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जप चर्चा वृंदावन धाम 26 अगस्त 2021 हरे कृष्ण ! 815 स्थानोंसे भक्त जप कर रहे हैं । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद । जय अद्वेत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ॥ वृंदावन धाम की जय ! और वृंदावन में तो मैं पहुंच चुका ही हूं जानते हो । इतना आसान और सरल वैसे नहीं है वृंदावन पहुंचना । लेकिन यह शरीर तो पहुंचा हुआ है किंतु हम पूरे के पूरे पहुंचे हैं नहीं पहुंचे हैं भगवान जाने ! अक्रूर जैसे वृंदावन पहुंचे । वे तो सचमुच पहुंच ही गए । यह कहना था कि आज की कथा कहो या जो भी जपा टॉक है यहां 7:15 तक ही चलेगा जपा टॉक । क्योंकि मुझे फिर कृष्ण बलराम मंदिर पहुंचना है और 8:00 बजे भागवतम् कक्षा होगी कृष्णा बलराम मंदिर में । पद्ममाली आपको अलग से अनाउंसमेंट करेंगे 7:15 बजे । टॉक केबल मेरा ही होगा आप में से कुछ हैंड राइस करके तैयार बैठे हो लेकिन आज आप नहीं बोल पाओगे । मोनोलॉग नोट डायलॉग अगर आप यह शब्द समझते । मोनोलॉग, डायलॉग । डायलॉग नहीं होगा आज तो मैं ही समय सीमित है तो मैं ही कुछ कहूंगा और फिर आपको कुछ कहना होगा तो फिर देखते हैं भविष्य में आप कह सकते हो । अबसर तो दिया जाता ही है आपको वैसे बोलने के लिए समय-समय पर लेकिन आज नहीं । वृंदावन धाम की जय ! यह वैसे द्वितीय दिन चल रहा है वृंदावन में हमारा जपा और जपा टॉक का तो पहले दिन तो कृष्ण का जन्म बड़ा संक्षिप्त हमने कहा मथुरा में जन्मे कृष्ण और वहां से गए गोकुल । गोकुल कितने वर्ष रहे । वहां से आए वृंदावन अगर आप भेद जानते हो गोकुल मतलब क्या है और वृंदावन अलग है क्या ? या अलग-अलग वन है । गोकुल महावन में है और यह बड़ा भ्रामक है और वहां से आए वृंदावन लेकिन वृंदावन भी तो कई सारे वन भी है उनके नाम भी है । द्वादश कानन है । केशी घाट , वंशीवट , द्वादश कानन । याहा सब लीला कोइलो श्रीनन्दनन्दन ॥ 3 ॥ (जय राधे, जय कृष्ण ) अनुवाद:- जहाँ श्रीकृष्ण ने केशी राक्षस का वध किया था उस केशीघाट की जय हो । जहाँ श्रीकृष्ण ने अपनी मुरली से सब गोपिकाओं को आकर्षित किया , उस वंशीवट की जय हो । व्रज के बारह वनों की जय हो जहाँ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ने सब लीलायें की । 12 वनो में से 1 है वृंदावन और फिर सारे वनों को मिलके भी कहते हैं वृंदावन यह थोड़ा संक्षिप्त में समझ ही जाओ । आज हम श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का वृंदावन में आगमन और उन्होंने किया वृंदावन का परिभ्रमण और वे 12 वनों में यात्रा किए या दूसरे शब्दों में कहो तो व्रजमंडल परिक्रमा किए ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । उसमें से देखते हैं क्या हम कह सकते हैं । कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जो मध्यलीला 17 वा अध्याय चैतन्य चरितामृत में चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन भेंट और वैसे 18वें अध्याय में भी 17 और 18 अध्याय में भी 2-1 अध्याय में चैतन्य चरितामृत में चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन भेंट । टूरिंग वृंदावन, परिक्रमा की तो उसका वर्णन कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखे हैं । हरि हरि !! तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दूर से ही देखा । मथुरा को देखा पहले और साष्टांग दंडवत प्रणाम किए दूर से ही । ओ ! मथुरा धाम की जय ! मथुरा सामने दिखने लगी तो वहीं पर साष्टांग दंडवत प्रणाम किए । इससे भी पता तो लग ही सकता है कितने वे धाम भावीत थे । धाम का कितना चिंतन कर रहे थे । धाम का महिमा जानते थे चैतन्य महाप्रभु से कोई बात छिपी ही नहीं है और उनकी श्रद्धा रही मथुरा वृंदावन में और वही तो बात है । जिसे हम लोग चैतन्य महाप्रभु के चरणों का आश्रय हम भी लेते हैं और फिर वे बुल बातें हैं हमारा नियंत्रण नहीं रह जाता तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कब से वृंदावन आना चाहते हैं थे । उनकी गया में दीक्षा हुई महामंत्र प्राप्त किए । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ कहते ही, वैसे वृंदावन का उनको को स्मरण हुआ और वृंदावन की ओर दौड़ने लगे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । वृंदावन धाम की जय ! लेकिन उनको रोका गया और वृंदावन जाने की वजह है उनको मायापुर ले गए भक्त तो वह एक समय था और फिर एक दीक्षा हुई सन्यास दीक्षा हुई अब मैं मुक्त हूं । मैंने सन्यास लिया है । मैं बैरागी बन चुका हूं अब मैं मुक्त हूं तो मुक्त हो के सन्यास लेने के तुरंत उपरांत श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन ही जाना चाहते थे उन्हें अपने गंतव्य स्थान वृंदावन बनाया और वृंदावन की दिशा में जा रहे थे किंतु यह सब लीलाएं हैं । मैया ने कहा कि वृंदावन तो बेटा दूर है तो कैसे मिलना जुलना होगा । कोई समाचार भी नहीं आएगा तुम वृंदावन जाके वहां रहोगे तो जगन्नाथपुरी में रहो-जगन्नाथपुरी में रहो । हां मैया ! तथास्तु वैसे ही हो । ऐसा कहकर वे वृंदावन की वजह है जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान तो किए लेकिन वृंदावन जाने का विचार तो वे कभी नहीं छोड़ पाए और उन्होंने कई बार प्रस्ताव रखे थे । हरि हरि !! जगन्नाथ पुरी के भक्तों के समक्ष, मुझे वृंदावन जाना है मुझे वृंदावन जाने दो । लेकिन वे रोकते रहे । टालते रहे अभी नहीं तो अंत में जा ही रहे थे फिर रामकेली में रूप सनातन जगन्नाथ पुरी से गए । वैसे मायापुर नवदीप भी गए थे भक्तों से मिले । रूप सनातन को मिलने रामकली गए फिर वहां से अब वे वृंदावन के दिशा में जा रहे थे लेकिन भक्तों को जिसे पता चला कि चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं तो सारा बंगाल ही सारा नवदीप वासी सभी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ उस यात्रा में जुड़ गए । चैतन्य महाप्रभु उस भीड़ भाड़ के साथ नहीं जाना चाहते थे अकेले जाने चाहते थे तो उस समय भी चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन जाने की या विचार छोड़ दीया और जगन्नाथपुरी लोटे और फिर अंत में विचार हुआ ही और योजना बन गई अकेले जाना चाहते थे लेकिन कम से कम बलभद्र भट्टाचार्य को एक व्यक्ति को साथ में रखो ना ! तो फिर एक व्यक्ति को लेके श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के लिए प्रस्थान कर रहे हैं । जगन्नाथ पुरी से कटक आते हैं, कटक से झारखंड जंगल आते हैं जंगल में से जा रहे हैं और उस जंगल का किया है मंगल । जंगल में मंगल श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । झारखंड; आप जानते हो ? आजकल तो झारखंड नाम का एक राज्य ही बन चुका है । बिहार का एक अंश तो चैतन्य महाप्रभु ने उस जंगल के जंगली जानवरों को पशु पक्षियों को अपनी संकीर्तन से जोड़ दिया । सभी कीर्तन और नर्तन कर रहे थे और चैतन्य महाप्रभु ने वह दृश्य जब देखा एक शेर और एक हिरण वह साथ में चल रहे हैं कंधे से कंधा मिला के कहो । इतना ही नहीं आगे देखा कि यह दोनों शेर और हिरण आलिंगन कर रहे हैं आप जेसे मनुष्य आलिंगन करते हैं एक दूसरे को गले लगाते हैं यह दो पशु और वे भी कौन-कौन से टीम देखिए । एक से दूसरे शेर के साथ नहीं, एक से दूसरे हिरण के साथ गले लगा रहा है आलिंगन दे रहा है, आलिंगन ही नहीं चैतन्य महाप्रभु ने देखा की वह चुंबन कर रहे हैं और यह जब देखा दृश्य तो चैतन्य महाप्रभु कहने लगे वृंदावन वृंदावन वृंदावन धाम की ! वृंदावन धाम की ! उन्होंने तो अनुभव किया कि यही तो वृंदावन है जहां ईर्ष्या द्वेष नहीं है । यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ ( भगवद् गीता 4.22 ) अनुवाद:- जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं । गीता में कृष्ण कहे भी थे मेरे भक्ति या मेरे वृंदावन के भक्त कैसे होते हैं ? "द्वन्द्वातीतो" वैसे ही में हिरण हूं यह भी द्वंद है । "द्वन्द्वातीतो विमत्सरः" मत्सर रहित होना तो यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दृश्य दिखा झारखंड के उस जंगल में अपने समक्ष दिखा, प्रत्यक्ष देखा तो चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कि वृंदावन तो यही है । वृंदावन के भाव तो ऐसे ही होते हैं तो वैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के रास्ते में थे । बीच में ही एस जंगल में ही उनको लगा कि वृंदावन में पहुंच गया यही तो वृदावन है तो वैसे श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु आगे बढ़े ही है उस जंगल में बहुत कुछ हुआ हाथियों के साथ उसका वर्णन और यह लीला बड़ी झारखंड में संकीर्तन लीला । यह प्रसिद्ध लीला है । हरि हरि !! तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े हैं कीर्तन और नृत्य करते हुए और हर नगर में हर ग्राम में चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन हो रहा है, नृत्य हो रहा है और अपनी भविष्यवाणी को सच करके भी दिखा रहे हैं । पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम । सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ॥ ( चैतन्य भागवत् अंत्यखंड 4.126 ) अनुवाद : इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा । मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा । नगरों में ग्रामों में रास्ते में । ओडिशा में, बिहार में, उत्तर प्रदेश में कई महीनों तक यह यात्रा चलती रही तो चैतन्य महाप्रभु रास्ते के सभी नगरों में सभी ग्रामों में और यहां तो जंगल में भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन और नृत्य किया है । मुझसे यह हाल मतलब पशु पक्षियों का हुआ वैसा हाल तो हर नगर हर ग्राम में भी लोगों का हो ही रहा था याद रखिए ऐसा वर्णन हे चैतन्य मंगल, चैतन्य भागवत् में । वैसे यह सारे पशु पक्षियों को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रेम का दान किया । ये प्रेम पुरुषोत्तम है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । श्री राम है मर्यादा पुरुषोत्तम । श्री कृष्ण है पूर्ण पुरुषोत्तम । चैतन्य महाप्रभु है प्रेम पुरुषोत्तम या आप लिखना चाहोगे कुछ तो लिख रहे हैं अच्छा है ऐसे समझना राम को, कृष्ण को, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेम पुरुषोत्तम । नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते । कृष्णाय कृष्णचैतन्य - नाम्ने गौरत्विषे नमः ॥ ( श्री गौरांग प्रणाम ) अनुवाद:- हे परम करुणामय व दानी अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं , जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारणकिया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमन करते हैं । यह उनके लीला ही है । कृष्ण प्रेम का दान वितरण करना चैतन्य महाप्रभु की लीला है । पात्रापात्र - विचार नाहि, नाहि स्थानास्थान । येइ याँहा पाय, ताँहा करे प्रेम - दान ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.23 ) अनुवाद:- भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है , इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं । उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी । जहाँ कहीं भी अवसर मिला , पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया । चैतन्य महाप्रभु विचार नहीं करते कि कहां पर में प्रेम का दान मुझे करना है । कहां नहीं करना यह विचार नहीं करते । "सर्वत्र प्रचार होइबे " तो कौन पात्र है अपात्र है इस पर विचार नहीं करते । पशुओं को दे रहे हैं हरि नाम । हरि नाम का दान प्रेम का दान तो नगरों में ग्रामों में भी तो देते ही थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेम का दान इसीलिए प्रसिद्ध है "नमो महावदान्याय" श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु "नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते" कृष्ण प्रेम का दान करने वाले यह दयालु "वदान्य" इस प्रकार उपकार किया है सारे संसार के ऊपर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने तो जंगल में किया प्रेम का दान तो वही नगरों में ग्रामों में हरि नाम का दान करते हुए प्रेम का दान करते हुए और लोगों को पागल करते हुए । लोग पागल हो जाते हरि नाम लेकर यह आप पूरी तरह कृष्ण भावना भावित हो जाते थे । हरि हरि !! प्रेम के पूंजी को प्राप्त करते थे चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य में यह करते-करते जय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मथुरा वृंदावन की ओर प्रस्थान कर रहे हैं तो अब जब उन्होंने मथुरा को देखा है सामने, साष्टांग दंडवत प्रणाम और फिर वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु फिर ; मथुरा धाम की ! मथुरा में प्रवेश किए ही है और सर्वप्रथम श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु यमुना के तट पर विश्राम घाट पहुंचे हैं । जहां श्री कृष्ण उसी मथुरा में कंस का वध करने के उपरांत और कंस के शरीर को मथुरा के रास्ते में और गलियों में घसीट के सभी को दिखाने के उपरांत कृष्ण विश्राम किए विश्राम घाट पर । जहां वराह भगवान भी विश्राम किए थे विश्राम घाट और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी अब इतने लंबे सफर के उपरांत वहां आए हैं वह भी थोड़ा विश्राम किए ही होंगे । वैसे किए तो वहां स्नान विश्राम घाट पर । हरि हरि !! यमुना मैया की ! तो यमुना में स्नान करने वाले ही तो श्यामसुंदर अब गौर सुंदरबन के यहां पहुंचे हैं । बेचारी यमुना भी प्रतीक्षा कर रही थी कब आएंगे श्याम सुंदर तो वे गौर सुंदर के रूप में आए हैं और यमुना में स्नान किए हैं और वहां से स्नान करने के उपरांत श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण जन्म स्थान के लिए प्रस्थान किए हैं और कीर्तन करते हुए मथुरा नगरी के मार्ग पर कीर्तन और नृत्य करते हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भावविभोर होके और बड़े उत्कंठीत होके कृष्ण जन्म स्थान की ओर जा रहे हैं और वहां आते ही उन्होंने केशव देव का दर्शन किया । मथुरा में कृष्ण जन्म स्थान पर केशव देव का दर्शन है । बलदेव, केशव , गोविंद देव, हरी यह प्रसिद्ध विग्रह है वृंदावन के और वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन हुआ । कीर्तन किया उदंड कीर्तन हुआ और अब तक सारे मथुरा वासी दौड़ पड़े हैं । गौर सुंदर का आगमन का पता चला मथुरा वासियों को । कहां गए ? कहां गए ? जन्म स्थान गए । जन्म स्थान में कीर्तन हो रहा है तो सारा भीड़ उमड़ आई हैऔर वहां सभी जन पहुंचे हैं । ठीक है तो और कीर्तन हो रहा है होने दो कीर्तन । हम तो अपने वाणी को यहीं विराम देते हैं और यथासंभव फिर केस आगे बढ़ाते हैं । गौरांग महाप्रभु की वृंदावन भेंट चर्चा या वर्णन । ॥ निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥ ॥ हरे कृष्ण ॥

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