Hindi

*जप चर्चा* *दिनाँक -18 -05 -2022* (अनंत शेष प्रभु द्वारा ) हरे कृष्ण ! ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥ श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥ वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च। श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥ साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं। श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश्च।। *हे कृष्ण करुणासिन्धु दीनबंधु जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तुते।।* *तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसते देवि प्रणमामि हरिप्रिये॥* *वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।* *जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥* हरे कृष्ण, समस्त वैष्णव भक्तों तथा गुरु महाराज के श्री चरण कमलों में सादर दंडवत प्रणाम करता हूं। हरि नाम चिंतामणि के श्रंखला में प्रथम अध्याय का श्रवण कर रहे थे उसी को आगे जारी रखेंगे। हरिनाम चिंतामणि के अंतर्गत संक्षेप में श्री चैतन्य महाप्रभु तथा हरिदास ठाकुर के मध्य संवाद में यह जिज्ञासा की गई कि जीव का उद्धार कैसे हो। इसके उत्तर में श्रील हरिदास ठाकुर कहते हैं। सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण परम तत्व हैं और भगवान श्रीकृष्ण की तीन शक्तियां चिद अचिद और जीव। आध्यात्मिक जिसे अंतरंगा शक्ति भी कहते हैं और भौतिक बहिरंगा और फिर जीव शक्ति इन 3 के विषय में चर्चा सुनी थी। जीव वैभव: *चिद्-धर्म वशत: जीव स्वतन्त्र गठन । संख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन ॥* ३५॥ मुक्तजीव *सेड़ सुखहेतू यारा कृष्णेर वरिल ।कृष्ण पारिषद मक्त-रूपेते रहिल॥* ३६॥ उस नित्य आनंद हेतु जिन्होंने कृष्ण की शरण स्वीकार की है, वे मुक्त होकर कृष्ण के साथ शाश्वत रूप मंस उनके पार्षद बनकर निवास कर रहे हैं। बद्ध - बहिर्मुख जीव *यारा पन: निज-सख करिया भावना। पार्श्वस्तिता माया-प्रति करिल कामना ।।* ३७ जो जीव अपने निज सुख की वांछा करते हैं वे माया की ओर आकर्षित हो जाते, जो सदैव निकट ही स्थित होती है। चित्द में विशेष रूप से नाम रूप गुण लीला धाम जो भगवान से अभिन्न है। इस स्वरूप का हमने श्रवण किया और तत्पश्चात अचिद वैभव में गोलोक से लेकर अतल सुतल पाताल आदि , श्रीचैतन्य महाप्रभु बताते हैं माया का वैभव है चित् व वैभव पूर्ण तत्व माया आध्यात्मिक जगत है चित्त जिसमें भगवान का पूर्ण ऐश्वर्य है। और यह आचिद वैभव क्या है छाया जैसे पर परछाई होती है इसको भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं। *उर्ध्वमूलमधःशाखमश्र्वत्थं प्राहुरव्ययम् | छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ||* (श्रीमद भागवतम 15.1 ) अनुवाद- भगवान् ने कहा - कहा जाता है कि एक शाश्र्वत वृक्ष है, जिसकी जड़े तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं । जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है । आध्यात्मिक जगत का विकृत प्रतिबिंब है यह भौतिक जगत , तत्पश्चात जीव तत्व भगवान के जैसे स्वरूप वाला चित्त स्वरूप वाला तो ध्यान रखिए आध्यात्मिक जगत में चित्त शब्द प्रयोग किया जाता है और भौतिक जगत के लिए अचिद शब्द प्रयोग किया जाता है और जीव को क्या कहा गया है पुनः स्वरूपा चित्त अर्थात आध्यात्मिक चित् वाला ही स्वरूप है। इस जीव तत्व के विषय में आज हम थोड़ा समझने का प्रयास करेंगे क्योंकि इससे संबंधित प्रश्न सदैव मन में रहता है जैसा कि कई लोग बार-बार कहते हैं कि प्रभु जी हम माया में हैं। मोह और माया इस शब्द का प्रयोग बहुत अधिक सरलता से किया जा सकता है, परंतु वास्तविक इसको तत्वतः समझना आवश्यक है। व्यक्ति मुक्त तभी हो सकता है जब वह वास्तविक अपनी बद्ध अवस्था को समझ पाए। व्यक्ति निरोगी तभी होता है जब उसको रोग की पहचान हो जाए। उसको जैसे कि डायग्नोसिस किया जाता है तो वास्तविक इसका रोग क्या है इसे हम समझने का प्रयास करेंगे। चित्त धर्म से पूर्ण आध्यात्मिक स्वभाव संयुक्त जीव है, जीव कितने हैं, अनंत हैं अनगिनत जीव हैं। इस जगत में जीव का वास्तविक अस्तित्व उसका मूल प्रयोजन क्या है? या आत्मा के अस्तित्व का मूल आधार क्या है? अनंत संख्या में जीव हैं जो आध्यात्मिक स्वभाव से पूर्ण हैं और उनका मूल प्रयोजन है "सुख" अब इसके दो विभाजन किए गए हैं। प्रथम कहा गया है मुक्त जीव और दूसरा बद्ध जीव, मुक्त जीव का क्या लक्षण है वही सुख के लिए क्या करता है श्रीकृष्ण का वरण करता है श्रीकृष्ण का आश्रय लेता है श्रीकृष्ण की सेवा में जो सुख की अनुभूति करता है उसको कहा गया है कृष्ण परिकर, कृष्ण के परिकर मतलब पार्षद हैं और मुक्त हैं तो वास्तव में यदि हम मुक्त होना चाहते हैं या बद्ध होना चाहते हैं और हमें अच्छी तरह से पता चल जाए तो निश्चित रूप से हम अपने आप को निरोगी रखने के लिए इस रोग के लक्षण से अपने आप को मुक्त करने का प्रयास करेंगे किस रूप में इसको अन्य शब्दों में भी कहा जाता है श्रीकृष्ण के सुख में ही जिसका सुख हो जिसकी समस्त चेष्टाएँ श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष होती हैं उसे मुक्त जीव कहा गया है। जब हम अपने व्यक्तिगत जीवन में शब्दों को सुनते हैं परीक्षण भी किया जा सकता है किस अनुपात में हमारी चेष्टाएँ हैं। हमारी भावनाएं श्रीकृष्ण को सुख देने के लिए होती हैं जिस अनुपात में हमें श्रीकृष्ण को सुख देना है हम प्रातः काल से उठकर संध्या तक जितनी भी क्रियाएं कर रहे हैं कृष्ण को सुख मिल रहा है कैसे, इस क्रिया से ,यह भावना जितनी अधिक प्रगाढ़ होती चली जाती है उतना ही वास्तविक अवस्था के समीप पहुंचने लगता है और इसी को गोस्वामी कहते हैं *निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः । मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व-रूपेण व्यवस्थितिः ॥६॥* अनुवाद -अपनी बद्धावस्था के जीवन-सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है। परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति 'मुक्ति' है। या जैसे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी के शब्दों में कहा जाए "जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास", जीव का स्वरूप क्या है कृष्ण का नित्य दास होना। वह श्रीकृष्ण के आश्रय में रहता है यह मुक्त अवस्था का लक्षण है मतलब मुक्त अवस्था और बद्ध अवस्था, वास्तविक हमारी चीजों पर निर्भर नहीं करती। जैसे भावना या सुख का हेतु क्या है ? सुख का प्रयोजन क्या है ? श्रीकृष्ण का वर्णन करना। बद्ध अवस्था किसे कहा गया है तो निज सुख वर्णन है। शब्द बहुत अधिक स्पष्ट होते हैं यदि आप समझ सके कृष्ण का वर्णन किया उनके सुख के लिए, यहां पर शब्द है अपने सुख के लिए विचार करना, जब यह निज सुख का विचार जैसे ही आया तो निकट में ही बगल में ही कृष्ण के निकट में कौन हैं ? माया *कृष्ण बहिर्मुख हइया भोग वॉछा करे | निकटस्थ माया तारे झापटिया धरे ।। पिशाची पाइले जेन मति-छन्न हय मायाग्रस्त जीवेर हय से भाव उदय || आमि सिद्ध कृष्ण दास, एइ कथा भुले । मायार नाफर हडया चिर दिन बले ।।* *कभु राजा, कभु प्रजा, कभु विप, शुद्ध। । कभ दरवी, कभ सखी, कभ किट खुद्ध ।।* *कम स्वर्गे, कभ मये, नरके वा कम । कभ देव, कभु दैत्य, कभु दास, प्रभु ||* निकट में जो माया है जिस क्षण आपने जीवन में मुझे सुख चाहिए यह भावना जैसे ही आयी तो समझ लेना चाहिए कि आप लपेटे में आ चुके हैं। जब यह भावना आती है जो सुख की भावना तभी तुरंत ही व्यक्ति बद्ध हो जाता है या उस अवस्था में पड़ता है। इस प्रकार से माया कितनी शक्तिशाली रूप से हमें बांध देती है उसको हम थोड़ा समझने का प्रयास करेंगे, श्रीमद् भागवत तथा कुछ आचार्यों के शब्दों में माया या अविद्या के पाँच रूप तो आगे श्रील हरिदास ठाकुर चैतन्य महाप्रभु से कह रहे हैं। ऐसे जीव जो कृष्ण से बहिर्मुख हुए , प्रारंभ कहां से हुआ निज सुख की भावना से, निज सुख से फिर माया ने उसको पकड़ लिया तो जैसे माया शब्द है जो कृष्ण से बहिर्मुख हो चुका है और वह शरीर माया द्वारा रचित या फिर यह जो 8400000 योनियां है देवी धाम मतलब जिसको अचिद कहा गया है। इस भौतिक जगत में वह आ जाता है तो यह किस तरह से जो यह जीव है। आसमान से गिरे मतलब आध्यात्मिक जगत से गिरे संसार में हम फंसे हैं और जो हम यहां पर अटके हुए हैं तो कैसे यह माया हमें बांधती है भागवत के शब्दों में देखा जाए क्योंकि शब्दों को बहुत ही सहजता से प्रकट करना चाहिए। प्रभुजी हम तो माया में हैं, माया में हैं समस्या यह है कि माया क्या रही है यह समझ में नहीं आता, माया के लक्षण जैसे शरीर में कुछ लक्षण पता चलते हैं तब आपको पता चलता है कि आपको रोग है। यहां पर श्री चैतन्य महाप्रभु जब हरिदास ठाकुर से कहते हैं कि कैसे जीव का उद्धार हो तो कैसे हैं, हमारा रोग क्या है? तब यह अवश्य देखेंगे इस सत्र में थोड़ा संक्षिप्त में समझने का प्रयास करेंगे , रोग क्या है हमारा जो हम माया में हैं उसके बाद में श्री हरिदास ठाकुर चैतन्य महाप्रभु को विभिन्न प्रकार की औषधियां बताते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने जीव का उद्धार करने के लिए कौन-कौन से उपाय किए हैं और उन समस्त औषधियों के फेल होने पर अंततः केवल एक ही औषधि बस जाती है। हरि नाम, इसको अंततः बताया जाएगा। आइए हम यहां पर यह जो माया या जिसे बहिर्मुख कहा जाए या जिसे अविद्या कहते हैं, इसी को श्रीमद्भागवत के शब्द में जब भगवान ने प्राथमिक सृष्टि किया और अंततः ब्रह्मा जी के द्वारा जब गौण सृष्टि की गई, यह सृष्टि माया के निर्मित हुई जिसको श्रीमद्भागवत में तृतीय स्कंध अध्याय 12 के श्लोक संख्या 12 में बताया गया है। पांच प्रकार की माया का वर्णन किया गया है आप लोग भी मेरे साथ में कह सकते हैं *सदवानकटहास्थितहाताहा सेड़ सब नित्य कृष्ण बहिर्मख हैल। देवी धामे मायाकत शरीर पाइल॥* (श्री.भा.३.१२.२ ) अनुवाद: वे ही जीव कृष्ण से नित्य बहिर्मुख होकर, देवी धाम में माया से रचित शरीर को प्राप्त करते हैं।मोह-माया क्या है? अविद्या-अज्ञान क्या है? *सत्सर्जाग्रेऽन्ध-तामिस्त्रम् अथ तामिस्त्रम् आदि-कृत् । महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञान-वृत्तयः ।।* अनुवाद : ब्रह्मा ने सर्वप्रथम आत्म-प्रवंचना, मृत्यु का भाव, हताशा के बाद क्रोध, मिथ्या स्वामित्व का भाव तथा मोहमय शारीरिक धारणा या अपने असली स्वरूप की विस्मृति जैसी अविद्यापूर्ण वृत्तियों की संरचना की। यह पांच चीजें हमें अपने जीवन में परीक्षण करनी है कितने प्रमाण हैं उस प्रमाण के आधार पर आप कह सकते हो कि वास्तव में हम माया में हैं। इन्हीं को प्रभुपाद के शब्दों में कहा जाता है तो अधिकृत अर्थात सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने कौन-कौन सी चीजें बनाई । अब क्रम यह है सबसे पहले है तम जैसे हम कहते हैं ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य "तम" शब्द का अर्थ क्या होता है। इस प्रकार से हमने वास्तविक रूप से यह सुना निज सुख की भावना इस संसार में भोगने की इच्छा जीव की हुई। भोगने की इच्छा के लिए क्या करना पड़ेगा उसे अपने स्वरूप का विस्मरण दिलाना जरूरी है कि मैं श्रीकृष्ण का नित्य दास हूं और मैं श्रीकृष्ण के भोग के लिए बना हूं। यह सबसे पहली चीज होती है जिस प्रकार से उदाहरण के लिए कहा जाए मान लीजिए अगर मुझे यह मानना है मैं अमेरिकन हूं उसके लिए पहली चीज क्या करनी पड़ेगी पहले मुझे विस्मरण दिलाना पड़ेगा कि मैं भारतीय हूं क्यों कि जब मुझे इस व्यक्तित्व का विस्मरण होगा तभी तो मुझे पता चलेगा कि आई एम अमेरिकन, अमेरिकन हूं यह माया का प्रभाव है। सबसे पहली चीज तम वह स्वरूप का लक्षण है विस्मरण है मैं श्रीकृष्ण का नित्य दास हूं, मैं आत्मा हूं, मैं कृष्ण की सेवा और कृष्ण के सुख के लिए ही बना हूं इसका विस्मरण, सबसे पहले तो तम और मोह , यहां पर कह रहे हैं भ्रांत धारणा मतलब मिसिडेंटिफिकेशन, प्रभुपाद जी कहते हैं भ्रातर्यर्हि निमिलिता: सि नयने तत्र क्वा कान्तात्मज-भ्रातृ-स्वाप्त-सुहृद्गण: क्वाच चपः कुत्र प्रतिष्ठादयः। कुत्रहंकृत्यः प्रभूत-धनविद्या द्यैस्त सर्वत-स्त्वं निरविद्या सविद्या! किं नु न चल स्यद्यैव वृंदावनम्? ।। ( श्री प्रबोधानंद सरस्वती, वृन्दावन महिमामृत (1.81)) अर्थ:- हे भ्रातः! जब तुम दोनों नेत्र बन्द करोगे (मृत्यु को प्राप्त होवोगे) तब तुम्हारे स्त्री, पुत्र, भ्राता एवं विश्वासपात्र सुहृदगण कहाँ रहेंगे? तुम्हारे गुण, तुम्हारी प्रतिष्ठा आदि किस काम आवेंगे? प्रभुता, धन एवं विद्या जनित जो अभिमान है, वह कहाँ रहेगा? इसलिये, हे सुविज्ञ! सबों से वैराग्य करके आज ही तू क्यों श्रीवृन्दावन नहीं चलता? मतलब अपनी गलत पहचान को स्वीकार किया जाता है। पहली चीज है कि अपनी पहचान को भुला दिया गया कल्पना कीजिए कि संसार में माया की प्रोग्रामिंग कितना पावरफुल है मान लीजिए आप में से यहां पर कोई प्रभु जी हैं और आपको कहा जाए आप कल्पना करें कि आप स्त्री हैं कठिन है ना हम अपनी पहचान में इतने अधिक स्थित हैं के कठिन हो जाएगा कि आप स्त्री हैं स्त्री की तरह विचार कीजिए उसकी तरह पहनावा कीजिए तो यह कठिन हो जाएगा इसी प्रकार माया का कार्य यही है कि वह सबसे पहले हमारी पहचान को पूरी तरह से भुला देती है और दूसरा कार्य कि वह गलत पहचान को स्थापित करवाती है कि हम यह शरीर हैं। अतः भ्रांत धारणा मतलब गलत धारणा, देखा जाए तो हम शरीर नहीं है। हम शरीर को ही मान लेते हैं यह शरीर नश्वर है। इसी को ही शाश्वत मान लिया जाता है इस तरह से इस को मोह कहा गया है और मोह का परिणाम क्या होता है, महा मोह मतलब भोग्य वस्तुओं का स्वामी, जैसा मेरा घर है मेरी यह वस्तु है, मेरी संपत्ति है, मेरा परिवार है, यह जो स्वामित्व ममत्व की भावना इसको मोह कहते हैं। क्रम आप समझ रहे हैं ना तम से मोह आया फिर मोह से महा मोह आया पहले अपनी पहचान भूल गए दूसरी बात है आपनी गलत पहचान बनाई और गलत पहचान से ही आपने फिर अपना एक गलत संसार बना लिया कि मेरा संसार है और उसके बाद क्या होता है तमिस्त्रं जो संसार मेरा है और इस संसार को जब हम भोगने का प्रयास करते हैं। तब व्यक्ति के आगे अवरोध आता है और व्यक्ति के अंदर क्रोध उत्पन्न हो जाता है उसी को तमिस्त्रं कहा गया है और अंध तमिस्त्रं मृत्यु का भय, मृत्यु का भय है। ब्रह्मा ने सबसे पहले आत्मा का विस्मरण, मृत्यु का भाव, हताशा के बाद क्रोध, मोह में शारीरिक धारणा अपने असली स्वरूप की विस्मृति अर्थात अविद्या समझना, तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद के हम पढ़ते हैं विभिन्न प्रकार के जीवों की सृष्टि में वास्तविक में पूर्ण ब्रह्मा जी ने यह परिस्थितियां उत्पन्न की मतलब यदि आपको अब इस संसार में भोग करना है तब उसके लिए आपको तैयार किया जाता है जिससे आप आराम से रह सके। मान लीजिए जैसे कोई व्यक्ति अपना घर छोड़कर परदेश में जाता है जब तक वह अपने घर में लौट कर नहीं आए तो वह व्याकुल रहता है बेचैन रहता है वास्तव में यदि आप उस परदेश को अपना घर मान लेंगे तो आप घर लौटना नहीं चाहेंगे, अपने घर का अपने निजधाम का अपने निजी स्वरूप का अपनी निजी सेवा का पूरी तरह से एकदम मेमोरी डिलीट कर दी जाती है। किसी भी तरह से उसको अवरुद्ध कर दिया जाता है ताकि इस संसार में जीव भोग कर सके जब तक जीव अपने असली स्वरूप को भूल नहीं जाता तब तक जीवन की भौतिक अवस्था में उसके लिए रह पाना असंभव है। कितना सरल है हम भूल चुके हैं यहां तक कि मैं प्रवचन दे रहा हूं और कितना भी कह लूं कि मैं शरीर नहीं मैं आत्मा हूं परंतु यदि देखा जाए तो उसकी अनुभूति कितनी है वास्तव में कृष्ण के आनंद के लिए ही बना हूं यह किस अनुपात में इसकी अनुभूति है यदि देखा जाए तो उतनी नहीं है जितनी की होनी चाहिए इसका अर्थ समझ सकते हैं इसका अर्थ तम है। इसमें दासत्व का स्मरण नहीं हो रहा है हालांकि तिलकधारी धारण किए हुए जीव कृष्णदास का मतलब है कि स्मरण है। इस शरीर को तो हम मानते हैं ना कहने के लिए चाहे हम कितना भी कह दे परंतु अंत में शरीर है और अगर कभी उपवास होने लगे तो शरीर को कुछ कष्ट हो रहा है मतलब तम भी है और मोह भी है शरीर के जो सम्बंधित वस्तु मेरा मैकबुक, मेरा स्मार्टफोन है उनके प्रति मेरा है जबकि दान में मिलता है हमें भी ग्रहस्थो की तो बात ही कुछ और है गृहस्थ कमाते भी हैं ब्रह्मचारी तो दान पर ही प्राप्त होता है परंतु फिर भी जो भी वस्तु आपके पास है आपके पास आ जाती है उसमें मोह तत्व भाव बन ही जाता है। अगर उसमें कोई अवरोध लेकर आए तो मान लीजिए कि आप एकादशी में बैठे हैं और आम का रस आपके सामने रखा जाए और किसी ने तुरंत कहा कि प्रभु जी प्रसाद कम है आपको नहीं मिलेगा आपके सामने आम का गिलास का रस रखा है हटा दिया जाए तो क्या होगा तामिस्त्र मतलब क्रोध और फिर, भौतिक जगत की पहली दशा अपने स्वरूप की विस्मृति अपने असली स्वरूप को भूल जाना और मृत्यु से भयभीत होना निश्चित है और व्यक्ति को भय आता कहां से है, बहुत सुंदर बात कही है इसको भागवत में भी कहा गया है , ब्रह्मा जी ने ही पाँच पर्वो वाली अविद्या की सृष्टि की है। पातञ्जल योगदर्शन में भी कहा गया 1. अविद्या (तम), 2. अस्मिता (मोह), 3. राग (महा मोह) , 4. द्वेष (तामिश्र), 5. अभिनिवेश (अंध तामिश्र) ये पांच प्रकार के क्लेश हैं | जैसे अपने स्वरूप में आपने भूल गए तब भी डर लगता है शरीर मरने वाला है ऐसे में विशुद्ध आत्मा की मृत्यु हो जाएगी। प्रभुपाद जी कहते हैं भौतिक मृत्यु के साथ यह झूठी पहचान उन वस्तुओं के मिथ्या स्वामित्व का कारण है जो श्रेष्ठ नियंत्रण के द्वारा प्रदत होती है तो श्रीधर स्वामी की और कुछ टिकाओ में से समझने का प्रयास करेंगे । श्रीधर स्वामी यहां कह रहे हैं कि सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने अविद्या के 5 वर्णन किया है श्रीधर स्वामी टीका : सर्व प्रथम ब्रह्माजी ने अविद्या (अज्ञान) की पाँच वृत्तियों की सृष्टि की। 1.तम- स्वरूप का प्रकाश न होना तम कहलाता है। 2.मोह- देह आदि में होने वाली आत्मत्व की बुद्धि को ही मोह कहते हैं 3.महामोह- भोगों की इच्छा को महा मोह कहते हैं । अथवा भोग्य विषयों में ममत्व का आरोप अर्थात ये मेरे हैं। 4.तामिस्त्र- भोग की प्राप्ति में किसी के द्वारा बाधा डाले जाने पर जो क्रोध उत्पन्न होता है उसको तामिस्त्र कहते हैं। 5.अन्धतामिस्र- भोग का नाश हो जाने पर यह सोचना कि अरे मैं ही नष्ट हो गया इसी को अन्धतामिस्र कहते हैं इत्यादि। श्रीधर स्वामी ने स्वरूप का प्रकाश ना होना तम कहलाता है प्रकाश मतलब अनुभव नहीं हो रहा है मान लीजिए भगवान के निज धाम में जो हमारा मुख्य स्वरूप है जिस भी स्वरूप में हम हैं पूरी तरह से वो ढक चुका है हालांकि वह शरीर के अंदर है एक आत्मा है जिस स्वरुप में है परंतु उस स्वरूप में इतना गहरा आवरण है की किंचित मात्र भी अनुभूति नहीं होती उस स्वभाव की , उस स्वरूप की, तो यह कितना हार्ड कवरिंग है तम और दूसरा है मोह, देह आदि में होने वाली आत्म बुद्धि को ही मोह कहा गया है और शरीर की पहचान कितना भी कहां जाए जिस तरह से श्रीमद्भागवत में अन्य तरह से इस बात को कहा गया है कि जब तक आप देह से अपनी पहचान बना रहे हैं पर आप क्या कर रहे हैं कि भगवान की सेवा कर रहे हैं भगवान की भक्ति कर रहे हैं भगवान का नाम जप कर रहे हैं। भगवान की अर्चना कर रहे हैं परंतु देह को आपने मैं मान लिया है तो जितनी भी आपकी रचनाएं हैं जितना आप का भजन है जितना आपका नाम जप है तो वह किसके समान कहा जाता है जिस प्रकार राख में आहुति दी जाए, राख में अगर आप घी डालते हैं तो कितनी संभावना है कि अग्नि प्रज्वलित हो जाए वैसे ही इसीलिए आप देखते हैं कि भगवान के लिए जब आप भगवान की सेवा करते हैं भगवान की अर्चना करते हैं जानते हैं कि सबसे पहले जो क्रिया होती है, भूत शुद्धि मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य नहीं हूं, मैं ब्रह्मचारी गृहस्थ नहीं हूं इसके साथ ही प्रारंभ होती है इसी बात को श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा है जब तक आप अपने आप को देह मानते हैं तब तक आपको क्लियर नहीं है। देखा जाए तो संसार अच्छा है कृत्रिम रूप से संसार अच्छा लगता है संसार में भोगने की इच्छा है यह अपना परिवार है यह अपने जन हैं अपनी वस्तु है अपनी संपत्ति है यह सब वास्तविक लगता है जैसे जिस तरह से श्रील प्रभुपाद ने कहा है। वृंदावन महिमा में एक बहुत सुंदर वचन कहते हैं, यह तुम अपनी आंखों को खोल कर यह पलके खुलती हैं पलके बंद होती हैं कभी तुमने विचार किया है बहुत शीघ्र एक ऐसा क्षण आने वाला है हे मेरे मन तुम्हारे लिए एक ऐसा अच्छा क्षण आएगा जब यह पलके बंद होंगी और बंद होंगी फिर कभी नहीं खुलेगी और जब वह पूरी तरह से बंद हो जाएगी, तब कौन सी पत्नी कौन सा बच्चा को आत्मजा कौन सा भाई कौन से अपने परिजन पुत्र कौन सी प्रतिष्ठा कौन सी संपत्ति और कौन सा घर एक क्षण में जैसे ही पलके बंद होगी तो कोई भी नहीं रहेगा कोई भी वस्तु नहीं रहेगी परंतु इतना भयंकर यह प्रभाव है कि यह कहने में कितना भी हम कह लें परंतु यह अपनापन इस संसार से छूट नहीं रहा है। चौथी बात तामिस्त्र हो जाएगा आपको जब क्रोध उत्पन्न होता है तो हम देखते हैं कि हमारे जीवन में क्रोध क्यों आता है क्योंकि हम इस संसार को भोगना चाहते हैं जहां क्रोध ईष्या द्वेष आदि जो दोष आते हैं। यही कारण है और अंत में कहा है भोग का नाश हो जाने पर यह सोचना कि मैं नष्ट हो गया जैसे मतलब यह चला गया तो मैं अब जी नहीं पाऊंगा इस वस्तु के बिना मैं अपने प्राण दे दूंगा ऐसी दशा हो जाती है कि इतना अपनापन है इस संसार से उस वस्तु के प्रति होता है कि अगर वह वस्तु चली जाए जैसे आपने देखा होगा कि जब नोट बंदी हुई थी हमने सुना कुछ लोगों के साथ ऐसा हुआ जैसे उनके साथ रातों-रात नोटबंदी हो गई तो फिर कुछ लोगों को हार्टअटैक तक आ गया कुछ लोग बोलते भी थे कि प्रभु जी अपना बिजनेस, मैं तो खत्म हो गया जब उनके बिजनेस में कोई बहुत बड़ी हानी होती है। उस टाइम पर कहते हैं मैं तो खत्म हो गया पूरी तरीके से खत्म हो चुका हूं। खत्म हुआ का मतलब क्या हुआ कि जो भोग की वस्तु थी वह नहीं रही, ऐसा लगा उनको कि उनका अस्तित्व ही नष्ट हो गया इसको कहते हैं अंधतामिस्त्र अर्थ है यह भोग नष्ट होने पर अपने नष्ट होने की प्रतीत होना और दूसरा अंधतामिस्त्र का अर्थ है मृत्यु का भय, कितना अधिक हमारे जीवन में मृत्यु का भय है कहने को कितना भी सुन ले हम परंतु फिर भी भय बना रहता है। मेरी जिस दिन मृत्यु हो गई तो क्या होगा निश्चित रूप से यहां पर तो सब भक्त हैं जो हरि नाम जप कर रहे हैं विशुद रूप से गुरु का आश्रय लिया है देखते हैं अनुपात कुछ कुछ कम हो रहा है ध्यान है ना आपको तम तामिस्त्र मोह महा मोह तमो 'विवेको मोहः स्याद अंतः-करण-विभ्रमं महा-मोहस तू विज्ञानो ग्राम्य-भोग-सुखैणा ( विष्णु पुराण) एक बार पुनः इसको विष्णु पुराण में कहा गया है उसी बात को विवेक के अभाव में तम कहा जाता है अपनी पहचान का विवरण मैं हूं पुनः अंत करण ब्रह्म महा सुखों को भोगने की इच्छा तामिस्त्र का मतलब क्रोध और तमिस्त्रों के साधन इसी को श्रील प्रभुपाद ने अपने तात्पर्य में कहा है मैं तो वहां पर भी इन शब्दों का भिन्न प्रकार से श्लोक अविद्या राग द्वेष कहा जाता है उसको तम को ही अविद्या कहा जाता है। अस्मिता का मतलब अपनी गलत पहचान को स्वीकार करना और राग हो जाता है वस्तु के प्रति और द्वेष आदि होता है और इतना अधिक उस वस्तु के प्रति अपनापन हो जाता है कि वस्तु नष्ट हो जाए तो ऐसा लगता है कि हम भी नष्ट हो गए। यह वास्तविक चार्ट भी है तम मतलब पुनः स्वरूप का प्रकाश कहां गया है अपने स्वभाव को भूलना जैसे कि श्रील प्रभुपाद ने कहा है शब्द प्रयोग किया है देहात्म बुद्धि महामोह मतलब वह इच्छा या ममता इस जगत के प्रति यह संसार अपना लगना और भगवान अपने ना लगना तमिस्त्रा भोग की अप्राप्ति से क्रोध और अंततः भोग के सकाम है इसी को श्रील प्रभुपाद अन्य तरीके से शब्द प्रयोग किए हैं। आवरण आत्मिका मतलब जिस तरह से यहां पर एक अलग दृष्टांत दिया है। इस को पूरी तरह से शरीर जल के अंदर जा चुका है एक आवरण माया क्या कहती है सबसे पहले पहचान को पूरी तरीके से छुपा देती है आपसे आपकी पूरी तरह से भूल चुके हैं कि कितने जन्मों से हम भटक रहे हैं। पहचान का किंचित मात्र भी हमें अनुभूति नहीं हो पा रही है और फिर होता है विक्षिप्त आत्मा उस मूल वृत्ति स्वभाव से विपरीत दिशा में हमें प्रोग्राम कर दिया जाता है इस तरह से इस वास्तविक महा या माया कहा गया है और इस मोह माया के अंतर्गत रहकर फिर क्या होता है आगे कहा गया है *बद्ध - बहिर्मुख जीव पुण्य-पाप-कर्मचक्रे पडिया एखन |स्थूल-लिंग देहे सदा करेन भ्रमण ||* ३९।। *कभ स्वर्गे उठे, कभ निरये पडिया। चौराशी लक्षयोनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया ||* ४०|| फिर इस संसार में यह जो चक्कर चल रहा है अपनी पहचान हम भूल चुके हैं गलत पहचान को स्वीकार किया है और अपना एक गलत परिवार और संसार बना कर बैठे हैं और फिर निरंतर भय बना रहता है। वस्तु का हमसे छूट ना जाए वह पुण्य पाप का चक्रों में पड़ जाता है। फिर अलग-अलग 8400000 लिंग का मतलब शरीर निरंतर भ्रमण करता रहता है कभी स्वर्ग में जाता है कभी नरक में जाता है 84 लाख योनियां। इसी को कवि राज गोस्वामी के शब्दों में कहा जाए तो कवि राज गोस्वामी क्या कहते हैं यह एक प्रसिद्ध वाक्य है आप सभी जानते हैं *कृष्ण बहिर्मुख हइया भोग वॉछा करे | निकटस्थ माया तारे झापटिया धरे ||* क्रम क्या है कृष्ण भक्त मुक्त श्रीकृष्ण विस्मरण होने पर इस संसार के भोग की इच्छा होती है हम आध्यात्मिक जगत से आए तब भी यही बात होती है और इस संसार में जबकि हम भक्ति कर रहे हैं तभी भी यही अनुभव होता है। प्रभु जी हम तो माया में पड़ गए माया में पढ़ते कब हैं पहली क्रिया होती है जब श्रीकृष्ण का विस्मरण पहली बात और इसका परिणाम दूसरा क्या होता है भोग वांछा और अगर यह दो हो तो फिर माया पकड़ लेती है जिस तरह से आपने एक उदाहरण सुना भी होगा कि गांव में इस तरह से होता है, हमने सुना है कि किसी व्यक्ति को सांप डस लेता है तो सांप डस ले, शरीर में जहर पहुंचा है यह कैसे पता चलेगा तो गांव में एक प्रक्रिया है कि जाती है कि हमने सुना है कि नीम के पत्ते जोकि बहुत कड़वे होते हैं नीम के पत्ते उसके मुंह में डाले जाते हैं खिलाया जाता है उसको नीम के पत्ते इतने कड़वे होते हैं कि आप खा नहीं सकते तो उस व्यक्ति के शरीर में विष फैल चुका है कि नहीं कैसे पता चलता है , कहते हैं कि नीम के पत्ते उसके मुंह में डाल देते हैं अगर नीम के पत्तों का उसे कड़वापन अनुभव होता है मतलब समझना चाहिए अभी विष का प्रभाव नहीं हुआ है परंतु यदि उसे नीम के पत्ते का मुख में डालने के बाद उसके कड़वे पन का एहसास नहीं होता है अर्थात समझ लो कि फिर जहर फैल चुका है। संसार जो है बहुत दुख में है विष् रूप या मल बमन है, परंतु संसार अच्छा लगना मतलब यह समझ लेना कि की वास्तविक माया का विष फ़ैल चुका है। वही यहां कहा गया है कि *पिशाची पाइले जेन मति-छन्न हय | मायाग्रस्त जीवेर हय से भाव उदय ||* यहां पर कृष्ण दास कवि राज गोस्वामी ने एक दूसरा पिशाची जैसे कोई भूत से ग्रसित हो जाता है कहते हैं मति छन हुए वह व्यक्ति अपने नॉर्मल बिहेवियर नहीं करता माया ग्रस्त, मान लीजिए व्यक्ति नॉर्मल चार रोटी खाता है अंदर भूत घुस जाता है तो 50 रोटी भी खा जाता है , उसकी क्रिया अलग हो जाती है उसकी आवाज भी बदल जाती है। वैसे ही यह माया रूपी पिशाचिनी पकड़ लेती है, बहुत ही विचित्र प्रकार का अब तो अपने स्वभाव अपने स्वरूप के विपरीत वहां क्रियाओं को करने लगता है आगे वे कहते हैं कि *आमि सिद्ध कृष्ण दास, एइ कथा भुले । मायार नाफर हडया चिर दिन बले ।।* कि हम श्रीकृष्ण दास के दास हैं यही हम भूल गए हैं इस बात को पूरी तरह से माया का नौकर होकर इस संसार में भटकता रहता है किस तरह से कभी राजा बनता है कभी प्रजा बनता है कभी ब्राह्मण बनता है कभी शुद्र बनता है कभी दुखी कभी सुखी कभी छोटा सा कीड़ा बन जाता है कभी स्वर्ग कभी भौतिक जगत और कभी पृथ्वी जगत में कभी नरक में जाता है। इस तरह से निरंतर भ्रमण करता रहता है। महाभारत में एक प्रसंग आता है जिसमें इस बात का वर्णन किया जाता है कि एक समय भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ घूम रहे थे अचानक अर्जुन ने क्या देखा एक छोटा सा कीड़ा था जो बहुत संघर्ष कर रहा था ऊपर चढ़ने के लिए , उसके उस कष्ट को देख कर अर्जुन के हृदय में दया का भाव उमड गया, कहा की प्रभु इस जीव के विषय में आप कुछ विचार कीजिए कि कैसे इसका उद्धार हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण वहां पर मुस्कुराने लगे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि यह छोटा सा जो कीड़ा है तुम्हारी जानकारी के लिए कम से कम 50 बार इंद्र बन चुका है आप समझ रहे हैं वाकई इस संसार में ऐसा कोई शरीर है नहीं ऐसा कोई भोग है नहीं जो आपने अनुभव किया नहीं है। इस तरह प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि पुनः पुनः इस तरह से यह रोग जो माया कृत शरीर पाइला यह जो भ्रमण कर रहे हैं यह हमारा भयंकर रोग है। भगवान श्रीकृष्ण इस रोग का कैसे निवारण करते हैं वह आगे वर्णन किया गया है अभी यहीं तक विराम देंगे अब इसका कैसे उपाय आप अपना परीक्षण करके देख सकते हैं। यह चीजें हैं और जितना अधिक अनुपात में हम भगवान के भक्तों के संग में आ रहे हैं भगवान का नाम जप कर रहे हैं उतना मृत्यु का भय नहीं रह जाता परंतु हां पता है कि लोग जिस रूप में रहके भगवान श्रीकृष्ण, गुरु का, वैष्णव का संग हमें प्रदान करें सेवा करें तो क्रोध भी कुछ अनुपात में कम हुआ है जिस अनुपात में कम हो रहा है मतलब माया का प्रभाव कम हो रहा है जिस अनुपात में श्रीकृष्ण के साथ अपनापन लग रहा है उस अनुपात में हमारा माया के साथ अनुपात कम हो रहा है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* गौर प्रेमानन्दे ! हरि हरी बोल !

English

Russian