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जप चर्चा, श्रीमान अनंतशेष प्रभु जी व्दारा, 8 मार्च 2022 हरे कृष्ण..! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।। वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपद – कमलं श्रीगुरुन् वैष्णवांश्च श्रीरूपं साग्रजातं सहगण – रघुनाथान्वितं तं सजीवम् साद्वैतं सावधूतं परिजन सहितं कृष्ण – चैतन्य – देवम् श्रीराधा – कृष्ण – पादान् सहगण – ललिता – श्रीविशाखान्वितांंश्च।। नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने। नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।। वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।। (जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। हरे कृष्ण..! सर्व प्रथम गुरु महाराज और समस्त वैष्णव चरणों में सादर दंडवत प्रणाम हैं। यह विषय हम सदैव गुरु महाराज के मुखारविंद से श्रवण किए हैं परंतु महाराज जी का कृपा आशीर्वाद है कि गुरु महाराज चाहते हैं उसके ऊपर हम कुछ कहें इसलिए तो श्रीगौर पूर्णिमा पूर्व यहां पर हम आने वाले कुछ दस दिनों में श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में विभिन्न विषयों पर श्रवण करने वाले हैं। सर्वप्रथम यहां पर जो भक्तगण हरे कृष्ण महामंत्र का जप कर रहे हैं जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन का आश्रय लिए हुए हैं या जो अपने आपको गौड़िय वैष्णव कहते हैं उनके लिए नितांत आवश्यक है यह विषय वस्तु को समझना कि चैतन्य महाप्रभु का जो परिचय हैं,श्रीचैतन्य महाप्रभु का जो तत्व है जीसे गौर तत्व कहते हैं, उसी के अंतर्गत यह एक बात हम श्रवण करेंगे। श्रीचैतन्य महाप्रभु के विषय में जिस प्रकार कविराज गोस्वामी कहते हैं। श्री कृष्णचैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य। ( चैतन्य भागवत) अनुवाद:- भगवान चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन् श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं। गुरु महाराज इस बात को अनेक बार दोहराते हैं बाल्यावस्था में गुरु महाराज इतिहास के पुस्तक में पढ़ते थें महाराष्ट्र में तुकाराम, राजस्थान में मीराबाई, गुजरात में नरसिंह मेहता, उत्तर भारत मैं गुरु नानक हुए और तुलसीदास हुए वैसे ही बंगाल में एक संत हुएं जीनका नाम है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो दुर्भाग्यवश बहुत कम लोग श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान श्रीकृष्ण है इस बात को जानते हैं समझते हैं,यहां तक के हरे कृष्ण महामंत्र का जप कर रहे हैं वह भी पूर्ण रूपेन इस बात का ज्ञान नहीं रखते है,उसी बात को जैसे यहां कविराज गोस्वामी कहते हैं। सेइ कृष्ण अवतारी व्रजेन्द्र-कुमार। आपने चैतन्य- रुपे कैल अवतार।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 2.109) अनुवाद: - वह भगवान श्री कृष्ण ही व्रजराज के पुत्र कहलाते हैं, जो समस्त अवतारों के स्त्रोत हैं।वे स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। जिस प्रकार हम गुरु महाराज से सुने थे कि एक समय श्रील प्रभुपाद प्रवचन दे रहे थे उन्होंने भक्तों से पूछा कि चैतन्य महाप्रभु कौन है?तो एक भक्त ने हाथ उपर कर के बोला कि श्रीचैतन्य महाप्रभु एक कृष्ण के अवतार हैं। जैसे ही श्रील प्रभुपाद ने सुना तो उन्होंने कहा कि गलत है श्री चैतन्य महाप्रभु अवतार नहीं है वह अवतारी हैं। जिस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण के बारे में श्रील व्यास सदैव कहते हैं। कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ (श्रीमद्भागवत 1.3.28) अनुवाद:-उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं । उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । इसीलिए महाप्रभु को अवतार नहीं कहते अवतारी कहते हैं अवतारी का अर्थ होता है समस्त अवतारों का उद्गम जहां से हो इसी प्रकार वही श्री कृष्ण सेइ कृष्ण अवतारी व्रजेन्द्र-कुमार। आपने चैतन्य- रुपे कैल अवतार।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 2.109) अनुवाद: - वह भगवान श्री कृष्ण ही व्रजराज के पुत्र कहलाते हैं, जो समस्त अवतारों के स्त्रोत हैं।वे स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। विषेश रूप से ध्यान रखना चाहिए यह जो कलयुग है या कलिकाल है जो ब्रह्माजी के एक दिन में एक बार जिस प्रकार से 71 चतुर योग से एक मन्वंतर होता है और जब 14 मन्वंतर होते हैं तो ब्रह्मा जी के 12 घंटे होते हैं। मतलब ब्रह्मा जी का एक दिन कहा जाता हैं। शास्त्र में बतलाया जाता है यह जो 14 मन्वंतर जो सातवां मन्वंतर और उस साथ में मन्वंतर के अट्ठाविसवा जो चतुर्युग होता है उस अट्ठाविस वे चतुर्युग में जब द्वापर युग आता है वह विशेष द्वापर युग होता हैं। ध्यान रखिए 14 मन्वंतर में सातवां मन्वंतर और अट्ठाविसवा जो चतुर्युग है उसके अंतर्गत जो द्वापर युग है विषय द्वापर युग वो कौन सा द्वापर युग है?जिस व्दापर युग मे जो स्वयं ब्रजेंद्र नंदन श्री कृष्ण आपने वृंदावन की लीला को प्रकाशित करने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं, अन्य समस्त व्दापर युग में स्वयं वृंदावन श्रीकृष्ण न आकर श्री वासुदेव कृष्ण आते हैं जो माधुर्य को प्रकाशित करते हैं वह ब्रह्मा जी के एक दिन में एक ही बार होता है उसी प्रकार से बताया जाता है कि श्रीकृष्ण अवतारी ब्रजेंद्र कुमार जिस प्रकार इस द्वापर युग के अंत में आते हैं उसी द्वापर युग के पूर्व होने पर जब कलयुग का प्रारंभ होता यही राधा-कृष्ण दोनों एकत्र होकर श्री चैतन्य महाप्रभु ये विशेष चैतन्य महाप्रभु ध्यान रखिए जैसे मैंने कहा कि प्रत्येक द्वापर युग में श्री कृष्ण आते है वैसे ही प्रत्येक कलयुग में भी चैतन्य महाप्रभु आते है परंतु अंतर होता है उस में ,प्रत्येक कलयुग में जो चैतन्य प्रभु आते हैं उन्हें गौर भगवान कहां जाता है या गौर नारायण कहते हैं जो कलयुग का युग धर्म है हरिनाम संकीर्तन को करते हैं।परंतु विशेष चैतन्य महाप्रभु जो भगवान श्रीकृष्ण बृजेंद्र नंदन श्री कृष्ण इस व्दापर युग में आते हैं तो इस कलयुग का विशेष गुण है कि इस कलयुग में ही स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु आए हैं जिन के विषय में सार्वभौम भट्टाचार्य प्रताप रूद्र महाराज को कहते हैं। ऐछे प्रेम, ऐछे नृत्य, ऐछे हरि ध्वनि। काहाँ नाहि देखि, ऐछे काहाँ नाहि शुनि।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, 11.96) अनुवाद: - मैंने न तो कभी ऐसा प्रेमभाव देखा है,न भगवान के नाम का इस तरह कीर्तन होते सुना है, न ही संकीर्तन के समय इस प्रकार का नृत्य होते देखा हैं। जब प्रताप रूद्र महाराज ने देखा श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों को जो विशेष संकीर्तन कर रहे थे और उन विशेष संकीर्तन में ऐसे भाव प्रदर्शित किए गए जिसका ना तो शास्त्रों में कहीं वर्णन किया गया है और ना ही तो उतने उच्च कोटि के भाव कहीं देखे गए हैं और उस समय सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा भट्टाचार्य कहे एइ मधुर वचन। चैतन्येर सृष्टि--एइ प्रेम-संकीर्तन।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, 11.97) अनुवाद: - सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, "यह मधुर दिव्य ध्वनि महाप्रभु की विशेष दृष्टि है, जो प्रेम-संकीर्तन कहलाती है।" यह कली काल के संकीर्तन को कहां गया है प्रेम संकीर्तन जो विशेष रूप से चैतन्य महाप्रभु ने लाया है तो आगे यहां पर हम सुनेंगे Adi 4.37 एइ मत चैतन्य-कृष्ण पूर्ण भगवान्। युग-धर्म-प्रवर्तन नहे ताँर काम।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 4.37) अनुवाद: -जिस प्रकार यह इच्छाएं श्री कृष्ण के प्राकट्य की मूल कारण है और असुरों का वध मात्र प्रासंगिक आवश्यकता होती है, उसी प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण चैतन्य द्वारा युग धर्म का प्रवर्तन प्रासंगिक है। चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण है पूर्ण भगवान हैं। वास्तव में युगधर्म हरिनाम संकीर्तन तो केवल आनुषंगिक कार्य है मूलतः इस माधुर्य प्रेम संकीर्तन को देने के लिए चैतन्य महाप्रभु कलीकाल में आए हैं। क्या प्रमाण है? विशेष रूप से कलयुग में एक दोष है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको भगवान मनवाने लगता है प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को भगवान कहता है परंतु कैसे हम जान सकते हैं क्योंकि कि किसीको भ्रम हो सकता है आप हरे कृष्ण वाले है इसीलिए आप चैतन्य महाप्रभु को भगवान मानते है दूसरे पंथ वाले अपने गुरु को भगवान कहते हैं हर एक किसी संत को कोई भगवान के रूप में पूजा जाता हैं। 'कल का स्वामी आज का नारायण बन जाता है' तो ऐसे ही कोई होंगे यह चैतन्य महाप्रभु भी, तो यह हरे कृष्ण वालों के व्दारा चैतन्य महाप्रभु भगवान के रूप में घोषित हुए तो यह कैसे समझे तो इसीलिए यहां पर बताया गया है Adi 3.84 भागवत, भारत-शास्त्र, आगम,पुराण। चैतन्य- कृष्ण- अवतारे प्रकट प्रमाण।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 3.84) अनुवाद: -श्रीमद्भागवत, महाभारत, पुराण तथा अन्य वैदिक साहित्य यह सिद्ध करने के लिए प्रमाण देते हैं कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के अवतार हैं। आगम पुराण आदि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के ही अवतार है यह प्रगट प्रमाण प्राप्त होता है और क्या हैं? प्रत्यक्षे देखह नाना प्रकट प्रभाव। अलौकिक कर्म, अलौकिक अनुभाव।। (श्रीचैतन्य चरितामृत,आदि लीला, 3.85) अनुवाद: - कोई भी व्यक्ति भगवान चैतन्य के प्रकार प्रभाव को उनके असाधारण कार्यों तथा असामान्य कृष्ण- भावानुभूति से भी प्रत्यक्ष देख सकता हैं। और प्रत्यक्ष चैतन्य महाप्रभु ने भी इस जगत में लीलाएं की प्रकट रूप से भाव दिखाई दिए जिस प्रकार से सूर्य को आप कितना ही किसी भी प्रकार से छुपाए लेकिन सूर्य का प्रकाश छुप नहीं सकता। वैसे हालांकि चैतन्य महाप्रभु ने अपने प्रकाशित नही किया परंतु अलौकिक कर्म और अलौकिक अनुभाव उनकी कुछ ऐसी अद्भुत और अतिमाननीय लीलाएं हुई जिन्हें उनकी भगवत्ता प्रकाशित कि। देखिया ना देखे यत अभक्तेर गण। उलूके ना देखे येन सूर्येर किरण।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 3.86) अनुवाद: - किंतु श्रद्धाविहीन अभक्त लोग स्पष्ट दिखाई देने वाली वस्तु को भी नहीं देखते जिस तरह उल्लू सूर्य की किरणों को नहीं देखते। अभक्तगण देख कर भी नहीं देख पाते हैं चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता को इसकी तुलना कि है जिस प्रकार से उल्लू होता है उल्लू से कहा जाए कि आपने कभी सूर्य को देखा है? हमारे राधा गोविंद महाराज कहते हैं,उल्लू कहेगा सूर्य किस चिड़िया का नाम है क्योंकि उल्लू ने कभी सुर्य को देखा ही नहीं तो ऐसे ही अल्पज्ञ लोग चैतन्य महाप्रभु कि भगवत्ता को नहीं समझ पाते हैं। आगे यहां पर कविराज गोस्वामी चैतन्य निष्ठा के बारे में बताते हैं। पूर्वे यैछे जरासन्ध-आदि राज-गण। वेद-धर्म करि' करे विष्णुर पूजन।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 8.8) अनुवाद: - प्राचीन काल में जरासंध (कंस का ससुर) जैसे राजाओं ने वैदिक अनुष्ठानों का कड़ाई से पालन किया और इस तरह विष्णु की पूजा की। पूर्वकाल में क्या हुआ जिस प्रकार से जरासंध जैसे राजागण थें, जो "वेद-धर्म करि' करे विष्णुर पूजन" ऐसे आप रावण के विषय में सुनते हैं जरासंध के विषय में कहा जाता है जो वेदों को जानते थे। वेद धर्म के अनुसार कार्य करते थे यहां तक के विष्णु की पूजा भी करते थे, परंतु जरासंध का दोष क्या था? वह श्रीकृष्ण को नहीं मानते थें। विष्णु कि पूजा करेंगे, वेदों का पालन करेंगे किंतु कृष्ण कि भगवत्ता को नहीं मानेंगे कृष्ण कि भगवत्ता को नहीं मानते थे इसलिए उन्हें क्या कहा गया है? "दैत्य करि' मानी" श्री कविराज गोस्वामी कहते हैं जो श्रीकृष्ण को नहीं मानता है उसकी गणना दैत्य में की जाती है। कृष्ण नाहि माने,ताते दैत्य करि' मानि। चैतन्य ना मानिले तैछे दैत्य तारे जानि।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 8.9) अनुवाद: - जो कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नहीं स्वीकार करता, वह निश्चित ही असूर है। इसी तरह जो श्री चैतन्य महाप्रभु को उन्हीं भगवान कृष्ण के रूप में नहीं स्वीकार करता उसे भी असुर ही समझना चाहिए। उसी प्रकार से " चैतन्य ना मानिले तैछे दैत्य तारे जानि।।" जो चैतन्य महाप्रभु के नहीं मानता उसकी गणना भी दैत्य में कि गई हैं। हेन कृपामय चैतन्य ना भजे येइ जन। सर्वोत्तम इहलेओ तारे असुरे गणन।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 8.12) अनुवाद:-जो व्यक्ति दयालु भगवान्, चैतन्य महाप्रभु का सम्मान नहीं करता या उनकी पूजा नहीं करता, उसे असूर समझना चाहिए, भले ही उसे मानव समाज में कितना ही प्रतिष्ठित क्यों न माना जाता हो। सबसे श्रेष्ठ समस्त गुणों से श्रेष्ठ व्यक्ति क्यों ना हो लेकिन यदि चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ना ले पाए कलयुग में उसकी गणना कविराज गोस्वामी के अनुसार असुरों में की जाती हैं। सलिए हमारे लिए आवश्यक है हम भलीभांति इस बात को समझ सकें कि चैतन्य महाप्रभु भगवान हैं। इस के लिए कविराज गोस्वामी कहते हैं। सकल वैष्णव, शुन करि' एक-मन। चैतन्य-कृष्णेर शास्त्र-मत-निरूपण।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला,1.31 ) अनुवाद:-मैं अपने समस्त वैष्णव पाठकों से प्रार्थना करता हूंँ कि वह प्रामाणिक शास्त्रों में निरूपित श्री कृष्ण चैतन्य की इस कथा को ध्यान से पढ़ें और सुने। हे वैष्णव! एकाग्र चित्त होकर चैतन्य महाप्रभु की कथा को सुनो! चैतन्य महाप्रभु का शास्त्रों में जो निरूपण किया गया है चैतन्य महाप्रभु की भागवत्ता हम किस आधार पर समझ सकते हैं। तीन आधार पे। चैतन्य महाप्रभु भगवान है यह हम क्यों नहीं समझ पाते उस में से एक है जो प्रल्हाद महाराज स्वयं भागवत में यह बताए हैं यह उसकी अंतिम पंक्ति हैं। "छन्न: कलौ यद्भवस्त्रियुगोथ स त्वम्।।" इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारै- र्लोकान्विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान्। धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्न: कलौ यद्भवस्त्रियुगोथ स त्वम्।। (श्रीमद्भागवत 7.9.38) अनुवाद: - हे प्रभु इस प्रकार आप विभिन्न अवतारों में जैसे मनुष्य,पशु, ऋषि, देवता,मत्स्य या कश्यप के रूप में प्रगट होते हैं और इस प्रकार से विभिन्न लोंको में संपूर्ण सृष्टि का पालन करते हैं तथा असुरी सिद्धांतों को नष्ट करते हैं। हे भगवान! युग के अनुसार आप धार्मिक सिद्धांतों की रक्षा करते हैं। किंतु कलयुग में आप स्वयं को भगवान के रूप में घोषित नहीं करते, इसलिए आप 'त्रियुग' कहलाते हैं, अर्थात तीन युगों में प्रकट होने वाले भगवान्। जहां पर नरसिंह भगवान को संबोधित करते हैं प्रल्हाद महाराज ने एक शब्द का उपयोग किया "त्रियुग" हे भगवान आपको "त्रियुग" कहा जाता है क्यों कहा जाता है क्योंकि "छन्न: कलौ"आप कलयुग में अपने आप को प्रकाशित नहीं करते हैं इसलिए भगवान का एक नाम हो गया "त्रियुग" कलयुग में आकर भी भगवान अपनी भगवत्ता को प्रकाशित नहीं करते है,तो यही कारण है चैतन्य महाप्रभु को "प्रच्छन्न" अवतार या च्छन्न अवतार कहते हैं।भगवान तो है लेकिन वह अपने आप को छुपा लिए हैं भगवान अपनी भगवत्ता को प्रकाशित नहीं कर रहे हैं जिस प्रकार गुरु महाराज कहते हैं कलयुग कि विशेषता है कि कलयुग में प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को भगवान समझता है अपने आप को भगवान बनाने के लिए अत्याधिक प्रयत्न करता है लेकिन कलयुग की यह विशेषता है कि भगवान अपने आप को भक्त बनाने की कोशिश करते हैं। कौन-कौन से प्रमाण है?तीन प्रकार के प्रमाण हैं। प्रथम प्रमाण चैतन्य महाप्रभु के उनके कुछ चिन्न लक्षण वर्णित किए हैं ।दुसरा प्रमाण लीला प्रणाम, जिन लीलाओ में भगवान की अतिमानवीय कुछ लीलाएं प्रकाशित हुई है और तीसरा यहां पर शास्त्र प्रमाण। प्रथम प्रमाण चैतन्य भागवत के आदि खंड में वृंदावन दास ठाकुर लिखते हैं जब श्रीचैतन्य महाप्रभु शची माता और जगन्नाथ मिश्र के आंगन में थें। जगन्नाथ मिश्र ने बालक को कहा है एक दिन डाकिया बोले मिश्र-पुरन्दर। आमार पुस्तक आन वाप विश्वम्भर!।। (श्रीचैतन्य भागवत 3.144) अनुवाद: - एक दिन श्री जगन्नाथ ने निमाई को बुलाया और कहा बेटा विश्वंभर मेरी पुस्तक उठा लाओ। कृपया मेरा ग्रंथ लेकर आओ यहां पर बताया जाता है कि छोटा सा निमाई था जो लगभग दिगंबर अवस्था में था ना तो कोई आभूषण थे और ना कोई वस्त्र था, एकदम छोटा सा शिशु था और तुरंत दौड़कर गए पुस्तक को लाने के लिए और जगन्नाथ मिश्र देने के लिए उसी समय अचानक जगन्नाथ मिश्र ने क्या सुना? वापेर बचन सुनि घरे धाइ जाये। रुनुझुनु करिये नूपुर बाजे पायें।। (श्रीचैतन्य भागवत 3.145) अनुवाद: - पिताजी के वचन सुनकर श्रीनिमाई भाग कर दूसरे कमरे में गए। उनके चरणों में रुनक- झुनककर नूपुर बजने लगे। एक नन्हा सा बालक है जिसके शरीर पर कोई आभूषण नहीं है जैसे ही नन्हा बालक दौड़ने लगा जगन्नाथ मिश्र को तुरंत नूपुर की ध्वनि सुनाई देने लगी वह अचंभित होने लगे। आमार पुत्रेर पाये नाहिक नूपुर। कोथाय बाजिल वाद्य नूपुर मधुर।। (श्रीचैतन्य भागवत 3.147) अनुवाद: - वे कहने लगे-'हमारे पुत्र के चरणों में तो नूपुर नहीं है कहां से यह मधुर ध्वनि आई?'क्या आश्चर्य है? मेरे पुत्र के चरणों में तो कोई नुपुर नहीं हैं, ऐसे मधुर नूपुर की ध्वनि कहां से आ रही है अगले क्षण उन्होंने जब वह पुत्र आया तो विशेष क्या बात देखी? नन्हा सा बालक निमाई जब दौड़ कर गया और जब दौड़कर आया तो उसका परिणाम क्या हुआ पूरे उस घर के आंगन में सर्वत्र.. सब गृहे देखे अपरुप पद-चिह्न। ध्वज, वज्र, पताका, अंकुश भिन्न-भिन्न।। (श्रीचैतन्य भागवत 3.150) अनुवाद: - शची-जगन्नाथ जी ने एक आश्चर्य देखा कि सब घर में अद्भुत पद चिन्ह हैं।ध्वज, वज्र,पताका,अंकुश सब अलग-अलग स्पष्ट दिख रहे हैं। क्या देखा? शची माता और जगन्नाथ मिश्र ने, संपूर्ण आंगन में जब निमाई बालक चलने लगे तो चिन्ह अंकित हुए ध्वज, वज्र, पताका, अंकुश आदि जिसको देखकर वह बहुत आनंदित हुए इसके पूर्व भी वृंदावन दास ठाकुरजी ने बताया है, निमाई बालक जब चलता था तो जहां जहां उसके चरण रहते थे वहां पर लाल लाल ऐसा चरण चिन्ह बन जाता था शची माता को कभी-कभी लगता था कि निमाई बालक के चरणों से कोई खून तो नहीं निकल रहा वह एकदम भयभीत हो जाती थीं। आनन्दित दोंहे देखि अपूर्व- चरण। दोंहे हैला पुलकित सजल- नयन।। (श्रीचैतन्य भागवत 3.151) अनुवाद: -पदचिन्हों को देखकर दोनों अति आनन्दित हुए, दोनो पुलकित हो उठे, दोनों के नयन भर आए। दोनों बहुत आनंदित हुए और मन ही मन विचार करते हैं कि यह भगवान की हम पर कृपा हैं। यह प्रथम प्रमाण चरणों का और दूसरा प्रमाण है लीलाओं का,लीलाओं में भी बाल लीला, यौवन लीला और फिर सन्यास के उपरांत की लीला। तीनों लीलाओं में हम देखते हैं कई लीलाओं में भगवान कि भगवत्ता प्रकाशित हुई विशेष रूप से बालक निमाई को एक बार चोर आए थे जो निमाई के आभूषण देखकर बालक निमाई को उठाकर ले गए थे बहुत दूर, लेकिन इन चोरों को बालक निमाई ने कैसे पथभ्रमित किया। वह चलते गए चलते गए और बहुत दूर गए फिर उन्होंने अंततः उन्होंने देखा कि वे जगन्नाथ मिश्र के घर के सामने ही पहुंचे थें। जहां से निकले थे वहां पर ही पहुंच गए थें।ऐसी अद्भुत लीला हुई कि चोर भी अचंभित हो गए कि क्या हो गया? हम लीलाओं में भी देखते हैं कि यहां पर बालक निमाई की भगवत्ता प्रकाशित हुई। ऐतिक ब्राम्हण की लीला भी प्रकाशित हुई वह एक ब्राह्मण था वह जगन्नाथ मिश्र के घर में आता है और वहां आकर उसे शची माता और जगन्नाथ मिश्र आग्रह करते हैं कि कृपया आप भोग बनाइए और पुनः पुनः बालक निमाई आकर उस भोग को झूठा कर देते हैं तब अंत: श्रीचैतन्य महाप्रभु है,निमाई बालक है, विश्वंभर है वह क्या करता है अष्टभुज रूप प्रकाशित करता हैं। आज भी आप आज योगपीठ जाते हैं तो वहां दीवार पर देखिए तो अष्टभुज रूप का चित्र कभी दर्शन आपको होता है जिसमें बालकृष्ण के रूप में दो हाथों में वह माखन खा रहे हैं। दो हाथों से बांसुरी बजा रहे हैं और चार हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए हैं ऐसा वह अष्टभुज रूप है वह प्रकट किया उस ब्राह्मण के समक्ष बालक निमाई ने ।एकादशी लीला तो हम गुरु महाराज के मुख से श्रवण करते ही हैं।जहां पर किस प्रकार से हिरण्य पंडित और हिरण्य जगदीश पंडित वह बहुत दूर रहते थे शची माता और जगन्नाथ मिश्र के भवन से, योग पीठ से उनके घर में एकादशी के दिन क्या भोजन बना है यह इस नन्हेसे बालक निमाई ने बता दिया।आगे यौवन लीलाओं के अंतर्गत बहुत सी लीलाएं हैं। अभी कुछ लीलाओं का मुझे तुरंत स्मरण हुआ तो मैंने उन्हें ले लिया तपन मिश्र की लीला हम देखते हैं जब चैतन्य महाप्रभु पूर्व बंगाल गए थे तपन मिश्र ने बहुत अधिक शास्त्रों का अध्ययन किया था परंतु शास्त्र का अध्ययन करके भी अंत में शास्त्र का निष्कर्ष क्या है वह समझ नहीं पा रहे थे वह प्रार्थना कर रहे थे और उस समय बतलाया जाता है कि एक ब्राह्मण ने सपने में उसे बताया कि स्वयं भगवान आने वाले हैं और वह आपको शास्त्रों का निरूपण बनाएंगे। अगले दिन ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने आकर उन्हें हरे कृष्ण महामंत्र के विषय में और हरि नाम संकीर्तन के विषय में बतलाते हैं। केशव काश्मीरी के विषय में भी हम देखते हैं कि कैसे केशव काश्मीरी संपुर्ण भारत में दिग्विजय पंडित के रूप में अपने आप को सिद्ध करना चाहता था। वह जब चैतन्य महाप्रभु से निमाई पंडित से शास्त्रार्थ करना चाहता था जिन्हें सरस्वती माता ने स्वयं वरदान दिया था कि सदैव उनके जीव्हा पर विराजमान रहेगी, वे सरस्वती माता का प्रभाव वहा पर तुरंत समाप्त हो गया क्षीण हो गया, निमाई पंडित के सामने तब अंततः केशव काश्मीरी क्रंदन करने लगे और आखिरकार सरस्वती माता से प्रार्थना करने लगे, आपने तो मुझे वचन दिया था तो फिर आपने मेरा साथ क्यों नहीं दिया वहां पर बताया जाता है स्वयं सरस्वती माता प्रकट होकर श्री चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता को प्रमाणित करता करती हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु कैसे मेरे स्वामी है, और मैं उनकी दासी हूंँ इस बात को वह बतलाती हैं। आगे चलकर जब चैतन्य महाप्रभु भक्त बने और संकीर्तन लीला को प्रकाशित किया उस समय की तो बहुत सारी लीलाएँ हैं।अव्दैत आचार्य के समक्ष चैतन्य महाप्रभु ने वहीं विराट रूप श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युध्द भुमी में अर्जुन के समक्ष प्रकाशित किया था। श्री चैतन्य महाप्रभु प्रभु ने अद्वैत आचार्य के समक्ष उस विराट रूप को प्रकाशित किया। श्रीनिवास पंडित के समय भी श्रीनिवास पंडित बहुत भयभीत हो गए थे और उनके भय का विनाश करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु नृरसिंह रूप में प्रकट हुए। जिस प्रकार हम जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण समस्त अवतारों उद्गम है उसी प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु समस्त अवतारों के उद्गम हैं यह भी प्रदर्शित होता है।आप यह नहीं देख पाते हैं कि अन्य किसी अवतार में जैसे नरसिंह भगवान अन्य समस्त अवतारों को अपने साथ प्रकट कर रहे हैं,भगवान श्रीराम अन्य अवतारों को प्रकट कर रहे हैं ऐसा कभी देखा नहीं गया हैं, परंतु श्रीचैतन्य महाप्रभु कि विशेष लीला यह बतलाती है कि समस्त अवतारों के उद्गम श्रीकृष्ण ही चैतन्य महाप्रभु के रूप में आए हैं इसलिए श्रीनृरसिंह रूप को प्रकट किया हैं। मुरारी गुप्त के समक्ष एक बार वहां उन्होंने वराह रूप को प्रदर्शित करके दांतों के ऊपर एक घड़े को उठाकर उन्होंने मुरारी गुप्त से कहा कि तुम स्तुति करो और मुरारी गुप्त ने वहां पर बहुत सुंदर प्रार्थना की हैं। प्रत्येक लीला बहुत सुंदर है मैं केवल प्रणाम के रूप में इसलिए बता रहा हूं और जब नित्यानंद प्रभु कि पूजा कि थी चैतन्य महाप्रभु ने तो वहां पर भी बतलाया जाता है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु के समक्ष षड्भुज रूप में प्रकट हुएं,यह षड्भुज रूप सार्वभौम भट्टाचार्य के समक्ष जो षड्भुज रूप प्रगट हुआ था उससे भिन्न है क्योंकि यहां पर श्री कृष्ण के रूप मे इस लीला को देखते हैं क्योंकि इस लीला के समय चैतन्य महाप्रभु ने सन्यास नहीं लिया था इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने कौन सा रूप प्रकट किया था, दो हाथों से बांसुरी बजा रहे थे और चार हाथों में शंख, चक्र,गदा, पद्म को धारण किया था ,ऐसा यह रूप कृष्ण और नारायण दोनों एक हैं। यह उन्होंने प्रकाशित किया नित्यानंद प्रभु के समक्ष। और वर्णन किया जाता है कि शची माता के समक्ष जब वह अपने घर में कृष्ण-बलराम कि रचना करती थीं तो उन्होंने अचानक देखा कि वह कैसे गौर निताई के रूप में प्रकट होते थें और पुनः कृष्ण-बलराम के रूप में प्रकट होते थें ऐसेही एक सुंदर लीला हैं। कृष्ण-बलराम के रूप में भी गौर निताई ने दर्शन दिए हैं। महाप्रकाश लीला में तो उन्होंने सभी भक्तों को उनके-उनके भाव के अनुसार, भगवान ने सभी रूप प्रकाशित किए हैं।चाँद का जी के समक्ष नृरसिंह रूप प्रकाशित किया, जगाई-मदाई के सामने चैतन्य महाप्रभु ने सुदर्शन को प्रगट किया, इस लीला को चैतन्य मंगल में भी बताया गया है जो गुरु महाराज नवदीप मंडल में परिक्रमा में सुनाते हैं। एक रोज सभी भक्त संकीर्तन कर रहे थे और उन्हें अचानक भूख लग गई तो चैतन्य महाप्रभु ने क्या किया? एक आम कि गुठली थी उन्होंने उसे जमीन पर बो दिया और उसी क्षण वहां पर एक आम का वृक्ष प्रगट हो गया। उस लीला में भी चैतन्य महाप्रभु कि भगवत्ता प्रकाशित हुई ऐसा अतिमानवीय कुछ क्रिया है और एक समय चैतन्य मंगल में वर्णन आता है कि चैतन्य महाप्रभु समस्त भक्तों के साथ संकीर्तन कर रहे थे और अचानक वहां जोर-जोर से काले बादल आ गए और बिजली कड़कड़ाती लगी भक्त भयभीत हो गए कि संकीर्तन हम कर रहे हैं रास्ते मे हम चल रहे है और अचानक यह बारिश क्यों हो रही है? तुरंत चैतन्य महाप्रभु ने हाथ में करताल लिया और जोर से करताल बजाते हुए क्रोध भरी दृष्टि से आकाश की ओर देखने लगे मानो वे देवताओं पर कुपित हो रहे हैं तक्षण वहां पर बतलाया जाता है कि पूरे बादल हट गए और वहां पर सुंदर चंद्रोदय हो गया। हरि बोल! ऐसी महाप्रभु कि सुंदर लीलाएं हैं और एक ज्योतिष की भी लीला है एक ज्योतिष आया और गौरहरी सचिनंदन जब नवदीप में भ्रमण कर रहे थें, वह चैतन्य महाप्रभु के समक्ष आया तब महाप्रभु कहने लगे कि बताओ मेरे विषय में, मैं पूर्व जन्म में कौन था? जैसे ही वह चैतन्य महाप्रभु के पूर्व भुत को देखने लगे तो वह भ्रमित हो गया। कभी उनके सामने नारायण रूप प्रकट हो रहा था,कभी बांसुरी वाला श्यामसुंदर रूप प्रगट हो रहा था, कभी राम रूप प्रगट हो रहा था इस तरह वह ज्योतिष बहुत भ्रमित हुआ और फिर चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि तुम मूर्ख हो! तुम नहीं जानते वास्तविक पिछले जन्म में मैं एक ग्वाले का पुत्र था,मैं ग्वाला था,इस तरह से बतलाते हैं और फिर श्रीनिवास आंगन में संकीर्तन के अंतर्गत जब श्रीनिवास आंगन के पुत्र कि मृत्यु हुई तब हम देखते हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु के कहने मात्र से तुरंत वह मृत बालक भी जीवित हो गया और चैतन्य महाप्रभु की कृपा को उसने प्राप्त किया। इस प्रकार यह संकीर्तन लीला भी है और संन्यास के पश्चात की भी कोई सारी लीलाएं हैं जब सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार हुआ तो उस समय चैतन्य महाप्रभु राम-कृष्ण और चैतन्य वे तीनों एक ही है ऐसा षड्भुज दर्शन उन्होंने कराया ।वासुदेव विप्र को जब दक्षिण भारत की यात्रा के समय जिनका शरीर कुष्ठ रोग से पूरी तरह से गलित हो गया था चैतन्य महाप्रभु की आलिंगन मात्र से उसका कुष्ठ रोग पूरी तरह से दूर हो गया और लगभग चैतन्य महाप्रभु की तरह से अद्भुत शरीर सौंदर्य और गौर वर्ण उन्हें प्राप्त हुआ,ऐसा वर्णन आता हैं। श्रीरंगम में जब वे गए तो एक प्रसिद्ध कथा है जो गुरु महाराज से हमने सुनी हैं।एक ब्राह्मण था जो गीता को पढ़ता था हालांकि वह पढ़ नहीं पाता था वह गीता को पढ़ने लगा और अंततः उसने कहा कि मुझे एक गीता में साक्षात भगवान कृष्ण का दर्शन हो रहा है चैतन्य महाप्रभु उस से प्रसन्न हुए जैसे ही चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न हुए तो उस ब्राम्हण को ऐसा अनुभव जिस श्याम सुंदर श्रीकृष्ण का मैं पार्थसारथी के रूप में दर्शन करता हूंँ, स्मरण करता हूंँ वह पार्थसारथी ही मेरे समक्ष इस रूप में खड़े हैं तो वे इस सत्य को जान गए कि पार्थसारथी कृष्ण ही गौरहरी के रूप में आएं हैं।आगे चलकर वेंकट भट्ट के घर में जब चैतन्य महाप्रभु चातुर्मास में रहे तो अंत में बताया जाता है कि किस तरह गौड़ीय वैष्णव कि महत्ता,उत्कृष्टता श्रीवैष्णव से उन्होंने सिद्ध किया और चैतन्य महाप्रभु साक्षात श्री कृष्ण के रूप में दर्शन दिए श्री वेंकट भट्ट को और रामानंद राय के समक्ष भी श्री चैतन्य प्रभु ने राधा-कृष्ण इस युगल रूप में दर्शन दिया। अंततः शास्त्र प्रमाण भी बहुत अधिक से प्राप्त होते हैं तो कविराज गोस्वामी कहते हैं। उप-पुराणेह शुनि श्री-कृष्ण-वचन। कृपा करि व्यास प्रति करियाछेन कथन।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला,3.82) अनुवाद: - ऊपरपुराणों में हम श्रीकृष्ण को व्यासदेव पर यह कहकर अपनी कृपा प्रदर्शित करते सुनते हैं। एक उप-पुराण है,जिसमें स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने श्रील व्यास देव को यह कहा, क्या कहा? अहमेव क्वाचिब्रह्मन्सन्न्यासाश्रममाश्रित:। हरि-भक्तिं ग्राहयामि कलौ पाप-हतान्नरान्।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला,3.83) अनुवाद: - हे विद्वान ब्राम्हण, कभी-कभी मैं कलयुग के पतित लोगों को भगवद्भक्ति के लिए प्रेरित करने हेतु सन्यास आश्रम ग्रहण करता हूंँ। मैं कलिकाल में एक ब्राह्मण के रूप में जन्म लूंगा और सन्यास आश्रम को धारण करूंगा। "हरि-भक्तिं ग्राहयामि" मैं हरीभक्ति को ग्रहण करुंगा "कलौ पाप-हतान्नरान्।।" कलयुग के समस्त जीवो के पापों का मैं हरण करूंगा ।आगे चलकर आदि पुराण एवं बृहन्नारदीय पुराण का उदाहरण है यह बहुत जानना आवश्यक है क्योंकि श्रील प्रभुपाद जी ने इस बात को बताया है क्योंकि इस संसार में कोई भी भक्त व्यक्ति अपने आप को भगवान कहता है तो सबसे पहले आवश्यक है कि शास्त्रों का प्रमाण होना चाहिए। चैतन्य महाप्रभु के कई प्रमाण प्राप्त होते हैं। अहमेव व्दिजश्रेष्ठो नित्यं प्रच्छन्नवीग्रह:। भगवत्भक्तरूपेण लोकं रक्षामि सर्वदा।। ( आदि पुराण एवं बृहन्नारदीय पुराण) अनुवाद: - भगवान कहते हैं कि मै ही नित्य प्रच्छन्न विग्रह ब्राह्मण श्रेष्ठ होकर भगवद्भक्त रुप से निज भक्तजनों की सदा रक्षा करता हूँ। "अहमेव व्दिजश्रेष्ठो" पुन: यहां पर भगवान कह रहे हैं मैं व्दिजश्रेष्ठ के रूप में जन्म लूंगा। "नित्यं प्रच्छन्नवीग्रह:।" परंतु मैं अपने आप को अवरुत्त रखूगा मैं अपनी भगवत्ता को प्रकाशित नहीं करूंगा। "भगवत्भक्तरूपेण लोकं रक्षामि सर्वदा।।" एक भक्त के रूप में आकर मै समस्त लोगों का रक्षण करूंगा संकीर्तन के द्वारा और यह भागवत का प्रसिद्ध श्लोक है गर्गाचार्य श्रीकृष्ण का नामकरण करते हैं उस समय उन्होंने भगवान के भिन्न-भिन्न वर्णों का वर्णन किया हैं। आसन्वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनूः । शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥ (श्रीमद्भागवत 10.8.13) अनुवाद:-आपका यह पुत्र कृष्ण हर युग में अवतार के रूप में प्रकट होता है । भूतकाल में उसने तीन विभिन्न रंग- गौर , लाल तथा पीला- धारण किये और अब वह श्याम ( काले ) रंग में उत्पन्न हुआ है [ अन्य द्वापर युग में वह शुक ( तोता ) के रंग में ( भगवान् रामचन्द्र के रूप में ) उत्पन्न हुआ । अब ऐसे सारे अवतार कृष्ण में एकत्र हो गये हैं । हे नंदमहाराज ! आपका जो यह पुत्र है वह यह भिन्न-भिन्न ने युग में भिन्न-भिन्न वर्ण, वर्ण मतलब रंग, धारण करता है कौन-कौन से,"शुक्लो रक्तस्तथा पीतो" सतयुग में शुक्ल वर्ण त्रेता युग में रक्त वर्ण या आप श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध को जब पढ़ेंगे तो वहां पर भिन्न-भिन्न युगों के भगवान के भिन्न भिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन किया गया है वहां पर आप वहां पर आप देख सकते हैं सतयुग में शुक्ल वर्ण त्रैतायुग रक्त वर्ण अब द्वापर युग में "कृष्णतां गतः" कृष्णतां वर्ण रूप में तो यहां पर रुप गोस्वामी ने कहां है कृष्णतां वर्ण भगवान का मूल रूप हैं। वहां पर एक शब्द आता है पीत वर्ण, कलयुग के लिए पीत वर्ण में है श्री चैतन्य महाप्रभु का वर्ण पीत हैं महाभारत का विष्णु सहस्त्रनाम श्लोक हैं। सुवर्णवर्णो हेमांगो वरांगश्चन्दनांगदी। संन्यासकृच्छम: शान्तो निष्ठा शान्ति: परायणम्।। ( महाभारतीय अनुशासनपर्व दानधर्म पर्व, 148 अ. विष्णुसहस्त्रनामस्त्रोत्र) इस श्लोक में ऊपर की दो पंक्ति है वह नवदीप की लीला का वर्णन करती है और नीचे की दो पंक्ति नीलांचल लीला मतलब सन्यास पूर्व का जो रुप है उस का वर्णन किया है प्रथम दो पंक्तियों में किया है और नीचे की दो पंक्तियों में जगन्नाथ पुरी की लीलाओं का महाप्रभु जीस स्वरूप में है उस स्वरूप का वर्णन हैं। पहला कैसा रूप है "सुवर्णवर्णो हेमांगो" सोने कि कांति वाले "वरांगश्चन्दनांगदी" वरांग मतलब उनका प्रत्येक अंग अत्यंत सुंदर हैं "श्चन्दनांगदी" चंदनआदि से उनको श्रृंगारित किया जाता है महाप्रकाश लीला आदि में "संन्यासकृच्छम: शान्तो निष्ठा शान्ति: परायणम्।।" परंतु वह आगे चलकर सन्यास धारण करते हैं शान्तो मतलब वह किसी प्रकार से विचलित नहीं होते निष्ठा का अर्थ वहां पर आचार्य ने बतलाया है विशेष रूप से संख्या पूर्वक नाम गान मैं पढ़ रहा था प्रात:काल श्री चैतन्य महाप्रभु संख्या पूर्ण नाम जप करते थे यह उनकी निष्ठा हैं। शांति परायण। हरि नाम संकीर्तन द्वारा इस जगत में शांति प्रस्थापित करते हैऔर एकादश स्कंध में कलयुग में भगवान के स्वरूप का वर्णन यह प्रसिद्ध श्लोक लगभग सभी लोग जानते हैं कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ॥श्री (श्रीमद्भागवत 11.5.32) अनुवाद:-कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है । इसकी अधिक व्याख्या करने कि आवश्यकता नहीं है लगभग सभी को यह पता है, परिचित होंगे यजंती मतलब अर्चना करेंगे वहां पर यह बताया गया है कि कौन-कौन से युग में कौन-कौन से रूप रहेंगे और उनकी किस प्रकार से पूजा होगी यह प्रश्न पूछा गया था नव योगेंद्र से तो वहां पर बताया गया कलयुग में सुमेधा मतलब जिनकी बुद्धि पवित्र हो चुकी है वह पूजा करेंगे किन भगवान कि करेंगे? कैसे करेंगे?तो कौन से भगवान है? "कृष्ण वर्ण",इसके दो अर्थ है कृष्ण यह जो दो वर्णमाला है क ख ग घ 'कृष्ण' यह दो वर्ण जिनकी जीव्हा पर सदैव विराजमान रहते हैं। काली काल में जब भगवान प्रगट होंगे तो उनकी जीव्हा पर निरंतर कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे! इस प्रकार से कृष्ण यह दो वर्ण जिनके जीव्हा पर सदैव विराजमान होते हैं और एक अर्थ होता है कृष्ण के विषय में वर्णन जो करेंगे। "त्विषा" मतलब वर्ण। वर्ण कैसा है?अकृष्ण। कृष्ण मतलब काला होता है तो अकृष्ण रंग मतलब गौर वर्ण और साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् मतलब श्री चैतन्य महाप्रभु पंचतत्व को लेकर नित्यानंद अव्दैत गदाधर आदि को लेकर आएंगे और हरि नाम संकीर्तन अस्त्र है उनका और कैसे इन भगवान की अर्चना की जाती है काली काल में संकीर्तन यज्ञ करके हम श्री चैतन्य महाप्रभु कि आराधना करते हैं। अब आगे अथर्ववेदीय चैतन्योपनिषदि में वर्णन किया गया है।इन शब्दों को अगर आप ध्यान से पढ़े हो तो आप समझ सकते हैं जान्हवीतीरे नवव्दीपे गोलोकारण्ये धाम्नि गोविन्दो व्दिभुजो गौर: सर्वात्मा महापुरुषो महात्मा महायोगी त्रिगुणातीत सत्त्वरुपो भक्तिं लोके काश्यति।। 6।। (अथर्ववेदीय चैतन्योपनिषदि) अनुवाद: -भगवती भागीरथीके तट पर विद्यमान गोलोक नामसे प्रसिद्ध नवव्दीप धाम में सर्वान्तर्यामी, महापुरुष महात्मा, महायोगी, त्रिगुणातीत, शुध्दसत्त्वस्वरुप, षड़्ऐश्वर्य पूर्ण श्री गोविन्द भगवान व्दिभुज श्रीगौरांग रुप से अवतीर्ण होकर लोक में भक्ति का प्रकाश करेंगे। जान्हवीतीरे मतलब गंगा नदी के तटनवव्दीपे नवद्वीप में गोलोकारण्ये धाम्नि गोविन्दो जो गोलोक नाम से प्रसिद्ध है उस धाम को,व्दिभुजो गौर: व्दीजरूप में गौर वर्ण में,सर्वात्मा महापुरुषो महात्मा महायोगी त्रिगुणातीत सत्त्वरुपो भक्तिं लोके काश्यति।। तो अनुवाद नीचे दिया गया है सर्व आत्मा महापुरुष श्री गोविंद ही गौरांग रूप में प्रकट होकर भक्ति का प्रसार करेंगे। कुर्म पुराण और गरुड़ पुराण के लगभग एक जैसे शब्द है इसलिए मैंने एक साथ लिया उनको.. कलिना दह्यमानानामुध्दाराय तनूभृताम। जन्म प्रथमसंध्यायां भविष्यति व्दिजालये।। (कूर्मपुराण) कलिना दह्यमानानां परित्राणाय तनूभृताम्। जन्म प्रथमसन्ध्यायां करिष्यामि व्दिजातिषु।। ( गरुड़ पुराण) अनुवाद: -कलिरुप दावानल से जलते हुए भक्तों के उध्दार के लिए कलि की प्रथम सन्ध्या में भूतल पर ब्राह्मणों के कुल में अवतीर्ण होऊंगा। कलयुग में जो लोग जल रहे हैं झुलस रहे हैं उनके उध्दार के लिए ही भगवान जो इस कलिकाल का प्रारंभ है उसको संध्याकाल कहते हैं दो युगों के एकदम बीच का जो समय होता है जो द्वापर का अंत और कली का प्रारंभ है उसे संध्या कहते हैं तो यह प्रथम संध्या है उस प्रथम संध्या मे ब्राह्मण के कुल में भगवान अवतरित होंगे भक्तों का उध्दार करने के लिए,मायापुर नवद्वीप मे प्रकट हुंँगा। अहं पूर्ण भविष्यामि युगसन्धौ विशेषत:। मायापुरे नवव्दीपे भविष्यामि शचीसुत:।। कले: प्रथमसन्ध्यायां लक्ष्मीकान्तो भविष्यति। दारुब्रह्मसमीपस्थ: संन्यासी गौरविग्रह:।। (गरूड पुराण) अनुवाद: - मैं कलियुग की प्रथम सन्ध्या मे श्री मायापुर नवव्दीप में शचीनंदन रुप से पूर्णावतार धारण करूंगा। यह गरुड़ पुराण के शब्द है कई बार लोगों को लगता है कि यह चैतन्य चरितामृत में कहां लिखा है सबसे महत्वपूर्ण क्या है शचीसुते भविष्यमि शची माता के पुत्र के रूप में माता का नाम क्या होगा शची माता कि जय..! शची माता के पुत्र के रूप में नवव्दीप मायापुर में यह प्रगट होंगे और लक्ष्मी प्रिया के पति होंगे और फिर आगे क्या करेंगे दारुब्रह्मसमीपस्थ:जगन्नाथपुरी में वह निवास करेंगे किस रूप में "संन्यासी गौरविग्रह:।।" किस रूप में सन्यासी रूप में वह जगन्नाथपुरी में रहेंगे। यह स्पष्ट रुप में गरुड़ पुराण में दिया गया हैं।और नृरसिंह पुराण में बताया गया है सतयुग में जिन्होंने हिरण्यकशिपु विनाश किया नृरसिंह रुप में, त्रेता युग में रावण का विनाश किया है राम रूप में और द्वापर युग में ग्वालों का और वृंदावन के भक्तों का जिन्होंने रक्षण किया है जो त्रिभुवन को मोहित करते हैं वही ब्रजेंद्र नंदन वही कलियुग में संकीर्तन प्रिय श्रीगौरांगदेव चैतन्य नाम से कलिकाल में प्रकट होंगे सत्ये दैत्यकुलाधिनाशसमये सिंहोर्ध्वमर्त्याकृति-स्त्रेतायां दशकन्धरं परिभवन् रामेति नामाकृति:। गोपालान् परिपालयन् व्रजपुरे भारं हरन् व्दापरे गौराँग: प्रियकीर्तन: कलियुगे चैतन्यनामा प्रभु:।। (नृसिंहपुराण) अनुवाद: - सतयुग में जो प्रभु हिरण्यकशिपु का विनाश करने के समय नृसिंहाकृति से अवतीर्ण हुए, त्रेतायुग में रावण का तिरस्कार करते हुए परम मनोहर राम नामक श्रीविग्रह से प्रकट हुए और व्दापर में पृथ्वी का भार उतारने के लिए ग्वाल बालों की रक्षा करते हुए त्रिभुवन मोहन रुप से श्रीव्रजधाम में विराजे, वे ही प्रभु कलियुग में संकीर्तन प्रिय श्रीगौरांगदेव श्रीकृष्ण चैतन्य नाम से विख्यात होंगे। बृहद नारायण नारद पुराण में कहा गया है अहमेव कलौ विप्र नित्यं प्रच्छन्नाविग्रह:। भगवद् भक्तरुपेण लोकान् रक्षामि सर्वदा।। दिविजा भुवि जायध्वं जायध्वं भक्तिरुपिण:। कलौ संकीर्तनारंभे भविष्यामि शचीसुत:।। (बृहन्नारदीयपुराण) अनुवाद: - हे विप्रवर! कलियुग में मै अपने स्वाभाविक श्यामल विग्रह को श्रीमती राधिकाजी के भाव एवं कान्ति से आच्छादित कर भक्तरुप से श्रीहरिनाम रुप परमास्त्र व्दारा भक्तजनों की सदा सर्वदा रक्षा करता हूँ। अतः हे देवताओं! तुम सबसे भी मेरा यही कहना है कि तुम सभी अब पृथ्वी लोक मे भक्तरुप से प्रकट हो जाओ, कारण कि कलियुग में नाम संकीर्तनारंभ के समय मै भी श्रीशचीपुत्ररुप से प्रकट होऊंगा इस श्लोक में कहा गया है कलयुग में मैं प्रच्छन्न रूप से आऊंगा भक्त रूप में आऊंगा और भक्ति को प्रकाशित करूंगा और कलीयुग संकीर्तन का आरंभ करते समय मैं शचीसुत के रुप में प्रकट हुँदा। कैसा उनका आभूषण होगा? आनन्दाश्रु कलारोम-हर्षपूर्ण तपोधन। सर्वे मामेव द्रक्ष्यन्ति कलौ संन्यासिरुपिणम्।। (भविष्यपुराण) हे तपोवन! कलियुग में सब भक्तजन मुझको आनन्दाश्रु कलाओं से रोमहर्षसे परिपूर्ण वपु संन्यासवेष में देखेंगे। तात्पर्य -ये सब प्रेमके अष्टसात्विक विकार संन्यासी रुपधारी श्रीगौरहरि में अनभूत हुए है, अत: उसी अवतार का संकेत है। सब मुझे देखेंगे,महाप्रभु का दर्शन करेंगे,कैसे? सन्यास रूप में दर्शन करेंगे। कैसे ? "आनन्दाश्रु कलारोम-हर्षपूर्ण तपोधन" यह सभी महाप्रभु के आभूषण हैं। सर्वे मामेव द्रक्ष्यन्ति कलौ संन्यासिरुपिणम्।। सन्यासरुप का वर्णन करते हुवे कविराज गोस्वामी कहते हैं कांचन सदृश्य देह संन्यास वेष धारण किए हैं, अश्रु धारण करते हैं रोमांच तुलक जो अन्य भिन्न भिन्न अष्ट सात्विक विकार है सभी चैतन्य महाप्रभु के अंग में प्रकाशित होते रहते हैं। वायु पुराण के शब्द भी लगभग समान ही हैं। कलौ संकीर्तनारंभे भविष्यामि शचीसुत:। स्वर्णद्द्युतिं समास्थाय नवव्दीपे जनाश्रये।। शुध्दो गौर: सुदीर्घांगो गंगातीर समुभ्दव:। दयालु: कीर्तनग्राही भविष्यामि कलौ युगे।। (वायुपुराण) अनुवाद: - काली काल में संकीर्तन का प्रारंभ करने के लिए नवद्वीप नामांक पूरी में स्वर्ण कांति ग्रहण कर शची पुत्र रूप में प्रकट होऊंगा ।हे देवताओं! कलयुग में गंगा जी के तीरस्थ श्री मायापुर नवदीप में प्रकट होकर सर्वसाधारण पापी-तापी जीवो को नाम संकीर्तन की परिपाटी सिखाऊंगा।उस समय के जीवो की दृष्टि में मैं मुंडीत केश, गौरवर्ण विशिष्ट, अजानुलंबित भुजादि से दिर्घाग एवं पात्रापात्र विचाराधिकार भूमिकासे परे उच्चकोटि के परम दयालु रुप से अनुभूत होऊंगा। संकीर्तन आरंभ करने के लिए शची माता के पुत्र आएंगे नवद्वीप के भक्तों का उद्धार करेंगे और गंगा नदी के तट पर कीर्तन करेंगे ऐसे कुछ शब्द यह गुरु महाराज के मुख से हम कई बार सुनते हैं मार्कण्डेय पुराण के शब्द हैं। गोलोकं च परित्यज्य लोकानां त्राणकारणात्। कलौं गौरांगरूपेण लीलालावण्यविग्रह:।। (मार्कण्डेय पुराण) अनुवाद: - मैं अनेक लीलाओं के संपादन के लिए परम मनोहर विग्रह धारण करने वाला होकर भी कलयुग में भक्त जनों की रक्षा के हेतु गोलोक का त्याग कर श्री गौरांग रूप से अवतीर्ण होऊंगा। हम सब जीवों का उद्धार करने के लिए उध्दार मतलब हमें माधुर्य प्रेम प्रदान करने के लिए। अगर कल समय मिलेगा तो देखेंगे और किस तिथि को आएंगे वह भी स्पष्ट रूप से दिया गया है और पौर्णमास्यां फाल्गुनस्य फाल्गुनीऋक्षयोगत। भविष्ये गौररुपेण शचीगर्भे पुरन्दरात्।। अनुवाद: -भगवान स्वयं कहते हैं - हे देवताओं!उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग से युक्त फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन विजेंद्र पंडित श्री जगन्नाथ (मिश्र पुरंदर ) द्वारा श्रीशची माता के गर्भ से गौरांग रूप से अवतीर्ण होऊंगा। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को जगन्नाथ मिश्र और शची माता के पुत्र के रूप में आएंगे। ठीक है! हम शेष भाग कल देखेंगे, हरे कृष्ण..!

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