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हरे कृष्ण जप चर्चा पंढरपुर धाम से, 21 फरवरी 2021 हरे कृष्ण! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आज हमारे साथ 560 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। उसमें मायापुर, वृंदावन, नागपुर, अमरावती, भुवनेश्वर, नोएडा, थाईलैंड ऐसे सब जगह से भक्त सम्मिलित हुए है। सम्मिलित होने के लिए आपका धन्यवाद! आपने हमें और उनको संग दिया हमने भी आपका और बाकी लोगों ने भी आपका संग लिया इसके लिए साधुसंग या सत्संग के लिए धन्यवाद! हरि हरि। तो हम बड़े भाग्यवान है सारा संसार भाग्यवान है, वैसे संसार को भाग्यवान बनाया जाता है। ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति-लता-बीज।। ( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१ ) अनुवाद:- सारे जीव अपने- अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह-मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह- मंडलों को। ऐसा हम सुनते रहते है लेकिन, आज श्रील माध्वाचार्य तिरोभाव तिथि है। माध्वाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! भगवान हमें छप्पर फाड़ के साधु संग दे रहे है। महात्मा या आचार्य को भगवान हमेशा भेजते रहते हैं और उनके कारण इस संसार का और संसार के जीव के भाग्य का उदय होता है। तो ऐसे ही हम सभी के भाग्य का उदय कराने वाले माध्वाचार्य रहे। श्रील माध्वाचार्य की जय! जो हमारे भी पूर्व आचार्य है। आचार्य तो सारे संसार के होते है। वैसे चार संप्रदाय है, उसमें से ब्रह्म मध्व आता है और हम गौड़ीय संप्रदाय जो कि एक प्रामाणिक संप्रदाय है उसके अनुयाई है। तो जन्म लेना और फिर इस प्रामाणिक संप्रदाय के संपर्क में आना यह बड़े भाग्य की बात है! तो हम भी जो अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के सदस्य है, हम सभी का संबंध माध्वाचार्य से है। वे हमारे भी पूर्व आचार्य है। क्योंकि हमारी परंपरा ही है ब्रह्म मध्व गौड़ीय संप्रदाय है। ब्रह्म मध्व और फिर गौड़ीय कहते है। क्योंकि स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उस में प्रकट हुए इसलिए हमारे परंपरा का नाम हुआ ब्रह्म मध्व गौड़ीय संप्रदाय। वैसे मैं हमेशा सोचता रहता हूं जैसे भगवान कहते हैं यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || भगवतगीता ४.७ अनुवाद:- हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ | जब-जब धर्म कि ग्लानि होती है, जो कि संसार में हमेशा धर्म की ग्लानि होती ही रहती है। यह काल का प्रभाव है। एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदः | स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || भगवतगीता ४.२ परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, योगविद्या; नष्टः- छिन्न-भिन्न हो गया; परन्तप- हे शत्रुओं को दमन करने वाले, अर्जुन | इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है | स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप तो जब जब धर्म को ग्लानि आती है तब मैं प्रगट होता हूं। और प्रगट होकर क्या करता हूं? धर्म की स्थापना करता हूं! तो धर्म की ग्लानि होती है तो भगवान भी प्रगट होते है। और उसी बीच उस के मध्य में भगवान अपने विशेष भक्तों को विशेष शक्ति और बुद्धि प्रदान करके इस संसार में भेजते रहते है। तो ऐसे भक्तों को या अचार्य को साक्षात हरि को, आचार्य के रूप में भगवान भेजते हैं साक्षाद्धरित्वेन तो उन में माध्वाचार्य भी ऐसे आचार्य या साक्षात हरि है। और वैसे वे वायु देवता के अवतार माने जाते नहीं, है ही! हमें यह मानना पड़ेगा! माध्वाचार्य के रूप में भगवान वायु देवता को भेजे। वायु देवता जो देवताओं में भी वायु देवता बड़े बलवान है। तो वैसे ही माध्वाचार्य ने अपने बल का प्रदर्शन किया और उसी के साथ इस संसार को प्रभावित किया। हरि हरि। तो इस संसार की उस समय जो तत्कालीन विचारधारा थी या कली का प्रभाव था तो श्रील माध्वाचार्य ने मायावादी सिद्धांत का खंडन करते हुए ऐसा जबरदस्त प्रचार किया कि, जिस अद्वैतवाद का प्रचार आदि शंकराचार्य ने प्रारंभ किया और चैतन्य महाप्रभु ने कहा जीवेर निस्तार लागि" सुत्र कैल ब्यास। मायावादि-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश ॥ चैतन्य चरितामृत मध्य लीला ६.१६९ अनुवाद:- श्रील व्यासदेव ने बद्धजीवों के उद्धार हेतु वेदान्त-दर्शन प्रस्तुत किया, किन्तु यदि कोई व्यक्ति शंकराचार्य का भाष्य सुनता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है।" मायावादि-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश तो ऐसा सर्वनाश, विनाश हो रहा था उसको अंकुश लगाने हेतु भगवान के प्रयास जारी थे। इसीलिए भी इस उद्देश्य से भी उन्होंने एक के बाद एक चार महान आचार्य को इस संसार में भेजा। जो थे रामानुजाचार्य और माध्वाचार्य और विष्णु स्वामी और निंबाकाचार्य जो सभी के सभी दक्षिण भारत में प्रकट हुए और भगवान उत्तर भारत में प्रकट हुए है जैसे कि वृंदावन में, अयोध्या में और गया में बुद्ध प्रकट हुए। जय श्री राम, जय श्री कृष्ण! और चैतन्य महाप्रभु भी उत्तर भारत के ही है, पूर्व भारत भी उत्तर भारत का ही एक अंग है। तो भगवान के अवतार उत्तर भारत के और भगवान के जो आचार्य जो भगवान द्वारा विशेषता भेजे हुए थे वह दक्षिण भारत में प्रकट हुए या भगवान ने उनको प्रगट करवाया! और हो सकता है शंकराचार्य भी दक्षिण भारत में ही जन्मे थे और वहीं से उन्होंने प्रचार प्रारंभ किया। अद्वैतवाद का प्रचार! और उसी दक्षिण भारत में आचार्यों को जन्म देकर उस मायावाद या अद्वैतवाद के सिद्धांत को परास्त करने हेतु भगवान की योजनाएं थी ऐसे हम कहते रहते है। तो यह सब भगवान ही जाने। तो माध्वाचार्य, उड़पी में उनका जन्म हुआ उड़पी कृष्ण की जय! जो उड़पी कृष्ण के लिए प्रसिद्ध है और जो कृष्ण का नाम है। कर्नाटक में अरबी समुद्र के तट पर ही है यह धाम जो माध्वाचार्य का पीठ रहा। तो वहां से कुछ ही दूरी पर 10 या 15 किलोमीटर की दूरी पर है माध्वाचार्य का जन्म स्थान। जहां जाने का मुझे कई बार अवसर प्राप्त हुआ, हम एक बार यात्रा भी लेकर गए थे। शिवांगी माताजी को याद है। हरी हरी। तो वहां के जन्मे माध्वाचार्य, जब वे आचार्य हुए और माध्वाचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। वे जब जन्मे तब उनके पिता श्री ने उनका नाम रखा वासुदेव और फिर दीक्षा हुई तो उनका नाम पूर्ण प्रज्ञ हुआ और फिर और दीक्षित हुए सन्यास दीक्षा भी लिए शास्त्रार्थ में किसी को परास्त किए, किसी घमंडी पंडित को तो उन्हे आनंद तीर्थ यह उपाधि दी गई। ऐसे अलग-अलग नामों से माध्वाचार्य जाने जाते है। वासुदेव, पूर्ण प्रज्ञ, जो नाम भी बढ़िया है। ज्ञ मतलब जानकार या ज्ञानवान। इसीलिए प्रज्ञ कहना ही पर्याप्त था लेकिन आगे भी पूर्ण जोड़ दिया तो फिर उस प्रज्ञता की पूर्णता भी हुई। तो वह 5 साल के ही थे तब उनकी ब्राह्मण दीक्षा हुई थी। हरि हरि। शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || भगवतगीता १८.४२ अनुवाद:- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं | यह सारे गुण और लक्षणों का उनमें प्रदर्शन था आज कल जब किसी को ब्राह्मण बनाते है तो मंदिर के अध्यक्ष उनकी शिफारस करते है कि इन्हें ब्राह्मण बनाओ, मंदिर में पुजारी कम है! वैसे कलयुग में कहते हैं कोई जनेऊ धारण किया तो वह ब्राह्मण बन गए जो कि आप अठन्नी या चवन्नी में खरीद सकते हो। तो ऐसे ब्राह्मण नहीं थे। ब्राह्मण के सारे लक्षण जब वे 5 साल के थे तब उनमें प्रगट हुए और उनकी ब्राह्मण भिक्षा हुई और जब वह 11 साल के हुए तो उन्होंने घर को त्याग दिया और उड़पी के लिए प्रस्थान किए। आपकी साल या आपकी उम्र क्या होगी? 70 साल के होंगे आपने ऐसा कुछ किया है? सन्यास सन्यास कहते हुए आप उसी मायाजाल में अटक जाते है। लेकिन जब माध्वाचार्य केवल 11 साल के थे तो उन्होंने घर छोड़ कर उड़पी को प्रस्थान किए और जब 12 साल के थे तब उन्होंने औपचारिक दृष्टि से उन्होंने सन्यास ग्रहण किया। तो उनके जमाने में उनकी विद्वत्ता की बराबरी करने वाला शायद ही कोई था। एक पंडित आ गए और शास्त्रार्थ करना चाहते थे तो उड़पी में ब्राह्मणों की सभा बुलाई गई और उन्होंने कहा कि मैं शास्त्रार्थ का प्रस्तुतीकरण करूंगा और आप में से कोई है ?जो इसके जवाब दे उत्तर दे या उसमें कुछ दोष ढूंढ के दिखाओ तो सही! ऐसा कोई है तो यह पंडित तीन दिवस बोलते रहे या बकते रहे। और फिर 3 दिनों के उपरांत पूर्ण प्रज्ञ को बोलने का अवसर दिया जिनकी उम्र अभी 12 साल थी लेकिन थे वे पूर्ण प्रज्ञ तो मधु आचार्य थे श्रुतिधर जो भी वह सुन लेते थे वह उसको धारण करते थे। जिसको हम कहते हैं फोटोग्राफिक मैमोरी। कैसी मैमोरी? फोटोग्राफिक मैमोरी। आपने कैमरे से फोटो खींचा, तो उसकी जो फिल्म है। वह धारण करती है जिसका भी फोटो खींचा, 50 सालो के उपरांत। तो उनकी फोटोग्राफिक मैमोरी थी। तो मध्वाचार्य ने इस पंडित ने जो-जो बातें कही थी। वही सभी बातें हुबहू एक के बाद एक वह स्वयं कहे और फिर एक-एक बात का उन्होंने खंडन किया। उस पंडित को हराया, परास्त किया और वहां जो उस सभा में विद्वानों से खचाखच भरा था। मध्वाचार्य के प्रतिउत्तर से सभी विद्वानों का समाज अति प्रसन्न और प्रभावित हुआ। उस समय की बात है, यह कुछ 800 वर्ष पूर्व की बात है। जब मध्वाचार्य इस धरातल पर रहे, कुछ 800 वर्ष पूर्व। जब माध्वाचार्य ने उस शास्त्रार्थ में उन पंडित को परास्त किया। यह उस शहर का बहुत प्रचलित बात बन गई। केवल उडुपी ही नहीं, कर्नाटक ही नहीं, सारे संसार भर में मध्वाचार्य का जो विजय हुआ उसका बोलबाला चल रहा था। मध्वाचार्य का यश इस प्रकार सर्वत्र फैलने लगा। हरि हरि। आप चरित्र पढ़िएगा न, सुनिएगा मध्वाचार्य का, आज ही पढ़िए दिन में सुनिए, आपस में चर्चा कीजिए। हरि हरि। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा था वैसे निम्बार्काचार्य को कहे थे। यह चारों वैष्णव संप्रदाय के आचार्य हैं। एक-एक करके जब वह इस धरातल पर थे। दक्षिण भारत में प्रकट हुए थे। उन सभी ने मायापुर की यात्रा की थी। वह सभी नवदीप आए थे और सभी को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दर्शन दिया था। सभी को चैतन्य महाप्रभु का साक्षात्कार हुआ था। चैतन्य महाप्रभु की वहां लीला हुई थी। अद्यपि सेइ लीला करे गौर-राय कोण कोण भाग्यवान देखिबारे पाये (श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा रचित नवद्वीप महात्मय प्रमाण खंड) अद्यपि इसका कहने का अर्थ है यह भी निकालते हैं हम कि आज भी चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए और अंतर्धान भी हुए और उसके उपरांत भी अद्य अपि यहां मतलब नवदीप में। जब आचार्य नवद्वीप पहुंच रहे थे। चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पहले। लीला करे गौर-राय यह प्रकट लीला के पहले भी भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। नवद्वीप में लीला कर रहे थे। प्रकट लीला के उपरांत फिर नित्य लीला अब भी चल रही है। मुझे क्या कहना था और मैं कहां से कहां पहुंच गया। तो निम्बार्काचार्य से जब मिले श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और उनको दर्शन दिए। तो उन्होंने कहा था कि मैं इन चारों संप्रदायो से 2-2 विशेष उन संप्रदाय के गुणों को स्वीकार करूंगा और इस गौडीय वैष्णव संप्रदाय को मै समृद्ध करूंगा। मध्वा संप्रदाय से उन्होंने दो बातें ग्रहण की अपने संप्रदाय में उसका समावेश हुआ। तो वह दो बातें हैं एक है विग्रह आराधना, अर्चना। मध्वाचार्य उडुपी कृष्ण, कृष्ण की आराधना के लिए प्रसिद्ध थे। वहां की अर्चना प्रारंभ की और मध्वाचार्य ने ही स्थापना की और जिस विधि विधानो और भक्ति भाव के साथ विग्रह की आराधना वहां होती रही। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चाहते थे वैसे ही आराधना गौडीय वैष्णव संप्रदाय के भक्त भी करें और दूसरा था यह मायावाद का खंडन। शत दूशडी नामक यह ग्रंथ लिखे हैं मध्वाचार्य जिसमें उन्होंने 100 अलग-अलग प्रकार से खंडन किया है। मायावाद का खंडन उस सूची में 100 प्रकार से उन्होंने परास्त किया। इस बात से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बड़े प्रसन्न थे। तो यह मायावाद के खंडन की बातों का उन्होंने स्वीकार किया। इसीलिए फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा मायावाद भाष्य सुनिले हुइला सर्वनाश। यह कहां से उन्होंने प्रेरणा ली है? मध्वाचार्य से। मध्वाचार्य भी ऐसा प्रचार करते थे। इसीलिए मध्वाचार्य जो वेदांत पर भाष्य लिखें, वह भाष्य या वेदांत के ऊपर सिद्धांत लिखें वह वेदांत का भाष्य वेद या सिद्धांत कहलाता है। आचार्यो ने वेदांत पर टीकाएं लिखी। हरि हरि। द्वैत मतलब दो हैं। मध्वाचार्य का जब हम चित्र देखते हैं, उनकी आप उंगलियां देखोगे तो दो दिखाया हुआ है। कैसे देखोगे? दो। दो मतलब हम दो हैं, एक मैं भी हूं और दूसरे भगवान हैं। हम तो हैं, मैं भी हूं और भगवान भी हैं। मैं भी रहूंगा और भगवान की सदा के लिए रहेंगे। यह नहीं कि अभी मैं हूं लेकिन अब जोत में जोत मिलाऊंगा तो एक ही हो जाएंगे - अद्वैत। यह समस्या है, मोटा-मोटी यह समस्या खड़ी की शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत ने। हमारा लक्ष्य क्या है? एक होना, ब्रह्म होना। अहम् ब्रह्मास्मि तुम ब्रह्म हो लेकिन तुम परम ब्रह्म नहीं हो, ऐसा भी उत्तर है। परब्रह्म का अंश ब्रह्म, अहम् ब्रह्मास्मि उदासो अस्मि दास ब्रह्म है। शास्त्रों में कहा है विभु आत्मा और अणु आत्मा, दोनों आत्मा ही है, दोनों ही ब्रह्म है। एक विभु आत्मा है, महान आत्मा है, परमात्मा है और दूसरी अणु आत्मा है, अणु बम भी होता है। ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || (श्रीमद्भगवद्गीता 15.7) भावार्थ - इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । यह भी एक सिद्धांत है। इसी के साथ भी मायावाद का खंडन हुआ। मायावाद परास्त हुआ। श्रीभगवान उवाच भगवान कहते हैं कि हे जीव तुम मेरे अंश हो और कब तक अंश रहोगे? सनातन। तो जीव जागो। बेशक गीता में सभी उत्तर हैं। भगवत गीता में मायावाद का खंडन खंडन ही है। यह जो कहा है हे जीव तुम मेरे अंशु हो और तुम सनातन हो। सदा के लिए जीव रहोगे या अंश रहोगे। मैं हूं अंशी और तुम हो अंश। अंशी के अंश हैं सनातन सदा के लिए। हे अर्जुन! अभी तुम हो, मैं भी हूं और राजा भी हैं। हम सब थे भी और रहेंगे भी। यहां से भगवत गीता प्रारंभ हुई। तो हमारा नष्ट होना या हमारा अस्तित्व, हमारे व्यक्तित्व का अस्तित्व समाप्त होने की बात ही नहीं है। भगवान भी व्यक्ति हैं, हम भी व्यक्ति हैं और हम सदा के लिए रहेंगे ऐसे व्यक्ति। बात तो सरल है ना, कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन सीधे लोगों के लिए यह बात सरल है। जो उल्लू के पट्ठे हैं उनका दिमाग और ढंग से चलता है। सीधी बात है। मायावाद भाष्य सुनिले हुइला सर्वनाश। जिन्होंने मायावाद भाष्य सुनाया उन्होंने भी तो कहा मायावादम् असत शास्त्रं स्वयं शंकर कहे पार्वती से। हे देवी! मैं अब प्रकट होने वाला हूं। केरल में कालडी नाम के स्थान पर मैं प्रकट होऊंगा। ठीक है तो क्या करोगे आप? मैं मायावाद का प्रचार करूंगा। कैसा है मायावाद? मायावादम् असत शास्त्रं यह सत शास्त्र नहीं है स्वयं शंकर कहे कि मैं शंकराचार्य बनके, अब शंकर हूं और मैं शंकराचार्य बनूंगा और यह सब में भगवान के आदेश के अनुसार कर रहा हूं। मायावादम् असत शास्त्रं। तो मध्वाचार्य यह सब सिद्ध किए। इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने मायावाद का खंडन की बातों का स्वीकार किया। मध्वाचार्य संप्रदाय से अपने संप्रदाय में और उसी परंपरा में श्रील प्रभुपाद के प्रवचन सुनो, उनके तात्पर्य पढ़ो। तो आप सर्वत्र देखोगे मायावाद का खंडन करते हुए कई बातों का खंडन करना पड़ा, करना पड़ता है। जो-जो भगवान के विरोधी हैं भगवान के विरुद्ध करने वाली बातें हैं जिसको वाद कहते हैं। इस संसार में वाद-विवाद चलता है। फिर साम्यवाद भी है। कई सारे वाद हैं। मायावाद, फिर गांधीवाद आ जाता है l वाद ही वाद, वाद-विवाद और नवीनतम क्या है? व्यक्तिवाद (इंडिविजुअलिज्म) हर व्यक्ति जत मत तत पथ जितने मत हैं उतने पथ बन रहे हैं और फिर क्या होता है? मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः। जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे ।। (वायु पुराण) अनहर मुंड या पिंड यानी दिमाग से अलग-अलग विचारधारा और हर व्यक्ति सोचता है यह सारी बातें सही हैं। जो मेरी बात है सच ही होगी। तो श्रील प्रभुपाद भी कट्टर विरोधी थे मायावाद के। जैसे मध्वाचार्य थे, फिर चैतन्य महाप्रभु भी थे। प्रकाशानंद सरस्वती के साथ वाराणसी में चैतन्य महाप्रभु ने शास्त्रार्थ किया। प्रकाशानंद सरस्वती के 60000 फॉलोअर्स थे। तो आप कल्पना कर सकते हो, एक दृश्य से बड़े थे महान थे। किंतु चैतन्य महाप्रभु ने बाएं हाथ का खेल एक बार में उनको लेटाया, परास्त किया और एक ही बैठक के अंत में प्रकाशानंद सरस्वती और उनके 60 हजार शिष्यों ने हार मान ली और चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांतों को स्वीकार किया और सभी गौडीय वैष्णव बन गए। हरि बोल। अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ, श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित यह संघ के कार्य का परिणाम या फल वैसा ही है। नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले, श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामिन इति नामिने । नमस्ते सरस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे, निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ।। पाश्चात्य देश से शुरुआत हुई और पौरवात्य देशो में भी देशवासियों की उन्होंने रक्षा की। कैसे? प्रभुपाद ने क्या किया? गौर वाणी का प्रचार करके। निर्विशेषवाद और शून्यवाद से रक्षा की। यह संसार और कई वाद विवाद की लंबी जो सूची हैं। उसने बड़े बड़े वाद कौन से हैं? शून्यवाद बुद्ध देव जिसका प्रचार किए। उनको करना पढ़ा उस परिस्थिति में, इमरजेंसी थी। दूसरा निर्विशेषवाद तो मध्वाचार्य का कार्य, मायावाद का खंडन का कार्य। यह श्रीकृष्णभावनामृत संघ कर रहा है और हम सभी सदस्य हैं इस हरे कृष्णा आंदोलन के। हमारा भी फर्ज बनता है या हम कह सकते है कि मध्वाचार्य के प्रसन्नता के लिए मायावाद के खंडन की बातें करेंगे। मायावाद का विरोध करेंगे और मायावाद को परास्त करेंगे। अपने जीवन से और जहां जहां मायावाद का प्राकट्य प्रदर्शन दिखता है तो वहां वहां। मध्वाचार्य के चरणों में यह श्रद्धांजलि। उनकी प्रसन्नता के लिए यह उचित सेवा और श्रद्धांजलि होगी। इन्हीं शब्दों के साथ अपने वाणी को विराम देते है। श्रील मध्वाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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