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जप चर्चा 28 अक्टूबर 2020 हरे कृष्ण! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 782 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरि! हरि! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! जे आनिल प्रेमधन करुणा प्रचुर। हेन प्रभु कोथा गेला अचार्य ठाकुर॥1॥ काँहा मोर स्वरूप-रूप, काँहा सनातन? काँहा दास-रघुनाथ पतितपावन?॥2॥ काँहा मोर भट्टयुग, काँहा कविराज? एक काले कोथा गेला गोरा नटराज?॥3॥ पाषाणे कुटिबो माथा, अनले पशिब। गौरांङ्ग गुणेर निधि कोथा गेले पाब?॥4॥ से सब संगीर संगे जे कैल विलास। से संग ना पाइया कान्दे नरोत्तमदास॥5॥ अर्थ (1) अहो! जो अप्राकृत प्रेम का धन लेकर आये थे तथा जो करुणा के भंडार थे ऐसे आचार्य ठाकुर (श्रीनिवासआचार्य) कहाँ चले गये? (2) मेरे श्रील स्वरूप दामोदर, श्रीरूप-सनातन तथा पतितों को पावन करनेवाले श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी कहाँ हैं। (3) मेरे रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, गोपाल भट्ट गोस्वामी, कृष्णदास कविराज गोस्वामी तथा महान नर्तक श्री चैतन्य महाप्रभु, ये सब एक साथ कहाँ चले गये? (4) मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इन सबका वियोग मैं कैसे सहूँ? मैं अपना सिर पत्थर से पटक दूँ या आग में प्रवेश कर जाऊँ! गुणों के भण्डार श्री गौरांग महाप्रभु को मैं कहाँ पाऊँगा? (5) इन सब संगियों के साथ गौरांगमहाप्रभु ने लीलाएँ की, उनका संग न पाकर श्रील नरोत्तमदास केवल विलाप कर रहे हैं। हम, श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के 'भगवत विरह पार्षद' नामक गीत को गाया करते हैं। हम इस गीत को तब गाते हैं जब हम किसी वैष्णव की तिरोभाव तिथि महोत्सव को मनाते हैं। हरि! हरि! श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का वैष्णव के प्रति अत्याधिक स्नेह रहा है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के वृंदावन पहुंचने से पहले ही कई सारे आचार्यों, चैतन्य महाप्रभु के पार्षदों व परिकरों का तिरोभाव हुआ अथवा वे पुनः राधा कृष्ण की नित्य लीला में प्रविष्ट हुए। तब श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने अपने विरह की व्यथा को इस गीत "जे आनिल प्रेमधन" में व्यक्त किया। जो प्रेम धन को लाए थे अथवा जो करुणा से भरपूर व प्रचूर थे अर्थात करुणा की मूर्ति थे। 'कोथा गेला' अर्थात वे अचानक कहां गए, पाषाणे कुटिबो माथा, अनले पशिब। मैं पाषाण पर सिर पटकूँगा या मैं आग में प्रवेश कर लूंगा। मैं उनके बिना जी नहीं सकता। हरि! हरि! ऐसी समझ श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की है। वे आचार्यों को ऐसा समझते हैं। उनका आचार्यों के प्रति अत्याधिक प्रेम था। वे आचार्यों को समझते थे इसीलिए उनका आचार्यों से प्रेम अथवा स्नेह भी था। हरि! हरि! आज के दिन हम हमारे कुछ पूर्व आचार्यों का तिरोभाव तिथि महोत्सव मना रहे हैं या गौड़ीय वैष्णव जगत मना रहा है। आज श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी का तिरोभाव तिथि महोत्सव है। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! रघुनाथ दास गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! रघुनाथ भट्ट गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! आज तीन आचार्यों का तिरोभाव तिथि महोत्सव है। उनकी समाधि राधा कुंड पर है। आप कभी गए होंगे? हम तो जाते ही रहते हैं। वहां राधा कुंड के तट पर इन तीन आचार्यों की एक ही स्थान पर समाधि है। वैसे तिरोभाव तो एक ही दिन हुआ लेकिन वे दिन अलग अलग महीने या अलग-अलग वर्ष हैं। वह एक ही दिन नहीं है। तिथि के हिसाब से एक ही तिथि है किंतु वे अलग-अलग समय है। हरि! हरि! अब हम गौड़ीय वैष्णव बन रहे हैं। हमारे भाग्य का उदय हुआ है। भगवान ने हमें भाग्यवान बनाया है। ब्रह्मांड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति लता बीज।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१) अनुवाद:- सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्मांड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह मंडलों को। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है। हमें ऐसे गुरुजन अथवा आचार्य गण प्राप्त हैं। आचार्यवान् पुरुषो वेदा ( छान्दोग्य उपनिषद ६.१४.२) अनुवाद:- जो मनुष्य आचार्यों की गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण करता है, वह वस्तुओं को असली रुप में जान पाता है। अब हम आचार्यवान बन चुके हैं। ये हमारे पूर्व आचार्य हैं। गौड़ीय वैष्णव आचार्य, हमारे आचार्य हैं। जब हम उनको अपने जीवन में स्वीकार करते हैं तब हम आचार्यवान बनते हैं। आचार्यवान बनकर ही 'आचार्यवान् पुरुषो वेदा' बनते हैं। तत्पश्चात हम जानकार बनते हैं, हम ज्ञानवान बनते हैं या फिर हम भक्तिवान भी हो जाते हैं अर्थात आचार्यों को अपने जीवन में स्वीकार करने से हम भक्ति से युक्त अथवा संपन्न हो जाते हैं व समृद्ध हो जाते हैं। वैसे हर जन्म में माता पिता तो मिलते हैं लेकिन कुछ ही जन्म में या किसी एक जन्म में हमें गुरु मिलते हैं या आचार्य मिलते हैं। हरि! हरि! जब तक हमें गुरु या आचार्य नहीं मिलते तब तक हम इस घराने के हैं या इस परिवार या वंश के हैं। हम मराठा परिवार से हैं या हम पाटिल घराने के हैं। या हम यह है, हम वह है। हम ऐसा रोबाब दिखाते ही रहते हैं। यह चलता ही रहता है। कुंती महारानी कहती हैं कि जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमानः। नैवार्हत्याभिधातुं वै त्वाम् किञ्चनगोचरम् । । ( श्रीमद् भागवतम १.८.२६) अनुवाद:- हे प्रभु, आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा, जो भौतिक दॄष्टि से अकिंचन हैं। जो सम्मानित कुल, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुंच पाता। हमें अहंकार होता है (अभी तो नहीं बताएंगे।) हम ऐसे ऐसे घराने व परिवार में जन्मे हैं। या हो सकता है कि मेरा जन्म अमेरिका या चाइना में हुआ है। जन्म ऐश्वर्या.. लेकिन यह सारे जन्म इस कलियुग में 'कलौ शुद्रसम्भव:' ( स्कन्द पुराण) अर्थ:- कलियुग में जन्मजात सभी शुद्र हैं। किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा आभीरशुम्भा यवनाः खसादयः। येअनये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः।। (श्रीमद् भागवतं २.४.१८) अनुवाद:- किरात, हूण, आंध्र, पुलिन्द, पुल्कश, आभीर, शुम्भ, यवन, खस आदि जातियों के सदस्य तथा पाप कर्मों में लिप्त रहने वाले लोग अन्य लोग परम् शक्तिशाली भगवान् के भक्तों की शरण ग्रहण करके शुद्ध हो सकते हैं। मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ। हम परिवार में जन्मे होते हैं और फिर अचानक भगवान की अहेतु की कृपा से छप्पर फाड़ के कहा जाए कि हम पर भगवान कृपा करते हैं अथवा कृपा की वृष्टि करते हैं। तब जब हम पर कृपा की दृष्टि की वृष्टि होती है अर्थात हम पर आचार्यों की कृपा की दृष्टि की वृष्टि होती है, तत्पश्चात ही हमारा भाग्य खुलता है। हमारे भाग्य का उदय होता है। हमारे भाग्य का उदय करने वाले श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के पार्षद या परिकर या आचार्यगण कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी भी रहे हैं। अब हमारा गौड़ीय संप्रदाय बन चुका है। इन्होंने भी हमारे संप्रदाय को समृद्ध बनाया है। उन्होंने अपने चरित्र से और अपने गुणों से इस परंपरा को भी गुण संपन्न बनाया है। संक्षिप्त में हम इन तीनों के संबंध में कुछ कहना भी चाहेंगे। कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज का जन्म बंगाल में हुआ। वे बचपन से ही अपने वैराग्य के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें संसार में रुचि नहीं थी। उन्होंने अपनी पैतृक संपत्ति को भी परिवार के सदस्यों को दे दिया अथवा बांट दिया। वे मुक्त ही थे। एक रात्रि को उन्हें स्वप्नादेश हुआ। उनके स्वपन में साक्षात नित्यानंद प्रभु प्रकट हुए और उन्हें आदेश दिया, "वृंदावन जाओ" उन्होंने उठते ही वृंदावन जाने की तैयारी की। वह बंगाल से सीधे ही वृंदावन पहुंच गए। यहां पर उनको गौड़ीय वैष्णवों के सानिध्य का लाभ प्राप्त हुआ। वह अब राधा कुंड के तट पर ही निवास किया करते थे। उनकी कुटिया आज भी है। राधाकुंड के तट पर उनकी समाधि भी है। वे एक साधारण निवास स्थान पर रहते थे। वह स्थान भी है, वहाँ आप जाकर उसका दर्शन कर सकते हो व नतमस्तक हो सकते हो। हरि! हरि! वहां पर उनको विशेषतया रघुनाथ दास गोस्वामी का सानिध्य लाभ हुआ। आज रघुनाथ दास गोस्वामी का भी तिरोभाव तिथि महोत्सव है। वह चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथपुरी में 14 साल रहे थे। उनकी भी चर्चा शुरू हो ही रही है। जब चैतन्य महाप्रभु नहीं रहे अर्थात जब चैतन्य महाप्रभु ने टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रवेश किया अर्थात श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु अंतर्धान हुए तब रघुनाथ दास गोस्वामी के लिए वह विरह सहन करना कठिन या असंभव सा ही था। उन्होंने जगन्नाथपुरी को छोड़ दिया और वे वृंदावन हेतु प्रस्थान के लिए विचार कर रहे थे अथवा सोच रहे थे कि मैं वृंदावन में जाकर अपने अस्तित्व को समाप्त कर दूंगा। चैतन्य महाप्रभु के बिना अर्थात उनके सानिध्य के बिना जीना, क्या जीना है। चैतन्य महाप्रभु के बिना जीवन बेकार है। जब मैं वृंदावन पहुँचुंगा तब गोवर्धन के शिखर पर चढ़कर खाई में गिर पडूंगा और अपनी जान ले लूंगा। इस विचार से वृंदावन में आए हुए रघुनाथ दास गोस्वामी जब रुप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी के सम्पर्क में आए, तब उन दोनों ने उनके दिमाग को पढ़ लिया कि वह क्या विचार कर रहे हैं। वे दोनों इसको समझ गए और उन्होंने रघुनाथ दास गोस्वामी को खूब समझाया- बुझाया। तत्पश्चात रघुनाथ दास गोस्वामी ने प्राण त्यागने का विचार छोड़ दिया। तब रघुनाथ दास गोस्वामी वृंदावन में 40 वर्ष तक रहे। तत्पश्चात वे भी राधा कुंड के तट पर रहने लगे। हमारे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी भी वहीं रहते थे। रघुनाथ दास गोस्वामी ने यह भी एक विशेष कार्य किया था, जब वे जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु के साथ थे तब उनको स्वरूप दामोदर दास गोस्वामी और रामानंद राय का सानिध्य प्राप्त हुआ था। वैसे जब रघुनाथ दास गोस्वामी जगन्नाथपुरी पहुंचे तब चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर गोस्वामी को कहा था (जो कि चैतन्य महाप्रभु के सचिव थे) कि 'रघुनाथ दास का ख्याल किया करो।' स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने रघुनाथ दास गोस्वामी का वैसा ही ख्याल रखा तब रघुनाथ दास गोस्वामी स्वरूपे रघु के नाम से पहचाने जाने लगे। यह रघुनाथ दास गोस्वामी कौन से हैं? यह स्वरूपे रघु' है। जिनको स्वरूप दामोदर गोस्वामी संभालते व देख रेख करते हैं। यह कौन से रघुनाथ हुए? 'स्वरूपे रघु' अर्थात स्वरूप के रघु। रघुनाथ दास गोस्वामी प्रतिदिन चैतन्य महाप्रभु के हर दिन के कार्यकलापों का लीलाओं का अवलोकन भी करते थे और फिर निरीक्षण करके लिखा करते थे। जिसे कड़चा भी कहते हैं। रघुनाथ गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का वर्णन किया करते थे। रघुनाथ गोस्वामी वृंदावन में पहुंचकर राधा कुंड के तट पर रहते थे, वहां पर वे प्रतिदिन वृंदावन के भक्तों को गौर लीला सुनाते थे क्योंकि वृंदावन के भक्तों को पता नहीं था जगन्नाथ पुरी में कैसी कैसी लीलाएं संपन्न हुई थी। रघुनाथ दास गोस्वामी ने अपनी आंखों देखी लीलाएं अथवा वे जिन लीलाओं के स्वयं साक्षी थे और उन्होंने जिन लीलाओं को लिखकर भी रखा था, वे उन लीलाओं को वृंदावन में राधा कुंड के तट पर सुनाया करते थे। उनमें एक श्रोता कृष्ण दास कविराज गोस्वामी भी थे। भक्त, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को और भी सुनना चाहते थे। वैसे जगन्नाथ पुरी की लीलाओं का कुछ श्रवण या कुछ तो संस्मरण तो हो रहा था किंतु मायापुर, नवद्वीप में सम्पन्न हुई लीलाओं का उनको पता नहीं था। चैतन्य महाप्रभु की यात्रा में व मध्य लीला जब वह सन्यासी हो गए थे औऱ 'ले कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार' कर रहे थे तब वह उन सारी लीलाओं को सुनना या पढ़ना चाहते थे। हम तो सुन रहे हैं, हम तो लाभान्वित हो रहे हैं। वैसे सारी लीलाएं तो हम नहीं सुन पा रहे हैं क्योंकि मायापुर में संपन्न हुई लीला तो हमें सुनने को नहीं मिल रही है और पढ़ने का प्रश्न नहीं है, क्योंकि ग्रंथ ही नहीं है। तब वहां के भक्तों ने श्री कृष्ण दास कविराज गोस्वामी से मिलकर एक विशेष निवेदन किया कि आप चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के ग्रंथ की रचना कीजिए। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी बड़े विद्वान थे। वैसे उन्होंने और भी गोविंद लीलामृत आदि कुछ ग्रंथों की रचना की थी और कर रहे थे। जब कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज को यह विशेष निवेदन हुआ, तब वह तैयार नहीं हो रहे थे लेकिन जब एक समय वह राधा मदन मोहन मंदिर में दर्शन के लिए गए। अन्य कई सारे भक्त भी उनके साथ में थे। वे भगवान से जानना चाहते थे कि क्या भगवान कुछ संकेत करते हैं कि वे ऐसे ग्रंथ की रचना करें। वहां पहुंचने पर जब वह राधा मदन मोहन का दर्शन कर रहे थे तब श्री राधा मदन मोहन के गले की माला नीचे गिर गई। मानो श्री राधा मदन मोहन, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी को भी माल्यार्पण करा कर अपना अभिनंदन व्यक्त करना चाह रहे थे। यस! यस! बधाई! बधाई! सेवा करो! ग्रंथ की रचना करो! तब स्पष्ट हुआ और कृष्णदास कविराज और सभी वैष्णव मान गए। भगवान भी चाहते हैं, मदनमोहन भी चाहते हैं तब कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज ने राधा कुंड के तट पर अपनी कुटिया में चैतन्य चरितामृत नामक ग्रंथ की रचना की। चैतन्य चरितामृत की जय! हरि! हरि! यह ४००- ५०० वर्ष पूर्व की बात है कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने जब ग्रंथ की रचना की थी और चैतन्य महाप्रभु पहले ही दुनिया से अंतर्ध्यान हो चुके थे। यदि चैतन्य चरितामृत की रचना नहीं होती तब उस समय के बहुत सारे लोगों, भक्तों या दुनिया को चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का पता नहीं चलता। उस समय कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज के समकालीन जो लोग थे या फिर हमारा क्या होता ,यदि कृष्णदास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरितामृत की रचना नहीं करते तब हम सारे वंचित रह जाते। हम सब कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज के ऋणी हैं जिन्होंने चैतन्य चरितामृत की रचना की। हरि! हरि! उनकी विनम्रता का क्या कहना! इसको कौन समझ सकता है । तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥ (श्री शिक्षाष्टकं श्लोक ३) अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। तृणादपि सुनीचेन जो भाव है। मैं जगाई मधाई से भी अधिक पापी हूं। अभी मैं चैतन्य चरितामृत देख रहा था जिसमें कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज ने चैतन्य चरितामृत की अन्त्य लीला के अंतिम अध्याय के में जो अंतिम पंक्तियां लिखी हैं। चैतन्य चरितामृत ये़इ जन शुने। ताँर चरण धुञा करों मुञि पाने।। ( श्री चैतन्य चरितामृत अन्तय लीला २०.१५१) अर्थ:- यदि कोई व्यक्ति श्री चैतन्य चरितामृत में वर्णित श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को सुनता है, तो मैं उसके चरणकमल धोकर उस जल का पान करता हूँ। कृष्ण दास कविराज लिख रहे हैं कि भविष्य में जो भी चैतन्य चरितामृत अमृत ग्रंथ को पढ़ेंगे अथवा सुनेंगे, उनके चरणों की धूलि को मैं अपने सिर पर धारण करूंगा या उनके चरणों की धूलि का मैं पान करूंगा। हरि! हरि! जब उन्होंने इस ग्रंथ को लिखा तब कुछ 90 साल के थे। उन्हें दिखने में मुश्किल हो रहा था। वे लगभग दृष्टिहीन ही हो रहे थे। ऐसी अवस्था में उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ की अंतिम पंक्ति में लिखते हैं शाके सिन्ध्वग्नि वाणेन्दौ ज्यैषेठ वृन्दावनान्तरे। सूर्याहेअसित पञ्चम्यां ग्रंथोअयं पूर्णतां गतः।। ( श्री चैतन्य चरितामृत२०. १५६) अनुवाद: शक सम्वत 1537 के ज्येष्ठ मास में रविवार के दिन कृष्णपक्ष की पंचमी को यह चैतन्य चरितामृत वृंदावन में पूरा हुआ। 1537 शक सम्वत का जयेष्ठ मास का रविवार का दिन और पंचमी तिथि थी अर्थात जयेष्ठ मास की पंचमी को रविवार के दिन वृंदावन में राधा कुंड के तट पर यह ग्रंथ संपूर्ण हुआ। रघुनाथ दास गोस्वामी का भी क्या कहना? उनके वैराग्य का क्या कहना? उनका जन्म बंगाल में ही सप्तग्राम में हुआ। उनके पिता श्री मजूमदार बड़े धनी और दानी थे। उस जमाने के बड़े जमींदार कहेंगे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जमींदार और दानी भी थे। रघुनाथ दास गोस्वामी के पिता उनको भी दान दिया करते थे अथवा सहायता करते थे। बचपन में वैसे ही नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का सानिध्य लाभ उनको प्राप्त हुआ। वे अपने घर को त्याग कर शांतिपुर में चैतन्य महाप्रभु से मिले थे तब वे छोटे ही थे। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था 'जाओ! घर जाओ! घर में रहो! घर में भक्ति करो!' किंतु घर में रहना उनको बिल्कुल पसंद नहीं था। वह चैतन्य महाप्रभु के साथ रहना चाहते थे। फिर पानीहाटी में नित्यानंद प्रभु की रघुनाथ दास पर विशेष कृपा हुई। वह नित्यानंद प्रभु की कृपा से चैतन्य महाप्रभु से मिले। उनके कई सारे प्रयास घर को छोड़ने के थे अर्थात वे घर से जो भाग जाया करते थे लेकिन उनके पिता ने उनको रोकने के लिए कई सारे गार्ड्स रखे थे ताकि यह घर से भागे नहीं अपितु घर में ही रहे। इसीलिए उनका एक सुंदर पत्नी के साथ विवाह किया था जिससे इस बंधन में वह बंध जाएगा। लेकिन सुंदर पत्नी उनको घर से बांध नहीं पाई। घर की धन दौलत और ऐशो आराम तो था ही लेकिन वे बंधन में नही आए। एक दिन वह सफल हुए और सारे भव बंधनों को संबंधों को रिश्ते नातों को तोड़ कर वे जगन्नाथपुरी की ओर दौड़ पड़े। जिससे उन्हें चैतन्य महाप्रभु का दर्शन लाभ और संग प्राप्त हुआ। वहां पर जगन्नाथ मंदिर के द्वार पर ही जो उन्हें भिक्षा प्राप्त होती थी, वह उसी से अपना गुजारा करते थे। घर पर इतनी सारी संपत्ति पड़ी है और वह इतने बड़े जमीदार के बेटे थे। वे भिक्षा मांग रहे थे। अपितु वे मांगते नहीं थे। उनके अंदर याचकवृत्ति ही थी। द्वार पर जो भी कुछ देता था, वही ले लेते थे। लेकिन उन्होंने वह भी छोड़ दिया कि यह उचित नहीं है। मैं सोचता हूं कि यह व्यक्ति मुझे दे देगा और इसने तो मुझे कुछ भी नहीं दिया। यह भला व्यक्ति था और यह अच्छा नहीं था। ऐसे मैं भला बुरा सोच लूंगा। किसी के सम्बन्ध में भला, किसी के बारे में बुरा। यह द्वंद ठीक नहीं है। ऐसा विचार ठीक नही है। लोग जो जगन्नाथ का प्रसाद ऐसे ही फेंक देते थे, दो दिन का फेंका हुआ व सड़ा हुआ, उसी को रघुनाथ दास गोस्वामी उठाकर थोड़ा साफ कर ग्रहण करते थे। चैतन्य महाप्रभु सोचते थे - 'क्या खाता है?' लेकिन एक दिन उनको पता चला। जब एक दिन वे छिप कर जगन्नाथ का प्रसाद खा रहे थे तब चैतन्य महाप्रभु वहां पधारे। रघुनाथ गोस्वामी,चैतन्य महाप्रभु से दूर दौड़ने लगे लेकिन चैतन्य महाप्रभु से कौन दूर जा सकता है। किसमें सामर्थ्य है। चैतन्य महाप्रभु उनके पास पहुंच ही गए। चैतन्य महाप्रभु ने भी वही प्रसाद जो रघुनाथ दास स्वामी ग्रहण कर रहे थे, उसी को ग्रहण किया और बोले तुम मुझे इस प्रसादमृत से वंचित कर रहे हो। तुम अकेले ही खा रहे हो। हरि! हरि! जब चैतन्य महाप्रभु अंतर्धान हुए। उनकी जगन्नाथ पुरी की लीलाओं का समापन हुआ। रघुनाथ गोस्वामी वृंदावन आए। राधाकुंड के तट पर रहते थे। वैसे रघुनाथ गोस्वामी की अलग से भी समाधि है। इन तीनों आचार्यों की समाधि है जिनका आज हम उत्सव मना रहे हैं। रघुनाथ दास गोस्वामी की राधा कुंड के तट पर ही अलग से भी एक समाधि है। वे वैसे अपने वैराग्य के लिए ही प्रसिद्ध थे। गोवर्धन की परिक्रमा करते थे। ताकि उनको गोवर्धन का सानिध्य प्राप्त हो। उन्होंने ऐसा अष्टक भी लिखा है। उनका मनः शिक्षा नाम का शिक्षा ग्रंथ प्रसिद्ध है। वह थोड़ा सा हल्का सा एक कुल्लड़ भरकर छाछ पी लेते थे व रात्रि के समय एक-दो घंटे सोते थे या वो भी नहीं सोते थे। यह निद्रा की बात है और जहां तक आहार है- कुल्हड़ भर छाछ पी लिया। हमारे आचार्यों की वैराग्य विद्या अचिंत्य है। हरि! हरि! लेकिन एक दिन उनको अपचन हुआ। तब उनकी नाड़ी परीक्षा हुई तो वैद्य ने कहा- क्या आपने कुछ ज्यादा भोजन किया? यह अत्याहार का परिणाम है। वे केवल कुल्हड़ भर छाछ पीने वाले, उन्होंने अत्याहार कहां और कब किया ? वैसे एक रात पहले श्री कृष्ण के लीला में प्रवेश करके किया ही था। जहां कृष्ण स्वयं ग्वाल बालों व मित्रों के साथ भोजन कर रहे थे, वहां रघुनाथ दास गोस्वामी भी अपने स्वरूप में पहुंचे थे और वहां खूब अत्याहार हुआ था। सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ ( महाप्रसादे गोविन्दे) अर्थ:-भगवान् कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो। भगवान अपने परिकरों के साथ अन्नामृत, मिष्ठान, यह व्यंजन, वह व्यंजन, कई सारे भोग जो ग्रहण कर रहे थे , रघुनाथ दास गोस्वामी ने वैसा भोजन किया और थोड़ा अधिक भोजन किया था। रघुनाथ दास गोस्वामी को मानना पड़ा कि हां हां, यह अत्याहार का ही दुष्परिणाम है। यह हैं हमारे आचार्य इनका भी अवतार होता है, जैसे भगवान का अवतार होता है। कुछ भक्तों का भी अवतार होता है। रघुनाथ दास गोस्वामी का भी अवतार हुआ। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी का भी अवतार हुआ। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी का भी अवतार हुआ जिनका आज हम तिरोभाव उत्सव मना रहे हैं। इन तीनों का अवतार हुआ था। वे भगवत धाम से भगवान के साथ या भगवान के आगे या पीछे अर्थात पहले या बाद में अवतरित होते हैं। यह आचार्य मुक्त आत्माएं हैं या नित्य सिद्ध आत्माएं अथवा भक्त हैं । कुछ साधन सिद्ध होते हैं वे साधना कर करके सिद्ध होते हैं। कुछ तो नित्य सिद्ध ही होते हैं। भगवत धाम से अवतरित होते हैं । ये हमारे आचार्य ऐसे भगवत धाम से पधारे अथवा अवतरित हुए हैं । हम ऐसे आचार्यों की परंपरा में आ रहे हैं या हमारा संबंध स्थापित हो रहा है। क्या आपने भगवान देखा है? हमने तो नहीं देखा है जी, लेकिन हम उनको जानते हैं जिन्होंने भगवान को देखा है। यह जो हमारे गौड़ीय वैष्णव आचार्य हैं। गौड़ीय वैष्णव आचार्यों ने भगवान को देखा है। देखा क्या है अपितु वह भगवान के साथ रहते हैं। वह भगवान को कितना जानते हैं? वे भगवान को पूरा जानते हैं। इसलिए कहा है आचार्यवान पुरुषो वेदा। ऐसे आचार्यों के संबंध में जो आते हैं, इन आचार्यों की परंपरा से जो जुड़ते हैं, वह भी सर्वज्ञ बन जाते हैं। वे भी भगवत साक्षात्कारी बनते हैं। दो रघुनाथ हैं। एक रघुनाथ भट्ट और दूसरे रघुनाथ दास गोस्वामी हैं। रघुनाथ दास गोस्वामी को कभी कभी दास गोस्वामी भी कहते हैं और दूसरे रघुनाथ भट्ट गोस्वामी हैं। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी यह वाराणसी से थे। यह तपन मिश्र के पुत्र थे। चैतन्य महाप्रभु, तपन मिश्र को बंगाल या आज का बंगला देश में मिले थे। लक्ष्मीप्रिया के साथ विवाह के उपरांत वे प्रचार के लिए वहाँ गए थे। वहां पर तपन मिश्र के साथ चैतन्य महाप्रभु की मुलाकात हुई। तपन मिश्र वैसे कुछ सम्भर्मित थे। चैतन्य महाप्रभु ने उनको भ्रम से मुक्त किया और कहा कि तुम वाराणसी जाओ, भविष्य में वहां मिलूंगा। तब तपन मिश्र बंगाल को छोड़कर वाराणसी में रहे। जब चैतन्य महाप्रभु, जगन्नाथ पुरी से वृंदावन जा रहे थे तब वे रास्ते में वाराणसी आ गए। चैतन्य महाप्रभु, चंद्रशेखर नामक गृहस्थ के घर में निवास करते थे और तपन मिश्र के घर में भिक्षा प्रसाद ग्रहण करते थे। उस समय तपन मिश्र का पुत्र रघुनाथ भट्ट भी बालक था और वहां खेला करता था। इस प्रकार यह रघुनाथ भट्ट श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संपर्क में आए और चैतन्य महाप्रभु के चरणों की सेवा का अवसर लाभ लिया। जब चैतन्य महाप्रभु वहां से वाराणसी से प्रस्थान करना चाह रहे थे तब रघुनाथ भट्ट भी साथ में जाना चाहते थे। लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने बोला- नहीं! नहीं! तुम रुको! यहीं पर रहो। फिर चैतन्य महाप्रभु वृंदावन होकर जगन्नाथपुरी वापस लौटे। रघुनाथ भट्ट, चैतन्य महाप्रभु से मिलने के लिए जगन्नाथपुरी गए और चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे। वे उनके निजी परिकर रहे। उन्हीं के साथ लीला खेल रहे थे। उनकी लीला सम्पन्न हो रही थी। एक दिन चैतन्य महाप्रभु ने कहा- तुम वाराणसी वापिस जाओ। अपने माता- पिता की सेवा करो। तपन मिश्र और उनकी धर्मपत्नी उच्च कोटि के वैष्णव थे। वैष्णव माता पिता की सेवा करो। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी वाराणसी वापस लौट गए और सेवा में रत रहे लेकिन जब माता-पिता नहीं रहे तो पुनः श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से मिले। तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा- 'वृंदावन जाओ। वहां भागवत का अध्ययन- अध्यापन करो।' रघुनाथ भट्ट गोस्वामी भागवत का गुणगान किया करते थे। अलग अलग अलग रागों और छंदों में या चार अलग-अलग छंदों में एक एक श्लोक का मधुर उच्चारण/ गान किया करते थे। ऐसे भावों व प्रेम के साथ भागवत को पढ़ा करते थे। जिससे सभी अष्ट विकार अथवा सात्विक विकार उनके शरीर में होते थे और उनके अंग प्रत्यंग के स्पर्श से जिस भागवत को वह पढ़ा करते थे, वह भागवत इनके आंसुओं से भीग जाता था। ब्रज के भक्त रघुनाथ भट्ट के भागवत उच्चारण को बहुत पसंद किया करते थे। उन्होंने अलग से कोई ग्रंथ नहीं लिखा था लेकिन वे भागवत का पाठ करते थे अथवा गान किया करते थे। उनका एक और विशिष्टय बताते हैं कि वह कभी भी किसी की भी निंदा नहीं करते थे। सभी में जो अच्छाई है, वे केवल उसी को देखते थे। उनकी दृष्टि में कभी दोष नहीं आया। उन्होंने दोष दृष्टि से कभी किसी को देखा ही नहीं। साधु निंदा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उन्होंने ऐसा वैष्णव अपराध कभी नहीं किया। जीवे दया, नामे रुचि, वैष्णव सेवा। वे इसके लिए प्रसिद्ध थे। नाम में रुचि, भागवत में रुचि और सभी जीवो में दया और वैष्णव सेवन- कोई निंदा नहीं, प्रजल्प नहीं। वैष्णव अपराध जो काया, वाचा या मन से हो सकता है। उन्होंने मन से भी कभी कोई वैष्णव अपराध नही किया।हरि! हरि! आप इनके संबंध में और भी पढ़िए, एक दूसरे को सुनाइए। जे आनिल प्रेमधन गाइए। उनके चरणों में प्रार्थना कीजिए कि हम पर भी कृपा करें और हमें भी इस गौड़ीय वैष्णव परंपरा के साथ जोड़ें और हमारे घनिष्ठ संबंध को स्थापित करें। हमें भी अपना ही एक अंश माने और हम भी उनके बने। उन्होंने जो भी प्रेम धन इस संसार को दिया है और जो हमें भी प्राप्त हो रहा है, जिस प्रकार उन्होंने वितरण किया, हम भी उसका वितरण करें अर्थात औरों के साथ शेयर करें। ददाति प्रतिगृह्णति गुह्यमाख्याति पृच्छति। भुङ्के भोजयते चैव षडविधं प्रीति-लक्षणम्।। ( उपदेशामृत श्लोक ४) अर्थ:- दान में उपहार देना, दान स्वरूप उपहार लेना विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेम पूर्ण व्यवहार के यह 6 लक्षण है। ऐसा करके हम भी वैष्णवों के प्रति व जीवो के प्रति प्रीति का प्रदर्शन करें। हरि! हरि! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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