत प्राणः तो ठीक है हम यही रुकते हैं। और एक दिन तो वैसे कई दिन हो सकते हैं लेकिन और एक दिन तो हमको बिताना ही होगा इसी चर्चा को आगे बढ़ाएं नहीं या पूरा करने के उद्देश्य से तो कोई प्रश्न या टिका टिपणी हैं तो कहिए। हरे कृष्ण ।

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