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हरे कृष्ण जप चर्चा, पंढरपुर धाम, २० दिसंबर २०२०
768 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय कहो ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, भगवतगीता की जय। यहां ऐसी ही कुछ बातें क्रम से नहीं हो रही है। लेकिन जो भी बात है गीता के संबंध में। हरि हरि। वो सभी बातें उपयोगी है और अपने में पूर्ण है, लाभदायक भी है और मीठी भी है। हरि हरि।सत्य कुछ कड़वा भी हो सकता है किंतु उसका परिणाम मीठा होता है। गीता जयंती महोत्सव की जय। कल हमने गीता जयंती महोत्सव के उपलक्ष में सुना। हमें गीता का अध्ययन भी करना चाहिए और गीता के ज्ञान का वितरण भी करना चाहिए। वैसे यह बातें तो कृष्ण ने कहीं है, ऐसा हम आपसे कह रहे हैं। अपने दिमाग की बातें ना तो हम कहते हैं और ना हमें कहने का अधिकार है। श्रीभगवान उवाच भगवान ने जो कहा गीता के अंत में वही बातें आपको सुनाई। दो मुख्य बातें थी, एक तो गीता का अध्ययन करें, गीता का श्रवण करें। क्या फायदा फिर भगवान ने गीता का उपदेश तो सुनाया लेकिन हमने ना तो उसको सुना और ना तो उसको पढ़ा। तो हमको भगवान के इस धरातल पर अवतरित होने सम्भवामि युगे युगे का क्या लाभ हुआ। हरि हरि। कृष्ण की सिफारिश कि हम गीता को ज़रूर पढ़े और फिर पढ़े हुई गीता की बातें, गीता के उपदेश, उस उपदेश को हम बांंट भी सकते हैं और उसका वितरण भी कर सकते हैं। कर तो सकते हैं, करना चाहिए, करो। यह नहीं करना चाहिए, करना चाहिए। तो ऐसा आदेश है करो। गीता का जो अध्ययन करेंगे समझेंगे गीता को और गीता को समझने का मतलब क्या है कृष्ण को ही तो समझना है। गीता पढ़ के, समझ के यदि कृष्ण समझ नहीं आए तो फिर क्या पढ़े क्या समझे। किसलिए भगवान ने गीता सुनाई है? उस गीता के अध्यन से श्रवण से हम कृष्ण को नहीं जानेंगे।
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ || (श्रीमद् भगवत गीता १५.१५)
अनुवाद मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
भगवान ने कहा वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो मुझे जानने के लिए वेद है। भगवान ही है वेदों के रचयिता। उसी के अंतर्गत यह महाभारत भी है। महाभारत को पंचम वेद कहा है, चार वेद आप जानते हो। उसी पांचवें वेद महाभारत के अंतर्गत है भगवत गीता। यह वेद किसलिए हैं मुझे जानने के लिए है। तो हम गीता पढ़ेंगे तो हम कृष्ण को जानेंगे। हरि हरि। कृष्ण ने भगवत गीता का उपदेश सुनाया और चौथे अध्याय में कहते है इसका परंपरा में प्रचार होना चाहिए।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदः | स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ || (श्रीमद्भगवद्गीता ४.२)
परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, योगविद्या; नष्टः- छिन्न-भिन्न हो गया; परन्तप- हे शत्रुओं को दमन करने वाले, अर्जुन | इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है |
कृष्ण के कहे हुए उपदेश का प्रचार होना चाहिए। प्रचार प्रसार होगा तो लोग गीता को पढ़ेंगे। हरि हरि। वे भी कृष्ण को जानेंगे। हरि हरि। ऐसे मैं सोच रहा था कि संसार में जो पाप कृत्य होते हैं,पाप होता है, उस पाप के कहीं सारे भागीदारी बन जाते हैं। मांस का भक्षण करने वाला ही पापी नहीं है, केवल उसे ही पाप का फल भोगना नहीं पड़ेगा, केवल उसी को ही नहीं, कहीं सारे। हरि हरि। जिस किसी के पास पशु होते हैं, किसानों के पास पशु होते हैं उसने कसाई को बेच दिया अपने पशु। पहला अपराधी किसान हुआ, उस माला के मनके बनने वाले हैं। फिर कसाई है जिसने पशु को कांटा पशु की हत्या की। फिर उसको अच्छे से पैक करा। कसाई भी भागीदारी बनेंगे उस पाप के। फिर उसका कसाईखाने से परिवहन कर रहे हैं और फिर उसका निर्यात होगा। अब भारत निर्यात कर रहा है। मांस भर भर के नौकाओ और जहांजो में हम मध्य पूर्व देशों में भेज रहे हैं। परिवहन चालक, खरीददार, पदोन्नति करने वाला भी भागीदारी है। फिर कोई उसको खरीद कर घर लाया, किसी ने उसको पकाया, किसी ने उसको परोसा और अंततोगत्वा फिर उसको किसी ने खाया। कितने सारे भागीदारी हो गए। जिसका पशु था और अंततोगत्वा जिसकी थाली तक उस पशु को परोसा गया और भक्षण किया। यह सभी पाप के भागीदारी होंगे। पाप का फल उनको भी भोगना होगा। तो यह पाप की बात है। तो फिर पुण्य की बात भी वैसी ही है।
शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकौर्तनः । हृद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥ १७॥ (श्रीमद भागवत १.२.१७)
प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान् श्रीकृष्ण, उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को हटाते हैं जिसने उनकी कथाओं को सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है, क्योंकि ये कथाएँ ठीक से सुनने तथा कहने पर अत्यन्त पुण्यप्रद हैं।
श्रीमद् भागवत में ये जो गीता भागवत का श्रवण है इसको पुण्यश्रवणकौर्तनः अर्थात पुण्य है।यह सारे पुण्य आत्मा है। शास्त्रों में कृष्ण को पुण्य श्लोक कहते हैं। फिर कृष्ण ने भगवत गीता सुनाई।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदः | स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ || (श्रीमद्भगवद्गीता ४.२)
परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, योगविद्या; नष्टः- छिन्न-भिन्न हो गया; परन्तप- हे शत्रुओं को दमन करने वाले, अर्जुन |
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है |
परंपरा में भगवत गीता को आचार्य सुनाते रहे। आचार्यों ने शिष्यों को गीता सुनाई, शिष्यों ने औरो को सुनाई और फिर ऐसे ही भगवत गीता का प्रिंटिंग, ट्रांसपोर्ट, बीबीटी पब्लिकेशन आपके मंदिर और घर तक पहुंच गया। जब आप गीता को औरो के पास पहुचाते हो और जिसके पास गीता आपने पहुंचाई वह उसको पढ़ता है, जिसके हाथ में भगवत गीता है। तो वह भी पुण्य कमा रहा है, पुण्य आत्मा बन रहा है, सुकृत अच्छा कृत् पुण्य कृत्य रहा है।
रूप पाहता लोचनी। सुख झालें वो साजणी॥१॥ तो हा विठ्ठल बरवा। तो हा माधव बरवा॥२॥ बहुता सुकृताची जोडी। म्हणुनी विठ्ठली आवडी॥३॥ सर्व सुखाचे आगर। बापरखुमादेवीवर॥४॥ - संत तुकाराम
मराठी में कहते हैं बहुता सुकृताची जोडी एक पुण्य कृत्य और पुण्य कृत्य और अधिक अधिक पुण्य कृत्य, उसको जोड़ेंगे तो उसका परिणाम क्या होगा। म्हणुनी विठ्ठली आवडी भगवान से हमारा प्रेम होता है, भगवान से प्रेम करना हम सीखते हैं, प्रेम करते हैं, प्रेममयी सेवा करते हैं। हरि हरि। हमारा जो कृष्ण से प्रेम है वह कैसे जगता है। वैसे गीता भागवत के श्रवण कीर्तन से प्रेम जगता है।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।107॥ (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १०७)
अनुवाद कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।
श्रवणादि-शद्ध-चित्ते श्रवण किया फिर चित शुद्ध हुआ, प्रेम उदित होगा। हम कृष्ण प्रेमी बने या राम प्रेमी बने या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेमी बने। यही है जीवन की सफलता।
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार। जन्म सार्थक करि' कर पर-उपकार ॥41॥
अनुवाद जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।
चैतन्य महाप्रभु कहे भारत में जन्मे हो, हां जन्मा हूं। फिर प्रभुपाद कहां करते थे भारत में जन्मा तो हूं लेकिन कुत्ता या बिल्ली हूं। भगवान की विशेष कृपा है कि मैं मनुष्य रूप में भारत में जन्मा हूं। तो मनुष्यों के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु संबोधित करते हुए कह रहे हैं।जन्म की सार्थकता चाहते हो तो परोपकार करो तो यह भगवत गीता का वितरण करना इस समय वैसे साल भर हर दिन कर सकते हैं लेकिन के यह विशेष अवसर है। कुछ ही दिनों में हम गीता जयंती मनाएंगे। गीता का जन्मदिवस - गीता का जन्म हुआ मोक्षदया एकादशी के दिन, वह दिन आ रहा है। इन दिनों में इस दिसंबर महीने में यह श्रील प्रभुपाद के समय से चल रहा है। मैराथन श्रील प्रभुपाद ही प्रारंभ किए। प्रभुपाद के समय इसको क्रिसमस मैराथन कहते थे क्योंकि पाश्चात्य देशों में शुरू हुआ था यह मैराथन। क्रिसमस के समय लोग एक दूसरे को भी भेट देते हैं। श्रील प्रभुपाद उनसे निवेदन किया करते थे यह आपके लिए भेट है। यदि आपके पास है तो आप किसी और को भगवत गीता भेट कर सकते हैं। जन्मदिन याद सालगिरह या किसी भी अवसर के लिए भगवत गीता सबसे उत्तम भेट है।
इस प्रकार क्रिसमस मैराथन प्रारंभ हुआ। क्रिसमस हर साल 25 दिसंबर को आता है और हमारी गीता जयंती भी इस साल 25 दिसंबर को ही है। इस्कॉन में एक समय श्रील प्रभुपाद या गीता जयंती मैराथन नाम से जाना जाता है इसका वितरण करेंगे तो पुण्य का अर्जन करेंगे। जैसे हम आपको बता रहे थे कि इस पुण्य का अर्जन बस भगवत गीता पढ़ने से ही नहीं, गीता का वितरण करने वाला भी पुण्य कमाने वाला है। इतना ही नहीं जो यह कागज है जो वृक्षों से बनता है तो श्रील प्रभुपाद अपनी टीका में लिखे है, वृक्षों को नहीं काटना चाहिए या तोड़ना चाहिए यह हत्या है या पाप है! जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया है वैसे ही टाइम्स ऑफ न्यूयॉर्क नाम का एक अखबार है जिसके प्रकाशन के लिए इतना कागज लगता है कि कई सारे एंकर वृक्षों को काटना पड़ता है। और वह उतना सारा कागज़ बस 1 दिन के प्रकाशन के लिए उपयोग में लाते है।तो जो यह सारी कचरा न्यूज़ है, न्यूज़ दो प्रकार की होती है एक होती है ग्रामकथा और एक होती है रामकथा या कृष्णकथा! तो ग्राम कथा को छापने के लिए सारी बेकार की या बकवास की बातें छापने के लिए उस कागज का उपयोग करते है जो कागज उन वृक्षों बने है। तो इस उद्देश्य से वृक्षों काटने वाले पाप करते है। तो जैसे मैं बता रहा था कि श्रीला प्रभुपाद अपनी टीका में लिखते है कि, संसार भर की जो सरकारें है उनको वृक्षों काटने के लिए किसी को अनुमति नहीं देनी चाहिए! पूरा बंधन होना चाहिए! और श्रील प्रभुपाद कहते है कि केवल एक अपवाद हो सकता है, जो भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट है उसका प्रकाशन करने के लिए वृक्ष काट रहे हो तो यह ठीक है! तभी आप वृक्ष काट सकते हो वरना मत काटो! तो ऐसे काटे हुए वृक्ष भी पुण्यात्मा बनेंगे क्योंकि उनका उपयोग भगवत गीता का उपदेश छापने के लिए हुआ। तो कृष्ण ने भी पुण्य कमाया है भगवान ने हमें गीता बताकर और जो आचार्य गन इस उपदेश को सुनाते आए हैं और यह उपदेश हमारे तक पहुंचा है तो अब इस उपदेश का हम वितरण करेंगे और उनके पास घर घर पहुंचाएंगे तो हम भी बहुत बड़े पुण्य के भागीदारी बनेंगे! यह सारे पक्ष लाभान्वित होंगे, केवल पढ़ने वाला ही नहीं लेकिन जो उनके वास यह गीता का ज्ञान पहुंचाने वाले आप आप अभी पुण्य के भागीदार होंगे!
भगवान ने गीता का उपदेश तो सुनाया, और फिर श्रील व्यासदेव उसको अगर लिखते नहीं क्योंकि कलयुग में लिखने की आवश्यकता है अगर लिखेंगे नहीं तो आप उसे याद नहीं कर पाओगे, तो श्री भगवान उवाच भगवत गीता का उपदेश कृष्ण कहे लेकिन उसको लिखने की या रचना करने की व्यवस्था श्रील व्यासदेव किए! श्रील व्यासदेव अगर महाभारत नहीं लिखते तो भगवत गीता भी नहीं लिखते क्योंकि महाभारत के भीष्म पर्व का 18 वा अध्याय है यह भगवतगीता! हरि हरि। तो वैसे महाभारत में भी 18 पर्व है, उसमें से एक पर्व है भीष्म पर्व, और उस भीष्म पर्व के 18 अध्याय वाली यह भगवतगीता है। महाभारत के 18 पर्व है तो भगवतगीता के भी 18 अध्याय है। और महाभारत का जो युद्ध हुआ वो 18 दिन चल रहा था, और 18 अक्षौहिणी सेना इस युद्ध को खेल रहे थे।वैसे उन दिनों युद्ध खेल जैसा ही होता था जैसे पहलवान कुश्ती खेलते है, वैसे ही धर्मयुद्ध एक खेल हुआ करता था। युद्ध का खेल! और लोग देखने के लिए भी आ जाते थे। हरि हरि। तो 18 अक्षौहिणी सेना भी थी, 11 अक्षौहिणी कौरवों के साथ और 7 अक्षौहिणी पांडवों के साथ थी। तो यह सारा 18 का खेल है।ऐसे आप इसे याद रख सकते हो। तो श्रील व्यासदेव उसको लिखे। हरि हरि।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो अपने जीवन को सफल बनाने के लिए इस भगवतगीता को पढ़ना है। वैसे आप पढ़ते नहीं हो! उसी के साथ इस गीता का वितरण भी करना है औरोंको भी प्रेरित करना है! जैसे हम कह रहे थे कि अखबार के ढेर के ढेर घर में पड़े रहते हैं लेकिन भगवतगीता नहीं होती यह दुर्भाग्य है! तो हर जीव के घर में या हाथ में भगवतगीता और दिमाग में भगवतगीता होनी चाहिए और उसके अनुसार अगर हम कार्य करेंगे तो हमारा जीवन सफल होगा। एक दूसरा वचन हमने पढ़ लिया तो हमें लगता है हमने जान लिया गीता को और हम कहते रहते है
कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन | मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || भगवतगीता २.४७
अनुवाद:- तुम्हें अपने कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो | तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ |
कर्मण्यवाधिकारस्ते कर्म करते रहो, हमारा फर्ज निभाओ, भगवान ने अधिकार दिया है। तुम्हें कर्म करने का अधिकार है! वह एक श्लोक याद रखते हैं लेकिन आगे जो कहा है, मा फलेषु कदाचन कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो लेकिन कर्म का फल तुम्हारे लिए नहीं है!
यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् | यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् || भगवतगीता ९.२७
अनुवाद हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो |
यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि तुम जो कुछ भी करते हो वह मुझे अर्पण करो! तो इस प्रकार यह अधूरा ज्ञान बहुत भयानक होता है। हम अधिकतर कुछ पढ़ते नहीं जानते नहीं या याद नहीं रखते, कुछ 2-4 वचन हम याद रखते हैं और बाकी के तो भूल जाते हैं और उसको भली-भांति समझते नहीं है। न तो सुने होते हैं या वचनों को कंठस्थ किए होते है! हरि हरि। तो भगवान की कृपा से हमें दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है और फिर, कृष्ण कहे है कि,
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये | यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः || भगवतगीता ९.२७
अनुवाद कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है |
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये हजारों में से कोई एक होता है जो धर्म के मार्ग का अवलंबन करता है या लेकिन वह भी अपने जीवन की सिद्धियां लक्ष्य को प्राप्त नहीं करता। वह बीच में ही छोड़ दे देता है या धर्म के नाम पर उसे गुमराह किया जाता है। धर्म के क्षेत्र में बहुत ठगाई होती है, और कई सारी उठ पटांग बातें सुनाई जाती है, और अपप्रचार होता है! यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः और थोड़ी प्रगति किए हुए प्रगत भक्तों में से कुछ ही होते हैं जो भगवान को और भगवत गीता को तत्वतः जानते है। तत्वतः जानने वाले तो गिने चुने ही होते है। तो आप जो यह तक यानी इस्कॉन तक पहुंचे हो, इस्कॉन के गौड़िया वैष्णव जो है उनके संपर्क में आए हो, और अब तत्वतः जानने की कोशिश कर रहे हो, और भगवतगीता यथारूप आपको प्राप्त हुई है, और आप उसका वितरण भी कर रहे हो यह बात दुर्लभ है! यह दुर्लभ है! तो यह दुर्लभ वस्तु, मार्ग या संघ या भगवतगीता यथारूप आप तक पहुंची है! तो यह आपके पूर्वजन्म के पुण्याई का कुछ फल ही है, जो आपको यहां तक पहुंचाया है। भगवतगीता यथारूप आप तक पहुंची है और आप उसका अध्ययन कर रहे हो उसको समझ रहे हो! जैसे कि मैं भगवान की यानी कृष्ण की बात कह रहा था,
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये | यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ||
भगवान को तत्त्वतः समझना अनिवार्य है और ऐसी व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ में श्रील प्रभुपाद करके गए है। श्रील प्रभुपाद की जय! तो ऐसी व्यवस्था के संग में हम आए है, ऐसी व्यवस्था का हम अंग बने है, तो कृष्ण के आभार मानो! हरि हरि। ओम नमो भगवते वासुदेवाय। उस वासुदेव की चरणों में झुकिए और उनका आभार मानिए।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || भगवतगीता १८.६६
अनुवाद समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज तो भगवान करने के लिए बैठे है, क्या करने के लिए? अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि हमें मुक्त करेंगे भगवान और ऐसा भी कह रहे कि, मा श्रुचः डरो मत। हे मेरे प्रिय, मैं यही हूं, डरो मत! ठीक है। आपके कुछ सवाल है तो आप लिख सकते हो। बाकी सभी पढ़ेंगे और उत्तर दिए जाएंगे। हरे कृष्ण!
English
20 December 2020
Become part of the chain of pious activities by distributing Bhagavad Gita
Hare Krishna! Devotees from 768 locations are chanting with us right now.
Om namo Bhagavate Vasudevaya!
We have been discussing the Bhagavad Gita and the importance of its study and distribution in the past few days. Although we have not been following any particular sequence or syllabus, every part of our talk and discussion on the Bhagavad Gita is complete in itself.
Yesterday we were discussing the importance of Gita Jayanti. I was saying that both reading and distribution is equally important. It is important, very important and the Lord says this. These are not the words of some unauthorised person.
It is recommended by Sri Krsna to study Bhagavad Gita and preach its knowledge and distribute it. It is not something that you may do, it's an order, Do it! Study and distribute books! Krsna says, “The Vedas have been created and composed to know Me.”
sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca vedaiś ca sarvair aham eva vedyo vedānta-kṛd veda-vid eva cāham
Translation: I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas. [ BG 15.15]
By studying the Vedas, one can know Krsna. There are 4 popular Vedas. Mahabharata is also known as Pancham Ved, the fifth Veda. And Bhagavad Gita is part of this fifth Veda, Mahabharata. The instructions of Sri Krsna and the knowledge to know Him must be learned and preached. Spread the instructions of the Lord.
evam parampara-praptam imam rajarsayo viduh sa kaleneha mahata yogo nastah parantapa
Translation: This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. [ BG 4.2]
There should be preaching of the instructions given by Krsna. This happens by distributing books. Whenever there is any sinful activity happening in this world there are many partners to the crime. Not only the meat-eater is the sinner, but also the poultry farmers, butchers, transporters, exporters, sellers, buyers, promoters, cooks, servers, and finally the consumer. All are partners in the sinful crime. In the same way, any other sinful crime taking place has a chain of partners. Similarly, there are chains of pious activities.
śṛṇvatāṁ sva-kathāḥ kṛṣṇaḥ puṇya-śravaṇa-kīrtanaḥ hṛdy antaḥ stho hy abhadrāṇi vidhunoti suhṛt satām
Translation: Śrī Kṛṣṇa, the Personality of Godhead, who is the Paramātmā [Supersoul] in everyone's heart and the benefactor of the truthful devotee, cleanses desire for material enjoyment from the heart of the devotee who has developed the urge to hear His messages, which are in themselves virtuous when properly heard and chanted.[ SB 1.2.17]
Krsna spoke the Bhagavad Gita. It came down in the bonafide disciplic succession. The commentary was written. It was printed by BBT press and then transported. In this way there is a chain - temples, distribution, purchasing. They study or gift it further. In this way, there is a chain. In this way, everyone is earning pious credits. There is a song in Marathi which says that when such pious deeds pile on one after the other, then finally the outcome is developing an interest in Bhakti. Then by this fortune, we come across devotees.
nitya-siddha kṛṣṇa-prema ‘sādhya’ kabhu naya śravaṇādi-śuddha-citte karaye udaya
Translation: Pure love for Kṛṣṇa is eternally established in the hearts of the living entities. It is not something to be gained from another source. When the heart is purified by hearing and chanting, this love naturally awakens.[ CC Madhya 22.107]
Sankirtan and sadhu sanga nourish this Bhakti and gradually one starts developing love for Krsna, Vitthala, Rama, or Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. Most of us are fortunate enough to be born as humans in the holy land of India.
bhārata-bhūmite haila manuṣya janma yāra janma sārthaka kari’ kara para-upakāra
Translation: One who has taken his birth as a human being in the land of India [Bhārata-varṣa] should make his life successful and work for the benefit of all other people.[ CC Adi 9.41]
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu said, “Those who are fortunate enough to be born as human beings in the holy land of India should make their human life worthwhile and also preach it to others.” We have a great opportunity to do that every year during December. Gita Jayanti falls in December. Christmas also falls in the same month. People celebrated Christmas marathons and distributed gifts to friends and families. Srila Prabhupada said, “What could be a better gift than a Bhagavad Gita. We are doing this Gita Jayanti Marathon. This is a marathon of pious deeds.
Once there was an article that said many acres of land, full of trees need to be cleared to print paper only for the Sunday edition of New York times. Srila Prabhupada has written in a purport that there should be a strict ban on cutting of trees. Srila Prabhupada said that cutting of trees to make pages to be used by BBT for the printing of Bhagavad Gita and other books should be an exception because this is a pious as well as a very important purpose.
Let us all be a part of this chain of pious deeds that started with Krsna. Krsna spoke then it was written by Srila Vyasadev. Had he not written Mahabharata then we would have not received this Bhagavad Gita which is a part of it. It is the 18 chapters in the Bhishma Parva which is one of the 18 parvas (cantos) of Mahabharata. The battle of Mahabharata also continued for 18 days. The total army on both sides of the battle sums up to 18 Akshauhinis. Well, we need to understand the importance of this Bhagavad Gita.
There is a newspaper in every house. So much accumulated paper. There is so much nuisance in the paper and that nuisance is in the minds of people. We need to make let Bhagavad Gita reach their houses and their minds. When someone is asked about Bhagavad Gita all they know is that Krsna says do your duty.
karmaṇy evādhikāras te mā phaleṣu kadācana mā karma-phala-hetur bhūr mā te saṅgo ’stv akarmaṇi
Translation: You have a right to perform your prescribed duty, but you are not entitled to the fruits of action. Never consider yourself the cause of the results of your activities, and never be attached to not doing your duty. [ BG 2.47]
But half knowledge is very dangerous. Krsna says, “Your fruits should be offered to Me.” We need to make optimal use of this human life that we have in spreading this knowledge of Bhagavad Gita. There are so many human beings. One among thousands walks on the path of dharma. Most of them are distracted right in the beginning by the cheaters and false preachers in the field of dharma.
manusyanam sahasresu kascid yatati siddhaye yatatam api siddhanam kascin mam vetti tattvatah
Translation: Out of many thousands among men, one may endeavor for perfection, and of those who have achieved perfection, hardly one knows Me in truth.[ BG 7.3]
Very few among them can get in touch with the right person to learn Bhagavad Gita correctly. Krsna says that there are very few people who get to know Krsna as He is. You are all very fortunate to have come in contact with ISKCON, Hare Krishna and Gaudiya Sampradaya. You are chanting the Hare Krsna maha-mantra, and you are studying and preaching Bhagavad Gita. We have to thank God. This is an arrangement of the Lord. Om namo Bhagavate Vasudevaya! So don't fear. The Lord will liberate us.
sarva-dharman parityajya mam ekam saranam vraja aham tvam sarva-papebhyo moksayisyami ma sucah
Translation: Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reaction. Do not fear. [ BG 18.66]