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*जप चर्चा*
*आमरेंद्र प्रभु द्वारा*
*दिनांक 07 मई 2022*
हरे कृष्ण!!!
मैं यह बहुत सुंदर अवसर देने के लिए कृतज्ञता भाव से झुककर दंडवत देता हूं। सर्वप्रथम परम आराध्य हमारे प्राण प्रिय श्री लोकनाथ महाराज के चरण कमलों में नतमस्तक होकर मैं सिर झुका कर दंडवत देता हूं।
केवल महाराज जी का दर्शन मात्र करने से केवल दिन ही नहीं, वर्ष ही नहीं अपितु जीवन ही पवित्र हो जाता है। चित्त सभी कल्मषों से मुक्त होकर उल्लासित होने लगता है। जिन्होंने प्रभुपाद की इतनी सेवा की, इतने उच्च कोटि के महापुरुष और प्रभुपाद जी के कृपा पात्र, केवल उनके दर्शन मात्र करने से हमारा जीवन सफल हो गया, हम सब कृतार्थ हो गए। पद्ममाली प्रभु का मैं विशेष आभार प्रकट करता हूं कि उन्होंने मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति को योग्य समझकर सभी एकत्र वैष्णव वैष्णवी वृंद के संग में मानो मुझे फैंक कर यह अवसर दिया कि मैं आप सभी एकत्रित भक्तों को कुछ दो-तीन वाक्य कहकर प्रसन्न करके आप सब के आशीर्वाद से कुछ पोषित हो पाऊं। पद्ममाली प्रभु पुनः आपको दंडवत देता हूं। सभी, जो आज एकत्रित वैष्णव वैष्णवी वृंद हैं, एकत्रित वरिष्ठ वैष्णवी वृंद है, जिन्होंने भजन किया है व कर रहे हैं और गुरु महाराज के सानिध्य में नाम जप कर रहे हैं, आप सब की जय हो। आप सब के चरणों में मेरा बारंबार दण्डवत प्रणाम। मेरी कोई योग्यता नहीं है, केवल आप सब के दर्शन करने मात्र से मैं पवित्र हो रहा हूं।
कितनी दृढ़ता, आर्त भाव व एकाग्रता से आप सब प्रातः काल में नाम जप कर रहे हैं। ब्रह्मा जी की सृष्टि में विरला ही किसी को मानव शरीर प्राप्त होता है और उसमें पूर्ण रूप से कृष्ण भावना भावित होकर प्रफुल्लित चेतना व विकसित भाव से प्रभु के चरणों में समर्पित होना और गुरु महाराज के सानिध्य में बैठकर प्रातः काल में नाम जप करना, यह तो दुर्लभ बात है और मुझे केवल आशीर्वाद से रक्षित करने के लिए इतनी संख्या में भक्त आज आए हैं। आप सब प्रार्थना कीजिए मुझेआदेश मिला है कि मैं नाम के विषय में, हरि नाम के विषय में कुछ बोल कर अपनी जिव्हा को पवित्र करूं। आप सब मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि सही समय पर, सही शब्दों के प्रयोग से सही भाव से, हरि नाम की स्तुति हो सके, हमारे अंतःकरण का शुद्धिकरण हो। गुरु महाराज की प्रसन्नता और उनके मुखारविंद पर एकमात्र मुस्कान एकमात्र उद्देश्य रखकर मैं आज के सत्र को प्रारंभ करता हूं।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
मेरे परम आराध्य गुरुवर, श्रील गुरु महाराज एक बार कथा में कह रहे थे कि व्यक्ति को कथा में वह बोलना चाहिए जो साक्षात्कार बात हो, जो अनुभवी बात हो। नाम के विषय में मुझे कुछ अनुभव नहीं है तो मैं अब क्या बोलूं? पर श्रील गुरु महाराज का मुझे एक और आदेश था कि श्रील प्रभुपाद की वाणी को ही केंद्र बनाए और जो प्रभुपाद ने सिखाया है, उसी बात को पुनः बारंबार, कथा के माध्यम से पहुंचाए। आज हम क्या करेंगे श्रील प्रभुपाद के तात्पर्यों को उन्हीं के ग्रंथों से अर्थात श्रील प्रभुपाद ने हरि नाम के विषय में जो कहा है, हम आज उन बातों को हम सुनेंगे परंतु आज एक विशेष शीर्षक रहेगा कि हरि नाम जपने से कैसे अंत: करण का शुद्धिकरण होता है। हरि नाम जपने से कैसे अनर्थ व अपराध उन्मूलित होते हैं, हरि नाम जपने से कैसे चेतो दर्पण मार्जनम होता है। अलग-अलग प्रमाण शास्त्रों से निकाल व निचोड़ अथवा सार को प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा। चलिए! देखते हैं कि श्रील प्रभुपाद ने अपने शास्त्रों में कहां कहां, किन-किन बातों का उल्लेख किया है। सर्वप्रथम मैं अपेक्षा करता हूं कि आप सब देख पा रहे हैं। सर्वप्रथम हमारा प्रमाण श्रीमद्भागवत के नौवें स्कंध के पांचवें अध्याय में से सोलहवां श्लोक रहेगा। यह ही प्रसिद्ध श्लोक है।
यह दुर्वासा मुनि द्वारा उद्धृत श्लोक है।
*यन्नामश्रुतिमात्रे पुमान् भवति निर्मल: । तसय न्यास: किं वा दासानामस्थिष्यते ।।*
(श्रीमद्भागवतम ९.५.१६)
अर्थ:-
यहोवा के सेवकों के लिए क्या असंभव है? उनके पवित्र नाम के श्रवण से ही व्यक्ति शुद्ध हो जाता है।
दुर्वासा मुनि और अम्बरीश महाराज के प्रसिद्ध उपाख्यान या चरित्र से यह बहुत विख्यात श्लोक है। जिसमें दुर्वासा मुनि, प्रभु से अपनी आत्मरक्षा की याचना करते हैं और उस संदर्भ में कहते हैं- हे प्रभु!
यन्नामश्रुतिमात्रे अर्थात
आपके नाम के श्रवण मात्र से पुमान् भवति निर्मल: अर्थात व्यक्ति निर्मल हो जाता है। कौन कह रहा है दुर्वासा मुनि स्वयं कह रहे हैं।
*तसय न्यास: किं वा दासानामस्थिष्यते।*
आपके चरण के प्रति आसक्त भक्ति भाव से आसक्त जो भक्त हैं, दासानामस्थिष्यते अर्थात जो दास समूह है। ऐसा कौन सा अवशेष, ऐसी कौन सी अपूर्ण इच्छा की पूर्ति नहीं होती, ऐसा भक्त के लिए क्या अवशेष बचता है। केवल आपके नाम श्रवण मात्र से चित्त इतना निर्मल हो चुका है। श्रील प्रभुपाद जी कहते थे जस्ट चैंट एंड हियर कई बार भक्त पूछते हैं कि नाम जपते समय क्या सोचना है, क्या चिंतन करना है, क्या पढ़ना है, क्या लिखना है, कैसे बैठना है? श्रील प्रभुपाद जी ने बहुत सरल किया, मुख से नाम का उच्चारण और कर्ण इंद्रियों से श्रवण। बस और कुछ नहीं करना। प्रभुपाद का एक और नियम है सिट प्रॉपर्ली अर्थात ठीक से बैठना, नाम जपना और श्रवण मात्र करना। कई बार मुझ जैसे मूर्ख को लगता है कि यह तो बहुत सरल है। इससे बढ़कर भी कुछ होगा पर नहीं, यहां देखिए यही शास्त्र का निचोड़ है। यह सार है कि नाम श्रवण मात्र करने से व्यक्ति निर्मल हो जाता है। श्रील जीव गोस्वामी षड् संदर्भ में इस बात को कहते हैं केवलम नाम ना श्रवण अपेक्षा... केवल नाम के समय अपेक्षा। यही कर्तव्य है।
*प्रथमं नम्नःश्रवणं अंतःकरण शुद्ध अर्थ अपक्ष शुद्ध कंठ करने रूप श्रवणा तद उभय योग्यता भवती*
नाम श्रवण करने से अंत: करण शुद्ध होता है। तद उभय योग्यता भवती, फिर लीला श्रवण की योग्यता बढ़ती है।
यहां देखिए, प्रभुपाद जी अर्थ लिखते हैं- केवल नाम जप और श्रवण।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
एकाग्र भाव से नाम जपना और श्रवण करना, इससे व्यक्ति निर्मल होता है, यह संस्कृत की वाणी है।
देखिए यन्नामश्रुतिमात्रे केवल श्रवण मात्र करने से पुमान् भवति निर्मल: अर्थात भक्त निर्मल हो जाता है। यह श्रीमद्भागवतं का प्रमाण है। चलिए, एक और प्रमाण देख लेते हैं। यह भागवतम के 6वें स्कन्ध, 16 अध्याय का 39वां श्लोक है। मैं हर प्रमाण के क्रमांक को बोल नहीं पाऊंगा, समय की पाबंदी है। जैसा कि स्क्रीन में प्रदर्शित हो रहा है आप सब से अनुरोध है, यदि इच्छा रखें तो आप इन क्रमांकों को अपनी नोटबुक में लिख सकते हैं। ताकि आगे जाकर यह हमारी आस्था और हमारी श्रद्धा के पुष्टिकरण में सहयोगी हो।
श्रील प्रभुपादजी,भागवत के छठवें स्कंध के 16 अध्याय के तात्पर्य में नाम के विषय में बहुत सुंदर बात लिखते हैं.- प्रभुपाद जी लिखते हैं - ऐसा भी जीव जिसके चित्त में कई सारे भौतिक इच्छाएं, अपेक्षाएं, अभिलाषाएं भरी हुई हैं, वह भी भगवान का भजन कर सकता है। प्रभुपाद जी लिखते हैं यदि वह तीव्रता, दृढ़ता से नाम जप करता है, तो ऐसा व्यक्ति भी गोलोकधाम की ओर प्रस्थान हो सकता है। आगे प्रभुपाद जी कहते हैं- यह सत्य है, यह तथ्य है, यह तत्व है। यदि कोई कृष्ण भावना भावित हो और इस पथ में अग्रसर होने की चेष्टा करें परन्तु चित्त में कई सारे भौतिक कल्मष, कई सारी अभिलाषाएं, कई सारी इच्छाएं, वांच्छाये नाना प्रचुर मात्रा में भरी है। इससे हमें हतोत्साहित, निरोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। प्रभुपाद जी कहते हैं, केवल दृढ़ता से नाम जपने मात्र से जगत फीका लगने लगता है और प्रभु के चरण बहुत मधुर लगने लगते हैं। वैसे तो है ही, लेकिन अब साक्षात्कार होने लगता है। प्रभुपाद जी कहते हैं कि नाम जपने मात्र से व्यक्ति प्रभु की ओर आकृष्ट होता है, जगत से विरक्त होने लगता है।
एक और प्रमाण देखते हैं। यह गीता के 16वें अध्याय का सातवां श्लोक है। प्रभुपाद जी तात्पर्य में बहुत सुंदर बात लिखते हैं, यहां से पढ़ लीजिए। प्रभुपाद जी लिखते हैं जो आसुरी प्रवृत्ति के लोग होते हैं, वे पवित्रता का पालन नहीं करते हैं। जो आसुरी राक्षसी प्रवृत्ति के जो जीव हैं जिनका अंतःकरण दूषित है, वह बाहरी दृष्टिकोण से हो या अंदरूनी दृष्टिकोण से हो वे पवित्रता का पालन नहीं करते। प्रभुपाद जी फिर हमें उपदेश दे रहे हैं कि भक्तों के लिए बाहरी दृष्टिकोण से पवित्रता रखना अनिवार्य है। इसके लिए स्नान, दंत मंजन इत्यादि जो कर्तव्य है, उनका पालन होना चाहिए। इनको करने से देह शुद्ध होती है परंतु चित् की पवित्रता का यदि दृष्टिकोण दिया जाए, तो हमेशा महामन्त्र को याद रखना चाहिए और जप करना चाहिए।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
प्रभुपाद जी कहते हैं, बाहरी दृष्टिकोण से शुद्धिकरण या पवित्रता का पालन है, उसको तो करना ही है। उससे हम मनुष्य बनते हैं परंतु यदि अंदरूनी पवित्रता का दृष्टिकोण दिया जाए, हमें निरंतर सतत, सर्वदा, नित्यदा यह अलग अलग श्लोक शास्त्रों में पाए जाते हैं। हमें प्रभु के नामों का उच्चारण करना है, चाहे जैसी भी प्रवृत्ति क्यों ना हो।
अन्य शास्त्रों में भी पाया जाता है।
*ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः॥*
(हरिभक्तिविलस ३।३७, गरुड़ पुराण)
अर्थ
चाहे (स्नानादिक से) पवित्र हो अथवा (किसी अशुचि पदार्थ के स्पर्श से) अपवित्र हो, (सोती, जागती, उठती, बैठती, चलती) किसी भी दशा में हो, जो भी कमल नयनी (विष्णु, राम, कृष्ण) भगवान का स्मरण मात्र से वह (उस समय) बाह्म (शरीर) और अभ्यन्तर (मन) से पवित्र होता है |
कई बार जब हम आचमन करते हैं, तो यह आचमनीय मंत्र हो जाता है, भूत शुद्धि मंत्र। इसका अर्थ यह है कि हम मंत्र बोलने से शुद्ध नहीं होंगे। इसका सार यह है कि कोई भी व्यक्ति, कहीं भी हो किसी भी स्तर से हो, किसी भी धरा में हो, किसी भी परिस्थिति में हो वह नाम जपने से और प्रभु का स्मरण करने से अवश्य शुद्ध होता है। यह गीता का 16 अध्याय जोकि बहुत महत्वपूर्ण अध्याय है। उसके एक श्लोक के तात्पर्य में प्रभुपाद जी बताते हैं।
श्रीमद्भागवत के नौवें स्कंध, दसवें अध्याय के 51 श्लोक क्रमांक के तात्पर्य में प्रभुपाद जी बहुत सुंदर बात कहते हैं। उसी बात को बारंबार ताल ठोक कर बताते हैं।
यहां प्रभुपाद जी कहते हैं कलियुग दोषों का महासागर है लेकिन इसमें एक बहुत विशेष गुण है। केवल हरे कृष्ण महामंत्र के रटन पटन, उच्चारण मात्र से हम सभी कल्मषों, सभी अनर्थों, सभी अपराधों से अर्थात जो भी अंदर दुष्ट प्रवृत्ति है, इससे हम मुक्त होंगे और अवश्य गोलोक धाम की ओर यात्रा करेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। प्रभुपाद जी आगे बताते हैं कि अगर कोई इस नाम जप और नाम संकीर्तन के आंदोलन में यदि कोई सम्मिलित हो जाए, सदस्य बन जाए तब वह कलियुग के सभी अनर्थों से मुक्त हो सकता है और सतयुग प्रवृत्ति में जैसे भक्त थे, उसी प्रकार व्यक्ति स्थित हो सकता है। प्रभुपाद जी आगे कहते हैं किसी भी व्यक्ति अर्थात हमारा भूत, वर्तमान, भविष्य कैसा भी, क्यों न हो, हम किसी भी स्थान पर क्यों न हो, चाहे किसी भी समय पर हो, कोई भी कुल, जाति, राष्ट्र इत्यादि हो, इसका कोई भेदभाव नहीं है। कोई भी व्यक्ति कहीं भी है बस केवल जिव्हा होनी चाहिए, एक भाव होना चाहिए, इच्छा होनी चाहिए, बस।
*वक्तुम समर्थोपी न शक्ति कसीद अहो जनानं व्यवसाभिमुख्यं जीवे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंदा दामोदर माधवेती*
श्रीपाद बिल्व मंगल ठाकुर गोविंद दामोदर माधवेति स्त्रोत में कहते हैं- वक्तुम समर्थोपी न शक्ति कश्चित। हे जीव, तुम्हारे जीवन पर धिक्कार है। प्रभु ने इतनी कृपा करके मानव शरीर प्रदान किया, मुख् पर एक जिव्हा भी फिट कर दी जिससे केवल ओष्ट स्पंदन मात्रेण अर्थात जिव्हा और होंठ के कीर्तन मात्र से संसार का चुंगल, प्रपंच नष्ट हो सकता है। फिर भी जीव इतनी उत्सकुता से नरक की ओर अग्रसर होता है कि नाम जपने की कोई उत्सकुता नहीं होती। नाम जपने के लिए कोई प्रवृत्ति नहीं होती। चर्चा करने के लिए बहुत ज़्यादा उत्कंठा होती है।
*आश्चर्य एतद धि मनुस्य लोके सुधाम परित्यज्य विस्म पिबंति नामनि नारायण गोकर्णि त्यक्तवन्या वाचः कुहकः पठानं*
हमारे कुल शेखर जी भी मुकुंद माला स्तोत्र में यही कहते हैं- अरे आश्चर्य है। पशु यदि अमृत को छोड़कर गंदे नाले से पानी पिए तो जान सकते हैं लेकिन हम मनुष्य होकर भी वही कर रहे हैं अमृतधारा, यमुना धारा प्रभु के गुण लीला की यमुना बह रही है, उसको छोड़ कर गंदे नाले के कूड़े कचरे भरे हुए इस जगत की वार्ता में हम पड़े हैं। वे इसे आश्चर्य एतद धी ही कहते हैं। मुझे इतना आश्चर्य लग नहीं रहा क्योंकि मैं उस प्रवृत्ति में हूँ। हम जब किसी समस्या में होते हैं तो हमें लगता नहीं है कि वह कोई समस्या है। जब कोई समस्या से बाहर हटता है तो देखता है कि दूसरा व्यक्ति समस्या में फंसा है। कुल शेखर जी कहते हैं कि यह आश्चर्य है।
सुधाम परित्यज्य विषम पिबन्ति।
अन्य वार्ता करने के लिए इतनी उत्सुकता और प्रभु के सरल नाम उच्चारण में मन नहीं लगता।
प्रभुपाद जी तीन बातें कह रहे हैं- निरंतर नाम, वैष्णव सदाचार का पालन और असत आचरण व पाप प्रवृत्ति से दूरी बनाए रखना। फिर मन में संशय होता है, अगर पाप ना छूटे तो ... प्रभुपाद जी आगे कहते हैं ।आचार्य हैं ना! सब जानते हैं। प्रभुपाद जी कहते है कि अगर पाप ना छूटे, पाप- प्रवृत्ति उन्मूलित नहीं हो रही। हमारी प्रवृत्ति इतनी गहरी हो चुकी है अब, हम ऐसा कट्टर जीवन जी रहे हैं, उस पाप से हम दूर नहीं हो पा रहे हैं। प्रभुपाद जी कहते हैं कि कोई बात नहीं। नाम भाव बना कर प्रभु से आर्त भाव से पुकार पुकार कर भीख मांग मांग कर रक्षा की याचना करते करते नाम रटो। अवश्य सब पापों से मुक्त हो जाएंगे।
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा, डरो मत । प्रभु कहते हैं- मा शुचः लेकिन हम चिंता करते हैं कि होगा या नहीं होगा परंतु नाम रटने मात्र से हो जाएगा। हमारे महाराज जी एक उदाहरण देते हैं। यह गाँव की बात है, बिहार की बात है। एक व्यक्ति को चक्कर आ जाता है, वैद्यराज के पास चला जाता है। वैद्यराज कहता है कि बस, तुम नींबू पानी पी लो, सब ठीक हो जाएगा। व्यक्ति कहता है- अरे! मैं सब कुछ छोड़ कर तुम्हारे पास आया हूं, केवल नींबू पानी पीने से हो जाएगा? एक-दो शॉर्ट लगाओ अर्थात एक- दो इंजेक्शन लगाओ। तब लगे कि हम मरीज हैं और आप डॉक्टर हैं। केवल नींबू पानी पी लेने से.. यह तो केवल छल हो रहा है महाराज जी कहते हैं- ऐसी प्रवृत्ति है। नींबू पानी से बात बनेगी पर श्रद्धा नहीं है।
केवल नाम रटने मात्र से भवसागर पार हो जाता है पर इच्छा है जब तक एक दो यज्ञ ना हो जाए, थोड़े धुएं ना निकले, थोड़ा हम हवन इत्यादि ना करें तब तक बात बनेगी नहीं। केवल नींबू पानी रूपी नाम जपने से थोड़ी भवसागर पार होगा, माया देवी को मूर्ख समझ के रखा है। महाराज जी कहते हैं कि अगर हम सरल तरीके से पहुंच जाएंगे, तो वह मूर्ख ही होगा जो घूम फिर कर चले। प्रभुपाद जी नाम रटने मात्र से क्या होगा, उसके इतने प्रमाण दे रहे हैं। ठीक है, पाप नहीं छूट रहा, कोई बात नहीं। नाम रटते रहो, सब पाप उन्मूलित होगा। प्रभु गीता में कह रहे हैं-' मा शुचः 'अर्थात तुम चिंता मत करो। तुम तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह करो और पापों से मुक्ति मुझ पर छोड़ दो। प्रभुपाद जी कहते हैं यह करने से जीवन सफल होगा।
अब चैतन्यचरितामृत की ओर चलते हैं। चैतन्यचरितामृत के अन्त्य लीला के 20वें अध्याय का 11 श्लोक क्रमांक- श्रीमन महाप्रभु की वाणी-
*नाम-संकीर्तन हैते सर्वनार्थ-नाश सर्व-सुबोधय, कृष्ण-प्रेमेरा उल्लासा।।*
अनुवाद:-
"केवल भगवान कृष्ण के पवित्र नाम का जप करने से, सभी अवांछित आदतों से मुक्त किया जा सकता है। यह सभी अच्छे भाग्य को जगाने और कृष्ण के लिए प्रेम की लहरों के प्रवाह की शुरुआत करने का साधन हैं।
महाप्रभु कहते हैं कि केवल नाम रटने से, केवल नाम के संपूर्ण कीर्तन मात्र करने से तीन बातें सिद्ध है- सर्व अनर्थ नाश- जो भी अनर्थ है, चाहे वह स्थूल है या सूक्ष्म है, जो भी हो, सर्व अनर्थ नाश। महाप्रभु की वाणी है। हर शब्द महाप्रभु के मुख से उद्धृत है।
नाम संकीर्तन होते सर्व अनर्थ नाश- भूत, वर्तमान, भविष्य, स्थूल हो या सूक्ष्म हो, जो भी अनर्थ हो, हमारे प्रति हो या दूसरों के प्रति हो, सामाजिक जीवन में हो, पारिवारिक जीवन में हो, आर्थ व्यवहार करते समय व्यवसाय में हो, हमारे अध्ययन में हो, जहां भी हो, कई बार संशोधन रिसर्च करते समय अनर्थ हो जाते हैं। पशुओं के ऊपर टेस्टिंग होता है तो महाप्रभु कहते हैं सर्व अनर्थ नाश- जो भी अनर्थ हुए हैं, नाम उच्चारण मात्र से नष्ट हो जाते हैं। यह पहली बात हुई।
दूसरी बात सर्व-सुबोधय अर्थात पूर्ण रूप से भक्ति विकसित हो जाएगी, प्रफुल्लित हो जाएगी और कृष्ण प्रेम के तरंग से व्यक्ति स्पर्शित होगा, आप्लावित होगा, निमज्जित होगा। कृष्ण प्रेम में डूबने लगेगा।
वामन देव ने तीन कदम लिए। बलि महाराज को क्या मिला, मुक्ति मिली। महाप्रभु ने एक श्लोक में 3 कदम ले लिए। कहते हैं कि नाम मात्र से तीन कदम। अनर्थ नष्ट हो जाते हैं, भाग्य खुलने लगता है, चित् विकसित होने लगता है और कृष्ण प्रेम की तरंग से आप्लावित हो जाता है।
इस सन्दर्भ की पुष्टिकरण करने के लिए महाप्रभु कहते हैं-
*चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥*
अर्थ:_श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
यह श्लोक वैसे तो बहुत प्रसिद्ध है। हर गौड़ीय वैष्णव से अपेक्षित बात है कि वह प्रातः काल में इसको रटें और इसका उच्चारण करें। पर संदर्भ ऐसा है पिछले श्लोक और इस श्लोक का।
महाप्रभु चेतो दर्पणं मार्जनं इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं। चित रूपी दर्शन में प्रभु का दर्शन नहीं हो पा रहा है क्योंकि यह दर्पण, यह आइना जो है, अब प्रदूषित है। नाम रुपी सोप अर्थात साबुन लेकर धोने मात्र से , यह दर्पण स्वच्छ हो जाता है। आत्मसाक्षात्कार और परमात्मा साक्षात्कार दोनों एक कदम से संभव है।
चलिए, अब पुनः भगवत गीता की ओर चलते हैं। भगवत गीता के 13 अध्याय का 8, 9, 10, 11, 12 का जो श्लोक समूह है, उसके तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद जी बहुत सुंदर बात लिखते हैं-इस बात को पुनः देखिए, प्रभुपाद जी पवित्रता के विषय में क्या क्या कहते हैं।( ध्यान रहे कि हमारा शीर्षक है कि नाम जप करने से हमारा चित्त कैसे शुद्ध होगा) प्रभुपाद यहां कहते हैं- भक्ति के पथ पर अग्रसर होने के लिए, प्रगतिशील होने के लिए पवित्रता अति अनिवार्य है। जैसा कि हमनें पहले कहा- बाहरी दृष्टिकोण से पवित्रता और आंतरिक दृष्टिकोण से पवित्रता। प्रभुपाद जी आगे कहते हैं कि बाहरी दृष्टिकोण से स्नान करने से पवित्रता आती है। हमारे महाराज जी कहते हैं, पर यदि कोई यह सोचे कि केवल स्नान मात्र करने से पवित्र होगा, यह संभव नहीं क्योंकि मछली अधिक से अधिक पानी में रहती है लेकिन सबसे गंदी बदबू वही मारती है। केवल पानी में रहने से कोई पवित्र नहीं होता। देह शुद्ध होता है, चित्त पवित्र नहीं होता। चित्त पवित्र नाम जप करने से, मंत्र उच्चारण करने से होता है। इसीलिए वैदिक संस्कृति में हर प्रांत में यह प्रथा पाई जाती है। स्नान करते समय व्यक्ति पानी से तो स्नान करता ही है और साथ साथ ही वह प्रभु का कोई प्रिय नाम उच्चारित करता है। कोई नरसिंह कवच का उच्चारण कर रहा है, कोई गजेंद्र मोक्ष का उच्चारण कर रहा है। कोई राम रक्षा स्तोत्र का उच्चारण कर रहा है। कोई राम कृष्ण हरि का कीर्तन कर रहा है। कोई गोविंद दामोदर स्तोत्र गा रहा है। वह अपने प्रिय श्लोकों का जो संग्रह है, वह गाता रहता है नहाते नहाते प्रभु का नाम लेता है। प्रभुपाद जी यहां कहते हैं जो अंदरूनी पवित्रता के लिए हमें सतत कृष्ण का स्मरण करना है। अब कोई कहेगा यह कैसे संभव है? आगे प्रभुपाद जी कहते हैं- यह निरंतर हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करने से होता है
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हमें केवल निरंतर हरे कृष्ण महामंत्र हरि नाम का उच्चारण करना है।
*खाते शुइते यथा तथा नाम लय काला-देश-नियम नहीं, सर्व सिद्धि हय ।।*
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद
"समय या स्थान की परवाह किए बिना, जो भोजन या सोते समय भी पवित्र नाम का जप करता है, वह सभी पूर्णता को प्राप्त करता है।
यह चैतन्य भागवत की प्रसिद्ध वाणी है। उठते- बैठते, चलते फिरते, खाते- सोते, भाव हो या अभाव हो, श्रद्धा हो या श्रद्धा हीन हो व्यक्ति को मुख से नाम लेना चाहिए। ड्यूटी मानकर नाम लेना है और कर्ण इंद्रियों से श्रवण करना है। प्रभुपाद जी कहते हैं केवल यह करने मात्र से हमारे चित में पूर्व संचित कुकर्म के कारण सभी कल्मष व भौतिक इच्छाओं की जो धूल हमारे धूसरित हुई है, वह सब उन्मूलति होती है, स्वच्छ हो जाती है।
चलिए एक और प्रमाण चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला 25 अध्याय से देखते हैं। यह बहुत सुंदर श्लोक है।
*एक 'नामाभासे' तोमर पाप-दोना याबे आरा 'नाम' ला-इते कृष्ण-चरण पाइबे*
अनुवाद:-
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सुबुद्धि राय को आगे सलाह दी: "हरे कृष्ण मंत्र का जाप करना शुरू करें और जब आपका जप लगभग शुद्ध हो जाएगा, तो आपकी सभी पापपूर्ण प्रतिक्रियाएं दूर हो जाएंगी। पूरी तरह से जप करने के बाद, आपको कृष्ण के चरण कमलों में आश्रय मिलेगा ।
महाप्रभु, सुबुद्धि राय से कहते हैं। वे शुद्ध नाम की वाणी नहीं कह रहे हैं, एक नामभास कह रहे हैं। केवल अपराध रहित नाम लेने से तुम्हारे सारे पाप दोष चले जाएंगे और आगे यदि शुद्ध नाम ले तो
आरा
'नाम' ला-इते कृष्ण-चरण पाइबे अपराध नाम लेने से यह होता है कि भोग वांछा बढ़ जाती है। अपराध नाम लेने से हमें ऐश्वर्य मिलने लगता है, भोग सामग्री एकत्रित होती है। कई बार यह भी सुनने में आता है कि भक्त कहता है - घर मिल गया, अरे! यह तो प्रभु की कृपा है। दो तीन गाड़ियां मिल गई, यह तो प्रभु की कृपा है। अरे देखिए, हमारी तो आसक्ति बढ़ रही है। प्रभु की कृपा तो इससे नहीं होती। प्रभु की कृपा जब उतरती है तो
*अकिंचनीय- कृत्य पदस्रितं याः करोति भीक्सुम पथि गेह हिनं केनापी अहो भिसन कौर इडर्ग दृष्टि श्रुतो वा न जगत त्रयी पी*
बिल्व मंगल ठाकुर कहते हैं कि जब प्रभु की कृपा उतरती है तो विरक्ति प्रदान करती है, आसक्ति नहीं। नाम अपराध जपने से भोग बढ़ने लगता है। अगर व्यक्ति उस में फंस जाए, नाम छूट जाएगा। अगर अपराध से मुक्त हो जाएगा। आगे चलेंगे, नाम आभास की ओर तो हमारे पाप अपराध नष्ट हो जाएंगे। यहां महाप्रभु कहते हैं कि नामाभास तोमार पाप दोष जावे। नामाभास होने पर सब अनर्थ अपराध उन्मूलित होते हैं। यदि कोई भाव से प्रभु को पुकारे ,अश्रु गंगा प्रवाहित होकर पुकारे, हे प्रभु! हे मेरे स्वामी! अनंत जन्म बीत गए, अलग अलग अनंत योनियों में भ्रमण कर रहा हूं। कई माता, कई पिता, कई भ्राता, कई भार्या इत्यादि कई कई अलग अलग संबंधों में फंसा हूं। हे प्रभु! आप एकमात्र मेरे हो ।
*गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवासः शरणं सुहृत् | प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ||*
अनुवाद:-
मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यन्तप्रिय मित्र हूँ | मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ|
आप एकमात्र आत्मा की आत्मा हो। आपकी विस्मृति होने से मैं इस जगत में अलग-अलग संबंध, अलग-अलग रिश्ते नाते खेल खेलकर थक गया हूं। प्रभु, अब आप मिल जाओ। यह रिश्ते तो मैं तब तक खेलूंगा, जब तक प्रभु आप नहीं मिलते। एक बार आप मिल गए तब मैं क्यों खेलूंगा।" इस पर यदि यह भूख बढ़ जाए, ह्रदय में प्यास फटने लगे तो शुद्ध नाम उद्धृत होने लगता है। शुद्ध नाम का उदय होता है। महाप्रभु कहते हैं नामाभास से पाप नष्ट होते हैं। शुद्ध नाम से प्रभु की प्राप्ति होती है। (चलिए, देखते है कि प्रभुपाद जी क्या लिखते हैं) प्रभुपाद नाम के विषय में बहुत सुंदर बात कहते हैं। भक्तों से यह बात अपेक्षित है कि केवल दस नाम अपराध का रटन नहीं करें बल्कि अनुपालन कर के जीवन में इस बात को आत्मसात भी करें कि कैसे मैं उन अपराधों से मुक्त हो सकता हूं।
ऐसा नहीं है कि नाम कभी-कभी पवित्र है, कभी अपवित्र!! नहीं! प्रभुपाद जी कहते हैं नाम सूर्य समान है, हमारे अपराध जो है घन मेघ है। जो उन नाम रूपी सूर्य प्रकाश को ढक देते हैं। महाप्रभु के भक्त श्रील प्रभुपाद जी कहते हैं, व्यक्ति को चाहिए कि वो पवित्र हो ताकि नाम उच्चारण ठीक से हो। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि पहले मैं पवित्र हो जाऊं फिर नाम जपूगां। प्रभुपाद जी कहते हैं, जिस भी अवस्था में हो, निरंतर हरि नाम लेने की यह बात हमें अपने हृदय में बिठा लेनी चाहिए और नाम जप के प्रभाव से हम धीरे-धीरे भौतिक दूषणों से मुक्त होने लगते हैं। प्रभुपाद जी कितनी बार उसी बात को कह रहे हैं, देखिए! यह झूठ नहीं है। हमें प्रभुपाद जी की वाणी में पूर्ण रूप से श्रद्धा भाव से उतरना है। भगवान के चरण प्राप्ति के लिए शुद्धिकरण अनिवार्य है और शुद्धिकरण के लिए नाम जप अनिवार्य है। प्रभुपाद जी कहते हैं- नाम जपने मात्र से अनर्थ निकल जाएंगे, अनर्थ निवृत्ति हो जाएगी और अर्थ की प्रवृत्ति होगी। आज के लिए प्रमाण के लिए हम अंतिम श्लोक पांचवें स्कंध के 98 अध्याय के 18 श्लोक के तात्पर्य से लेते हैं जिसमें श्रील प्रभुपाद जी कहते हैं महाप्रभु ने संकीर्तन आंदोलन को हर गली, हर राज्य में, हर स्थान में जाकर प्रसारित किया, उसका प्रचार किया ताकि हर बद्ध अवस्था, व्याधि ग्रस्त जीव को कृष्ण नाम श्रवण मात्र करने का का यह सौभाग्य प्राप्त हो। श्रवण करने से क्या होता है? कई बार हम सुनते हैं कि चैंट एंड हियर से क्या होगा? हमें मेडिटेट करना पड़ता है। हमें यह करना पड़ता है। कुछ नहीं करना पड़ता है। हमें प्रभुपाद की इस वाणी पर पूर्ण रूप से समर्पित होना है। यहां प्रभुपाद जी कहते हैं कि केवल सुनने मात्र से *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* ही सब हो जाएगा।
देखिए! प्रभुपाद जी की नाम के प्रति आस्था देखिए, प्रभुपाद जी सिर्फ हरे कृष्ण ही लिख सकते थे। पर जब भी संदर्भ आता है वे पूरे नाम को लिखते हैं। ताकि हम पढ़े तो हम नाम जपे और प्रभुपाद को बोलते समय भी इतनी उत्कंठा होती थी। प्रभुपाद जी केवल डिक्टेट कर रहे हैं, वाणी के माध्यम से बोल रहे हैं। प्रभुपाद जी का केवल हरे कृष्ण महामंत्र बोलने से मन नहीं भरता। बोलना पड़ रहा है- *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे ।हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
प्रभुपाद जी यह भक्ति भाव से लिख रहे हैं। प्रभुपाद जी कहते हैं कि केवल श्रवण मात्र करने से व्यक्ति पूर्ण रूप से शुद्ध होता है। (अंतिम वाणी) प्रभुपाद जी कहते हैं- हमारे हरे कृष्ण महामंत्र/ इस्कॉन आंदोलन का सर्वश्रेष्ठ कार्य है कि नाम जपे और दूसरों से नाम जपवायें। नाम श्रवण मात्र करने से कीर्तन मात्र करने से अंतःकरण शुद्ध होता है। हमें बैठना है और सतत् नाम रटना है। मन चाहे जहां भी चला जाए, हमें केवल श्रवण करके इस मन को पुनः वापस जप में लौटना है। क्योंकि यन्न्नाम श्रुति मात्रेण पुमान भवति निर्मला।इस श्लोक से हमने प्रारंभ किया और अंतिम वाणी भी यही रहेगी। केवल श्रवण मात्र करने से हृदय शुद्ध होता है और भगवान की प्राप्ति होती है। आज के सत्र कथा के माध्यम से यहीं पर अपनी वाणी को विराम दूंगा। नाम के विषय में मेरा कोई अनुभव नहीं है। कोई साक्षात्कार नहीं है परंतु मैंने सोचा श्रील प्रभुपाद जी जिन्होंने महाप्रभु के सेनापति के रूप में कृष्ण नाम का इस जगत में प्रसार किया है, उन्हीं के मुख से नाम की महिमा सुनते हैं। केवल आप सब की सेवा के लिए श्लोकों का संग्रह करके आप सबके संतोष के लिए यहां प्रस्तुत है। यदि यहां पर आपको अच्छा लगे, प्रेरणाप्रदायक लगे तो बिना भूले मेरे लिए प्रार्थना कीजिएगा ताकि यह जो मैं कह रहा हूं, बक रहा हूं उस सब को मुझे अपने जीवन में उतारने का सामर्थ्य आए।
*वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
श्रील प्रभुपाद की जय!!!
परम् पूज्य पाद श्री लोकनाथ महाराज की जय!!!
अनन्त कोटि गौर भक्त वृंद की जय!!!
श्री हरिनाम प्रभु की जय!!!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!