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*जप चर्चा,* *पंढरपुर धाम से,* *31 मई 2021* *हरे कृष्ण!* आज 804 स्थानों सें भक्त जप चर्चा में उपस्थित हैं। सभी पहुँच गये? भुले भटके जीव! हरि हरि! कभी कभी ऐसी कभी बाधाएं उत्पन्न होती हैं जो लक्ष्य तक पहुँचने नहीं देती, हमारे ही अज्ञान के कारण ऐसा होता हैं।नये पासवर्ड का पता नहीं था,वह अज्ञान ही हैं, इसमें हम अटक गये। हरि हरि! इसलिए कहा गया हैं ज्ञानार्जन करना चाहिए। वेद पता हैं आपको?वेदों को ज्ञान का स्त्रोत कहा गया हैं और वेद से होते है वैद्य, जानने योग्य भगवान। ज्ञान जरूरी है इसलिए कहा गया हैं। *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।* *चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।* अनुवाद: - अज्ञान के अंधकार से अंधी हुई आंखों को नाना जनाञ्ञनरूपी शलाका से खोलने वाले श्री गुरु के चरण कमलों में मेरा सादर प्रणाम है। फिर हम उस पथ पर पहुंच जाएंगे और आगे बढ़ेंगे।हरि हरि! किंतु ज्ञानाञ्जन का फिर प्रेमांजन भी बनाना हैं, परिवर्तन करना हैं।ज्ञानाञ्जन से प्रेमांजन तक *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।* *यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।* (ब्रम्हसंहिता 5.38) *अनुवाद :* जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में*नयनें गलदश्रु-धारया*हैं । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं । अज्ञान से भी कुछ ज्ञान प्राप्त होता हैं, या फिर ज्ञान से भक्ति पूर्वक ज्ञान जब हम प्राप्त करते हैं तो फिर *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन* यही बातें हम शिक्षाष्टक में भी समझ रहे थें, पता नहीं आप समझे कि नहीं। साधना कर रहे थें,साधनभक्ति कि चर्चा चल रही थीं, पहले पाच अष्टक कहने के बाद चैतन्य महाप्रभु ने कहा *नयनें गलदश्रु-धारया* *वदने गद्गद-रुद्धया गिरा।* *पुलकैर्निचितं वपुः कदा* *तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त लीला 20.36) अनुवाद: -हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा? *नयनें गलदश्रु-धारया* साधना भक्ति तो ठीक है लेकिन साधना में भक्ति हैं के नही, प्रेम हैं कि नही? प्रेम प्राप्ति साधना कि सिध्दी हैं। साधन में सिद्ध हो रहे हैं यह कैसे पता चलेगा? उसके कुछ लक्षण हैं, उसके गुण धर्म हैं, वह भावभक्ति हैं। *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन* कदा कब होगा?चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं *नयनें गलदश्रु-धारया* यह तो मैं कहता ही रहूगा,हम कई दिनों से इस शिक्षाष्टक पर चर्चा कर रहे थें और कर ही सकते हैं कि वैसे प्रतिदिन शिक्षाष्टक की चर्चा हो सकती हैं, यह चर्चा या विचारों का मंथन कभी समाप्त होने वाला नहीं हैं,यह असीम हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी अहर्निश या हर रात्री को अपने साथियों के संग में गंभीरा में शिक्षाष्टक का आस्वादन किया करते थें। हरि हरि! और आचार्यों ने भी,इस पर चर्चा कि ही है यह बात सत्य हैं कि शिक्षाष्टक में साधनभक्ति, भावभक्ति,प्रेमभक्ति की चर्चा हुई है तो फिर *"भक्तिरसामृत सिंधु"* में रूप गोस्वामी का विषय वही हैं।यह भक्तिरसामृत सिंधु में एक विभाग है,साधनभक्ति दूसरा विभाग हैं। भाव भक्ति तीसरा विभाग हैं और प्रेमभक्ति,और एक साधारण भक्ति भी हैं, इस प्रकार उन्होने भक्तिरसामृतसिंधु के चार विभाग बनाए हैं।अब हम कह सकते हैं शिक्षाष्टक कि यह व्याख्या रूप गोस्वामी ने कि हैं,वह वही नही रुके उनहोने प्रेमभक्ति में माधुर्य रस कि चर्चा की,लेकिन जितनी चर्चा कि वे उससे प्रसन्न नहीं थें,फिर उन्होंनें और चर्चा कि और एक उज्वलनीलमणि नामक ग्रंथ लिखा और उनका पुरा लक्ष्य प्रेमभक्ति था और उसमें भी माधुर्य प्रेम। रूप गोस्वामी ने भी उज्जलनीलमणी में प्रेम की चर्चा की हैं,फिर विश्वनाथ ठाकुर ने *"उज्वलनीलमणी किरण"* नामक ग्रंथ कि रचना की,फिर वह इस चर्चा को और आगे बढाते हैं। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने *"माधुर्य कादंबीनी"* नामक ग्रंथ लिखा हैं। इससे आप परिचित होंगें नही हो‌तो होने चाहिए। माधुर्य कादंबीनी में श्रध्दा से प्रेम तक कि चर्चा हुई हैं।सबसे पहले श्रध्दा, फिर साधुसंग,अनर्थनिवृत्ती, रुचि, आसक्ति,भाव और प्रेम।तो माधुर्य कादंबीनी ग्रंथ में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का भी विषय शिक्षाष्टक ही हैं और उस पर व्याख्या की हैं,दूसरे दृष्टिकोण से उसको लिखा हैं और समझाया हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने *"भजन रहस्य"* नामक ग्रंथ लिखा हैं कि इसमें शिक्षाष्टक कि चर्चा हैं।भक्तिविनोद ठाकुर *"भजन रहस्य"* में अष्टकालीय भजन कि भी चर्चा कर रहे हैं, भगवान कि एक अष्टकालीय लीला होती हैं,एक कालीन लीला होती हैं, उष:काल, प्रात:काल, पूर्वान्ह मध्यान्ह,उपरान्ह,संध्या काल, प्रदोष काल, रात्रि काल इस प्रकार के आठ काल।अलग लीलाएँ भगवान अलग- अलग कालो में संपन्न करते हैं।प्रथम शिक्षाष्टक यह प्रात:काल,उष: काल,द्वितीय शिक्षाष्टक का भजन या स्मरण या रसास्वादन का संबंध प्रातःकालीन, पुर्वान्ह या आगे-आगे वाला मध्यान्ह कालीन लीला फिर उपरान्ह लीला इस प्रकार वह अष्टकालीय लीला का स्मरण,भजन का संबंध इन आठ अष्टको के साथ जोड़ते हैं, और यह चर्चा रोज चलती रहती हैं और निरंतर चलती रहेगी।इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक प्रकार से सूत्र रूप में ही जैसे वेदांत सूत्र हैं,बहुत सारी बातें कहते हैं,कुछ गिने-चुने शब्दों से या वचनों से कहना,वह वचन, वह वाक्य, शब्द सूत्र कहलाते हैं।यह शिक्षाष्टक भी एक सूत्र ही हैं, बहुत कुछ हैं। *नाम्नाकारि बहुधा निज-सर्व -शक्तिस् तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल:।* *एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीद्दशमिहाजनि नानुराग:।।* (श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.16) अनुवाद;- हे प्रभु हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, आप के पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है,अतः आप के अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविंद, जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं।आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियां भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं। हे प्रभु, यद्यपि आप अपने पवित्र नामों कि उदारता पूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवो पर ऐसी कृपा करते हैं, किंतु मैं इतना अभागा हूंँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूंँ अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता हैं। महाप्रभु ने कहा ही हैं कि मैंने मेरी सारी शक्ति मेरे नाम में भर दी हैं। ऐसा जब हम महाप्रभु से सुनते है तो फिर दूसरा याद करते हैं,दूसरा सिध्दांत यह हैं कि *शक्ति शक्ति मयो अधीर:।* मेरी शक्ति और शक्तिमान में भेद ही नहीं है। *नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह।* *पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।।* (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133) अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान हैं, यह चेतना से परिपूर्ण हैं। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त हैं । भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं । हरि हरि!या फिर भक्ति कि व्याख्या की गयी हैं। *अन्याभिलाषिताशुन्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम्।* *आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तरुत्तमा।।* (भक्तिरसामृत सिंधु 1.1.11) अनुवाद: -मनुष्य को चाहिए कि परमेश्वर कृष्ण कि दिव्य प्रेमा भक्ति किसी सकामकर्म अथवा मनोधर्म द्वारा भौतिक लाभ कि इच्छा से रहित होकर करें। यही शुद्धभक्ति कहलाती हैं। तो यह भक्ति कैसी हो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस शिक्षाष्टक में कह रहे हैं *न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।* *मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताभ्दक्तिरहैतुकी त्वयि।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.29) अनुवाद: -हे जगदीश, मुझे भौतिक संपत्ति,भौतिकतावादी अनुयायी, सुंदर पत्नी या अलंकारिक भाषा में वर्णित सकाम कर्मों की कामना नहीं है। मैं तो इतना ही चाहता हूं कि मैं जन्म जन्मांतर आपकी अहैतुकी भक्ति करता रहूंँ। श्रीचैतन्य महाप्रभु भक्ति की व्याख्या इस प्रकार करते हैं *तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।* (श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला20.21) अनुवाद:-जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । इस वचन का क्या कहना! यह वचन तो भक्ति का आधार हैं। *आधी कळस मग पाया* अगर नीवं मजबूत नहीं हैं,तो मकान‌ मजबूत नही होगा। *तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।* होना ही नहीं है।कीर्तन सब समय नहीं कर पाओगे, और फिर मैंने कीर्तन कहा तो केवल नाम कीर्तन ही नहीं है, वैसे हमारा सारा आध्यात्मिक जीवन कीर्तन ही हैं, हम भक्तो का सारा जीवन ही कीर्तन हैं, भगवान की र्कीति का ध्यान करने के लिए ही यह जीवन हैं। *बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |* *तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 2.50) अनुवाद: -भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है | अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है | यहा जीने की कला बताई गई हैं,ऐसा लिखा है कि *तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना ।* यह जो श्लोक हैं इसे गौडिय वैष्णव गले में धारण करते हैं।जिस प्रकार किसी प्रिय वस्तु को हम आलिंगन‌ करते हैं, या गले लगाते हैं उसी प्रकार *तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव* *सहिष्णुना*,इस श्लोक को हम लोग गले लगाते हैं,गले में बांधते हैं। हृदय के लिए, आत्मा के लिए यह प्रिय मंत्र हैं, या वचन हैं, या विचार हैं। इसके बिना आगे नहीं बढ़ना हैं। हरि हरि! जैसे कल‌ घोषणा हुई थी उसके अनुसार आज चर्चा हो रही है, चर्चा चलती रहेगी।शिक्षाष्टक के अन्तर्गत कई संवाद भी हैं। आप की ओर से, आपके कोई अनुभव हैं या आपका साक्षात्कार हैं या यह सुनकर आपको अगर कुछ समझ में आया, या कुछ भाव उदित हुए तो उनको भी आप कह सकते हैं,साक्षात्कार हो या फिर कुछ प्रश्न हो, कोई शंका हो तो उसका भी समाधान करने का प्रयास करेंगे। *पद्ममाली प्रभु जी कह रहे हैं*-"अगर आप लोगो के शिक्षाष्टक के उपर कुछ प्रश्न हैं तो चैट़ में लिख सकते हैं,चैट़ सभी के लिए शुरू हैं। प्रश्न 1. शिक्षाष्टक में जो तीसरा श्लोक हैं उस को सुन कर हमारी स्थिति दृढ़ हो जाती हैं। जैसे ही वो विचार मन में आता है, तो अहम या गौरव बढ़ जाता है, इस अवस्था से कैसे बचना है? ऊतर-" हमें नम्र होना चाहिए। हम सुनते ही हैं कि चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि *तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन* *कीर्तनीयः सदा हरिः।* ऐसा नहीं हो कि हमें अपने नम्रता का ही अहंकार हो जाए। मैं कितना नम्र हूँ। ऐसा कोई कहता हैं तो सावधान! *अमानिना मान - देन* वैसे यह आत्मा का स्वभाव हैं, आत्मा का लक्षण हैं। इस तीसरे श्लोक को अगर आप पढोगे तो 26 वैष्णवों के गुण देख पाओगे,उन गुणों में नम्रता, या उन गुणों में है मित्रता, मैत्रीपूर्ण व्यवहार।हमारी मुक्त अवस्था में जैसे ही हम अधिक से अधिक मुक्त होंगें उसी के साथ हमारे आत्मा के गुण भी प्रकाशित होंगें।जैसी हमारी आत्मा होगी हम वैसा ही व्यवहार करेंगे। वैसे भगवद्धाम में हर व्यक्ति *तृणादपि सु - नीचेन* जैसे गुणवान होता हैं।यहां आकर हम लोग बदमाश बन गए, यहां आकर हम लोग अहंकारी बन गए, यहां आकर हम लोग दुर्गुणों कि खान बन गए हैं और फिर हम जप करेंगे तो शिक्षाष्टक कहता ही हैं‌ कि *चेतो- दर्पण -मार्जन*,हमारी चेतना या भावना जो कलुषित हुई हैं, जो दूषीत हुई हैं,जो अच्छादित हुई हैं,उसकी धुलाई और सफाई होंगी, उसके साथ *तृणादपि सु - नीचेन* गुण अधिकाधीक प्रकाशित होंगा,प्रगट होगा और हम स्वाभाविक बनेंगे। हमे अभ्यास नही करना पडेगा।फिर आत्मा जैसे हम व्यवहार करेंगें।" प्रश्न-इस अवस्था को वास्तव में हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं? ऊतर-"कुछ भूत बातों से नहीं मानते उनको लातें चाहिए। यह बातें तो कहीं जा रही हैं कि नम्र बन जाओ, यह भाषा अगर समझ में नहीं आती तो भगवान की दूसरी भी भाषा हैं,उन को दंडित किया जाएगा, पीड़ित किया जाएगा। यह कोरोना वायरस कुछ ऐसा ही हैं। अमेरिकन जो अभिमानी थे कि हम यह हैं हम वह हैं, हम सुपर पावर हैं,अभी वह सब झुक रहे हैं। हम नम्र नहीं बनेंगे, भक्त नहीं बनेंगे और फिर *अमानिना मान - देन* औरों का सम्मान सत्कार नहीं करेंगे। उसके फिर दुष्परिणाम भोगने पड़ेंगे।हम अपराध करेंगे वैष्णव अपराध होंगे और जानते हो इसका परिणाम क्या होगा?पुनर मुषीक भव: ।पुनर मुषीक भव:।पुनः चूहा बन जाओ।यह बिल्ली मुझे परेशान कर रही हैं, ऐसा चूहे ने कहा। ऐसा प्रभुपाद समझाते थे कि एक चूहा योगी के पास गया और उसने कहा मुझे बिल्ली बना दो फिर उसे कुत्ता परेशान करने लगा फिर वह योगी के पास जाता हैं और कहता है कि मुझे कुत्ता बहुत परेशान कर रहा हैं आप मुझे कुत्ता बनाओ। उसे कुत्ता बना दिया, कुत्ता जब बन गया तो बिल्ली से तो उसकी जान बच गई लेकिन अब शेर परेशान कर रहा हैं। पुनः वो साधु के पास जाकर कहता हैं, मुझे शेर बनाओ।साधु ने कहा बन जाओ शेर, लेकिन जब उसको शेर बनाया तो वह कृतज्ञ नहीं था। उस योगी ने कितने सारे उपकार कीए उसपर उसके बदले वह कृतज्ञ्न हुआ,उस शेर ने योगी को ही शिकार करने का प्रयास किया। जब वह गर्जना करने लगा और योगी का भक्षण करने के लिए आगे बढ़ने के कदम उठाने लगा तो इतने में योगी ने कहा पुनर मुषीक भव:! फिर से चुहा बन जाहो!" यही होता हैं, जब हम *अमानिन मान देन* नही करते हैं।जब वैष्णव अपराध होते हैं या गुरु अपराध होते हैं, जब हम गुरु भोगी बनते हैं या गुरु त्यागी भी हो सकते हैं।तब भगवान कहेंगे कि तुम जैसे थे वैसे ही बन जाओ। इसीलिए सावधान।जीव जागो। नम्र बनो, सहनशील बनो और दूसरों का सम्मान करने वाले बनो और खुद के लिए सम्मान सत्कार की योजना या व्यवस्था मत बनाओ,नहीं तो जो हमारी हरि नाम में रुचि थी वह भी हम खो बेठेंगें।अगला प्रश्न पूछें। प्रशन-*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना* इस सिद्धांत को अपने जीवन में अपनाना हैं या नहीं और अगर अपनाना हैं तो इसे कैसे अपनाएं? खास करके अपने सहकर्मियों के साथ या अभकतो के साथ, क्या उनके साथ भी विनम्र ही रहना हैं,इसे कैसे समझे? ऊतर-ऐसा कहा गया हैं कि *असत्सङ्ग-त्याग,-एड़ बैष्णव-आचार ।* *स्त्री-सङ्गी'-एक असाधु, 'कृष्णाभक्त' आर ॥ 87॥* *अनुवाद* *वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए।* *सामान्य लोग बुरी* *तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रीयों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों* *को उन लोगों की भी* *संगति से बचना चाहिए, जो कृष्ण-भक्त नहीं हैं।"* इस दुनिया के संग को त्यागो या छोड़ो या दूर से ही नमस्कार करो। अभक्तों से अपने लेनदेन को कम से कम रखों। यदि आप ऐसे लोगों को उपदेश देते हैं तो उन्हें बुरा लग सकता हैं। भक्त अपनी सहनशीलता से उपदेश देते हैं। एकनाथ महाराज ऐसे ही एक भक्त थे । वह गोदावरी नदी के तट पर रहते थे। वह बहुत सहनशील थे। एक बार वह गोदावरी नदी से स्नान कर लौट रहे थे और एक बदमाश ने तंबाकू खाकर उन पर थूक दिया।उनहोनें लाठि से प्रतिकार नही किया,वह धैर्यपूर्वक गए और फिर से स्नान किया।यह कई बार दोहराया गया, लेकिन उन्होंने अपना आपा नहीं खोया,अंत में उस शरारती व्यक्ति ने हार मान ली और वह एकनाथ महाराज के चरणों में गिर गया। तो एकनाथ महाराज ने उत्तर दिया धन्यवाद,मैं आपका आभारी हूं कि मुझे इतनी बार पवित्र नदी में स्नान करने को मिला। तो ऐसे भक्त हमें उदाहरण देते हैं कि हमें जीवन कैसे जीना चाहिए। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में व्यक्ति अपने सलाहकारों या वरिष्ठ भक्तों से भी परामर्श कर सकता हैं‌ कि कैसे इस परिस्थिति में इस सिद्धांत को अपने जीवन में उतारना‌ हैं।एक होती‌ हैं प्रतिक्रिया और दूसरा प्रतिवचन अर्थात एक होता हैं रिएक्शन और दूसरा रिस्पांस।रिएक्शन विचारहीन और त्वरित होता हैं।हमे रिएक्शन नही रिस्पांस देना हैं।मतलब हमारे साथ कोई भी घटना घटी हो,औरों ने अपमान किया हो या कुछ भी किया उसे पहले ठंडे दिमाग से सोचो,पहले रुको,फिर सोचो और फिर आगे बढ़ो। पहले सोचो और उस समय कोई सलाह ले सकते हैं साधु शास्त्र और आचार्य की सलाह से हम आगे की कार्रवाई कर सकते हैं अन्यथा इस संसार में केवल यही होता है एक्शन एंड रिएक्शन और इसी से संसार बढ़ता और चलता है यही होता हैं जब हम मांस भक्षण करते हैं हम किसी से इतनी ईर्ष्या करते हैं कि उसे जीवित भी नहीं देखना चाहते। हम उन्हें मार देते हैं। जैसे हम पशुओं की जान लेते हैं और उसको खाते हैं और फिर इसका क्या परिणाम होता हैं? कि तुमने आज मुझे खाया कल मेरी बारी होगी। मैं तुमको खा लूंगा।इसीलिए रिएक्टिव होने की बजाय रिस्पांसिव बनो। सोच समझकर ही आगे बढ़ो और हमेशा यह ध्यान में रखो कि कौन-कौन हैं उस हिसाब से ही व्यवहार करो अभक्तों से कोई लेन-देन रखना हैं या नहीं?उनके प्रति उदासीन होना हैं‌ या कैसा व्यवहार करना हैं, यह सोच समझकर ही निर्णय लो। लेन-देन कई प्रकार के होते हैं,तो सबसे पहले उस व्यक्ति के व्यक्तित्व को पहचानो और फिर व्यवहार करो। बिच्छू वाली बात पर विचार करो। साधु बिच्छू को बचाना चाह रहा था, लेकिन बिच्छू तो अपना डसने का काम कर ही रहा था। साधु ने सोचा और कहां जब बिच्छू अपना धर्म नहीं छोड़ रहा तो मैं अपना धर्म क्यों छोडू मुझे भी तो दयालु होना चाहिए क्योंकि मैं साधू हूँ। दया ही धर्म का मूल हैं। प्रश्न: जब हर समय जप करना चाहिए तो सुनते समय हम इसे कैसे रोक सकते हैं? उत्तर - हमें इस श्लोक में कीर्तन का अर्थ ठीक से समझने की आवश्यकता हैं। कीर्तन, यह केवल पवित्र नामों का कीर्तन नहीं है। मैंने अभी कुछ मिनट पहले ही कहा था, भक्त की हर क्रिया कीर्तन हैं। पुस्तक वितरण भी कीर्तन है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा कि प्रिंटिंग प्रेस एक बड़ा मृदंग हैं जो जोर से बजता हैं और कई लोगों तक पहुंचता है। पुस्तकों में भगवान की महिमा हैं और ऐसी पुस्तकों का प्रचार और वितरण ही संकीर्तन हैं। कीर्तन शब्द का अर्थ है भगवान की महिमा फैलाना। यह रूप या गुणों की महिमा या लीलाओं या भगवान का निवास हो सकता हैं। जब जुहू मंदिर का निर्माण किया जा रहा था, निर्माण स्थल पर बहुत झगडे हो रहे थे, इसलिए भक्तों ने श्रील प्रभुपाद को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव रखा। तब श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यह शोर मंदिर निर्माण का हैं, इसलिए यह मेरे लिए कीर्तन है। यह मुझे बिल्कुल भी परेशान नहीं कर रहा है। कीर्तन सुनना भी कीर्तन है। चारों वर्णों और आश्रमों के लोग भगवान हरि की प्रसन्नता के लिए कार्य कर रहे हैं। चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र का कर्तव्य हो, कृष्ण को केंद्र में होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि केवल पुजारी ही कीर्तन कर रहे हैं। सफाई कर्मी भी कीर्तन कर रहे हैं। अगर कोई दर्शनार्थी मंदिर की सफाई की तारीफ करता है तो यह उसके लिए कीर्तन हैं। जब हम दर्शन करते हैं तो हम भगवान की प्रशंसा करते हैं। पुजारी इस तारीफ का कारण बनते हैं। तो यह पूरा आंदोलन कीर्तन है। प्रसाद का वितरण भी कीर्तन है। हमें रिपोर्ट मिलती है कि भक्त इस कोविड राहत में प्रसाद बांट रहे हैं। यह भी कीर्तन हैं। जैसे ऐसा नहीं है कि अकेले मांस खाने वाले को दण्ड दिया जाता है बल्कि पशु के रखवाले और विक्रेता, कसाई, पैकर, बिचौलिए, खरीदार, रसोइया आदि सभी पाप के भाग हैं। तो इसी तरह भक्ति सेवा में हमारे प्रयास भी इसे गतिविधियों की एक श्रृंखला से जोड़ते हैं। जो कि सभी कीर्तन के भाग हैं। लेकिन हम तो केवल माया की महिमा गाते हैं। बीयर और वाइन का इतना विज्ञापन हैं और बहुत सी चीजें जो वास्तव में खराब हैं। तो जब कहा जाता है कि कीर्तनिया सदा हरि तो कई प्रकार के कीर्तन होते हैं। अब हम यहीं रुकेंगे। कुछ प्रश्न शेष हैं और हम उन्हें आगामी सत्रों में उठाने का प्रयास कर सकते हैं। एक भक्त ने अपनी अनुभूति भेजी है कि ये शिक्षाष्टकम कि प्रार्थनाएँ भक्ति जीवन का सार हैं और इसलिए महाप्रभु ने अपनी लीलाओं के अंत में उनकी चर्चा की हैं। यह शिक्षाष्टकम सब कुछ स्पष्ट रूप से देखने के लिए हमारे लिए एक मशाल की तरह हैं। हमें इसे ठीक से समझने और अपने जीवन में समाहित करने का प्रयास करना चाहिए। जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बहुत कुछ करना हैं, किसी माताजी ने एक कविता भेजी है, आप इसे अवश्य पढ़ें। टिप्पणियाँ और प्रश्न आपसे संबंधित हो सकते हैं या आपको एक नया विचार दे सकते हैं। ये सत्र एक दर्पण की तरह रहे हैं जिसने हमें दिखाया कि हम इस सीढ़ी पर कहां खड़े हैं। हम भविष्य में किसी दिन इस पर और चर्चा करेंगे। महाप्रभु और इस्कॉन की कृपा से, हरिनाम पूरी दुनिया में हर जगह,हर दरवाजे तक पहुँचाया जा रहा हैं। हमें बस इतना करना है कि इसे प्राप्त करना है। HG मधुर विट्ठल प्रभु ने नृसिंहदेव चतुर्दशी की कथा से अपना विचार भेजा है। उनका कहना है कि कलियुग के लोगों के लिए यह बहुत कठिन है क्योंकि उनकी बुद्धि हिरण्यकश्यप जैसे राक्षसों से भी बदतर है। भक्ति पुरुषोत्तम महाराज कह रहे थे कि यदि हम वैष्णव तिलक और कंठी माला को अंतिम सांस तक बनाए रखें तो यह भी एक उपलब्धि है। *हरे कृष्ण*

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