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जप चर्चा दिनांक ०५.१२.२०२० हरे कृष्ण!

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कॄष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

आज इस कॉन्फ्रेंस में 690 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हुए हैं। हरे कृष्ण! प्रथम आप सभी का स्वागत है। हरि! हरि!

कल हम चर्चा कर रहे थे कि मार्गशीर्ष मास में गोपियों ने कात्यायनी व्रत को अपनाया था। गोपियों ने पूरे माह के लिए कात्यायनी व्रत का मैराथन प्रारंभ किया। हरि! हरि! वे प्रार्थना कर रही थी:-

कात्यायिनी महामाये महायोगिन्यधीश्वर नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:। इति मन्त्रं जपत्यतिस्ता: पूजां चक्रु: कुमारिका: ।। ( श्री मद् भागवतम १०.२२.४)

अनुवाद:-प्रत्येक युवा अविवाहित लड़कियों ने निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की। “हे देवी कात्यायनी, हे महामाया, हे महायोगिनी, हे अधीश्वरी, आप नन्द महाराज के पुत्र को मेरा पति बना दीजिये। मैं आपको नमस्कार करती हूँ।

गोपियां कात्यायनी देवी से प्रार्थना कर रही थी कि हे कात्यायनी देवी! नंद महाराज का जो पुत्र है, पतिं मे कुरु ते नम: अर्थात वह हमें पति रुप में प्राप्त हो। हरि! हरि! गोपियों ने जैसी प्रार्थना की, वह प्रार्थना हमारे लिए भी सही व उचित है।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कॄष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

यह भी प्रार्थना है। हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कॄष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे प्रार्थना करते हैं लेकिन यदि कोई पूछेगा कि प्रार्थना क्या है ? प्रार्थना वही है 'नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:' अर्थात हमें कृष्ण पति रुप में प्राप्त हो। गोपियां, कृष्ण को पति रुप में चाहेंगी। यशोदा प्रार्थना करेंगी कि भगवान् हमें पुत्र रुप में प्राप्त हो। वैसे ऐसी प्रार्थना वसुदेव और देवकी या नंद बाबा और यशोदा ने की ही थी।अतः भगवान उन्हें पुत्र रुप में प्राप्त हुए। हम भी ऐसी प्रार्थना कर सकते हैं या करते हैं कि भगवान हमें मित्र रुप में प्राप्त हो। मित्र हो तो कृष्ण जैसा। मित्र हो तो कृष्ण जैसा।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।। ( श्री मद् भगवतगीता ५.२९)

अनुवाद:-मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है।

भगवान कहते हैं कि मैं सभी का मित्र हूं।सुहृदं सर्वभूतानां अर्थात मैं सभी जीवों का मित्र हूँ। बेस्ट फ्रेंड हूं।

अयि नन्दतनुज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ ( श्री शिक्षाष्टकम श्लोक ५)

अर्थ:- हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए।

यह भी प्रार्थना है। यह प्रार्थना तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं ही की । उन्होंने स्वयं की और अन्यों को भी सिखाया कि ऐसी प्रार्थना करो। इस प्रार्थना में चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं अयि नन्दतनुज अर्थात यह नंदतनुज सर्वत्र है। हरि! हरि!

गोपियां प्रार्थना करती है। नंद बाबा, यशोदा प्रार्थना करते हैं या सुदामा, श्रीदामा इत्यादि प्रार्थना करते हैं। अर्जुन जो मित्र है, वे भी प्रार्थना करते हैं।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥ ( श्रीमद्भगवत गीता ४.३)

अनुवाद:- आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो।

श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दास्य भाव में प्रार्थना कर रहे हैं कि अयि नन्दतनुज किङ्करं अर्थात मैं कौन हूँ? अयि मतलब ओह! कृष्ण, नंद तनुज अर्थात नंद महाराज के पुत्र, किङ्करं पतितं मां, अर्थात मैं नंद महाराज के पुत्र का किंकर हूं। मैं नंद महाराज के पुत्र का दास हूं। किन्तु पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ अर्थात दुर्देव से मैं इस भवसागर में गिर गया हूँ और 'कृपया तव पादपंकज-

स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय, मुझे इस भवसागर से उठाइए। हरि! हरि!

अपने चरणों की धूल बनाइए। हे प्रभु! अपने चरणों की सेवा दीजिए। मैं आपका दास हूँ।

हमें दास बना दीजिये। यहाँ ऐसी प्रार्थना है।

जीवेर 'स्वरूप' हय- कृष्णेर ' नित्य दास'। कृष्णेर ' तटस्था- शक्ति' ' भेदाभेद- प्रकाश'।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २०.१०८)

अनुवाद:- कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिति है, क्योंकि जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय अभिन्न और भिन्न है।

जीव का स्वरूप कैसा है? वह कृष्ण का दास है। वैसे कृष्ण के दास तो दास हैं ही लेकिन कृष्ण के मित्र भी कृष्ण के दास ही हैं। वे कृष्ण के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार या सम्बंध स्थापित करके कृष्ण की सेवा ही करते हैं। अतः कृष्ण के मित्र भी कृष्ण के दास ही हैं। कुछ भक्त या कुछ जीव, कृष्ण के माता पिता बन जाते हैं और कुछ तो माता पिता बने ही हैं जैसा कि नंद बाबा और यशोदा लेकिन ब्रज के सभी बुजुर्ग गोप-गोपियां व युवक और युवतियों के साथ दूसरा सम्बंध है किन्तु जितने भी गोलोक के सीनियर सिटीजन हैं, उनकी सभी की अभिलाषा होती है कि हमें कृष्ण जैसा पुत्र प्राप्त हो।

पुत्र हो तो कृष्ण जैसा, वैसे भगवान उस अभिलाषा को पूरा करते हैं। सब सीनियर सिटीजन अथवा बुजुर्ग या अधिक उम्र वाले गोप अथवा गोपियां समझते ही हैं कि कृष्ण हमारा पुत्र है। उनका ऐसा वात्सल्य भाव होता है, गाय भी सोचती है कि कृष्ण हमारा पुत्र है। कभी कभी विचार आता है कि क्या कृष्ण जैसा पुत्र हमें भी मिलेगा या सभी नौजवान युवतियां सोचती हैं कि क्या हमें कृष्ण जैसा पति मिलेगा। वैसे वे गोपियां उसी अभिलाषा के साथ कात्यायनी की पूजा कर ही रही थी। इस अभिलाषा को भी भगवान ने पूरा किया। भगवान सभी बुजुर्ग ब्रजवासियों के पुत्र बने, भगवान सभी गायों के बछड़े बन गए। श्री कृष्ण सभी युवतियों के पति बन गए। यह ब्रह्म-विमोहन लीला है।

ब्रह्म-विमोहन लीला के अंतर्गत ब्रह्म ने भगवान के मित्रों व बछड़ों की चोरी की। तत्पश्चात भगवान ही बछड़े बन गए, भगवान ही सभी बालक बन गए। उस शाम को जब गोधूलि वेला का समय हुआ। वैसे वे बछड़ों को चराते थे।

वैसे वे सांयकाल तक नहीं चराते होंगे। बछड़ों को चराने के लिए कुछ समय के लिए जा सकते थे, लंच में लौटते होंगे। तब सभी बछड़े गौशाला में लौट आए, जहाँ गाएं उनकी प्रतीक्षा में थी। सभी बछड़े, सीधे ही गायों का दूध पी रहे थे। भगवान ने सभी गायों की अभिलाषा भी पूरी की कि क्या कृष्ण उनको पुत्र रुप में प्राप्त हो सकते हैं। गाय भी ऐसा सोचती थीं। यह उनका वात्सल्य भाव था।

सभी घरों में बालक पहुंच गए और सभी बालक कृष्ण ही थे।

श्रीराजोवाच

नन्द: किमकरोद् ब्रह्मन्श्रेय और अथम्। यशोदा च महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः।। ( श्री मद् भागवतं १०.०८.४६)

अनुवाद:- माता यशोदा के महान भाग्य के बारे में सुनकर, परीक्षित महाराज ने शुकदेव गोस्वामी से पूछताछ की: हे ब्राह्मण, माँ यशोदा के स्तन का दूध भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा चूसा गया था। परमानंद प्रेम में ऐसी पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसने और नन्द महाराज ने कौन-कौन सी शुभ गतिविधियाँ की?

शुक देव गोस्वामी ने कहा- देखो! देखो! यह भाग्यवती अर्थात भाग्यशाली यशोदा का सौभाग्य देखो। यशोदा के भाग्य का कोई ठिकाना ही नहीं है। पपौ यस्याः स्तनं हरिः अर्थात यशोदा के दुग्ध का स्तनपान स्वयं हरि करते हैं। वास्तविक बालकों को ब्रह्मा चोरी करके ले गए थे। तब कृष्ण ही स्वयं सब बालकों के रुप में आ गए। सभी घरों में बालकों ने प्रवेश किया। उनकी माताएं अपने अपने बालकों की प्रतीक्षा में ही थी। उस दिन स्वयं भगवान ही बालक बने थे। घर लौटते ही गोपियों का स्नेह उमड़ आया। वे पहला कार्य दूध पिलाने का ही करती होंगी अर्थात स्तन पान करवाती होंगी। ब्रज के सभी घरों में सभी बुजुर्ग गोपियां बालकों को अपने स्तन का पान करवा रही हैं। यह सोचकर कि हम अपने पुत्रों को दुग्ध-पान करवा रही हैं किंतु वह दूध का पान करने वाले बालक श्री कृष्ण थे। श्री कृष्ण अनन्त और असंख्य हैं। वे एक होते हुए भी अनेक हैं।

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान्। तमात्मस्थं येअनुपश्यन्ति धीराः तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्।। ( कठोपनिषद २.२.१३)

अनुवाद:- परम भगवान नित्य हैं और जीवात्मा गण भी नित्य हैं। परम् भगवान सचेतन हैं और सभी जीवात्माएं भी सचेतन हैं परंतु अंतर यह है कि परम भगवान् सभी जीवात्माओं के जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं। जो भक्तगण उस आत्मतुष्ट परम भगवान को निरंतर देखते रहते हैं या निरतंर स्मरण करते हैं, उन्हें ही शांति प्राप्त होती है, अन्यों को नहीं।

वैसे एक के अनेक भी बनते हैं।विदधाति कामान् अर्थात भगवान् अपने भक्तों की मनोकामना को पूर्ण करते हैं। हरि! हरि! भगवान, सभी गायों को उनके बछड़े के रुप में प्राप्त हुए व सभी माताओं को उनके पुत्र रुप में प्राप्त हुए।

हमारे आचार्यवृन्द भाष्य लिख हमें समझाते हैं कि कृष्ण जो बालक बने हैं, वे पूरे एक साल भर के लिए बालक बन कर रहेंगे अर्थात जो मित्र थे, वे मित्र बने हैं। प्रतिदिन वे बालक बछड़ों को चराने के लिए जाते भी हैं। जिन बछड़ों को चराते हैं, वे बछड़े भी भगवान हैं और चराने वाले भी भगवान् ही हैं। बछड़े लौटकर गौशाला में जाते हैं और बालक अपने अपने घरों में लौटते हैं।

आचार्यवृन्द भाष्य में लिखते हैं कि पहले सभी गोपियां सोचा ही करती थीं कि यह मेरा बालक है लेकिन यह बालक तो पड़ोसी माता का है या और किसी का बालक है या और किसी का है... लेकिन जैसे जैसे एक, दो अथवा चार महीने... छह महीने बीत रहे हैं, वे अनुभव करने लगी कि मेरे पुत्र और पड़ोसी माता का पुत्र या उक्त माता या उस माता का पुत्र में कोई भेद नहीं है। यह अलग अलग है, का विचार जो पहले था लेकिन भगवान इस प्रकार सभी को साक्षात्कार करवा रहे हैं कि मैं कृष्ण ही हूँ। तुम मुझे पुत्र रूप में पाना चाहती थीं ना, इसलिए मैं बन गया। हरि! हरि!

मुझे कहना तो यह था कि सारे भक्त माधुर्य रस अथवा सांख्य रस या वात्सल्य रस में हैं, लेकिन ये सभी दास ही हैं अर्थात दास्य भाव में हैं। सभी भगवान् के दास दासियाँ हैं। कोई गोपी बनकर भगवान की सेवा करता है व भगवान को प्रसन्न करता है। कोई माता पिता बनकर सेवा करता है। जो माता पिता बनते हैं तो पालक ज्ञान का पालन करते हैं। उन गोप गोपियों को पालक ज्ञान में अपने पुत्र का लालन- पालन करना होगा। वे कृष्ण का लालन- पालन करती हैं । लालन- पालन करके उनको खिला पिलाकर कर अथवा जो भी करती है, वह सेवा भी करती है। सेवा ही है, उनमें थोड़ा ऊंचा भाव है। वात्सल्य भाव है। वैसे सभी भावों का आधार अभी आपको समझाया है। हरि! हरि!

माधुर्य भाव अर्थात माधुर्य रस पूर्ण है। माधुर्य रस में शांत रस, दास्य रस, सख्य रस, वात्सल्य रस का समावेश है। माधुर्य रस अथवा माधुर्य भाव में सभी रस मिले हुए हैं। वात्सल्य रस में तीन रस होंगे- शांत रस, दास्य रस, सांख्य रस।

तत्पश्चात सांख्य रस में दो रस होते हैं -शांत रस, दास्य रस। तत्क्रम में दास्य रस में शान्त रस होगा। इस तरह एक एक जुड़ता जाता है। शांत रस से दास्य रस, दास्य रस से सांख्य रस, सांख्य रस से वात्सल्य रस, वात्सल्य रस से माधुर्य रस। हर रस का अपना गुण धर्म है। वह जुड़ता जाता है। ये रस, भाव अथवा भक्ति के प्रकार अधिक अधिक विकसित होते हैं। उसके माधुर्य में वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार माधुर्य रस सर्वोपरि है। श्रृंगार रस मतलब राधा भाव अर्थात गोपी भाव यह सर्वोपरि है। यह पूर्ण है लेकिन सभी में दास भाव है। दास ही उसकी नींव अथवा आधार है। सखा भी दास है और वात्सल्य रस के भक्त भी दास हैं और माधुर्य रस वाली गोपियां राधारानी भी दास व दासियाँ है। इसलिए सिद्धांत तो है कि जीवेर स्वरूप हये कृष्णेर नित्य दास।

जीव का स्वरूप नित्य दास है। दास तो सभी हैं, हर कोई दास है। कोई दास, दास रुप में दास है तो कोई सखा बनकर दास हो जाते हैं, कोई वात्सल्य रस में माता- पिता बनकर सेवा करते हैं अर्थात दास बनते हैं। कुछ गोपी या राधा भाव अर्थात श्रृंगार रस में कृष्ण की सेवा करते हैं अथवा कृष्ण को प्रसन्न करते हैं। ऐसे ही रसों का खेल है, यह रसों का आंदोलन है। जीव अथवा भक्त आंदोलित होते रहते हैं। उस रस का आंदोलन अथवा लहरें अथवा तरंगे है या रस का रास है उसमें इतना रस है कि उसको रास कहते हैं। रास क्रीड़ा में रस ही रस है। वैसे कृष्ण को कहा भी गया है कि

रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्धवानन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद २.७.१)

अनुवाद:- पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् दिव्य रसों के आगार हैं या साक्षात रस हैं। उन्हें प्राप्त करके ही आत्मा वास्तविक रूप में, दिव्य रुप से आनंदित बनता है।

वे अखिलरसामृत सिंधु हैं। अखिल अर्थात सभी। रसामृत अर्थात रसराज कृष्ण। कृष्ण रसों के राजा हैं। रस राज श्री कृष्ण!

कई प्रकार के रसों में रासक्रीड़ा सर्वोपरि है। हरि! हरि! निरोधो :स्यानुशायनमात्मन: सह शक्तिभि:। मुक्तिरहितित्व्यथारूपं स्वरूपेण लक्षणः। ।। ( श्री मद् भागवतम २.१०.६)

अनुवाद:- जीवित अवस्था का विलय, उसकी सशर्त जीवित प्रवृत्ति के साथ, महा-विष्णु के झूठ बोलने वाले रहस्यवादी को ब्रह्मांडीय अभिव्यक्ति के समापन के रूप में कहा जाता है। मुक्ति स्थैतिक और सूक्ष्म भौतिक शरीरों को छोड़ने के बाद जीवित इकाई के रूप की स्थायी स्थिति है।

हितित्व्यथारूपं स्वरूपेण लक्षणः करते हुए हम जब साधना में सिद्ध होंगे। इस जगत अथवा ब्रह्मांड में हम अलग अलग शरीर धारण कर रहे थे। हम नाना योनियों में भ्रमण कर रहे थें।

लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवंगते मानुष्यमथर्नित्यमपिह धीर। तर्नं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-न्नि: श्रेयस विषय: खलु सर्वत: संदेश।। ( श्री मद् भागवतम ११.९.२९)

अनुवाद:- कई के बाद, कई जन्म और मृत्यु एक जीवन के दुर्लभ मानव रूप को प्राप्त करते हैं, जो हालांकि, अस्थायी है, एक उच्चतम पूर्णता प्राप्त करने का अवसर देता है। इस प्रकार एक शांत मनुष्य को जीवन की अंतिम पूर्णता के लिए जल्दी से प्रयास करना चाहिए जब तक कि उसका शरीर, जो हमेशा मृत्यु के अधीन होता है, नीचे नहीं गिरा और मर गया। आखिरकार, जीवन की सबसे घृणित प्रजातियों में भी समझदारी उपलब्ध है, जबकि कृष्ण चेतना केवल एक इंसान के लिए ही संभव है।

भागवतं का यह स्टेटमेंट है कि कई योनियों के उपरांत सुदुर्लभमिदं अर्थात यह मनुष्य शरीर, लब्ध्वा अर्थात प्राप्त होता है। इसको सुदुर्लभ कहा है।

भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन, अभय चरणारविन्द रे। दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे, तरह ए भव सिन्धु रे॥1॥ ( वैष्णव भजन)

अनुवाद:- हे मन, तुम केवल नन्दनंदन के अभयप्रदानकारी चरणारविंद का भजन करो। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर संत जनों के संग द्वारा भवसागर तर जाओ!

यह सुदुर्लभ शरीर प्राप्त कर बहुसम्भवंगते बहु मतलब अनेक सम्भव अर्थात भव सागर या कई सारे जन्म, अन्ते अर्थात अंत में या अंततोगत्वा यह दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त होता है लेकिन यह मनुष्य शरीर भी हमें हितित्व्यथारूपं यह भी अन्य ही रूप है। इसको भी त्यागकर हमें अपने स्वरूप ववस्थिनी में स्थित होना है। मनुष्य शरीर भी हमारा स्वरूप नहीं है। यह तो मिट्टी है। यह तो मिट्टी का ढेला है। मटका है, जो कभी भी फूट सकता है।

फिरत्या चाकावरती देसी मातीला आकार विठ्ठला, तू वेडा कुंभार विठ्ठला, तू वेडा कुंभार माती, पाणी, उजेड, वारा तूच मिसळसी सर्व पसारा माती, पाणी, उजेड, वारा तूच मिसळसी सर्व पसारा आभाळच मग ये आकारा तुझ्या घटांच्या उतरंडीला नसे अंत, ना पार तू वेडा कुंभार विठ्ठला, तू वेडा कुंभार

मराठी संतो ने भी ऐसा गाया है कि हमारा समय भी हो चुका है। वे, भगवान् को कहते हैं कि हे तू वेडा कुंभार, तुम कुम्हार तो हो। कुम्हार बरतन बनाते हैं, घड़े बनाते हैं लेकिन वो संभाल कर रखते हैं लेकिन यहाँ महाराष्ट्र के भक्त कभी भी - भगवान, आप कैसे कुम्हार हो? आप वेडे अथवा पागल हो। आप ऐसा क्यों करते हो। कुम्हार जब घड़े बनाता है, तब उसे बनाए रखता है, उसकी रक्षा करता है। टूटने से बचाता है लेकिन आप तो घड़े बनाते हो और आप ही फोड़ते हो, आप कैसे कुम्हार हो। तू वेडा कुंभार। यह भगवान् की व्यवस्था है। इस सृष्टि में जन्म और मृत्यु भी है। भगवान ने ऐसा नियम बनाया है।

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥ ( श्री मद् भगवतगीता ९.१०)

अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।

भगवान की अध्यक्षता ऐसी है। वे शरीर बनाते हैं। तत्पश्चात शरीर फोड़ते हैं, मृत्यु होती है। यह तो भगवान का बनाया हुआ नियम है। एक समय हमें मनुष्य शरीर को त्यागना ही है लेकिन उस समय हमारी ऐसी तैयारी हो। साधना करते हुए हम साधना सिद्ध हों ताकि हम मुक्तिरहितित्व्यथारूपं स्वरूपेण लक्षणः।

ताकि हम अपने स्वरूप में स्थित हो जाए। भगवान् के चरणों में स्थित हो जाए। हम कृष्ण के दास हैं, मित्र हैं या माता- पिता हैं या गोपी भाव वाले भक्त हैं। यह सब आगे की बात हैं और ऊंची बात हैं। उसका भी साक्षात्कार हम लोग करेंगे । ये समझना होगा कि मैं कौन हूँ, मेरा भगवान् के साथ कैसा संबंध है। अलग अलग रसों अथवा सम्बन्धों अथवा भक्ति के प्रकारों में से वात्सल्य भक्ति या माधुर्य भक्ति या सांख्य भक्ति या दास्य भक्ति है। हम किस प्रकार के भक्त हैं। लेकिन हम दास भाव में भक्ति कर ही सकते हैं और होनी चाहिए। तत्पश्चात धीरे धीरे रहस्य का उदघाटन हो सकता है। हरि हरि।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। प्रश्न उत्तर का समय है-

यदि कोई प्रश्न है तो लिख लो, यदि कोई साक्षात्कार है तो भी लिख सकते हो। कुछ बातें समझ में आयी। वह भी लिख सकते हो। यदि कोई बात समझ में नहीं आयी या कोई प्रश्न है, वह भी लिख सकते हो। उसे हम या हमारी टीम संभाल सकती है।

निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल

English

5 December 2020

Dasya-bhava - the underlying thread of all other Rasas.

Hare Krsna

Devotees from 695 locations are chanting with us right now. All are welcome. So yesterday we were discussing the Margha-sirsa month and the Katyayani fast observed by the Gopis. Gopis were doing the marathon, a marathon for Katyayani Vrata.

kātyāyani mahā-māye mahā-yoginy adhīśvari nanda-gopa-sutaṁ devi patiṁ me kuru te namaḥ iti mantraṁ japantyas tāḥ pūjāṁ cakruḥ kumārikāḥ

Translation: Each of the young unmarried girls performed her worship while chanting the following mantra. “O goddess Kātyāyanī, O great potency of the Lord, O possessor of great mystic power and mighty controller of all, please make the son of Nanda Mahārāja my husband. I offer my obeisances unto you.” [SB 10.22.4]

The Gopis were praying constantly to Katyayani Devi, “Please give, as a husband, the son of Cowherd Nanda Maharaja. We are the followers in the footsteps of the Gopis.” So the prayer that the Gopis made, are for us also. We always chant the Hare Krishna maha-mantra. Though these are the names of Krsna, yet the prayer while chanting this mantra is the same.

The Gopis prayed, “ Please give Krsna as a husband.” Mother Yasoda had done penance with the prayer that Krsna should be her Son. Those wanting friendly relations prayed for that. Krsna is the best friend. Everyone wants Krsna to be their friend. Krsna is a friend and well-wisher of everyone.

bhoktāraṁ yajña-tapasāṁ sarva-loka-maheśvaram suhṛdaṁ sarva-bhūtānāṁ jñātvā māṁ śāntim ṛcchati

Translation: A person in full consciousness of Me, knowing Me to be the ultimate beneficiary of all sacrifices and austerities, the Supreme Lord of all planets and demigods, and the benefactor and well-wisher of all living entities, attains peace from the pangs of material miseries. [BG 5.29]

ayi nanda-tanuja kińkaraḿ patitaḿ māḿ viṣame bhavāmbudhau kṛpayā tava pāda-pańkaja- sthita-dhūlī-sadṛśaḿ vicintaya

Translation: O Son of Maharaja Nanda (Krsna), I am Your eternal servitor, yet somehow or other I have fallen into the ocean of birth and death. Please pick me up from this ocean of death and place me as one of the atoms at Your lotus feet.[Sri Siksastakam verse 5]

Lord Caitanya Mahaprabhu also prayed in Sri Siksastakam, asking Krsna to make Him His servant. Ayi nanda tanuja means constant factor or personality. Everyone prays as per their service mood. Nanda Maharaja and mother Yasoda is praying. Gopis are praying, Sridama, Sudama, Arjuna are praying who are very dear friends of Krsna. Even Sri Caitanya Mahaprabhu is praying, but in the consciousness of a servant.

Jivera Svarup Hoye Krishnera Nitya Das

The actual nature of the soul is to be the servant of Krsna. Everyone is the servant of Krsna. His friends play the role of friends, but they are also servants. Yasoda and Nandababa played the role of parents, but they were also servants.

All the Vrajvasis desire to have Krsna as their child. All the senior-aged Gopis and Gopas see Krsna as their child. That is their consciousness. Even the cows love Krsna as their child. Krsna also fulfilled this desire of all the Vrajvasis.

He became the Son of all the Vrajvasis. He became the Calf of all the cows. And all the young Gopis are desiring to have Krsna as their husband by observing katayayni vrata.

This happened during the Brahma Vimohan Lila. It was when Krsna and His friends were just calf herds. Herding of calves is not so long, so they would return by noon. After Brahma stole all His friends and calves Krsna very normally returned in the form of every friend and calf. When Yasoda breastfed Krsna, all the Gopis would desire to do the same.

But now this desire of all the Gopis was fulfilled. Gopis were waiting for their children as usual, but today it was Krsna who came home as their child. Every gopi in every house in Vraja was feeding Krsna. There are in-numerous Krsnas staying in Vraja then. Even all the cows were satisfied as Krsna became their calves.

Yasoda is so very fortunate that she feeds Krsna and He drinks her milk from her breast. All the cows and Gopis got Krsna as their child. Our Acaryas explain that not only for the day did Krsna played this role of these children and calves for one full year. Daily they would also to herd the calves. By evening, they would come back to their homes and goshala. Our Acarays say that usually the Gopis, just like any other mother, would differentiate their children. But during this time days the Gopis were realizing that there is no difference between their son and the sons of other Gopis. Krsna is saying, “You wanted me to be your child so I am fulfilling your desire.” What I was saying is that whether these great devotees had a mood of a friend, the parent, or conjugal love, they are all servants. They all render service to Krsna. Some serve like a Gopi and some serve like parents.

Those with parental love take care of Krsna, nurture Him. This is a service to Krsna and is called Vatsalya Bhava.

Conjugal love is the highest of all the 5 moods. All the others are included in it. Parental love is next which includes the other 3, then friendship, sakhya rasa includes the other 2, then servant, and then shanta rasa. In this way, since all other moods are included in this, Madhurya Rasa is the highest. The principle is that it is the nature of a jiva that it is an eternal servant of Krsna. Everyone is a servant. Some servants serve as servants, some as friends, some as parents, and some as loving partners. In this way, they help in the pastimes of Krsna. Krsna is the King of all nectarean moods. Among all these types of nectarean pastimes, Rasa dance is the highest.

nirodho 'syānuśayanam ātmanaḥ saha śaktibhiḥ muktir hitvānyathā rūpaṁ sva-rūpeṇa vyavasthitiḥ

Translation: The merging of the living entity, along with his conditional living tendency, with the mystic lying down of the Mahā-Viṣṇu is called the winding up of the cosmic manifestation. Liberation is the permanent situation of the form of the living entity after he gives up the changeable gross and subtle material bodies. [SB 2.10.6]

When we are perfect by practice, then we will not have to accept any more material bodies that we have been taking for many, many lifetimes. After many many lifetimes, one gets the human form which is for perfecting ourselves. However, this is also a material body only for practice. It is also to be given up. One Maharashtrian saint sings, “O Krsna you are a mad Potter, other potters make pots and keep them safe for drying and baking, but you make pots and then break them.” Such is the arrangement of the Lord. It is the rule that where there is birth, there has to be death. By attaining perfection we must give up all material bodies and be situated in the eternal original identity establishing our relationship with Krsna.

We need to ask questions. What kind of mood do I have? Which type of service do I have to render? We must start with the servant mood and gradually the actual mood with be revealed to us by the mercy of Krsna.

If anyone has any questions, comments, or realizations then you may write in the chat.

Thank You Hare Krsna

Russian

Наставления после совместной джапа-сессии 05.12.2020г.

Харе Кришна

преданные из 695 мест воспевают с нами прямо сейчас.

Итак, вчера мы обсуждали месяц Маргширш и пост Катьяяни, соблюдаемый гопи.

Гопи постоянно молились Катьяяни деви: «Пожалуйста, отдай в мужья сына пастуха Нанды Махараджа».

Мы - последователи по стопам гопи. Итак, молитвы, которые произносят гопи, также относятся к нам. Мы всегда повторяем Харе Кришна Махамантру. Хотя это имена Кришны, но молитва при повторении этой мантры остается неизменной.

Мы молимся, пожалуйста, сделайте Кришну мужем.

Мать Яшода совершила покаяние с молитвой о том, чтобы Кришна был моим сыном.

Об этом молились желающие дружеских отношений.

Кришна - друг и доброжелатель каждого.

Господь Чайтанья Махапрабху также молился в шикшаштаке, прося Кришну сделать его своим слугой.

Итак, все молятся в соответствии со своим настроением служения. Гопи молятся, Шрирама, Судама, Арджуна и т. д., У всех разные молитвы.

Шри Кришна Чайтанья Махапрабху говорит, о сын Нанды Махараджа, пожалуйста, смилуйся надо мной, я упал в этот океан яда. Я твой слуга

Настоящая природа души - быть слугой Кришны.

Итак, все являются слугами Кришны.

Его друзья играют роль друзей, но на самом деле являются его слугами, которые служат ему, играя как приветливые друзья.

Его родители также играют роль родителей.

Все враджваси желают, чтобы Кришна был их ребенком. Все старшие гопи и гопы видят в Кришне своего ребенка.

Даже коровы любят Кришну как своего ребенка.

Итак, Кришна также исполнил это желание всех враджваси.

Он стал сыном всех враджваси.

Он стал теленком всех коров.

Он стал мужем всех молодых гопи.

Это произошло во время Брахма Вимохана Лилы.

Это было, когда Кришна и его друзья были пастушками телят.

Выпас телят не такой продолжительный, чтобы они вернулись к полудню.

Итак, после того, как Брахма украл всех Его друзей и телят, Кришна обычно возвращался в виде каждого друга и теленка.

Когда Яшода кормила Кришну грудью, все гопи хотели делать то же самое. Яшоде очень повезло.

Но теперь это желание всех гопи исполнилось

Гопи, как обычно, ждали своих детей, но сегодня Кришна пришел домой их ребенком.

Каждая гопи в каждом доме во Врадже кормила Кришну, переполненная любовью к Кришне как к своему ребенку.

Итак, во Врадже пребывает бесчисленное множество Кришны.

Даже у всех коров Кришна был теленком.

Наши ачарьи объясняют, что Кришна не только в течение дня играл роль этих детей и телят, но и в течение целого года он очень хорошо играл все роли.

Ежедневно ходили пасти телят.

Обычно гопи, как и любая другая мать, отделяли своих детей от детей других гопи. Но в эти дни гопи понимают, что нет разницы между их сыном и сыновьями других гопи.

Итак, я сказал, что независимо от того, были ли у этих великих преданных настроение дружбы, родителей или супружеской любви, все они слуги.

Все они выполняют служение Кришне.

Те, у кого есть родительская любовь, заботятся о Кришне, лелеют его, это служение Кришне.

Друзья выполняют свою роль. Супружеская любовь - это наивысшее из всех 5 настроений. Все остальные 4 включены в него. Далее идет родительская любовь, которая включает еще 3, затем Дружба, которая включает еще 2, затем Слугу и затем шанта раса

Таким образом, поскольку все остальные настроения включены в это, Мадхурья Раса является высшим из всех.

Принцип таков, что природа дживы - вечная служанка Кришны.

Итак, все слуги. Некоторые слуги служат слугами, некоторые - друзьями, некоторые - родителями, а некоторые - любящими партнерами.

Таким образом они помогают в играх Кришны.

Кришна - царь всех нектарных настроений.

Среди всех этих нектарных игр танец Раса - самый нектарный. Когда мы станем совершенными с помощью практики, тогда нам больше не придется принимать материальные тела, которые мы принимали много-много жизней.

По прошествии многих жизней человек обретает человеческую форму, предназначенную для самосовершенствования. Однако это тоже материальное тело только для практики. От этого также нужно отказаться

Один махараштрийский святой поет: «О Кришна, ты сумасшедший Гончар», другие гончары делают горшки и хранят их в безопасном месте для сушки и запекания, но ты делаешь горшки, а потом разбиваешь их.

Такова природа Господа. Это правило: там, где есть рождение, должна быть смерть.

Итак, достигнув совершенства, мы должны отказаться от всех материальных тел и пребывать в вечной изначальной природе, устанавливая наши отношения с Кришной.

Так что у нас должны быть вопросы. Какое у меня настроение? Какое служение я должен выполнять? Мы должны начать с настроения слуги и постепенно по милости Кришны понять свое истинное настроение.

Если у кого-то есть какие-либо вопросы, комментарии или замечания, вы можете написать в чате.

Отчетность о соблюдении месяца Картика должна быть сделана. Напоминания регулярно делаются последние дни.

(Перевод Кришна Намадхан дас)