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जप चर्चा हरे कृष्ण दिनांक २४.०३.२१ हरे कृष्ण! आज इस कॉन्फ्रेंस में 747 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। हरि बोल! जगन्नाथ स्वामी की जय! जगन्नाथपुरी धाम की जय! *जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥ हरि! हरि! गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! आज गौर पूर्णिमा तो नहीं है, लेकिन दूर भी नहीं है। हम उस गौर पूर्णिमा के उपलक्ष में गौर कथा कह रहे हैं। मायापुर में प्रकट हुए गौरांग महाप्रभु की जय! गौरांग! गौरांग! गौरांग! नित्यानंद! नित्यानंद! नित्यानंद! महाप्रभु प्रकट हुए और संन्यास लिया।शची माता ने अपनी इच्छा व्यक्त की, 'हे निमाई! तुम जगन्नाथपुरी में रहो।' हरि! हरि! निमाई, श्रीकृष्ण चैतन्य भी बने थे। संन्यास दीक्षा हुई तब संन्यास दीक्षा के उपरांत उनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य हुआ। (आप नोट करो कि उनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य हुआ) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभ ने शची माता के आदेशानुसार जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान किया। जगन्नाथ पुरी धाम की जय! वहां पहुंचकर सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार किया। तत्पश्चात उन्होंने भ्रमण किया चिंतामणि धाम? बताओ, कितने वर्ष भ्रमण किया? महाप्रभु ने 6 वर्ष तक भ्रमण किया, वैसे वे उसमें से कुछ समय जगन्नाथपुरी में रहे। उन्होंने जगन्नाथपुरी को अपना आधार(बेस) बनाया। जैसे श्रीकृष्ण ने द्वारका को आधार(बेस) बनाया था, वे द्वारकाधीश हुए थे। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण कई स्थानों पर गए अथवा लौटे। श्रीकृष्ण लीला में उनका धाम द्वारका धाम ही रहा और श्रीकृष्ण चैतन्य लीला में जगन्नाथपुरी को अपना हेड क्वार्टर अपना धाम बनाया। उन्होंने मध्य लीला के अंतर्गत 6 वर्षों तक भ्रमण किया। चैतन्य महाप्रभु जब संन्यासी बने हैं तो भ्रमण अनिवार्य है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु परिव्राजकाचार्य बने हैं और उन्होंने सर्वत्र प्रचार किया। पृथिवीते आछे यत नगरादि- ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।। (चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१.१६) अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठ भाग पर् जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। उनको यह करना ही था, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को यह कर्तव्य निभाना था। श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥ अर्थ:- अब वे पुनः भगवान्‌ गौरांग के रूप में आए हैं, गौर-वर्ण अवतार श्रीराधाजी के प्रेम व परमआनन्दित भाव से युक्त और पवित्र भगवन्नामों हरे कृष्ण के कीर्तन का विस्तार से चारों ओर प्रसार किया है। (अब उन्होंने हरे कृष्ण महामंत्र का वितरण किया है, उद्धार करने का महान कीर्तन। वे तीनों लोकों का उद्धार करने के लिए पवित्र भगवन्नाम वितरित करते हैं। यही वह रीति है जिससे वे प्रचार करते हैं। ) उन्होंने हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का सर्वत्र प्रचार किया। सर्वत्र मतलब सर्वत्र नहीं है अपितु उन्होंने केवल भारत में ही प्रचार किया। वे रियूनियन तो नहीं गए, ना ही थाईलैंड गए, ना ही इंग्लैंड गए न ही आयरलैंड गए, ना ही हालैण्ड गए थे। हरि! हरि! इस प्रकार कई तरह के लैंड है। वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नहीं गए। उन्होंने भारत में ही यात्रा की अथवा परिभ्रमण किया व हरे कृष्ण महामंत्र की स्थापना अथवा कलियुग के धर्म की स्थापना की। हरि! हरि! यह सभी करते ही हैं और मैंने भी कई बार कहा है। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे अर्थात उन्होंने धर्म की स्थापना का कार्य किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में वापस लौटे। उनके इस प्राकट्य के पीछे एक विशेष अथवा गोपनीय कारण था, उसकी सफलता के लिए वह गोपनीय कारण क्या था, वह भी कल आपको सुनाया था। वैसे कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने ही सुनाया है, हमनें तो पढ़ कर सुनाया थ। कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज की जय! चैतन्य महाप्रभु, जगन्नाथ पुरी धाम में आए हैं। वे अब अपने उद्देश्य को भी सफल करेंगे। जगन्नाथ पुरी धाम गोलोकधाम है। जहां जगन्नाथ निवास करते हैं, जगन्नाथ मंदिर है, यह द्वारका है, यह नीलांचल भी कहलाता है, जगन्नाथपुरी को नीलांचल कहते हैं। नीलांचल मतलब नीला अचल अथवा नीले रंग का अचल, अचल जो चलता नहीं है। पहाड़ नहीं चलते, वहां नीला पहाड़ है, उसे नीलांचल कहते हैं। नीलांचल के पहाड़ के ऊपर जगन्नाथ बलराम सुभद्रा मैया का मंदिर अथवा निवास स्थान है। जगन्नाथ बलराम सुभद्रा मैया की जय! वहां द्वारका है, द्वारका गोलोक में हैं। गोलोक में भी द्वारका है। जगन्नाथपुरी को केवल नीलांचल ही नहीं कहते बल्कि उसे सुंदरांचल भी कहते हैं। अचल अर्थात पर्वत हुआ, वहां एक दूसरा सुंदर पर्वत है जो कि सुंदरांचल कहलाता है। जहां पर जगन्नाथ पुरी का गुंडिचा मंदिर है, गुंडिचा मंदिर एक प्रसिद्ध मंदिर है। जगन्नाथ में दो ही प्रसिद्ध मंदिर हैं- एक जगन्नाथ मंदिर और वहीं जगन्नाथ रथ यात्रा के समय भगवान् जगन्नाथ रथ में आरूढ़ होकर गुंडिचा मंदिर जाते हैं। हरि! हरि! राजा इंद्रद्युम्न भगवान के अनन्य भक्त थे। हरि! हरि! उन्होंने ही जगन्नाथ मंदिर के निर्माण का कार्य किया। उनके प्रयास लगभग राजा भगीरथ के प्रयास जैसे ही रहे। विघ्न आते गए लेकिन उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा करवाई और मंदिर का निर्माण भी करवाया। बहुत समय के उपरांत जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा मैया के विग्रह की स्थापना हुई। जो जगन्नाथ पहले नीलमाधव थे, वे नीलमाधव अंतर्ध्यान हुए राजा इंद्रद्युम्न ने ऐसी व्यवस्था की। भगवान्, राजा इंद्रद्युम्न के सामने दारू ब्रह्म के रूप में प्रकट हुए। (पीने वाली दारू नहीं, महाराष्ट्र में दारू चलती है) उनको दारू ब्रह्म अर्थात लकड़ी के पेड़ के तने जैसा होता है, यह सब बहुत विस्तृत कथा लीला है। इंद्रद्युम्न महाराज ने जगन्नाथ, बलदेव, सुभद्रा मैया की स्थापना की। इस प्रकार भगवान नीलांचल वासी हुए, नीलांचल वासी भगवान् जगन्नाथ। वे नीलांचल वासी वर्ष में 1 सप्ताह के लिए सुंदरांचल वासी बन जाते हैं। भगवान् जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर जाते हैं। राजा इंद्रद्युम्न की पत्नी का नाम गुंडिचा है। रानी के नाम से ही इस मंदिर का नाम गुंडिचा पड़ा। वे दोनों उच्च कोटि के भक्त थे लेकिन गृहस्थ थे। राजा रानी आदर्श भक्त थे। हरि! हरि! इस राजा रानी का नाम जगन्नाथ पुरी के साथ जुड़ा हुआ है और सदैव जुड़ा रहेगा। जगन्नाथ मंदिर की स्थापना के लिए राजा इंद्रद्युम्न निमित्त बने। भगवान ने अपने खुद के मंदिर की स्थापना और विग्रह की स्थापना राजा इंद्रद्युम्न से करवाई। नीलांचल और सुंदरांचल है। नीलांचल द्वारिका है और सुंदरांचल वृंदावन है। बीच में एक नदी भी बहती थी और आज भी बहती है। जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा सम्पन्न होती थी। जगन्नाथ की यात्रा क्यों संपन्न होती है, वह भी एक कारण है। भगवान बीमार हुए व होते हैं तत्पश्चात उनके स्वास्थ्य में सुधार आ जाता है मरीज के स्वास्थ्य में और सुधार लाने के लिए और किसी स्थान पर ले जाते हैं, उनको भ्रमण कराते हैं। यह भी जगन्नाथ का उद्देश्य है। जगन्नाथ, रथ यात्रा में खुद भी जाते हैं, यह रहस्यमयी लीला है। जगन्नाथ रथ यात्रा में क्यों जाते है अथवा उनको रथ यात्रा में कौन ले जाता है। जगन्नाथ रथ में विराजमान हो जाते हैं, केवल जगन्नाथ ही नहीं, जगन्नाथ कृष्ण हैं, रथ में बलराम भी बैठे हैं और सुभद्रा भी है, वे द्वारका से आए हैं। उन्होंने उसी समय ब्रज वासियों को आमंत्रित किया था। द्वारका तो आपके लिए काफी दूर है, मैं सूर्य ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र आ रहा हूं। वृंदावन से ज्यादा दूर नहीं है, आप आ जाओ। मिलन हो जाए, बहुत समय से नहीं मिले। हरि! हरि! लगभग 100 साल बीत रहे हैं। गोपियों, मैं अभी अभी आता हूँ, ऐसा कह कर मैंने वृंदावन को त्यागा था। उस समय मैं बलराम के साथ रथ में विराजमान हुआ था और अक्रूर हम दोनों को मथुरा ले गए। तत्पश्चात हम वहीं रह गए। वहां से लौटना तो चाहिए था। लेकिन लौटे नहीं अपितु और आगे बढ़े और हम लोग दूर द्वारिका चले गए। आप, हमारी हर दिन प्रतीक्षा करते ही रहे। हर प्रातः काल आप मेरी आने की उम्मीद रखे हुए थे लेकिन जब मैं नहीं आया तब आप सोच रहे थे कि मध्यान्ह के समय तो जरूर आऊंगा लेकिन मैं मध्यान्ह के समय भी नहीं आया, तब आप सोच रहे थे कि मेरा सांय काल को तो आना ही होगा। आप ऐसी आशा लेकर बैठे थे लेकिन आप बैठे ही रहे, मैं तो नहीं लौटा। भगवान ने द्वारिका से ऐसे पत्र भेजे थे। हरि! हरि! जिसमें लिखा था 'आ जाओ।' उन्होंने सभी के नाम से व्यक्तिगत पत्र लिखे। संभावना है कि उन्होंने हाथ से लिखे, इसे किसी अन्य सहायक से नहीं लिखवाया। भगवान् ने स्वयं लिखे। राधा रानी के नाम से पत्र था, नंद बाबा यशोदा के नाम से पत्र था, मधुमंगल के नाम से पत्र था, उन्होंने कई सारे पत्र लिखे। सभी बृजवासी कुरुक्षेत्र सूर्य ग्रहण के समय पहुंच गए। यह युद्ध के समय की बात नहीं है अपितु सूर्य ग्रहण के समय की बात है। जब मिलन हुआ और ब्रज वासियों ने देखा कि द्वारका से पधारे हुए द्वारकावासी और उसमें एक रथ पर कृष्ण बलराम और सुभद्रा विराजमान हैं। वैसे ब्रजवासी इस संकल्प के साथ ही आए थे कि अबकी बार इनको वृंदावन ले ही जाएंगे। यही घटना, यही लीला रथ यात्रा के समय संपन्न होती है। जैसा कि आपको सुनाया कि जगन्नाथ मंदिर द्वारका है जो कि नीलांचल है। सुन्दरांचल वृंदावन है। कृष्ण बलराम और सुभद्रा रथ में विराजमान हैं और वहां वृंदावन वासी पहुंच जाते हैं, वे रथ को खींच रहे हैं, वे कृष्ण को वृन्दावन ला रहे हैं। ५०० वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं जगन्नाथ पुरी पहुंचे हैं और जगन्नाथपुरी में उनका निवास चल रहा है। हरि हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु १८ वर्ष जगन्नाथ पुरी में रहे। उन्होंने १८ रथ यात्राएं देखी। उन्होंने रथ यात्रा केवल देखी ही नहीं और ऐसा भी नहीं कि उन्होंने उसे देख कर फ़ोटो ग्राफ खींचे थे, ना ही उन्होंने छत पर खड़े हो कर देखा था, नहीं, वे रथ यात्रा के केन्द्र बिंदु थे। यहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रथ यात्रा में सम्मलित हैं, उनका चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्राकट्य होने का जो गोपनीय कारण था, यहाँ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रथ यात्रा में राधा भाव में राधा बने हैं। राधा तो है ही, अभी अलग से बनने की आवश्यकता नहीं है। श्रीकृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नहे अन्य ( चैतन्य भागवत) अनुवाद:- भगवान् चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं। कृष्ण, राधा को समझने के उद्देश्य से अथवा राधा के भाव व राधा की भक्ति को अथवा राधा के विरह की व्यथा अथवा राधा महाभावा ठकुरानी अर्थात राधा के महाभाव को समझने के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। जगन्नाथपुरी में कई सारे प्रसंग लीलाएं घटनाएं घटेंगी। राधा कृष्ण प्रणय- विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह- भेदं गतौ तौ। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा- भाव- द्युति- सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक १.५) अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा और कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगक्रान्ति के साथ प्रकट हुए हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में रहेंगे, राधा हैं तो फिर कृष्ण भी तो चाहिए और जगन्नाथ स्वामी, पुरषोत्तम कृष्ण हैं। उस समय जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में रहते थे तब दो पुरुषोत्तम एक ही साथ जगन्नाथपुरी में रह रहे थे। एक नित्य लीला पुरुषोत्तम जगन्नाथ स्वामी हैं और दूसरे प्रेम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं। इन दोनों के मध्य में आदान-प्रदान, लेनदेन, मिलन उत्सव संपन्न होते ही रहते थे। श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य। श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु राधा भी हैं , वे कृष्ण भी हैं किंतु जगन्नाथपुरी में जो लीलाएं अब संपन्न होने वाली हैं, उसमें चैतन्य महाप्रभु जो राधा और कृष्ण हैं, उसमें अभी राधा का ही रोल होगा अर्थात राधा का प्राधान्य होगा, कृष्ण रहेंगे लेकिन सक्रिय नहीं रहेंगे। राधा रानी प्रमुख होंगी। जब मध्य लीला हो रही थी और नाम संकीर्तन का प्रचार हो रहा था तब वे कृष्ण थे अथवा कृष्ण रूप में थे। कृष्ण के भाव में उन्होंने धर्मसंस्थापनार्थाय अर्थात धर्म की स्थापना की किंतु अब जब वे जगन्नाथपुरी आए हैं तब उनका जो निजी उद्देश्य है अर्थात जिस विशेष उद्देश्य के साथ प्रकट हुए हैं, वे उसको सफल करेंगे। जगन्नाथपुरी में राधा भाव में अधिकतर लीलाएं संपन्न होने वाली हैं। उन लीलाओं में भी रथ यात्रा का जो समय है, वह एक विशेष समय अथवा विशेष उत्सव रथयात्रा महोत्सव है। जगन्नाथ श्रीकृष्ण रथ पर विराजमान हैं। रथ के समक्ष श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं किंतु वे राधा रानी ही हैं। महाप्रभु राधा के भाव में वहां उपस्थित हैं। हरि! हरि! अब रथ यात्रा प्रारंभ होने वाली है, कीर्तन तो होता ही है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन कर रहे हैं, नृत्य कर रहे हैं। वहां पर विशेष कीर्तन का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। कितनी ही कीर्तन मंडलियां हैं जिसकी व्यवस्था चैतन्य महाप्रभु स्वयं करते थे। वे सात अलग-अलग मंडल बनाते और उसका नेतृत्व स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कर रहे हैं। महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥ अनुवाद:- श्रीभगवान्‌ के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। रथ यात्रा में जगन्नाथ का पूरा ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है। राधा रानी श्रीकृष्ण का ध्यान आकृष्ट कर रही हैं। चैतन्य महाप्रभु जो जगन्नाथ की आंखों के समक्ष प्रत्यक्ष सामने ही है, चैतन्य महाप्रभु जहां भी जाते, जगन्नाथ वहां भी पहुंच जाते। स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे। जैसे हम प्रार्थना करते हैं जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी, हमारे दृष्टि पथ पर आप आ जाइए अर्थात हम जहां जहां देखें या जाएं, आप भी... जैसे यतो यतो यामि ततो नृसिंहः। नरसिंह भगवान के संबंध में प्रार्थना है यतो यतो यामि। यामि अर्थात मैं जाता हूं। याति मतलब वह जाता है, यहां अहम यामि।यामि संस्कृत का एक क्रियापद है। यतो यतो यामि, यह भी समझना चाहिए। यामि मतलब जाता हूं। यत:अहम यामि अर्थात जहां जहां मैं जाता हूँ ततो ततो। जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी हैं। यहां चैतन्य महाप्रभु जहां जहां जाते हैं, वहां वहां जगन्नाथ स्वामी की दृष्टि भी जाती है। (यहां वैसे उल्टा हो रहा है।) इस प्रकार यदि चैतन्य महाप्रभु दायीं ओर जाते तब जगन्नाथ स्वामी भी दायीं ओर देखते और यदि चैतन्य महाप्रभु बांयी ओर जाते तो जगन्नाथ स्वामी की दृष्टि वहां जाती, वे तिरछी नजर से देखते हैं। चैतन्य महाप्रभु के स्वरूप में जो राधा रानी हैं, वह एक बार सोचती हैं कि हम कुरुक्षेत्र में पहुंचे है और कुरुक्षेत्र में कृष्ण से मिल रहे हैं। राधा रानी सोचती है कि हम बहुत समय के उपरांत मिल रहे हैं, क्या मेरे प्राणनाथ का प्रेम, कृष्ण का प्रेम जैसे पहले हुआ करता था, क्या अब भी वैसा है, चलो देखती हूं। ऐसा सोच कर चैतन्य महाप्रभु एक समय रथ के पीछे चले गए। राधा रानी ने सोचा था कि जब मैं पीछे जाऊंगी, जगन्नाथ कृष्ण मुझे देख नहीं पाएंगे तब परीक्षा होगी कि इनका 100 वर्षों के उपरांत मुझ से सचमुच में पहले जैसा प्रेम है या नहीं, यदि वे रुक जाएंगे, खोजेगें, मेरी पूछताछ करेंगे कि कहां है राधा रानी, कहां है, राधे! राधे !कहां हो? जब मैं दिखूंगी नहीं, वे सम्भ्रमित होंगे, लेकिन यदि पहले जैसा प्रेम नहीं है तो आगे बढ़ेंगे, परवाह नहीं करेंगे और रथ आगे दौड़ेगा। मैं हूँ या नहीं हूं, दिखती हूं या नहीं दिखती हूं, कोई चिंता हैं या नहीं, देखती हूँ। ऐसा सोच कर चैतन्य महाप्रभु रथ के पीछे गए। जगन्नाथ स्वामी ने सफलतापूर्वक परीक्षा पास की। जब चैतन्य महाप्रभु अर्थात राधा रानी ही जब रथ के पीछे जाती है और वह जगन्नाथ जी को दिख नहीं रही है तब जगन्नाथ रथ को रोक लेते हैं। रथ का चलना या रुकना यह जगन्नाथ की मर्जी पर है। यह खींचने वाले की मर्जी पर नहीं होता है अथवा खींचने वाले की शक्ति पर निर्भर नहीं होता है। यह लीला भी रथ यात्रा के समय प्रदर्शित हुई है। जब राधा रानी नहीं दिख रही थी तब, जगन्नाथ स्वामी ने रथ को रोक लिया। रथ को खींचने का बहुत प्रयास हो रहा है। खींचो! खींचो! रथ को खींचो। हरिबोल! रथ को खींचो लेकिन कोई खींच नहीं पा रहा था। जगन्नाथ राधा रानी के बिना आगे बढ़ना नहीं चाह रहे थे। राधारानी जगन्नाथ से प्रसन्न हैं। इसलिए पुनः जब चैतन्य महाप्रभु आगे आते हैं और जैसे ही जगन्नाथ राधारानी को देखते हैं, जगन्नाथ प्रसन्न और प्रुफल्लित हो जाते हैं। इसके साथ ही रथ आगे दौड़ने लगता है,जगन्नाथ स्वामी आगे बढ़ना चाहते हैं। हरि! हरि! उसी रथ यात्रा के दरमियान जब जगन्नाथ के रथ को रोका जाता है अर्थात भगवान् के भोग का समय होता है। जब भोग लग रहा है तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन और नृत्य करते हुए थक जाते हैं अथवा, वह थकने की लीला है, कि मैं थका हूँ। तब वल्लभ लीला नाम के उद्यान में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पहुंच कर और वहां लेट जाते हैं। उसी समय सार्वभौम भट्टाचार्य आदि राजा प्रताप रुद्र को भेजते हैं कि जाओ, जाओ इसी समय जाओ और जाकर चैतन्य महाप्रभु के चरणों की सेवा करो। राजा वैष्णव वेश- भूषा पहन कर जाते हैं । उनको यह बताया जाता है कि जब आप चरणों की सेवा करोगे, उस समय आप गोपीगीत गाना। श्रीमद्भागवतम के दसवें स्कंध में वर्णित रासक्रीड़ा के 5 अध्यायों में से एक अध्याय गोपी गीत है जो गोपियों और राधा रानी ने मिलकर गाया है। राजा प्रताप रूद्र उस गोपी गीत को गाने लगे गोप्य ऊचुः । जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः     श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि । दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-     स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥ शरदुदाशये साधुजातस-     त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा । सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका     वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥ विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-     द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् । वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया-     दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥ न खलु गोपिकानन्दनो भवा-     नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् । विखनसार्थितो विश्वगुप्तये     सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥ विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते     चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् । करसरोरुहं कान्त कामदं     शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥ व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां     निजजनस्मयध्वंसनस्मित । भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो     जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥ प्रणतदेहिनां पापकर्शनं     तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् । फणिफणार्पितं ते पदांबुजं     कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥ मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया     बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण । विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-     रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥ तव कथामृतं तप्तजीवनं     कविभिरीडितं कल्मषापहम् । श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥ प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं     विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् । रहसि संविदो या हृदिस्पृशः     कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥ चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्     नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् । शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः     कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥ दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-     र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् । घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-     र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥ प्रणतकामदं पद्मजार्चितं     धरणिमण्डनं ध्येयमापदि । चरणपङ्कजं शंतमं च ते     रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥ सुरतवर्धनं शोकनाशनं     स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् । इतररागविस्मारणं नृणां     वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥ अटति यद्भवानह्नि काननं     त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् । कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते     जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ १५॥ पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-     नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः । गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः     कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६॥ रहसि संविदं हृच्छयोदयं     प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् । बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते     मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥ व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते     वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् । त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां     स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥ यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष     भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु । तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्     कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥ राजा प्रताप रुद्र ने यह गोपी गीत सुनाया। यह सब इसलिए सुनाया जा रहा था कि चैतन्य महाप्रभु जो रथ यात्रा के समय राधा भाव में थे अथवा उनके अंदर जो राधा भाव उमड़ आया था और वे राधा ही बने थे, इस गोपी गीत के श्रवण अथवा स्मरण व चिंतन से उनके इस भाव की पुष्टि होगी और वैसा ही हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनसे बड़े ही प्रसन्न थे जो उनकी मसाज कर रहे हैं अथवा गोपी गीत गा रहे थे। उनको पता भी नहीं था क्योंकि चैतन्य महाप्रभु आंखें बंद करके लेटे हुए थे, इतने में कोई आया और उनकी मसाज करते हुए गोपी गीत गाने लगा। वैसे यह गोपियों ने ही गीत गाया था लेकिन जब राजा प्रताप रुद्र ने यह गाया कि भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः वह जन भूरिदा अर्थात कृपालु अथवा बड़े दाता अथवा भूरिदा, भूरिदा है जो गृणन्ति अर्थात गाते हैं। तव कथामृतं तप्तजीवनं आप की कथा के अमृत का गान करने वाले और आपकी कथा के अमृत के गान का दान करने वाले जन भूरिदा होते हैं, यह बात गोपियों ने गाई थी, वही बात अब राजा प्रताप रूद्र गा कर सुना रहे थे। चैतन्य महाप्रभु ने जैसे ही यह वचन सुना तब चैतन्य महाप्रभु कहने लगे भूरिदा! भूरिदा! हे भद्र हे दयालु, भूरिदा तो तुम ही हो। तुम ही बड़े दाता हो, दानी हो, जो मुझे यह गीत सुना रहे हो, यह गोपी गीत सुनाने वाले भूरिदा। यह गीत सुना कर तुमने मुझे बहुत बड़ा दान दिया है और तुम्हारा मुझ पर बहुत बड़ा उपकार हुआ है। मैं कृतज्ञ हूं। तुमनें जो मुझ पर उपकार किया है, बदले में मुझे भी कुछ देना होगा, कुछ चुकाना होगा। ऐसे कहते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो कुछ समय से लेटे हुए थे और उनका मसाज भी चल रहा था, व गोपी गीत भी सुन रहे थे तब वे धीरे-धीरे उठने लगे और उठते हुए उन्होंने कहा- 'मेरे पास तो देने के लिए कुछ नहीं है, मैं तो सन्यासी हूँ, मैं तो भिक्षुक हूं, मैं तो स्वयं ही भिक्षा मांगता हूं भिक्षा से ही मेरा निर्वाह होता है, मेरे पास क्या है, मैं क्या दे सकता हूं, मैंने एक निष्किंचन हूं, मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है । यदि तुम्हें कोई एतराज नहीं है तो मेरे आलिंगन को स्वीकार करो। ऐसा कहते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने राजा प्रताप रुद्र को गाढ़ा आलिंगन दिया और अपने बाहुपाश में बांध लिया। हरि! हरि! इससे भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के राधा भाव स्पष्ट अथवा प्रकट होता है। चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पीछे जो गोपनीय कारण रहा, उसकी सफलता जगन्नाथपुरी में विशेषतया जगन्नाथ रथ यात्रा के समय हो रही थी। हरि! हरि! जगन्नाथ पुरी धाम की जय! जगन्नाथ रथ महोत्सव की जय! जगन्नाथ स्वामी की जय! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! श्रील प्रभुपाद की जय! निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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