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सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा के स्त्रोत कृष्ण से जुड़िये    हम पिछले कुछ समय से जप कर रहे हैं तथा आप सभी को जप करते हुए देखकर मुझे अत्यंत हर्ष होता हैं , क्योंकि मैं जानता हूँ , " हरे कृष्ण का जप कीजिये तथा प्रसन्न रहिये। " अतः यदि आप प्रसन्न हैं तभी आप जप कर रहे हैं तथा इससे मैं भी प्रसन्न हूँ। जब मैं इतने अधिक भक्तों को जप करते हुए देखता हूँ तो मुझे और अधिक प्रसन्नता होती हैं। यह आनंद सागर हैं। हम देख  रहे हैं कि ४०० स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं इस प्रकार आप लगभग ७०० - ८०० भक्तों के साथ जप कर रहे हैं। जप करना अत्यंत गम्भीर विषय हैं। योगी भव् ! कृष्ण हमें भक्ति योगी बनाना चाहते हैं। जब हम जप करते हैं तो हमारा उद्देश्य भक्ति योगी बनना होता हैं जिसके माध्यम से हम भक्तिपूर्वक भगवान से जुड़ते हैं। कृष्ण वर्णम त्विस्क्रिष्णम , संगो पांगाास्त्र पार्षदं। यज्ञेनः संकीर्तन प्रायेर, यजन्ति ही सु मेधसा।। कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति सामूहिक संकीर्तन द्वारा भगवान के उस अवतार की आराधना करते हैं , जो निरन्तर हरिनाम का कीर्तन करते हैं। यद्यपि उनका वर्ण श्याम नहीं हैं तथापि वे स्वयं कृष्ण हैं। वे अपने भक्तों , सेवकों , अस्त्र - शस्त्र तथा निजी पार्षदों द्वारा घिरे रहते हैं। (श्रीमद भागवतम ११.५.३२) भागवतम कहती हैं कि  बुद्धिमान व्यक्ति संकीर्तन यज्ञ करते हैं। इसलिए यह जप कम बुद्धिवाले व्यक्तियों का कार्य नहीं हैं। आज सत्र के प्रारम्भ में हम अपने उपकरणों को बिजली से जोड़ने का प्रयास कर रहे थे। बाहरी रूप से सब कुछ सामान्य प्रतीत हो रहा था , हमारे पास स्विच था , तार था तथा वह कंप्यूटर से भी जुड़ा हुआ था , परन्तु इसके पश्चात भी कंप्यूटर में बिजली नहीं आ रही थी। बिजली कभी आ रही थी तो कभी नहीं। तब एक विचारक होने के नाते मैं सोच रहा था - हम यहाँ जप करने के लिए एकत्रित हुए हैं ,   हमने यम - नियम का भी पालन किया हैं जो तैयारी हैं। हमें बैठने के लिए आसन भी सुव्यवस्थित हैं। आसन का अर्थ केवल वह नहीं हैं जिस पर आप बैठे हैं , परन्तु हम कहाँ पर बैठे हैं तथा प्राणायाम भी इसका एक अंग हैं। हमने इस प्राणायाम के विषय पर पहले ही चर्चा की हैं। आपको एक गहरी सांस लेकर महामंत्र का जप करना चाहिए। कुछ भक्त उस एक सांस में ५ बार महामंत्र बोलते हैं तत्पश्चात वे पुनः दूसरी बार गहरी सांस लेते हैं। कुछ भक्त इस प्रकार से जप करते हैं , यह बहुत लाभदायक हैं। गहरी साँस लेने के लिए आपको सीधा बैठना पड़ता हैं। जब हम गहरी सांस लेते हैं , तो हमें ताज़गी का अनुभव होता हैं। यह आपको जगे रहने में भी सहायता प्रदान करेगा। ये इसके कुछ लाभ हैं। जब तक आप अपने अंदर पर्याप्त वायु ग्रहण नहीं करते हैं तब तक आप जप नहीं कर सकते हैं। जीभ में कम्पन्न होना चाहिए तथा होठों का प्रयोग होना चाहिए। प्रभुपाद ऐसा कहते थे। अन्यथा हम ' स्निक स्निक हरे हरे ' इस प्रकार से जप करेंगे। इस्कॉन में कुछ लोग इस प्रकार से भी जप करते हैं। अतः इस प्रकार के जप से उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। जप करते समय कम्पन्न होना आवश्यक हैं। वह तब तक नहीं होगा जप तक हमारे फेफड़ों में पर्याप्त हवा नहीं होगी। अतः इसका अभ्यास कीजिये।  कई बार तो यह भी स्पष्ट नहीं होता हैं कि हम सांस ग्रहण कर रहे हैं अथवा छोड़ रहे हैं। ये दो अलग अलग कार्य हैं। कई बार हम साँस लेते हैं तो कई बार हम साँस छोड़ते हैं , यदि हम इनका ठीक ठीक सीमांकन नहीं कर सकते हैं तो इसके परिणाम स्वरुप हम कुछ मन्त्र बीच में ही छोड़ देते हैं। हम उन मन्त्रों को खा जाते हैं , वे हमारे अंदर ही रह जाते हैं। एक गहरी साँस लीजिये तथा साँस छोड़ते समय मन्त्र कहिये। तब यह स्पष्ट होगा। कृष्णभावनामृत का अर्थ हैं स्पष्ट भावनामृत। अतः मैं कह रहा था कि हमने यम , नियम , आसन , प्राणायाम सभी कर लिया हैं , इसके पश्चात हम जप करते हैं : हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। पंतञ्जलि योग के माध्यम से ये कुछ तरीके हैं , जिन्हे हम स्वीकार करते हैं। यद्यपि ये चार प्रकार आवश्यक हैं , तथापि ये बाहरी हैं। आपका वास्तविक योग तो अभी तक प्रारम्भ ही नहीं हुआ हैं। यह एक प्रकार से योग के लिए पहले से मंच की स्थापना के समान हैं। ये सभी चार कार्य करने के पश्चात योग का प्रारम्भ होता हैं , जो हैं प्रत्याहार। कल हम चर्चा कर रहे थे: अत्याहार प्रयासश्च , प्रजल्पो नियमाग्रह। ज्ञान सङ्गश्च लौल्यम च , षड्भिर भक्ति विनश्यति।। किसी की आद्यात्मिक उन्नति उस समय रुक जाती हैं , जब वह निम्न छः कार्यों में व्यस्त रहता हैं : १ - आवश्यकता से अधिक भोजन करना तथा आवश्यकता से अधिक संग्रहण करना। २ - भौतिक लाभों के लिए कठिन प्रयास करना , जिन्हे प्राप्त करना मुश्किल हो। ३ - सांसारिक विषयों के बारे में चर्चा करना। ४ - आध्यात्मिक नियमों तथा निर्देशों का पालन केवल दिखावे के लिए करना अथवा उन नियमों का उल्लंघन करके स्वतंत्र रूप से कार्य करना। ५ - इस जगत के भौतिकतावादी व्यक्तियों का संग करना , जो कृष्ण भावनाभावित नहीं हैं। ६ - भौतिक लाभों की चेष्टा करना। (उपदेशामृत श्लोक २ ) आपको यह नहीं करना चाहिए , परन्तु आपने अत्याहार प्रयासश्च , प्रजल्पो नियमाग्रह आदि किया हैं। आवश्यकता से अधिक भोजन ग्रहण करना , आवश्यकता से अधिक संग्रहण करना , आदि आदि, इनसे विकर्षण उत्पन्न होता हैं। आप इनसे आध्यत्मिक जीवन से दूर हो जाएंगे। आप एक योगी नहीं रहेंगे। इन छः कार्यों में सम्मिलित हैं : अत्याहार : आवश्यकता से अधिक भोजन करना अथवा संग्रहण करना , जो हमने संभवतया कल ही किया होगा। हमें अधिकता से बचना चाहिए। हम अत्याहार करते रहते हैं। जब भी हम " आहार " कहते हैं तो हमें हमारे भोजन का स्मरण होता हैं। अपनी पुस्तक भक्त्यलोक में भक्ति विनोद ठाकुर बताते हैं कि हमारी सभी इन्द्रियों की एक आह अर्थात इन्द्रियभोग की वस्तु हैं। सभी इन्द्रियों की एक एक विशेष भोग्य वस्तु हैं, यथा आँखों के लिए रूप , जिव्हा के लिए भोजन , कानों के लिए स्वर ,ये सभी प्रकार के स्वर हो सकते हैं , सिनेमा के गाने भी , नासिका के लिए गंध। अतः अत्याहार का अर्थ हैं बद्ध जीव द्वारा इन इन्द्रियों को आवश्यकता से अधिक प्रदान करना। हम हमारी इन्द्रियों को आवश्यकता से अधिक प्रदान करते हैं : हम भोजन अधिक करते हैं , बहुत अधिक दृश्य देखते हैं अथवा वह देखते हैं जो हमें नहीं देखना चाहिए , इस प्रकार हमारी सभी इन्द्रियों को इस प्रकार से आहार मिलता हैं।  निद्रया ह्रियते नक्तम व्यवायेन च वा वयः। दिवा चार्थेह्या राजन कुटुंब भरणेन वा।। ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ (गृहमेधि) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों के भरण पोषण में बीतता हैं। (श्रीमद भागवतम २.१.३) हम प्रतिदिन सुबह जल्दी उठ जाते हैं , तथा हम क्या सोचते हैं ? किस प्रकार में और अधिक धन एकत्रित करूं ? धन ! धन कहाँ हैं , जो शहद से भी अधिक मीठा हैं। किस प्रकार आप धन का प्रयोग कर सकते हैं ? परिवार का पोषण करके , परिवार के सदस्यों की इन्द्रियों का पोषण करके। आँख , नाक तथा त्वचा का पोषण करके। अत्याहार में इन सभी का वर्णन करते हैं। अतः योग के लिए हमें प्रत्याहार करना चाहिए। प्रतिक्रिया। अतः जप करते समय जो कुछ भी अत्याहार करते हैं उसका प्रभाव हमारे मन पर रहता हैं। यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। हे अर्जुन ! इन्द्रियां इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं , जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता हैं। (भगवद गीता २.६०) तुकाराम महाराज कहते हैं ," पापाची वासना नको नको दाऊ डोळा, त्याहुनि आंधला बरच मी। " अर्थात ," कई प्रकार की इच्छाओं  को पालने से तो अच्छा हैं कि आप मुझे अँधा बना दीजिये। क्योंकि यदि आँखें होगी तथा मैं उनसे कुछ सांसारिक सिनेमा तथा कुछ पापपूर्ण कृत्य देखूंगा तो उससे अच्छा हैं कि मैं अँधा ही रहूं। ' यह तुकाराम महाराज का कथन हैं। यदि मैं आँखों का उपयोग इस प्रकार के कार्यों को देखने में करता हूँ तो इससे अच्छा हैं आप मुझे अंधा ही बना दीजिये। अतः यह प्रत्याहार हैं। जब हम जप करने के लिए बैठते हैं तो हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारा भगवान के साथ सम्बन्ध स्थापित हुआ हैं, जिस प्रकार की हमने उन उपकरणों को लैपटॉप , उसके तार आदि को बिजली से जोड़ा। सब कुछ ठीक प्रतीत हो रहा था परन्तु उसमे बिजली नहीं थी। उसमे कुछ तो कमी थी। अतः हमने यम , नियम , प्राणायाम, आसन आदि किये। परन्तु क्या हम भगवान के साथ सम्बन्ध स्थापित कर पा रहे हैं ? वे ही समस्त प्रकार की विद्ययुत के उद्गम हैं। अतः इस बात के सार रूप में हम यह कह सकते हैं कि यह बुद्धिमान व्यक्तियों का कार्य हैं। बुद्धि का कार्य अब प्रारम्भ होगा। इससे पहले भी हमें यम, नियम , प्राणायाम आदि बुद्धिपूर्वक संपन्न करने होते हैं। अब हमें प्रत्याहार की स्थिति से भी परे और अधिक तीव्र बुद्धि का प्रयोग करना पड़ेगा। अतः ध्यान तथा धारणा से आगे की स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें और अधिक बुद्धि का प्रयोग करना पड़ेगा। जब हम बैठकर जप करते हैं तो कौन क्रियाशील होता हैं ? यह मन ही हैं , जो उस समय भी क्रियाशील रहता हैं। अतः अब वास्तविकता में खेल की शुरुआत होती हैं। मन अब क्रियाशील होगा तथा आपको वहां लेकर जाएगा जहाँ आप कल गए थे। यह आपके समक्ष उन दृश्यों को प्रकट करेगा , जिन्हे आपने कल , परसों अथवा कुछ दिनों पहले देखा हैं। मन अपना कार्य प्रारम्भ कर देता हैं। परन्तु हम चाहते हैं कि हमारी आत्मा क्रियाशील हो। हम आत्मा को जाग्रत करना चाहते हैं , हम चाहते हैं कि आत्मा इस बात की अनुभूति करे : नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम , सभ्य कबू नय। श्रवणादि शुद्ध चित्ते , करया उदय।। कृष्ण प्रेम सभी जीवों के ह्रदय में निरंतर रहता हैं। ऐसा नहीं हैं कि इसे किसी अन्य उपकरण के माध्यम से बाहर से लाया जाता हैं। जब श्रवण तथा कीर्तन द्वारा हमारा ह्रदय शुद्ध होता हैं तो यह प्रेम पुनः हमारे ह्रदय में जाग्रत होता हैं। (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.१०७) जब हम जप करने के लिए बैठते हैं तो हम चाहते हैं कि हमारी आत्मा प्रेरित हो तथा सक्रिय हो। आत्मा को भगवद्प्रेम का अनुभव करना चाहिए। हमारे उस सुप्त कृष्ण प्रेम को पुनः जाग्रत करना चाहिए। हमें उसका श्रवण करना चाहिए : हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इस प्रकार हम भगवान के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते हैं। हमें हमारे ह्रदय में उस विशुद्ध प्रेम को पुनः जाग्रत करना चाहिए। मन को सक्रीय होता हैं , यह इधर उधर भागता रहेगा। कल मैंने यह किया था और आज मैं यह करूँगा। तत्पश्चात : ब्रह्मभूत प्रसन्न आत्मा न सोचती न कांक्षति। समः सर्वेषु भूतेषु , मद भक्तिम लभते परम।। इस प्रकार जो दिव्य पथ पर स्थित हैं , वह तुरंत परब्रह्म का अनुभव करता हैं और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता हैं। वह न तो कभी शोक करता हैं , न किसी वस्तु की कामना करता हैं। वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता हैं। उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता हैं। (भगवद गीता १८.५४) मन "सोचती" यह कार्य करता हैं अर्थात कुछ समय पहले हमने क्या कार्य किया था जो हम अब भौतिक रूप से नहीं कर सकते हैं परन्तु उसे करना चाहते हैं , मन ऐसे कार्यों के विषय में सोचता रहता हैं। इस जीवन का मेरा उद्देश्य यह हैं। मैं यह प्राप्त करना चाहता हूँ। इस प्रकार मन भूत काल तथा भविष्य काल के मध्य घूमता रहता हैं। परन्तु जप करते समय हम वर्तमान काल में भगवान के साथ रहते हैं। यह जप एक अभ्यास हैं। हमें इसे अपनी बुद्धि का प्रयोग करके प्रतिदिन करना चाहिए। यही अभ्यास हैं। अभ्यास ही किसी व्यक्ति को दक्ष बनाता हैं। हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करके सचेत रहना चाहिए तथा हमारे मन को निरंतर जांचना चाहिए। हमारा ध्यान हमारे मन की ओर होना चाहिए। हमारा मन अभी कहाँ हैं ? यह किस बात का चिंतन कर रहा हैं ? तब बुद्धि का कार्य प्रारम्भ होता हैं , बुद्धि क्या कार्य करती हैं ? यह सही तथा गलत में भेद करती हैं। सद असद बुद्ध ये बुद्धि के कार्य हैं। यह क्षणिक हैं , यह सनातन हैं आदि आदि। बुद्धि की सहायता से हम पग पग पर ये निर्णय लेते हैं। ऐसा नहीं हैं कि हमें बुद्धि का प्रयोग किसी विशेष अवसर पर ही करना चाहिए। नहीं हमें बुद्धि का प्रयोग प्रतिदिन करना चाहिए , तथा विशेष रूप से जब हम जप करते हैं। आप भगवान से प्रार्थना भी कर सकते हैं कि वे आपको वह बुद्धि प्रदान करे। एक व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार यह सोच सकता हैं कि यह सही हैं वहीं दूसरा व्यक्ति सोचता हैं कि यह गलत हैं। मेरी माँ भी मुझसे प्रार्थना करने के लिए कहती थी , " हे भगवान ! मुझे बुद्धि दीजिये। " तब भगवान ने मुझे वह बुद्धि दी तथा मैं हरे कृष्ण मंदिर जुहू में मंदिर में एक भक्त बन गया। तब वह सोचने लगी , " भगवान ने इसे ऐसी बुद्धि क्यों दी ?" इससे वह असंतुष्ट थी। बुद्धि दो प्रकार की होती हैं : भौतिक तथा आध्यात्मिक। बहुत अधिक पढ़े लिखे , बुद्धिमान कहलाने वाले इस जगत के लोगों में वास्तव में बुद्धि नहीं हैं। माया उनके ज्ञान को चुरा लेती हैं। हमें यह समझना चाहिए कि हमें किस प्रकार की बुद्धि चाहिए। तेसाम सतत युक्तानां , भजतं प्रीति पूर्वकम। ददामि बुद्धि योगं , येन माम उपयान्ति ते।। जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं , उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ , जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं। (भगवद गीता १०.१०) हमें वह बुद्धि चाहिए , जो हमें भगवान कृष्ण के समीप लाता हैं। आषाढ़ी एकादशी को होने वाले हमारे उत्सव में हम जप रिट्रीट करेंगे। दो अथवा तीन दिन सुबह के समय हम जप रिट्रीट कर सकते हैं। एक साथ जप कीजिये। वहां हम सभी एक साथ बैठकर जप कर सकेंगे , यह भी एक विशेषता होगी। वैसे भी हम ज़ूम के माध्यम से तो जप करेंगे ही। यह जप चर्चा बहुत लम्बी हो जाती हैं क्योंकि मैं यहाँ दो भाषाओँ में बोलता हूँ। ठीक हैं आप सभी से पुनः पंढरपुर में भेंट होगी।  राधा पंढरीनाथ की जय ! हरे कृष्ण !

English

CONNECT WITH THE SUPREME POWER HOUSE - KRSNA! We had been chanting from some time now and I am happy to see you chanting because I know of “Chant Hare Krishna and be Happy!” When you become happy , I also become happy. When we see so many of us chanting then there is much more happiness! It's Anand-sagar. We see at 400 places devotees are chanting so in total you are chanting with 700 to 800 devotees. Chanting is a serious business.Yogi bhava! Krsna wants us to become bhakti-yogis. When we chant, do our Japa, the goal is to become Bhakti-yogis, linking with the Lord with devotion. kṛṣṇa-varṇaṁ tviṣākṛṣṇaṁ sāṅgopāṅgāstra-pārṣadam yajñaiḥ saṅkīrtana-prāyair  yajanti hi su-medhasaḥ In the Age of Kali, intelligent persons perform congregational chanting to worship the incarnation of Godhead who constantly sings the names of Kṛṣṇa. Although His complexion is not blackish, He is Kṛṣṇa Himself. He is accompanied by His associates, servants, weapons and confidential companions.(S.B.11.5.32) Bhagavatam says intelligent people will perform sankirtana yajna. So this chanting is not the job of the less intelligent. At the beginning of today's session, we were trying to connect our all apparatus here with power. Externally everything seemed to be intact, the switch was there, the cord was there, and it was connected with the computer, still there was no current. The current was off and on , off and on. Then I was thinking as I am a big thinker - okay we have come, we are sitting down for chanting. We have done yama niyama which are the preparations. Asana is in order by sitting properly. Asana does not mean only sitting, but also where we are sitting and also pranayam. I have talked about this pranayam in the past. You have to take a deep breath and chant the maha mantra. Some devotees chant 5 mantras and then they take a deep breath again. Some devotees chant this way. It's very helpful. To take a deep breath, you have to sit straight. When we take a deep breath , we become refreshed. This will also help you to stay awake. These are the benefits. Unless you take in a lot of air you are not going to chant. The tongue must vibrate and the lips must be used. Prabhupada used to say this. Otherwise we will be doing 'snick snick hare hare'. Some people in ISKCON keep chanting like this. So there will not be any boost. There has to be some vibrations. That won't happen unless the lungs are filled with air. So try this. A lot of time it's not clear whether we are breathing out or in. This should be two different acts. Sometimes we are breathing in or breathing out, if it's not clearly demarcated then as a result we miss out on some of the mantras. We eat it. It goes inside. Take a deep breath and while breathing out say the mantra. Then it's clear. Krishna consciousness means clear consciousness. So as I was explaining, we have done everything, yama - niyama , asana, pranayam etc. Then we chant, HARE KRISHNA HARE KRISHNA KRISHNA KRISHNA HARE HARE HARE RAMA HARE RAMA RAMA RAMA HARE HARE These are the steps according to patanjali yoga which we accept. Although these first four steps are necessary, still they are external. Your real yoga hasn't yet begin. This is a kind of setting the scene in the yoga. After doing all this serious yoga begins from the fifth step. That is pratyahara. Yesterday we were talking about atyāhāraḥ prayāsaś ca prajalpo niyamāgrahaḥ jana-saṅgaś ca laulyaṁ ca ṣaḍbhir bhaktir vinaśyati One’s devotional service is spoiled when he becomes too entangled in the following six activities: (1) eating more than necessary or collecting more funds than required; (2) over-endeavoring for mundane things that are very difficult to obtain; (3) talking unnecessarily about mundane subject matters; (4) practicing the scriptural rules and regulations only for the sake of following them and not for the sake of spiritual advancement, or rejecting the rules and regulations of the scriptures and working independently or whimsically; (5) associating with worldly-minded persons who are not interested in Kṛṣṇa consciousness; and (6) being greedy for mundane achievements. ( NOI Verse 2) You should not have done it, but you did which is atyāhāraḥ prayāsaś ca prajalpo etc. Eating too much, accumulating too much etc. will lead to destruction. You will lose the devotion. You will not be a yogi. One of those six items were atyāhāraḥ - too much eating, too much accumulation which we have done in past - yesterday or the day before. We should avoid excess. We had been doing atyachar. When we say ahar we think of the food that we eat. In the book Bhaktyaloka Bhaktivinoda Thakura explains that each of our senses have its own aha or object of senses. Every sense has a sense object. The tongue has food. For eyes it's form. For ears it is sounds - all the sounds, cinema songs etc. For nose, smell. So atyāhāraḥ means uncontrolled feeding of the senses by conditioned souls. We had been feeding our senses too much - eating too much, seeing too much. Or seeing objects which we should not have seen. Thus all our senses have been fed in this way. nidrayā hriyate naktaṁ vyavāyena ca vā vayaḥ divā cārthehayā rājan kuṭumba-bharaṇena vā The lifetime of such an envious householder is passed at night either in sleeping or in sex indulgence, and in the daytime either in making money or maintaining family members.( SB. 2.1.3) We are getting up early morning and what are we thinking? How to make money? Money where is money, sweeter than honey. How you can use the money? To feed the family, to feed the senses of the family. Feed all the senses of all the family members. Feed the eyes, feed the nose, feed the skin. This is what we are talking about in atyāhāraḥ. So for yoga we have to do pratyahaar. Counteract. While doing Japa, all that atyāhāraḥ we had been doing have left the impressions upon the mind. yatato hy api kaunteya purusasya vipascitah indriyani pramathini haranti prasabham manah The senses are so strong and impetuous, O Arjuna, that they forcibly carry away the mind even of a man of discrimination who is endeavoring to control them. (BG 2.60) Tukaram Maharaja says, “ papachi vasana nako davu dola tyahuni aandhala barach me” which means ‘better make me blind than having various different desires, that I will see some sinful cinema or some sinful acts.’ This is Tukaram Maharaj's statement also. Better make me blind, if I am going to make use of eyes in such a way. So this is pratyahaar. When we sit down and start chanting,then we have to make sure that the connection is made. We connected those instruments - laptop and cord and this and that. Everything looks intact, but there is no current. Something was wrong. So we have done yama-niyama, pranayam, asana etc. But are we getting connected with the Lord? The power house? He is the Power House, the source of all the power. So just to conclude, we can say that this is the job of the intelligent. The role of intelligence will now begin. Before also we have to do all the yama niyam pranayam etc. intelligently. Now we will have to have sharper intelligence, beyond the pratyahara stage. So the further steps of dhyan and dharana can be performed more intelligently. When we sit and chant. Who is going to be active? THE MIND. So now the play will begin. Mind will become active and make you run - where you had gone yesterday. It will bring those scenes of the night before and the day before, two days before, could be of last lifetime. Mind starts functioning. But we want the soul to be active. We want to awake the soul , we want it to feel. nitya-siddha kṛṣṇa-prema ‘sādhya’ kabhu naya śravaṇādi-śuddha-citte karaye udaya Pure love for Kṛṣṇa is eternally established in the hearts of the living entities. It is not something to be gained from another source. When the heart is purified by hearing and chanting, this love naturally awakens.( CC Madhya 22.107) When we are sitting to chant, we want our soul to be motivated and activated. Soul should experience love for the Lord. Revive our dormant love for the Lord. While hearing HARE KRISHNA HARE KRISHNA KRISHNA KRISHNA HARE HARE HARE RAMA HARE RAMA RAMA RAMA HARE HARE. That way we are expressing our affection for the Lord. We want to arouse genuine love in the heart. Mind is going to be active. It can run back or run ahead. I did this yesterday and today I have to do this. Then brahma-bhūtaḥ prasannātmā na śocati na kāṅkṣati samaḥ sarveṣu bhūteṣu mad-bhaktiṁ labhate parām One who is thus transcendentally situated at once realizes the Supreme Brahman and becomes fully joyful. He never laments or desires to have anything. He is equally disposed toward every living entity. In that state he attains pure devotional service unto Me.( BG. 18.54) Mind does this śocati, lamentation for the past, something which we were not able to do materially, and then we aspire to do something. This is my goal in this lifetime. I want to achieve this. So the mind goes back and forth between the past and the future. But during chanting we want to be in the present tense with the Lord. This chanting is the practice. We have to do it day in and day out using the intelligence. This is abhyas. Practice makes a man and woman perfect. We have to be alert using our intelligence and watch our mind. Our attention should be on our mind. Where is the mind? What is the mind thinking? Then what does intelligence do. It discriminates. sad asad buddha is the function of intelligence. This is temporary, this is permanent, and so on. With the use of intelligence we keep making those decisions at every step. Not that intelligence has to be applied occasionally. No , intelligence has to be applied throughout the day and night and specially at the time of chanting. You could also pray that the Lord gives you such intelligence. One person's intelligence may think this is good and another person may think this is not good. My mother would also ask me to pray, “ Oh Lord give me intelligence”. Finally the Lord gave me intelligence and I became a devotee of Krsna and joined Hare Krishna Land Juhu. Then she started thinking, ‘What kind of intelligence has the Lord given?’ She was unhappy about it. There are two kinds of intelligence - mundane and spiritual. Highly educated, so called intelligence of this world is no intelligence. Maya steals the intelligence. So we have to understand, what kind of intelligence. teṣāṁ satata-yuktānāṁ bhajatāṁ prīti-pūrvakam dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ yena mām upayānti te To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me.( B.G. 10.10) We want that intelligence, which brings us closer to Krsna. During our Festival of Asadhi Ekadasi we could also have a Japa retreat. Two three mornings, we can do japa retreat. Chant together and talk together. That could be another feature of chanting. Anyway we will be chanting in our Zoom session. Japa talk has become long as I am talking in two languages. Okay see you in Pandharpur. Radha-Pandharinatha ki Jai! Hare Krishna!

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