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जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 28 जून 2021 हरे कृष्ण! आज 902 स्थानों से भक्त जप चर्चा में उपस्थित हैं। हरि हरि! क्या आप सब तैयार हो? आप विद्यार्थी हो तो,विद्यार्थियो के लिए पेन और पेपर, नोटबुक इत्यादि अनिवार्य होता हैं। अगर आप गंभीर विद्यार्थियों हो तो। आज कि चर्चा मे मैं सोच रहा था कि हम कल जो चर्चा कर रहे थें उसी कों आगे बढा़गऐ। उसी प्रकार कि चर्चा करेंगे। इंद्रिय्निग्रह, मननिग्रह और बुध्दि कि भूमिका हमारे जीवन में क्या हैं? हमारे इस जीवन कि यात्रा में इंद्रिय, मन, बुध्दि इनकी क्या भूमिका हैं? हम भक्तियोगी बनेंगे।भक्ति करेंगे।लक्ष्य तो भक्ति ही हैं। कल कि चर्चा भी भगवत गीता से ही थीं। भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक संख्या 36 से। इस अध्याय का नाम वैसे कर्मयोग भी हैं।हमे कर्म योग से आगे बढ़ना हैं।हमे कर्मयोग से ज्ञानयोग, ज्ञान योग से अष्टांग योग और फिर भक्ति योग पर आना हैं।सर्वोपरि तो भक्ति योग हैं। यह कर्म योग भी एक साधन हैं, साध्य नहीं हैं। समय ज्यादा नहीं होता इस लिए हम मुद्दे पर आते हैं। अर्जुन ने हम सभी कि ओर से प्रश्न पुछा हैं,इस प्रश्न को आप ने सुना हैं। मैं सुनाता रहता हूँ। “अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||” (श्रीमद्भगवतगीता 3.36) अनुवाद:-अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो | हम जब पाप करते हैं,करते हैं कि नहीं? नहीं आप नही करते हो! ठीक हैं, आप पहले करते थे या उतना नहीं करते जितना पहले करते थें। 'इमानदारी सबसे अच्छी नीति हैं' अर्जुन तो इमानदार हैं, इसलिए भगवान से पुछ रहे हैं या फिर हमारी ओर से पुछ रहे हैं। यह सब बताते बताते इस में ही समय बीत जाता हैं। हम जो पाप करते हैं,कभी कभी इच्छा नहीं होते हुए भी या फिर जानते हुए भी कि यह पाप हैं,तो भी हम पाप कर बैठते ही हैं। "अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |" "अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||”, बलपूर्वक हमें कोई खींचता हैं, या ढकेलता हैं और पाप करवाता हैं। कौन करवाता हैं? मेरी तो इच्छा नहीं हैं। ऐसा अगर हमारा प्रश्न हैं। इसका भगवान उत्तर देने वाले हैं। इस उत्तर को वह भक्त समझेंगे, भक्त तो नहीं कहना चाहिए था। जिन से पाप होता हैं। जिनका प्रश्न ही अर्जुन जैसा हैं,अर्जुन जैसा प्रश्न है तो कृष्ण ने जो उत्तर दिया हैं, उस उत्तर को हम समझेंगे। अगर यह हमारा प्रश्न नहीं हैं, तो फिर भगवान का जो उत्तर है वह हमको समझ में नहीं आएगा, हम स्वीकार नहीं करेंगे।पूर्ण प्रश्न पूर्ण उत्तर,यह प्रश्न भी पूर्ण हैं।अर्जुन सभी बध्दजीवों कि ओर से प्रश्न पूछ रहे हैं और कृष्ण उसका मु तोड़ उत्तर दे रहे हैं। ऐसा कुछ आपका प्रश्न है? आपके मन में ऐसा प्रश्न कभी खड़ा होता है? जैसा प्रश्न अर्जुन ने पूछा हैं?हा या नहीं?जो रंगपुरी नागपुर से हैं, उनका तो यह प्रश्न हैं या पहले हुआ करता था या अभी भी हैं, वैसा कुछ हद तक। कुछ लगभग 7 श्लोकों में या फिर 7 वाक्यों में भगवान इसका उत्तर देते हैं। इस भगवतद्गीता के तृतीय अध्याय के अंत तक इसका उत्तर चलता रहेगा। श्री कृष्ण कहते हैं उत्तर में.. “श्री भगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः | महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||” (श्रीमद्भगवतगीता 3.37) अनुवाद:-श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है | अरे! अरे! अर्जुन! यह जो तुमसे पाप करवाता हैं,यह पाप करवाने वाला काम हैं, तुम से पाप करवाने वाला क्रोध हैं।काम और क्रोध उत्पन्न होता हैं,किससे? 'रजोगुणसमुद्भवः' उद्भव मतलब उत्पन्न, उत्पन्न होता हैं,प्रगट होता हैं, किस से,रजोगुण से “प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः | अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||” (श्रीमद्भगवतगीता 3.27) अनुवाद:-जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं | कृष्ण ने गीता में कहा है, हम जो कार्य करते है,यह कार्य हमसे कोई करवाता हैं। कृष्ण ने कहा.. “प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |"गुणै: मतलब गुणों द्रारा। हम जो सारे कार्य करते हैं, वह ये अलग अलग गुण हमसे करवाते हैं। "गुणै: कर्माणि सर्वशः |" अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || किंतु जो मूढ़ हैं, वह समझता हैं, कि मैं कर रहा हूं। 'कर्ताहमिति' कर्ता एक महत्वपूर्ण शब्द हैं। मन्यते,हम लोग ऐसा मान बैठे हैं कि हम लोग कर रहे हैं या कर्ता मैं हूं। नहीं नहीं।कृष्ण कह रहे हैं। कोई तुमसे यह कार्य करवा रहा हैं , और वह प्रकृति के तीन गुण हैं,उस में से रजोगुण हैं, रजोगुण से उत्पन्न होता हैं, काम और क्रोध।आगे कृष्ण कहेंगे कि यह शत्रु हैं और फिर यह तुम्हें व्यस्त रखता हैं,किस में? पाप में व्यस्त रखता हैं। कोन करवाता हैं 'अनिच्छन्नपि'।आपकी इच्छा नहीं होते हुए भी 'काम एष क्रोध एष' और फिर तमोगुण से उत्पन्न होने वाले भी शत्रु हैं। मद, मोह,मात्सर्य और फिर ओर गिर जाते हैं ओर पतीत हो जाते हैं,ओर पापी हो जाते हैं।किस से?तमोगुण से उत्पन्न मद ,मोह, मात्सर्य से और यह युग हैं तमोगुण का। हरि हरि! और फिर आगे "महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||” अब भगवान कह रहे हैं कि दो शत्रु हैं।काम और क्रोध।भगवान ने दो के ही नाम लिए हैं।वैसे कुल मिला कर छ: हैं। इनका मंडल हैं।षडरिपू जिसे कहते हैं-काम,क्रोध,लोभ, मद, मोह, मात्सर्य और यह पाप करवाते हैं। हमको पाप बुद्धि देते हैं। विधि मतलब समझो।कृष्ण कह रहे हैं कि विधि मतलब जान लो,समझ लो। समझ में आया?कई स्थानों पर विधि-विधि मतलब संस्कृत में सुनोगे या शास्त्रों में सुनोगे तो उसका अर्थ है विधि मतलब तुम को यह समझना चाहिए। समझ रहे हो! "विद्धयेनमिह वैरिणम् ||” हे अर्जुन! तुम्हारा यह शत्रु है और आगे कृष्ण कह रहे हैं... “धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च | यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||” (श्रीमद्भगवतगीता 3.38) अनुवाद:-जिस प्रकार अग्नि धुएँ से, दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है । यह जो शत्रु है काम क्रोध लोभ मोह इत्यादि इनका प्रभाव अलग अलग व्यक्ति के जीवन में कुछ कम अधिक हो सकता है या व्यक्ति के ऊपर अलग-अलग प्रभाव, उसकी मात्रा कम या अधिक हो सकती हैं। कभी-कभी क्रोध आता आता हैं, कभी हम सदैव क्रोध के मनोभाव में रहते हैं और क्रोध आया तो कोई गाली देता हैं, तो कोई क्या करता हैं? बंदूक से गोली खिलाता हैं। अंतर हुआ कि नहीं?यहां कृष्ण एक उदाहरण के साथ कह रहे हैं,जैसे अग्नि को धुआँ ढ़कता हैं, जहाँ आग होती हैं, वहा धुआँ होता हैं।तो धुआँ अग्नि को ढ़क लेता हैं,लेकिन थोड़ी देर के लिए ढ़क लेता हैं। कभी होता हैं, कभी नहीं होता हैं। कभी अधिक होता हैं, कभी कम होता हैं, कभी चंचल भी होता हैं। पूरा पकड़ के पूरा ढ़कता नहीं हैं। तो वह एक स्थिति हैं या वह एक मात्रा हैं। काम ,क्रोध इत्यादि शत्रुओं का प्रभाव कैसा हो सकता हैं? “धूमेनाव्रियते वह्नि" मतलब अग्नि को धुआँ ढ़कता हैं। यह दूसरा उदाहरण हैं, यहाँ तीन प्रकार कि श्रेणीयाँ या स्तर बताएं गये हैं "र्यथादर्शो मलेन च |" मान लो आपके पास आईना हैं, होता ही हैं। वह ढ़क जाता हैं,धूल से ढ़क जाता हैं।आईने का धूल से ढकना यह थोड़ा अधिक हुआ। धुआँ अग्नी को ढ़कता हैं,और धूल आईने को उससे अधिक ढ़क देती हैं और तीसरा हैं, यह जबरदस्त आवरण हैं या बंधन है और वह है "यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||” जैसे गर्भ में भ्रूण होता हैं, छ: महीने का बालक जो गर्भ में हैं,उसको गर्भ ढ़कता हैं,वह ढ़कना जबरदस्त ढकना हुआ। ना तो हिल सकता हैं, ना डूल सकता हैं,न ही वहां प्रकाश की किरण पहुचती हैं,काम ,क्रोध का बड़ा प्रभाव हैं।कितना प्रभाव? जैसे गर्भ में भ्रूण के ऊपर वाला जो आवरण हैं, गर्भ के कारण ही हैं।यहा कृष्ण बता रहे हैं कि काम का या क्रोध का जो प्रभाव हैं, उसकी मात्रा कम अधिक हो सकती है। “आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा | कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ||” (श्रीमद्भगवतगीता 3.39) अनुवाद:-इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है | जो धुआँ ढ़कता हैं, अग्नि को,धूल ढ़कती है आईने को वैसा ही गर्भ ढ़कता हैं, भ्रूण को, हमारे जीवन में कौन ढ़कता है? किसको ढका जाता है? या कृष्ण कहते हैं हमारा जो ज्ञान है,ज्ञान को यह काम ढकता हैं। काम,क्रोध,मद,मोह यह सारे जो षडरिपू है यह हमारे ज्ञान को ढक लेते हैं या तो ज्ञान को ढक लेते हैं या ज्ञान को चुरा लेते हैं। “कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः | तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||” (श्रीमद्भगवतगीता 7.20) अनुवाद:-जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं | काम के द्वारा,क्रोध के द्वारा बुद्धि नष्ट हो जाती हैं ,वैसे इस वचन में तो काम का ही नाम ले रहे हैं। काम सारे शत्रुओं का लीडर हैं, इसलिए उसका नाम अधिक लिया जाता हैं या फिर काम से ही क्रोध उत्पन्न होता हैं।मिस्टर लस्ट का यंगर ब्रदर (छोटा भाई)क्रोध हैं , या अनुज क्रोध हैं। पहले काम उत्पन्न होता हैं, काम की पूर्ति नहीं होती तो क्रोध उत्पन्न होता हैं।और काम की पूर्ति हो रही हैं तो अच्छा लग रहा हैं। सारी सुख सुविधा काम वासना कि पूर्ति के लिए प्राप्त हो रही हैं। उपलब्ध हो रही हैं।इस तरह हम लोभी बन जाते हैं।काम का चस्का लग जाता हैं,उस काम के पीछे और चाहिए!इस लोभ या काम तृप्ति कि योजना में अगर कोई बाधा उत्पन्न होती हैं, रुकावट होती हैं, देरी होती हैं, तो क्रोध उत्पन्न होता हैं।और अगर बढ़िया से चल रहा हैं, सुख सुविधा प्राप्त हो रही हैं, हम उपभोग उठा रहे हैं, तो हम लोभी, लालची बन जाते हैं।काम से ही उत्पन्न होते हैं, क्रोध या लोभ,आगे आगे वाले शत्रु भी काम से ही आते हैं। काम ही लीडर ( नेता)हैं। आगे कृष्ण कहते हैं “कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः" काम के कारण हम ज्ञान रहित होते हैं, या जब हम कामी होते हैं,क्रोधी होते हैं, लोभी होते हैं तो यह शत्रु क्या करता हैं?बुद्धि नष्ट कर देता हैं। आगे कृष्ण ने कहा हैं- भगवद्गीता 3.40 “इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते | एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् || ४० ||” अनुवाद इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं | इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता हैं यह जो शत्रु हैं, जिनका अध्यक्ष यह काम हैं। हमारे जीवन में या हमारे शरीर में यह जो काम इत्यादि शत्रु हैं, इनहोने अपना अड्डा बना लिया हैं या फिर 3 अड्डे बना लेते हैं। तीन स्थानों पर इनका देश बन जाता हैं। वह कौन-कौन से हैं? इंद्रियानी, अगर इंद्रिय तृप्ति हो रही हैं, तो इंद्रियों में इन शत्रुने अपना स्थान बना लिया हैं और यह शत्रु धीरे-धीरे इन द्वारों से प्रवेश करते हैं।भगवद्गीता में इंद्रियों को द्वार कहा गया हैं। कृष्ण ने भगवद्गीता में‌ कहा हैं- भगवद्गीता 5.13 “सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी | नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् || १३ ||” अनुवाद जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है | इस शरीर को पूर भी कहा हैं, नगर कहा हैं। जैसे नगर के दरवाजे होते हैं वैसे ही इस शरीर में 9 दरवाजे हैं। इन दरवाजों पर कोई चौकीदार नहीं हैं। कोई रखवाली नहीं कर रहा हैं। ऐसे ही द्वार खुले हैं। इंद्रियों के विषय इन दरवाजों से प्रवेश करके कहां पहुंचते हैं?मन तक पहुंच जाते हैं।पूरा कनेक्शन और वायरिंग ऐसी ही हैं। भगवद्गीता 2.62 “ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते | सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||” अनुवाद इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है | कृष्ण ने सब कुछ गीता में कहा हैं,हम लोग मूर्ख हैं और मूर्ख ही रहेंगे कि हम लोग गीता पढ़ते नहीं हैं और फालतू की चीजें पढ़ते रहते हैं।हम लोग विद्यालय और विश्वविद्यालय में पढ़ते रहते हैं,जहां आत्मा की हत्या होती हैं। प्रभुपाद इन्हें बूचड़खाना या स्लॉटर हाउस कहते हैं जहा आत्मा का ज्ञान नहीं होता।हरि हरि!जब मन विषयों का ध्यान करता हैं,तब वहा काम अपना अड्डा बना लेता हैं।आधुनिक सभ्यता में ध्यान और मेडिटेशन चलता रहता हैं, टेलीविजन देखते रहते हैं और ऐसे ही बहुत कुछ चलता ही रहता हैं। मौज उड़ाते रहते हैं।जिससे यह शत्रु कहां तक पहुंच गया हैं?यह शत्रु मन तक पहुंच गया हैं। शत्रु ने मन को टेकओवर कर के वहां भी अपना अड्डा बना लिया हैं। पहले इंद्रियों को काबू किया, फिर मन तक पहुंच गया। फिर तीसरा हैं बुद्धि और क्योंकि हम बुद्धू हैं इसलिए हमारी बुद्धि काम नहीं करती।सद्- असद विवेक नहीं है,जिससे यह बुद्धि तक पहुंचता हैं।मन‌ में इस संसार को उपभोग के लिए विचार आते रहते हैं। वैज्ञानिक लोग बहुत बुद्धिमान कहलाते हैं।परंतु वैज्ञानिक हो या नेता हो या बुद्धिजीवी लोग हैं,जो अपनी बुद्धि को बेंचते हैं और अपनी बुद्धि को बेच कर अपनी जीविका चलाते हैं, उन लोगों को बुद्धिजीवी कहते हैं। यह सब लोग ही बुद्धू हैं। काम, क्रोध ने उनके ज्ञान को चोरी किया हुआ हैं। भगवद्गीता 7.15 ” न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || १५ ||” अनुवाद जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते | भगवान कह रहे हैं जो मूढ हैं,वह मेरी शरण में नहीं आते।चार प्रकार के ऐसे लोग हैं,जो भगवान की शरण में नहीं आते।इनमें से एक हैं, जिनकी बुद्धि को माया ने हर लिया हैं। कुछ लोग नरोत्तम होते हैं और कुछ लोग नराधम होते हैं। जो लोग नराधम होते हैं,माया उनके ज्ञान को चुरा लेती हैं। यह लोग भगवान की शरण में नहीं जाते। जब बुद्धि को टेकओवर किया तो यह शत्रु तो हैं ही जिनका मुख्य बेस बुद्धिमता हैं, इंटेलिजेंस हैं। क्या आप जानते हैं कि सरकार भी इस प्रकार ही चलती हैं। सरकार का जो सबसे मुख्य विभाग होता हैं वह हैं इंटेलिजेंस।जब इंटेलिजेंस फेल हो जाता हैं, तब शत्रु हमला करता हैं इसीलिए यह विभाग रात दिन व्यस्त रहता हैं। इनका पूरा नेटवर्क होता हैं। हर वक्त यह नजर रखते हैं। अगर यह इंटेलिजेंस विभाग फेल हुआ तो जासूस उसका फायदा उठाते हैं।वैसे ही हमारे जीवन में बुद्धि को काम ने घेर लिया हैं।इसी के साथ बुद्धि का चक्का जाम हो गया हैं। जिससे बुद्धि काम नहीं करेगी। जैसे कि मैं कल आपको बता रहा था कि बुद्धि भी एक वाहन चालक की तरह ही हैं, जिसका रथ यह शरीर हैं और इंद्रियां घोड़े हैं और मन लगाम हैं। लगाम चालक के हाथ में होती हैं। तो जो इंटेलिजेंस विभाग हैं, यानी कि जो बुद्धि हैं उसका संचालन सही प्रकार से होना चाहिए। लेकिन हम ढीले ढाले हैं ।यह काम आगे बढ़ता गया ।इसे दरवाजे पर भी रोका नहीं गया,भगाया नहीं गया,इसकी हत्या नहीं की गई,इसकी जान नहीं ली गई। फिर यह काम आगे बढ़ा, मन तक पहुंच गया और मन पर भी इसने कबजा कर लिया। काम,क्रोध,लोभ,मद और मत्सरय ने मन में घर बना कर यही विचारो को फैला दिया। जिससे मन में काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सरय के विचारों का मंथन होने लगा और फिर वहां से आगे बढ़कर शत्रु ने इंटेलिजेंस पर कब्जा किया यानी बुद्धि को भ्रष्ट किया जिससे क्या हुआ विनश्यति सब खत्म। भगवद्गीता 2.62 “ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते | सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||” अनुवाद इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है | द्वितीय अध्याय में भगवान ने यह सब समझाया हैं कि जैसे ही व्यक्ति विषयों का ध्यान करता हैं, विषयों का ध्यान करते करते कामवासना जगती हैं, व्यक्ति कामी बनता हैं। और जब काम की पूर्ति नहीं होती, कोई विघ्न आता हैं या देरी होती हैं, तो क्रोध उत्पन्न होता हैं। व्यक्ति मोहित होता हैं और स्मृति भम्रित होती हैं और फिर भगवान ने बुद्धि नाशो कहा हैं। इसका परिणाम होता हैं कि बुद्धि का नाश हो जाता हैं और जब बुद्धि का नाश हुआ तो विनश्यति।व्यक्ति में अगर बुद्धि ही नहीं हैं, व्यक्ति बुद्धू हैं तो विनाश होना ही हैं। जिससे वह नरक जाएगा।वैसे भी भगवान ने खुद ही काम ,क्रोध,लोभ को नरक के तीन द्वार कहा ही हैं। भगवद्गीता 3.42 “इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः | मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः || ४२ ||” अनुवाद कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है । कल मैं इस वचन को कह रहा था। कर्मेंद्रियां जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं‌।मन इंद्रियों से बढ़कर हैं। बुद्धि मन से भी उच्च हैं और आत्मा बुद्धि से बढ़कर हैं। इस प्रणाली पर कल हम चर्चा कर रहे थे।कृष्ण ने कहा जो अभी कहना रह गया था- भगवद्गीता 3.41 “तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ | पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् || ४१ ||” अनुवाद इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप का महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो । यह काम जो शत्रु है इसका कहां-कहां निवास होता हैं? तीन स्थान हैं।इंद्रिय,मन और बुद्धि और फिर सार रूप में कृष्ण कहते हैं कि इसलिए इंद्रियों पर निग्रह रखो।शुरुआत कहां से करनी हैं? इंद्रियों पर निग्रह रखकर।गेट पर ही शत्रु को रोक लो या वहीं से गोली चलाकर शत्रु की जान ले लो।शत्रु रहेगा ही नहीं तो आगे बढ़ेगा ही नहीं। मन तक नहीं पहुंचेगा और मन तक नहीं पहुंचेगा तो बुद्धि तक तो पहुंच ही नही सकता। अंत में कृष्ण कह रहे हैं भगवद्गीता 3.43 ” एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्ताभ्यात्मानमात्मना | जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || ४३ ||” अनुवाद इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत) से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रूपी दुर्जेय शत्रु को जीतो | यह इस अध्याय का अंतिम वचन हैं या हम यह कह सकते हैं कि जो शिक्षा का हम अध्ययन कर रहे हैं यह श्लोक उसका सार हैं और इसमें हमारा शिक्षक कौन हैं? स्वयं भगवान श्री कृष्ण। सारे ज्ञान के स्रोत कृष्ण हैं। "कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्-आदि शंकराचार्य" आपको कृष्ण स्वयं शिक्षा दे रहे हैं। इस संसार का कोई फालतू बेकार का तथाकथित शिक्षक नहीं है। स्वयं भगवान शिक्षक बने हैं।भगवान कह रहे हैं कि अपने आप को मन,बुद्धि और भौतिक इंद्रियों से परे जानकर कृष्ण भावनामृत की आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम रूपी शत्रु को जीतो।हे महाबाहु!क्या फायदा तुम्हारे महाबाहू होने का?अपने बाहू का उपयोग करो और शत्रु को जीतो। जहि का मतलब हैं मारना। किल दा एनीमी।अगर आपके घर में कभी सांप घुस जाता हैं, तो क्या आप उसको आधा मार कर छोड़ देते हो? क्या यह सोचते हो कि चलो उसको थोड़ा पीट दो और फिर उसे रहने दो।उसे पूरी तरह मारते हो ना।अगर नहीं मारेंगे तो क्या होगा? वह पुनः तैयार हो जाएगा।सांप को मार दो।कामरुपी या क्रोध रूपी शत्रु को मारो।यह शत्रु हमारे ज्ञान की चोरी करते हैं और हम कामांध बन जाते हैं, क्रोधांध,लोभांध बन जाते हैं। काम,क्रोध,लोभ यह सारे शत्रु हम को अंधा बना देते हैं।फिर हमें कुछ दिखता ही नहीं हैं। इसीलिए इनकी जान लो। पहले इसको जान लो फिर इसकी जान लो। यदि हम इन शत्रुओ को जानते ही नहीं तो इनकी जान कैसे लेंगे?इसीलिए कृष्ण ने शुरुआत में ही कहा कि यह तुम्हारा वेरी हैं, यह तुम्हारा शत्रु हैं और शत्रु जब तक जीवित हैं और कार्यरत हैं तो हमको सुख पूर्वक या शांतिपूर्वक जीवन नहीं जीने देगा।सार रूप में कहे तो अर्जुन ने पूछा था कि कौन हैं जो मुझे परेशान करता हैं, मुझसे बलपूर्वक पाप करवाता हैं? तो कृष्ण ने कहा था कि अर्जुन काम ही हैं, जो तुमसे कार्य कराता हैं, क्रोध पाप करवाता हैं। लोभ पाप करवाता हैं। निष्कर्ष में कृष्ण कह रहे हैं कि शत्रु का विनाश करो और साधु बनो। मराठी में सहा को 6 कहते हैं और धु मतलब धोना।अगर हमारी चेतना और हमारी भावना से हमने उसको मिटा दिया।उसको हमने धो दिया। 6 शत्रुओ को धो दिया और बन गए साधु।काम,क्रोध की धूल को मिटा देना,हटा देना,उसकी जान लेना।उससे क्या होगा? हमारा जीवन एकदम शांत हो जाएगा। हम जितेंद्रिय हो जाएंगे।हम प्रशांत बनेंगे और फिर एक ही वचन में भगवान ने कहा हैं कि जो जितेंद्रीय हैं, जिन्होंने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हैं। जिनकी इंद्रियां नियंत्रित हैं, वह शांत हैं और जो शांत होगा वह परमात्मा को प्राप्त कर सकता हैं। भगवद्गीता 6.7 “जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः | शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: || ७ ||” अनुवाद जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है | ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं | ठीक हैं। यहां समय समाप्त हो गया हैं।अगर आपके कोई प्रश्न है तो‌ आप लिख लीजिए उसे अगले सेशन में ले सकते हैं। हरे कृष्णा!

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