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*जप चर्चा* *सुंदर चैतन्य स्वामी महाराज द्वारा* *दिनांक 12 मार्च 2022* हरे कृष्ण!!! *नम: ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले । श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।* *नम: ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले । श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।* *(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* मैं सबसे पहले अपना आभार प्रकट करता हूँ कि मुझे इस गौर कथा श्रृंखला में कुछ कहने का अवसर प्राप्त हुआ है। हम विशेष रूप से चैतन्य महाप्रभु की मुकंद दत्त, गदाधर पंडित और केशव कश्मीरी आदि भक्तों के जो लीला सम्पन्न हुई ,उसके विषय में बताएँगे। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने विद्या विलास को निमाई पंडित के रूप में नवद्वीप में प्रकाशित किया है। उन दिनों में नवद्वीप, विद्या का मूल स्थान था, जहां पर लोग दूर-दूर से विद्या अर्जन करने के लिए आते थे। संपूर्ण जगत से बड़े-बड़े विद्वान, ब्राह्मण, पंडित आदि विद्या अर्जन के लिए यहां पर आते थे। समस्त विद्वान, ब्राह्मण भौतिक जीवन का परित्याग करके, भगवान के चरण कमलों में आसक्त होने के लिए नवद्वीप में वास कर रहे थे। वहां अलग-अलग भक्त जो विद्या अर्जन कर रहे थे उनमें चैतन्य महाप्रभु के एक भक्त मुकुंद दत्त भी थे। मुकुंद दत्त को सभी भक्त प्रेम करते थे। उनके कीर्तन के द्वारा किसी भी भक्त का हृदय द्रवीभूत हो जाता था। अद्वैत आचार्य और अन्य भक्तों के साथ मिलकर वह सदैव बहुत सुंदर सुंदर भजन का गान किया करते थे। जब मुकुंद दत्त कीर्तन का प्रारंभ करते थे तब भक्तगण अपनी ब्राहय अवस्था को भी विस्मरण करके उच्च स्वर में कीर्तन व नृत्य करते थे। उच्च स्वर में कीर्तन करते हुए, क्रंदन करते थे, नृत्य करते थे और कई लोग अपनी बाहरी सुध को भूल जाते थे। तत्पश्चात दिव्य आनंद का अनुभव करते हुए वे जमीन पर लौटने लगते थे। कई भक्त जोर-जोर से तालियां बजाते थे और कई भक्त जोर-जोर से सिंह की तरह गर्जन करते थे। वहां का संपूर्ण वातावरण एकदम आध्यात्मिक आनंद से परिपूर्ण हो गया था। समस्त भक्तगण अपने समस्त पूर्व क्लेशों को भूल चुके थे। महाप्रभु विशेष रूप से मुकुंद दत्त से बहुत प्रसन्न रहते थे। परंतु कई बार महाप्रभु मुकुंद पंडित को चिढ़ाते भी थे। कई बार मुकुंद अपनी सफाई देने का प्रयास भी करते थे। महाप्रभु कभी कभी शास्त्रार्थ में उनको परास्त कर देते थे और सिद्ध करते थे कि वे कैसे गलत है। इस प्रकार महाप्रभु शास्त्रार्थ करके मुकुंद के साथ तर्क किया करते थे। इस तरह महाप्रभु के साथ शास्त्रार्थ करके मुकुंद दत्त बहुत अच्छे सम्माननीय विद्वान बन गए। महाप्रभु मुकुंद के साथ छह प्रकार के प्रेममय आदान-प्रदान का आस्वादन किया करते थे। इसी प्रकार महाप्रभु निमाई पंडित के रूप में श्रीवास ठाकुर के साथ भी वाद-विवाद करते थे परंतु अधिकांश वैष्णवगण इस तरह के अनावश्यक शास्त्रार्थ को टालते थे क्योंकि वह इसे अपने समय की बर्बादी समझते थे। वैष्णवगण सदैव आध्यात्मिक आनंद में डूबे रहते हैं। भौतिक सुख के प्रति विचार नहीं करते। वे श्रीकृष्ण कथा को छोड़कर अन्य किसी विषय पर वार्ता पसंद नहीं करते। एक दिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ रास्ते पर चल रहे थे अचानक सामने से मुकुंद आते दिखाई दिए। जैसे ही मुकुंद ने महाप्रभु को देखा, तुरंत ही वह अपना रास्ता पलटने का प्रयास करने लगे। महाप्रभु ने गोविंद से पूछा कि मुकुंद मुझे देखकर दूर क्यों भाग रहा है, वह मुझसे दूर क्यों जा रहा है। गोविंद ने कहा- मुझे नहीं पता। शायद उसे और कुछ काम याद आ गए होंगे इसीलिए वह जा रहा होगा। तब महाप्रभु ने गोविंद से कहा कि हां, मैं जानता हूं कि वह क्यों भाग रहा है क्योंकि मुकुंद भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कभी भी सांसारिक बातों पर चर्चा करना पसंद नहीं करता है क्योंकि उसने केवल भक्तिमय शास्त्रों का अध्ययन किया है परन्तु मैं अधिक समय संस्कृत, व्याकरण, अलंकार, ज्योतिष आदि में अपना समय व्यतीत करता हूं। मैं भगवान् श्रीकृष्ण के बारे में बात नहीं करता हूं इसलिए वह मुझसे दूर भागता है। इस प्रकार से महाप्रभु, मुकुंद के साथ में ऐसा आदान-प्रदान किया करते थे। वास्तव में देखा जाए तो मुकंद दत्त, निमाई पंडित के सहपाठी थे। वे दोनों एक ही कक्षा में थे। वहीं मुकुंद आगे चलकर, श्रीचैतन्य महाप्रभु की जगन्नाथपुरी की लीला में भाग लेते हैं। आगे चलकर हम देखते हैं, जब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास आंगन में महाप्रकाश लीला की, उन्होंने केवल मुकुंद को छोड़कर समस्त भक्तों पर कृपा की क्योंकि मुकुंद कभी-कभी अपनी चर्चाओं में भक्ति को ज्ञान और कर्म को एक साथ में, एक ही स्तर पर रखने लगे थे। मुकंद जब भक्तों के बीच में रहते हैं, तब भक्ति के गुणों का वर्णन करते थे। निर्विशेषवादियों के साथ में ज्ञान, योग विशिष्ट आदि की चर्चा करते थे। इसलिए महाप्रभु ने उनका परित्याग किया। समस्त भक्तों ने मिलकर महाप्रभु से पूछा कि हे महाप्रभु! मुकुंद को आपकी कृपा कब प्राप्त होगी। तब महाप्रभु ने कहा लाखों-करोड़ों जन्म के बाद में मुकुंद को मेरी कृपा प्राप्त होगी। जैसे ही मुकुंद को यह समाचार प्राप्त हुआ कि करोड़ों जन्म के बाद महाप्रभु उस पर कृपा करेंगे, वह आनंद के मारे नाचने व झूमने लगे कि करोड़ों जन्म के बाद मुझे कृपा मिलेगी। मुझे कृपा मिलेगी। लाखों वर्ष के बाद मुझे कृपा मिलेगी, ऐसा वे बार-बार कह कर आनंदित हो रहे थे। यह मुकुंद की निष्ठा थी जिसे देखकर महाप्रभु का हृदय द्रवीभूत हो गया। चूंकि मेरे शब्दों के प्रति, तुम्हारा इतना दृढ़ निष्ठा और विश्वास है। इस विश्वास के कारण तुम्हारे द्वारा पूर्व में भी जितने भी अपराध हुए हैं। वे समस्त मैंने माफ कर दिए हैं, चैतन्य महाप्रभु ने क्षण मात्र में ही समस्त अपराधों को माफ कर दिया। भक्ति के प्रति उनकी दृढ़ निष्ठा को देखकर सब अपराधों को माफ कर दिया। हालांकि देखा जाए तो लाखों वर्ष नहीं कहा गया था, लाखों जन्म कहा गया था परंतु फिर भी मुकुंद की जो निष्ठा थी कि कम से कम लाखों जन्मों के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब भगवान मुझ पर कृपा करेंगे। इसी एक शब्द से उन्हें आनंद प्राप्त हुआ। वही मुकुंद, श्रीकृष्ण की लीला में मधुकंठ नाम के एक गोप है। मधुकंठ, उन्हें इसीलिए कहा जाता है क्योंकि मधु का मतलब शहद होता है, वैसे ही मधु कंठ वह है जिसका कंठ शहद की तरह मीठा है। एक दिन मुकुंद, गंगाधर पंडित के पास गए और फिर उन्होंने कहा कि आज मैं आपको बहुत अच्छे वैष्णव से मिलवाऊंगा। गदाधर पंडित ने जब मुकन्द से सुना तो वे बहुत बहुत प्रसन्न हो गए। गदाधर पंडित ने जब सुना कि बहुत महान वैष्णव से मिलना है, वे बहुत प्रसन्न हुए। गदाधर पंडित कहने लगे कि कृष्ण! कृष्ण! तत्पश्चात मुकुंद, गदाधर पंडित को पुंडरीक विद्यानिधि के स्थान पर ले कर गए। उस समय पुंडरीक विद्यानिधि अपने कक्ष में शयन कर रहे थे। तब मुकुंद ने उन्हें प्रणाम किया, उस समय पुंडरीक विद्यानिधि ने मुकन्द से पूछा कि यह जो नए भक्त को लेकर आए हो, उनका क्या नाम है? तब मुकुंद ने कहा कि इनका नाम गदाधर है। गदाधर की विशेषता यह थी कि इन्हें बाल्यावस्था से ही किसी भी सांसारिक भौतिक विषयों में कोई भी रुचि नहीं रही हैं। गदाधर पंडित भी सभी भक्तों को बहुत प्रिय थे। वह केवल और केवल भक्ति योग का अनुशीलन कर के केवल भक्तों के संग में ही सदैव रहते थे। जब इन्होंने आपका नाम सुना तो आप से भेंट करने के लिए यहां पर आए हैं। तब पुंडरीक विद्यानिधि बहुत ही मधुर वचन में गदाधर पंडित से बात करने लगे परंतु उस समय गदाधर को ब्राह्य रूप से पुंडरीक विद्यानिधि का भौतिक विलासमय वेश ही दिखा। वे बड़े महंगे वस्त्रों व बड़े महंगे बिस्तर पर लेटे हुए थे। सामने एक ट्रे में सुपारी रखी हुई थी और वे सुपारी खाते हुए मुस्कुरा रहे थे। उनके पीछे कुछ सेवक थे,जो मोर पंख से उनको हवा दे रहे थे। उनके मस्तक पर बहुत सुंदर वैष्णव तिलक था।पुंडरीक विद्यानिधि के केश बहुत ही सुंगंधित अम्लाकी तेल से सुशोभित थे। जैसे किसी राजा का विलासमय जीवन होता है, वैसे ही वे राजसी वेश में ठाट बाट पर वहां उच्च आसन पर बैठे हुए थे। प्रारंभ से अथवा जन्म से गदाधर पंडित ने विरक्त ब्रह्मचारी जीवन का पालन किया था। उनके मन में पुंडरीक विद्यानिधि के बाह्य वेश को देखकर थोड़ा संशय आ गया। हालांकि पुंडरीक विद्यानिधि बहुत ही महान भक्त थे। भक्ति की बहुत उच्च अवस्था में थे परंतु ब्राह्य रूप से वे बहुत भौतिकवादी विलासी व्यक्ति के समान प्रतीत हो रहे थे। ऐश्वर्यमय और भोग विलास आदि में लगे हुए थे । उनकी ऐश्वर्यमय वेशभूषा थी। गदाधर पंडित ने पुंडरीक विद्यानिधि का जब पहले नाम सुना था तो उनके प्रति कुछ श्रद्धा थी लेकिन उनकी वेशभूषा देखकर उनका श्रद्धा और विश्वास कम होने लगा। मुकुंद तुरंत समझ गए कि गदाधर पंडित के मन में पुंडरीक विद्यानिधि को लेकर मन में कुछ संशय उठ रहा है। तुरंत मुकंद ने ऐसा कुछ विशेष कार्य किया जिससे पुंडरीक विद्यानिधि की उच्च कोटि की भक्ति का प्रकाश गदाधर पंडित के समक्ष हो सके। उस समय मुकन्द ने तुरंत श्रीमद्भागवत के श्लोकों का गान प्रारंभ किया। मुकंद ने श्रीमद्भागवत का प्रसिद्ध श्लोक गाया जिसके अंदर कहा जाता है किस प्रकार पूतना राक्षसी अपने स्तनों पर कालकूट विष लगाकर श्रीकृष्ण को मारने आई थी। ऐसे पूतना को भी जो श्रीकृष्ण को विषपान कराने आई थी, उनको भी श्रीकृष्ण ने अपनी माता की गति प्रदान की। कितनी अद्भुत लीला है कि पूतना जो कि बकासुर की बहन है, वह अपने स्तनों पर विष लगा कर श्रीकृष्ण को मारने के लिए आई थी परंतु श्रीकृष्ण ने उस पर भी कृपा की। जब यह श्रीकृष्ण की दयालुता, भक्त वत्सलता का वर्णन पुंडरीक विद्यानिधि ने सुना। तब भगवान की महिमा का वर्णन सुन कर वे जोर जोर से क्रन्दन करने लगें, तुरंत ही पुंडरीक विद्यानिधि के नेत्रों से उस समय आनंदमय अश्रुओं की बौछार होने लगी। वे झूमने लगे, आनंदित होकर नाचने व गाने लगे। सभी प्रकार के अष्ट सात्विक विकार उत्पन्न होने लगे। रोने लगे, कंपन होने लगा, रोमांचित व स्तंभित होने लगे। मुकुंद से कहने लगे कि मुझे श्रीकृष्ण के विषय में और कहो, और कहो, और कहो। उस समय वह जमीन पर लौटने लगे, जितनी भी महंगी वस्तुएं थी सभी को लात मारकर तोड़ने लगे। कोई भी उनके इस भाव को रोक नहीं पा रहा था।जितने भी सोने चांदी के महंगे बर्तन इत्यादि थे,उनको दूर-दूर फेंक दिया। जिससे वे टूट गए। यहां तक कि वह जिस सिंहासन पर बैठे थे, वह सिंहासन भी नीचे गिर गया। इतना ही नहीं श्रीकृष्ण के प्रति ऐसा भावावेश आया कि अपने हाथों से ही जो अपने महंगे रेशमी वस्त्र आदि पहने हुए थे, वे उन सबको फाड़ने लगे। उस समय में जमीन पर लौटने लगे। सुगंधित तेल से उन्होंने अपने केशों को सुशोभित किया था, वे केश पूरी तरह से बिखर गए। वे जोर जोर से चिल्लाने लगे- कृष्ण! मेरे प्राण धन! कृष्ण! मेरे जीवन! उस विशेष विरह अवस्था में वे जोर जोर से कृष्ण के लिए रोने लगे। केवल भागवत के श्लोक का श्रवण करने मात्र से पुंडरीक विद्यानिधि की ऐसी अवस्था हो गई। इतना ऊंचा उठने का भाव था कि दस दस बलवान व्यक्ति मिलकर पुंडरीक विद्यानिधि को पकड़ने का प्रयास कर रहे थे लेकिन वे अपने प्रयास में असफल हुए। उस समय वहां जितने भी बर्तन आदि वस्तुएं रखी थी, हवा में फैकें जाने लगी। इस प्रकार से उन्होंने अपनी दिव्य अवस्था का प्रकाश किया। अत: वे अचेतन अवस्था में गिर पड़े। कोई भी बाह्य जीवन के लक्षण उनमें प्रतीत नहीं हो रहे थे क्योंकि पुंडरीक विद्यानिधि आनंद के समुंदर में पूरी तरह निमग्न हो चुके थे। जब ऐसा भक्ति का प्रकाश देखा तो गदाधर पंडित आश्चर्यचकित और विस्मित हो गए। उस समय गदाधर पंडित ने मन में विचार किया कि मन में ही चाहे, पर इतने उच्च कोटि वैष्णव के प्रति मैंने मन में गलत भावना लेकर बहुत बड़ा वैष्णव अपराध किया है। फिर गदाधर पंडित, आनंद का अनुभव करते हुए मुकुंद का आलिंगन करते हैं और कहते हैं कि हे मुकुंद! आज तुमने सही वास्तविक मित्र की भूमिका निभाई है। केवल तुम्हारे कारण ही मैं आज समझ पाया हूं कि पुंडरीक विद्यानिधि किस उच्च कोटि के महान भक्त हैं। त्रिभुवन में तीनों लोकों में पुंडरीक विद्यानिधि जैसा वैष्णव कोई नहीं है। आज तुम्हारी कृपा से ही मुझ से जो एक बहुत बड़ा अपराध वैष्णव के प्रति होने वाला था, उससे मैं बच गया। प्रारंभ में मैंने विचार किया था कि ये इंद्रिया तृप्ति के प्रति आसक्त हैं परंतु तुमने वास्तव में मुझे पुंडरीक विद्यानिधि की उस दिव्य अवस्था को दर्शाया है। मैंने पुंडरीक विद्यानिधि के चरणों में बहुत बड़ा अपराध किया है। अब मुझे उस अपराध का निवारण करना ही होगा। मेरे अभी तक कोई गुरु नहीं है। मैं पुंडरीक विद्यानिधि को अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्वीकार करता हूं और मैं उनसे मंत्र स्वीकार करूंगा। अगर मैं उनका शिष्य बन जाता हूं तो ही मेरे अपराध का खंडन हो सकता है। उस समय गदाधर पंडित ने अपनी इच्छा प्रकाशित की कि मैं पुंडरीक विद्यानिधि से दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूं। अतः मुकन्द ने कहा - साधु साधु! साधु! साधु! बहुत सुंदर !बहुत सुंदर! पुंडरीक विद्यानिधि जो अपनी बाह्य चेतना को भूल चुके थे, वह मूर्छित हो गए थे। 6 घंटे बाद उनकी मूर्छा वापिस आई और वे बाह्य चेतना में आए, वे अत्यंत आनंदित थे। तब मुकुंद ने पुंडरीक विद्यानिधि को बतलाया कि आपके बाह्य अवस्था को देखकर गदाधर पंडित के मन में पहले कुछ अपराध भावना आई थी परंतु आप के भक्ति प्रकाश को देखकर वह अपने अपराध का निवारण करना चाहते हैं और आपके द्वारा मंत्र प्राप्त करके, दीक्षा लेना चाहते हैं। तब मुकुंद ने कहा कि पुंडरीक विद्यानिधि और गदाधर पंडित, गुरु और शिष्य की बहुत ही अच्छी जोड़ी है। मुकुंद की यह बहुत सुंदर लीला है कि कैसे गदाधर पंडित पुंडरीक विद्यानिधि के शिष्य बने हैं। साथ में ही हम केशव कश्मीरी के विषय में थोड़ा सा कुछ श्रवण करेंगे। पुंडरीक विद्यानिधि ने गदाधर पंडित को स्वीकार कर लिया। पुंडरीक विद्यानिधि कहते हैं कि मेरे कई जन्मों का स्वीकृति या पुण्य है, जिसका फल है कि मुझे आज गदाधर पंडित जैसा शिष्य प्राप्त हुआ है। नवद्वीप संपूर्ण विश्व में विद्वान पंडितों के लिए विख्यात था। वहां पर कई ऐसे भक्त भी थे जो चैतन्य महाप्रभु से विद्या अर्जित कर आनंद का भी आस्वादन कर रहे थे। उस समय एक उच्च विद्वान थे जो नवद्वीप में आए जिन्हें दिग्विजय भी कहा जाता है क्योंकि वह समस्त दिशाओं में जाकर अपनी विद्वत्ता को स्थापित कर रहे थे। वे देवी माता सरस्वती के महान भक्त थे। वे सरस्वती देवी के मंत्र का जप करते थे। उन्होंने देवी सरस्वती की कृपा को प्राप्त किया था। माता सरस्वती वैसे लक्ष्मी का ही एक स्वरूप है, लक्ष्मी माता सदैव भगवान नारायण के वक्षस्थल पर विराजमान रहती है। लक्ष्मी देवी संपूर्ण जगत की जननी है और भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप है। माता सरस्वती दिग्विजय की आराधना से प्रसन्न हुई थी और उसके सामने प्रकट होकर वरदान दिया था कि संपूर्ण तीनों लोकों में सदैव तुम्हें विजय प्राप्त होगी। माता सरस्वती से वर प्राप्त कर के वह भिन्न-भिन्न स्थानों पर भ्रमण करने लगा व लोगों को परास्त करने लगा। समस्त शास्त्र उसकी जिव्हा पर थे। कोई भी उसे चुनौती नहीं दे सकता था। अलग-अलग स्थानों पर जाकर उन्होंने कई बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया था। अंततः दिग्विजय ने नवद्वीप की महिमा को भी सुना। दिग्विजय बहुत बड़े ऐश्वर्य के साथ में नवद्वीप में पहुंचे, घोड़े- हाथी सभी उनके साथ में थे। उस समय नवद्वीप के ब्राह्मण थोड़े चिंतित है क्योंकि इस दिग्विजय ने समस्त दिशाओं में सभी स्थानों को जीत लिया था और अब वह नवद्वीप को परास्त करने आया था। वह अपने साथ विजय पत्र अर्थात प्रमाण पत्र लेकर घूम रहा था। वैसे नवद्वीप भी अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध था। नवद्वीप ने भी कई स्थानों के लोगों को परास्त किया था। यदि यह दिग्विजय, नवद्वीप के पंडितों को भी परास्त कर देता तो फिर नवद्वीप की महिमा धूमिल हो जाती क्योंकि दिग्विजय को सरस्वती माता ने अपना वरदान प्रदान किया था। सरस्वती स्वयं जिसकी जिव्हा पर वास करती हो, संसार का कौन व्यक्ति उसे परास्त कर सकता है। इसलिए नवद्वीप के जो पंडित थे, उनके हृदय में चिंता होने लगी। कई विद्यार्थियों ने आकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को दिग्विजय के बारे में बताया। महाप्रभु ने कहा - सुनो! सुनो! पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कभी भी किसी व्यक्ति के अभिमान को सहन नहीं करते। यदि किसी भी व्यक्ति में अहंकार आ जाता है तो भगवान उसके अंहकार का नाश करते हैं। जिस प्रकार से एक वृक्ष फलों से भरा रहने पर स्वाभाविक रूप से झुक जाता है वैसे ही सद्गुणों से युक्त व्यक्ति नम्र होता है। तब महाप्रभु ने पूर्व के रावण आदि राजाओं के कई उदाहरण दिए, जिन्होंने समस्त दिशाओं को जीत लिया था। उनका अहंकार चकनाचूर हो गया, भगवान कभी भी किसी अहंकार को रहने नहीं देते। आप देखोगे कि शीघ्र ही भविष्य में इस पंडित का अहंकार भी भगवान कैसे दूर करेंगे। उसी समय दिग्विजय सामने से आने लगा बहुत ही शीघ्रता से, बहुत ही विद्वतापूर्ण शब्दों से वह कहने लगे कि इस संसार के किसी व्यक्ति में सामर्थ्य है जो दिग्विजय के शब्दों को भी पकड़ ले। जैसे बिजली का वेग होता है वैसे ही उनके जिव्हा से काव्य स्फुरित होने लगा। किस मनुष्य में सामर्थ्य था कि दिग्विजय के शब्दों में कोई दोष और त्रुटि देख सके। उनमें दोष देखना तो दूर की बात रही, उनको समझने का भी सामर्थ्य साधारण मनुष्य में नहीं था। वहां पर हजारों की संख्या में जितने विद्यार्थी थे, वह उस दिग्विजय पंडित की बातों को सुनकर विस्मित हो गए। कुछ तो ऐसा कहने लगे क्या किसी साधारण मनुष्य में इतना सामर्थ्य है जो ऐसी बातों को कह सके। शब्द, अलंकार, व्याकरण से युक्त इतनी सुंदरमय रचना कोई भी साधारण मनुष्य नहीं कर सकता। धाराप्रवाह, अखंडित रूप से दिग्विजय 3 घंटे ऐसे बोलते रहे। उस समय जैसे ही दिग्विजय ने विराम दिया, उसी समय श्री चैतन्य महाप्रभु मुस्कुराने लगे और चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि आपने जो कुछ कहा है, आप उसे भली-भांति अवश्य अच्छे से समझाइए। जब दिग्विजय पंडित बोलना प्रारंभ ही कर रहे थे तभी उसी समय महाप्रभु ने उन्हें बीच में टोक दिया। उन्होंने कहा आपकी इस रचना में तीन दोष हैं। प्रारंभ में एक है, मध्य में एक है, अंत में एक है। अब आपके पास उसका क्या उत्तर है? जब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने वह दोष बताएं तब ब्राह्मण एकदम अचंभित हो गया। आज तक पूरे संसार में उनके जीवन में कभी किसी ने उनका खंडन नहीं किया था, किसी ने टोका नहीं था। वहां पर उस समय जब गंगा नदी के तट पर चर्चा हो रही थी तब श्रीचैतन्य महाप्रभु उन्हें और अधिक लज्जित नहीं करना चाहते थे। गंगा नदी के तट पर वास्तविक रूप से दिग्विजय पंडित ने गंगा माता की महिमा का बखान करने के लिए हजारों श्लोकों की तत्क्षण रचना की थी। बहुत ही तीव्रता अर्थात बहुत ही तेजी से उन्होंने कई श्लोकों में गंगा माता की महिमा को गाया था। महाप्रभु ने कहा 56 नंबर की संख्या का जो श्लोक है, उसमें कुछ त्रुटि है। दिग्विजय एकदम आश्चर्यचकित हो गए। मैनें इतनी तेजी से कहा कि मुझे भी ध्यान नहीं रहा, कौन सी संख्या कौन सा श्लोक था। इस व्यक्ति ने इतनी जल्दी श्लोक की संख्या को कैसे पकड़ लिया। 56 नंबर के श्लोक में शिवजी को सम्बोधित करते हुए एक शब्द आया था-भवानी भर्तु:। भवानी, भव का अर्थ शिवजी और शिवजी की पत्नी मतलब पार्वती, पार्वती को संबोधित करते हुए भवानी शब्द आता है। भर्तु: का अर्थ होता है पति, ऐसा प्रतीत होता है कि शिवजी की पत्नी का पति। ऐसा लग रहा है जैसे दो अलग-अलग पति हैं।उस शब्द का अर्थ हुआ- शिव की पत्नी का पति। उस शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि पार्वती के दो पति हैं। अलंकार में काव्य रचना में भी ऐसे शब्दों का पुनरावृति नहीं की जाती। चैतन्य महाप्रभु व्याकरण के एक साधारण से पंडित थे क्योंकि वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान थे। कौन था जो भगवान को प्राप्त कर सकता था। दिग्विजय पंडित अचंभित हो गए, आश्चर्यचकित हो गए। निशब्द हो गए उनके मुख से एक भी शब्द नहीं निकल रहा था। महाप्रभु ने उसके अहंकार को चकनाचूर कर दिया। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* हमें समय के अभाव में इस लीला को पूर्ण नहीं कर पा रहे परंतु आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।।

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