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*जप चर्चा* *24 दिसंबर 2021* *सोलापुर से* श्रीमद्भगवद्गीता चतुश्लोकी भगवदगीता श्लोक पहला 10.8 यह जप चर्चा करने का समय है। 1036 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं। ओम नमो भगवते वासुदेवाय। इन दिनों में हम गीता पढ़ रहे हैं या गीता को याद कर रहे हैं। और वही गीता हमें कृष्ण की याद दिलाती है। क्यों नहीं? गीता ही है कृष्ण। उस गीता का संस्मरण कृष्ण का ही स्मरण है। वैसे चतुर श्लोकी भागवत है। भागवत के चार श्लोक जिसको चतुर श्लोकी भागवत कहते हैं। तो चतुर श्लोकी भागवदगीता भी है। भगवद गीता के भी चार श्लोक विशेष है। और वे हैं दसवें अध्याय का आठवां, नववा, दसवां और ग्यारहवा श्लोक। परिभाषित सूत्र यह वही कल्पना है। कुछ शास्त्रों के आधारभुत श्लोक है यह। उनको परिभाषित सूत्र कहते हैं। वह सारा ग्रंथ सूत्र रूप में कुछ ही श्लोकों में इसका जो मर्म है वह समझाया जाता है। एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् यह भागवत का परिभाषित सूत्र है, श्लोक है। तो वैसे यह चार श्लोक हैं दसवें अध्याय के। तो हल्का सा हम संस्मरण करते हैं उन श्लोकों का। ( गुरु महाराज झुम पर एक भक्त से कह रहे हैं) हां राम चरण सुनो, कृष्ण को सुनो। मैं तो कृष्ण की ओर से ही बोल रहा हूं। हरि हरि। आपके पास गीता है तो आप खोल सकते हो। कुछ भक्त भगवदगीता खोल कर बैठे हैं। इतने में कोई श्लोक को स्क्रीन पर दिखा रहे हैं, हमारे ट्रांसलेशन टीम से। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥ श्रील प्रभुपाद इस श्लोक को भी बारंबार कोट किया करते थे। अहं सर्वस्य प्रभवो श्री कृष्ण बहुत कुछ यहां कह रहे हैं कह गए हैं। अहं सर्वस्य प्रभवो मैं सभी को प्रभावित करता हूं या मैं सभी का स्रोत है। मैं कौन हूं? अपना परिचय भी दे रहे हैं। आप कौन हो? आप कैसे हो? ऐसा कोई प्रश्न भगवान से पूछे, तो भगवान श्रीकृष्ण उत्तर दे रहे हैं। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते तो यह सुनेंगे और समझेंगे फिर हम कृष्ण भावना भावित होंगे। हमकों साक्षात्कार होगा, भगवत साक्षात्कार। कृष्ण रिलाइजेशन, इसको दुनिया तो गॉड रिलाइजेशन कहती है। लेकिन हम क्यों कहेंगे गॉड रिलाइजेशन क्योंकि हम उस गॉड का नाम जानते हैं। हरि हरि। उनको गॉड गॉड ही कहना है लेकिन कृष्ण नहीं कहना है, तो आप कृष्णा भावना भावित नहीं हो। कुछ अभाव है। उस भगवान का नाम भी नहीं जानते फिर क्या जानते हो? कैसा है साक्षात्कार तुम्हारा? उनके नाम को नहीं जानते, रूप को नहीं जानते, गुणों को नहीं जानते, लीलाओं को नहीं सुने समझे हो, उनके धाम का कभी दर्शन नहीं किए हो। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इति मत्वा ऐसा जो मानता है, समझता है, ऐसा समझकर, ऐसा जानकर जो इति मत्वा भजन्ते मां ऐसा मानकर जो भजन करता है, मेरी आराधना करता है, सोच समझ कर। बुधा भावसमन्विता: जो व्यक्ति बुद्धिमान है वह मेरी प्रेमा भक्ति में लगते हैं, तथा ह्रदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं। श्रील प्रभुपाद अनुवाद कर रहे हैं भावसमन्विता: वह मेरा भजन करेंगे भावों के साथ। भक्ति युक्त, कृष्णा भावनाभावित हो जाएंगे। जब वे समझेंगे अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इति इतना कोई जानेगा, इति मतलब इतना इति का अर्थ होता है इतना। ज्यादा तो नहीं कहा कुछ दो ही बातें कहीं अहं सर्वस्य प्रभवो, मत्त: सर्वं प्रवर्तते। दूसरे शब्दों में कृष्ण अहम और मम की बात कर रहे हैं। हम भी करते रहते हैं अहं मम, अहं मम, अहं मम, मैं मेरा मैं मेरा मैं मेरा, तू तेरा तू तेरा। लेकिन हम जब अहम मम की बात करते हैं तो हमारा माया से मोहित संभ्रमित होकर हम अहम और मम की बात करते हैं। तो उस झूठे अहम अहंकार और ममता ममत्त्व उस से मुक्त होने के लिए क्या करना पड़ेगा? अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इसको समझना होगा, मतलब कृष्ण को समझना होगा। हरि हरि । जब कृष्ण अहम कहते हैं वह झूठा अहम नहीं है। कृष्ण तो बस सीधी बात कह रहे हैं अहम मैं, मैं हू। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते जो भी है मेरा ही है। इशावास्यं इदं सर्वं यत् किन्च जगत्याम जगत। और फिर कृष्ण के संबंध में हम कौन हैं। हम जो अहम अहम कहते रहते हैं वह अहम छोड़ के मैं, मैं भारतीय हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं। यह सारी उपाधियां, सारी दुनिया भर की उपाधियां यह तो अहम हैं। मैं बीमार हूं यह तो और उपाधि हो गई कुछ दिन के लिए। हा फिर बीमारिया तो हजार प्रकार की बीमारियां है, तो मैं हूं लेकिन कैसा हूं कैंसर पेशेंट हूं। तो इस तरह हमारा अहम ऐसा है। लेकिन ऐसा जो अहम है अब है तो शाम तक नहीं है। मैं ठीक हो गया, मैं ठीक हो गया, मैं स्वस्थ हूं। अरे अभी अभी तो कह रहे थे मैं बीमार हूं अपनी पहचान दे रहे थे, अब ठीक हो गए। हमारा जो अहम था ज्यादा समय के लिए टिकता नहीं है। तो फिर कृष्णा कहेंगे ममैवांशो जीव लोके जीव भुतः सनातनः अरे अरे है जीव एक तो जीव जागो और समझो मम एवं अंश तुम कौन हो? मेरे अंश हो, तुम मेरे अंश हो। हां हां समझा मैं, मैं आपका अंश हू या फिर अहं दासौस्मि अहं कृष्ण दासः अस्मि। ऐसा किसी ने कहा मैं कृष्णदास हूं यह पहचान शाश्वत है। इसमें कोई कभी परिवर्तन होने वाला नहीं है। भ्रम के कारण हम कुछ बीच में बोलते रहेंगे ऐसे भी अभी बोल रहे हैं, मैं यह हूं वह हूं। लेकिन हम जब कृष्णभावना भावित होंगे या फिर समझेंगे भी अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इति मत्वा भजन्ते मां ऐसा जानकर, यह भगवद्गीता सुनकर, समझ कर कुछ समय के उपरांत हमारा यह जो झूठा अहम है समाप्त हो जाएगा। झूठे अहम से मुक्त हो गया। झूठे ममता से भी मुक्त हो गया। मेरा अहम और मम नहीं रहा। हरि हरि, तो यहां कृष्ण कह रहे हैं पहले समझो। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ जिसको तुम मेरा मेरा कह रहे हो तुम्हारा थोड़ी ही है। भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। यह तो मेरी प्रकृति है। पृथ्वी है। मिट्टी है या सीमेंट है ईट है पानी है यह तो मेरा है। मेरी शक्ति है। बहिरंगा स शक्ति हैं और उसको हड़प लिया कहीं से लाया। खान से या यहां से या पहाड़ से या और कह रहे हो, यह मेरा है। तुम्हें सुना नहीं मुझे भगवदगीता में क्या कहा मैंने अर्जुन को। भूमिरापोऽनलो वायुः मेरी शक्ति है मेरी शक्ति है। हड़प रहे हो सावधान। अहम सर्वस्य प्रभवो एक अहम है और एक मत्तः। अहम सर्वस्य प्रभवो भगवान है। भगवान का अपना, भगवान है इसीलिए भगवान कह रहे हैं। अहम कृष्ण कह रहे हैं। अहम अहम वह क्या है, अहम अभी यह दो चार श्लोक अर्जुन सुनेंगे, तो अर्जुन कहने वाले हैं। परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ यहां 12 श्लोक में, हमने आठवा श्लोक शुरू किया है। चतुश्लोकी में से आठवां श्लोक, यहां दसवें अध्याय का यह चार श्लोक जब सुनेंगे तो पहले की बातें सुनी हुई हैं, इस अध्याय में। दसवें अध्याय को विभूति योग भी कहा गया है। विभूति योग कहते हैं। वैसे सभी अध्याय योग योग कहलाते हैं। यह योग वह योग कुछ इस तरह। इस अध्याय का नाम है विभूति योग। भगवान अपने विभूतियों का उल्लेख करने वाले हैं। स्थावराणां हिमालयः भगवान कहने वाले हैं। और सभी नदियों में पवित्र नदी गंगा में हूं कहने वाले हैं। मासानाम मार्गशीर्ष अहम ऐसा कहने वाले हैं। सारी महीनों में मार्गशीष महीना में हूं ऐसा कहने वाले हैं। रूद्रो में शंकर में हूं ऐसा कहने वाले हैं। काफी लंबी सूची है। हे तो बहुत सारी असंख्य बातें हैं लेकिन उसमें से कुछ बातों का उल्लेख कृष्ण करते हैं और कहते हैं। यह मैं हूं यह मैं हूं ऋतु में वसंत ऋतु है। कुसुमाकरः उसमें कई सारे पुष्प खिलते हैं, इस महीने में वह महीना में हूं। यह सब कृष्ण है। कृष्ण का प्रभाव है। कृष्ण है। कृष्ण से अभिन्न है। अहम और मत्त यहां मैं हूं। और मत्तः मुझसे सब उत्पन्न है, होता है। फिर खत्म तीसरी बात अस्तित्व में है ही नहीं। इसी को दूसरे शब्दों में कह सकते हैं, इस संसार में अस्तित्व है उसमें दो बातें हैं। एक कृष्ण है और दूसरी है कृष्ण की शक्ति और तीसरी कोई बात है ही नहीं। जिसको भी हो और आप उंगली दिखाओगे दोनों में से एक होगा या तो वहां कृष्ण होंगे या कृष्ण की शक्ति होगी। वैसे हमारा शरीर भी लीजिए, हमारा शरीर वैसे दो प्रकार की शक्तियां ही है। दो प्रकार की शक्तियों से यह शरीर फिर कहना कठिन हो जाता है। एक तो अंतरंगा शक्ति, ठीक है वह भी नहीं बोलेंगे। यह जो पृथ्वी वायु तेज आकाश उसको कृष्ण ने कहा है। भिन्ना प्रकृतिरष्टधा यह पंचमहाभूत है। जिसका यह स्थूल शरीर बना हुआ है। यह भी भगवान की शक्ति है। फिर मन बुद्धि अहंकार यह अंतःकरण सूक्ष्म शरीर हुआ। यह सब भगवान ने कहा है मेरी शक्ति है। सूक्ष्म शरीर भगवान की शक्ति है। अंतकरण भगवान का सूक्ष्म शक्ति है। और फिर बच गया आत्मा जो इस शरीर को घर बना लिया। देह बना लिया। नवद्वारे पुरे देही नवा द्वार नो दरवाजे हैं नव द्वार का बना हुआ, यह घर इसमें आत्मा रहता है या बंद है। उसको इस शरीर रूपी कारागार में रखा है। और शरीर तो फिर यातना इसको यातनारूपी शरीर भी कहा है। वैसे हमारे मन और यातना परेशान करता है। हमारा शरीर भगवान की शक्ति है और हमारी आत्मा भी भगवान की शक्ति है। जैसे 8400000 योनियों हैं। उन सभी योनियों का यही हाल है। उनका शरीर है। एक एक योनी है मतलब एक एक प्रकार का शरीर है। और सारे के सारे शरीर भगवान के पृथ्वी आप जल वायू अलग-अलग प्रकार के मिश्रण से ही बन जाता है। शरीर और उन सभीयो में आत्मा होती है। इस प्रकार पूरा समझाया तो नहीं है लेकिन अभी समझाने के लिए समय भी कहा है। इतने में समझ जाओ कि इस प्रकार संसार में जो भी है कृष्ण का है। या तो अहम सर्वस्य प्रभावो है एक अहम प्रभावित करता है अहम सर्वस्य प्रभावो और मतलब सर्व मुझसे जो भी उत्पन्न होता है मतलब कि मैं हूं। और मेरा है। कृष्ण का अहम कृष्ण का मम इसी से बना होता है। भगवान की अंतरंग शक्ति हैं। भगवान के बहिरंगा शक्ति हैं। दोनों भी शक्ति दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । कहे कि नहीं कृष्ण। मम माया किसकी माया मम माया। माया हमारी नहीं है। कृष्ण की माया है। वही उसके मालिक हैं। और हमारे आत्मा के मालिक भी कृष्ण है। और शरीर के भी मालिक कृष्ण हैं। अहम सर्वस्य प्रभावो मत्तः सर्व प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।। समझ तो इतना ही जाना है। इति मतलब इति मत्वा इतना इसको मानकर इति मत्वा भजन्ते जो भजन करते हैं। यह तत्वज्ञान हैं। तत्वज्ञान समझ लिया फिर धर्म की ओर मुड़ते हैं या धार्मिक बनते हैं। धार्मिक कृत्य करते हैं। ऐसा ही करना चाहिए। पहले समझना चाहिए। जितना समझ आया उतना करना चाहिए यह नहीं की पहले सब समझ लेते हैं बाद में शुरुआत करते हैं। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः तो फिर ऐसे समझा हुआ व्यक्ति क्या करेगा बुधा भाव समन्विता वह बुद्धिमान या ज्ञानवान बनेगा। यह समझेगा इन बातों को। तो फिर उसकी जो भक्ति है बुधा भाव समन्विता वह बड़े ध्यानपूर्वक भजन करेगा। भाषांतर में तो श्रील प्रभुपाद ने कहा है, पूरे ह्रदय से मेरा भजन करेगा। ठीक है, हम यहां पर रुकेंगे। कल आगे बढ़ते हैं। मैंने सोचा था चार लोग समझाएंगे आज। गीता जयंती महोत्सव की जय! इसका वितरण करना है प्रचार प्रसार करना है गीता वितरण के साथ। हरे कृष्ण, हरि बोल।

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