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11 Aug19 हरे कृष्ण! ( यह जप चर्चा कल की जप चर्चा (जपा टॉक) का अग्रिम भाग है, इस श्लोक में गुरू महाराज जी " सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज' अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।" (भगवतगीता) (१८.६६) के विषय में आगे बता रहे हैं) हमने स्वयं अपनी इच्छानुसार इस पथ का चयन किया है अर्थात हमने स्वयं ही यह राह चुनी है। अतः हम भगवान को इसके लिए दोष नहीं दे सकते हैं। यह हमारी स्वयं की गलती है और हम ही इस गलती को सुधार सकते हैं। भगवान से स्वतंत्र होकर हमारे अंदर जो भोग करने की इच्छा हैं, हमें उसका त्याग करना चाहिए। हमें अपनी इस भोग की मानसिकता का त्याग करना होगा। हमें योगी बनना होगा। भगवान अर्जुन को कहते हैं- अर्जुन, 'योगी भव:', तुम योगी बनो। हम कहते हैं कि आप जप योगी बनिए। आप जप कीजिए और जप योगी बनिए। यह संसार रूपी माया हमें भोगी भव: बनने के लिए कहती है। यह संसार, भगवान कृष्ण के विपरीत बोलता है, भगवान कृष्ण कहते हैं, "योगी भव:" और संसार कहता है, "भोगी भव:"। 'भव:' का अर्थ है बनना। हमें अपनी भोग करने की मानसकिता का त्याग करना चाहिए। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जैसा कि सभी कहते हैं कि अमेरिका, सुविधाओं और अवसरों का देश है (America is the land of opportunity)। यहाँ आपको सभी प्रकार की सुविधाएं प्राप्त हो सकती हैं। इस प्रकार यह अमेरिका देश 'भोगी भव:' की मानसकिता का प्रतिनिधित्व कर रहा है अर्थात सभी को भोगी बनने के लिए सुविधाएं प्रदान कर रहा है। परंतु वह यह नहीं बताता है कि आप जो अभी अभी भोग कर रहे हो, उस भोग का परिणाम रोग होगा, भोग से रोग की प्राप्ति होती है। हमारी प्रवृत्ति आंनद प्राप्त करने की है, परंतु हमें आनंद के साथ दुखों को सहन करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। आधा ज्ञान अत्यंत ही खतरनाक होता है। अभी अमेरिका या अन्य कई विकसित देश हमें आधा ज्ञान दे रहे हैं। वे कहते हैं, आप आनंद लीजिए, आप भोग करिए परंतु वह यह नहीं बताते कि इस आंनद का परिणाम अंततः दुख ही है। इस प्रकार भगवान भगवतगीता (५.२२) में इसके विषय में बताते हैं कि "ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।। हम भोग की कई वस्तुएं एकत्रित करते हैं अथवा बहुत अधिक मात्रा में हम भोग करने के लिए वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। यदि हमारे यहाँ उत्पादन नहीं हो सकता तब हम उसको बाहर से आयात करते हैं, बड़े बड़े शॉपिंग मॉल और दुकानों में उनको भेजते हैं, उनका प्रचार करते हैं। उस समय, हम उन पदार्थों को प्राप्त करने और उनका भोग करने के लिए उनकी ओर भागते हैं। वास्तव में भोग करने के लिए केवल 5 ही प्रकार के पदार्थ हैं, सुनना, स्पर्श, स्वाद, सूंघना या देखना होगा अर्थात श्रवण, स्पर्श, रस, गंध और रूप।छठा कोई भोग नहीं है।सम्पूर्ण जगत मात्र इन 5 पदार्थों से भरा हुआ है और इनके पीछे भाग रहा है। आधुनिक सभ्यता में इन पदार्थों को अत्यंत ही सुंदर ढंग से सजा कर अथवा अच्छे से पैक कर इन्हें प्रस्तुत किया जाता है। जब भोग की इच्छा रखने वाले इसकी चमकदार पैकिंग को देखते हैं, तब वे इसकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। जैसा जब एक पतंगा अग्नि को देखता है, तो वह शीध्र ही उस अग्नि की ओर जाता है परंतु अतंत: उस अग्नि के सम्पर्क में आने से उसकी मृत्यु हो जाती है। भगवान कहते हैं, "संस्पर्शजा भोगा" अर्थात जब भोग की वस्तु इन्द्रियों के स्पर्श में आती हैं, वही संस्पर्शजा होता है। संस्पर्शजा, में सम आता है। सम का अर्थ है, सम्यक प्रकारेण अर्थात जब हम अधिक से अधिक मात्रा में इन पांच प्रकार के पदार्थों के भोगों में लिप्त रहते हैं अथवा उन्हें भोगना चाहते हैं, तब भगवान कृष्ण कहते हैं कि संस्पर्शजा भोगा। अंत में हमें उससे आनंद मिलता है। जब हम भोग की वस्तुओं को भोगते हैं, तब हमें कुछ क्षणिक भोग की प्राप्ति होती है परंतु अभी तक यह केवल अर्ध सत्य है। इसका आधा सत्य कुछ और है। भगवान कृष्ण आगे दुख योग के विषय में बताते हैं। आपके भोग का कारण ही, आपके दुख का कारण भी होगा। जो वस्तु आपको भोग दे रही है वही आपको दुख भी देगी। जैसा कि अभी प्रचलित है 'Buy Two, Get One Free', दो वस्तुएँ खरीदिये, उनके साथ एक वस्तु आपको निःशुल्क मिलेगी। जब आप दो वस्तुएँ खरीदते हैं और तब जो वस्तु निःशुल्क मिलती है, वही एक दुख है। इस प्रकार से जब हम दो वस्तुएँ खरीदते हैं और एक वस्तु हमें मुफ़्त (फ्री) मिलती है। इसका अर्थ यह नहीं होता है कि हम उन्हें दुख के लिए भुगतान करते हैं। हम उन्हें भुगतान तो आंनद के लिए करते हैं, लेकिन हमें दुख साथ में निशुल्क ही मिल जाता है, क्योंकि वह भी इसी पैकेट का एक अंश है। जिस प्रकार से एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, हम ऐसा नहीं कह सकते हैं कि इस सिक्के का केवल एक ही पहलू है अथवा एक ही साइड है। प्रारंभ में व्यक्ति हाथ मिलाते हैं परंतु बाद में वे चांटा मारते हैं। इस प्रकार से जो वस्तु हमें सुख देती है, वही अंत में हमारे दुख का कारण बनती है। माया किस प्रकार कार्य करती है यह समझना अत्यंत आवश्यक है। भगवान आगे कहते हैं। ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः । भौतिक जगत में जो कार्य होते है,उनका अंत होता है।प्रारंभ में उनसे आंनद प्राप्त होता है। जब हम भोग करना प्रारंभ करते हैं, उस समय हमें उनसे क्षणिक आंनद की प्राप्ति होती है परंतु इसका अन्त अत्यंत ही दुखदायक होता है। भगवान इस श्लोक के मध्य में अर्जुन को कह रहे हैं कि "आद्यन्तवन्तः कौन्तेय" कौन्तेय, तुम सुनो! भगवान कृष्ण अर्जुन को श्लोक के बीच में क्यों कह रहे हैं कि 'अर्जुन, तुम सुनो।' ऐसा नही है कि अर्जुन भगवान की वाणी को सुन नहीं रहा था । वह सुन रहा था। अर्जुन के कई नाम हैं यथा भारत, अर्जुन, धनञ्जय, कौन्तेय आदि। भगवान श्लोक के मध्य में बोलते हैं कि "कौन्तेय, तुम सुनो।" इसका कारण यह है कि यह अत्यंत ही ध्यान देने वाली बात है। भगवान कह रहे हैं कि यद्यपि, अर्जुन तुम सुन रहे हो परंतु इस बात को विशेष रूप से ध्यानपूर्वक सुनो क्योंकि मैं अत्यंत ही गंभीर और महत्वपूर्ण बात तुम्हें बता रहा हूँ। इसलिए भगवान अर्जुन का पूरा ध्यान इस बात पर आकर्षित करने के लिए कहते हैं, हे अर्जुन, हे कुंती पुत्र, अब तुम सुनो कि मैं क्या कह रहा हूँ। "ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।" यह एक पूरी प्रक्रिया है, जिसका आदि है और अंत है, कारण है, और उस कारण का परिणाम भी है। जहां प्रेम है, तथा घृणा है। जब प्रेम समाप्त होता है तब घृणा का प्रारंभ होता है। आगे भगवान कहते हैं "न तेषु रमते बुध:" न तेषु अर्थात इन कार्यों में एक धीर और बुद्धिमान व्यक्ति सम्मलित नहीं होता। इसके लिए भगवान ने पहले बताया "ये हि संस्पर्शजा भोगा" ये संस्पर्शजा भोग का अभिप्राय भोग करने की वस्तुओं से है। जिनका आदि और अंत है और जिनका प्रारंभ आंनद से होता है और अंत दुख से होता है एवं दुख दायक होता है। "न तेषु रमते बुध:" रमते अर्थात जो रमन नही करते। बुद्धिमान व्यक्ति भोग की वस्तुओं में, इन्द्रियों के सुख में आनंद नहीं लेते हैं अथवा उनमें सम्मलित नहीं होते हैं। अतः बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए वह स्वयं को इससे परे रखे। जिन वस्तुओं का आदि है तथा अंत है, जो प्रारंभ में सुख देती हैं परंतु अंत में उनका परिणाम दुख दायक होता हैं। उनमें बुद्धिमान व्यक्ति सम्मलित नहीं होता। इस प्रकार से बुद्धिमान व्यक्ति द्वंद्व में सम्मलित नही होता। इससे हम पता कर सकते हैं कि कौन अधिक बुद्धिमान है और कौन कम बुद्धिमान है। भगवान कहते हैं कि जो इसमें सम्मलित नही होता है, वही बुद्धिमान है। उसका बोद्धिक स्तर (I.Q.) अधिक होता है। हम भी यह पता कर सकते हैं कि कौन व्यक्ति बुद्धिमान है और कौन नहीं। बुद्धिमान व्यक्ति हरे कृष्ण महामंत्र का जप करता है। कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति हरि नाम का जप करते हैं। श्री मदभागवतम के ११.५.३२ में वर्णन आता है कि "यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।" जो व्यक्ति संकीर्तन यज्ञ में शामिल होता है, वह वास्तव में सुमेधसा है, वह सबसे अधिक बुद्धिमान है जो भगवान का कीर्तन यज्ञ अर्थात जप यज्ञ करते हैं। भगवान भगवतगीता में स्वयं कहते हैं, 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' अर्थात सभी यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूँ। हरे कृष्ण महामंत्र का जप और कीर्तन एक यज्ञ है। कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति भगवान की आराधना संकीर्तन यज्ञ से करते हैं और कृष्णभावनामृत को स्वीकार कर जप करते हैं, संकीर्तन करते हैं, पद यात्रा करते हैं। इस प्रकार से वे हरिनाम का प्रचार और वितरण भी करते हैं। भागवतम कहती है कि जो ऐसा करते हैं, वे बुद्धिमान हैं। आप सभी भी इस हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं,आप सभी बुद्धिमान हैं। हम इस जप चर्चा को यहीं विराम देते है, आप सभी से किसी अन्य दिन फिर भेंट होगी। हरे कृष्ण!

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