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जप चर्चा दिनांक २९.०८.२०२० हरे कृष्ण! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥१ ॥ ( श्री मद् भागवतम १२.१.१) अनुवाद : हे प्रभु , हे वसुदेव - पुत्र श्रीकृष्ण , हे सर्वव्यापी भगवान् , मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ । मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति , पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं । वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं , क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं । उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया । उन्हीं के कारण बड़े - बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं , जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है । उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड , जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं , वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं । अतः मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं । मैं उनका ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे ही परम सत्य हैं । हरि! हरि! आज श्रील शुकदेव गोस्वामी की कथा का यह तृतीय दिवस है। जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि वे दिन में ही कथा नहीं करते थे अपितु वे रात्रि में भी कथा जारी रखते थे। शुकदेव गोस्वामी की भगवतकथा के तृतीय दिवस के साथ साथ आज एकादशी महोत्सव भी हैं। एकादशी महोत्सव की जय! इस एकादशी को माधव तिथि भी कहा है। शुद्ध-भकत-चरण-रेणु, भजन अनुकूल। भकत सेवा, परम-सिद्धि, प्रेम-लतिकार मूल।। ( शुद्ध भक्त- वैष्णव भजन - श्रील भक्ति विनोद ठाकुर) अर्थ :1) शुद्ध भक्तों की चरणरज ही भजन के अनुकूल है। भक्तों की सेवा ही परमसिद्धि है तथा प्रेमरूपी लता का मूल (जड़) है। एकादशी भक्ति को जन्म देने वाली माधव तिथि है। इस एकादशी को माधव तिथि भी कहा जाता है। यह माधव की तिथि है। एकादशी और कैसी होती है? भक्ति जननी अर्थात एकादशी भक्ति को जन्म देने वाली है। एकादशी भक्ति देती है। हरि! हरि! एकादशी भक्ति कैसे देती होगी? एकादशी भक्ति देती है जिससे हमारा उपवास होगा। उपवास मतलब पास में वास होगा। किस के पास वास होगा? भगवान के पास हमारा वास या निवास होगा और भगवान का सानिध्य अथवा लाभ होगा। इस लाभ को प्राप्त करने के दिन को एकादशी कहते हैं या उपवास भी कहते हैं। एकादशी का उपवास है अर्थात हम आज उपवास कर रहे हैं। हम आज भगवान के साथ रहेंगे अथवा भगवान के निकट रहेंगे या भगवान के और अधिक निकट पहुंचेंगे।हम आज के दिन निकटतम नहीं तो निकटतर तो पहुंचेंगे । यह उपवास कैसे होगा? भगवान का सानिध्य या निकटता कैसे प्राप्त होगा? हरि! हरि ! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। करने से हमें भगवान के सानिध्य का लाभ होगा अथवा भगवान् का कुछ साक्षात्कार या अनुभव होगा। भगवान के सानिध्य से ही भगवद् साक्षात्कार या अनुभव होता है और भगवान के साथ हमारा संबंध स्थापित होता है। हरि! हरि! इस प्रकार एकादशी माधव तिथि अथवा भक्ति की जननी बन जाती है। दूसरे शब्दों में हम एकादशी के दिन अधिक श्रवण व कीर्तन करते हैं। श्रवण भी भक्ति है और कीर्तन भी भक्ति है। एकादशी के दिन हम श्रवण और कीर्तन नामक भक्ति करते हैं। तत्पश्चात जिसका परिणाम विष्णु स्मरणम् होता है। कृष्णस्य शरणम, हो सकता कि राम शरणम। मैंने शरणम कहा क्या, मुझे स्मरणम् कहना था शरणम से स्मरणम् भी होता ही है। विष्णु स्मरणम् से उपवास हो गया। भगवान् का निकट सानिध्य करना अर्थात उपवास हुआ। एकादशी के दिन हमारा अधिक से अधिक श्रवण कीर्तन होना चाहिए। अधिक श्रवण कीर्तन के लिए फिर परिस्थितियां भी अनुकूल बन जाती हैं। जैसे जब हम कुछ भी नहीं खाते हैं या कम खाते हैं और अन्न तो खाते ही नहीं, बस हवा ही खाते हैं। कुछ भक्त निर्जला एकादशी करते हैं , वे जल का पान भी नहीं करते। वह केवल हवा खाते हैं। शरीर के लिए हवा ठीक है। यह शरीर के लिए हवा हुई और शरीर के लिए अन्न, पानी और हवा होता है। अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः | यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। ( श्री मद् भगवतगीता ३.१४) अनुवाद: सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है। भगवान् कृष्ण भगवतगीता में कहते हैं अन्नाद्भवति भूतानि हम अन्न ग्रहण करेंगे तो हम जिएंगे या हम बनेंगे। हमारा शरीर बनेगा। हमारे शरीर का पालन व पोषण होगा। शरीर की वृद्धि या विकास भी कहो। अन्नाद्भवति भूतानि वैसे अन्न के साथ जल भी आता ही है। फिर हवा भी है। हम एकादशी के दिन इनका कम प्रयोग करते हैं। अन्न का तो प्रयोग करते ही नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि कुछ लोग फलाहार ही करते हों या दुग्ध पान ही करते हों या केवल जलपान ही करते हों या इसमें से कुछ भी पान नहीं करते हों। सिर्फ हवा ही ग्रहण करते हों। हरि! हरि! हम इनसे थोड़े फ्री हो जाते हैं। इन सब का पान कम करने से हम इस शरीर की मांगों अथवा डिमांडस की पूर्ति में फंसे नहीं रहते। जैसे फिर रसोई बनाओ फिर यह करो,वह करो, फिर उसका भोजन करो। कुकिंग में कुछ समय बीता। फिर भोजन में कुछ समय बीता। अब भोजन अपलोड किया तो डाउनलोड भी शुरू होता है। तत्पश्चात मल मूत्र के विसर्जन के लिए दौड़ो भागो, उसमें समय बीत जाता है। यह सब कम करने के लिए अर्थात हम उपवास कर रहें हैं कि हम अन्न नहीं खाएंगे, हम यह नहीं खाएंगे, हम वह नहीं खाएंगे। हम थोड़े अधिक फ्री हो जाते हैं। फ्री किसके लिए? श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम। इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवलक्षणा। क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येअ्धीतमुत्तमम्। ( श्री मद् भागवतम् ७.५.२३-२४) अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज- सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरण कमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। हम जो अपने शरीर की इतनी सारी केयर करते रहते हैं, उसमें ही हमारा सारा समय व्यतीत होता है, अथवा बीत जाता है, उपवास के समय हम उसकी बजाय अपना ध्यान आत्मा में लगाते हैं। आत्मा के पालन पोषण में लगाते हैं ताकि हम आत्मा के महात्मा बन जाए। वैष्णवों के लिए वैसे हर दिन खास होता है लेकिन एकादशी के दिन आत्मसाक्षात्कार या भगवद साक्षात्कार या आत्मा के लिए विशेष प्रयास होता है ताकि हम आत्माराम बन सकें। आत्मा को आराम मिले। हम आत्मा का ख्याल करते हैं। आत्मा की और ध्यान देते हैं कि मैं आत्मा हूं। यह आत्मा (जीव) कृष्णदास, ए विश्वास, कर्’ ले त’ आर दुःख नाइ (कृष्ण) बल् बे जबे, पुलके ह’बे झ’र्बे आँखि, बलि ताइ।। ( वैष्णव भजन - भक्ति विनोद ठाकुर) अनुवाद:- परन्तु यदि मात्र एकबार भी तुम्हें यह ज्ञान हो जाए कि 'मैं कृष्ण का दास हूँ' तो फिर तुम्हें ये दुःख-कष्ट नहीं मिलेंगे तथा जब 'कृष्ण' नाम उच्चारण करोगे तो तुम्हारा शरीर पुलकित हो जाएगा तथा आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगेगी। हम अपने विश्वास को दृढ़ करते हैं कि हम आत्मा है। हम मेरी आत्मा तो नहीं कहते अपितु मैं आत्मा हूं! मेरी आत्मा कहेंगे तो एक आत्मा हुई और उसका स्वामी मैं हुआ। ऐसा तो नहीं है। अतः मेरी आत्मा नहीं अपितु मैं आत्मा हूं! मेरा शरीर अहम फिर मम हो जाता है और अहंकार के साथ ममता भी आ जाती है। लेकिन झूठा अहंकार नहीं रहता है, तब बचता क्या है, मैं दासौ अस्मि या ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥७॥ ( श्री मद् भगवतगीता १५.७) अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । तब हम आत्मा बचते हैं। मैं आत्मा हूं, मेरी आत्मा नहीं! मैं आत्मा हूं मेरा शरीर, मेरा यह, ममता है। किंतु मैं आत्मा हूं। आत्मा की क्या मांग है अर्थात आत्मा क्या चाहती है। वैसे शरीर क्या चाहता है? मन क्या चाहता है? इंद्रिया क्या चाहती हैं? इसका विचार जीवन भर चलता रहता है। दिन भर चलता रहता है, रात भर चलता रहता है। कुछ शरीर की डिमांड( मांग) मन की मांग अथवा मनोरंजन करो। मन का रंजन करो। इंद्रियों का तृप्ति करो। इन्द्रिय तर्पण में व्यस्त रहो। लाइक दिस.. इस संसार में हमारे जन्म से लेकर मृत्यु के समय तक यही लाइफ है। यही बद्ध जीव का जीवन है। अपने शरीर, मन और बुद्धि ( इसकी भी कोई मांग है, बौद्धिक इनकी मांग होती है) और इन्द्रियाँ की पूर्ति में आग लग जाती है सेंसेस ऑन फायर उनको बुझाते बुझाते ... ( विषय बदल रहा है) आग को बुझाना है तो लेकिन अगर हम केरोसिन, पेट्रोल या तेल डालते रहेंगे तो आग बुझने वाली नहीं है। आग भड़केगी और प्रखर ज्योति निकलेगी और बनेगी। हरि हरि इसका कोई अंत नहीं है अर्थात शरीर, मन, इंद्रियों की मांगों का कोई अंत नहीं है। पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,पुनरपि जननी जठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे,कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥२१॥ ( भज गोविंदम् शंकराचार्य) भावार्थ : बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन कराने वाले इस संसार से पार जा पाना अत्यन्त कठिन है, हे कृष्ण मुरारी कृपा करके मेरी इस संसार से रक्षा करें। हर जन्म में यही होता रहा है। हमनें हर जीवन में यही किया है और कुछ नहीं किया है। आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ ( हितोपदेश) अनुवाद:- मानव व पशु दोनों ही खाना, सोना, मैथुन करना व भय से रक्षा करना इन क्रियाओं को करते हैं परंतु मनुष्यों का विशेष गुण यह है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन का पालन कर सकते हैं। इसलिए आध्यात्मिक जीवन के बिना, मानव पशुओं के स्तर पर है। हम आहार, निद्रा, भय, मैथुन में लगे रहते हैं। हमारा सारा जीवन आहार, निद्रा, भय, मैथुन इन चार कार्य में ही बीत जाता है। हम अपने शरीर, मन तथा इंद्रियों के लिए जीते रहते हैं और उनके दास बने रहते हैं। हम उनके गोदास बने हुए हैं। हम उनके गोस्वामी बनने की बजाय गोदास बन गए हैं। हरि! हरि! एकादशी के दिन हम विशेष प्रयास करते हैं कि हमारी आत्मा की जो डिमांड अथवा मांग है या आत्मा की जो पुकार है।..... आत्मा को क्या चाहिए होता है? क्या चाहिए? हरि! हरि! आत्मा को केवल भगवान् चाहिए। जैसे मछली को क्या चाहिए होता है? मछली को जल की आवश्यकता होती है। जल ही उसका जीवन होता है। वे जल में ही जीवित रहती हैं। वह जल के बिना जी नहीं सकती। जैसे मछली को सबसे अधिक आवश्यकता जल अथवा पानी की होती है। वैसे ही आत्मा की मांग भगवान है। कृष्ण भावना का जीवन ही आत्मा है अन्यथा मरना ही है। यदि मछली को जलाशय प्राप्त नहीं होता तो मछली को मरना निश्चित ही है। उसी प्रकार यदि आत्मा को कृष्णभावना का जीवन प्राप्त नहीं होगा तो मरना ही होगा। कृष्णभावनामृत के अंदर बहुत सारी सेवाएं हैं और यही सब आत्मा चाहती है। हरि! हरि! एकादशी के दिन अपने श्रवण कीर्तन को और बढ़ाओ। वैसे हम सुन रहे हैं और रिपोर्ट्स भी आ रही हैं। इस कॉन्फ्रेंस में ज्वाइन करने वाले आप सभी में से कई भक्त एकादशी के दिन अधिक जप करते हैं। हर एकादशी पर कई सारे भक्त 25 माला, कोई 32 राउंड्स और मायापुर और अन्य कई स्थानों में 64 राउंड्स भी करने वाले कई सारे भक्त अभ्यस्त हुए हैं। इसलिए अधिक से अधिक से अधिक जप कीजिये। और क्या करें? कम खाइए और जप अधिक कीजिए। इस शरीर, मन ,इंद्रियों की डिमांड को छोड़ दो। उनकी मांगों की ओर ज्यादा ध्यान मत दीजिए या उन्हें कम से कम खिलाइए पिलाइए। कुछ पूर्ति करो परंतु अधिक समय आत्मा को खिलाइए और आत्मा को पिलाइए। हरि! हरि! आप हरे कृष्ण महामंत्र के जप के साथ या हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन के साथ भागवतम् का भी श्रवण कीर्तन या अन्य कृष्ण कथाएं या भगवतगीता या चैतन्य चरितामृत या कृष्ण कथा सुन सकते हो या पढ़ सकते हो। यह साधु संग करने का भी दिन है। 'साधु सङ्ग', 'साधु सङ्ग'- सर्व शास्त्रे कय। लव मात्र साधु- सङ्गे सर्व- सिद्धि हय।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.५४) अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है। आप साधु सङ्ग प्राप्त करो। देखो कहां मिलता है? जब हम श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ पढ़ते हैं तो हमें प्रभुपाद का सङ्ग प्राप्त होता है या नहीं? यस! अद्वैत आचार्य समझ रहे हो कि यह बहुत साधारण तथ्य (सिंपल फैक्ट) है। श्रील प्रभुपाद ने ग्रंथों को लिखा नही हैं अपितु उन्होंने ग्रंथों को कहा है। श्रील प्रभुपाद ग्रंथों का तात्पर्य डिक्टाफोन मशीन में कहते थे और रिकॉर्डिंग किया करते थे। तत्पश्चात उस रिकॉर्डिंग से उनके शिष्य ट्रांसक्राइब कर टाइप किया करते थे। टाइपिंग से फिर लेआउट, डिजाइन एंड प्रिंटिंग और प्रिंट होने के पश्चात ग्रंथ आपके हाथ में पहुंचा है। श्रील प्रभुपाद की जय! आप जिस समय गीता, भागवतम् या चैतन्य चरितामृत के भाषान्तर और तात्पर्य पढ़ रहे होते हो तब उस समय आप श्रील प्रभुपाद को सुन रहे होते हो।श्रील प्रभुपाद डिक्टाफोन मशीन में कह कर भाषांतर करते थे और अब आप उन्ही ग्रंथों को पढ़ते हो। प्रभुपाद् के ग्रंथों में प्रभुपाद को सुनते हो। तब उस समय आपको श्रील प्रभुपाद का सन्निध्य प्राप्त होता है। लव मात्र साधु- सङ्गे सर्व- सिद्धि हय । तब आप पहुंचे हुए सिद्ध महात्मा बनोगे। प्रभुपाद ने आत्मसाक्षात्कार या भगवद साक्षात्कार का विज्ञान समझाया है। प्रभुपाद ने श्रील व्यासदेव की और से समझाया है। यह विज्ञान भगवान् द्वारा दिया हुआ है। हरि! हरि! अपने श्रवण कीर्तन को बढ़ाइए। श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम। इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवलक्षणा। क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येअ्धीतमुत्तमम्। ( श्री मद् भागवतम् ७.५.२३-२४) अनुवाद :- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज- सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरण कमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अधिक श्रवण कीर्तन होगा तत्पश्चात अधिक अधिक विष्णु का स्मरण भी होगा। और एकादशी भक्ति जननी बन जाएगी अर्थात एकादशी भक्ति की जननी हो गयी। आपको भक्ति प्राप्त होगी। आपको प्रेम प्राप्त होगा या प्रेममयी सेवा प्राप्त होगी। हरि! हरि! जो हम कह रहे हैं व स्मरण दिला रहे हैं, आप सब करो तत्पश्चात औरों से भी करवाओ। उदार बनो और इस सुनी समझी व ग्रहण की हुई बातों या विचारों अर्थात भागवत तत्व विज्ञान या श्रवण कीर्तन को आप औरों तक पहुंचाओं। हरि! हरि! नामे रुचि जीवे दया, वैष्णव सेवा। वैष्णवों की सेवा कीजिए। वैष्णव के चरणों में अपराध मत कीजिए। ऐसा भी कुछ संकल्प लीजिए। सबसे अच्छा है कि वैष्णवों की सेवा ही करो और अपराध करना छोड़ दो। अपराध करने के धंधे छोड़ दो। हम कहते ही रहते हैं एकादशी के दिन आप थोड़ा सिंहावलोकन करो। लास्ट एकादशी से आज इस एकादशी तक आपने क्या किया और क्या नहीं किया, क्या सही किया या क्या गलत किया। क्या अनुचित क्या उचित रहा। क्या विधि निषेध का पालन किया या नहीं किया और कैसे सुधारा जा सकता है। इस पर विचार करो । ऐसे कुछ संकल्प लो। प्रचार का भी विचार कीजिए और आचार करके विचार और प्रचार भी कीजिए। ठीक है। यही विराम देते हैं। हरे कृष्ण !

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29 August 2020 Become a master of your senses, not a servant Hare Krsna! Devotees from 806 locations are chanting with us on Zoom right now! Om namo bhagavate vasudevaya Śukadeva Gosvāmī's Katha is going on and it is the third day of his Katha today. It has already been said that his Katha didn't stop, it continued even during the night. Today is Ekadasi. mādhava-tithi, bhakti-jananī, jetane pālana kori kṛṣṇa-basati, basati boli', parama ādare bori Translation: The holy days like Ekadasi and Janmashtami are the mother of devotion for those devotees who respect them. Let the holy places of Krsna's pastimes be my places of worship, and bless me.[ Suddha Bhakata Carana Renu Song verse 2 by Bhaktivinoda Thakura] Ekadasi is Madhava Tithi, the day dear to Madhava. Ekadasi gives birth to Bhakti. On this day we observe fast, this is called Upvasa - up means near and vasa means to reside. When we say, ‘I am observing Upvasa,’ I mean I am going to reside close to Sri Krsna. We will get the association of the Lord. How to get the Lord's association? By chanting Hare Krishna sincerely we realize Krsna. We will establish the relationship with the Lord. Apart from chanting we also do more of hearing and kirtana. This results in visnoh smaranam, remembrance of the Lord, be it Visnu, Krsna, or Rama. When we get the association of the Lord then upvasa happens. To do more sravanam and kirtanam, we have to create favourable circumstances. This happens when we don't eat anything or eat less. On this day many devotees observe fasts on different levels, some give up grains, some give up food itself, some may even give up water and simply survive on air for one day. It is good. These are for the body. annad bhavanti bhutani parjanyad anna-sambhavah yajnad bhavati parjanyo yajnah karma-samudbhavah Translation: All living bodies subsist on food grains, which are produced from rain. Rains are produced by the performance of yajna [sacrifice], and yajna is born of prescribed duties.[BG 3.14] The growing and maintenance of the body subsists on food grains and water. But on Ekadasi, we try to give up these demands as much as possible. Some consume only fruit or only milk. Or some only consume air. When we decrease the demands of the body, we free ourselves for sravanam and kirtanam. When we engage in cooking and eating and once you eat you got to excrete. So this consumes time. Instead of spending time doing all this, we keep ourselves free from such activities which are merely for nourishing the body, we engage in activities that are for the nourishment of the soul. We take care of the soul. We give attention to our Atma. Nourish it especially on Ekadasi. We can move ahead on the path of becoming mahatma, great souls. We make sure that we are a soul and servant of Lord Krsna. We should not say, my soul. That means we are the swami of the soul. Then aham and mamata comes. When we get rid of false ego then we become Aham dasosmi... mamaivamso jiva-loke jiva-bhutah sanatanah manah-sasthanindriyani prakrti-sthani karsati Translation: The living entities in this conditioned world are My eternal, fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. [ BG 15.7] We have to think I am a soul. We have to give attention that what exactly the soul wants. We are fully engrossed in thinking of and then fulfilling the demands of our body, mind and senses. From womb to tomb we do the same. The time goes on to satisfy them. Our senses are on fire out of hunger for sense objects. If we feed the inflammable, then this fire is never going to subside. There is no end to their demands. Life after life we keep on doing this. We remain busy by eating, sleeping, defending, and mating. We have to be a Goswami, master of the senses and not Go-das, servant of the senses. On Ekadasi we try to fulfil the the demands of the soul. We are souls. We must think of what the soul wants. The soul only wants Krsna. It will not be happy anywhere else. Just like a fish wants water, and it cannot be happy anywhere in the world outside water. It will not survive. The soul wants to live a Krsna conscious life. We engage in more hearing and chanting, especially on Ekadasis. Increase it more. I am getting many reports that some or many of you have been chanting more on Ekadasis, some chant 25, some 32, or some even chant 64 rounds. This is good. Chant more and more and even more. Eat less on this day, feed the soul more. Also, increase hearing and kirtan along with Japa. Hear Krsna Katha from Srimad Bhagvatam, Caitanya-caritamrta or Bhagvad Gita. Do Sadhu sanga, an association of senior devotees. sādhu-saṅga’, ‘sādhu-saṅga’—sarva-śāstre kaya lava-mātra sādhu-saṅge sarva-siddhi haya Translation: The verdict of all revealed scriptures is that by even a moment’s association with a pure devotee, one can attain all success.[ CC Madhya 22.54] You can also get the association of Srila Prabhupada by reading his books. Srila Prabhupada recorded all the purports of his books and these recordings were transcribed and included in the books that you now get to read. That is listening to Srila Prabhupada. You are listening to what he said by reading it. You can attain all perfection by the association of such great devotees. You will become mahatma. Prabhupada explained the science on behalf of Srila Vyasadeva. This science has been given by the Lord. Increase chanting, singing, and hearing. This will automatically increase the remembrance of Krsna. Thus, Bhakti is born and then it thrives. And then when you are already practicing it, encourage others to do it, be magnanimous, and make others fortunate. Serve the Vaisnavas, pledge not to offend any devotees. Try to evaluate yourself fortnightly, ie. on every Ekadasi on the grounds of Krishna consciousness. Both achar and prachar should happen. I am going to stop here now. We have an announcement by Ekalavya Prabhu. This is regarding the World Holy Name Week so please stay connected.

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