Hindi

हरे कृष्ण !! जप चर्चा पंढरपुर धाम 24 जुन 2021 जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ 850 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । जय जगन्नाथ स्वामी की ! जगन्नाथ पुरी धाम की ! आज प्रातः काल तो हमने पता नहीं आपने भी ऐसा किया है कि नहीं या हमने तो जगन्नाथपुरी में ही विदाई प्रातः काल । मन दौड़ रहा था, पंढरपुर से जगन्नाथपुरी की ओर । तो हर दिन विशेष होता ही है कम या अधिक तो आज का दिन भी कुछ कम विशेष नहीं है । आज का दिन महान है । आज जगन्नाथ स्नान यात्रा महोत्सव की ( जय ! ) । जगन्नाथ का स्नान यात्रा का दिन है । हमारे तुम्हारे स्नान का दिन नहीं है । किसे परवाह है ! कोई याद नहीं करना चाहेगा । हमारे तुम्हारे स्नान की । किंतु जब होता है जगन्नाथ स्वामी का होता है स्नान , जिसको अभिषेक कहते हैं । उस अभिषेक महोत्सव का क्या कहना ! जगन्नाथ का स्नान बन जाता है एक उत्सव । या कृष्ण का स्नान या भगवान का अभिषेक एक विशेष महोत्सव । आज के दिन ही ऐसा इतिहास है राजा इंद्रद्युम्न जो जगन्नाथ के अनन्य भक्त रहे । या उनकी भक्ति का महीना क्या कहना ! वह कैसे खोज रहे थे भगवान को , ( You will seek me and find me) कहा है । खोजने पर मिल जाते हैं कोई बात या व्यक्ति प्राप्त हो जाएंगे । seek you will find . तो वैसे ही हुआ उसकी लंबी कहानी का इतिहास है । कैसे मिले अंततोगत्वा मिलना ही पड़ा भगवान को , दर्शन देना ही पड़ा राजा इंद्रद्युम्न को । पहले जो नीलमाधव थे, मैं इतिहास नहीं बताना चाहता हूं ! तो नीलमाधव उनके पकड़ में नहीं आए । उनका दर्शन नहीं हुआ या अदृश्य हुए । और आकाशवाणी हुई मैं एक कास्ट के रूप में तुम को प्राप्त हो जाऊंगा । तो उसी को कहते हैं "दारुब्रह्म" । दारू , कास्ट यानी लकड़ी , ब्रह्म एस्से लकड़ी के रूप में मैं तुम्हें प्राप्त हो जाऊंगा । वह लकड़ी साधारण नहीं होगी,इस संसार के प्राकृतिक लकड़ी नहीं होगी । वह ब्रह्म ही होगी , दारुब्रह्म के रूप में । दारुब्रह्म के रूप में प्राप्त हुए भगवान । और फिर कई विघ्न आते रहे भगवत प्राप्ति या जगन्नाथ प्राप्ति के मार्ग में । और हर विघ्न फिर अधिक अधिक उत्कंठा उत्पन्न कर रहा था इंद्रद्युम्न महाराज के जीवन में । भगवत प्राप्ति के लिए उत्कंठा । तो दारुब्रह्म के रूप में प्राप्त हुए भगवान, फिर मूर्ति बनाने की प्रयास और उसमें कई सारी विफलता , उनके कई सारे प्रयास । तो अंततोगत्वा विश्वकर्मा ही आए, राजा इंद्रद्युम्न को पता नहीं था कि विश्वकर्मा थे जो, सुतार ( Carpenter ) , के रूप में आए । और उन्होंने कुछ हद तक सफलता प्राप्त हुई । वैसे पूरी सफलता प्राप्त हुई । फिर उन्होंने उस दारुब्रह्म के तीन मूर्तियां बनाई । जिनके प्राप्ति पर राजा इंद्रद्युम्न ने सोचा कि यह तो भगवान ऐसे कुरूप या विद्रूप थोड़े हो सकते हैं ? तो फिर आए थे नारायण नारायण ; नारद मुनि आए और फिर उन्होंने पूर्व घटी हुई लीलाएं सुनाइए और कहा कि कृष्ण और बलराम , सुभद्रा यह जो रूप देख रहे हो ना राजा को कह रहे हैं, ऐसे ही रूप के बने थे जगन्नाथ , बलदेव , सुभद्रा या कृष्ण , बलराम , सुभद्रा । यह अपूर्ण या अधूरा भगवान नहीं है यह संपूर्ण है । यानी पूर्ण से भी पूर्णतम है । आप आगे बढ़ीए । प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हो । और भी इतिहास है । आज के दिन इंद्रद्युम्न राजा ने प्राण प्रतिष्ठा की होगी । वैसे मैं तो यह कह रहा हूं मुझे उचित नहीं लग रहा है प्राण प्रतिष्ठा की ! नहीं । वह जो विग्रह बने थे वह प्राण से पूर्ण थे । वह दारुब्रह्म में , उस कास्ट में भगवान ने पहले ही प्राण डाल चुके थे । वह परम ब्रह्म ही था वह लकड़ी या कास्ट । तो प्राण प्रतिष्ठा हुई यह कहना उचित नहीं होगा किंतु अभिषेक किया । ज्येष्ठ पूर्णिमा थी जैसे आज है । और यह अति प्राचीन काल की बात है आज के दिन जगन्नाथपुरी में राजा इंद्रद्युम्न ने भगवान का अभिषेक किया । और फिर उसी अभिषेक के साथ भगवान प्रकट हुए या दर्शन देने लगे । जगन्नाथ , बलभद्र , सुभद्रा की ! (जय) । जगन्नाथ , बलभद्र , सुभद्रा के में प्रकट हुए । तो आज का जगन्नाथ स्नान यात्रा का दिन जगन्नाथ , बलभद्र , सुभद्रा का प्राकट्य दिन भी माना जाता है । तो तब से हजारों लाखों बरसों से ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन जगन्नाथपुरी में यह स्नान यात्रा संपन्न होती है । और आज भी होगी । तैयारियां हो रही है । तो आज के दिन जगन्नाथ , बलदेव , सुभद्रा के विग्रह को वैसे साल में दो ही बार भगवान के विग्रह मंदिर से बाहर आते हैं या लाए जाते हैं । तो आज का दिन वह 2 दिन में से 1 दिन है । तो मंदिर के बाहर प्रांगण में कहे या आनंद बाजार या जगन्नाथ प्रसाद का क्रय विक्रय होता है और जहां आप भी गए होंगे, आपने भी जगन्नाथ प्रसाद वहां बैठकर आस्वादन किया ही होगा उसी स्थान पर उसी क्षेत्र में विशेष वेदीयां है । और पूरी सजावट होती है और जगन्नाथ बलभद्र सुभद्रा के विग्रह वहां पर स्थापना वहां होती है । और फिर वहां से वह स्थान ऊंचा है तो सामने सिंह द्वार जगन्नाथ पुरी का जो मुख्य द्वार है वह सिंह द्वार है । उस द्वार पर जो आगे मैदान है जो वैसे रथ यात्रा प्रारंभ होती है वहां फिर हजारों लाखों की भीड़ इकट्ठी होती है और दर्शन होता है अभिषेक का । तो फिर पुनः कहेंगे कि जगन्नाथ पुरी में दो बार , वैसे जगन्नाथपुरी में उत्सव होते ही रहते हैं । जगन्नाथ पूरी कई सारे उत्सव के लिए प्रसिद्ध है । शायद इतने उत्सव और कहीं होते होंगे जितने जगन्नाथ पूरी में उत्सव मनाए जाते हैं । लेकिन फिर दो उत्सव है जिसमें अधिक संख्या में यात्री वहां पे पहुंच जाते हैं तो वह 2 दिनों में से एक है । स्नान यात्रा ii youऔर फिर जगन्नाथ रथ यात्रा । वैसे स्नान यात्रा महोत्सव के साथ श्रंखला प्रारंभ होती है स्नान यात्रा और फिर स्नान यात्रा का दर्शन । हरि हरि !! स्नान यात्रा का दर्शन अच्छा है तो पूरे विधि पूर्वक जगन्नाथ का स्नान होता है । और यहां वर्षा ऋतु है तो हवा में थोड़ी ठंडक है । तो भगवान का जहां स्नान हो रहा था तो संभावना है कि कोई खिड़की खुली तो ठंडी हवा ने भगवान के स्वास्थ्य बिगाड़ दिया । भगवान बीमार होते हैं इस अभिषेक के साथ भगवान की बीमारी प्रारंभ होने वाली है । तो यहां एक अच्छी समाचार है । और उसी समय है यह एक खराब समाचार ही है । स्नान यात्रा का महोत्सव के दिन तो बढ़िया है स्वागत है विशेष दर्शन है । जी भर के देखो । अखियां प्यासी है तो देखो ! जगन्नाथ को देखो , बलदेव , सुभद्रा को देखो । और फिर प्रार्थना भी करो । "जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु में" हे जगन्नाथ स्वामी क्या हो जाए "नयन पथ गामी भवतु" मेरे नयन का आंखों का जो मार्ग है "नयन पथ" मैं जहां भी देखूं वहां मुझे आपका सर्वत्र दर्शन हो । स्थावर - जङ्गम देखे , ना देखे तार मूर्ति । सर्वत्र हय निज इष्ट - देव - स्फूर्ति ॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 8.274 ) अनुवाद " महान् भक्त अर्थात् महाभागवत अवश्य हर चर तथा अचर को देखता है , किन्तु वह उनके बाह्य रूपों को नहीं देखता । प्रत्युत वह जहाँ कहीं भी देखता है , उसे तुरन्त भगवान् का स्वरूप प्रकट होते दिखता है । " ऐसे चैतन्य महाप्रभु कहे थे राय रामानंद को । तो ऐसा हो । मुझे आपकी स्पूर्थी सर्वत्र हो,सब समय हो । आपको मेरे नयन के आंखों के तारे आप बने या मैं जहां भी देखूं वह जो मेरे नयनो का मार्ग है उस मार्ग पर आप मुझे दिखे । ऐसी प्रार्थना उसका ही पूरा जगन्नाथ अष्टक ही है । तो आज के दिन तो भगवान दर्शन देते हैं किंतु भगवान जब बीमार हो जाते हैं स्नान के उपरांत तो फिर दर्शन नहीं । फिर डॉक्टर आते हैं जांच पड़ताल होती है डायग्नोसिस होता है और प्रिसक्रिप्शन क्या ? बेड रेस्ट । No visitors( कोई आगंतुक नहीं ) । तो सारे द्वार बंद आज । या कल से । तो आज आप जा रहे हो या गए होंगे तो ठीक है दर्शन होगा ही लेकिन कल नहीं जाना जगन्नाथ मंदिर या जगन्नाथ पुरी । आने वाले 2 हफ्ते के लिए जगन्नाथ का मंदिर बंद होगा । दर्शन नहीं होंगे । या फिर दर्शन चाहते ही हो जगन्नाथ का । स्नान यात्रा हुई तो अब एक के बाद एक उत्सव संपन्न होते रहेंगे । भगवान बीमार हो जाते हैं तो फिर और उत्सव कहो और विधि विधानोसे भगवान की सेवा, अर्चना वह भी एक दृष्टि से उत्सव भी होता है लेकिन वह पर्दे के पीछे वह सब होता है । हम और आप उस में शामिल नहीं कर पाते । तो इसी समय जब भगवान बीमार होते हैं जगन्नाथ , बलदेव , सुभद्रा विग्रह या रूप का कुछ मरा मत कहो कहना तो ठीक नहीं लगता है कुछ नवीकरण कुछ मरम्मत विशेषकर चित्र अंकित करते हैं । विग्रह का चित्र अंकित होता है । और फिर अगला उत्सव होता है नेत्रों उत्सव । तो स्नान यात्रा के दिन आपने दर्शन किया और फिर इतने दिनों के लिए दर्शन नहीं । भगवान दर्शन नहीं दे रहे हैं । भगवान अस्वस्थ है या अस्वस्थ होने का लीला खेल रहे हैं । भगवान कभी बीमार हो सकते हैं क्या ? यह उनकी लीला है । हम बीमार होते हैं कुछ कोरोना कुछ लक्षण दिखते हैं , कुछ बुखार आ गया कुछ खांसी कुछ उसको आप कह सकते हैं ए' यह मेरी लीला है । कोरोना लीला खेल रहा हूं मैं । लीला मतलब जो स्वइच्छा से होता है । तो भगवान तो स्वइच्छा पूर्वक बीमार होना पसंद करते हैं । उनके कोई कर्म का फल नहीं होता है । हमारे कर्म का फल हम भोंगते हैं रोग के रूप में । “न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यत ॥ ( भग्वत् गीता 4.14 ) अनुवाद:- मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ | जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह कभी भी कर्मों के पाश में नहीं बँधता । "न मां कर्माणि लिम्पन्ति" मेरे अपने कर्म से नहीं लेपायामान नहीं होता या में कर्मी नहीं हूं । कर्मी को अपने कर्म का फल चाहिए होते हैं । फ्रुटिव वर्कर प्रभुपाद कहते हैं । भगवान ऐसे तो है नहीं । भगवान का विग्रह हमेशा सच्चितानंद विग्रह हे भगवान । इसमें रोग बीमारी का कोई स्थान ही नहीं है । हमारा शरीर कैसा है । 'शरीरं व्याधि मंदिरं' यह भी जान लो । भगवान का रूप और हमारा रूप तुलना ही नहीं है जमीन आसमान का अंतर है जैसे कहते हैं । कब समझेंगे ? भगवान का रूप शास्वत है । और हमारे क्या इस भरोसा इस जिंदगी का हमारा शरीर तो क्षणभंगुर है । इसका कई भंग हो सकता है । बीमार तो होता ही रहता है । 'शरीरं व्याधि मंदिरं' है ; व्याधि का मंदिर है । तो स्नान यात्रा के बाद फिर आम जनता को भगवान पुनः दर्शन देते हैं । तो इतने दिनों के लिए दर्शन नहीं हुआ , सभी उत्कंठित होते हैं , भूखे प्यासे होते हैं और फिर नेत्रों उत्सव । रथ यात्रा के 1 दिन पहले यह नेत्र उत्सव होता है । यानी नेत्रों के लिए उत्सव । जैसे कर्ण उत्सव होता है ; कानों के लिए उत्सव जब हम हरि कथा सुनते हैं । कर्णो के लिए उत्सव । जीव्हा के लिए उत्सव, कल का उत्सव कैसा रहा ? दही चिवड़ा वगैरा ? ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्त को संबोधित करते हुए ) "शांत रूपिणी" कुछ दही चिवड़ा वगैरा भोग लगाया कि नहीं ? हां ? तो जीव्हा के लिए उत्सव होता है । कल जीव्हा के लिए उत्सव होता था । निर्जला एकादशी के दिन श्रवण उत्सव था । कर्ण उत्सव था तो फिर एक नेत्र उत्सव रथ यात्रा के 1 दिन पहले भगवान के पट खुलते हैं । सारे द्वार खुलते हैं और आपका स्वागत होता है । और जाओ भगवान के विग्रह का खूब दर्शन करो । हरि हरि !! चातक पक्षी तरह कहो । हरि ! मंदिर जब जाते हैं तो कईयों का या सभी का या अनुभव हो सकता है जगन्नाथ को देखते रहते हैं तो वहां के गार्ड और पुलिस वह तो आपको 1 मिनट में आपको आगे बढ़ाने चाहते हैं या भगाना चाहते हैं । लेकिन कई भक्त हमारे जैसे कहीं ना कहीं छुप के चौकीदार के नजर से छुपके अधिक से अधिक समय बिता के जगन्नाथ के रूप माधुर्य का दर्शन करना ही चाहते हैं । लगता है कि ऐसा दर्शन सदैव करते रहे और कहीं आने जाने की आवश्यकता है बस देखते रहो जगन्नाथ को । और वह दर्शन,देखने वाला तो वह आत्मा ही होता है आंखें नहीं होती फिर , आंखें नहीं रही जाती । देखने में दृष्टा , दर्शन के दृष्टा होते हैं देखने वाले I see or seer होता है अंग्रेजी में । मतलब देखने वाला दृष्टा दृश्य को देखता है । उसको हम दर्शन कहते हैं । तो वह है दृष्टा आत्मा । और दृश्य है भगवान का दर्शन । फिर उसके अगले दिन जगन्नाथ रथ यात्रा महोत्सव शुरू हो गये । तो सब शुरू हो गए एक के बाद एक उत्स्व । फिर रथ यात्रा के आरूढ़ के लिए जगन्नाथ बाहर आएंगे । कई साल गए थे रथ यात्रा में । ऐसे ही याद आ रहा है । हमने मैनेज किया सिंहं द्वार से हम अंदर गए । जगन्नाथ के कोर्टयार्ड मे पहुंच गए और भी कई पहुंचे थे । तो पांडू विजय नामका उस्तव होता है । पांडू विजय मतलब जगन्नाथ विग्रह को अपनी वेदि से उठाके लाते हैं । यह सब बढ़िया से वर्णन सुनाएं हैं चैतन्य चरितामृत में । और फिर जगन्नाथ के रथ में स्थापना करते हैं । तो वेदि से लेकर रथ में जो वेदि है वहां पर स्थापना करना उसका नाम पांडू विजय है । तो ऐसे जब हो रहा था हम कोर्टयार्ड में थे । तो जगन्नाथ भगवान के पुजारी जो 50 की संख्या में उनको उठाते हैं आगे रखते हैं फिर उठाते हैं आगे रखते हैं ऐसे करते हुए ला रहे थे तो दर्शन मंडप से फिर बाहर अब जगन्नाथ आ रहे थे द्वार से । मैं सामने एक चबूतरे पर बैठा था । ऊंचा स्थान था वहां पर बैठा था तो , ऐसा मुझे लगा कि भगवान जब मंदिर के बाहर आ रहे थे तो उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ी । और मैंने भी देखा जगन्नाथ को । और जगन्नाथ ने मुझे भी देखे । मुझे ही देखा । वह जो अनुभव रहा तो मन में कुछ गहरा भाव , जगन्नाथ ने मुझे अपनी बड़ी बड़ी आंखें जो "पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादरन्दि नेत्रात्" वह नयन या पद्म नयनि जगन्नाथ ने मुझे देखा उन्होंने दृष्टिपात किया मुझ पर । ऐसा महसूस या मुझे । और फिर मैं बहुत हर्षित हुआ जगन्नाथ ने मुझे देखा । और वह दिन रथ यात्रा का था । कुछ 10 / 7 साल की बात है यह । तो फिर जगन्नाथ रथ यात्रा आरंभ होके गुंन्डिचा मंदिर जाता है । और वहां रहते हैं 1 हफ्ते भर के लिए । तो 2 मंदिर में रहते हैं जगन्नाथ स्वामी जगन्नाथ । एक तो जहां सदैव रहते हैं या 51 सप्ताह के लिए । और फिर कहा जा सकता है नीलाचल में रहते हैं । लगभग 51 सप्ताह के लिए । और 1 सप्ताह के लिए सुंदराचल में रहते हैं । तो सुंदराचल में गुंडिचा मंदिर है । और राजा इंद्रद्युम्न के पत्नी का नाम गुंडिचा जिनके , या स्वयं मुझे स्मरण हो रहा है जिनका कोई आपत्य नहीं था कोई बच्चे नहीं । तो भगवान ही आके उनके निवास स्थान पर या उनका गुंड़िचा मंदिर और वहां जगन्नाथ का जाना , रहना मतलब राजा इंद्रद्युम्न और रानी गुंड़िचा के पुत्र रूप में भगवान का रहना । वैसे गुंड़िचा वृंदावन है । निलाचल जो द्वारिका है या कुरुक्षेत्र है या कुरुक्षेत्र से या द्वारिका से रथयात्रा के दिन वृंदावन लाया जाता है । लाने वाले ब्रजवासी होते हैं । जगन्नाथ स्वामी बड़े ही प्रसन्न या अधिक प्रसन्न । ब्रज के भक्तों के साथ उनका मिलन , गुंडिचा मंदिर में होता है । तो वहां के भाव भी अलग है । वहां के भाव तो ब्रज भाव है । आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता । श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः ॥ ( चैतन्य मञ्जुषा ( श्रीमद्भागवतम् की एक टीका ) अनुवाद:- भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद्भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है - यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है । यह जो वैष्णव के सिद्धांत है उसके अनुसार यहां, उसके अनुरूप यह गुंडिचा मंदिर या वृंदावन वासी जेसी हिं बातें हैं । और वहां के भाव, वहां की भक्ति,वहां की प्रेम न्यारा है, ऊंचा है ,सर्वोपरि है । और भी उस्तव होते हि रहते हैं । हेरापंचमी नामका उस्तव होता है । जब लक्ष्मी आती है जगन्नाथ मंदिर से लड़ाई करती है अभी अभी आता हूं कहकर प्रभु जी आप यहां आए यह लोग आपको ले आए लेकिन आप कितने दिन हुए आपने नहीं लौटे हो । और तुम लोगों ने भी नहीं लौटाया । और वह लक्ष्मी लड़ाई करती है । थोड़ी पिटाई करती है वहां के भक्त की मदद से । बड़ी मधुर लीला है । हीरा पंचमी मतलब पांचवा दिन आज पूर्णिमा है ना, प्रतिपदा,द्वितीया,तृतीया,चतुर्थी ऐसे ही सब । तो पंचमी के दिन हेरा पंचमी होगी । तो चैतन्य महाप्रभु अपने प्रकट लीला में और वह भी एक उस्तव उसमें भी आता है । गुंड़िचा मार्जन नामका उस्तव जिसमें नेत्रों उस्तव होता है रथ यात्रा के 1 दिन पहले । और फिर वहां गुंड़िचा मार्जन महोत्सव भी होता है । चैतन्य महाप्रभु स्वयं अपने परी करो के साथ जाया करते थे और मंदिर का मार्जन । गुंड़िचा मंदिर को तैयार करना है । ताकि जगन्नाथ वहां आके रह सके । तो फिर उल्टा रथ , रथयात्रा के दिन उल्टा रथ गुंड़िचा मंदिर की ओर रुक जाता है । और फिर गुंडिचा मंदिर से पुनः जगन्नाथ मंदिर आते हैं । तो उस रथ यात्रा को उल्टा रथ कहते हैं । तो गुड़िय वैष्णव को अच्छा नहीं लगता यह उल्टा रथ । या उनको वृंदावन ले जा रहे हैं तब वह खुश होते हैं । लेकिन जब उनको लौटाने का समय होता है तो बड़े दुखी होते हैं । हरि हरि !! या विरह की व्यथा को वे पीड़ित होते हैं । ठीक है ! ॥ गोर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥

English

Russian