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हरे कृष्ण
*जप चर्चा*
*दिनांक-11 -05 -2022*
(अनंत शेष प्रभु द्वारा )
हरे कृष्ण !
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥*
*वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च। श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥*
*साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं।श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश्च।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धु दीनबंधु जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते।।*
*तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसते देवि प्रणमामि हरिप्रिये॥*
*वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
*जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥*
सर्वप्रथम गुरु महाराज तथा सभी भक्तों के श्री चरणों में सादर दंडवत प्रणाम तो हरिनाम चिंतामणि के अंतर्गत हम लोगों ने प्रथम अध्याय प्रारंभ किया था तत्पश्चात यहां चैतन्य महाप्रभु ने सिद्ध बकुल में हरिदास ठाकुर से जीवों के उद्धार के विषय में पूछते हैं और वहां पर हरिदास ठाकुर ने जो उत्तर प्रारंभ किया उसी को आगे आज हम करेंगे श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित मंगलाचरण से हम इसकी शुरुआत करेंगे।
*गदाइ गौरांग जय जान्हवा-जीवन। सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तगण ||१||*
हरिनाम चिंतामणि
गदाई गौरांग जहँवा जीवन सीता अद्वैतआचार्य एवं श्रीवास ठाकुर आदि भक्तगण श्री गदाधर पंडित चैतन्य महाप्रभु की जय हो ! इस प्रथम अध्याय के अंतर्गत श्री चैतन्य महाप्रभु का प्रश्न था
*एक दिन भगवान्, समुद्रे करिया स्नान, श्री सिद्ध-बकले हरिदासे | मिलि'आनन्दित मने, जिज्ञासिला सयतने, किसे जीव तरे अनायासे ||६||* हरिनाम् चिंतामणि
किसे जीव तरे अनायासे किस प्रकार से जीव को तारा जाए तो अब इस प्रश्न के उत्तर में श्री हरिदास ठाकुर ने अपने दैन्य का प्रकाशन किया और फिर कृष्ण तत्व को समझाना प्रारंभ किया यह थोड़ा सा हमने पढ़ा था इसमें श्री हरिदास ठाकुर और चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रभुपाद के जो भाव हैं उसको समझने का प्रयास करेंगे, सर्वप्रथम यहां प्रश्न है कैसे जीवों का उद्धार हो ? हरिदास ठाकुर ने इसका उत्तर प्रकाशन किया है कुछ तत्व को समझाते हुए (कृष्ण तत्व को समझाते हुए) किस तरह से कृष्ण परम स्वतंत्र हैं और कृष्ण की असंख्य शक्तियां हैं जिन शक्तियों को विभाजित किया गया है 3 में
*एक मात्र इच्छामय कृष्ण सर्वेश्वर । नित्य शक्तियोगे कृष्ण विभु परत्पर ||* १२||
*कृष्ण-कृष्णशक्ति कृष्णशक्ति कृष्ण हइते राग सुँन्दर । जेइ शक्ति, सेइ कृष्ण-वार गोचर ||* १६||
*कृष्ण विभु, शक्ति-तार अनन्त वैभवे कृष्ण हय*
हरिनाम चिंतामणि
तो सर्वप्रथम हमने चित्त के विषय में जो चर्चा की उसी को हम आगे पुनः समझने का प्रयास करेंगे।
*चिद वैभव - अनन्त वैकुण्ठ आदि यत कृष्णधाम | गोविन्द श्रीकृष्ण हरि आदि यत् नाम ||* १७||
*द्विभुज-मुरलीधर आदि यत रूप | भक्तानन्दप्रद आदि गुण अपरूप ||* १८||
*व्रजे रासलीला, नवद्वीपे संकीर्तन। एड्रूपे कृष्णलीला विचित्र गणन ||* १९||
*ए समस्त चिद् वैभव अप्राकृत हय । आसिया ओ ए प्रपंचे प्रापंचिक नय ||* २०||
हरिनाम चिंतामणि
तो यहां पर धाम, नाम, रूप, गुण, लीला हाईलाइट किया हुआ है यदि आप यहां पर देखेंगे इसको पूरा हम समझ सकते हैं तो प्रथम पंक्ति में धाम के विषय में, दूसरे में नाम के विषय में, तीसरी पंक्ति में रूप के विषय में, चौथी पंक्ति में उनके गुण के विषय में और पांचवी में लीला और अंत में कहा गया है यहां पर यह सब कुछ जितना भी है श्री कृष्ण का धाम नाम रूप और गुण लीला यह सभी अप्राकृतिक वैभव है। भले ही इस प्रापंचिक में भौतिक जगत में हो किंतु यह कभी भी इस भौतिक जगत में नहीं रहते इसी को आगे कहते हैं।
*चिद् वैभव चिद् व्यापार समुदय विष्णू-तत्व-सार। विष्णुपद बलि' वेदे गाय बार बार ||* २१||
हरिनाम् चिंतामणि
यह जो चित् यह जो आध्यात्मिक समूह है इसी को विष्णु तत्व कहा जाता है और वेदों के द्वारा विष्णुपाद यह शब्द भी कहा गया है। तो कई बार हम यह सुनते हैं परम पद प्राप्त हुआ, विष्णुपद प्राप्त हुआ, परम पद का मतलब यह नाम रूप गुण लीला यह सभी विष्णुपद के अंतर्गत आते हैं। आगे हरिदास ठाकुर कह रहे हैं श्रीकृष्ण की चिद् विभूति ही शुद्ध विष्णु तत्व है और शुद्धसत्व में स्थित है।
*नहि ताहे जड धर्म मायार विकार || जडातीत विष्णुतत्व शुद्धसत्व सार ||* २२।।
*शुद्धसत्व रजस्तमो गन्ध विरहित ।। रजस्तमोमिश्र मिश्रसत्व सुविदित ||* २३|| हरिनाम् चिंतामणि
जड़ धर्म मतलब भौतिक प्राकृतिक जो जगत है, जो दुख आलयम है, अशास्वतं है, यह सभी दोष तीनों गुणो, यह नाम रूप लीला गुण में नहीं आते हैं इसीलिए उनको विशुद्ध सत्व कहा गया है क्योंकि इसमें रजोगुण और तमोगुण का गंध नहीं रहता। रजोगुण और तमोगुण का जब मिक्स हो जाता है तो उसको मिश्रित तत्व कहते हैं यहां तक कि हम चर्चा सुन चुके हैं यहां पर अंतिम जो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर का तात्पर्य था जो आप पीले रंग में हाईलाइट किए हुए देख रहे हैं
*गोलोके, वैकुंठे आर कारण सागरे।अथवा ए जडे थाके, विष्णु नाम धरे* *२६||
*प्रवेशि ए जड विश्वे मायार अधीश।। विष्णुनामे प्राप्त विभु सर्वदेव-ईश ||* २७ ।।
*मायार ईश्वर मायी शुद्धसत्वमय । एइ प्रापंचिक जगते चिद् वैभव अवतीर्ण हइयाओ प्रापंचिक हथ ला।।*
*चिद् वैभवेइ थाळे । इहा अचिन्त्य शक्तिर परिचय, चिद् शुद्ध सत्व ।।*
*मिश्रसत्व मिश्रसत्व ब्रम्हा शिव आदि सब हय ||* २८||
हरिनाम् चिंतामणि
प्रापंचिक जगत में यह जो चित् चिन्मय है आध्यात्मिक जगत में अवतीर्ण होता है। प्रापंचिका अर्थात भौतिक नहीं है यह उनका चिन्मय स्वभाव है वह सदैव बना रहता है। यह अचिंत्य शक्ति जो भगवान की है उसका परिचय हरिदास ठाकुर यहां पर दे रहे हैं। श्री चैतन्य शिक्षा अष्टकम में जो 8 श्लोक हैं उसकी व्याख्या जो है श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा की गई है भिन्न भिन्न स्थानों पर संबोधन है। वहां पर भी एक विशेष बात को बताया गया है, अधिकांश भक्तों का अनुभव है कि हम बहुत कुछ नाम जप करते हैं और बहुत अधिक नाम के विषय में सुनते भी हैं कितने भक्त कहते हैं कि नाम जप की महिमा को कहा जाता है अनुभव यह है कि व्यावहारिक कितना भी आप नाम विषय के बारे में सुन ले, जब नाम जप करते हैं तो उस समय नाम जप में मन को स्थिर करना बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि जिस प्रकार से किसी भी इमारत की शुरुआत होती है, जब तक नींव मजबूत ना हो तब तक कितना भी प्रयास क्यों ना किया जाए। इमारत खड़ी नहीं हो सकती वैसे ही नाम ग्रहण जो यह विचार किया जा रहा है जो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा हरिनाम चिंतामणि में, नाम ग्रहण करने की नींव ही गलत हो तो प्रयास कितना भी किया जाए, कितने भी सिद्धांतों की चर्चा की जाए किंतु नाम में मन स्थिर नहीं होता। तो कौन सा सबसे प्रमुख नियम है शिक्षा अष्टम के प्रथम श्लोक की व्याख्या में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने इस बात को बतलाया है की नाम जप जब आप प्रारंभ करते हैं तो नाम जप आपका ठीक से कैसे होगा , जब आप इस सिद्धांत को भलीभांति समझ जाएं , नाम रूप गुण है यह भगवान का चिन्ह तत्व है, चिन्मय तत्व है इसी को यदि अन्य शब्दों में कहा जाए तो चिंतामणि में एक अन्य स्थान पर इस बात को बताया गया है नाम नामी एक तत्व है।
*जबे नाम रूपे ऐक्य हयत साधने । नाम लइते रूप आइसे चित्ते सर्वक्षणे ।।*
अर्थ - इस अभ्यास द्वारा जब व्यक्ति देखता है कि भगवान् कृष्ण नाम व रूप एकसमान हैं, प्रत्येक क्षण भगवान् कृष्ण का रूप व्यक्ति के हृदय में भगवान् के नाम में दृष्टिगोचर होता है।
हरिनाम् चिंतामणि
हम जानते हैं दिव्यता परंतु भगवान का नाम रूप गुण लीला यह भी दिव्य है और भगवान के समान ही भगवान के जैसे ही हैं। यह बात जब तक नहीं समझ में आएगी अर्थात सरल शब्दों में कहा जाए तो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं जब आप नाम जप करने बैठते हैं नाम जप की शुरुआत कैसे की जाए यह प्रश्न पूछते हैं, सदैव भक्त पूछते हैं हरि नाम चेक करते हैं। हम जब हरि नाम जप करते हैं तो कैसे जप किया जाए कि हमारा हरि नाम जप अच्छा हो, सबसे पहले यह धारणा को अच्छी तरह समझ कर स्वीकार करना कि भगवान का नाम और भगवान अभिन्न है। हम सदैव गुरु महाराज के मुख से श्रील प्रभुपाद जी के मुख से शब्दों में पुनः पुनः इस बात को सुनते रहते हैं नाम और नामी अभिन्न है। यहां पर श्रील हरिदास ठाकुर ने बहुत अधिक जोर दिया हम जब नाम जप करते हैं तब यह धारणा अच्छी तरह से कन्वेंस होनी चाहिए कि साक्षात भगवान यही है। आध्यात्मिक जगत से जैसे श्रील प्रभुपाद कहते हैं
*गोलोकेर प्रेम-धन, हरि-नाम-संकीर्तन, रतिनजन्ममिलोकेने तेसंसार-बिशानेले, दीबा-निसिहिया नकोइनु , उपय*
अर्थ - गोलोक वृंदावन में दिव्य प्रेम का खजाना भगवान हरि के पवित्र नामों के सामूहिक जप के रूप में उतरा है। उस नाम जप के प्रति मेरा आकर्षण कभी क्यों नहीं आया ? दिन-रात मेरा हृदय सांसारिकता के विष की आग से जलता रहताहै और मैंने इसे दूर करने का कोई उपाय नहीं किया है।
उसके अर्थ में श्रील प्रभुपाद कहते हैं स्वयं भगवान इस नाम के रूप में इस जगत में अवतरित हुए हैं।
*नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:| पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोसभिन्नत्वं नाम नामिनो:||*
अनुवाद- 'कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंदमय है। यह सभी आध्यात्मिक आशीर्वाद प्रदान करता है, क्योंकि यह स्वयं कृष्ण हैं, सभी सुखों के भंडार हैं। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य मधुरों का रूप है। यह किसी भी परिस्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से कम शक्तिशाली नहीं है। चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से दूषित नहीं है, इसलिए इसके माया के साथ शामिल होने का कोई सवाल ही नहीं है। कृष्ण का नाम हमेशा मुक्त और आध्यात्मिक है; यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा वातानुकूलित नहीं होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृष्ण और कृष्ण के नाम स्वयं समान हैं।'
यह बात अच्छी तरह से समझ लीजिए जो नाम से जीभ से उच्चारित किया जाये वो साक्षात स्वयं श्रीकृष्ण हैं और साथ में 10 नाम अपराध छाड़ि निर्जन बसिया तो निर्जन का मतलब यह नहीं है कि आप एकांत में जाकर के बस जाएंगे । निर्जन का अर्थ वास्तविक भक्तगण हैं अर्थात भगवत भक्त उनके साथ, एक तात्पर्य में बताया जा रहा है 10 अपराधों को छोड़कर एकांत स्थान , एकांत का अर्थ होता है एक जहां पर हो सभी का एक ही धेय बन जाता है ऐसे सम विचार वाले जो भक्त हैं उन सब के साथ बैठकर जब नाम जप किया जाता है। तो परिणाम क्या होगा यदि आप इस बात को अच्छी तरह से समझ लेंगे कि नाम और नामी एक ही है। नाम साक्षात भगवान है इस धारणा के साथ जैसे ही आप नाम जप प्रारंभ करेंगे अपराधो को छोड़ते हुए, उसका परिणाम क्या होगा। आगे कहते हैं हरिदास ठाकुर
*अति अल्पदिने नाम लइया सदय । श्री श्यामसुन्दर रूपे हयेन उदय ||*
यहां पर अल्प दिन शब्द है (मुझे जहां तक स्मरण है शायद श्रीमान सच्चिदानंद प्रभु के मुख से यह सुना है कि भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा अल्प दिन कहा मतलब बहुत ही कम समय में) यदि आप सिद्धांत को पूरी तरह से समझ लेते हैं और नाम जप करते हुए सदैव ध्यान रखते हैं, श्रीकृष्ण हैं साक्षात श्रीकृष्ण हरे कृष्ण महामंत्र करते समय स्वयं भगवान है यह बात यदि हम समझ जाएं तो नाम बहुत बहुत प्रभावशाली होता है। नाम बहुत अधिक दयालु हो जाता है और क्या करता है नाम रूप को प्रकाशित करता है।
श्रीश्याम सुंदर रुपए उदय जैसे ही आप श्रीकृष्ण के नाम पर उच्चारण करेंगे वैसे ही श्रीकृष्ण का रूप भी इस प्रकार से जैसे श्री श्री राधा पंढरीनाथ या श्री श्री राधा श्यामसुंदर का दर्शन करते हैं परंतु जब कपाट बंद हो जाते हैं तब हम भगवान का दर्शन नहीं कर पाते परंतु नाम जप को इस तरह से लिया जाता है नाम और नामी अभिन्नत्वम को समझ कर तब नाम रूप को प्रकाशित करता है बहुत ही कम समय में और आगे क्या होगा कहते हैं।
*जबे नाम रूपे ऐक्य हयत साधने । नाम लइते रूप आइसे चित्ते सर्वक्षणे ।।* हरिनाम् चिंतामणि
अनुवाद- इस अभ्यास द्वारा जब व्यक्ति देखता है कि भगवान् कृष्ण नाम व रूप एकसमान हैं, तो प्रत्येक क्षण भगवान् कृष्ण का रूप व्यक्ति के हृदय में भगवान् के नाम में दृष्टिगोचर होता है।
मैंने कुछ कुछ उसका अनुवाद भी किया है, पयार का अभ्यास द्वारा जो व्यक्ति देखता है कि भगवान कृष्ण का नाम और रूप एक समान है तो प्रत्येक क्षण भगवान का रूप भगवान के नाम के साथ व्यक्ति के हृदय में दृष्टिगोचर होता है। यह हरिदास ठाकुर स्वयं अपना अनुभव बता रहे हैं हम आंखें बंद कर ले तो जैसे कृष्ण ने कहा तो क्या होता है तो साधारण तौर पर एक अंधकार बस दिखाई देता है, मैं आपसे कुछ नहीं कह रहा हूं आप सभी इस वक्त गुरु महाराज के सानिध्य में जप कर रहे हैं सर्वसाधारण अनुभव है कि नाम से रूप प्रकट नहीं होता क्योंकि मूल् जो धारणाएं हुई भी हैं वह हम अच्छी तरह से बैठा भी नहीं पाए कि नाम स्वयं भगवान हैं। उस तरह से यदि हम लेंगे तो सभी क्षण जैसे आपने राधा श्यामसुंदर कहा तो सहज स्वाभाविक राधा श्यामसुंदर का रूप प्रकट हो जाएगा, राधारमण कहा तो राधारमण का रूप प्रकाशित होगा, राधा माधव कहेंगे राधा माधव का रूप प्रकाशित होगा इस तरह से नाम जप करने से नाम से रूप प्रकाशित हो गया आगे क्या कहते हैं।
*तार किछु दिने रूपे गुण करि योग ।श्रीनाम-स्मरणे गुण करये सम्भोग ।। स्वल्पदिने नाम, रूप, गुण एक हय । नाम लैते सर्वक्षण तिनेर उदय ||*
हरिनाम् चिंतामणि
और कुछ दिन तक ऐसे ही नाम जप करें नाम जप के साथ आपको रूप दर्शन हो रहा है रूप का प्रभाव स्वभाविक हो रहा है। हृदय में श्री कृष्ण के गुण प्रकाशित होने लगते हैं ह्रदय में आप नाम जप कर रहे हैं और श्रीकृष्ण के गुण भक्तवत्सल दयालुता श्रीकृष्ण का माधुर्य अलग अलग जो कृष्ण के गुण हैं वह नाम के साथ में सहज स्वाभाविक आने लगते हैं। , इसके बाद बताता हूं कुछ ही दिनों में क्या होगा नाम रूप गुण तीनों एक हो जाएंगे जैसे कि आप नाम जप कर रहे हैं तो नाम के साथ में ही तीनों उदित हो रहे हैं, नाम भी आ रहा है, गुण भी आ रहा है, रूप भी आ रहा है, पर आप ध्यान रखिए नीव को मत भूलिए आधार था कि नाम की दिव्यता और नाम अभिन्न है यह बात जब हमें समझ में आ जाती है कि हम जब नाम जप कर रहे हैं तो यह कोई साधारण सांसारिक प्राकृत अक्षर नहीं है, शब्द नहीं है इसके माध्यम से स्वयं भगवान अवतरित हुए चैतन्य महाप्रभु की इस धारणा से आप जब नाम जप करते हैं तब नाम जप मैं जो भी कठिनाई है तुरंत नष्ट होने लगेगी। ऐसा व्यवहारिक रूप से कुछ जपा रिट्रीट में जब मैंने सुना, उसमें उन्होंने इस बात को बताया था और इस तरह से करते हैं
नाम से रूप, गुण और लीला का प्रकाश
*नाम करे अविरत भक्त महाशय । कृपा करि' रूप-गुण-लीलार उदय ।।।*
अनुवाद- जब भक्त पवित्र भगवन्नाम का अविरत सतत जप करता है तो कृपावश भगवान् का रूप, गुण तथा लीलाएँ उसके समक्ष प्रकट हो जाती है।
श्री हरिनाम चिंतामणि, भजन प्रणाली
हरिनाम् चिंतामणि
उसका परिणाम क्या होगा भक्त तत्पर हो जाता है और अधिक नाम जप करने के लिए अविरत निरंतर अखंडित जिसको श्रीचैतन्य महाप्रभु कहते हैं की कीर्तनीय सदा हरी ऐसा हो नाम जप, आप जब नाम जप करते हैं। कभी प्रश्न उठता है कि प्रभु जी नाम जप अच्छा हो रहा है, यह कैसे पता चले? उसका एक मापदंड यह भी दिया जाता है कि आपका जब नाम जप हो जाए आप जो निर्धारित संख्या पर नाम जप करते हैं, 16 माला करते हैं जितनी भी नाम संख्या करते हैं वह नाम जप हो जाता है। माला के ऊपर उसके पश्चात भी आपकी जीभ नाम जप का उच्चारण करती रहे तब समझना चाहिए नाम जप अच्छा हुआ। जिसको श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि दा सिक्सटीन ऑन बीट्स एंड अनलिमिटेड ऑफबीट या अन्यथा कहा जाता है निश्चित संख्या का प्रयोजन क्या है? संख्या इसलिए दी जाती है कि संख्या से अंततः आप निरंतर उस नाम जप के लिए प्रवृत्त हो सके ऐसा जब नाम जप करेंगे तब देखो नाम जप, ऐसा नाम जप कब होगा, विश्वनाथ हरिदास ठाकुर पद्धति से देखा जाए तो नाम रूप गुण का अनुभव हो रहा है कि एक तो सहज स्वाभाविक आपका निरंतर नाम होने लगेगा ऐसे में परिणाम क्या होगा।
*नाम से रूप, गुण और लीला का प्रकाश नाम करे अविरत भक्त महाशय । कृपा करि' रूप-गुण-लीलार उदय ।।*
श्री हरिनाम चिंतामणि, भजन प्रणाली
अनुवाद- जब भक्त पवित्र भगवन्नाम का अविरत सतत जप करता है तो कृपावश भगवान् का रूप, गुण तथा लीलाएँ उसके समक्ष प्रकट हो जाती है।
भगवान अत्यंत दयालु हो जाते हैं भगवान लीलाओं को भी प्रकाशित कर देते हैं। यहां पर मुझे स्मरण हो रहा है कि श्रील प्रभुपाद का प्रसिद्ध वाक्य, भक्तों ने एक प्रश्न पूछा कि प्रभुपाद जी जब हम नाम जप करते हैं, तब क्या हमें श्रीकृष्ण की लीलाओं का स्मरण करना चाहिए ? श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि कृपया कृत्रिम रूप से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है सहज स्वाभाविक लीलाएं जब प्रकट होने लगती है। जब नामजप को अच्छी तरीके से किया जाता है जब आप कृष्ण की लीलाओं को जैसे कि हम गुरु महाराज जी के मुख से कथा श्रवण करते रहते हैं। उन कथाओं को जब हम सुनेंगे, नाम जब भलीभांति उतरेगा तो वही हमको सब स्मरण होने लगता है। इसी के विषय में श्रील प्रभुपाद लिखते हैं इस भौतिक जगत में पानी शब्द का, यह दोनों भिन्न है। प्यास लगने पर यह यदि मैं मात्र पानी पानी शब्द पुकारू तो मेरी प्यास नहीं बुझेगी मुझे वास्तविक रूप में पानी की आवश्यकता है, यह भौतिक चेतना का स्वभाव है परंतु आध्यात्मिक जगत तथा आध्यात्मिक चेतना में नाम एवं नामी अभिन्न है।
उदाहरण के लिए श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि हम हरे कृष्ण का कीर्तन कर रहे हैं यदि कृष्ण इस हरे कृष्ण कीर्तन से भिन्न होते तब हम किस प्रकार हरि नाम कीर्तन से संतुष्ट हो जाते। प्रभुपाद कह रहे हैं कि हम कीर्तन करते हैं जैसे कि प्रभुपाद ने कहा व्हाट इज द रिजल्ट ऑफ चैटिंग? आप कीर्तन करते हैं तो आपको और अधिक प्रेरणा मिलती है और अधिक नाम जप करने का यही प्रमाण है। कई बार भक्त बोलते हैं इतना नाम जप कर रहे हैं लेकिन कुछ रिजल्ट मिल नहीं रहा है। एक शिष्य अपने गुरु के पास गया और उसने कहा कि गुरु महाराज आप ने कहा तो , कृष्ण का इतना नाम जप किया कुछ भी अनुभव नहीं हुआ इसका अर्थ है कि वास्तविकता में मंत्र काम नहीं कर रहा। गुरु महाराज ने कहा कि ठीक है अगर यह मंत्र काम नहीं कर रहा तो ऐसा करते हैं कि कुछ दूसरी विधि बताते हैं केवल एक काम करना कि तुम्हें जो यह मंत्र दिया गया है । मान लीजिए जैसे कि यह हरे कृष्ण महामंत्र दिया गया है और यह हरे कृष्ण महामंत्र काम नहीं कर रहा तो क्या करो , 24 घंटे तक बिल्कुल इस हरे कृष्ण महामंत्र को ना तो स्मरण करो और ना ही उच्चारण करना तुम्हारे ध्यान में यह मंत्र बिल्कुल भी नहीं आना चाहिए और बिल्कुल भी इस मंत्र को बोलना नहीं है अब जैसे ही गुरु ने कहा शिष्य प्रणाम करके उठने लगा उसके मन में वह महामंत्र हुआ कि मुझे यह महामंत्र याद नहीं रखना है।
मुझे यह महामंत्र को बोलना नहीं है तो महामंत्र और अधिक याद आने लगा और फिर वह बार-बार विचार करने लगा और बाहर निकलने लगा तो और अधिक वह मंत्र उसको स्मरण होने लगा और मंत्र जप के लिए और इच्छा होने लगी उसकी और वह कुछ क्षणों में अपने गुरु के पास आ कर प्रणाम करता है। कहा की यह तो बहुत कठिन लग रहा है मुझे नाम जप को मैं पूरी तरीके से भूल जाऊं तब गुरु महाराज ने कहा वास्तव में यही तो फल है कि आप नाम जप कर रहे हैं और इसका परिणाम क्या है। नाम जप निरंतर चल रहा है यह अपने आप में बहुत बड़ा परिणाम है जैसे एक साधारण नाम जैसे श्रील प्रभुपाद बात कह रहे हैं कि श्रीमान जॉन तीन बार पुकारने के बाद आप थक जाएंगे किंतु यह हरे कृष्ण महामंत्र आप यदि 24 घंटे भी करते हैं आप थकेंगे नहीं, यह परम सत्य दिव्य सत्य स्वभाव है या व्यवहारिक है। कोई भी इसका अनुभव कर सकता है, शुरू में श्री चैतन्य महाप्रभु के शब्दों में कहा जाए तो यह बात सभी भक्त लोग जानते हैं परंतु श्रील प्रभुपाद इसका अनुवाद जिस प्रकार से लिखे हैं बहुत ही महत्वपूर्ण है।
*कलि-काले नाम-रूपे कृष्ण-अवतार । नाम हैते हय सर्व-जगत्निस्तार ।।*
हरिनाम् चिंतामणि
अनुवाद- इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामंत्र भगवान् कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है | जो कोई भी ऐसा करता है, उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है।
कलयुग में नामरूप में कृष्ण अवतरित हुए और नाम को लेने से हे सर्व जगत निस्तार सभी जीवो का उद्धार होता है और अब अनुवाद देखिए मैंने अलग से हटाकर अलग से हाईलाइट भी किया है। प्रभुपाद ने अनुवाद में एडिशनल पॉइंट बताएं हैं इस कलयुग में भगवान के पवित्र नाम अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र भगवान श्री कृष्ण का अवतार है और अब प्रभुपाद क्या लिख रहे है देखिए केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य, भगवान की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है। श्रील प्रभुपाद के अनुवाद की विशेषताएं अगर कोई अपनी बुद्धि से समझने का प्रयास करें तो यह बात वह मिस कर जाएगा जो प्रभुपाद के अनुवाद में भी लिखी है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है जो कोई भी ऐसा करता है उसका निश्चित रूप से उद्धार होता है। प्रभुपाद मुंबई मे प्रवचन दे रहे थे वहां पर श्रील प्रभुपाद बहुत सुंदर बात कहते हैं। हरे कृष्ण जब मैं और श्रीकृष्ण को अपनी आंखों, अपने सामने देखने मैं कोई भी अंतर नहीं है केवल व्यक्ति को इसको अनुभव करना होता है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ग्रंथ में भी मैं शायद यहां रिफरेंस नहीं ले पाया उसमें भी श्रील प्रभुपाद ने जहां तक मुझे स्मरण है अध्याय 90 मैं इस बात को बताया गया है, प्रभुपाद जी कह रहे थे कि आप जो यह हरे कृष्ण महामंत्र है यह हरे कृष्ण राम इन शब्दों पर मन को स्थिर करके और आध्यात्मिक जगत में ब्रह्म परमधाम जिसे कहा गया है। उस परम धाम गोलोक वृंदावन में साक्षात राधा कृष्ण निकुंज में नित्य विहार करते हैं।
राधा कृष्ण का साक्षात दर्शन करना और हरे कृष्ण महामंत्र के अक्षरों में ध्यान को केंद्रित करना एक समान है प्रभुपाद कहते हैं वहां पर तो चैतन्य चरितामृतम में इन्हीं शब्दों को समझाया है आपने तात्पर्य में श्री चैतन्य महाप्रभु , जब कुलीन ग्राम के भक्त आए थे जहां पर चैतन्य महाप्रभु ने कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम का वर्णन किया, किसे कहा है जिसके मुख से एक बार भी कृष्ण का नाम निकलता है तो उसे पूज्य कहा गया है और वह सर्वोच्च माना गया है। इस तात्पर्य में प्रभुपाद बहुत अच्छी बहुत सुंदर बात कहते हैं मनुष्य को कृष्ण के पवित्र नाम को, नाम की दिव्यता के स्वरूप, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के साथ एक रूप में स्वीकार करना चाहिए कि भगवान का नाम दिव्य है और भगवान के समान है। यह बात स्वीकार करनी चाहिए, यह स्वीकार करने से क्या होगा प्रभुपाद क्या कहते हैं जैसे कि पद्म पुराण में कहा गया है कि, वह यहां पर हैं
*नाम चिन्तामणि: कृष्ण: चैतन्य रस-विग्रहः। पूर्ण: शुद्धो नित्य-मुक्त: अभिन्नत्वात्-नाम-नामिनो ।।* चैतन्य चरितामृत.मध्य.१७.१३३
हरिनाम् चिंतामणि
इस तरह मनुष्य को समझना चाहिए कि कृष्ण नाम या स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं। ऐसी श्रद्धा के साथ मनुष्य को नाम कीर्तन करते रहना होगा मतलब कि इस श्रद्धा के साथ नाम और नामी अभिन्न है। इसी के साथ में नाम कीर्तन को प्रारंभ करना होगा, कोई भी यह जो मानता है क्या मानता है कि भगवान का नाम भगवान से अभिन्न है। प्रभुपाद क्या कह रहे हैं वह शुद्ध भक्त है, एक बार हम बहुत बड़ी चर्चा कर रहे थे की प्रभुपाद के शुद्ध भक्तों कैसा होना चाहिए ? तो श्रील प्रभुपाद ने इतनी सरल परिभाषा दी है इस बात को आप कलयुग में समझ लीजिए नाम और नामी अभिन्न है भले ही वह कनिष्ठ अवस्था में क्यों ना हो उसे शुद्ध भक्तों की गणना में लिया गया है आगे कहते हैं कि अतएव *कृष्णेर 'नाम','देह', 'विलास'।
प्राकृतेन्द्रिय-ग्राहा नहे, हय स्व-प्रकाश॥* चैतन्य चरितामृत, मध्य १७.१३४ हरिनाम् चिंतामणि
भगवान् कृष्ण का पवित्र नाम, उनका शरीर तथा उनकी लीलाएँ इन कुंठित भौतिक इन्द्रियों द्वारा नही जाने जा सकते । वे स्वतन्त्र रूप से प्रकट होते हैं।
यहां पर कहा है कि नाम विग्रह मतलब अर्चा विग्रह राधा पंढरीनाथ और उनका स्वरूप मतलब जो भगवान विग्रह रूप में भी हैं और सच्चिदानंद रूप में भी आध्यात्मिक जगत में तो एक अर्चा अवतार है , एक नाम अवतार है और यह आध्यात्मिक जगत में भगवान का रूप है यह तीनों एक हैं इनमें कोई अंतर नहीं है क्योंकि यह सभी परिपूर्ण है, परम पूर्ण हैं अतः सच्चिदानंद स्वरूप अर्थात दिव्य रूप से आनंद में है। देह के अंदर जो रहता है उसे देही कहते हैं। देह और देहि में अंतर मतलब देह कौन है? भगवान श्री कृष्ण अर्चना विग्रह स्वरूप हैं देही का अर्थ है आध्यात्मिक भगवान। श्रीकृष्ण है अर्चा रूप और स्वरूप एक है और वैसे ही नाम और नामी यह भी एक है।
*अत: श्रीकृष्ण-नामादि न भवेद्-ग्राहामिन्द्रियैः । सेवोन्मुरवे हि जिव्हादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ।।* १३६।। चैतन्य चरितामृत.मध्य. १७.१३६
हरिनाम् चिंतामणि
आध्यात्मिक जगत में इस जगत में जीव में क्या अंतर है जीव का नाम और देह यह सब भिन्न होता है परंतु भगवान के विषय में यह भिन्नता नहीं रहती। श्रील प्रभुपाद अपने तात्पर्य में बता रहे हैं कृष्ण का नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न है बस जीव का शरीर उसकी आत्मा से भिन्न है. उसका नाम उसके शरीर से भिन्न है। प्रभुपाद जी ने वही शब्द उदाहरण दिया है, यहां पर किसी का नाम जॉन हो सकता है और हम जॉन कहकर पुकारे तो हो सकता है कि वह वहां पर कभी भी प्रकट ना हो सके किंतु लेकिन हम श्रीकृष्ण के नाम का पवित्र उच्चारण करते हैं तो तुरंत हमारी जीव पर प्रकट होते हैं श्रील प्रभुपाद के तात्पर्य में बहुत क्लियर कर दिया है इस बात को पद्म पुराण में कृष्ण ने कहा है
यत्र गायन्ति मद् भक्ता, तन्त्र तिष्ठामि नारद' - हे। हरिनाम् चिंतामणि
चैतन्य चरितामृत.मध्य.१५.१३२ तात्पर्य ... पद्म पुराण में कृष्ण ने कहा है,
अनुवाद - नारद, जहाँ कही भी मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते रहते हैं, वहाँ मै उपस्थित रहता हूँ।' जब भक्तगण कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं, कृष्ण तुरन्त वहाँ उपस्थित हो जाते हैं।
हे नारद जहां पर भी मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन करते हैं वहां मैं उपस्थित रहता हूं। जब भक्तगण श्री कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं तो कृष्ण तुरंत वहां उपस्थित हो जाते हैं। वहां पर दिया गया है।
*नाम चिन्तामणि: कृष्ण: चैतन्य रस-विग्रहः। पूर्ण: शुद्धो नित्य-मुक्त: अभिन्नत्वात्-नाम-नामिनो।।*
कृष्णदास कवि राज गोस्वामी बताते हैं कृष्ण का नाम श्रीकृष्ण का स्वरूप और श्रीकृष्ण की लीलाएं कोई भी प्राकृत नहीं है और प्राकृत इंद्रियों के द्वारा उनका अनुभव नहीं किया जा सकता, वह स्वयं प्रकाशित होते हैं। यहां पर हरिदास ठाकुर ने प्रारंभ किया है नाम रूप गुण लीला धाम की दिव्यता प्रपंच यह शब्द कि मैं यहां पर थोड़ी सी चर्चा कर रहा हूं कृष्ण का नाम, कृष्ण की लीला, श्रीकृष्ण के रूप स्वरूप, श्रीकृष्ण के समान ही हैं, आध्यात्मिक है और आनंद में है। श्रीकृष्ण का नाम रूप लीला आदि को इन इंद्रियों के द्वारा हम अनुभव नहीं कर पाते परंतु इनकी जो सेवा की जाती है।
*अत: श्रीकृष्ण-नामादि न भवेद्-ग्राहामिन्द्रियैः ।
सेवोन्मुरवे हि जिव्हादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ।।* १३६।। चैतन्य चरितामृत.मध्य. १७.१३६
हरिनाम् चिंतामणि
सेवोन्मुरवे हि जिव्हादौ जीभ के द्वारा इस नाम की सेवा को प्रारंभ किया जाता है स्वयं नाम अपने आप को प्रकाशित करता है। इन भिन्न-भिन्न रूपों में यहां तक हम जो जिस तत्व को कह रहे थे, चित्त वैभव तो यहां तक समझाया गया है किस तरह से मतलब हम भगवान का नाम रूप गुण लीला के संपर्क में जब आते हैं मतलब जब हम भगवान का अर्चा विग्रह रूप में दर्शन करते हैं भगवान का नाम उच्चारण करते हैं यह सदैव अध्यात्मिक है। दिव्य है इस धारणा को ध्यान में रखते हुए हमें उनके साथ व्यवहार करना चाहिए। मतलब उस तरह से नाम जप करना चाहिए उसी तरह से विग्रह की सेवा करनी चाहिए। यह प्रथम सिद्धांत में आपको बतलाया है और फिर यह सिद्धांत को मैं अचिद् वैभव में हमने सुना था इसकी अधिक व्याख्या मैं नहीं करूंगा तो 14 लोक जो पंचमहाभूत मन बुद्धि अहंकार आदि के साथ जो बने हुए हैं उसको अचिद् वैभव कहा गया है।
*अचिद् वैभव माया तत्व ए भूर्लोक, भूवल्र्लोक आर स्वर्गलोक।। महर्लोक, जन-तप:-सत्य-ब्रम्हलोक ॥* ३२।।
*अतल-सुतल-आदि निम्नलोक सात । मायिक वैभव तव शुन जगन्नाथ ||* ३३||
*चिदवैभव पूर्णतत्व, माया छाया तार। जीव वैभव चिदनुस्वरूप जीव-वैभव प्रकार ||* ३४|
यहां पर समस्त 14 लोको को अचिद् वैभव कहा गया है । अचिद्वै भव माया छाया तो यहां पर अचिद् वैभव या माया तत्व कहा गया है। इस तरह से इन दो की चर्चा करके फिर जीव के विषय में बताया गया है। अब हम जीव तत्व को अगले सत्र में लेंगे ,जीव स्वरूप भगवान जैसे चिन्मय हैं। जीव भी आध्यात्मिक जगत में वह भी अध्यात्मिक है यह हरि नाम चिंतामणि में जीव गोस्वामी ने इस बात को बताया है कि इस भौतिक जगत में दो ही चीज जिनमें शाश्वत है कौन सी, वह कहते हैं कि नाम और जीव को छोड़कर कोई भी अन्य वस्तु इस संसार में, इस बात के साथ हम विराम देंगे समय हो चुका है और फिर अब जीव के विषय में, बद्ध जीव , मुक्त जीव और कैसे वह यह बहुत महत्वपूर्ण एक विषय है। कौन सा एक वायरस है जिस वायरस के कारण बद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। उस वायरस को या विषय जब हम समझ जाएंगे तब शायद हम मुक्त होने का प्रयास कर सकते हैं उसकी चर्चा हम अगले सत्र में करेंगे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*