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जप चर्चा 15 मार्च 2022 श्रीमान अमरेंद्र प्रभुजी हरे कृष्णा धन्यवाद पद्ममाली प्रभु परम पूज्यपाद श्री लोकनाथ महाराज के चरण कमलों मे मैं दंडवत अर्पित करता हूँ, सभी वैष्णव वैष्णवी वृंद को पूर्ण रूप से नतमस्तक होकर उनके चरणों को स्पर्श करके कृपा याचना की भीख मांगता हूँ | आज जैसा की प्रभु जी कह रहे थे कि महाराज जी कथा करने वाले थे, पर उनकी आदेशानुसार सेवा के लिए मैं यहाँ उपस्थित हूँ | आप सब से मैं यही अनुरोध करूंगा कि आप कृपा करके प्रार्थना करें, मुझे आशीर्वाद प्रदान करें ताकि सही समय पर सही शब्दों के प्रयोग से सही भाव से भगवान की स्तुति हो सके, हम सबकी कर्म इंद्रियों को संतुष्टि प्रदान हो, हमारे अंतः करण का शुद्धिकरण हो, प्रभु के चरणों मे हमारा मन लगा रहे, यही अभिलाषा है, यही अपेक्षा है, यही हमारा उद्देश्य और लक्ष्य है | तो आप सब को मेरा नमन | गौर पूर्णिमा महा महोत्सव की जय गौरांग महाप्रभु की जय शची नंदन गौर हरि की जय गौर पूर्णिमा गौरांग महाप्रभु के आविर्भाव के उपलक्ष्य में आज हम श्री चैतन्य महाप्रभु के विशेष अपरंपार अतुल्य महिमा के विषय में चर्चा करेंगे | शास्त्र में कई सारे श्लोक प्रमाण के तौर पर स्थापित करने के लिए हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु साक्षात भगवान श्री कृष्ण के अभिन्न स्वरूप है | यह कोई इस्कॉन का या गौड़ीय परंपरा का कोई मत नहीं है| यह सत्य है, हम सत्य के पथ पर चलकर इस सत्य सार बात को ग्रहण करते हुए श्रीमन महाप्रभु को हमारा इष्ट देव मानते हैं | ऐसा नहीं है कि यह किसी का मत है| ऐसा नहीं है कि यह गौड़ीय परंपरा के कोई आचार्य या कोई समाज का एक सामूहिक विचार है | यह सभी शास्त्रों का निचोड़ है, सभी शास्त्रों का सार है | kaleh prathama-sandhyayam laksmi-kanto bhavisyati daru-brahma-samipa-sthah sannyasi gaura-vigrahah महाप्रभु कहते हैं कि कली काल के प्रारंभ में अर्थात पहले 5000 वर्ष में मैं अवतरित होऊंगा, मैं अवतार लूंगा | कलिकाल में शची माता के पुत्र के रूप में | और कहाँ वास करूंगा? दारू ब्रह्म समीपस्थ | पूर्ण रूप से यहां वर्णन है| दारुब्रह्म कौन है? हम सब जानते हैं दारुब्रह्म प्रभु जगन्नाथ देव का नाम है - दारू का अर्थ है लकड़ी और ब्रह्म का अर्थ है भगवान | लकड़ी के रूप में प्रभु अवतार लेते हैं उनको कहते है दारू ब्रह्म | दारुब्रह्म समीपस्थ - समीप का अर्थ है पास निकट और स्थ का अर्थ है स्थित | मैं स्थित रहूंगा | मैं अपने आप को स्थित कराऊंगा किनके चरणों में? प्रभु जगन्नाथ देव के चरणों में | इसका अर्थ क्या हुआ? हम सब जानते है कि श्री चैतन्य महाप्रभु की लीला में 48 वर्ष तक जो प्रदर्शित किया उसमे अंत के जो 18 वर्ष है महाप्रभु के संन्यास के पश्चात वह जगन्नाथपुरी में उन्होंने अपना जीवन निर्वाह किया और लीलाओं को प्रदर्शित किया | जगन्नाथ पुरी ही दारूब्रह्म समीपस्थ है | जगन्नाथ देव ही दारूब्रह्म है और उनके निकट महाप्रभु 18 वर्ष रहे हैं | और सन्यासी गौर विग्रह - सन्यास लिया | उनका विग्रह यानी कांति किस प्रकार थी? गौर विग्रह यानी गौर वर्णिय थी | ये श्लोक पुराणों से आता है और ऐसे अनंत श्लोक हैं | भागवत में भी कई सारे प्रमाण है | एक बहुत प्रसिद्ध श्लोक है जो हम सब सुने हैं और इसकी चर्चा हम बाद में कभी करेंगे, पर अभी संक्षिप्त में इसका सार जान लेंगे | 11वे स्कंध में जब प्रश्न पूछा गया नव योगेंन्द्रो से चार युग कौन से, और उनमे विशेष करके युगधर्म आप कृपया करके विस्तार से वर्णन कीजिए, उल्लेख कीजिये कि कौन सा धर्म अवलंबन करने से प्रभु की प्राप्ति होगी, इन चारों युग में प्रभु के कौन से विग्रह या मूर्ति इष्ट के रूप में पूजनीय रहेंगे और उनके गुण और विशेष रूप के लक्षण के विषय में कुछ बताइए | सतयुग त्रेता युग द्वापर युग में तो निमि महाराज को तो वर्णन कर ही लेते हैं, फिर उसके बाद जब कली काल का समय आया तो नव योगेंद्र जी लिखते हैं और वर्णन करते हैं krishna-varnam tvishakrishnam sangopangastra-parshadam yajnaih sankirtana-prayair yajanti hi sumedhasah SB 11.5.32 कृष्ण स्वयं अवतार लेंगे किंतु इस बार तवीषा अर्थात त्वचा उनकी रूप कांति अकृष्ण रहेगी | शब्द कृष्ण के कई सारे अर्थ है | Mahabharata (Udyoga-parva) 71.4- krsir bhu-vacakah sadbo, nas ca nirvrti-vacakah tayor aikyam param brahma, krsna ity abhidhiyate श्रील जीव गोस्वामी वर्णन करते है और चैतन्य चरितामृत मे प्रभुपाद जी उसका भाषांतर करते है, कविराज गोस्वामी ने उसको लिपिबद्ध किया है | तो कृष्ण शब्द के कई सारे अर्थ है और उसमें प्रमुख अर्थ तो वही है कि वह सर्व आकर्षक हैं सबके मन को हर लेते हैं | vraje prasiddhaḿ navanīta-cauraḿ gopāńganānāḿ ca dukūla-cauram aneka-janmārjita-pāpa-cauraḿ caurāgragaṇyaḿ puruṣaḿ namāmi -by Bilvamangal Thakur इतने आकर्षक है कि बाजु के घर की जो मटकी है उसमे माखन है वो माखन भी आकृष्ट होकर इनके पेट में चला जाता है, ये चोरी करते नहीं है, इतने आकर्षक हैं कि पास वाले घर में जो माखन रखा है, नवनीत रखा है, वह नवनीत भी आकृष्ट हो जाता है और प्रभु के मुख में चला जाता है | कभी चीरहरण मे वस्त्र की चोरी करते है | तो कभी कांति की चोरी करते हैं, द्वापर युग मे मेघ नव स्थल मे है उनकी कांति चुराते है | भाव की कांति चुराते हैं त्रेता युग में | और कलिकाल मे तो राधारानी की ही कांति चुरा लिए | rādhā-bhāva-dyuti-suvalitaṁ naumi kṛṣṇa-svarūpam CC adi 1.5 and 4.55 तो अब कलिकाल के महाप्रभु जो युगावतर है,इनके वर्णन में कहा गया :- कृष्ण वर्णम त्विषा अकृष्णम वर्ण कौन है? वर्ण का अर्थ है जैसे हम संस्कृत मे या हिंदी मे कहते हैं यह प वर्ग है प फ ब भ म। यह क वर्ग है क ख ग घ इत्यादि। वर्ण या वर्ग कहते हैं क्लास को। इस परिस्थिति को इस धरा को। तो कृष्ण वर्ण अर्थात कृष्ण के स्तर पर रहेंगे और तो कृष्ण के स्तर पर तो ओर कोई है नहीं, केवल कृष्ण है। इसका अर्थ यह हुआ कि कृष्ण स्वयं आएंगे और किस वर्ण से आएंगे, किस कांति से आएंगे, त्वचा कैसी होगी अकृष्ण। तो कृष्ण का एक अर्थ है सर्वआकर्षक और कृष्ण का दूसरा अर्थ है रंग से काले य सावले । तो अकृष्ण का अर्थ हुआ जो काले नहीं है। जो हेम वर्ण के है। suvarṇa-varṇo hemāṅgo varāṅgaś candanāṅgadī sannyāsa-kṛc chamaḥ śānto niṣṭhā-śānti-parāyaṇaḥ- CC Ādi 3.49, Mahābhārata (Dāna-dharma, Viṣṇu-sahasra-nāma-stotra) देखिए यह जो एक पंक्ति है भागवत में, महाप्रभु कहते हैं प्रति श्लोके प्रति शब्दे नाना अर्थे। prati-śloke prati-akṣare nānā artha kaya CC Madhya 24.318 pārāpāra-śūnya gabhīra bhakti-rasa-sindhu tomāya cākhāite tāra kahi eka ‘bindu CC Madhya 19.137 महाप्रभु रूप गोस्वामी से कहते है कि भागवत इतना विशाल है, इतना भव्य है, ना ये तट है ना वो तट है, ना इस तरफ तीर है ना उस तरफ तीर है, पार अपार गभीर शून्य। कोई महासागर में चले जाओ तो एक प्रारंभ तट होगा और 1 अंतिम तट होगा, उनके बीच मे पानी होगा | और गहराई तक चले जाओ तो फिर एक स्थान आता है, जहां पानी नहीं है मतलब जितना भी गहरा क्यों ना हो परंतु भागवत इतना विशाल सागर है, ना यहां पार है ना वहां पार है और इस महासागर में डूबने लगो तो जितना डूबो उतना रत्न है। तो पार पार गभीर शून्य भक्ति रस सिंधु। भक्ति रस का सिंधु है यह भागवत और वहाँ से वे कहते है कि भागवत का प्रत्येक वाक्य हर एक श्लोक हर एक पंक्ति हर एक चरण हर एक शब्द के हर एक अक्षर में नाना अर्थ है, तो ये श्री कृष्ण वर्णम तविषा अकृष्णम के कितने अर्थ हो सकते हैं, एक अर्थ तो यह हुआ कि कृष्ण वर्ण अर्थात जिस धरा जैसे प वर्ण य प वर्ग क वर्ग तो कृष्ण की धरा से, कृष्ण की स्थिति से, कृष्ण के लेवल से कोई आने वाला है | तो कृष्ण की स्थिति से कौन है? केवल कृष्ण है | तो कृष्ण वर्ण का अर्थ यह हुआ कि कृष्ण ही आने वाले हैं | परंतु इस अवतार मे वो मेघश्याम नव जलधर श्याम की कांति से नहीं आएंगे, इनकी त्वचा कांति कैसी होगी? अकृष्ण रहेगी | अर्थात वे काले नहीं होंगे, सावले नहीं रहेंगे, मेघ समान नहीं रहेंगे | परंतु हेमांग राधा रानी की कांति से, तप्त कांचन गौरांगी नहीं, अब है तप्त कांचन गौराँग | कांचन को तप्त करते हुए गौरांग महाप्रभु के रूप में कलिकाल मे अवतरित होंगे | अब दूसरा अर्थ इसी एक पंक्ति का कृष्ण वर्ण - वर्ण जो शब्द है संस्कृत में एक ओर अर्थ इसका है वर्णयति अर्थात वर्णन करना | तो कृष्ण वर्ण तविषा कृष्णम का अर्थ ये हुआ ऐसे एक अवतार आने वाले हैं जो हमेशा सदा सर्वदा नित्यम सततम कृष्ण का ही वर्णन करते रहेंगे | śunite śunite prabhura santoṣa apāra ‘bala, bala’ bali’ prabhu bale bāra bāra CC Madhya 14.9 महाराजा प्रताप रूद्र गोपी गीत का वर्णन करने लगे महाप्रभु हर्षोल्लास से प्रफुल्लित होकर विस्फोट के समान छलांग लगाकर उनको अपनी बाहों में भर लिए | महाप्रभु श्रवण और कीर्तन केवल कृष्ण नाम का करते थे | अन्य कोई वार्ता करनी हो तो कहते थे, बोलना है तो केवल कृष्ण कथा बोलो वरना रहने दो | परम पूज्य पाद श्रील राधानाथ स्वामी महाराज कहते है "Silence is Golden". महाराज जी कहते हैं इसका अर्थ क्या है? कुछ लोग अर्थ निकालते है कि चुप रहना यही ठीक है, कुछ बोलने से अच्छा चुप रहना ठीक है | परंतु महाराज जी इसका अर्थ करते हैं Silence means to only speak of the Golden Avtaar. केवल गोल्डन अवतार महाप्रभु के वर्णन में लगना ही यही वास्तविक मौन है | महाप्रभु कहते है कृष्ण वर्णम, अर्थात केवल कृष्ण का वर्णन करते हैं | मुखे हरि बोल भाई ऐई मात्र भिक्षा चाई सन्यास अवतार लेकर हर घर जाकर खटखटा कर कहते थे केवल कृष्ण नाम जपो कृष्ण नाम रटो, कृष्ण नाम बोलो | प्रभु आज्ञाय भाई मांगी ऐई भिक्षा बोलो कृष्ण भजो कृष्ण कर कृष्ण शिक्षा कृष्ण माता कृष्ण पिता कृष्ण धन प्राण - from nadiya-godrume by Bhakti Vinod Thakur कृष्ण का ही वर्णन करते हैं, कीर्तन भी करते हैं तो कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण, कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे CC Madhya 7.96 महाप्रभु कृष्ण नाम कृष्ण रूप कृष्ण गुण कृष्ण लीला का श्रवण कीर्तन करने वाले अर्थात कृष्ण वर्णम, लेकिन त्वचा तविषा कैसी है - अकृष्णम | यह एक अर्थ हुआ | अब तीसरा अर्थ आचार्य गण करते है वर्ण का एक अर्थ है नाम | नाम के अक्षर इसलिए तो संस्कृत में वर्णमाला कहते हैं स्वर व्यंजन इत्यादि | इसका अर्थ यह है कि यह जो अवतार रहेंगे इनके नाम में कृष्ण नाम होगा | अब कौन बताएगा? हम सब स्मरण कर रहे हैं महाप्रभु के कई सारे नाम है निमाई, विश्वमभर, गौरांग इत्यादि | किन्तु संन्यास के पश्चात उनको जो नाम केशव भारती महाराज ने प्रदान किये और उनका नाम जो ऐतिहासिक तौर पर अंकित हुआ वह है श्री कृष्ण चैतन्य | अर्थात कृष्ण वर्ण का ये अर्थ है कि इस आचार्य स्वरुप इस कलिकाल के अवतार स्वरुप के नाम मे ही कृष्ण नाम होगा | तो देखिये तीन अर्थ बताये एक अर्थ तो कृष्ण के स्तर से कोई आएगा और कृष्ण के स्तर से केवल कृष्ण है औऱ कोई है नहीं | दूसरा अर्थ है ये आएंगे तो कृष्ण का वर्णन करते रहेंगे नाम रूप गुण लीला इत्यादि | अब तीसरा अर्थ ये है कि वो रहेंगे जिनके नाम मे ही कृष्ण नाम होगा | तो ये अर्थ हुआ कृष्ण वर्ण तविषा अकृष्णम का | तो इस प्रकार हर अक्षर इस श्लोक का विस्तार करने पर ये हम निश्चित तौर पर जान सकते है कि भागवतम संकेत करता हैं तो केवल शचीनन्दन गौरहरि के चरनकमल के प्रति | dhyeyaṁ sadā paribhava-ghnam abhīṣṭa-dohaṁ tīrthāspadaṁ śiva-viriñci-nutaṁ śaraṇyam bhṛtyārti-haṁ praṇata-pāla bhavābdhi-potaṁ vande mahā-puruṣa te caraṇāravindam SB 11.5.33 आगे वो लिखते है उसी भागवत के सन्दर्भ मे आता है आप सब पढ़ सकते है 11 सकन्ध के 5th अध्याय का 32,33,34 श्लोक मे | इन तीनो श्लोक मे श्री चैतन्य महाप्रभु का बहुत सुन्दर वर्णन है | कहते है श्री चैतन्य महाप्रभु कौन है वन्दे महापुरुषते चरणरविंदम, मैं उन महापुरुष के चरण कमल के प्रति नतमस्तक होता हूँ | कौन कह रहे है? नव योगेंद्र जी कह रहे हैं | अब कोई पूछ सकता है कि ये महापुरुष कौन है, कौन है महापुरुष? देखिये अब ये महापुरुष शब्द के कई अर्थ है| एक अर्थ ये है मुंडक उपनिषद मे वर्णन आया है, महापुरुष की परिभाषा कैसे होती है? वो व्यक्ति जिनके दर्शन मात्र करने से कृष्ण की स्मृति हो जाये वो महापुरुष है, जिनको देखने मात्र से कृष्ण का स्मरण हो जाये, जिनको देखने मात्र से कृष्ण नाम स्फुरित हो जाये वो व्यक्ति है महापुरुष | अब महाप्रभु के विषय मे, शचीनन्दन गौरहरि के विषय मे क्या ये सत्य है? अवश्य ये सत्य है | कविराज गोस्वामी तो कहते है एमन दयाल प्रभु नाही त्रिभुवने कृष्ण प्रेम होय जार दूरदर्शने ऐसा वर्णन आता है कि हमारे महाराज प्रताप रूद्र जी जो जगन्नाथ पुरी के राजा थे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरण कमल के प्रति इतनी आस्था और इतनी प्रगाढ श्रद्धा रखते थे कि उन्होंने नियम बना दिया था जहां भी महाप्रभु यात्रा के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान प्रस्थान करें, हर एक स्थान में एक छोटी सी मूर्ति लगानी चाहिए या एक खम्बा स्थापित करना चाहिए यह बताने के लिए जगत को कि यह वही स्थान है जहां पर महाप्रभु में चरण कमल को स्थित किया था, यहाँ पर वो बैठे थे, यहां गायत्री किये थे और जिन जिन तीर्थ, जिन जिन कुंड, जिन जिन नदी मे महाप्रभु स्नान करते है, उन सभी नदियों के तट पे कोई एक स्मरणीय बात होनी चाहिए जैसे कोई आकर पढ़ले कि यहाँ श्रीमन महाप्रभु आये थे | फिर उन्होंने एक घोषणा की थी कि हर गांव से जहाँ महाप्रभु यात्रा कर रहे है, उस हर गांव मे जगन्नाथ जी का प्रसाद पहुंच जाना चाहिए | जैसे महाप्रभु जब कटक आये तो महाराज प्रतापरूद्र नियम बनाये, जगन्नाथ पूरी के जगन्नाथ देव का जो महाप्रसाद है, वो पहुंच जाना चाहिए, जहाँ भी महाप्रभु चले महाप्रसाद पहुंच जाना चाहिए ये था दूसरा नियम | अब तीसरा नियम है कि जहाँ भी महाप्रभु शयण करने की इच्छा रखे, गृहस्थ को सबको घर खाली करके वो घर महाप्रभु को सौंपना चाहिए ताकि महाप्रभु वहां शयन करें | महाप्रभु विरक्त शिरोमणि थे, वे तो बृक्ष के निचे शयन करते थे | पर राजा महाराज प्रतापरूद्र ने ये नियम बनाया था | अब चौथा नियम बनाया था जब भी महाप्रभु कोई नदी को पार करने की इच्छा रखे, वहां नौका तैयार होनी चाहिए, व्यक्ति तैयार होना चाहिए और स्वागत होना चाहिए कि हे महाप्रभु आप इस नदी को पार कर सकते है | अच्छा बताइये मुझे, महाप्रभु जब नौका मे बैठते है औऱ नदी को पार करते है, क्या वो वास्तविक नदी को पार कर रहे है? अरे नही, वो नदी को तो पार नही कर रहे है, जो व्यक्ति नदी में बिठाकर महाप्रभु को नदी पार करा रहा है, उस व्यक्ति को भवसागर पार करा रहे हैं, वह व्यक्ति महाप्रभु को नदी पार नहीं करा रहा, बल्कि महाप्रभु सेवा का सौभाग्य देकर उस व्यक्ति नदी नहीं, सागर महासागर भावसागर दुखसागर से पार करा रहे है | तो महाराज प्रतापरूद्र ने ये नियम बनाया, सभी हर्ष उल्लास से प्रफुल्लित हो गए, सब भक्त आ गए, एकत्रित हो गए, हर स्थान पर रुक रुक कर के दर्शन करते थे | परंतु जो स्त्रिया थी, जो अलग-अलग पटरानियाँ थी, वो तो सन्यासी के पास जाकर महाप्रभु का दर्शन नही कर पाती थी, तो महाराज प्रतापरूद्र ने क्या किया, एक योजना बनाई, उन्होंने उस राजमहल की जो भी रानियाँ पटरानियाँ थी, उन प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक हाथी रखा, हाथी के ऊपर बैठते थे औऱ एक पालकी होती थी, जिसमे पर्दा लगता था, परदे को हटा कर वे स्त्रियां देखती थी महाप्रभु को दूरदर्शन से, क्योकि सन्यासी के पास तो अब नही जा सकते तो दूर से वे दर्शन करती थी | उस संदर्भ मे कविराज गोस्वामी लिखते है जब वो स्त्रियां हाथी के ऊपर बैठकर पालकी के परदे को हटाकर दूर से देखती थी, महाप्रभु जानते थे कि ये सब भक्त है औऱ महाप्रभु केवल कृपा दृष्टि प्रदान करते थे, उस दृष्टि पात मात्र से वे स्त्रियां बधिर जाती थी, उनको लगता नही था प्रेमावेश मे CC Antya 20.36 nayanaṁ galad-aśru-dhārayā vadanaṁ gadgada-ruddhayā girā कंठ अवरुद्ध हो रहा है, गंगा जमुना प्रेम अश्रु प्रवाहित हो रहा है, पूरा शरीर रोमांच से भर रहा है, अष्ट सात्विक विकार उत्पन्न हो रहे है, कविराज गोस्वामी लिखते है emana kṛpālu nāhi śuni tribhuvane kṛṣṇa-premā haya yāṅra dūra daraśane CC Madhya 16.121 ऐसा दयालु पुरे जगत ने नही देखा, कैसा दयालु, दया की क्या सीमा है? कृष्ण प्रेम होय जार दूरदर्शन बहुत सरल है, जिनके दूरदर्शन मात्र से कृष्ण प्रेम की प्राप्ति होती है| भला सत्य, त्रेता, द्वापर युग मे तो ये सुना ही नही, कोई घनघोर वन मे बैठेगा, पदमासन मे बैठेगा, जैसे भागवत गीता मे भगवान कहते है एक पवित्र स्थान मे स्थित रहकर नाशाग्रे अर्थात नाशिका के अग्र भाग मे ध्यान लगा कर नेत्र थोड़े खुले थोड़े बंद है औऱ ऐसे ध्यान अवस्था मे पूर्ण रूप से समाधि स्थित करके जो बैठते है, उनको क्या प्राप्त होता है? परमात्मा का साक्षातकार बस, भगवान का दर्शन नही, परमात्मा का साक्षातकार अंदर ही अंदर, लीला मे प्रवेश नही, कृष्ण प्रेम तो दूर की बात है | औऱ यहाँ कलिकाल मे घनघोर वन मे जाने की आवश्यकता नही, नाचो गावो भक्त संगे करो संकीर्तन अति रत पाबे तुमी कृष्ण प्रेम धन CC Adi 7.92 अरे घर बैठो, भक्तो के साथ एक समुदाय समाज मे मिल जुलकर कीर्तन करो, श्रवण मे लग जाओ, नाम जप करो औऱ प्रसाद का सेवन करो ऊंचे कंठ से प्रभु कहे वैष्णव सेवा नाम संकीर्तन जोई करे शीघ्र पाबे कृष्णेर चरण prabhu kahe, — “vaiṣṇava-sevā, nāma-saṅkīrtana dui kara, śīghra pābe śrī-kṛṣṇa-caraṇa” CC Madhya 16.70 नाम संकीर्तन करते करते वैष्णवो की सेवा करो, शीघ्र अति शीघ्र कृष्ण चरण की प्राप्ति होगी | तो कविराज गोस्वामी कहते है महाप्रभु इतने दयालु है श्री चैतन्य महाप्रभु दयार करीह विचार विचार कइले चित्ते तुमि पाबे चमत्कार śrī-kṛṣṇa-caitanya-dayā karaha vicāra vicāra karite citte pābe camatkāra CC Ādi 8.15 बंगाली काव्य का एक अलग ही नशा है, कविराज गोस्वामी कहते हैं, महाप्रभु की दया की सीमा का विचार करके तो देखो, विचार करने पर तुम चित्त में चमत्कार का अनुभव करोगे | यदि जगत में दांत में दर्द हो रहा है या पेट में दर्द है, कहीं सिर में दर्द है, कोई व्यक्ति आकर औषधि प्रदान करें, वैद्यराज के पास ले जाए और वह वैद्यराज हमें ठीक कर दे तो कृतज्ञ भाव से कहेंगे कि मेरे दांत में इतना दर्द था, पेट में इतना दर्द था, शरीर में इतना कष्ट था, मैं झुक जाता हूँ कृतज्ञ भाव से आपने मुझे ठीक किया, हम तो झुक जायेंगे, परन्तु वैद्य राज तो धन मांगता है, ठीक करने का पैसा लेता है | यदि सोचिये कोई ऐसा व्यक्ति हो औऱ कहे अरे अरे मैं तो ये सेवा के तौर पर करता हूँ, आप सिर्फ मुझे आशीर्वाद दीजिये, तो कृतज्ञता बढ़ेगी, क्योकि हमें अभी पता चलेगा कि ये निस्वार्थ भाव से सेवा कर रहे है| ये तो हम दांत दर्द औऱ सर दर्द की बात कर रहे है कोई व्यक्ति अगर ऐसा हो जो हमें मृत्यु से बचा लेंगे, मृत्यु सबसे बड़ी पीड़ा है, कोई व्यक्ति ऐसा हो जो मृत्यु से हमें पार करा दे, ऐसा कहे कि मेरे पीछे छिप जाओ तुम नही मरोगे तो हम पूछेंगे सामने से क्या लेंगे? वो व्यक्ति कहेगा नही नही बस निस्वार्थ भाव से सेवा के लिए कर रहा हूँ, तो हम कितना झुक जायेंगे ऐसे व्यक्ति के सामने, इतना प्रेम करते है मुझसे, मैं सामने से कुछ दे भी नही सकता औऱ देने की इच्छा रखू तो भी वो लेते नही, वे निस्वार्थ भाव से मृत्यु से पार करा रहे है, परन्तु मृत्यु से पार करा के कहा रख दिये स्वर्ग मे रख दिये, ये भी बड़ी बात है, परन्तु यदि कोई ऐसा व्यक्ति हो जो आकर कहे स्वर्ग नही, मैं जन्म मृत्यु जरा व्याधि से मुक्त कराकर तुम्हे वैकुंठ दे दूंगा, वैकुंठ मे तुम्हे प्रवेश करा दूंगा, तो हम सामने से कहेँगे- मुझे क्या करना होगा? तुम कुछ मत करो, तुम क्या कर सकते हो, मुझे क्या दे सकते हो, कुछ मत दो, मैं निस्वार्थ भाव से केवल तुम्हारे संतोष के लिए कर रहा हूँ तो ओर कृतज्ञता बढ़ जाएगी | औऱ यदि व्यक्ति ऐसा कहे, घर आकर खटखटा कर कहे, तुम एक काम करो घर में बैठो, वन जाने की आवश्यकता नहीं, कोई पूजा पाठ करने की आवश्यकता नहीं, तुम गृहस्थ बनो, विरक्त बनने की भी आवश्यकता नहीं, भोजन पाना पसंद है तो प्रसाद खाओ, कोई बात नहीं, तुम्हें नाचना पसंद है चलो नाचो, गाना पसंद है चलो गाओ, एकांत में वास करने की आवश्यकता नहीं, सब से मिलना जुलना पसंद है चलो भक्तों के समुदाय में रहो, जो करना है करो, और ऐसा भी नहीं कि एकांत भाव सिर्फ 24 घंटे, बीच में बच्चे होंगे पारिवारिक कर्तव्य उत्तरदायित्व होगा उसके बीच में नौकरी व्यवसाय धंधा इसमें भी चलते रहो, अर्थ भी कमाओ परमार्थ भी कमाओ, करते रहो और व्यक्ति कहे तुम्हें जो अच्छा लगे वह करते रहो और मैं तुम्हें बैकुंठ नहीं गोलोक में श्रीमती राधारानी की सखी बनाने को तैयार हूँ, मैं वृंदावन ले जाकर तुम्हें निकुंज में अष्ट सखी के चरणों में अर्पित करने को तैयार हूँ, मैं तुम्हें राधा कृष्ण की लीला दर्शाने को तैयार हूँ, यमुना महारानी के तट पर वंशीवट के छाया तल पर पूर्ण चंद्रमा की चंद्रिका के बीच रास स्थली में प्रवेश कराने को तैयार हूँ, बस तुम जो कर रहे हो भजन करते रहो, ये गारंटी मैं लेता हूँ, ऐसे व्यक्ति से कोई अधिक दयालु होगा? यह है महाप्रभु | यह है हमारे सचिनंदन गौर हरि | सामने से हम क्या दे सकते हैं, क्या दे सकते हैं | premanam adbhutartha sravana pathagatah kasya namnam mahimnah ko vetta kasya vrndavana vipina mahamadhurisu pravesah ko va janati radham parama rasa chamatkar madhurya seema mekas Caitanyacandrah parama karunaya sarvamaviscakar- Sri Caitanya Candravali श्रीपाद प्रबोधानंद सरस्वती चैतन्य चंद्रामृत ग्रंथ मे लिखते है यह चार अक्षर कृष्ण प्रेम जगत ने सुना तक नहीं, ऐसी जगह है जहां भक्ति यह दो अक्षर सुनाई नहीं देते हैं, भक्ति की पराकाष्ठा परिपक्व अवस्था है प्रेम और प्रेम की पराकाष्ठा या परिपक्व अवस्था है भाव या महाभाव, यह सब किसने सुना कौन जानता था, जाने नहीं तो फिर इच्छा कौन करें, इन चार अक्षर कृष्ण प्रेम को जगत में प्रकाशित और वह भी केवल नाम के रटन मात्र से, यह महाप्रभु की देन है | पहली भेंट है | चार अक्षर वृंदावन किसने सुना, कौन सुना था यह चार अक्षर वृंदावन, वृंदावन के विषय में क्या कहा जाए, राधा कुंड और श्याम कुंड जो राधा और कृष्ण के नित्य लीला, नित्य क्रीड़ा स्थली है, नित्य विलास स्थली है यह अप्रकट हो चुका था, जगत तो राधा कुंड और श्याम कुंड को जाने बिना काली खेत और गोरी खेत बुलाते थे उस स्थान को, वहां चावल उगाते थे, ऐसा स्थान था खेत मानते थे उसे, जब महाप्रभु आए, पूरे जगत के समक्ष इस बात को प्रदर्शित किए प्रकट किए कि यह कोई खेत नहीं, यह कोई चावल की भूमि नहीं यह तो प्रेम की भूमि है, यह शरीर के अन्न की भूमि नहीं है, यह आत्मा को संतुष्ट करने वाली अन्न प्रदान करने वाला क्षेत्र है, यह राधा कुंड और श्याम कुंड है, यह राधा और कृष्ण की बहुत सुंदर प्रेममयी द्रवित स्वरूप है, तो यह महाप्रभु की भेंट है वृंदावन धाम, प्रबोधानंद सरस्वती जी लिखते हैं जितना आश्चर्यजनक बात यह है कि कृष्ण प्रेम ये चार अक्षर जगत ने सुना नहीं परंतु उन चार अक्षर को इस जगत में प्रकट करके भेंट स्वरूप दान देने वाले महाप्रभु वह भी नाम के रटन मात्र से उन्हीं महाप्रभु ने दूसरी भेंट दी, वह क्या? वृंदावन धाम को प्रकाशित किया | kālena vṛndāvana-keli-vārtā lupteti tāṁ khyāpayituṁ viśiṣya kṛpāmṛtenābhiṣiṣeca devas tatraiva rūpaṁ ca sanātanaṁ ca CC Madhya 19.119 रूप और सनातन गोस्वामी को निमित्त बनाकर 5000 मंदिर स्थापित किये, भिन्न-भिन्न गौड़ीय ग्रंथों को रस स्वरूप लिखाया और रुप सनातन गोस्वामी को निमित्त बनाकर वैष्णव सदाचार को इस जगत के समक्ष दर्शाया, उन महाप्रभु ने वृंदावन को केवल प्रकट नहीं कराया उनमें वृंदावन की लीलाओं में हमें प्रवेश कराने का अधिकार भी प्रदान किया, हममें से कौन अधिकार रखता है राधा कृष्ण की लीलाओं में प्रवेश कराने का, ब्रह्मा जी 120000 साल भजन करते हैं ताकि बरसाना में उनके चार मुख् चार पर्वत बन जाए, शिव जी हर द्वार पर द्वारपाल के रूप में बैठे हैं ताकि रास स्थली में उनका प्रवेश हो, नारद मुनि स्वयं वीना को छोड़कर नारदी गोपी बनने को तैयार हैं ताकि रास स्थली में प्रवेश हो, और वृहस्पति के शिष्य वर, सर्वश्रेष्ठ शिष्य उद्धव जी वृंदावन में लता बनने को तैयार है, āsām aho caraṇa-reṇu-juṣām ahaṁ syāṁ vṛndāvane kim api gulma-latauṣadhīnām ŚB 10.47.61 बड़े-बड़े दिग्गज 33 करोड़ देवी देवता भजन कर रहे हैं लीला में प्रवेश करने के लिए और यहां महाप्रभु हमें घसीट घसीट कर राधा कृष्ण की लीलाओं में प्रवेश करा रहे है, पहली बात प्रेम जगत ने सुना नहीं, उस प्रेम को दान दिया केवल नाम रटन से, दूसरी बात वृंदावन जा अप्रकट हो चुका था उसको प्रकट किया और अधिकार दे दिया पूरे जगत को ताकि लीलाओं में प्रवेश हो जाए, और तीसरी बात यदि महाप्रभु नहीं आए होते तो यह दो अक्षर रा औऱ धा जगत ने सुना नहीं होता, राधा नाम राधा रूप राधा गुण राधा लीला राधा धाम राधा सेवा राधा परिकर राधा रानी के विषय में महिमा माधुरी का विशेष जगत में प्रचार श्रीमन महाप्रभु ने किया, श्री महाप्रभु सचिनंदन गौर हरि प्रकट होने से पूर्व सभी विग्रह केवल कृष्ण खड़े थे, गोविंद जी खड़े थे गोपीनाथ जी खड़े थे, अन्य संप्रदाय के विग्रह देख लीजिए केवल कृष्ण खड़े थे, हमारे महाप्रभु ने आकर जो अकेले-अकेले कृष्ण खड़े हैं सबको राधा रानी के साथ मिला दिया तो अब हो गए राधा माधव राधा गोविंद राधा गोपीनाथ| श्री सचिनंदन गौर हरि की जय | राधा रानी को भेंट दिए, वैसे तो महाप्रभु है राधा रानी पर भक्त भाव में हम कह रहे हैं आचार्य स्वरूप मे हम कह रहे हैं, उन्होंने प्रत्येक विग्रह प्रत्येक मंदिर मे जो कृष्ण अकेले खड़े थे, उनको जाकर राधा रानी सौप दिये इसीलिए तो गीत में आया है yadi gaura na ha'ta tabe ki ha-ita kemane dharitam de radhara mahima, prema-rasa-sima jagate janata ke?(Srila Vasudev Ghosh Thakur) यदि गौरांग महाप्रभु प्रकट नहीं हुए होते, तो राधा रानी के विषय में इतनी विशेष चर्चा राधा रानी की लीलाएं जो भी कृष्णदास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरित्रामृत में लिखे हैं, रूप गोस्वामी रघुनाथ दास गोस्वामी राधा रानी के विषय में लिखे हैं यह सब नहीं प्रकट हुआ होता जगत नहीं सुना होता, हमारे रघुनाथ दास गोस्वामी एक श्लोक लिखे हैं bhajami radham aravinda-netram | smarami radham madhura-smitasyam || vadami radham karuna-bharardram | tato mamanyasti gatir na kapi || इसका अर्थ यह है श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी कहते हैं मैं भजन करता हूँ राधा रानी के कमल नेत्र का, और मैं स्मरण करता हूँ राधा रानी की मंद मंद मुस्कान, बहुत सुंदर मुख कमल में जो मुस्कान है उसका मैं स्मरण करता हूँ, और हर जगह जाकर छाती ठोक कर मैं जोर-जोर से घोषणा करता हूँ कि कितनी करुणा की मूर्ति मती है श्रीमती राधा रानी, रघुनाथ दास गोस्वामी कहते हैं राधा रानी के चरणों के अतिरिक्त मेरी दूसरी कोई गति नहीं है इसलिए मेरी वाणी केवल राधानाम रटती है, नेत्र केवल राधा मुख देखती है, और कान केवल राधा रानी के गुण माधुरी का श्रवण करता है, यह सब जो श्लोक है जो रूप गोस्वामी और रघुनाथ दास गोस्वामी लिखे है इनका स्रोत कहां है उद्गम स्थान कहां है यह सब कहां से प्रकट होता है, यह सब श्री महाप्रभु के हृदय से विस्फोट हो रहा है, जो रूप गोस्वामी और रघुनाथ दास गोस्वामी की वाणी ने लिखा, इसका है राधा नाम राधा रानी की विशेष मधुरिमा विशेष प्रचार श्री सचिनंदन गौर हरि ने किया, इसीलिए तो हमें गाड़ियां कहते हैं | परम पूज्य पाद भक्ति चारू स्वामी महाराज कहते थे जो विष्णु की आराधना करते हैं वे वैष्णव है, विष्णु की आराधना करने वाले वैष्णव, जो कृष्ण की आराधना करें उनको कार्ष्णेय कहते है, और जो राधा रानी की आराधना करें राधा रानी का एक नाम है गौरी, जो परम गौरी राधा रानी के चरण आश्रित हो जाए एकांत भाव से वह है गौड़ीय परंपरा, हमारी परंपरा के महाप्रभु प्रथम आचार्य यह जगत में राधा और कृष्ण के प्रेम को प्रदान करने आए हैं | तो हमारे प्रबोधानंद सरस्वती जी लिखते है यह तीन प्रमुख भेंट है श्रीमन महाप्रभु की, पहली कृष्ण प्रेम जो जगत ने सुना नहीं इसको भेज दिया केवल नाम अक्षर रटन मात्र से, दूसरी भेंट वृंदावन धाम जो अप्रकट हो चुका था इसको प्रकट कराया, पुनर्दर्शित कराया, लीला स्थली लुप्त हो गए थे और थोड़े लीला स्थली गुप्त हो गए थे, महाप्रभु ने सबको प्रकट कराया और उन लीलाओ में प्रवेश करने का अधिकार प्रदान किया और तीसरी भेंट राधा तत्व को इस जगत में प्रकाशित किया, ekas chaitanya-chandrah parama-karunaya sarvam avischakara (Sri Chaitanya-chandramrta, 10.130) प्रबोधानंद सरस्वती गदगद होकर कहते हैं एक महाप्रभु ने करुणा के भाव से द्रवित होकर इतना कुछ अकेले किया, फिर वो आगे लिखते हैं इतनी मधुरिमा महाप्रभु की गाकर फिर कहते हैं Caitanya-candramrta, Text 46: vancito smi vancito smi vancito smi na samsayah visvam gaura-rase magnam sparso’pi mama nabhavat अरे पूरा जगत तो गौर रस में मगन हो गया, डूब गया, मत चित हो गया, पूरा जगत राधा कृष्ण प्रेम के इच्छुक हो गया, पूरा जगत वृन्दावन के इच्छुक हो गया, पूरा जगत अब राधा रानी के चरण आश्रित हो गया, पूरा जगत अब नाम रटने लगा और प्रबोधानंद सरस्वती कहते हैं कि मेरा दुर्दैव ऐसा है दुर्भाग्य ऐसा है कि उस गौर रस की अपरंपार कृपा करुणा दया का एक बूंद भी स्पर्श मेरे हृदय में नही हुआ, क्या यह सत्य है? यह सत्य नहीं परंतु वे इतने नम्र है, प्रेम का यह स्वभाव है tava kathāmṛtaṁ” śloka rājā ye paḍila uṭhi’ premāveśe prabhu āliṅgana kaila CC Madhya 14.10 प्रेम का यह स्वभाव है प्रेम का यह लक्षण है कि जितना प्रेम हृदय में अर्जन हो उतना ही व्यक्ति को लगता है अरे मैं तो दीन हीन अकिंचन हूँ, क्योंकि जो वृक्ष फलीभूत होता है फलों से पूरा सज जाता है वही तो वृक्ष झुकता है, जिस वृक्ष में पहले लगते हैं वही तो वृक्ष झुकता है, फल के भार से झुकता है और जो वृक्ष से फल हीन है वह घमंड से खड़ा रहता है, तो वृक्ष रुपी चित्त जब प्रभु के प्रेम रूपी फल से भर जाता है, उसी भार से वह नम्र हो जाता है और अगर भक्ति हीन चित्त हो, वह घमंड से खड़ा रहता है मैं इतने श्लोक जानता हूँ इतना कुछ करता हूँ मैं यह करता हूँ मैं वह करता हूँ, अरे अब तक प्रभु के चरण आश्रित तो हुए नहीं तो यह सब व्यर्थ चला गया, notpādayed yadi ratiṁ śrama eva hi kevalam ŚB 1.2.8 प्रबोधानंद सरस्वती लिखते हैं पूरा जगत गौर रास मे आप्लावित हो गया और अरे मेरा दुर्भाग्य ऐसा है कि मेरे चित्त को एक बूंद भी स्पर्श नहीं हुआ, अरे मैं वंचित रह गया, मैं वंचित रह गया, मैं वंचित रह गया, मेरा मानव शरीर कट गया, मेरा समय व्यर्थ चला गया, ब्रह्मा जी ने मुझे मानव तन दिया, कलिकाल में जन्म हुआ, महाप्रभु के बाद इतने लोगों को भक्ति मिली, महाप्रभु के समय और उनके बाद भी इतने लोगों को प्रेम स्पर्श हुआ और मुझे सिंधु क्या एक बिंदु भी स्पर्श नहीं हुआ, यह है प्रबोधानंद सरस्वती की वाणी | कृष्ण दास कविराज गोस्वामी कहते हैं कि केवल दूरदर्शन से महाराज प्रताप रूद्र की स्त्री और जो भी अन्य पटरानी थी वह दूर से दर्शन किए हैं उस दृष्टिपात से वान की तरह महाप्रभु के नेत्रों से कृष्ण प्रेम छूट गया और वे सब प्रेम मगन हो गई | तो यह हम इसलिए विस्तार से चर्चा कर रहे थे क्योंकि हमारा विषय था महाप्रभु, यह शब्द जो है महाप्रभु महापुरुष शब्द पर व्याख्या मुंडक उपनिषद में वर्णन है कि जिनको देखने मात्र से कृष्ण का स्मरण हो, वह महापुरुष है| अब बोलिए महाप्रभु महापुरुष है कि नहीं, अरे स्मरण ही नहीं, कृष्ण का दर्शन हो रहा है साक्षात | महापुरुष का एक ओर अर्थ है, महा का अर्थ है महा भाव जो राधा रानी का भाव है, और पुरुष का अर्थ गोविंदम आदिपुरुषम अर्थात कृष्ण, महा का अर्थ है महा भाव स्वरूपिणी राधा रानी और पुरुष का अर्थ है गोविंदम आदिपुरुषम श्री कृष्ण, और राधा कृष्ण एक तन मे आ गए तो महा भाव स्वरूपिणी और रसराज आदि गोविंद श्री कृष्ण आदि पुरुष आ गए तो महाप्रभु का नाम हो गया महापुरुष | महा का एक और अर्थ है महामंत्र प्रदान करने वाले दाता, यह एकमात्र भगवान के ऐसे पुरुष अवतार है, जो महामंत्र प्रदान करने आते हैं | इमोन दोयल प्रभु महा का एक ओर अर्थ है महावदान्य स्वरूप, भगवान के सबसे अधिक सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि सर्व उत्कृष्ट दयावान कृपावान कृपालु दयालु महाप्रभु का है, महावदान्य से शब्द आया महा, और भगवान कृष्ण तो है पुरुष, वे एकमात्र पुरुष है हम सब प्रकृति है, जो पुरुष भगवान कृष्ण अपने महावदान्य में स्वरूप में आते हैं तो उनका नाम हो जाता है महापुरुष | इस प्रकार आचार्यों ने बहुत सुंदर टिकाए लिखी हैं, एक ओर अर्थ करते है कि पहले की संस्कृति में एक बात थी कि जिनका वर्ण जिनकी कांति हेम वर्ण की होती थी, कोई हम रंग के विषय में नहीं कह रहे है, हम भजन के प्रभाव के विषय में कह रहे है, जो तेजस्वी महापुरुष होते थे उन सब को महापुरुष कहा जाता था, जिनके चेहरे में तेज होता था, जिनके भजन प्रभाव से भजन के तेजस ओजस शक्ति से पूरा शरीर मानो एक प्रज्वलित भाव से हेमांग कांति से तेजस्वी भाव से दिखता था ऐसे व्यक्ति को भी महापुरुष कहते है, तो महाप्रभु तो तप्त कांचन गौरांग है, उनको कोई भजन प्रभाव के तेज की आवश्यकता नहीं, वह तो है गौरे वर्ण के, स्वर्ण वर्ण के, उसके साथ साथ एक प्रथा होती थी जो बड़े दिग्गज ब्राह्मण कुल के होते थे और केवल कुल की बात नहीं जो ब्राह्मणत्व का निर्वाह भी करते थे उनको भी महापुरुष कहा जाता था, महाप्रभु तो ब्राह्मण श्रेष्ठ जगन्नाथ मिश्र के सुपुत्र है, तो उस स्तर से भी देखा जाए परिभाषा से महापुरुष है | इस प्रकार भागवत के एक शब्द से देखिए आचार्यों ने कितनी कुछ वाणी लिखी है | इस प्रकार श्री महाप्रभु पर आस्था रखना यह हमारा सर्वश्रेष्ठ उत्तरदायित्व है कर्तव्य है उनके चरणों में पूर्ण रुप से शरणागत होना और समर्पित होना यह गौड़ीय वैष्णव के लिए सर्वश्रेष्ठ सर्वप्रथम यह कार्य है कई बार शंका हो जाती है कि ये है कि नहीं, भगवान है कि नहीं, वास्तविक राधा-कृष्ण है कि नहीं, इसलिए नवदीप धाम महात्मय में भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं शिव जी के हाथ में त्रिशूल है, क्यों त्रिशूल रखते हैं शिव जी? तो भक्ति विनोद ठाकुर बहुत सुंदर व्याख्या लिखते है, यह त्रिशूल इसलिए है, पहली शूल इसलिए है कि यदि कोई संदेह करें कि महाप्रभु भगवान है कि नहीं, तो उनको दंड देने के लिए पहली शूल है और दूसरी किसके लिए, कोई मानेगा कि हां यह भगवान अवश्य है पर यह राधा कृष्ण के स्वरूप हैं यह थोड़ा शंका की बात है तर्क का विषय है, तो यह दूसरी शूल जो है शिव जी के हाथ में, यह उन लोगों को दंड देने के लिए, और तीसरी शूल किसके लिए है त्रिशूल में, जो लोग कहते हैं कि वृंदावन धाम तो वृंदावन है, नवदीप धाम तो पता नहीं, कई लोग कहते हैं कि नवदीप भी वृंदावन के समान है, जो यह शंका रखते हैं यह दुविधा में फंसते हैं इस बात का तर्क वितर्क करते हैं तीसरी शूल उनके लिए है, पहली उन लोगों के लिए जिनको शंका होती है कि महाप्रभु भगवान है कि नहीं, दूसरी उन लोगों के लिए जो मानते हैं कि भगवान है किंतु राधा कृष्ण के अभिन्न स्वरूप है कि नहीं और तीसरी पहली दो बात मानते हैं परंतु यह सोचते हैं कि वृंदावन धाम तो बड़ा ऊंचा धाम है और नवदीप धाम तो ऐसे लोगों को दंड देने के लिए शिवजी खड़े हैं त्रिशूल लेकर, भागने के लिए उनके पीछे, ऐसा भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं | इस प्रकार हम देखते हैं पुराणों की भी बात है, हमारा भागवत जो सर्व वेदांत पुराण का निचोड़ है इनकी भी वाणी यही है इनका भी निष्कर्ष यही है कि महाप्रभु हमारे सर्वश्रेष्ठ अपरंपार सर्व शिरोमणि भगवान के ही अभिन्न स्वरूप है और इसके साथ साथ हम देखते हैं विष्णु सहस्त्रनाम में भी वर्णन है विष्णु देव अपनी मृत्यु सैया में मरणासन्न अवस्था में बान की सैया में लेटे लेटे विष्णु सहस्त्रनाम को उदित कर रहे हैं भीष्म देव द्वारा बोली गई जो एक महाजन है और भगवान कृष्ण के समक्ष उपस्थिति में होकर यह बात श्लोक बोल रहे हैं और यह वेदव्यास जी ने रचना करके बद्ध करके महाभारत में प्रस्तुत किया तो वहाँ श्लोक ऐसा आता है suvarna-varno hemango varangas candanangadi sannyasa-krc chamah santo nistha-santi-parayanah वहां हमारे श्री महाप्रभु का वर्णन करते करते ये वाणी आई है कि उनका वर्ण कैसा होगा हेमंग तप्त कांचन गौरांग एकदम तपे हुए सुवर्णकांति में रहेंगे और उनके शरीर का आकार दीर्घ होगा, अर्थात बहुत ऊंचे रहेंगे, बड़े-बड़े हाथ घुटनों तक और बहुत सुंदर उनके प्रत्येक अंग बहुत सुंदर होगा, चंदन से लेपित रहेगा, सन्यास लेंगे, स्वयं शांत रहेंगे, सहिष्णुता का भाव रखेंगे, बहुत दया नम्र भाव स्वभाव रहेगा, पूरे जगत में शांति का एकमात्र जो मार्ग है नाम संकीर्तन इसीका प्रचार प्रसार करेंगे | इस प्रकार हम देखते हैं सभी शास्त्रों में भिन्न भिन्न प्रकार के प्रमाण पाए जाते हैं श्री चैतन्य महाप्रभु और श्री नित्यानंद प्रभु के भगवता का और उनके अवतार लेने से पूर्व ही इसकी घोषणा भविष्यवाणी की गई है| इस प्रकार पूरी निष्ठा से पुरे हृदय से पूरे मन से संकोच रहित संदेह रहित हमें महाप्रभु का भजन करना है इस प्रकार श्रवण कीर्तन स्मरण मात्र करने से प्रभु को हम हमारे हृदय रूपी उखल थोड़ा दामोदर लीला का प्रेम की डोरी लेकर हम महाप्रभु काफी दामोदर लीला करा सकते हैं केवल श्रवन कीर्तन मात्र से | पतित पावन श्रील प्रभुपाद की जय |

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