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*जप चर्चा,* *पंढरपुर धाम से,* *4 अक्टूबर 2020* *हरे कृष्ण!* आप सबका पुण: स्वागत हैं।श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गोर भक्त वृंद। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे* *हरे*। श्री प्रबोधानंद सरस्वती का वचन हैं, कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रकट होकर प्रेम सागर का विस्तार किया। *आनंदम आबुद्धि वर्धनम*, जिसको स्वयं चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा हैं। आनंद के सागर का वर्धन होता हैं, जब हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का उच्चारण और श्रवण कीर्तन करते हैं। पहले श्रवण करते हैं और फिर कीर्तन करते हैं, उसे कहते हैं, औरों को सुनाते हैं।इस हरे कृष्ण महामंत्र को औरों को देते हैं और उन को प्रेरित करते हैं कि वह भी हरे कृष्ण महामंत्र का जप करें, कीर्तन करें।इसलिए कहा गया हैं *विसत्रिने प्रेम सागरे*। प्रेम सागर का विस्तार होता हैं और फिर प्रबोधानंद सरस्वती ने कहा कि संसार में दो सागर हैं, एक प्रेम का सागर हैं, एक महा अनर्थों का सागर हैं, प्रेम सागर को तो आप समझते ही हो,ऐसा नहीं है कि आप महा अनर्थों के सागर को नहीं समझते हो।उसको समझना चाहोगे तो उसको भी समझ जाओगे। तो यह आंदोलन कृष्ण भावना का आंदोलन हैं। अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का विस्तार करना, इस हरे कृष्ण आंदोलन को फैलाना आनंद आबुद्धि वर्धनम हैं। प्रेम सागर का विस्तार। महा अनर्थ सागर कौनसा हैं? अर्थहीन जो बातें हैं,बेकार की जो बातें हैं, दुनिया भर की जो बातें हैं या वस्तुएं है या भोग विलास के साधन हैं, यह सब महा अनर्थ सागर हैं। हरि हरि। जैसे कि सिनेमाघर एक अनर्थ का सागर हैं। सरकार मंदिर तो नहीं खोल रही हैं, लेकिन सिनेमाघर खुल गए हैं और शराब की दुकानें खुल गई हैं और शराब की होम डिलीवरी की व्यवस्था भी हो चुकी हैं। यह सब महा अनर्थों के सागर का विस्तार हैं। यह विस्तार सरकार करती रहती हैं जहा रावण का राज हैं, रामराज्य नहीं हैं, वहां अनर्थ सागर का विस्तार होता हैं। हरि हरि। सीता के संबंध में मंदोदरी ने कहा कि श्री राम ने रावण का वध किया और केवल रावण का ही वध नहीं हुआ, बल्कि रावण के सारे संगी साथियों का भी वध हुआ, जिससे लंका की सभी स्त्रियां,मंदोदरी भी विधवा हुई और सब अपने घरों से बाहर निकलकर मैदान में पहुंच गई और उन्होंने जो दृश्य देखा उस समय मंदोदरी ने कहा कि यह महान अनर्थों का सागर हैं, अनर्थ को अर्थ समझ कर माया में भ्रमित होकर उसको भोग लेने का प्रयास ही महा अनर्थ का सागर हैं। मंदोदरी ने कहा हे रावण! तुम मर गए, तुम्हारी हत्या हो गई क्योंकि तुम काम के वशीभूत हो गए थे और तुमने सीता का अपहरण किया क्यों किया? काम वश, तुम कामी हो गए और उस कामना ने तुम्हें वशीभूत किया और सीता को तुम पंचवटी से लंका ले आए और उसी का परिणाम हैं, जो आज तुम्हारी दशा हुई हैं। यह दशा क्यों हुई? क्योंकि तुम काम के वशीभूत हो गए थे।यह उसी का परिणाम हैं। मंदोदरी कह रही हैं कि लंका की लगभग सभी नारियां विधवा हो गई। मैं भी विधवा हो गई और यह सभी नारी अभी विधवा हो गई और अब तुम्हारा हाल क्या हुआ हैं? तुम्हारे शरीर और आत्मा का क्या होगा? तुम्हारी देह खाद्य बनेगीं। इसे गीध खाएंगे और तुम्हारी आत्मा सीधे नर्क पहुंचेगी। यह दशा यह हाल तुम्हारा काम के वशीभूत होकर हुआ हैं,और केवल काम वश ही नहीं क्रोध, लोभ वश भी तुम हुए। काम,क्रोध,लोभ, मोह, मद मत्सरय वश। हरि हरि! प्रबोदानंद सरस्वती ठाकुर कह रहे हैं कि हे दुनिया वालों!इस संसार में दो सागर हैं। एक इस दुनिया का महा अनर्थ सागर जो पहले भी था अब भी हैं और रहेगा भी किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रकट होकर इस संसार में प्रेम सागर का विस्तार किया तो अब तुम लाभ उठा सकते हो। भगवान आप लोगों को सद्बुद्धि दे ताकि आप लोग प्रेम सागर में नहा सको,गोते लगा सको।दो सागर एक ही साथ हैं। हरि हरि!*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम* *हरे राम राम राम हरे हरे* श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रकट होकर उस प्रेमसागर का विस्तार किया।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं ही पूरे भारत का भ्रमण किया और नवद्वीप धाम में प्रेम सागर को प्रकट किया। उन्होंने प्रेम सागर का नहर बनाया। जहां-जहां भक्त हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करता हैं, उसका प्रचार प्रसार करता हैं, उसी प्रेमसागर को वह वहां तक पहुंचाता हैं। किसी के घर तक, किसी के मोहल्ले तक,किसी के राज्य तक पहुंचाता हैं और इस प्रकार प्रेम सागर का विस्तार होता हैं और यही कार्य श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सेना पति भक्त श्रील प्रभुपाद ने किया।श्रील प्रभुपाद की जय! और श्रील प्रभुपाद ने हीं यह कार्य प्रारंभ किया। चैतन्य महाप्रभु ने भविष्यवाणी की थी कि मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा। महाप्रभु ने स्वयं ही हरि नाम का प्रचार सर्वत्र या सारी पृथ्वी पर क्यों नहीं किया? उसके लिए श्रील प्रभुपाद बताते थे कि चैतन्य महाप्रभु ने वह कार्य मुझ पर छोड़ा।उन्ही श्रील प्रभुपाद ने अंतराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की। हरि नाम के सागर के रस के प्रवाह को मायापुर नवदीप से न्यूयॉर्क पहुंचाया और वहां से श्रील प्रभुपाद जहां जहां गए वहां वहां हरि नाम पहुंचा रहे थे। उस प्रेम सागर को पहुंचा रहे थे। हरि नाम पहुंचते-पहुंचते कितने ही देशों तक पहुंच गया। अभी अभी जो विश्व हरि नाम उत्सव संपन्न हुआ है उसमें करीब 70 देशो के भक्तों ने भाग लिया। और 70 देशों से रिपोर्ट पहुंची कि कैसे-कैसे उन्होंने अपने अपने देशों में या अपने अपने मुहल्लों में या अपनी अपनी गलियों में,अपने अपने पड़ोस में हरि नाम का प्रचार किया और हरि नाम का विस्तार किया। 17 सितंबर 1965 में श्रील प्रभुपाद न्यूयॉर्क पहुंचे। उस वक्त हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ऐसा कहने वाले वह अकेले ही थे। फुटपाथ पर बैठकर श्रील प्रभुपाद अकेले ही हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन स्मरण कर रहे थे, किंतु यह सारी व्यवस्था श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ही थी। चैतन्य महाप्रभु ने ही प्रकट होकर प्रेमसागर का विस्तार किया और वह अभी भी प्रगट हैं और उस प्रेम सागर का विस्तार कर रहे हैं।इसी से कल्याण होगा जब लोगों को हरिनाम प्राप्त होगा, तब लोगों का कल्याण होगा और फिर वह काम वशीभूत होने की बजाय प्रेम से वशीभूत होकर कार्य करेंगे। इस भवसागर में या महा अनर्थ सागर में जो लोग गोते लगा रहे हैं वह काम से वशीभूत होकर बहुत सारे कार्य कर रहे हैं और अब वह प्रेम से वशीभूत हुए हैं और प्रेम पूर्वक प्रचार-प्रसार भी कर रहे हैं। कृष्ण भावना का जीवन जी रहे हैं और जब वह प्रेम से वशीभूत होकर कार्य करते हैं, उसी के साथ प्रेम सागर का विस्तार होता हैं।अभी-अभी हमने विश्व हरि नाम उत्सव को संपन्न करते हुए उस प्रेम सागर का और थोड़ा विस्तार किया हैं। आनंद आबुद्धि वर्धनम और इसमें आप सब ने योगदान दिया।आप सब लोग सम्मिलित हुए। आप सब को भगवान ने निमित्त बनाया। तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ् क्ष्व राज्यं समृद्धम् | मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् भगवद्गीता 11.33 हम सबको निमित्त बनाया। इससे हमारे भाग्य का उदय हुआ हैं। श्रेयस का आचरण करो। सदा ऐसे कार्य करो जिसे करने से हमारा भाग्य सदा के लिए उदय हो। ऐसा आचरण करो जिससे हमारा भाग्य सदा के लिए उदय हो ।*श्रेयस आचरण सदा* इसी बात को समझाते हुए भगवान ने भागवत ने कहा है कि एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु । प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा श्रीमद भागवतम् 10.22.35 हम अपने प्राण दे सकते हैं,अपना सर्वस्व जीवन अर्पित कर सकते हैं, हरि हरि!या अपना धन दे सकते हैं, अपनी धनराशि को धर्म के प्रचार प्रसार के कार्य में लगा सकते हैं या अपनी बुद्धि का उपयोग कर सकते हैं,अपना दिमाग लड़ा सकते हैं कि कैसे कृष्ण भावना को फैलाया जा सकता हैं या अपनी वाणी का प्रयोग कर सकते हैं। *जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश* इतना तो कर ही सकते हैं,अगर धन भी नहीं है और बुद्धि भी नहीं है,तो भी कोई परेशानी नहीं हैं। आप इतना तो कर ही सकते हैं। मैंने कल यह भी कहा था कि जब श्रील प्रभुपाद ने मुझे यह पदयात्रा से प्रचार करने के लिए कहा तो बैलगाड़ी संकीर्तन पार्टी का आयोजन वृंदावन में शुरू होने जा रहा था, तब प्रभुपाद ने हीं उद्घाटन किया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्रील प्रभुपाद ही थे। श्रील प्रभुपाद ने सबका मार्गदर्शन किया। सभी बैलगाड़ी संकीर्तन के ब्रह्मचारी श्रील प्रभुपाद क्वार्टर में बैठे हुए थे। वहां प्रभुपाद ने सभी ब्रह्मचारीयों का मार्गदर्शन किया और अंत में प्रभुपाद ने कहा कि जा रे देखो तारे कहो हरे कृष्ण उपदेश ,कि तुम जिनको भी मिलोगे उन्हें हरे कृष्ण का उपदेश करो। मतलब हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे जपने के लिए प्रेरित करो। यह भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के उपदेश के अंतर्गत ही हैं।अगर आप तत्व वेता नहीं है और ज्यादा लिखे पढ़े भी नहीं हैं और ज्यादा दिमाग वाले भी नहीं हैं। कलयुग के लोग तो अधिकतर बिना दिमाग वाले ही हैं। प्रायेणाल्पायुष: सभ्य कलावस्मिन् युगे जना: । मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता: ॥ १० श्रीमद भागवतम् 1.1.10 तो सबको श्रील प्रभुपाद ने कहा कि जा रे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश, हरे कृष्ण उपदेश अर्थात हरि नाम का प्रचार अधिक से अधिक लोगों को करो। अधिक से अधिक लोगों को हरि नाम लेने के लिए प्रेरित करना यह प्रचार हरे कृष्ण उपदेश हैं। जब जब हम यह प्रचार का कार्य करते हैं तब तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां उपस्थित रहते हैं।ऐसा नहीं है कि चैतन्य महाप्रभु थे और उन्होंने प्रेमसागर का विस्तार किया।अभी भी महाप्रभु हैं और प्रेम सागर का विस्तार कर रहे हैं।प्रेम सागर का विस्तार जो हो रहा हैं, वह चैतन्य महाप्रभु के कारण ही हो रहा हैं। सभी कारणों के कारण चैतन्य महाप्रभु ही हैं। उनकी उपस्थिति का भी हमें अनुभव करना चाहिए।चैतन्य महाप्रभु साक्षी हैं,अगर हम ऐसे कार्य करेंगे तो इस प्रेम सागर का और अधिक से अधिक विस्तार होगा और इसी के साथ साथ अधिक से अधिक जीवो का कल्याण होगा। उनके भाग्य का उदय होगा।चलो आइए इस संसार को भाग्यवान बनाते हैं, ऐसा उद्देश्य लेकर यह विश्व हरि नाम उत्सव हम मना रहे थे, लेकिन सिर्फ मना रहे थे कि बात नहीं हमेशा मनाते रहना चाहिए।अगर यह उत्सव प्रारंभ हुआ हैं, तो यह सब कभी समाप्त ही ना हो, यह सब चलता रहे। विश्व हरि नाम उत्सव नित्य हरि नाम उत्सव हो जाए। शाश्वत उत्सव हो जाए। उत्सव को आगे बढ़ाना हैं। उत्साह के साथ आगे बढ़ाना हैं। उत्सव हमें उत्साहित करता हैं। आशा हैं कि इस उत्सव ने आप को उत्साहित किया हैं और आप इस उत्सव को आगे बढ़ाते और चलाते रहोगे और इसी के साथ प्रेम सागर का विस्तार होगा और संसार का कल्याण होगा और हमारा भी कल्याण होगा। जब पदयात्रा प्रारंभ हो रही थी तब श्रील प्रभुपाद ने हम को संबोधित किया तो उस संबोधन के अंत में प्रभुपाद ने कहा था कि यह जो प्रचार का कार्य हैं यह तुम्हारे लिए अच्छा हैं, बाकी सब के लिए भी अच्छा हैं, यह सभी के लिए अच्छा हैं। उनका भाव यही था कि इस प्रकार के कार्य से तुम्हारा भी कल्याण होगा और दूसरों का भी कल्याण होगा। लगे रहिए।आगे बढ़ीए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। कोई प्रश्न हैं,तो पूछ सकते हैं। प्रश्न 1-प्रश्न हैं कि ब्रह्म मुहूर्त बहुत शक्तिशाली क्यों हैं? ब्रह्म मुहूर्त की क्या महिमा हैं या इसका हमें कैसे और क्यों लाभ उठाना चाहिए? ऊतर- प्रश्न अच्छा हैं। प्रश्न का स्वागत हैं। यह प्रश्न सभी का होना चाहिए। इस प्रश्न के उत्तर से केवल प्रश्न करता का ही लाभ नहीं होगा बल्कि सब का लाभ होगा। इसलिए ऐसे प्रश्नों की सराहना की जाती हैं, क्योंकि इस मुहूर्त का नाम हैं ब्रह्म मुहूर्त। ब्रह्म अर्थात परम ब्रह्म। परम ब्रह्म प्राप्ति के लिए यह समय सबसे अनुकूल होता हैं। हरि हरि। अलग-अलग समय, पहर और मुहूर्त अलग अलग गुणों से प्रभावित होते हैं।प्रातः काल में ब्रह्म मुहूर्त में सतोगुण की प्रधानता होती हैं। दिन में रजोगुण का प्रधानय होता हैं। प्रतियोगिता के भाव के कारण हम ईर्ष्या द्वेष में फस जाते हैं, रात्रि के समय तमोगुण का प्रभाव होता हैं। इसीलिए रात्रि में लोग खाते रहते हैं, फिर सोते रहते हैं।तमोगुण सुलाता हैं। रात्रि के समय कामवासना अधिक प्रबल होती हैं। इसीलिए मैथुन आदि कृतयों में लगे रहते हैं।क्यों? तमोगुण से वशीभूत होकर। ब्रह्म मुहूर्त में सतोगुण के वशीभूत हो जाते हैं। प्रभुपाद कहा करते थे कि पशु चार पैरों का उपयोग करके दौड़ते हैं और मनुष्य चार पहियों पर सवार होकर दौड़ते हैं। वाहन के रूप में मनुष्य दो के चार पैर बनाते हैं। यह सब रजोगुण के वशीभूत होकर करते हैं। क्योंकि प्रातकाल में सतोगुण का प्रधानय होता हैं, इसलिए बहुत अच्छा समय हैं और जो जानकार हैं इसका पूरा लाभ उठाते हैं और प्रातः काल में उठकर हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप करते हैं। यह आचार श्रेयस का हैं।इससे अध्यात्मिक कल्याण होता हैं।यह समय उन्नति करने वाला हैं। इसलिए हमें इसका पूरा लाभ उठाना चाहिए। ब्रह्म मुहूर्त में परम ब्रह्म की प्राप्ति के लिए कार्य करना चाहिए।क्या कोई और प्रश्न है। प्रश्न 2.आपने परसों की जप चर्चा में कहा था कि कलयुग में अनेकों अपसंप्रदाय हैं और हम अपने आसपास भी देखते हैं कि लोग अलग-अलग जगह जाते हैं, लोग अलग-अलग भ्रांत धारणाओं के साथ जी रहे होते हैं, लेकिन जब हम उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें लगता है कि वह जो वहां सुनकर आते हैं वही सही हैं। ऐसी परिस्थिति में भक्त होने के नाते हमारा क्या कर्तव्य हैं। जब हम देखते हैं कि वह गलत रास्ते पर जा रहे हैं। ऐसे में उनको सुधारने के लिए क्या करना चाहिए? ऊतर-आप अपनी तरफ से उन्हें समझाते रहो अगर उनका समय आ गया हैं सही परंपरा से जुड़ने का तो वह जुड़ जाएंगे और अभी वह तैयार नहीं हैं। तो थोड़ा रुक जाओ दो 4 महीने के बाद या 1 साल के बाद दोबारा से देखो कि वह तैयार हैं या नहीं ऐसे ही धीरे-धीरे आप समझाओ बुझाओ या जो भी हमारी गोड़ीय वैष्णव संप्रदाय की या जो अन्य भी संप्रदाय हैं जैसे रामानुजाचार्य मधवा परंपरा है कृष्णस्वामी निंबार्काचार्य भी हैं अगर उनकी अभी श्रद्धा नहीं है तो अभी प्रचार नहीं करना चाहिए।समय-समय पर जांच कर सकते हैं कि अभी वह तैयार है या नहीं या फिर अगर वह हमारी बात नहीं सुनते हैं तो उन्हें प्रसाद खिलाओ। उसी को खाने से वह आपके तत्वज्ञान की तरफ आकृष्ट होंगे, हो सकता है कि हरे कृष्ण महामंत्र करने के लिए तैयार ना हो लेकिन थोड़ा बहुत कुछ करने के लिए तैयार हो।आप उन्हें किताब पढ़ने के लिए दे दो। प्रभुपाद के ग्रंथ पढ़ने के लिए दे दो। धीरे-धीरे पढ़ते-पढ़ते क्या पता उनहें कुछ पल्ले पड़ जाए। अगर वह लोग कहते हैं कि हम हरे कृष्णा नाम नहीं लेंगे तो कम से कम अगर केवल भगवान का ही नाम ले रहे हैं हरेर नाम एव केवलम्। हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं| कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा। हरे कृष्ण महामंत्र ना जप कर अगर वह केवल नारायण का ही नाम लेना चाहते हैं तो शुरू में वह भी ठीक हैं।अगर वह कहें जय जय राम कृष्ण हरि जय जय राम कृष्ण हरि कहेंगे हम तो वह भी ठीक हैं। कम से कम हरि का नाम ले रहे हैं। तुम चाहे अल्लाह कहो या कुछ भी कहो अपने भगवान का नाम लो समस्या तो यही हैं कि ऐसी गलतफहमी हैं कि अल्लाह आपकी इशवर से अलग हैं। ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान ऐसा बोल बोलकर महात्मा गांधी भी थक गए। वह भी ऐसा प्रचार करते थे कि हे भगवान ईश्वर भी आपका नाम हैं और अल्लाह भी आपका नाम हैं लेकिन इतना समझना जरूरी हैं, कि देवी देवता का नाम हरि नाम नहीं हैं। देवी देवताओं के नाम हरि नाम नहीं है क्योंकि वह हरि नहीं हैं। हरि तो कृष्ण हैं। हरि तो नारायण हैं। हरि तो राम हैं। हरि तो नरसिहं हैं। इतना समझ लो कि देवी देवता जो 33 करोड़ हैं। वह हरि नहीं हैं। शिव जी पार्वती जी से कह रहे हैं कि मुक्तिदाता तो विष्णु हैं। विष्णु तत्व हैं। समस्या यही है कि लोग चीजों को तत्वत: नहीं समझते भावुकता ही बनी रहती हैं। लोग भगवान को तत्व से नहीं जानते,जैसे भगवान ने कहा हैं, मुझे तत्वों से जानो। भगवत तत्व भी हैं, नाम तत्व भी हैं, जीव तत्व भी हैं। कृष्ण भक्ति तत्व भी हैं। ऐसे ही अलग-अलग तत्वों को सर्वोपरि मानकर भी लोग चलते रहते हैं और शाक्त बनते हैं।शाक्त अर्थात देवी के पुजारी शक्ति के पुजारी शाक्त कहलाते हैं। जैसे हमारे हिंदू समाज में पंच उपासना का प्रचलन हैं। उन पांचों में से एक हैं विष्णु।उनको ऐसा ज्ञान नहीं है कि विष्णु सर्वोपरि हैं। उनको लगता है कि विष्णु पांचों में से एक ही हैं। अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ में जो गोडीय संप्रदाय के अनुसार प्रचार प्रसार करता हैं, वह सत्य को सुन और समझ कर उस प्रकार से प्रचार करता हैं। तभी भगवान का संदेश यथारूप पहुंच पाता हैं। अपने मूल रूप में पहुंचता हैं, भगवान का संदेश। क्योंकि लोग परंपरा से नहीं जुड़े हैं इसलिए जतो मत तथो पथ। ऐसा प्रचार है कि जितने भी मत हैं वह सब सही है लेकिन यह गुमराह करना है। लेकिन जितने भी मत हैं उतने पथ नहीं हैं। महा जनों ने जो पथ मार्ग दिखाया है वह ठीक है ।आचार्यो का मत ठीक है, क्योंकि आचार्यो का मत भगवान के मत से मेल खाता है। लेकिन जतो मत तथो पथ कहने वालो का एक भी विचार भगवान से नहीं मिलता। हरि हरि। आप भाग्यवान हो क्योंकि आप इस परंपरा से जुड़े हो।जहां यथारूप प्रचार होता हैं या सही गलत का पता चलता हैं।जो कार्य संप्रदाय से विहीन होकर किया जा रहा हैं, उसका फिर फल नहीं मिलेगा। आपका प्रयास सफल नहीं होगा, विफल होगा। परंपरा के बाहर से आपने यदि कोई मंत्र या विधि विधान सुनकर कार्य किया हैं तो उसमें सफलता नहीं मिलेगी। वह विफल होगा।अब यही रुकेंगे। हरे कृष्णा ।।

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