Hindi

जप चर्चा - 16-06-2021 पंढरपुर धाम से हरे कृष्ण ! आज 940 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। जय ! मधुर विट्ठल, ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।। श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।। अर्थ- मैं घोर अज्ञान के अन्धकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आखें खोल दीं । मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ । श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे जिन्होने इस जगत् में भगवान् चैतन्य की पूर्ति के लिये प्रचार योजना (मिशन) की स्थापना की है ? आज प्रातः काल में मंगला आरती मैंने ही गायी या मंगला आरती का कीर्तन आपने सुना या नहीं सुना? आपने भी अपने-अपने मंदिरों में गायी होगी या अपने घरों में (आपके घर ही मंदिर हैं) गाने वाले होंगे। अतः सबको ध्यान पूर्वक गाने का, गायन करने का प्रयास हुआ हरि हरि ! जब ध्यान पूर्वक या प्रार्थना पूर्वक कुछ गाते हैं, कीर्तन होता है तो श्रवण होता ही है। तब हम प्रसन्न होते हैं क्योंकि कुछ भाव भी उदित होते हैं या कहो कि जो कुछ हम गाते हैं उसका भावार्थ समझ में आता है। भावार्थ के कुछ साक्षात्कार या अनुभव होते हैं जिसको हम गाते हैं, उसको जब हम ध्यान पूर्वक गाते हैं प्रार्थना पूर्वक गाते हैं तो ऐसा ही कुछ हो रहा था, फिर सोचा कि आज के जपा टोक में उसी की चर्चा करेंगे। मतलब टॉपिक होगा "गुरुअष्टक" गुरु जमा अष्टक गुरुअष्टक, अष्टक कई होते हैं कुछ समय पहले हम शिक्षाअष्टक पढ़ रहे थे गोस्वामीअष्टक, दमोदराष्टक, अष्टक ही अष्टक। इस अष्टक को गुरुअष्टक, गुरु का अष्टक कहते हैं। गुरुअष्टक, अष्टक 8 होते हैं। "वंदे गुरोः श्री चरणारविन्दं" इस अष्टक में यह गुरु की वंदना है। वंदे गुरोः श्री चरणारविन्दं" यह बात, यह भाव है। अहम वंदे, वंदे गुरोः श्री चरणारविन्दं, श्री गुरु के चरण कमलो की मैं वंदना करता हूं। वंदे गुरोः हम ही आपको याद दिलाते रहते हैं उच्चारण की बातें हैं वंदे गुरु नहीं कहना है। वंदे गुरु श्री चरणारविन्दं यह गलत हुआ वंदे गुरोः कहना है गुरोः ठीक है आप नोट कर रहे हो। वंदना करने वाले हम हैं जो गाते हैं , इसलिए अहम वंदे मैं वंदना करता हूं गुरोः चरणारविन्दं। अहम वंदे जैसे वंदे मातरम होता है वंदे मातरम, मतलब अहम वंदे अहम मातरम वंदे , मातरम, माता, पृथ्वी माता या भारत माता, माताएं अलग-अलग हैं सात प्रकार की माताएं हमारी संस्कृति में बताई हैं। एक एक अष्टक का यथासंभव स्मरण करेंगे। इस अष्टक में गुरोः की वंदना है, गुरोः की महिमा है, ऐसे गुरोः के चरणों की मै वंदना करता हूं। हर अष्टक में गुरु की महिमा या आचार्यों का महिमा का गान हुआ है और फिर हर वक्त कहा गया है वंदे गुरो श्री चरणारविन्दं। यह श्रील विश्वनाथ ठाकुर की रचना है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर प्रभुपाद की जय ! हमारी परंपरा के महान आचार्य रहे लगभग 300 वर्ष पूर्व की बात है। चैतन्य महाप्रभु के उपरांत हरि हरि ! बलदेव विद्याभूषण के समय, बलदेव विद्याभूषण, जिन्होंने गोविंद भाष्य लिखा, उनके गुरु ही थे श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर, जो एक समय गौड़ीय संप्रदाय के रक्षक, संरक्षक रहे। उनके यह विचार, यह भाव हैं इस गुरुअष्टक के रूप में, हरि हरि यह उनके साक्षात्कार हैं। शास्त्रों में जो वर्णन हुआ है आचार्यों के बारे में, उनकी महिमा का गान हुआ है उसी पर यह आधारित है। ये गुरुः तत्व भी है या गुरुःतत्व का उल्लेख हो रहा है। गुरु की महिमा का उल्लेख हो रहा है। संसार-दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥ अर्थ - श्रीगुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) कृपासिन्धु (भगवान्) से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। जिस प्रकार एक मेघ वन में लगी हुई दावाग्नि पर जल की वर्षा करके उसे शान्त कर देता है, उसी प्रकार श्री गुरुदेव सांसारिक जीवन की प्रज्वलित अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। संसार-दावानल-लीढ-लोक,यह संसार कैसा है ?दावानल है। दावानल, मतलब जहां आग लगी हुई है। संसार को आग लगी हुई है, संसार दावानल लीड लोका मतलब पीड़ित होना संसार को आग लगी है और इस आग में यह संसार आग से पीड़ित है जब आग लगती है तो कुछ बुझाने की व्यवस्था होनी चाहिए। उस आग को बुझाने की व्यवस्था है गुरु और आचार्य। त्राणाय मतलब यह संसार पीड़ित है, त्रसित है, सारा संसार परेशान है। उनको कुछ राहत देने के लिए,उस कष्ट से मुक्त करने के लिए त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम् , करुणा का उपयोग होगा। गुरु की करुणा, श्री गुरु करुणा सिंधु ,अधम जनार बंधु, वह भी आगे कहा ही है घनाघनत्वम्, घन मतलब बादल, जब ग्रीष्म ऋतु होती है। यहां की गर्मी को शीतलता देने के लिए, ठंडक उत्पन्न करने के लिए कहो या राहत देने के लिए कहो , शीत आतप वात वारिषण फिर वर्षा की आवश्यकता होती है। तब बादल जिनको जलद भी कहते हैं कुछ ज्यादा तो नहीं कहूंगा नहीं तो यह अष्टक पूरा नहीं होने वाले हैं। जलद अर्थात जल देने वाला, इसीलिए बादल को जलद कहते हैं, जलद आ चुके हैं। गुरु बनते हैं जलद या बादल घनाघनत्वम् बादल जैसी जल की वृष्टि करते हैं या फिर कोई फॉरेस्ट फायर भी है। आग लगी है गर्मी के कारण या सचमुच आग लगी है तो उसको बुझाने के लिए यदि वृष्टि हो जाए तभी मामला समाप्त हो। त्राणाय कारुण्य- गुरु की ऐसी करुणा , प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य , यदि प्राप्त हो जाए, क्योंकि गुरु कैसे हैं ? गुणार्णवस्य अर्थात गुण अर्णव है। अर्णव मतलब सागर या समुद्र, गुणार्णव गुरु गुण की खान हैं, करुणा के सागर हैं, घनाघनत्वम् , वृष्टि हो जाए करुणा की, या ऐसी वृष्टि करते ही हैं। करुणा की दृष्टि की वृष्टि करने वाले गुरु के चरणों की मैं वंदना करता हूं। आगे बढ़ते हैं बढ़ना ही होगा। महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥ अर्थ - श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। एक-एक करके गुरु के अष्टकों में,आचार्यों के एक एक कार्यकलाप , कि वे कैसे कैसे कार्य करते रहते हैं कैसे वह व्यस्त रहते हैं। आचार्य ने जगते सिखाये, अपने आचरण से सारे संसार को सिखाते हैं या अलग अलग सेवा में जोड़ देते हैं कौन-कौन सी सेवा या कार्य बताएं हैं। पहला है वे क्या करते रहते हैं ? महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत, महाप्रभु का कहो या महाप्रभु द्वारा सिखाया हुआ कहो यह कीर्तन है साथ में नृत्य भी है। वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन, उसी में तल्लीन रहते हैं कीर्तन श्रवण कीर्तन में नृत्य भी हो रहा है वादित्रमाद्यन्- मतलब वाद्य बज रहे हैं संकीर्तन हो रहा है। कीर्तन हो रहा है कीर्तन करते रहते हैं और जब वे कीर्तन करते रोमांचित होते हैं तब औरों को भी कराते हैं अर्थात औरों को भी ऐसे कीर्तन में जोड़ देते हैं या औरों के साथ भी कीर्तन करते हैं। वाद्य बज रहे हैं नृत्य हो रहा है फिर रोमांच हो रहा है -कम्पाश्रु- यह सारे भाव भी उदित हो रहे हैं -कम्पाश्रु-तरंग-भाजो ऐसा वह सब महसूस करते हैं। कई सारे भाव, उनके सर्वांग ऐसे भावों का कुछ दर्शन भी होता है वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्। फिर आगे बढ़ते हैं श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ। युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥3॥ अर्थ- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। अब वे विग्रह की आराधना करते हैं और करवाते हैं दोनों को समझना होगा। यहां लिखा है युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि , गुरु जन युक्त होते हैं। दे आर इकुप्ड उनको साथ या संग प्राप्त होता है। शिष्यों को, भक्तों को साथ में लेकर वे विग्रह की आराधना, राधा दामोदर, राधा गोविंद, राधा मदन मोहन, राधा पंढरीनाथ, राधा पार्थ सारथी, लाइक दैट विग्रह की आराधना करते हैं। आराधना के अंतर्गत श्रृंगार है फिर मंदिर मार्जन भी है। सारा श्रंगार सारा डेकोरेशंस, माल्यार्पण, पुष्प अभिषेक बहुत कुछ होता है विग्रह आराधना के अंतर्गत, आचार्य वृंद ऐसे व्यस्त रहते हैं। अतः विग्रह की आराधना में, ऐसे गुरुजनों की, आचार्यों के चरणों की मैं वंदना करता हूं। फिर कीर्तन भी करते हैं विग्रह की आराधना भी करते हैं और क्या-क्या करते हैं यह मोटे मोटे आइटम है। वैसे यह इस्कॉन की अलग-अलग एक्टिविटी भी है या अलग-अलग प्रकार की साधना है। नेक्स्ट आइटम है चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥ अर्थ -श्री गुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात् चबाए जाने वाले, पेय अर्थात् पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले - इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। अपने लिए नहीं कुछ दिखा रहा पहले तो भगवान को भोग लगाएंगे, चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- अभी भोग लगाया, तो बन गया भगवत प्रसाद , क्या वैशिष्ट है गुरुजनों का इसके साथ क्या महिमा जुड़ी हुई है ? स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान् कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव, जब गुरु जन देखते हैं हरि भक्तों का संघ संघान मतलब कई सारे हरि भक्त, शिष्य या विजिटर्स वह भी भक्त हैं। कई बार हम कहते हैं नॉन डिवोटी देयर आर सम डिवोटी एंड सम नॉन डिवोटइस इनमें से कोई डिवोटी है और कोई नहीं वैसे सभी डिवोटीज ही हैं। सभी जीव वैसे भक्त ही हैं या हो सकता है उनका डिवोशन थोड़ा सुप्त अवस्था में हो ,उनको भी या औरों को जब प्रसाद लेते हुए गुरुजन देखते हैं तो कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव तब वे भी तृप्त हो जाते हैं। या मिड डे मील बच्चों की स्कीम चल रही है, अन्नामृत कोरोना वायरस की परिस्थिति में प्रसाद बांटा जा रहा है, जो प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं अन्यो को सभी को प्रसाद ग्रहण करते हुए देखकर वे प्रसन्न हो जाते हैं। फिर व्यवस्था भी करते हैं। यह सारी व्यवस्था भी है कीर्तन हो, तो कीर्तन की व्यवस्था करते हैं, सर्वत्र कीर्तन हो या नगर संकीर्तन हो, मंदिर के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। फिर विग्रह की आराधना मैं जोड़ देते हैं पूरे गांव को और फिर प्रसाद वितरण ,फूड फॉर लाइफ श्रील प्रभुपाद ने शुरू किया और जब देखते हैं यह प्रसाद वितरण हो रहा है तो वह देखने आते हैं कि कहां प्रसाद वितरण हो रहा है। वे स्वयं भी प्रसाद वितरण करते हैं या कहीं से रिपोर्ट आ रहे हैं प्रसाद वितरण की। चलो गोविंदा रेस्टोरेंट खोलो ताकि लोग ऑल ओवर द वर्ल्ड जो रेस्टोरेंट में आएंगे उनको भी युक्ति पूर्वक प्रसाद ही खिलाया जाएगा। ऐसी सारी व्यवस्था गुरुजन करते हैं ताकि अधिक से अधिक लोग प्रसाद ग्रहण करेंगे और जब वे लोग प्रसाद ग्रहण करते हुए उनको देखते हैं तब वे भी तृप्तिम प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसे गुरु के चरणों की मैं वंदना करता हूं। ओके तो कीर्तन नृत्य इत्यादि हुआ खूब विग्रह की आराधना हो रही है विग्रह की आराधना के अंतर्गत यह 56 भोग या चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- भी है और उस प्रसाद का वितरण भी हो रहा है। अब और क्या-क्या करते हैं इस्कॉन में या वैष्णव संप्रदाय में, पांचवा अष्टक है। श्रीराधिका-माधवयोर्अपार- माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥ अर्थ- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। यह सभी महत्वपूर्ण है, कीर्तन भी महत्वपूर्ण है ,विग्रह आराधना, कृष्ण की आराधना और उससे अधिक क्या महत्वपूर्ण हो सकता है मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥ (श्रीमद भगवद्गीता 9.34) अनुवाद- अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे। मेरी आराधना करो मुझे नमस्कार करो लेकिन मन्मना भी है मेरा स्मरण करो तो क्या होता है राधा माधव या जो भी विग्रह है राधा माधव नाम लिया है हमारे परंपरा के या राधा माधव मायापुर में भी हैं। हरि हरि उनकी लीला का, नाम का, रूप का, गुण का, धाम का, परीकरों का, क्या करें? प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य, जो श्रवण कीर्तन करते हैं कथा कीर्तन में व्यस्त हैं तल्लीन हैं कीर्तनीय सदा हरी चल रहा है और नित्यम भागवत सेवा भी चल रहा है श्रवन्ति गायन्ति भी चल रहा है, कथाएं कीर्तन हो रहे हैं, यह कथाएं कीर्तन या नाम रूप गुण लीला का कीर्तन करते हैं और करवाते हैं। पहले करते हैं फिर अन्य लोगों को और भक्तो को सुनाते हैं। फिर उनको आदेश देते हैं यारे देख, तारे कह 'कृष्ण'-उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हा तार' एइ देश ॥ अनुवाद “हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।" श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा या सुनो सुनो हरिदास !सुनो नित्यानंद ! प्रति घरे केय जाय, सभी घरों में जाओ डोर टू डोर और लोगों को जगाओ जीव जागो! जीव जागो ! और फिर ग्रंथों का वितरण करो, जिसमें कथा है लोग पढ़ेंगे या जब इकट्ठे होंगे , कुछ कथा कुछ उपदेश सुनाओ। उनको मंदिर में बुलाओ हरि हरि ! यह बड़ा पार्ट है यह *माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्, प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य इसका आस्वादन करते हैं। भगवान की लीला कथा करते हैं और फिर करवाते हैं ऐसे गुरुजनो के चरणों की मैं वंदना करता हूं और आगे बढ़ते हैं निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया।तत्राति-दक्ष्याद् अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥6॥ अर्थ- श्रीगुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्री श्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यन्त श्रेष्ठता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। यह और भी ऊंची बात है निकुंज यूनो मतलब युवक और युवती निकुंज में विराजो घनश्याम राधे राधे, तो निकुंज में विराजित युवक और युवती , किशोर और किशोरी रति-केलि-सिद्धयै और वहां उनकी रति केली या हो सकता है जल केली कुछ प्रेम केली संपन्न हो रही है. निकुंजो में तब आचार्य वृंद क्या करते हैं ? ऐसा उनका संबंध है या स्वरूपेण व्यवस्थिति अपने स्वरूप में जब वे स्थित होते हैं तो उस स्थिति में वे राधा कृष्ण की लीला की सिद्धि में, उनके मिलन में और उस लीला को संपन्न करने में सफलतापूर्वक उस में सम्मिलित होते हैं। ऐसे आचार्य हैं अभी वे पधार चुके हैं इस धरातल पर धर्म की स्थापना के लिए आते हैं । परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। लेकिन कुछ आचार्य ऐसे होते हैं जो स्वयं जैसे षड गोस्वामी वृंद हैं जो स्वयं ही गोपियां हैं मंजरियाँ हैं। यह क्या करती हैं मंजरियाँ ?या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया। यालि मतलब गोपियाँ यलि मतलब भ्रमर यालि गोपी अकारांत होगा तो गोपी होगा नोट करो ताकि आप जब पढ़ोगे संस्कृत के श्लोक वगैरह तो आपको समझ में आ सकता है कि यहां पर भ्रमर की बात हो रही है या गोपी की बात हो रही है। युक्तिर् अपेक्षणीया गोपियां आचार्य गण क्या करते हैं ? गोपियों की सहायता करते हैं जो गोपियां भगवान की सेवा कर रही हैं ऐसे गोपियों की सहायता करते हैं। ललिता विशाखा आदि जट सखी वृंद चरणारविन्दम् उनके सखी ललिता विशाखा और जो गोपियां हैं उनका काफी बड़ा नेटवर्क है। तत्राति-दक्ष्याद् अतिवल्लभस्य जहां पर यह लीलाएं संपन्न हो रही है उनको निकुंजो में किशोर किशोरी की और अष्ट सखियां गोपियां सहायता कर रही हैं। तत्र मतलब वहां पर लीला में तत्राति-दक्ष्याद् , गुरु जन आचार्य वृंद अति दक्ष होते हैं कुशल होते हैं वेरी-वेरी एक्सपोर्ट वे दक्ष भी हैं अति दक्षता और साथ ही साथ अतिवल्लभस्य दक्ष भी हैं अति वल्लभ भी हैं मतलब प्रिय भी हैं। डियर टू कृष्णा डियर टू राधा , कृष्ण के प्रिय हैं ऐसे गुरुजनों कि मैं वंदना करता हूं। साक्षाद्-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः। किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥7॥ अर्थ- श्रीभगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्री गुरुदेव को स्वयं श्रीभगवान् ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी श्रुति-शास्त्र व प्रामाणिक अधिकारिओं ने स्वीकार किया है। भगवान् श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे अतिशय प्रिय प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। उनकी पोजीशन क्या है ? वे साक्षाद्-धरित्वेन, धरित्वेन इनसे हरित्वेन हुआ तृतीय विभक्ति में , तो समस्त शास्त्रों में उल्लेख हुआ है उक्तस्तथा मतलब कहां है? समस्त शास्त्रैः में ,साक्षाद्-धरित्वेन, साक्षात हरि हैं क्योंकि हरि का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए उनको पदवी साक्षात हरि की दी है। जैसे प्रधानमंत्री का कोई प्रतिनिधि आता है, आपके घर आए तो, मानो प्रधानमंत्री आ गए। प्रधानमंत्री का कोई प्रतिनिधित्व करते हुए, तब आप उनका वैसे ही स्वागत सम्मान सत्कार करोगे, मानो स्वयं प्रधानमंत्री का ही कोई संदेश उपदेश आपके लिए कुछ भेंट लेकर आए हैं। आप उनका स्वागत सम्मान सत्कार करते हो। वैसे ही प्रतिनिधि का जिसका वह प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। साक्षाद्-धरित्वेन और यह सब सभी शास्त्रों में कहा है उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः, मतलब साधु संग महात्मा संतो के द्वारा भी ऐसे ही कहा है या दूसरे शब्दों में शास्त्रों में कहा है साक्षाद्-धरित्वेन इसका उल्लेख शास्त्रों में हुआ है और सब विधि संतो के द्वारा भी इस बात की पुष्टि की हुई है कि हां! हां! साक्षात हरी है किंतु रुको ! रुको! डोंट मिसअंडरस्टैंड, इसी का फायदा उठाते हैं कुछ लोग आई एम गॉड और मैं फलाना भगवान हूं भगवान हूं भगवान हूं क्योंकि साक्षाद्-धरित्वेन कहा है शास्त्रों में तो घोषित करते हैं कि हां हां यह भगवान है यह जो गली में घूमते रहते हैं कई सारे भगवान कोई शॉर्टेज नहीं है लेकिन यह प्रतिनिधि भगवान के प्रिय हैं इसलिए साक्षाद्-धरित्वेन मतलब भगवान के दास हैं भगवान के सेवक हैं। भगवान के प्रिय हैं हमने तो कहा ही था अतिवल्लभस्य यह भगवान के प्रिय हैं। यहां प्रभु पाद कहा करते थे आई एम नॉट गॉड ,यू आर नॉट गॉड ,वी आर ऑल इंटरनल सर्वेंट ऑफ गॉड, मैं भगवान नहीं हूं यह घोषणा किया करते थे आप भी भगवान नहीं हो। हम सभी भगवान के नित्य दास हैं तो वही बात है. किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य यह किंतु आ गया, वह प्रिय है भगवान के अति प्रिय व्यक्ति हैं। अंतिम अष्टक है यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि। ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥ अर्थ -श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए। इनका प्रसाद मिल जाए यस्य मतलब जिनका यस्यप्रसादाद् जिनका प्रसाद प्राप्त हो जाए, भगवदप्रसादो फिर भगवान का प्रसाद प्राप्त होगा। इनकी कृपा होगी तो फिर भगवान की कृपा होगी। इन्होंने रिकमेंड किया फिर भगवान स्वीकार करेंगे इनकी सेवा को या इन्ही को, किंतु यस्याऽप्रसादन्न् इनकी कृपा नहीं होंगी या इनका अनुग्रह नहीं होगा यस्यप्रसादाद् ऊपर कहा है दूसरी पंक्ति में कहा है यस्य अप्रसादन आपको यह नोट करना है और ऐसा कहना ही होगा लिखा तो है ही यस्याऽप्रसादन्न् यस्य प्रसादं यस्य मतलब जमा, ऽप्रसादन्न् अ मतलब नहीं, की बात है। इनका प्रसाद यह प्रसाद की कृपा प्राप्त होगा तो भगवान का प्रसाद प्राप्त होगा और इनकी कृपा प्रसाद दृष्टि हम पर नहीं पड़ेगी तो न गति कुतोऽपि। फिर कोई गति नहीं है। नो फ्यूचर अपने गंतव्य स्थान तक हम नहीं पहुंचेंगे। जो गोइंग बैक टू गॉड हेड भी है या कृष्ण प्रेम प्राप्ति पंचम पुरुषार्थ प्राप्ति लक्ष्य है। उस लक्ष्य तक न गति कुतोऽपि , अभी किसी हालत में ऐसी गति ऐसी सद्गति नहीं होगी मतलब अधोगति होने की संभावना है। सावधान! और फिर बिल्कुल अंतिम वचन है ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं , ऐसे गुरुजनों का मैं ध्यान करता हूं ध्यायन या ध्यान करते हुए स्तुति गान करते हुए यशस्त्रि-सन्ध्यं यशोगान करते हुए मतलब संध्या का उल्लेख है तीन बार तो करता ही हूं मैं प्रातः मध्यान्ह सांयकाल जो त्रि संध्या है वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्वं। ओके ठीक है निताई गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल आप और भी देखो, इसको पढ़ो ,सुनो और सीखो समझो, उसका अर्थ भी भावार्थ भी और गूढ़ अर्थ भी और फिर ऐसी समझ के साथ फिर वंदना संभव है। वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्वं जो आप कहते रहते हो गाते रहते हो तो समझ के साथ गाओ। श्रील प्रभुपाद की जय! हरी बोल !

English

Russian