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हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
4 मार्च 2021
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हरि बोल...!
हरे कृष्ण...!
श्रील भक्तिसिध्दांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद कि जय...!
मेरे गुरु महाराज! वैसे श्रील प्रभुपाद बारंबार बड़े अभिमान के साथ कहा करते थे मेरे गुरु महाराज! श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर मेरे गुरु महाराज! ऐसे थे मेरे गुरु महाराज।वैसे थे मेरे गुरु महाराज। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर एक लेखक जिन्होंने भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कि जीवनी लिखी है तो उन्होंने सबटाइटल( उपनाम) में लिखा है कि शक्त्यावेश अवतार श्रील भक्तिसिध्दांत सरस्वती ठाकुर। वहां यह प्रणाम मंत्र भी...
नमः ॐ विष्णुपादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिसिद्धान्त – सरस्वतीति – नामिने
नामिने मतलब नाम वाले
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर विष्णुपाद दे रहे और थे विष्णु पाद उनके चरणों में कृष्ण के सेवक थें। प्रणाम मंत्र में आगे...
श्रीवार्षभानवी – देवी – दयिताय कृपाब्धये
कृष्ण – सम्बन्ध – विज्ञान – दायिने प्रभवे नमः
उनके दीक्षा का नाम था श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर श्रीवार्षभानवी देवी दयित वार्षभानवी देवी तो राधा रानी भी थी वृषभानु नंदिनी राधा रानी के दयित सेवक। वृषभानु देवी दयित। कृपाब्धये जो कृपा के सागर थें;जो भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर और कृष्ण – सम्बन्ध – विज्ञान – दायिने जिन्होंने कृष्ण के साथ जीवो का जो संबंध है यह दिया या समझाया ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर। प्रभवे नमः प्रभवे मतलब प्रभु। ऐसे प्रभु को मेरा नमस्कार। हम तो उनको प्रभु कहते हैं, सारा संसार कहता है, किंतु वे अपने शिष्यों को भी प्रभु-प्रभु कहते थे या कोई नमस्कार करता शील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को तो उलटे वे भी नमस्कार करते थे नमस्कार करने वाले को। ऐसे विनम्र मुर्ति थे शील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर।
माधुर्य्योज्जवल – प्रेमाढय – श्रीरूपानुग – भक्तिद
यह प्रणाम मंत्र है भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का । प्रेमाढय जैसे धनाढ्य होता हैं। धन से संपन्न धनाढ्य, वे प्रेम से संपन्न है प्रेमाढय।कोनसे प्रेम से संपन्न है? माधुर्य्योज्जवल माधुर्य प्रेम से संपन्न। जिस प्रेम को देने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुए।
अर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ
समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्।
हरि: पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब- सन्दीपित:
सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।
(श्री चैतन्य चरितामृत,आदि लीला, 1.4)
अनुवाद: -श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय कि गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने कि आभा से दीप्त, वे कलयुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं।
समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां देने के लिए। क्या देने के लिए? उन्नत- उज्वल रस। कभी माधुर्य रस या राधा भाव, गोपी भाव।ऐसे भाव से संपन्न, युक्त थें।
श्रीरूपानुग – भक्तिद
ऐसे थोड़ा धीरे-धीरे पढ़ेंगे तो एक-एक शब्द को श्रीरूपानुग – भक्तिद श्री ऐसे चार पांच शब्द से 1 शब्द बना हैं, वैसे कई शब्दों से एक शब्द बना।संधि विच्छेद करना सीखते हैं तो फिर कई शब्दों से बना एक शब्द हम समझ सकते हैं। श्रीरूपानुग – भक्तिद श्री रूप अनुग भक्ति को दीए या दिया। इस भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने जो भक्ति दी, भक्ति का प्रचार किया है वह रागा-अनुराग भक्ति थीं। रूपानुराग भक्ति थीं।
श्रीगौर – करुणा – शक्ति – विग्रहाय नमोऽस्तुते
नमोस्तुते में भी तीन शब्द हैं। नमः अस्तु ते।नमस्कार हो या मेरा नमस्कार हैं। ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को मैं नमस्कार करता हूंँ। कैसे भक्ति सिद्धांतों श्री गौर करुणा शक्ति। गौरांग महाप्रभु कि शक्ति। कौन सी शक्ति?गौर करुणा शक्ति। गौरांग महाप्रभु के करुणा शक्ति के विग्रहाय विग्रह थें। विग्रह मतलब वह मूर्तिमंत या गौरांग महाप्रभु कि करुणा प्रकट हुई मूर्तिमान बनीं। शील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के व्यक्तित्व में हम क्या देखते है? गौर करुना शक्ति का प्रदर्शन किया।
नमस्ते गौर – वाणी – श्रीमूर्तये – दीन – तारिणे
नम: ते नमस्ते! नमस्कार! हम लोग कहते हैं नमस्ते नमस्ते नमस्ते।मगर नम:ते! आप को मेरा नमस्कार।इसमें दो शब्द है नमः एक शब्द, ते दूसरा शब्द। नमस्ते! नमस्कार!श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को नमस्कार! ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर गौर – वाणी – श्रीमूर्तये वे गौर वाणी कि मूर्ति थें। गौरवाणी! आप गौर वाणी को देखना चाहते हो? गौरवाणी प्रगट हुई गौरवाणी मूर्तिमंत हुई मूर्तिमान... देखो! देखो!गौर वाणी को देखो! श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को देखना मतलब जब देखोगें तो क्या देखोगे गौरवाणी ही थें। गौरवाणी ने रूप धारण किया और बन गए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर। दीन – तारिणे दिनों को
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल,
ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥
(नरोत्तम दास ठाकुर लिखित हरि हरि! विफले जनम से)
अनुवाद: -जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, इस संसार के जो दीन हीन हम जैसे दीन हीन या उस काल के तत्कालीन जो भी दीन थे दीनतारी ने, दीनों को तारने वाले, पतियों को पावन बनाने वाले शील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कि विशेषताएं हैं या विशेषण है कहिए और अंत में इस प्रणाम मंत्र में लिखा है
रूपानुग – विरुद्धाऽपसिद्धान्त – ध्वान्त – हारिणे
यह स्पेशलिटी रही वैसे सी भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कि और तो वैशिष्ठ रहे लेकिन सभी वैशिष्टठों में एक वैशिष्ठ विशेष रही। क्या है? रूपानुग – विरुद्धाऽपसिद्धान्त रूपानुग अपसिध्दांत। रूप गोस्वामी के सिध्दांत के विपरीत कोई बात या विपरीत कोई सिद्धांत, कोई प्रचार करता था श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के जमाने में तो उस अपसिद्धांतों को ध्वान्त – हारिणे उसका विनाश करने वाले।अपसिद्धांत ध्वान्त – हारिणे। रूपानुग विरुद्ध अपसिद्धांत। रूपानुग के विरोध में कोई अपसिद्धांत कि बात कोई करता तो उस समय बहुत कुछ चलता था। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के समय, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के समय मतलब ये 150 वर्ष पूर्व की बातें हैं। ध्वान्त – हारिणे वे कट्टर विरोधी थे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर। अपसिद्धांतों का विरोध करते थें, विरोध करके फिर पुनः अप सिद्धांत के स्थान पर सिद्धांतों कि स्थापना करते थे।
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।
इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।।
(श्री चैतन्य चरितामृत,आदि लीला, 2.117)
अनुवाद: -निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को बिवादास्पद मानकर उनकी
उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति
अनुरक्त होता है।
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।
सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं। सिद्धांत कहो या तत्व कहो, सायंस कहो या शास्त्र कहो या विज्ञान कहो भक्ति का विज्ञान
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद: -हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
भगवान के जन्म लीला ओ को तत्वतः समझना होता है तथा उसके साथ जुड़े हुए जो सिद्धांत है यह महत्वपूर्ण हैं,और उसी के आधार पर ही धर्म कि स्थापना होती है या फिर उसको तत्वज्ञान कहीए। केवल भाव नहीं होने चाहिए सिद्धांत भी होने चाहिए। यह श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे कई लोग तो तथाकथित धार्मिक तो थे लेकिन सिद्धांतों का पालन नहीं करते थे या आपसिद्धांत का अचार और प्रचार करते थे उनको भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ऐसी गर्जना करते उन अपसिद्धांतों के विरोध में इसीलिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर सिंह गुरु कहलाते थे।कई सारी लोमड़ी है वह कांपने लगते थे।पलायन करते थे या कभी-कभी श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ऐसे किसी अप सिद्धांत का प्रचार करने वाले को मिलते तो उसका गला पकड़ कर कहते क्या है?ऐसा प्रचार कर रहे हो? चुप रहो!हरि हरि!
ऐसे...
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कि जय...!
उन्होंने बहुत कुछ किया।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
परित्राणाय साधूनां किया और दुष्टों का संहार किया। दुष्ट वचनों का अपसिद्धांतों को पराजित किया। विनाशाय च दुष्कृताम् | दुष्टता का संहार किया, विरोध किया। उस समय भी ब्राह्मणीझम, हम ब्राह्मण है, या अपना वर्चस्व कहो।ऐसे चलते थे ब्राह्मण उस समय के घमंडी ब्राह्मण। ये दूर रहो! घृणा और द्वेष से पूर्ण रहा करते थें। अस्पृश्यता का जो प्रचार हुआ बाद में महात्मा गांधी ने कुछ प्रयास किया। अस्पृश्यता निवारण। यह ब्राह्मणों ने फैलाई अस्पृश्यता ।दूर रहो!, छूना नहीं!, तुम शुद्र हो!, तुम चांडाल हो! और इसके कारण ही तो कई लोग हिंदू धर्म को छोड़ दिए। जब जन्मे तो थे लेकिन हिंदू धर्म के तथाकथित लीडर्स, ये ब्राहमण इतनी घृणा, द्वेष,ईर्ष्या,स्वागत नहीं हो रहा था कुछ जातियों का, कुछ शुद्रो का कहो फिर ये लोग जा रहे थे हिंदू घर छोड़कर और फिर मुसलमानों के लिए, ईसाईओके लिए आसान काम हो रहा था, धर्मांतर कराना। अपने धर्म में तो कोई स्वागत सम्मान मिलता ही नहीं था कुछ जाति के लोगों को या ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी सब अछूत हरि हरि!
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर लड़े इस सिद्धांतों के विरोध में या इन ब्राह्मणों के विरोध में।
तो ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर और भक्ति विनोद ठाकुर जो उनके पिताश्री थे ,इन दोनों ने मिलकर वैष्णव धर्म की स्थापना की। ब्राह्मणों से वैष्णव श्रेष्ठ है ।इस एक बहुत बड़ी सभा बुलाई गई जिसमें विद्वान ब्राह्मण और वैष्णव भी थे।वहां शास्त्रार्थ होना था। वहां पर ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का निरूपण करने वाला था। पर जो गौड़ीय वैष्णव होते हैं वह सर्वोपरि होते हैं। इस सभा का नेतृत्व श्रील भक्ति विनोद ठाकुर को ही करना था पर उन दिनों में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इतने बीमार कि उनकी वहां पहुंचने की कोई संभावना नहीं थी।श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इतने चिंतित थे कि वह बार-बार बोलते कि मेरे अलावा और कोई नहीं है क्या जो वहां पर जाकर उन ब्राह्मणों को मुंहतोड़ जवाब दे पाए? तब श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने एक निबंध वैष्णव के सम्मान में और एक निबंध ब्राह्मणों के सम्मान में लिखा।उन्होंने यह दोनों ने निबंध भक्ति विनोद ठाकुर को पढ़कर सुनाएं और श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इतने प्रभावित और प्रसन्न हुए कि वह वहां लेटे हुए थे और सुनकर वे उठकर बैठ गए और जोर-जोर से कहने लगे कि तुम सचमुच सरस्वती हो, और तुमने सरस्वती की कृपा को प्राप्त किया है, तुम जाओ। फिर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर गए और उन्होंने पहले ब्राह्मणों की गौरव गाथा गाई, ब्राह्मण भी तो श्रेष्ठ होते है।जिस प्रकार सर हमारे शरीर का प्रधान अंग है उसी प्रकार समाज का प्रधान अंग ब्राह्मण है। हाथ क्षत्रिय है,पेट वैश्य,एयर टांगे शुद्र के समान।वह बहुत बड़ी सभा थी।तो जब श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ब्राह्मणों की गौरव गाथा गा रहे थे ,तो ब्राह्मण बहुत गर्व से अपने आप के लिए तालियां पीट रहे थे, वहां तक तो सब ठीक था पर जब भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर वैष्णव धर्म की गौरव गाथा गाने लगे।
भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर शास्त्रों से उदाहरण लेकर यह बता रहे थे कि जो ब्राह्मण होते हैं वह श्रेष्ठ होते हैं पर वैष्णव ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ होते हैं। ब्राह्मण भी एक उपाधि है,जब हम इस ब्राह्मण की भी उपाधि से मुक्त होंगे।
च.च मध्य लीला 19.170
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त त्परत्वेन निर्मलम्।
हृषीकेण हषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते ॥ 170॥
अनुवाद:
भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में
अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् की सेवा करता है, तो उसके दो गौण
प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में
लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं।
वैष्णव ब्राह्मणों से परे होता है या वैष्णव गुनातीत होता है। जो सत्तोगुनी होते हैं वह ब्राह्मण होते हैं, मतलब 3 गुणों में से एक का प्रभाव तो बना ही रहता है। वैकुंठ लोक में आपको वैष्णव ही वैष्णव मिलेंगे, वैकुंठ लोक में आपको ब्राह्मण नहीं मिलेंगे और अगर ब्राह्मण मिलेंगे भी तो वह भी वैष्णव होंगे। कुछ ब्राह्मणों के गुण धर्म वैष्णव में भी रहेंगे पर वहां पर ना सतोगुण होगा, ना रजोगुण ना तमोगुण रहेगा।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
*तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13
यह समझना होगा और वैसे भी श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने यहi समझाया ही होगा। ऐसा नहीं होगा कि अगर किसी ने ब्राह्मण के परिवार में जन्म लिया तो वह ब्राह्मण हो जाएगा ।ब्राह्मण वैश्य क्षत्रिय और शूद्र एक व्यक्ति के गुणों से पता चलता है। ........ परंतु वैष्णव इन 3 गुना से परे होते हैं, गुनातीत होते हैं। तो वैष्णव जब हम कहते हैं तो यह उपाधि नहीं है और अगर उपाधि है अभी तो यह आत्मा की उपाधि है शरीर की उपाधि नहीं है। आत्मा तो वैष्णव होती है और जो ब्राह्मण होते हैं उनका संबंध इस शरीर से,अपने मन के साथ, यहां के गुणों के साथ होता है।
तो अंतिम शब्द उनके ही रहे और उनके प्रभावशाली ,प्रस्तुतिकरण या भाषण से सबका मुंख बंद हो गया।
श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाशय की जय!!! उस सभा के अंत में हजारों की संख्या में लोग भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के चरण धूलि अपने माथे पर लगाने के लिए आ रहे थे।हजारों की संख्या में लोग श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के प्रति आकृष्ट हुए। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर अपने चरण किसी को वैसे तो छूने नहीं देते थे।
उनके जो भी संचालक थे उस सभा के वह स्वयं श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के अंगरक्षक बने और उन्हें एकांत स्थान में ले गए ताकि उन्हें भीड़ से बचाया जा सके और इन अंग रक्षकों के किए गए विशेष निवेदन पर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के चरणों का पाद प्रक्षालन हुआ और यह जो जल था क्योंकि जनता तो मान नहीं रही थी ,जनता तो मिलना चाहती थी, दर्शन करना चाहती थी ,उनके चरणों को छूना चाहती थी उनके चरणों की धूल से अपने शरीर का मार्जन करना चाह रही थी। उनके चरणों का दोहन हुआ और फिर जल छिड़का या गया और उसके स्पर्श से जनता थोड़ी शांत हुई या उनका थोड़ा समाधान हुआ और अपने अपने घर वे लौट गए ।जय जय !विजय हो !विजय हो! गौड़ीय वैष्णव धर्म की विजय हुई। उसकी स्थापना भी हुई। ऐसे कई सारे प्रसंग हैं
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
परित्राणाय साधुनाम* ऐसे कई सारे प्रसंग इस विषय में फिर विनाशाय च दुष्कृताम् ऐसे कई सारे प्रसंग और यही करते हुए धर्म संस्थापनार्थाय धर्म की स्थापना उन्होंने की,ऐसे कई सारे प्रसंग। ऐसे प्रसंगों से ही जीवन उनका भरा रहा । इस प्रकार उन्होंने अपना जीवन सफल किया। हम सभी का भी जीवन सफल कर रहे हैं। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः
(मनुस्मृति)
अनुवाद: -
धर्म का लोप कर देने से वह लोप करने वालों का नाश कर देता है और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक कि रक्षा करता हैं, इसलिए धर्म का हनन कभी नहीं करना चाहिए, जिससे नष्ट धर्म कभी हमको न समाप्त कर दें।
धर्म की रक्षा करो तो यह धर्म फिर आपकी रक्षा करेगा ।श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर गौरांग महाप्रभु की ओर से गौर करुणा शक्ति श्री विग्रहाय नमोस्तुते कहो या श्रीवर्षभानवी देवी बनकर और माधुरयोजज्वल प्रेमाढ़य के कारण रूपानुगभक्तिद भक्ति का दान दिया दीन तारिने दीनों को तारा, रक्षा की और विशेष रूप से विरुद्धपसिद्धान्त ध्वांत हारिने रूपनुगा सिद्धांतों के विपरीत बातों को पराजित किया।लोग कुछ उल्टा प्रचार कर रहे थे उसको सुल्टा किया। इस संसार में सब लोग उल्टाफुलटा करते रहते हैं। तो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने सही सिद्धांतों का प्रचार किया। ऐसे आचार्य रहे अपने उदाहरण से यह सब उन्होंने संभव किया। तो ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के हम कितने ऋणी हैं। उन्होंने सारा हमारा मार्ग साफ किया। कई सारे कंटक पत्थर थे इस मार्ग में।इस बैकुंठ और गोलोक के मार्ग के इस सफर में हम सफर ना करें ऐसी व्यवस्था करके गए श्रीला भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर।
हरे कृष्ण आंदोलन सफल रहा है और यह श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित हरे कृष्ण आंदोलन जो सर्वत्र फैल रहा है तो उसके पीछे के कारण श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर ही हैं। उन्होंने भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को यदि आदेश नहीं दिया होता 1922 में,कि पाश्चात्य देश में जाओ और भागवत धर्म प्रचार करो ,तो फिर आगे कुछ होना ही नहीं था। आदेश भी दिया और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने 1935 -1936 तक रहे ।कुछ तेरह -चौदह वर्षों तक साथ रहे ।श्रील प्रभुपाद गृहस्थ थे ,अभय चरण अरविंद भक्तिवेदांत। उतना साथ नहीं संभव हुआ तो भी संपर्क तो बना रहा ,और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर दर्शन दिया करते थे, आदेश दिया करते थे, अगर तुम्हें धनराशि प्राप्त हो तो ग्रंथों की छपाई करो ऐसा आदेश भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने राधा कुंड के तट पर दिया। तो ऐसे प्रातः स्मरणीय, सदैव स्मरणीय श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का जीवन चरित्र आप भी पढ़ो हरे कृष्ण।