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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 26 जून 2021 हरे कृष्ण!!! (जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 810 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। (जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी। (जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥ (जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन। (जय) यमुनातीर वनचारी॥ अर्थ वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं। जय राधे! जय कृष्ण! जय वृन्दावन! आप तैयार हो? मुकुंद माधव तैयार है। ठीक है। कल जिस सेवाकुंज का उल्लेख हुआ था, उस सेवा कुंज में जीव गोस्वामी ने श्यामानंद दुखिया कृष्ण को सफाई की सेवा दी थी। आपको समझ में आ रहा है कि सेवाकुंज कहां है? वर्तमान में राधा दामोदर मंदिर जहां पर है वह 500 पूर्व भी वहीं पर था। इस राधा दामोदर मंदिर के सेवक व संचालक जीव गोस्वामी थे। जीव गोस्वामी ने श्यामानंद दुखिया कृष्ण को विशेष सेवा दी थी। वे अध्ययन इत्यादि तो कर ही रहे थे। जीव गोस्वामी, उनके शिक्षक अथवा आचार्य थे। दुखिया कृष्ण, नरोत्तम दास ठाकुर, श्रीनिवासाचार्य यह बड़े-बड़े नाम हैं जोकि हमारे पूर्ववर्ती आचार्य हैं, वे जीव गोस्वामी के विद्यार्थी बने थे अथवा उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। जीव गोस्वामी कितने महान आचार्य थे, इसकी आप कल्पना कर सकते हो। मुझे तो आपसे बहुत कुछ कहना है। देखते हैं, क्या क्या कहा जाएगा। मैं पहले आप का ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा था अथवा आपको समझाना चाह रहा था कि समझ जाओ कि यह सेवाकुंज कहां है। जहां पर दुखिया कृष्ण सफाई की सेवा अथवा झाड़ू वाले बन गए थे। तत्पश्चात उनका उसी कुंज में नामकरण भी हुआ था और वे श्यामानंद बने। श्रील प्रभुपाद भी विदेश जाने से पहले अर्थात 1965 से पहले और 1965 में भी राधा दामोदर मंदिर में ही कई वर्षों तक रहे। तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना की। जब वे पुनः भारत लौटे, तब उन्होंने वर्ष 1972 में सर्वप्रथम कार्तिक उत्सव का आयोजन किया। श्रील प्रभुपाद ने अपने कुछ शिष्यों को उसमें आमंत्रित किया। वह उत्सव, कार्तिक मास में पूरा 30 दिवस संपन्न होने वाला था। वह एक दो दिन की बात नहीं थी अपितु श्रील प्रभुपाद के सानिध्य में ही कार्तिक उत्सव संपन्न होने वाला था। श्रील प्रभुपाद ने कुछ शिष्यों को बुलाया अथवा आमंत्रित किया। मुझे भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। हम कार्तिक मास में, वृन्दावन के सेवा कुंज में बने राधा दामोदर मंदिर में श्रील प्रभुपाद का सङ्ग करते रहे। शरद पूर्णिमा का दिन आया, वैसे यह अश्विन मास की पूर्णिमा होती है। अगले दिन कार्तिक मास प्रारंभ होता है। उस कार्तिक पूर्णिमा के दिन में प्रातः काल में श्रील प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक ( प्रातः काल की सैर) पर गए । (वे कहां गए होंगें?) श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों को साथ लेकर सेवा कुंज में ही प्रातः काल की सैर पर गए। इस सेवा कुंज की क्या विशेषता है? इसका हम कुछ तो उल्लेख कर चुके हैं। इस सेवा कुंज की ख्याति यह है कि हर रात्रि को वहां रास क्रीडा संपन्न होती है। शरद पूर्णिमा की रात्रि को ही सबसे विशेष रास कीड़ा संपन्न हुई या होती रहती है। जिस दिन यह रास क्रीड़ा सम्पन्न होने वाली थी, उस प्रात:काल प्रभुपाद अपने शिष्यों को सेवा कुंज में ले कर गए। मॉर्निंग वॉक वहीं हुआ व मॉर्निंग टॉक भी वहीं हुआ। वॉक एंड टॉक। प्रभुपाद वॉक(सैर) भी करते थे और टॉक भी, वॉक(सैर) एक बहाना होता था। (स्पाइस ए वाक विथ टॉक।) जब हम प्रभुपाद से टॉक सुनते तब श्रील प्रभुपाद के साथ मॉर्निंग वॉक करना और भी मजेदार बन जाता था। प्रभुपाद उस वाकिंग के समय थोड़ा जप भी करते लेकिन अधिकतर चर्चा (टॉक) ही होती थी या कुछ प्रश्न उत्तर भी चलते थे। उस प्रातः काल को श्रील प्रभुपाद का मॉर्निंग वॉक सेवा कुंज में हुआ और दिन में श्रील प्रभुपाद ने दीक्षा दी। आपने प्रभुपाद के एक शिष्य गुरुकृपा का नाम सुना होगा? जोकि एक विशेष सेवा किया करते थे। उनका दल बाहर जाकर फंडरेजिंग करता था। गुरु कृपा प्रभु ने श्री कृष्ण बलराम मंदिर के निर्माण के लिए काफी फंडरेजिंग ( धन एकत्रित) किया । उनकी एक पूरी टीम थी जिन्होंने धन एकत्रित किया। श्रील प्रभुपाद ने उनको सन्यास दिया व अन्य भी कुछ भक्तों को दीक्षा व संन्यास दिया। मेरी प्रथम दीक्षा भी उसी दिन अन्यों के साथ हो सकती थी किंतु श्रील प्रभुपाद ने मुझे और द्रविड़ दास ब्रह्मचारी जोकि मुंबई के थे, हम दोनों को एक सेवा दी थी। हम दोनों वहां मुंबई से गए थे। वैसे तो अन्य भक्त भी गए थे। श्रील प्रभुपाद ने हम दोनों को शरद पूर्णिमा के पहले ही आगरा भेजा था। यह मैं इसलिए भी बता रहा हूं जैसे जब जीव गोस्वामी राधा दामोदर मंदिर, सेवा कुंज में थे तब उन्होंने दुखिया कृष्ण या श्यामानंद को सेवा दी थी, वैसे ही जब राधा दामोदर मंदिर में श्रील प्रभुपाद थे,उन्होंने मुझे भी सेवा दी। श्रील प्रभुपाद ने हमें आगरा भेजा। आगरा में जो अनाज की मंडी है, वहां से हमें बहुत सारा अनाज, घी, तेल, गुड इत्यादि सामग्री को इकठ्ठा करने के लिए कहा ताकि उस कार्तिक मास में जो अन्नकूट या गोवर्धन पूजा उत्सव होता है, उसे मनाया जा सके। श्रील प्रभुपाद उस विशेष अन्नकूट उत्सव को मनाना चाहते थे। उन्होंने कहा, "उसके लिए जो भी सामग्री चाहिए, तुम जाकर उसे लेकर आओ, इकठ्ठा करो।" निश्चित ही सब मुझे धाम में ही लाना था। प्रभुपाद ने मुझे और द्रविड़ प्रभु को यह सेवा दी जिसके कारण हम शरद पूर्णिमा के दिन वहां नहीं थे। इसलिए उस दिन हमारी दीक्षा नहीं हुई लेकिन जब हम वापिस लौटे, तब हम बहुत सारी साम्रगी गेहूं, चावल, सूजी, शक्कर, गुड़ इत्यादि एक टेंपो भर कर लाए।श्रील प्रभुपाद बहुत ही प्रसन्न थे। श्रील प्रभुपाद ने हमारी दीक्षा भी बहुलाष्टमी के दिन ही कर दी। बहुलाष्टमी जो राधा कुंड का प्राकट्य के दिन होता है, उस दिन श्रील प्रभुपाद ने उसी राधा दामोदर मंदिर में हमें दीक्षा दी। हरि! हरि! जिस सेवा कुंज में ललिता ने दुखिया कृष्ण को मंत्र भी दिया था, तिलक भी दिया था अर्थात उनके ललाट पर तिलक धारण किया था और नाम भी दिया था कि तुम्हारा नाम श्यामानंद। मैं सोच रहा था कि उसी सेवाकुंज में राधा कुंड के प्राकट्य के दिन राधा दामोदर मंदिर के बगल वाले आंगन (कोर्टयार्ड) में जिसमें 64 समाधियां बनी हुई है, हमें दीक्षा दी। राधा दामोदर मंदिर में 64 अलग अलग गौड़ीय आचार्यों की समाधियां है। मुख्य रूप से श्रील रूप गोस्वामी की समाधि है। जीव गोस्वामी की भी समाधि है। रूप गोस्वामी का भजन कुटीर भी है। वहां राधा दामोदर विद्यमान ही हैं। उस समय दामोदर मास था और मंदिर में राधा दामोदर के विग्रह हैं ही, साथ ही साथ उसी मंदिर में गोवर्धन शिला भी है। भगवान ने सनातन गोस्वामी को गोवर्धन शिला दी थी। सनातन गोस्वामी, वृद्धा अवस्था में भी अपनी साधना को नहीं छोड़ रहे थे। सनातन गोस्वामी प्रतिदिन पूरे गोवर्धन की परिक्रमा किया करते थे। भगवान को दया आ गई। भगवान ने दर्शन दिया और शिला भी दे दी और कहा कि सनातन यह शिला ले लो। गोवर्धन शिला ले लो। बस इसी शिला का ही परिक्रमा किया करो। पूरे गोवर्धन की परिक्रमा का फल तुम्हें इस शिला की परिक्रमा करने से होगा। हरि! हरि! वह शिला राधा दामोदर मंदिर में थी और है भी। मैं यह सब बता रहा हूं। इसे सेवा कुंज का महिमा कहो या फिर सेवा कुंज में जो राधा दामोदर मंदिर है, उसकी महिमा कहो या फिर श्रील प्रभुपाद की महिमा और कार्तिक मास की महिमा या 64 आचार्यों अर्थात वहां जो पूर्व आचार्यों की समाधियां है, उनकी महिमा कहो। यह राधा कुंड के प्राकट्य की भी महिमा है। ऐसे कई सारे स्थानों या लीलाओं से यह युक्त स्थान, दिवस अथवा वर्ष था। मैं समझता हूं कि यह मेरा भाग्य भी है। श्रील प्रभुपाद ने उसी सेवा कुंज में मुझे भी सेवा दी। "जाओ! गोवर्धन पूजा के लिए सामग्री लेकर आओ"। मैनें अन्य भी सेवाएं की। "श्रील प्रभुपाद के लिए जलेबी लेकर आओ।" श्रील प्रभुपाद के जो कुक (रसोइया) अर्थात यमुना माता व जो अन्य रसोइया थे, वे कई सारे पकवान और मिष्ठान बनाते थे किंतु वे जलेबी नहीं बना सकते थे। इसी सेवा कुंज में वृंदावन में ही एक मार्केट है जिसका नाम लोई बाजार है। उस लोई बाजार में श्रील प्रभुपाद के जमाने में एक प्रसिद्ध जलेबी वाला था, वहां की जलेबी श्रील प्रभुपाद पसंद करते थे। मुझे भेजा जाता था कि प्रभुपाद के लिए जलेबी लेकर आओ। मैं श्रील प्रभुपाद के लिए गरमा गरम जलेबी लेकर आता था। इस प्रकार सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ। इसे पर्सनल सर्विस या पर्सनल इंस्ट्रक्शन कहा जाए, उन दिनों में श्रील प्रभुपाद हमें कीर्तन के लिए भेजा करते थे कि जाओ, कार्तिक मास में वृंदावन में कीर्तन करो। वह कीर्तन पंचकोशी वृंदावन में होता था। श्रील प्रभुपाद ने हमें राधा दामोदर मंदिर से कृष्ण बलराम मंदिर तक कीर्तन करते हुए जाने के लिए कहा। अच्युतानंद स्वामी और कई सारे वरिष्ठ स्वामी व भक्तगण थे। हम सब मिलकर प्रभुपाद के आदेशानुसार कीर्तन करते हुए पंचकोशी वृन्दावन परिक्रमा मार्ग की उल्टी दिशा में जाते थे। राधा मदन मोहन से हम भक्ति वेदांत गौशाला जहां अब है, वहां जाते थे। रास्ते में कालिया दाह आदि पर भी जाते थे। उस समय भक्ति वेदांत गौशाला तब वहां नही हुआ करती थी। हम छोटी छोटी गलियों में से होते हुए रमन रेती पर कृष्ण बलराम मंदिर की भूमि तक जाते। उन दिनों अथवा सन 1972 में वहां मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हो ही रहा था। फाउंडेशन के लिए खुदाई हो रही थी। जहां पर कोर्टयार्ड( आंगन) बनना था, वहां एक वृक्ष था जो आज भी है। तमाल वृक्ष। प्रभुपाद जब डिजाइनर अथवा आर्किटेक्ट को निर्देश दे रहे थे तब वे अपना दृष्टिकोण अथवा अपना विजन शेयर कर रहे थे। उन्होंने कहा था कि इस पेड़ को हाथ नहीं लगाना। इस पेड़ को सुरक्षित रखना है। इसलिए उस वृक्ष को सुरक्षित रखने के लिए वहाँ आंगन बना। अभी जो वृक्ष है। यह दूसरा या तीसरा वृक्ष है। 1972 में जब हम तमाल वृक्ष के पास खड़े होते, तब वह 5 फीट कुछ इंच का था अर्थात इतने ही कदवाला वह वृक्ष था। हम सब वहां तक कीर्तन करते हुए जाते। वहां रमणरेती है, जहां पर कृष्ण (राधा रमण) राधा के साथ रमे रहते हैं या कृष्ण बलराम का रमण करते हैं । वहां गोचारण भूमि भी है, जहां कृष्ण अपने मित्रों के साथ गोचारण किया करते हैं। वहां गोचारण लीला भी है ।गायों के साथ कृष्ण वहां रमते हैं। जब उस कृष्ण बलराम मंदिर में राधा श्यामसुंदर मंदिर की स्थापना हुई, तब श्रील प्रभुपाद यह दर्शाना चाहते थे कि इसी रमणरेती में राधा श्याम सुंदर की लीला संपन्न होती रहती है। जब इसी रमण रेती में कृष्ण बलराम की प्राण प्रतिष्ठा हुई, तब कृष्ण बलराम के विग्रह के बगल में एक गाय व बछड़ा भी रखा गया। बछड़े के गले में जो डोरी है, कृष्ण ने उस डोरी को पकड़ा हुआ है और बलराम ने गाय की डोरी को पकड़ा हुआ है। प्रभुपाद दिखा रहे हैं कि यह सारी लीला वहां होती रहती है।उन्होंने उस लीला को इस विग्रह के रूप में प्रकट करवाया। हमें याद है कि रमणरेती में पहुंचकर हम उस रमणरेती को प्रणाम करते या उस रेती को ही साक्षात दंडवत प्रणाम भी करते या हम कभी कभी उस रेती में लोट भी लेते थे। कभी-कभी हम एक दूसरे के ऊपर रेती फेंक भी देते , जिससे हमारा अभिषेक भी उस रेती से हो जाता। क्या कहना, श्रील प्रभुपाद के कृपा से हमें भी ऐसा भाग्य प्राप्त हुआ। हरि! हरि! तत्पश्चात हम कीर्तन करते हुए वापिस राधा दामोदर मंदिर लौट आते। इस तरह हम प्रभुपाद का सङ्ग और प्रभुपाद की सेवा या कई प्रकार की सेवा या श्रवण की सेवा करते। श्रवण की सेवा तो मुख्य सेवा है। श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ ( श्रीमद् भागवतं 7.5.23-24) अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है । श्रवणं कीर्तनं .. अर्थात नवधा भक्ति। भक्ति मतलब सेवा जिसे डिवोशनल सर्विस भी कहते हैं। श्रवण सेवा है, जैसे आप अभी सेवा कर रहे हो। आप निष्क्रिय नहीं हो, आप बेकार नहीं बैठे हो, आप सेवा कर रहे हो। श्रवण करना एक सेवा है, बहुत बड़ी सेवा है या प्रथम सेवा है। श्रवण सर्वोपरि सेवा है। श्रील प्रभुपाद ने हम शिष्यों को पूरे कार्तिक मास में कीर्तन करवाया। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। यह गाना भी कीर्तन हुआ। जय राधा माधव कुंज बिहारी यह भी कीर्तन है। है या नहीं? श्रील प्रभुपाद, यह कीर्तन किए बिना तो आगे कथा किया ही नहीं करते थे। वे पहले यह कीर्तन सुनाया करते थे। पूरे महीने भर प्रातः काल में भागवत की कक्षा होती थी। नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।। ( श्रीमद् भगवातम १.२.१८) अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से ह्रदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है। राधा दामोदर मंदिर में श्रील रूप गोस्वामी की समाधि, रूप गोस्वामी का भजन कुटीर आमने सामने ही है। हम लोग उसके बीच में बैठा करते थे। वहां पर कुछ तमाल वृक्ष भी थे। हम उसकी छत्रछाया में बैठा करते थे, वह वृक्ष तो कल्पवृक्ष है। दीव्यद्वन्दारण्य-कल्प-द्रुमाधः-श्रीमद्लरतनागर-सिंहासनस्थौ श्रीमद्राधा-श्रील-गोविन्द-देवी प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ स्मरामि । ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.16) अनुवाद: श्री श्री राधा-गोविन्द वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों के मन्दिर में तेजोमय सिंहासन के ऊपर विराजमान होकर अपने सर्वाधिक अन्तरंग पार्षदों द्वारा सेवित होते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ। श्रील प्रभुपाद हम सभी को उसके नीचे ही भागवत अमृत व सांय काल को भक्तिरसामृतसिंधु का पान कराते थे। श्रील प्रभुपाद ने पहले ही योजना बनाई थी कि जब मैं 1972 के कार्तिक मास में राधा दामोदर मंदिर में जाऊंगा , मैं भक्तिरसामृतसिंधु सुनाऊंगा। (प्रद्युम्न जो प्रभुपाद के सेक्टरी ( निजी सहायक) थे, प्रभुपाद ने उनसे पहले ही कह दिया था।) उस समय भक्तिरसामृतसिंधु किताब छप चुकी थी या उसका मैनुस्क्रिप्ट तैयार था। मुझे भी पूरा याद नहीं है। इस्कॉन के भक्तों के लिए भक्तिरसामृतसिंधु नया ग्रंथ भी था। श्रील प्रभुपाद, यह रूप गोस्वामी का ग्रंथ, राधा दामोदर मंदिर के आंगन में रूप गोस्वामी की समाधि व भजन कुटीर के पास में उसी स्थान पर जहां सभी षड गोस्वामी वृंद इकट्ठा हुआ करते थे अर्थात जहां उनकी सभा में शास्त्रार्थ हुआ करता था। नाना - शास्त्र - विचारणैक - निपुणौ सद् - धर्म संस्थापकौ लोकानां हित - कारिणौ त्रि - भुवने मान्यौ शरण्याकरौ राधा - कृष्ण - पदारविंद - भजनानंदेन मत्तालिकौ वंदे रूप - सनातनौ रघु - युगौ श्री - जीव - गोपालकौ।। (श्री श्री षड् गोस्वामी अष्टक) अनुवाद : - मै , श्रीरुप सनातन आदि उन छ : गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की , जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे , भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे , जनमात्र के परम हितैषी थे , तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे , एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे । अर्थात सभी छह गोस्वामी , एक ही समय पर एक स्थान पर इकट्ठे होकर शास्त्रों पर चर्चा, विचार विमर्श किया करते थे। मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ( श्रीमद् भगवतगीता १०.९) अनुवाद: मेंरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | या ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति। भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीति- लक्षणम्।। ( श्री उपदेशामृत श्लोक 4) अनुवाद: दान में उपहार देना, दान स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं। श्रील प्रभुपाद उसी स्थान पर बैठकर हम शिष्यों को प्रतिदिन यह भागवत कथा सुनाया करते थे। सांय काल को भक्तिरसामृतसिंधु सुनाया करते थे। मुझे याद है कि प्रद्युम्न प्रभु या कोई अन्य भक्त उस नेक्टर आफ डिवोशन को पढ़ता और श्रील प्रभुपाद उस पढ़ने वाले को बीच-बीच में रोक कर अपने कमेंट अथवा टीका टिप्पणी करके उसका अर्थ समझाते । श्रील रूप गोस्वामी का जो भक्तिरसामृतसिंधु नामक ग्रंथ है, श्रील प्रभुपाद ने उसका अनुवाद अथवा सारांश रूप में लिखा है। जैसे श्रील प्रभुपाद का श्रीकृष्ण नामक ग्रंथ है, वह यह श्रीमद्भागवतम् के दसवें स्कंध का सारांश है। भागवतम् के दसवें स्कंध में 90 अध्याय हैं, श्रील प्रभुपाद ने श्रीकृष्ण ग्रंथ में भी एक एक अध्याय को सारांश रूप में लिखा है। श्रील प्रभुपाद ने उसी प्रकार से भक्तिरसामृतसिंधु की रचना भी की है। इस प्रकार प्रभुपाद ने भक्तिरसामृतसिंधु का जो अनुवाद व संक्षिप्तीकरण किया था, एक शिष्य उसको पढ़ता और श्रील प्रभुपाद उसको कमेंट देते। कहने का आशय यह है कि हम सब भी वह सेवा कर ही रहे थे। श्रवण कीर्तन और फिर स्मरण भी सेवा ही है। श्रवण कीर्तन किया लेकिन स्मरण नहीं हुआ तो वह कैसा श्रवण कीर्तन है जो हमें विष्णु अथवा कृष्ण का स्मरण नहीं दिलाएगा। श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्।। श्रवण कीर्तन हो रहा है। विष्णोः श्रवणं, विष्णोः कीर्तनं, विष्णोः स्मरणं, विष्णोः पादसेवनम्, विष्णोः अर्चनं.... यह विष्णु का सृष्टि रूप हुआ। जैसे भानु का भानौ हुआ। भानु अर्थात सूर्य, सूर्य का कहना है भानो। नवधा भक्ति मतलब कृष्ण की नौ प्रकार की सेवा। श्रवण कीर्तन का फल है श्रुति, हम ऐसा संस्मरण भी जितना भी कर पा रहे थे। वह भी सेवा है। हमें श्रील प्रभुपाद के सानिध्य में उस कार्तिक मास में करने का अवसर भी श्रील प्रभुपाद ने ही दिया। यदि प्रभुपाद ना होयते तो कि होयता। जय पताका स्वामी महाराज ने ऐसा एक गीत भी लिखा है। अगर श्रील प्रभुपाद नहीं होते, बहुत कुछ नहीं होता या कुछ भी नहीं होता । निश्चित ही हम आज 1972 के कार्तिक मास की यह सारी बातें आपसे नहीं कहते। हम भी नहीं होते या होते तो हम लोकनाथ स्वामी नहीं होते अथवा और कुछ हुए होते और आप भी होते किंतु आज मेरे समक्ष या मेरी सारी बातें सुनने के लिए मेरे साथ नहीं होते। हरि! हरि! श्रील प्रभुपाद की जय! कार्तिक महोत्सव की जय! शरद पूर्णिमा की जय! गोवर्धन पूजा की जय! राधा दामोदर की जय! जीव गोस्वामी की जय! श्रील प्रभुपाद की जय! श्यामानंद प्रभु की जय! वृन्दावन धाम की जय! श्री गौर निताई की जय! श्री कृष्ण बलराम की जय! श्री राधा श्याम सुंदर की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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